वास्तविक आस्तित्वमान समाजवाद- जो मार्क्स का समाजवाद नहीं था और जिसकी संभावनायें अभी खुली हुई हैं- शायद असफल हो गगा है. लेकिन वास्तविक आस्तित्वमान पूंजीवाद- जो पूंजीवाद का मात्र एक ही संभावित प्रकार है- निश्चित तौर पर जिस तरह से बना था उसी तरह से नहीं सफल हो सका है. किसी भी व्यवहारिक निर्णय में पूंजीवाद हमारे समय में सबसे अधिक पतित है. एक और बात कि, पूंजीवाद उपलब्धियों के आकलन के सर्वाधिक वैधानिक कसौटी की सामाजिक व्यवस्था के रूप में; समाज में उपलब्ध वास्तविक तथा क्षमतावान संसाधनों द्वारा 'रोजगार की संपूर्णता' तथा 'रोजगार की अच्छाई' के संदर्भ में एक संभावना के बतौर पूरी तरह असफल हो चुका है. मानव इतिहास में इसके पहले समाज की उत्पादन संभावना तथा समाज की प्रगति/उपलब्धियों के बीच इतना विशाल अंतर कभी नहीं रहा जितना कि आज के पूंजीवाद के विकास की वर्तमान अवस्था में है. इस बात के साक्ष्य हैं कि तीन सफल औद्योगिक क्रांतियों की असाधारण उत्पादन क्षमता ने मनुष्यता का परित्याग कर दिया है तथा गरीबी और अशिक्षा, मैली कुचली झोपड़पट्टियों तथा पूंजीवादी विश्व के सबसे धनी देशों के लाखों से ज्यादा परिवारों तथा तीसरी दुनिया के गरीब देशों की परिधि तथा अर्धपरिधि में सिकुडी़ झोपड़ियों में भूख तथा दुर्दशा नें हज़ारों लाखों लोगों के जीवन को व्यर्थ बनाकर छोड़ दिया है. आज हमारे समय में तीसरी दुनिया निश्चित तौर पर पूंजीवाद के पतन का प्रतीक है........
जैसा कि पहले ही इशारा किया गया है कि इस दो असफलताओं के बीच एक अंतर है जिसे विशेष तौर पर ध्यान देना चहिए. समाजवाद कुछ समय के लिए असफल हुआ है लेकिन फिर भी मानवता को बचाए रखने तथा एक सुरक्षित दुनिया की आशा में तथा मानव जाति के जीवन मूल्य के लिए एक विकल्प के रूप में यह बचा हुआ है. इसे दोहराने की जरूरत है कि पूंजीवाद के अस्वीकार्य आर्थिक, नैतिक तथा पर्यावरणीय परिणाम, अपने यहां तथा विदेशों मे भी बर्बरता की ओर ले जाने वाली बेरोजगारी, गरीबी, असमानता को रोकने में असफलता, व्यवस्था का भटकाव या विशेष परिस्थितियों अथवा 'गलत' नीतियों द्वारा उत्पन्न 'नकारात्मक' प्रभाव नहीं है. यह सब पूंजीवाद के न सुधरने वाले तथा अनियंत्रित तंत्रजनित अथवा ढांचागत तर्क खुद व्यवस्था में निहीत शोषण तथा ध्रुवीकरण के तर्क के उत्पाद हैं. अतः ये प्रभाव, यद्यपि एक निश्चित दौर में कम होने तथा अन्य में बढ़ने के बावजूद, स्थायी हैं. इसलिए ये जरूरी रूप से ही असाध्य हैं. दुसरे शब्दों में हमारे समय में पूंजीवाद का पतन अपने लिए एक व्यवस्थित या संरचनागत जरूरत अथवा अपरिहार्यता लिए हुए है. बदले में, सोवियत संघ में समाजवाद की असफलता कोई व्यवस्थाजनित य संरचनागत मजबूरी नहीं लिए हुए थी. राजनीति निर्देशित अर्थव्यवस्था के कारण समाजवाद में, साधारणतया बाजार आधारित पूंजीवाद जैसे कोई ढांचागत तर्क अथवा 'कानून' नहीं होते. समाजवाद प्राथमिक रूप से सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच त्रुटियों, सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा गलत चुनाव कॆ कारण असफल हुआ. कम्युनिस्ट सत्ताओं (तथा यूरोप में सामजिक जनवादियों) की असफलता के प्रसंग में गैब्रियल कोल्को ने लिखा है कि "ऐसी स्थितियों में होते हुए भी समाज को मुक्त करने तथा उसके महत्वपूर्ण (साथ ही साथ स्थायी) ढंग से रूपांतरण करने में असफलता, उनकी विश्लेषणात्मक अक्षमता तथा ठहराव; उनके नेताओं तथा संगठन की सतत कमजोरी का प्रमाण है. यह वह यथार्थ है जिसने १९१४ के बाद अनगिनत देशों में सामाजिक जनवादी तथा साम्यावाद दोनों का सीमांतीकरण कर दिया जिसने पूंजीपति वर्ग तथा उसके सहयोगियों को, जो समाजवादी सत्ता द्वारा अपने कार्यक्रमों में सुधारों के छोटे हिस्सों के क्रियान्वयन के बगैर कभी भी जीवित नहीं रह सकते थे, सदियों की समस्या से मोहलत प्रदान कर दिया. जबकि इसने दूसरी तरह से लाठी को बहुत दूर झुका दिया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवाद की असफलता निश्चित तौर पर एक मानवीय असफलता थी जो कि इसके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं था. अगली बार जब कहीं और जब कभी कोई प्रयास किया जायेगा इस असफलता द्वारा सीखे गए सबक मदद करेंगे. इसलिए समाजवाद पूंजीवाद का न सिर्फ एक मात्र विकल्प है बल्कि मानवता के लिए यह एक वास्तविक पसंद हैं......
सोवियत संघ में जैसा समाजवाद निर्मित किया गया था वह असफल हो गया. अन्य जगहों पर पूंजीवाद भी पतित हो गया है. समाजवाद, जिसको कि हम जानते हैं तथा पूंजीवाद ,जिस तरह आस्तित्वमान है दोनों कि हमारे समय में असफलता स्पष्ट करती है कि पूंजीवाद से समाजवाद/साम्यवाद में संक्रमण के मामले में महायुगीन संक्रमण की समस्या और समाजवाद के भविष्य के सवाल को हम अच्छी तरह समझ सकते हैं. दूसरे शब्दों में, हम ऐसी स्थिति में हैं जहां पुराना अपनी सकारात्मक संभावनाओं को समेटे है तह्ता नए में जन्म से ही कुछ समस्याएं होगीं. एक दूसरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ग्राम्शी ने लिखा है कि 'पुराना अपनी मौत मर रहा है और नवीन जन्म नहीं ले रहा है; इस अराजक काल में बडे़ विकृत किस्म के लक्षण दिखाई दे रहे हैं'. यह विकृत लक्षण हैं, आज के सभी उन्नत तथा कम उन्नत पूंजीवादी देशों में, पूंजीवादी सभ्यता के किसी गहरे संकट से ज्यादा, आज हमारे समय में पूंजीवाद के अनिवार्य पतन के, कम या आधिक मात्रा में, लक्षण दिखाई दे रहे हैं.......
आज हम जो कुछ देख रहे हैं वह एक युग का अंत है, पूंजीवाद से संक्रमण का युग. एक असमान दुनिया के गठन और पुनर्गठन के केंद्र के रूप में पूंजीवाद के विस्तार के इन पांच सौ विषम वर्षों में, आर्थिक मजबूती और लाभ कि परिधि तथा अर्धपरिधि के संदर्भ में पूंजीवाद अपने स्थायी अंतर्विरोधों को दबाने में सक्षम था लेकिन यह सब भविष्य में अपनी जीत के लिए स्थितियों को बदतर बनाए बिना नहीं हो सकता था. अब आगे की विस्तार की संभावना के धीरे धीरे खतम होने के साथ ही इस अंतर्विरोधों को पहले जैसे दबाना कठिन है. लोगों के लिए वास्तविक विध्वंसक परिणामों के साथ अधिक आक्रामक हो कर वे जो घोषणाएं कर रहे हैं वह खुद पूंजीवाद के वर्चस्व के युग को दर्शाती हैं. अपने सबसे अच्छे दिनों में भी पूंजीवाद, शुम्पीटर के प्रसिद्ध मुहावरे का प्रयोग करें तो 'रचनात्मक विध्वंस' की एक प्रक्रिया है.जैए ही पूंजी में बढो़त्तरी होती है, प्रतियोगी शक्तियों को जीवित रहने के लिए प्रतियोगी होना पड़ता है तथा जो रचनात्मक नहीं हो पाते विध्वंस को अंजाम देते हैं. बाजार तथा प्रतियोगिता की दुकान में विजेता, पराजितों से प्रतिद्वंदिता करते हैं तथा रचना तथा विध्वंस एक तथा एक समान हो जाते हैं. पराजित, यद्यपि वैयक्तिक इकाई या निरपेक्षतः अकुशल नहीं होते. वास्तविक दुनिया में पराजित जनता होती है और कई बार पूंजीपति भी हो सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत और सामुदायिक तौर पर अक्सर श्रमिक लोग ही होते हैं. 'रचनात्मक विध्वंस' का मतलब है- वास्तविक श्रमिकों की बेरोजगारी,समुदायों की निराश्रयता, पर्यावरण का विनाश तथा जनता की शक्तिहीनता. पूंजीवाद के रचनात्मक विध्वंस का का विनाशकारी पहलू अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है ऐतिहासिक 'रेजन दि एत्रे' तथा बतौर उत्पादन प्रणाली के पूंजीवाद की न्यायसंगतता एकबारगी खत्म हो गई है तथा अब हम वैधानिक तौर पर यह कह सकते हैं कि पूंजीवाद अपने समय से ज्यादा, अपनी ऐतिहासिक वैधानिकता के काल से ज्यादा समय तक जीवित है.
पूंजीवाद की उपलब्धियां अब पूरी तरह से अतीत की हो चुकी हैं और इसका भविष्य सिर्फ मानवता के विध्वंस का ही वादा करता है. कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा है कि वर्ग संघर्ष 'या तो व्यापक तौर पर सामाजिक क्रांतिकारी पुनर्स्थापना में या फिर संघर्षरत वर्गों की आपसी बर्बादी से समाप्त होता है. बीसवीं सदी के महान वर्ग संघर्ष का परिणाम निश्चित तौर पर 'समाज की क्रांतिकारी पुनर्स्थापना' नहीं है. मार्क्स और एंगेल्स ने जिसे 'संघर्षरत वर्गों की सामान्य बर्बादी' कहा है वह पहले से ही समाज में हो रही है. अर्थव्यवस्थाएं हर जगह कसाईखाना बन गई हैं; लाचारी, गरीबी, धन की कमीं तथा संसाधनों की विलासितापूर्ण बर्बादी; कानून तथा व्यवस्था के व्यापक विध्वंस, मूर्खतापूर्ण क्षेत्रीयता तथा नस्लीय विवाद, देशों के बीच अथवा देशों के भीतर रोजमर्रा के नए युद्ध, जनसंहारक हथियारों के प्रसार तथा वैश्विक पैमाने पर आतंकवाद का खतरा, सब कुछ निगल जाने वाले पर्यावरणीय संकट, निकट भविष्य में ऐतिहासिक तौर पर बहुत वास्तविक संदर्भों में यह सब संघर्षरत वर्गों से ज्यादा 'समान बर्बादी के बिंदु हैं. पूंजीवाद का युग शायद अच्छी तरह से 'मानवता के संपूर्ण उन्मूलन' में ही खत्म हो जैसा कि मार्क्स द्वारा १८४५ में ही संभावना व्यक्त की गई थी. जिस परिप्रेक्ष्य को बाद मे रोजा लुक्जमबर्ग ने 'समाजवाद या बर्बरता' नामक उक्ति में व्यक्त किया. जिस खतरे को हम महसूस कर रहे हैं उसके संदर्भ में रोजा लुक्जमबर्ग के कथन को सुधारकर मेस्ज़रोज़ ने कुछ जोड़ते हुए कहा कि 'समाजवाद या बर्बरता', "अगर हम भाग्यवान हैं तो बर्बरता"--पूंजी के विनाशकारी विकास का अंतिम समायोजन मानवता का उन्मूलन है. ऐसी नियति 'मानवता का उन्मूलन' पूंजीवाद के अनियंत्रित धन बटोरने के तर्क में ही अंर्तनिहीत है. यह बिल्कुल ठीक कहा गया है कि पूंजीवाद के बारे में यह सच नही है कि 'इतिहास का अंत' हो गया है, जैसा कि बुर्जुवा विचारक हमें मानने के लिए कहते हैं, बल्कि इसका निरंतर आस्तित्व 'मनुष्य के इतिहास का' वास्तव में अंत कर देगा.....
पहले जैसा बताया गया है कि, चीजों के विस्तृत दृष्टि को लेकर, वर्तमान समय की पराजय तथा समाजवाद की वापसी उस उतार चढा़व की उपयुक्त दृष्टि है जो पूंजीवाद से समाजवाद में महायुगीन संक्रमण से अपरिहार्य तौर पर जुडी़ है......बीसवीं शताब्दी वैश्विक पूंजीवाद द्वारा दुनिया भर में संपूर्ण वर्चस्व के साथ शुरु हुई थी. तब मार्क्सवादी विश्लेषण के, और खुद मार्क्स के पूर्वानुमान के मुताबिक बीसवीं सदी में - प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत यूरोपीय क्रांति (जिसमें सिर्फ रूस की क्रांति ही कायम रह पाई), द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप में और फिर चीन, कोरिया, क्यूबा, वियतनाम, और हर जगह पूंजीवादी व्यवस्था के लगभग एक तिहाई आबादी और परिक्षेत्र में समाजवादी क्रांतियां संपन्न हुईं. पूंजीवाद की परिसीमा में समाजवाद जड़ें नहीं जमा सकता था जैसा कि पूंजीवाद ने सामंतवाद के भीतर किया. पूंजीवाद द्वारा प्रदत्त भौतिक आधारों पर बेहतर ढंग से निर्मित यह समाज की एकदम एक नई शुरुआत है, लेकिन जिन गरीब तथा पिछडे़ देशों में समाजवाद के निर्माण की ये कोशिशें हुई वहां ये आधार मुश्किल से ही मौजूद थे.. जो सबसे कमजोर तैयारी मे थे यह उनका कार्यभार था फिर भी इन देशों ने इस निर्माण के लिए संघर्ष किया तथा अफ्रीका व अन्य जगहों पर भी मार्क्सवाद व समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध आंदोलनों तथा क्रांतिकारी सत्ताओं का उदय हुआ. तथा पूंजीवाद तथा क्रांति के बाद समाजवाद की स्थापना के बीच लंबे समय तक जो प्रतिद्वंदिता रही वह अब बंद हो गई तथा उसका अचानक अंत हो गया. पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं के बाद, आने वाला भविष्य पूंजीवाद से संबंधित लगने लगा था लेकिन ऐसे परिप्रेक्ष्य सापेक्षतया नए हैं. कई सदियों से यह धारणा बहुत दूर थी कि पूंजीवाद तीसरी सहस्त्राब्दी तक बना रहेगा. लेकिन क्रांति पश्चात की प्रतिस्थापनाएं दिखाती हैं कि समाजवाड दूसरी सहस्त्राब्दी मे अंतिम दिनों में ही असफल हो गया. यद्यपि यह पहले दृष्टिकोण की समाप्ति नहीं है. समाजवाद का सोवियत प्रयोग असफल हो गया क्यूंकि वस्तुगत तथा आत्मगत दोनों तरह की स्थितियां इसके प्रतिकूल थीं. प्रारंभ में आर्थिक पिछडा़पन, फिर आंतरिक वर्गयुद्ध तथा सशस्त्र और निरस्त्र विदेशी हस्तक्षेप तथा वैश्विक पूंजीवाद के निरंतर प्रयासों ने समाजवाद के निर्माण में हर सफलता को बाधा पहुंचाया. इस राह के निर्धारक तत्व, अपर्याप्त तथा अक्सर ही गलत सिद्धांत थे जिन्होंने इस प्रयोग तथा कमजोर राजनीतिक नेतृत्व को दिशा निर्देश अथवा गलत दिशा निर्देश दिया. लेकिन जो जानना सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि जिस के लिए भी प्रयास हुए और जो भी कुछ असफल हुआ वह समाजवाद नहीं था बल्कि समाजवाद निर्माण के लिए पहला गंभीर प्रयास था. समाजवाद तथा साथ ही साथ क्रांति की उपलब्धियों के उद्देश्यों का जिन कारणों से जन्म हुआ वह अभी भी पहले से ज्यादा मौजूद हैं. इसे मानने का कोई कारण नही है कि प्रभुत्वशाली पूंजीवाद को हमेशा की ही तरह आश्चर्यचकित कर देने वाली नई क्रांतियां लंबे दिनों तक नहीं होंगी तथा समाजवाद के निर्मान के नए प्रयास नहीं किए जायेंगे. और इस बात को मानने के कई कारण हैं कि अनूकूल परिस्थितियों, ज्यादा समृद्ध सिद्धांत तथा बेहतर राजनीतिक नेतृत्व में भी ऐसे प्रयास सफल नही होगें......
यहां पूंजीवाद के उद्भव और विकास पर एक निगाह डालना काफी शिक्षाप्रद होगा. विद्वानों का मत है कि मध्यकाल के दिनों में पूंजीवाद अपनी गलत शुरुआत के बावजूद एक नहीं बल्कि कई घोषणाओं/उम्मीदों को समेटे हुए था. लेकिन विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रहने की ताकत की कमीं के कारण तथा उस दौरान मुख्यतः सामंती वातावरण के कारण कमजोर तथा विभाजित था. सामंती वातावरण से घिरा, आकार लेता पूंजीवाद आगे बढ़ने में असफल रहा. यह तब तक नहीं था जब तक कि बाद की सदियों में एक नया संयोग नहीं आया कि फुटकता पूंजीवाद, जिसने अपने पहले के विफल प्रयासों से लाभान्वित होकर जडे़ जमाया तथा अपने शत्रुओं को धराशायी करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली बनकर उभरे तथा आगे बढ़ सके, और अंततः यह प्रकट हुआ जैसे कि इग्लैंड तथा अन्य अटालांटिक समाजों में हुआ. एक बार उदीयमान होने के बाद सामंतवाद से संघर्ष लगातार जारी था, एक ऐसा संघर्ष जो प्रभुत्व के लिए दो वास्तविक आस्तित्वमान सामाजिक संरचनाओं के बीच था. यह संघर्ष राज्य सत्ता (उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार) तथा अपने हितों तथा विचारों के अनुसार समाज को संगठित करने के अधिकार के लिए था. इससे भी ज्यादा यह एक ऐसी प्रक्रिया का विस्तार था जिसमें एक नए सामाजिक ढांचे ने वैचारिक तथा आर्थिक दोनों तरह के अविवादित प्रभुत्व के लिए खुद को तैयार करने में पर्याप्त समय लिया. इसीलिए पूंजीवा हमारे समय में वैश्विक वर्चस्व के तंत्र के रूप में उपज सका तथा विकसित हुआ. जब तक कि इसमें छेद करने के लिए समाजवाद ने अपना पहला प्रयत्न नहीं किया, एक ऐसा प्रयत्न जो अभी असफल हो गया.....
जैसा कि पहले ही इशारा किया गया है कि इस दो असफलताओं के बीच एक अंतर है जिसे विशेष तौर पर ध्यान देना चहिए. समाजवाद कुछ समय के लिए असफल हुआ है लेकिन फिर भी मानवता को बचाए रखने तथा एक सुरक्षित दुनिया की आशा में तथा मानव जाति के जीवन मूल्य के लिए एक विकल्प के रूप में यह बचा हुआ है. इसे दोहराने की जरूरत है कि पूंजीवाद के अस्वीकार्य आर्थिक, नैतिक तथा पर्यावरणीय परिणाम, अपने यहां तथा विदेशों मे भी बर्बरता की ओर ले जाने वाली बेरोजगारी, गरीबी, असमानता को रोकने में असफलता, व्यवस्था का भटकाव या विशेष परिस्थितियों अथवा 'गलत' नीतियों द्वारा उत्पन्न 'नकारात्मक' प्रभाव नहीं है. यह सब पूंजीवाद के न सुधरने वाले तथा अनियंत्रित तंत्रजनित अथवा ढांचागत तर्क खुद व्यवस्था में निहीत शोषण तथा ध्रुवीकरण के तर्क के उत्पाद हैं. अतः ये प्रभाव, यद्यपि एक निश्चित दौर में कम होने तथा अन्य में बढ़ने के बावजूद, स्थायी हैं. इसलिए ये जरूरी रूप से ही असाध्य हैं. दुसरे शब्दों में हमारे समय में पूंजीवाद का पतन अपने लिए एक व्यवस्थित या संरचनागत जरूरत अथवा अपरिहार्यता लिए हुए है. बदले में, सोवियत संघ में समाजवाद की असफलता कोई व्यवस्थाजनित य संरचनागत मजबूरी नहीं लिए हुए थी. राजनीति निर्देशित अर्थव्यवस्था के कारण समाजवाद में, साधारणतया बाजार आधारित पूंजीवाद जैसे कोई ढांचागत तर्क अथवा 'कानून' नहीं होते. समाजवाद प्राथमिक रूप से सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच त्रुटियों, सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा गलत चुनाव कॆ कारण असफल हुआ. कम्युनिस्ट सत्ताओं (तथा यूरोप में सामजिक जनवादियों) की असफलता के प्रसंग में गैब्रियल कोल्को ने लिखा है कि "ऐसी स्थितियों में होते हुए भी समाज को मुक्त करने तथा उसके महत्वपूर्ण (साथ ही साथ स्थायी) ढंग से रूपांतरण करने में असफलता, उनकी विश्लेषणात्मक अक्षमता तथा ठहराव; उनके नेताओं तथा संगठन की सतत कमजोरी का प्रमाण है. यह वह यथार्थ है जिसने १९१४ के बाद अनगिनत देशों में सामाजिक जनवादी तथा साम्यावाद दोनों का सीमांतीकरण कर दिया जिसने पूंजीपति वर्ग तथा उसके सहयोगियों को, जो समाजवादी सत्ता द्वारा अपने कार्यक्रमों में सुधारों के छोटे हिस्सों के क्रियान्वयन के बगैर कभी भी जीवित नहीं रह सकते थे, सदियों की समस्या से मोहलत प्रदान कर दिया. जबकि इसने दूसरी तरह से लाठी को बहुत दूर झुका दिया लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि समाजवाद की असफलता निश्चित तौर पर एक मानवीय असफलता थी जो कि इसके बारे में कुछ भी अपरिहार्य नहीं था. अगली बार जब कहीं और जब कभी कोई प्रयास किया जायेगा इस असफलता द्वारा सीखे गए सबक मदद करेंगे. इसलिए समाजवाद पूंजीवाद का न सिर्फ एक मात्र विकल्प है बल्कि मानवता के लिए यह एक वास्तविक पसंद हैं......
सोवियत संघ में जैसा समाजवाद निर्मित किया गया था वह असफल हो गया. अन्य जगहों पर पूंजीवाद भी पतित हो गया है. समाजवाद, जिसको कि हम जानते हैं तथा पूंजीवाद ,जिस तरह आस्तित्वमान है दोनों कि हमारे समय में असफलता स्पष्ट करती है कि पूंजीवाद से समाजवाद/साम्यवाद में संक्रमण के मामले में महायुगीन संक्रमण की समस्या और समाजवाद के भविष्य के सवाल को हम अच्छी तरह समझ सकते हैं. दूसरे शब्दों में, हम ऐसी स्थिति में हैं जहां पुराना अपनी सकारात्मक संभावनाओं को समेटे है तह्ता नए में जन्म से ही कुछ समस्याएं होगीं. एक दूसरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ग्राम्शी ने लिखा है कि 'पुराना अपनी मौत मर रहा है और नवीन जन्म नहीं ले रहा है; इस अराजक काल में बडे़ विकृत किस्म के लक्षण दिखाई दे रहे हैं'. यह विकृत लक्षण हैं, आज के सभी उन्नत तथा कम उन्नत पूंजीवादी देशों में, पूंजीवादी सभ्यता के किसी गहरे संकट से ज्यादा, आज हमारे समय में पूंजीवाद के अनिवार्य पतन के, कम या आधिक मात्रा में, लक्षण दिखाई दे रहे हैं.......
आज हम जो कुछ देख रहे हैं वह एक युग का अंत है, पूंजीवाद से संक्रमण का युग. एक असमान दुनिया के गठन और पुनर्गठन के केंद्र के रूप में पूंजीवाद के विस्तार के इन पांच सौ विषम वर्षों में, आर्थिक मजबूती और लाभ कि परिधि तथा अर्धपरिधि के संदर्भ में पूंजीवाद अपने स्थायी अंतर्विरोधों को दबाने में सक्षम था लेकिन यह सब भविष्य में अपनी जीत के लिए स्थितियों को बदतर बनाए बिना नहीं हो सकता था. अब आगे की विस्तार की संभावना के धीरे धीरे खतम होने के साथ ही इस अंतर्विरोधों को पहले जैसे दबाना कठिन है. लोगों के लिए वास्तविक विध्वंसक परिणामों के साथ अधिक आक्रामक हो कर वे जो घोषणाएं कर रहे हैं वह खुद पूंजीवाद के वर्चस्व के युग को दर्शाती हैं. अपने सबसे अच्छे दिनों में भी पूंजीवाद, शुम्पीटर के प्रसिद्ध मुहावरे का प्रयोग करें तो 'रचनात्मक विध्वंस' की एक प्रक्रिया है.जैए ही पूंजी में बढो़त्तरी होती है, प्रतियोगी शक्तियों को जीवित रहने के लिए प्रतियोगी होना पड़ता है तथा जो रचनात्मक नहीं हो पाते विध्वंस को अंजाम देते हैं. बाजार तथा प्रतियोगिता की दुकान में विजेता, पराजितों से प्रतिद्वंदिता करते हैं तथा रचना तथा विध्वंस एक तथा एक समान हो जाते हैं. पराजित, यद्यपि वैयक्तिक इकाई या निरपेक्षतः अकुशल नहीं होते. वास्तविक दुनिया में पराजित जनता होती है और कई बार पूंजीपति भी हो सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत और सामुदायिक तौर पर अक्सर श्रमिक लोग ही होते हैं. 'रचनात्मक विध्वंस' का मतलब है- वास्तविक श्रमिकों की बेरोजगारी,समुदायों की निराश्रयता, पर्यावरण का विनाश तथा जनता की शक्तिहीनता. पूंजीवाद के रचनात्मक विध्वंस का का विनाशकारी पहलू अब ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है ऐतिहासिक 'रेजन दि एत्रे' तथा बतौर उत्पादन प्रणाली के पूंजीवाद की न्यायसंगतता एकबारगी खत्म हो गई है तथा अब हम वैधानिक तौर पर यह कह सकते हैं कि पूंजीवाद अपने समय से ज्यादा, अपनी ऐतिहासिक वैधानिकता के काल से ज्यादा समय तक जीवित है.
पूंजीवाद की उपलब्धियां अब पूरी तरह से अतीत की हो चुकी हैं और इसका भविष्य सिर्फ मानवता के विध्वंस का ही वादा करता है. कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने लिखा है कि वर्ग संघर्ष 'या तो व्यापक तौर पर सामाजिक क्रांतिकारी पुनर्स्थापना में या फिर संघर्षरत वर्गों की आपसी बर्बादी से समाप्त होता है. बीसवीं सदी के महान वर्ग संघर्ष का परिणाम निश्चित तौर पर 'समाज की क्रांतिकारी पुनर्स्थापना' नहीं है. मार्क्स और एंगेल्स ने जिसे 'संघर्षरत वर्गों की सामान्य बर्बादी' कहा है वह पहले से ही समाज में हो रही है. अर्थव्यवस्थाएं हर जगह कसाईखाना बन गई हैं; लाचारी, गरीबी, धन की कमीं तथा संसाधनों की विलासितापूर्ण बर्बादी; कानून तथा व्यवस्था के व्यापक विध्वंस, मूर्खतापूर्ण क्षेत्रीयता तथा नस्लीय विवाद, देशों के बीच अथवा देशों के भीतर रोजमर्रा के नए युद्ध, जनसंहारक हथियारों के प्रसार तथा वैश्विक पैमाने पर आतंकवाद का खतरा, सब कुछ निगल जाने वाले पर्यावरणीय संकट, निकट भविष्य में ऐतिहासिक तौर पर बहुत वास्तविक संदर्भों में यह सब संघर्षरत वर्गों से ज्यादा 'समान बर्बादी के बिंदु हैं. पूंजीवाद का युग शायद अच्छी तरह से 'मानवता के संपूर्ण उन्मूलन' में ही खत्म हो जैसा कि मार्क्स द्वारा १८४५ में ही संभावना व्यक्त की गई थी. जिस परिप्रेक्ष्य को बाद मे रोजा लुक्जमबर्ग ने 'समाजवाद या बर्बरता' नामक उक्ति में व्यक्त किया. जिस खतरे को हम महसूस कर रहे हैं उसके संदर्भ में रोजा लुक्जमबर्ग के कथन को सुधारकर मेस्ज़रोज़ ने कुछ जोड़ते हुए कहा कि 'समाजवाद या बर्बरता', "अगर हम भाग्यवान हैं तो बर्बरता"--पूंजी के विनाशकारी विकास का अंतिम समायोजन मानवता का उन्मूलन है. ऐसी नियति 'मानवता का उन्मूलन' पूंजीवाद के अनियंत्रित धन बटोरने के तर्क में ही अंर्तनिहीत है. यह बिल्कुल ठीक कहा गया है कि पूंजीवाद के बारे में यह सच नही है कि 'इतिहास का अंत' हो गया है, जैसा कि बुर्जुवा विचारक हमें मानने के लिए कहते हैं, बल्कि इसका निरंतर आस्तित्व 'मनुष्य के इतिहास का' वास्तव में अंत कर देगा.....
पहले जैसा बताया गया है कि, चीजों के विस्तृत दृष्टि को लेकर, वर्तमान समय की पराजय तथा समाजवाद की वापसी उस उतार चढा़व की उपयुक्त दृष्टि है जो पूंजीवाद से समाजवाद में महायुगीन संक्रमण से अपरिहार्य तौर पर जुडी़ है......बीसवीं शताब्दी वैश्विक पूंजीवाद द्वारा दुनिया भर में संपूर्ण वर्चस्व के साथ शुरु हुई थी. तब मार्क्सवादी विश्लेषण के, और खुद मार्क्स के पूर्वानुमान के मुताबिक बीसवीं सदी में - प्रथम विश्वयुद्ध के उपरांत यूरोपीय क्रांति (जिसमें सिर्फ रूस की क्रांति ही कायम रह पाई), द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूर्वी यूरोप में और फिर चीन, कोरिया, क्यूबा, वियतनाम, और हर जगह पूंजीवादी व्यवस्था के लगभग एक तिहाई आबादी और परिक्षेत्र में समाजवादी क्रांतियां संपन्न हुईं. पूंजीवाद की परिसीमा में समाजवाद जड़ें नहीं जमा सकता था जैसा कि पूंजीवाद ने सामंतवाद के भीतर किया. पूंजीवाद द्वारा प्रदत्त भौतिक आधारों पर बेहतर ढंग से निर्मित यह समाज की एकदम एक नई शुरुआत है, लेकिन जिन गरीब तथा पिछडे़ देशों में समाजवाद के निर्माण की ये कोशिशें हुई वहां ये आधार मुश्किल से ही मौजूद थे.. जो सबसे कमजोर तैयारी मे थे यह उनका कार्यभार था फिर भी इन देशों ने इस निर्माण के लिए संघर्ष किया तथा अफ्रीका व अन्य जगहों पर भी मार्क्सवाद व समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध आंदोलनों तथा क्रांतिकारी सत्ताओं का उदय हुआ. तथा पूंजीवाद तथा क्रांति के बाद समाजवाद की स्थापना के बीच लंबे समय तक जो प्रतिद्वंदिता रही वह अब बंद हो गई तथा उसका अचानक अंत हो गया. पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं के बाद, आने वाला भविष्य पूंजीवाद से संबंधित लगने लगा था लेकिन ऐसे परिप्रेक्ष्य सापेक्षतया नए हैं. कई सदियों से यह धारणा बहुत दूर थी कि पूंजीवाद तीसरी सहस्त्राब्दी तक बना रहेगा. लेकिन क्रांति पश्चात की प्रतिस्थापनाएं दिखाती हैं कि समाजवाड दूसरी सहस्त्राब्दी मे अंतिम दिनों में ही असफल हो गया. यद्यपि यह पहले दृष्टिकोण की समाप्ति नहीं है. समाजवाद का सोवियत प्रयोग असफल हो गया क्यूंकि वस्तुगत तथा आत्मगत दोनों तरह की स्थितियां इसके प्रतिकूल थीं. प्रारंभ में आर्थिक पिछडा़पन, फिर आंतरिक वर्गयुद्ध तथा सशस्त्र और निरस्त्र विदेशी हस्तक्षेप तथा वैश्विक पूंजीवाद के निरंतर प्रयासों ने समाजवाद के निर्माण में हर सफलता को बाधा पहुंचाया. इस राह के निर्धारक तत्व, अपर्याप्त तथा अक्सर ही गलत सिद्धांत थे जिन्होंने इस प्रयोग तथा कमजोर राजनीतिक नेतृत्व को दिशा निर्देश अथवा गलत दिशा निर्देश दिया. लेकिन जो जानना सबसे महत्वपूर्ण है वह यह कि जिस के लिए भी प्रयास हुए और जो भी कुछ असफल हुआ वह समाजवाद नहीं था बल्कि समाजवाद निर्माण के लिए पहला गंभीर प्रयास था. समाजवाद तथा साथ ही साथ क्रांति की उपलब्धियों के उद्देश्यों का जिन कारणों से जन्म हुआ वह अभी भी पहले से ज्यादा मौजूद हैं. इसे मानने का कोई कारण नही है कि प्रभुत्वशाली पूंजीवाद को हमेशा की ही तरह आश्चर्यचकित कर देने वाली नई क्रांतियां लंबे दिनों तक नहीं होंगी तथा समाजवाद के निर्मान के नए प्रयास नहीं किए जायेंगे. और इस बात को मानने के कई कारण हैं कि अनूकूल परिस्थितियों, ज्यादा समृद्ध सिद्धांत तथा बेहतर राजनीतिक नेतृत्व में भी ऐसे प्रयास सफल नही होगें......
यहां पूंजीवाद के उद्भव और विकास पर एक निगाह डालना काफी शिक्षाप्रद होगा. विद्वानों का मत है कि मध्यकाल के दिनों में पूंजीवाद अपनी गलत शुरुआत के बावजूद एक नहीं बल्कि कई घोषणाओं/उम्मीदों को समेटे हुए था. लेकिन विपरीत परिस्थितियों में जिंदा रहने की ताकत की कमीं के कारण तथा उस दौरान मुख्यतः सामंती वातावरण के कारण कमजोर तथा विभाजित था. सामंती वातावरण से घिरा, आकार लेता पूंजीवाद आगे बढ़ने में असफल रहा. यह तब तक नहीं था जब तक कि बाद की सदियों में एक नया संयोग नहीं आया कि फुटकता पूंजीवाद, जिसने अपने पहले के विफल प्रयासों से लाभान्वित होकर जडे़ जमाया तथा अपने शत्रुओं को धराशायी करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली बनकर उभरे तथा आगे बढ़ सके, और अंततः यह प्रकट हुआ जैसे कि इग्लैंड तथा अन्य अटालांटिक समाजों में हुआ. एक बार उदीयमान होने के बाद सामंतवाद से संघर्ष लगातार जारी था, एक ऐसा संघर्ष जो प्रभुत्व के लिए दो वास्तविक आस्तित्वमान सामाजिक संरचनाओं के बीच था. यह संघर्ष राज्य सत्ता (उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार) तथा अपने हितों तथा विचारों के अनुसार समाज को संगठित करने के अधिकार के लिए था. इससे भी ज्यादा यह एक ऐसी प्रक्रिया का विस्तार था जिसमें एक नए सामाजिक ढांचे ने वैचारिक तथा आर्थिक दोनों तरह के अविवादित प्रभुत्व के लिए खुद को तैयार करने में पर्याप्त समय लिया. इसीलिए पूंजीवा हमारे समय में वैश्विक वर्चस्व के तंत्र के रूप में उपज सका तथा विकसित हुआ. जब तक कि इसमें छेद करने के लिए समाजवाद ने अपना पहला प्रयत्न नहीं किया, एक ऐसा प्रयत्न जो अभी असफल हो गया.....