देश ने जब उदारीकरण के रास्ते पर चलना तय किया, उसके ठीक बाद तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने सदन में जो भाषण दिया उसके पहले पैरे में उन्होंने कहा कि कृषि हमारा मुख्य सेक्टर है और इसे जब तक बिल्ड अप नहीं किया जाएगा देश की अर्थव्यवस्था किसी कीमत पर उन्नत नहीं हो सकेगी। लेकिन वे यह कहना भी नहीं भूले कि कृषि राज्य का विषय है और इसे विकसित करने में राज्य की भूमिका अधिक होगी। अगले पैरे में उन्होंने यह कहा कि इंडस्ट्री ग्रोथ की कितनी जरूरत है और इसके लिए क्या-क्या किए जाने चाहिए। लेकिन वे जानबूझकर यह कहने से बचे कि इंडस्ट्री भी राज्य का ही विषय है। उनके उस भाषण का यही निहितार्थ था कि केंद्र के लिए कृषि से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण इंडस्ट्री होगी। 18 साल बाद आज हालत यह है कि कृषि के अधिकतम रकबे को कारपोरेट खेती में तब्दील करने की पहल की जा रही है।
देश में कृषि की हालत आज बदतर है। 1997 से लेकर आज तक दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार जानबूझकर ऐसा माहौल रच रही है जिससे किसान खेती छोड़ें और उन्हें मजदूर में तब्दील कर दिया जाए। सरकार की कोशिश है कि चालू पंचवर्षीय योजना के अंत तक 40 फीसद किसान खेती से मुंह मोड़ लें। पिछले बजट में वित्त मंत्री ने देश में 1000 आईटीआई खोलने की बात कही। यह एक सोची समझी साजिश है ताकि आगे किसानों को खेती से निकाल मजदूर बनाने की प्रक्रिया आसान हो सके। लेकिन विश्व बैंक का एक आकलन देखिए। उसका कहना है कि 2015 तक भारत में गांव से शहर पलायन करने वाले लोगों की संख्या जर्मनी, फ्रांस और इंगलैंड की आबादी से दुगुनी यानी करीब 40 करोड़ होगी। अब सरकार यह बताए कि इस आबादी को रोजगार कौन देगा। आईटीआई के बूते क्या यह हो सकेगा? फिर हमारी जो नीतियां है वह शहरों से भी गरीबों को खाली करने की है। ऐसे में इस पूरी आबादी का क्या होगा। दरअसल हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं उसमें इस आबादी के लिए कोई जगह नहीं होगी? वे क्या करेंगे आ॓र उनकी हालत कितनी भयावह होगी यह बताना अभी संभव नहीं जान पड़ता।
उदारीकरण की नीतियों पर चलते हुए सरकार खाघ सुरक्षा आयात पर निर्भर बनाना चाहती है। वह चाहती है कि 2010 के अंत तक हम 30 फीसद फुड आयात करें। आज प्रधानमंत्री कारपोरेट कल्चर की अधिक बात करते हैं। वे जिस रास्ते पर देश को ले जा रहे हैं वह हमें ऐसे मुकाम पर पहुंचयगा जब खेती इंडस्ट्री पर निर्भर हो जाएगी। उदारीकरण के बाद आर्थिक गिरावट से बड़ी कोई चिंता नहीं रह गई है। शायद कोई दिन प्रधानमंत्री का ऐसा नहीं गुजरता जब वे किसी उघोगपति से बात नहीं कर रहे होते हैं। पानी, बीज, खाद सब चीजों से जुड़ी नीतियां कारपोरेटरों के पक्ष में है और किसानों के खिलाफ। वायदा कारोबार शुरू कर दिये जाने से किसानों को उनका वाजिब हक नहीं मिल पा रहा। किसान अब मंडी में अपने अनाज नहीं बेच पा रहे। कई राज्यों ने मंडी व्यवस्था से किनारा कर लिया है। अब किसानों को सीधे कारपोरेट कंपनियों को अपना उत्पाद बेचना पड़ रहा है। सरकार कमोडिटी एक्सचेंज, कांट्रेक्ट फार्मिंग, फुड रिटेल चेन जैसी व्यवस्था करना चाहती है। 1991 के बाद सारी सरकारों का रूझान यही रहा है कि मार्केट खेती को कंट्रोल करे और ऐसा हो भी रहा है।
स्वामीनाथन जैसे कृषि वैज्ञानिक भी स्पेशल इकानॉमिक जोन की तरह स्पेशल एग्रीकल्चर जोन यानी साज बनाने की बात कर रहे हैं लेकिन ऐसा करना भी कारपोरेट कृषि को आगे बढ़ाना ही होगा और इससे देश के किसानों का कोई भला नहीं होने वाला। हमारा 10 फीसद फुड प्रोडक्शन ट्रेड में जाता है। दुनिया में कुल अनाज व्यापार में हमारा हिस्सा 0.7 फीसद है। बड़े पैमाने पर साज का गठन हो भी जाए तो भी यह हिस्सेदारी 3 फीसद से अधिक नहीं हो सकती। दरअसल साज का असल फायदा न देश को मिलेगा और न किसानों को। सारा लाभ बस व्यापारी उठाएंगे। आज नक्सलवाद की जो व्यापाक प्रसार हो रहा है उसकी जड़ में सरकार की आर्थिक नीतियां ही हैं। सरकार ने जल, जंगल और जमीन तीनों को इस कदर तबाह किया है कि लोग बंदूकें उठा रहे हैं। 2004 में 161 जिले नक्सल प्रभावित थे आज यह संख्या 230 क्रास कर चुकी है। योजना आयोग का कहना है कि देश में 300 जिले ऐसे हैं जहां किसी न किसी रूप में आतंक राज है। जाहिर है यह सारी स्थिति इस आ॓र इशारा करती है कि हमारे विकास का मॉडल ठीक नहीं है। इसे कृषि आधारित होना चाहिए था। आज देश के अंदर में इंडिया और भारत के साथ मेनहटन की मौजूदगी भी है। यह मेनहटन देश के 100 से अधिक स्पेशाल जोन वाले हिस्से हैं जो रजवाड़े की तरह काम कर रहे हैं।
जहिर है यह स्थिति बदलनी होगी अन्यथा समस्याएं बढ़ेंगी। सबसे जरूरी यह है कि खेती को टिकाउ और इकानॉमिक बनाना होगा। सरकार को कंपनियों के हित में सोचना बंद करना चाहिए। यह बिलकुल संभव है। आंध्र प्रदेश के सीएमएसए यानी कम्युनिटी मैनेज्ड सस्टनेबल एग्रीकल्चर मॉडल से हमें सीख लेनी चाहिए। इसके तहत राज्य के 18 जिले में 3 लाख से अधिक किसान खेती कर रहे हैं। इस खेती के अंतर्गत कंपनियों के खाद, कीटनाशकों आदि का प्रयोग नहीं किया जाता। कुल मिलाकर कोई भी कृत्रिम और व्यवसायिक चीज नहीं अपनाई जाती। ऐसा होने पर भी न तो पैदावार में किसी किस्म की कमी आई है और न ही किसी किस्म के कीड़-मकोड़े का प्रकोप देखा गया है। इस मॉडल के तहत खरीफ में 14 लाख एकड़ और रबी में 20 लाख एकड़ भूमि पर खेती की गई। यह आंकड़ा बताता है कि इसका विस्तार हो रहा है। यहां के किसानों द्वारा स्वास्थय पर किये जाने वले खर्चे में भी 40 फीसद की कमी आई है। यहां के किसी भी गांव में आत्महत्या की कोई खबर नहीं आई है। कुल मिलाकर किसान पर्यावचरण और हेल्थ तीनों के लिहाज से यह कृषि अनुकूल है लेकिन सरकार इस मॉडल की बात नहीं करती, क्योंकि इससे उसकी जीडीपी नहीं बढ़ती। दिलचस्प चीज यह है कि इस मॉडल को लाने में वर्ल्ड बेंक का भी योगदान रहा है, किंतु ऐसा लगता है कि यह गलती से हो गया है, कारण अब वर्ल्ड बैंक भी इसकी बात नहीं करती।
(प्रवीण कुमार से बातचीत पर आधारित, राष्ट्रीय सहारा से साभार.)
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