26 फ़रवरी 2008
कैद में अधिकार:-
डॉक्टर और असाधारण मानवाधिकारकर्ता डॉ बिनायक सेन को छत्तीसगढ़ सरकार ने पिछले नौ महीनों से अमानवीय कानूनों की आड़ में सलाखों के पीछे रखा हुआ है. उनकी कहानी दरअसल उस दरकती हुई जमीन की कहानी है जिसपर हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों की इमारत टिकी है. शोमा चौधरी की रिपोर्ट साभार तहलका.
दिल्ली और मुंबई की भव्यता से परे, चमचमाते मॉल्स और हिचकोले खाते शेयर बाजार की सुर्खियों से कहीं दूर एक भला इंसान जेल में अपनी रिहाई का इंतजार कर रहा है. उसके बारे में थोड़ी-बहुत खबरें आई हैं. कुछ अखबारों में, कुछ टीवी चैनलों पर. फिर भी जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, चमत्कार, बाजार, फिल्मस्टार, एसएमएस पोल आदि से अभिभूत मीडिया में अगर डॉ बिनायक सेन का जिक्र हुआ भी होगा तो इस बात के आसार कम ही हैं कि उसने आपका ध्यान खींचा हो.
बिनायक सेन की कहानी दरअसल उस दरकती हुई जमीन की कहानी है जिस पर हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों की इमारत खड़ी है. ये कहानी है भारत के लोक और तंत्र, शहर और गांव, विकास और इंसानी जरूरतों, अंधे कानून और प्राकृतिक न्याय के बीच आ चुकी और बढ़ रही दरार की. ये उस भारत की कहानी है जिसे जोड़ने वाली डोरी धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है. ये उस अन्याय की दास्तान भी है जो हजारों निर्दोष लोगों के साथ होता है और जिसकी खबर किसी को नहीं लगती. ये उस बेइंसाफी का सच भी है जो कल आपके और मेरे साथ होने का इंतजार कर रही है. और सबसे ज्यादा ये उस डरावनी हकीकत का पर्दाफाश करने वाली दास्तान है कि जब सरकार खुद को ही खतरे में बताने लगे तो साधारण लोगों के साथ क्या हो सकता है. पढ़ाई पूरी करने के बाद इस प्रतिभाशाली नौजवान के सामने करिअर के शानदार विकल्प थे. वो विदेश जा सकता था या फिर यहीं ऊंची तनख्वाह वाली कोई नौकरी कर बढ़िया जिंदगी गुजार सकता था. मगर उसने एक ऐसी मुश्किल राह चुनी जिस पर चलने की हिम्मत कम ही लोग करते हैं.
मगर सबसे पहले कहानी के तथ्य.
पेशे से बच्चों के डॉक्टर और जाने-माने क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज (सीएमसी), वेल्लोर से गोल्ड मेडेलिस्ट, 56 वर्षीय बिनायक सेन वो शख्स हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ के गरीब आदिवासियों के बीच में कुपोषण, टीबी और घातक मलेरिया से लड़ते हुए लगभग तीन दशक बिताए हैं. पढ़ाई पूरी करने के बाद इस प्रतिभाशाली नौजवान के सामने करिअर के शानदार विकल्प थे. वो विदेश जा सकता था या फिर यहीं ऊंची तनख्वाह वाली कोई नौकरी कर बढ़िया जिंदगी गुजार सकता था. मगर उसने एक ऐसी मुश्किल राह चुनी जिस पर चलने की हिम्मत कम ही लोग करते हैं. सेन ने छत्तीसगढ़ के होशंगाबाद में एक ईसाई संस्था द्वारा चलाए जा रहे ग्रामीण चिकित्सा केंद्र में अपनी सेवाएं देने का फैसला किया. यहां वो महात्मा गांधी के जीवनी लेखक मारजोरी साइकस से काफी प्रभावित हुए. उनके दिल में जनस्वास्थ्य, पर्यावरण के अनुकूल विकास और न्यायमूलक समाज का सपना पलने लगा. पढ़ाई के दौरान वेल्लोर की झुग्गियों में भ्रमण करते हुए सेन को ये अहसास हो गया था कि आजीविका, रहन-सहन और स्वास्थ्य में एक अहम संबंध है. इसका और गहराई से अध्ययन करने के लिए उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से सोशल मेडिसिन में डिग्री ली और 1981 में होशंगाबाद में खान मजदूर संघ के मशहूर नेता शंकर गुहा नियोगी के साथ काम करने चले आए. यहां उन्होंने दालिराजहारा में शहीद अस्पताल की स्थापना में मदद की जिसे मजूदरों ने अपने पैसे से बनाया था. बाद में वो तिल्दा के मिशन हॉस्पिटल से जुड़ गए. 1990 में सेन ने अपनी पत्नी इलिना सेन के साथ रायपुर में रूपांतर नाम के एक एनजीओ की स्थापना की. पिछले 18 सालों से ये संगठन ग्रामीण स्वास्थ्यकर्मियों को प्रशिक्षण देने और सुदूर इलाकों में मोबाइल क्लीनिक चलाने का काम कर रहा है. वो पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज(पीयूसीएल) नाम के मानवाधिकार संगठन से भी जुड़े जिसकी स्थापना जयप्रकाश नारायण ने की थी.
बिनायक सेन का काम कितना असाधारण है इसका अंदाजा आपको तब होता है जब आप रायपुर से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर धमतरी जिले में जंगलों से घिरे बागरुमाला और साहेलबेरिया इलाकों में जाते हैं. यहां आकर आपको ये अहसास होता है कि एक रिटायर कर्नल के होनहार बेटे को असाधारण जुनून ही ऐसी जगह पर ला सकता था. इस इलाके में बसे छोटे-छोटे गांवों में कमार और दूसरी जनजातियों के वो लोग बसते हैं जिनका शुमार भारत के सबसे उपेक्षित लोगों में किया जा सकता है. यहां सेन अपना मंगलवार क्लीनिक चलाते थे. स्कूल, पीने के पानी, बिजली, स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम और अपने जंगल के परंपरागत संसाधनों से लगातार वंचित किए जा रहे इन लोगों की जुबान पर बिनायक सेन की कई कहानियां हैं. उदाहरण के लिए लोग बताते हैं कि कैसे सेन ने लग्नी की जान बचाई जिसका गर्भपात हो गया था और उसका खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था. या किस तरह उन्होंने वन अतिक्रमण के आरोप में सामूहिक रूप से जेल में डाल दिए गए पिपरही भारही गांव के लोगों को बचाया. या फिर कैसे उन्होंने अनाज बैंकों की स्थापना में मदद की. कमार बस्ती में एक वृद्ध हमसे कहते हैं, “कुछ कीजिए. डॉक्टर को बचाइये. अब कोई ऐसा नहीं है जिसके पास हम जा सकें.”
सीएमसी वेल्लोर के निदेशक डॉ. सुरंजन भट्टाचार्य कहते हैं, “बिनायक ने एक अलग राह बनाई. वो डॉक्टरों की कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं. उन्होंने हमारी अंतरात्मा को झिंझोड़ा. उन्होंने हमें याद दिलाया कि एक स्वस्थ समाज बनाने के लिए आजादी, खाद्य सुरक्षा, आश्रय, समानता और न्याय जैसी कई चीजों की जरूरत होती है.” 2004 में सीएमसी वेल्लोर ने सेन को अपने प्रतिष्ठित पॉल हैरीसन अवार्ड से सम्मानित किया. इसमें सेन की प्रशंसा में ये शब्द कहे गए थे, “डॉ. बिनायक सेन सत्य और सेवा के प्रति अपने समर्पण को लड़ाई के अग्रिम मोर्चे तक ले गए हैं. उन्होंने सांचों को तोड़ा है और अपने मकसद को अपनी सुरक्षा से ऊपर रखकर एक बिखरे और अन्यायपूर्ण समाज में एक डॉक्टर की संभावित भूमिका को फिर से परिभाषित किया है. सीएमसी को बिनायक सेन से जुड़े होने पर गर्व है.”
इसके बावजूद, तीन साल बाद 14 मई 2007 को राज्य सरकार ने एक मानवाधिकारकर्ता और डॉक्टर के रूप में किए गए बिनायक सेन के लंबे और समर्पित कार्य को अनदेखा कर दिया. पुलिस ने पहले तो उन्हें नक्सली नेता घोषित कर दिया और बाद में गिरफ्तार कर लिया. उन पर आपराधिक षडयंत्र, राष्ट्रदोह और आतंक के ज़रिए मिले पैसे का इस्तेमाल करने के आरोप लगाए गए. सेन की गिरफ्तारी के बाद से तीन अदालतें उन्हें जमानत देने से इनकार कर चुकी हैं. सुप्रीम कोर्ट ने 10 दिसंबर 2007 को सेन को जमानत देने से इनकार कर दिया. ये भी विडंबना ही है कि इस दिन अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस था. अदालत में जिरह के दौरान अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम और छत्तीसगढ़ सरकार के वकील का तर्क था कि भारत सरकार, बिहार, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में उग्रवाद की जांच कर रही है और बिनायक सेन इस नेटवर्क का एक अहम हिस्सा हैं. उनका कहना था कि सेन को ज़मानत देने से देश की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है. इस दावे के पक्ष में हास्यास्पद सबूत पेश किए गए. लोग बताते हैं कि कैसे सेन ने लग्नी की जान बचाई जिसका गर्भपात हो गया था और उसका खून रुकने का नाम नहीं ले रहा था. या किस तरह उन्होंने वन अतिक्रमण के आरोप में सामूहिक रूप से जेल में डाल दिए गए पिपरही भारही गांव के लोगों को बचाया. या फिर कैसे उन्होंने अनाज बैंकों की स्थापना में मदद की. कमार बस्ती में एक वृद्ध हमसे कहते हैं, “कुछ कीजिए. डॉक्टर को बचाइये. अब कोई ऐसा नहीं है जिसके पास हम जा सकें.”.
बिनायक सेन के व्यक्तित्व और चरित्र का अंदाजा उनके बारे में लोगों के विचारों से भी लगाया जा सकता है. जब सुप्रीम कोर्ट ने सेन को जमानत देने से इनकार कर दिया तो उनके समर्थन में उमड़ी एक रैली में मौजूद एक वृद्ध का कहना था, “अगर अदालत ने हमारे डॉक्टर को नहीं छोड़ा तो हम जेल तोड़ देंगे. मगर क्या फायदा? सारे कैदी भाग जाएंगे और डॉ बिनायक फिर भी वहीं रहेंगे.”
इसके बावजूद सेन के शुभचिंतकों की तमाम कवायदें भी उन्हें जमानत नहीं दिला सकीं. न एम्स और सीएमसी के उन डॉक्टरों के शपथपत्र जो सेन से प्रेरणा लेकर उनकी राह चल निकले हैं और न ही दुनिया भर के 2000 डॉक्टरों के हस्ताक्षर. ये भी गौरतलब है कि सेन जनस्वास्थ्य पर सरकार द्वारा बनाई गई सलाहकार समिति के भी सदस्य रह चुके हैं. विडंबना देखिये कि सेन के गिरफ्तार होने के सात महीने बाद 31 दिसंबर 2007 को इंडियन अकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज ने उन्हें आर आर खेतान गोल्ड मेडल से सम्मानित किया गया. अकेडमी ने डॉ बिनायक सेन के काम की तुलना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा प्रचारित मूल्यों से की.
क्या ऐसे आदमी को जेल में ठूंसना अन्याय नहीं है. छत्तीसगढ़ पुलिस के डीजीपी विश्व रंजन जवाब देते हैं, “तो क्या हुआ? क्या कोई मानवतावादी और आदर्शवादी, माओवादी नहीं हो सकता.” समझा जा सकता है कि राज्य सरकार के काम करने का तरीका क्या है.
सबसे ज्वलंत सवाल ये है कि बिनायक सेन को गिरफ्तार क्यों किया गया? ऐसा क्या हुआ कि सरकार के लिए उनकी पहचान बदल गई और उन्हें सलाखों के पीछे ठूंस दिया गया? एक नजर डालते हैं.
दो साल पहले जनवरी 2006 में आंध्र प्रदेश के भद्राचलम में नारायण सान्याल नाम के एक माओवादी नेता को गिरफ्तार किया गया. 67 साल के सान्याल हाथ में गंभीर दर्द की एक बीमारी से पीड़ित थे जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में पामर्स कांट्रेक्चर कहा जाता है. जब सान्याल को वारंगल जेल से जमानत मिल गई तो जेल अधिकारियों ने उन्हें इस बीमारी का इलाज कराने की इजाजत दे दी. इसके तुरंत बाद छत्तीसगढ़ पुलिस ने उन्हें दंतेवाड़ा में हुए एक कत्ल के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और रायपुर जेल में डाल दिया. मई 2006 में कोलकाता में रह रहे सान्याल के बड़े भाई राधामाधव ने पीयूसीएल, छत्तीसगढ़ के महासचिव बिनायक सेन को एक पत्र लिखा और उनसे सान्याल के लिए वकील और चिकित्सा का इंतजाम करवाने की अपील की. इस पत्र की प्रतियां उन्होंने कई मानवाधिकार संगठनों को भी भेजीं. क्षेत्र के सबसे सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में से एक बिनायक ने इस मामले में हस्तक्षेप किया. उन्होंने अपने फ्लैट के सामने रह रहे एक वकील भीष्म किंजर को सान्याल का केस लेने को राजी किया. साथ ही उन्होंने सान्याल की शल्यक्रिया के लिए जेल अधिकारियों को पत्र लिखना भी शुरू किया. बूढ़े और खुद भी बीमार राधामाधव का कोलकाता से रायपुर आना और भी कम होता गया. वो निश्चिंत थे कि सेन उनके भाई का ख्याल रखेंगे.
छह मई 2007 को रायपुर पुलिस ने अचानक पीयुष गुहा नामक कोलकाता के एक व्यापारी को गिरफ्तार किया. गुहा राधामाधव का परिचित था जो किंजर की फीस के 49,000 रुपये राधामाधव से लेकर सेन को देने जा रहा था. पुलिस ने दावा किया कि उन्हें गुहा से तीन अहस्ताक्षरित पत्र भी मिले हैं जिन्हें मिस्टर पी, दोस्त वी और दोस्त को संबोधित किया गया था और जिनमें जेल की परिस्थितियों,
उम्र, जोड़ों के दर्द आदि जैसी चीजों की शिकायत की गई थी. पुलिस को यकीन था कि ये पत्र सान्याल के लिखे हुए हैं और इनके मुताबिक इनमें किसानों और शहरी केंद्रों में काम का विस्तार करने की सलाह दी गई थी. साथ ही इसमें नवीं कांग्रेस के सफलतापूर्ण आयोजन पर बधाई भी दी गई थी. हास्यास्पद रूप से पुलिस ने इन पत्रों को विस्फोटक बताया. पुलिस के मुताबिक गुहा ने माना था कि उसे ये पत्र सेन ने दिए थे जो जेल में बंद नक्सलियों के लिए अवैध पत्रवाहक का काम कर रहे हैं. मगर जैसे ही गुहा को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उसने और ही बात कही. उसने खुलासा किया कि असल में उसे एक मई को गिरफ्तार किया गया था और पांच दिन तक अवैध रूप से हिरासत में रखकर और यातनाएं देकर उससे एक खाली दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए गए.
इस तरह के हास्यास्पद सबूतों पर पुलिस ने सेन को भगोड़ा नक्सल नेता घोषित कर दिया. उस समय सेन अपनी बीमार मां को देखने कोलकाता गए हुए थे. स्थानीय मीडिया में ये खबरें छपीं. इसे सुनकर सेन भौचक रह गए. उन्हें विश्वास था कि पुलिस को जरूर कोई गलतफहमी हुई है. उन्हें भारत की संवैधानिक व्यवस्था पर पूरा भरोसा था. इसलिए शुभचिंतकों की राज्य में न जाने और अग्रिम जमानत लेने की सलाहों को उन्होंने दरकिनार कर दिया. अपने त्रुटिहीन रिकॉर्ड और बेकसूर होने को लेकर निश्चिंत सेन पुलिस की गलतफहमी दूर करने बिलासपुर पहुंचे. यहां पहुंचने पर पुलिस ने उनसे कहा कि उनका बयान लिया जाएगा और वो तारबहार थाने में रुक जाएं. सेन ने ऐसा ही किया और 14 मई 2007 को उन्हें छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून और गैरकानूनी गतिवधि (बचाव) एक्ट के तहत फौरन गिरफ्तार कर लिया गया. ये दोनों देश के सबसे कठोर कानूनों में से एक हैं जिनमें किसी चीज के लिए सोचना ही आपको जेल पहुंचा सकता है. जैसाकि किंजर कहते हैं, “मुझे पता था कि जज ज़मानत देने से इनकार कर देंगे. अगर आप पर इन कानूनों के तहत मामला दर्ज हुआ है तो समझिए आपका काम-तमाम हो गया. ये कानून जजों के मन में एक तरह का पूर्वाग्रह पैदा करने के लिए बनाए गए हैं.”
सेन के खिलाफ अभियोजन पक्ष के मुख्य आरोपों में एक ये है कि सेन जेल में बंद नक्सल नेता सान्याल से 33 बार मिले हैं. चलिए कुछ पल के लिए इस बात को छोड़ देते हैं कि सान्याल ने ऐसा क्यों किया, सान्याल का स्वास्थ्य, शल्यक्रिया, उनके मामले की जटिलताएं...सब छोड़ देते हैं. एक पल को ये भी मान लेते हैं कि बिनायक नक्सलियों से अप्रत्यक्ष सहानुभूति रखते हैं. मगर यहां तथ्य ये है कि इन सभी मुलाकातों की न सिर्फ कानूनी रूप से अनुमति ली गई थी बल्कि ये पूरी निगरानी में भी हुईं थीं. क्या सिर्फ इससे ही सरकार को किसी व्यक्ति की आजादी छीनने का अधिकार मिल जाता है? अभियोजन पक्ष का ये दावा है कि बिनायक ने खुद को सान्याल का रिश्तेदार बताकर अधिकारियों को धोखे में रखा. लेकिन उनकी पत्नी ने सूचना का अधिकार कानून के तहत वो पत्र निकाले जिनमें सेन ने जेल अधिकारियों से सान्याल से मिलने की अनुमति मांगी थी. पता चला कि वो सभी पीयूसीएल के आधिकारिक लेटरहेड पर लिखे गए थे जिनमें सेन ने महासचिव के रूप में हस्ताक्षर भी किए थे.
बिनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद से ही पुलिस उनके खिलाफ हास्यास्पद सबूत ढूंढकर ला रही है. जैसे कि दो माओवादियों का एक दूसरे को लिखा गया प्रेमपत्र जिसमें बिनायक सेन का नाम है. इसके अलावा गोंदी में कथित रूप से एक मुठभेड़ स्थल पर मिला कागज का एक टुकड़ा जिसकी लिखावट शायद ही कोई पढ़ सके. पर पुलिस ने पाया है कि इसमें पीयूसीएल और छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून लिखा है. या फिर नक्सल नेता मदन बरकड़े द्वारा सेन को लिखी गई एक चिट्टी जिसमें जेल के हालात की शिकायत की गई है जिसे सेन ने मानवाधिकार संगठनों के पत्रों में प्रकाशित करवाया. हैरत है कि इन सबूतों में कुछ भी ऐसा नहीं जो साबित करे कि सेन को जमानत देना राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालना होगा.
सवाल है कि फिर क्यों सरकार सेन को सलाखों के पीछे रखने पर तुली है? क्यों एक भले डॉक्टर को भयानक अपराधी की तरह पेश किया जा रहा है? क्यों सेन के खिलाफ सबूत बनाए जा रहे हैं? उदाहरण के लिए डीजीपी विश्व रंजन दावा करते हैं कि पीयुष गुहा, सेन के खिलाफ उनका मुख्य सबूत हैं. मगर गुहा की गिरफ्तारी के कई हफ्ते बाद पुलिस उसे चार जून 2007 को अचानक पुरुलिया ले गई और थाना बंडवाना में हुए एक पुराने बम धमाके के मामले में उसे आरोपी बना दिया. गौरतलब है कि डेढ़ साल पहले अक्टूबर 2005 में जब इस मामले की मूल एफआईआर दर्ज हुई थी तो उसमें गुहा का नाम तक नहीं था. तो क्या ये गुहा को भी एक अपराधी का जामा पहनाने के लिए किया गया था? आखिरकार सेन का दामन काला करने की ऐसी कोशिशें क्यूं? बिनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद से ही पुलिस उनके खिलाफ हास्यास्पद सबूत ढूंढकर ला रही है. जैसे कि दो माओवादियों का एक दूसरे को लिखा गया प्रेमपत्र जिसमें बिनायक सेन का नाम है. इसके अलावा गोंदी में कथित रूप से एक मुठभेड़ स्थल पर मिला कागज का एक टुकड़ा जिसकी लिखावट शायद ही कोई पढ़ सके.
बिनायक सेन मामले की भयावहता को पूरी तरह से समझने और इस देश के लिए इसके मायने जानने के लिए आपको छत्तीसगढ़ पर गौर से निगाह डालनी होगी. बिनायक सेन की कहानी उनके जैसे सैकड़ों बेनाम लोगों की कहानी का एक उदाहरण मात्र है जो उस लड़ाई में फंस गए हैं जो सरकार ने अपने ही लोगों के खिलाफ छेड़ रखी है. उन तमाम लोगों की तरह ही सेन की व्यथा भी मानवाधिकारों के खुलेआम हनन की कहानी है. कई मामलों में छत्तीसगढ़ अब माओवादी विद्रोह का केंद्र बन गया है जिसकी जड़ें 13 राज्यों में फैली हैं. छत्तीसगढ़ में खुद सरकार का कहना है कि बस्तर और दंतेवाड़ा के ज्यादातर हिस्से उसके नियंत्रण से बाहर हैं. बिना शक ये गंभीर स्थिति है. हर साल पुलिस के सैकड़ों जवान, असहाय आदिवासी और पुल, जेल व टेलीफोन के खंभों जैसे सरकारी प्रतीक उग्रवादियों द्वारा उड़ा दिए जाते हैं. गृहमंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक साल 2007 में छत्तीसगढ़ में 311 लोगों की जानें गई. देश भर में ये आंकड़ा 571 रहा। माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले आपको बताते हैं कि उन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन है- ये समर्थन किस हद तक ऐच्छिक है और किस हद तक दबाव में, इसके बारे में कोई भी साफ-साफ नहीं बोलता। माओवादियों के बारे में जानकारी पाने का सिर्फ एक ही रास्ता है कि वो खुद आपको जंगलों में अपने कैंप तक ले जाएं. ज़ाहिर है ऐसे में वहां से आपको सिर्फ चुनिंदा सूचनाएं ही हासिल होंगी. ये बात भी साफ है कि जो इलाके माओवादियों के प्रभाव वाले हैं उनकी सरकारों ने पूरी तरह से अनदेखी की हुई है. स्कूल, प्राथमिक चिकित्सा, बिजली, आजीविका जैसी चीजें यहां कहीं नजर नहीं आतीं. कई जगह सरकार ऐसे विकास और औद्योगीकरण की हड़बड़ी में है जो कि स्थानीय लोगों की उम्मीदों और जरूरतों से मेल नहीं खाता.
अदूरदर्शिता के चलते भारत सरकार शिकायतों का इलाज हिंसा से और रोग का इलाज रोगी को मिटाकर कर रही है. कठोर क़ानून, अनगिनत अर्धसैनिक बल, पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए हज़ारों करोड़ के पैकेज और नक्सल प्रभावित राज्यों के लिए विशेष पैकेज. यानी कि सरकारी जवाब हिंसा की एक प्रतिस्पर्धी ज़मीन तैयार करने जैसा है. इसका उदाहरण है छत्तीसगढ़ में 2005 में ही सरकार प्रायोजित नक्सल विरोधी अभियान, जो अब सल्वा जूडम के नाम से कुख्यात है. इसने एक ग्रामीण को दूसरे ग्रामीण पर गोलियां चलाने के लिए तैयार कर एक अघोषित गृहयुद्ध को बढ़ावा दिया. सरकार ने 644 गांवों को जबरन खाली करवा कर वहां के लोगों को अमानवीय अवस्था में तंबुओं में रहने को मजबूर कर दिया. सरकार का नारा है कि उनके समर्थन को ही खत्म कर दो. मानवाधिकार कार्यकर्ता आपको बताएंगे कि सरकार का असल निशाना माओवादी नहीं बल्कि जमीन के नीचे प्रचुर मात्रा में मौजूद लौह अयस्क है जिसे वे नंदीग्राम की तर्ज पर निजी कंपनियों को सौंपने के लिए तैयार है.
ये अफवाहें भी उड़ रही हैं कि अस्थाई शिविरों को राजस्व गांवों में तब्दील कर दिया जाएगा और आदिवासियों द्वारा छोड़ी ज़मीनों को सरकार अपने कब्ज़े में ले लेगी. ये सब अभी भले ही कयास हों लेकिन सल्वा जुडूम की अति एक हकीकत है.
इसी का विरोध करने के लिए बिनायक सेन राज्य सरकार की आंखों की किरकिरी बन गए. उनके द्वारा उठाए गए मामलों में नारायण सान्याल का मामला शायद सबसे कम विवादित है. संतोषपुर फर्जी मुठभेड़, गोलापल्ली फर्जी मुठभेड़, नारायण खेरवा फर्जी मुठभेड़, रायपुर फर्जी आत्मसमर्पण, राम कुमार ध्रुव की हिरासत में मौत, अंबिकापुर, लाकराकोना, बांदेथाना, कोइलीबेरा—ये सभी नाम भयावह सरकारी अत्याचारों के गवाह हैं. उन अत्याचारों के जिनका सच बिनायक सेन और दूसरे मानवाधिकार कार्यकर्ता सामने लाए जिससे सरकार को खासी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी. दिसंबर 2005 में बिनायक सेन ने 15 लोगों के एक दल के साथ सल्वा जूडम पर करारी चोट करने वाली एक रिपोर्ट प्रकाशित की.
बिनायक सेन ने सरकार को एक बार नहीं बल्कि बार-बार आईना दिखाने का अपराध कर रहे थे और इसके एवज़ में सरकार कुछ भी करके उन्हें एक सबक सिखाना चाहती थी. बिनायक सेन की असल कहानी एक बुद्धिहीन और डरे हुए राज्य की अंधेरगर्दी की कहानी है. सरकार का रवैया जार्ज बुश जैसा ही है. जिसे उस जगह जनसंहार के हथियार नजर आ रहे हैं जहां असल में कुछ है ही नहीं. बिनायक सेन जैसे लोगों की छवि ओसामा बिन लादेन जैसी बनाई जा रही है. और ये सब किया जा रहा है राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में.
एक हल्के-फुल्के क्षण में डीजीपी विश्व रंजन ये स्वीकार करते हैं कि सेन के साथ न्याय नहीं हुआ. वो कहते हैं, "अगर मेरे बस में होता तो मैं बिनायक सेन को निगरानी में रखता उन्हें गिरफ्तार नहीं करता." ये एक बड़ी स्वीकरोक्ति है. तुरंत ही संभलते हुए, उसी सांस में वो ये भी कह जाते हैं कि सेन के खिलाफ उनके पास सबूतों का पहाड़ है. ऐसे सबूत जिसे वे न तो आपको दिखा सकते हैं और न ही अदालत में ही पेश कर सकते हैं. जब तक सबूतों का असल जैसा पहाड़ खड़ा नहीं कर दिया जाता तब तक बिनायक सेन जेल में सड़ते रहेंगे. एक हल्के-फुल्के क्षण में डीजीपी विश्व रंजन ये स्वीकार करते हुए मिलते हैं कि सेन के साथ न्याय नहीं हुआ. वो कहते हैं, "अगर मेरे बस में होता तो मैं बिनायक सेन को निगरानी में रखता उन्हें गिरफ्तार नहीं करता." ये एक बड़ी स्वीकरोक्ति है.
2 फरवरी 2008 की सुबह, गिरफ्तारी के पूरे 9 महीने बाद, सेन के खिलाफ आरोप तय करने के लिए उन्हें रायपुर की सत्र अदालत में पेश किया गया. पुलिसवालों की भीड़ से घिरे शांतचित्त, आकर्षक बिनायक सेन पुलिस वैन से नीचे उतरते हैं. दृढ़ता से हाथ मिलाने के बाद कहते हैं, "यहां आने के लिए धन्यवाद", इसके बाद सारे लोग अदालत में चले जाते हैं. जज सलूजा थोड़ी असहजता के साथ आरोपों को सुनाते हैं. वो कुछ बेकार के आरोपों को खारिज कर सकते थे लेकिन ऐसा नहीं करते. बिनायक विटनेस बॉक्स में चुपचाप खड़े रहते हैं. और अंत में सारे आरोपों को मानने से इनकार कर देते हैं. इसके बाद वे अपनी पत्नी और वकील से मिलने के लिए कुछ समय मांगते हैं जो उन्हें दे दिया जाता है.
वहां हवाओं में एक अजीब सा डर साफ महसूस किया जा सकता है. तमाम डॉक्टर जो उनका साथ देने के लिए आए हैं, बात करने से भी झिझकते हैं. एक दिन पहले ही पूरे रायपुर में बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुई हैं- दो महिलाएं, एक ट्रैवेल एजेंसी का मालिक, एक पत्रकार...हर आदमी खुद को शिकार महसूस कर रहा है. झूठ और सच में फर्क करना मुश्किल है. यद्यपि बिनायक सेन इस सबसे विरक्त से प्रतीत होते हैं. जब पुलिस उनको वैन में धकेलती है तो वे लोहे की जालियों से मुंह सटाकर कहते हैं, "कुछ लोगों को जानबूझ कर विकास की प्रक्रिया से बाहर रखा जा रहा है. आप दो तरह के लोगों का वर्ग तैयार नहीं कर सकते. सबको इसके खिलाफ आवाज़ उठानी होगी वरना जल्द ही बहुत देर हो जाएगी." उनकी आवाज़ सलाखों के पीछे से भी सुनायी दे रही है "अगर ये लोग मुझ जैसे आदमी को गिरफ्तार करते हैं तो मानवाधिकार कार्यकर्ता असहाय हो जाएंगे. मैंने कभी भी माओवादी हिंसा का समर्थन नहीं किया. यह एक अवैध आंदोलन है जो ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक पाएगा. सल्वा जूडम के साथ मिलकर इसने आदिवासी समुदायों में खतरनाक खाई पैदा कर दी है. लेकिन उनकी व्यथा वास्तविक है. ये इलाका इस समय अकाल से जूझ रहा है. लोगों के शरीर का वजन 18.5 से भी नीचे आ गया है, 40 फीसदी आबादी कुपोषण की शिकार है. दलितों और आदिवासियों में इसका स्तर 50 से 60 फीसदी तक है. हमें और ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित करने वाले विकास की जरूरत है. आप लोगो की दो श्रेणियां नहीं बना सकते...."
बातचीत कहीं से भी उनके भारत को तोड़ने वाला होने का आभास नहीं देती. ये पूछने पर कि खुद को नक्सली घोषित कर चुके नारायण सान्याल का साथ आप ने क्यों दिया, बिनायक सेन का जवाब दुनिया भर में मानवाधिकारों की जरूरत को स्थापित करता है, "मुझे पता था मैं शेर के मुंह में घुस रहा था लेकिन अगर आप अपने कदम पीछे खींचने लगे तो फिर आप कहां जाकर रुकेंगे? आप भेद-भाव नहीं कर सकते. सबको क़ानूनी सहायता और चिकित्सा सेवा पाने का अधिकार है. ये संविधान में लिखा है. ये मानवाधिकारों का आधार है."
डीजीपी विश्व रंजन गुस्से से पूछते हैं, "वह माओवादियों से ज्यादा सल्वा जूडम की आलोचना क्यों करते हैं?" बिनायक का जवाब होता है कि संविधान और क़ानूनी मर्यादाओं से बंधे होने के कारण भारत सरकार की जिम्मेदारियां उन माओवादियों के बनिस्बत ज्यादा बड़ी हैं जिन्होंने राज्य को ही त्याग दिया है. लेकिन सरकार से ऊंचे मूल्यो वाली ये नैतिकता हज़म नहीं होती. इलिना सेन से ये पूछने पर कि आपको ये लड़ाई लड़ने का जज्बा कहां से मिला, जवाब मिलता है, "मुझे महसूस हुआ कि ये सिर्फ बिनायक और मेरे परिवार का ही मामला नहीं है. हम एक बहुत बड़ी लड़ाई का हिस्सा हैं. हम शांतिपूर्वक अपनी असहमति जताने के अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं. इसके प्रति हमारा समर्पण मुझे ताकत देता है." ये एक और ऐसा नैतिक सदाचरण है जो सरकार के गले नहीं उतरता. मेधा पाटकर को ही लीजिए. 20 सालों का शांतिपूर्ण विरोध- नतीजा सिफर. शर्मिला इरोम को लीजिए- सात सालों का उपवास लेकिन कोई फल नहीं। बिनायक सेन को ही लें...
जल्द ही बिनायक सेन की सुनवाई शुरू होगी. इस दौरान उन्हें कैद रखने का मतलब होगा कि भारत में शांतिपूर्ण विरोधों के लिए कोई जगह नहीं. ये जनसंहार के हथियारों को खाद-पानी देने के जैसा है. ये अपनी बात रखने के लिए हिंसक तरीके अपनाने को प्रेरित करने जैसा है. ये पहले से ही ज़िम्मेदार लोगों द्वारा तार-तार किये जा चुके गांधीवाद की धज्जियां उड़ाने जैसा होगा.
12 फ़रवरी 2008
दक्षिण एशिया के देशों में अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ी है इसी के साथ यहां ‘शांति खत्म हुई है
आनंद स्वरूप वर्मा दक्षिण एषिया देषों के जानकार हैं और विषेशतर नेपाल और भूटान की घटनाओं पर नजर रखते हैं उनका मानना है कि जबसे भारत, श्रीलंका, नेपाल, बांगलादेष, भूटान यानि दक्षिण एषिया के देषो में अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ी है इसी के साथ यहां ‘शांति खत्म हुई है। सन 1997 में पैट्रिक ºयूज की एक रिर्पोट आयी जिसमें कहा गया की आने वाले समय में चीन अमेरिका का सबसे बड़ा दुष्मन होगा। यह रिर्पोट काफी चर्चा में रही। रिर्पोट का कहना था कि एषिया के देष अमेरिका की मिलेटरी को कम आंक रहे हैं और अमेरिका के खिलाफ एक आयडिओलॉजी पनप रही हैं। उसी समय डिफेंस मिनिस्टर डोनाल्ड रम्सफील्ड ने कहा कि यूरोप पर उतना ध्यान देने की जरूरत नही है जितना की साऊथ एषिया में।
ये सारी चीजें 1997 में घटित हो रही थी और 13 फरवरी 1996 में माओवादीओं ने नेपाल में पीपुल्सवार की घोशणा की गयी थी। इन सारी बातों को एक साथ देखने की जरूरत है। इसके बाद 2001 में स्टेट फॉर कि रिर्पोट आयी जिसमे दक्षिण एषिया को केंद्र में रखते हुए कहा गया की दक्षिण एषिया में माओवादीओं का उभार अमेरिका के लिये खतरा है। स्टेट फॉर की रिर्पोट मे यह भी कहा गया की यदि नेपाल माओवादीओं के हाथ में चला जाता है जैसा की हो चुका है तो उसका सम्बध चीन से अधिक प्रगाढ़ होगा न कि अमेरिका से जबकि चीन के लोग नेपाली माओवादीओं को न तो समर्थन करते हैं और न ही माओवादी विचार का मानते हैं उसी समय डोनाल्ड कैम ने यह कहा कि नेपाली माओवादीओं से अमेरिका के राश्ट्रहित को खतरा है। इसमें कई चीजें जुड़ी थी एक तो अमेरिका जिस बात का प्रचार कर रहा था इन्ड ऑफ आयडियोलॉजी विचार धारा की समाप्ति, क्लैस ऑफ सिविलाईजेषन यानी सभ्यता का टकराव वह नेपाल में उभता हुआ दिख रहा था। जो उनके लिये खतरा था। अत: आप देखे 2001 मे जब नेपाल में ‘शांतिवार्ता ‘शुरु हुई उसी समय अप्रेल में जसवंत सिंह अमेरिका गये हुए थे और भारत के ऐसे पहले विदेष मंत्री थे जिन्हें गार्ड ऑफ ऑनर से नवाजा गया था और जार्ज बुष ने उन्हें विषेश तव्वज्जो दी थी।
उसी समय हेनरी साल्टन की भारत यात्रा भी हुई। अत: कहीं-न-कहीं से अमेरिका भारत से अच्छे सम्बध बनाने के फिराक मे जुटा था जिसके पीछे की मंषा हम समझ सकते हैं। पंरतु नेपाल में अमेरिका को सेट बैक मिला क्योंकि जिन माओवादीओं को वे आतंकवादी लिस्ट में रखते हैं आज वे मंत्री हैं कल प्रधान मंत्री भी हो सकते हैं। भारत को लेकर 1998 में जब आडवानी गृह मंत्री थे तब हैदराबाद में एक मीटिंग हुई जिसमें भारत के 8 राज्यो को माओवादी प्रभावित क्षेत्र माना गया फिर 2005 में 13 राज्य, उसके बाद 14 राज्यों और अभी हाल की मीटिंग में 16 राज्यों के मुख्यमंत्री को इस बैठक में सम्मलित किया गया। यदि पूर्वोत्तर के राश्ट्रवादी आंदोलन कष्मीर, असम के आंदोलनों को लें तो कुल 16 और 8 मिलाकर 24 राज्यों में देष की सरकार इस तरह के विरोध को झेल रही है। तो क्या मात्र 4 राज्य ही ऐसे हैं जिनमे वह ‘शासन कर पा रही है, क्या यही लोकतंत्र है?
दरसल वजह यह है कि माओवादी आंदोलन या अन्य आंदोलनों से जूझते हुए राज्यों को केन्द्र से विषेश पैकेज मिलता है। जिसका इस्तेमाल वे आंतरिक मिलेट्राइजेषन में करते हैं। और इसी बहाने जनता के किसी भी तरह के प्रतिरोध को कुचलने में सहायता मिलती है। उदाहण के तौर पर प्रषांत राही वरिश्ठ पत्रकार उंतराखंड, विनायक सेन मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़, प्रफुल झा....... आदि गिरतार किये गये। इसी बहाने माकेZट फोर्स, पूंजी घराने की रक्षा की जा सकती है। यह इस लिए भी हो रहा है क्योंकि नयी बाजार की तलाष में कम्पनिंया जब गावं में जायेगी तो गावं में पनपते असंतोश को भी इन आंदोलनों के बहाने कुचला जा सके।
भूटान को देखें तो अभी वहां चुनाव हो रहा है और वहां का राजा मीडिया के व्दारा लोकतांत्रिक होनें का ढोंग रच रहा है। ‘शायद यह नेपाल की स्थितियों को देखते हुये। भूटान में जो लोग रियल डेमोकै्रसी की मांग कर रहे थे उन्हे देष से बाहर रियूजी की तरह घूमना पड़ रहा है। एक लाख 50 हजार से ज्यादा लोग भारत में हैं और जब वे जाने की बात करते हैं तो भारतीय पुलिस उनका दमन कर रही है। अमेरिकन और भारतीय सरकार यह चाहती है कि भूटान मे कुछ ऐसे आंदोलन ‘शुरु हों जिन्हें आतंकवादी, नक्सलवादी, माओवादी जैसा नाम देकर उनका दमन कर सकें और अपनी पैठ बना सकें।
आनंद स्वरूप वर्मा दक्षिण एषिया देषों के जानकार हैं और विषेशतर नेपाल और भूटान की घटनाओं पर नजर रखते हैं उनका मानना है कि जबसे भारत, श्रीलंका, नेपाल, बांगलादेष, भूटान यानि दक्षिण एषिया के देषो में अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ी है इसी के साथ यहां ‘शांति खत्म हुई है। सन 1997 में पैट्रिक ºयूज की एक रिर्पोट आयी जिसमें कहा गया की आने वाले समय में चीन अमेरिका का सबसे बड़ा दुष्मन होगा। यह रिर्पोट काफी चर्चा में रही। रिर्पोट का कहना था कि एषिया के देष अमेरिका की मिलेटरी को कम आंक रहे हैं और अमेरिका के खिलाफ एक आयडिओलॉजी पनप रही हैं। उसी समय डिफेंस मिनिस्टर डोनाल्ड रम्सफील्ड ने कहा कि यूरोप पर उतना ध्यान देने की जरूरत नही है जितना की साऊथ एषिया में।
ये सारी चीजें 1997 में घटित हो रही थी और 13 फरवरी 1996 में माओवादीओं ने नेपाल में पीपुल्सवार की घोशणा की गयी थी। इन सारी बातों को एक साथ देखने की जरूरत है। इसके बाद 2001 में स्टेट फॉर कि रिर्पोट आयी जिसमे दक्षिण एषिया को केंद्र में रखते हुए कहा गया की दक्षिण एषिया में माओवादीओं का उभार अमेरिका के लिये खतरा है। स्टेट फॉर की रिर्पोट मे यह भी कहा गया की यदि नेपाल माओवादीओं के हाथ में चला जाता है जैसा की हो चुका है तो उसका सम्बध चीन से अधिक प्रगाढ़ होगा न कि अमेरिका से जबकि चीन के लोग नेपाली माओवादीओं को न तो समर्थन करते हैं और न ही माओवादी विचार का मानते हैं उसी समय डोनाल्ड कैम ने यह कहा कि नेपाली माओवादीओं से अमेरिका के राश्ट्रहित को खतरा है। इसमें कई चीजें जुड़ी थी एक तो अमेरिका जिस बात का प्रचार कर रहा था इन्ड ऑफ आयडियोलॉजी विचार धारा की समाप्ति, क्लैस ऑफ सिविलाईजेषन यानी सभ्यता का टकराव वह नेपाल में उभता हुआ दिख रहा था। जो उनके लिये खतरा था। अत: आप देखे 2001 मे जब नेपाल में ‘शांतिवार्ता ‘शुरु हुई उसी समय अप्रेल में जसवंत सिंह अमेरिका गये हुए थे और भारत के ऐसे पहले विदेष मंत्री थे जिन्हें गार्ड ऑफ ऑनर से नवाजा गया था और जार्ज बुष ने उन्हें विषेश तव्वज्जो दी थी।
उसी समय हेनरी साल्टन की भारत यात्रा भी हुई। अत: कहीं-न-कहीं से अमेरिका भारत से अच्छे सम्बध बनाने के फिराक मे जुटा था जिसके पीछे की मंषा हम समझ सकते हैं। पंरतु नेपाल में अमेरिका को सेट बैक मिला क्योंकि जिन माओवादीओं को वे आतंकवादी लिस्ट में रखते हैं आज वे मंत्री हैं कल प्रधान मंत्री भी हो सकते हैं। भारत को लेकर 1998 में जब आडवानी गृह मंत्री थे तब हैदराबाद में एक मीटिंग हुई जिसमें भारत के 8 राज्यो को माओवादी प्रभावित क्षेत्र माना गया फिर 2005 में 13 राज्य, उसके बाद 14 राज्यों और अभी हाल की मीटिंग में 16 राज्यों के मुख्यमंत्री को इस बैठक में सम्मलित किया गया। यदि पूर्वोत्तर के राश्ट्रवादी आंदोलन कष्मीर, असम के आंदोलनों को लें तो कुल 16 और 8 मिलाकर 24 राज्यों में देष की सरकार इस तरह के विरोध को झेल रही है। तो क्या मात्र 4 राज्य ही ऐसे हैं जिनमे वह ‘शासन कर पा रही है, क्या यही लोकतंत्र है?
दरसल वजह यह है कि माओवादी आंदोलन या अन्य आंदोलनों से जूझते हुए राज्यों को केन्द्र से विषेश पैकेज मिलता है। जिसका इस्तेमाल वे आंतरिक मिलेट्राइजेषन में करते हैं। और इसी बहाने जनता के किसी भी तरह के प्रतिरोध को कुचलने में सहायता मिलती है। उदाहण के तौर पर प्रषांत राही वरिश्ठ पत्रकार उंतराखंड, विनायक सेन मानवाधिकार कार्यकर्ता छत्तीसगढ़, प्रफुल झा....... आदि गिरतार किये गये। इसी बहाने माकेZट फोर्स, पूंजी घराने की रक्षा की जा सकती है। यह इस लिए भी हो रहा है क्योंकि नयी बाजार की तलाष में कम्पनिंया जब गावं में जायेगी तो गावं में पनपते असंतोश को भी इन आंदोलनों के बहाने कुचला जा सके।
भूटान को देखें तो अभी वहां चुनाव हो रहा है और वहां का राजा मीडिया के व्दारा लोकतांत्रिक होनें का ढोंग रच रहा है। ‘शायद यह नेपाल की स्थितियों को देखते हुये। भूटान में जो लोग रियल डेमोकै्रसी की मांग कर रहे थे उन्हे देष से बाहर रियूजी की तरह घूमना पड़ रहा है। एक लाख 50 हजार से ज्यादा लोग भारत में हैं और जब वे जाने की बात करते हैं तो भारतीय पुलिस उनका दमन कर रही है। अमेरिकन और भारतीय सरकार यह चाहती है कि भूटान मे कुछ ऐसे आंदोलन ‘शुरु हों जिन्हें आतंकवादी, नक्सलवादी, माओवादी जैसा नाम देकर उनका दमन कर सकें और अपनी पैठ बना सकें।
11 फ़रवरी 2008
पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति पर एक रिपोर्ट :-
पाकिसतान में आज चुनाव है ऐसे हालात मे पाक पर एक नजरः-
करामत अली पाकिस्तान के एक वरिष्ठ पत्रकार है। पाकिस्तान की बदलती हालाते और बढ़ते सैन्यकरण को पाकिस्तान की जनता के हित में खतरे के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि लोकतंत्र का तकाजा है कि वह अपनी जनता को सुरक्षित रखे, उसके अधिकारो को सुरक्षित रखे। जनता को इस सुरक्षा का अहसास तभी हो सकता है जब पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बंध हों देश की सीमाओं पर युध्द के खतरे कम हों और देश की सम्प्रभुता बरकरार रखी जाये। परंतु हाल के दिनों में पाक की सीमा और देश की आंतरिक शस्त्रीकरण और बढ़ता सैन्यकरण इस बात का संकेत है कि देश की स्थिति, मानवाधिकारों की स्थिति और लोकतंत्र की स्थिति बद से बद्तर हुई है।
पाक की स्थिति भारत से भी ज्यादा खराब है उसका अंदाजा हाल की कुछ घटनाओं से लगाया जा सकता है। इसका कारण यह है कि पाक की सेना देश में प्रत्यक्ष रूप में शासन कर रही है सेना का पूर्णता हस्तक्षेप पिछले कई वर्षों से रहा है, और बढ़ा है। इसका एक उदाहरण आप देखे तो बेनजीर भुट्टो की पीपुल्स पार्टी जब सत्ता मे आयी तो वह बहुमत में नहीं थी। अन्य छोटी पार्टिओं के सहयोग से ऐसा संभव हुआ। ऐसे अवसर पर पाक के आर्मी चीफ ने बेनजीर को डिनर पर बुलाया जिसमे सेना के सभी बडे़ हुक्मरान और उनकी बीबीयॉं भी शामिल थी। डिनर के वक्त आर्मी चीफ ने बेनजीर से कहा की शासन तो आप करिये पर तीन विभाग में कौन रहेगा यह हम तय करेंगें जो भी हो पर बेनजीर से यह बात मनवा ली गई पहला फॉरेंन अफेयर, दूसरा इंडिया पाक रिलेशन तीसरा फाइनेन्स ऑफिसर जाफरी रहेंगे । बेनजीर को खुद नही पता था की यह जाफरी है कौन? दरअसल जाफरी वल्र्ड बैंक के एक अधिकारी थे।
इस तरह पाक आर्मी के कब्जे में वित्त व्यवस्था किसी भी समय थी और है। जिससे वें मिलेट्राईजेशन और न्युिक्लयराइजेशन की बजट बढ़ाने में सफल रहे हैं। और देश की जी.डी.पी. का 6.5 व्यय सेना पर हो रहा है दूसरा अमेरिका को इससे ज्यादा मदद यह मिली की वल्र्ड बैंक का अधिकारी (अमेरिकी प्यादा) पाक का वित्त मंत्री रहा तीसरा अमेरिका को शस्त्र बेचनें में मदद मिली।
पाकिस्तान की सेना का सार्वजनिक उपक्रमों में भी पूरा हस्तक्षेप है देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों के कुलपति रिटायर्ड सेनाधिकारी हैं। समाज के हर सोरमे में सेना का हस्तक्षेप है और सेना-सुरक्षा के नाम पर मानवाधिकारों को खत्म किया जाता है। विभाजन के बाद भारत पाक के ट्रेड युनियन एक जैसे थे पर पाकिस्तान के ट्रेड युनियन मे बदलाव आया है। पहले आर्मी में वे लोग यूनियन बना सकते थे जो वदीZधारी नही थे। जिनकी सेना मे एक बड़ी तादाद भी है पर अब वे यूनियन नहीं बना सकते हैं यहां तक कि जो लोग सेना से किसी भी तरह का सम्बध रखते हैं यूनियन नहीं बना सकते। अभी हाल में एक दिलचस्प वाकया घटित हुआ जिसमें कोर्ट ने एक फैसला सुनाया। मामला यह था कि एक एक्वागार्ड कम्पनी के मजदूरो ने यूनियन बनाई थी जिसको कम्पनी ने कोर्ट में यह कहते हुए मामला दाखिल किया कि वह सेना को एक्वागार्ड सप्लाई करती है और नियमत: सेना से सम्बध्द कोई भी विभाग की यूनियन नही हो सकती। कारण वश फैसला कम्पनी के पक्ष में रहा ।
दुनिया का यह पहला देश होगा जहां रेलवे लाईनों की लम्बाईओं में कमी आयी है कारण पड़ोसी देशों का खौफ रहा है जिसका झूठा प्रचार पाक सरकार हमेशा करती रही है। जिससे देश के लोगों को भी रेलवे सुविधाए ठीक ढंग से मुहैया नही हो पाती। और रेलवे में भी जहां से आमीZ की ट्रेन गुजरती है वहां से सारे ट्रेड यूनियन खत्म किये गये हैं।
भारत और पाक दोनों देश यह कहते रहे हैं कि जंग नही करनी है मसले को शांतिपूर्ण ढंग से हल किया जाना है इसके बावजूद दोनों देश नए हथियारों से लैस हो रहे हैं सेना की खर्च को बढ़ाया जा रहा है , परमाणु परीक्षण किये जा रहे हैं। भारत यदि 150 परमाणु शस्त्र रखने का दावा कर रहा है तो पाक कम-अज-कम 50 या उससे अधिक रखने का प्रयास में जुटा है। इसके पीछे क्या कारण हैं। यदि परमाणु बम पंजाब मे गिरता है तो ऐसा नही है कि वह केवल पंजाब में ही विध्वसं फैलायेगा उसका असर पाकिस्तान तक जायेगा क्योंकि बम कोई सीमा नहीं देखता और न ही किसी देश की सेना उसके प्रभाव को रोक पायेगी। कुल मिलाकर देश की जनता ही तबाह होगी जब कि ऐसा करने में दो चार बम ही काफी है फिर सौ क्या पचास क्या। और एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसका फैसला लेने वाले दोनों देशो में पचास से भी ज्यादा लोग नही है जबकि अंजाम अरबों जनता को भुगतना होगा। यह कैसा लोकतंत्र है और कैसा न्याय है। अत: दोनों देशो को अपने सैन्य शस्त्रों को कम करना चाहिए और परमाणु निशस्त्रिकरण करना चाहिए। दरसल ये देश टेरर और वार के नाम पर यूरोप और अमेरिका की सेवा कर रहे हैं।
आपको जानकर आश्चर्य होगा और हसीं भी आएगी की पाकिस्तान मे आज गरीब की परिभाषा इससे तय की जाती है कि किसके पास बंदूक नही है , रॉकेट लांन्चर नही है , बच्चे लेवर कर रहे हैं बिलो पॉवर्टी के नीचे है, इससे नही। गणतंत्र दिवसपर हम अपनी मिलेट्री पावर अस्त्र-शस्त्र का प्रदशZन करते हैं, न कि डेमाके्रसी में सुधार, मानवाधिकार किसानों की बदतर हालातों की चर्चा।
दूसरी बात डिफेन्स पर हो रहे खर्चे पर किसी भी संसद में बहस नही होती जो होनी चाहिए और सेना को कम किया जाना चाहिए। इस बार जब कांग्रेस सत्ता में आयी तो एक मुलाकात के दौरान प्रधानमंत्री का कहना था कि एक दो माह में सियाचीन से आमीZ हटा ली जाऐगी पर हुआ यूं कि एक दो हप्ते बाद आमीZ चीफ का बयान आया कि अभी हालात ऐसे नहीं हैं कि सेना को हटाया जाये और तब से यथास्थिति बनी हुई है। हमें यह नही सोचना चाहिए कि जब आमीZ माशZल लॉ लगाती है तभी शासन करती है बल्कि जब इनके पावर और ये बढ़ते हैं तब भी शासन करते हैं। और श्रीलंका, बंग्लादेश, पाक, भारत सबके सेना की हालत एक जैसी है।
भारत पाक की स्थिति को देखे हुए ऐसा लगता है कि देश मे एक बडे़ जन आंदोलन की जरूरत है जिसके जरिये मिलेट्राइजेशन को कम किया जा सकता है और उस पैसे से देश की अन्य बदतर स्थितियो को सुधारा जा सकता है। सेना में आयात किये जाने वाले शस्त्रो का दस प्रतिशत कमीशन भी हटाया जाना चाहिए।
07 फ़रवरी 2008
कब लौटेंगे हुसैन अपने घरः-
93 साल के मकबूल फिदा हुसैन अपने-आप में एक चलता-फिरता इतिहास हैं. अपनी पेंटिंग्स पर उठे विवादों और उन पर चल रहे अदालती मामलों के बाद पिछले कुछ समय से उन्हें दुबई में रहना पड़ रहा है. इन विवादों को लेकर वो क्या सोचते हैं? अपने विरोधियों को कहने के लिए उनके पास क्या है? ऐसे कुछ सवालों को टटोलता शोमा चौधरी का लेख .
मकबूल फिदा हुसैन को भारत रत्न दिया जाए या नहीं, खबरिया चैनल एनडीटीवी द्वारा इस सवाल पर एसएमएस पोल चलाने के विरोध में 19 जनवरी को जब कुछ लोग चैनल के अहमदाबाद स्थित दफ्तर में तोड़फोड़ कर रहे थे तो ये फनकार दुबई स्थित अपने घर में उस्ताद अमजद अली खान के बेटे की शादी के निमंत्रण पत्र के लिए दो घोड़ों का स्केच बनाने में तल्लीन था. उनके ब्रश की आवाज कमरे में पसरी शांति को तोड़ने के बजाय और गहरा कर रही थी. हुसैन जब चित्रकारी कर रहे होते हैं तो उनके ध्यान में कोई भी चीज बाधा नहीं डाल सकती. उनकी जिंदगी के पिछले 70 साल चित्रों के भक्त के रूप में गुजरे हैं. इन 70 सालों में उन्होंने हिंदू दर्शन और संस्कृति को आत्मसात किया है. रामायण पर चित्रकारी करते हुए आठ साल बिताए हैं. महाभारत को भी इतना ही वक्त दिया है. हुसैन ने गणेश, शिव, पार्वती, हनुमान, राग, नाट्य और बनारस की सैकड़ों तसवीरें बनाई हैं. भारत के बारे में दुनिया की समझ को समृद्ध करने के लिए उन्होंने सारी दुनिया की यात्रा की है. उन्हीं हुसैन को अब धर्मविरोधी करार दे कर उनके नाम पर तोड़फोड़ की जा रही है.
हुसैन कहते हैं, “ये इतिहास का बस एक लम्हा है, क्या कर सकते हैं.” दुबई में उन्होंने अपने सभी बच्चों के लिए फ्लैट खरीदे हैं. उन्होंने अपने लिए दो विशाल अपार्टमेंट्स भी खरीदे हैं जिनसे समुद्र को निहारा जा सकता है. इनमें से एक में वो अपने भतीजे फिदा, उसके परिवार और दो नौकरों के साथ रहते हैं. दूसरे को उन्होंने संग्रहालय में तब्दील कर दिया है .
हालांकि हुसैन के लिए निर्वासन कड़वा अनुभव नहीं क्योंकि ऐसा होना उनके विरोधियों की जीत और उनकी हार जैसा होगा. वो ठाठ और मजे के साथ जीने में यकीन रखते हैं. दुबई में उन्होंने अपने सभी बच्चों के लिए फ्लैट खरीदे हैं. उन्होंने अपने लिए दो विशाल अपार्टमेंट्स भी खरीदे हैं जिनसे समुद्र को निहारा जा सकता है. इनमें से एक में वो अपने भतीजे फिदा, उसके परिवार और दो नौकरों के साथ रहते हैं. दूसरे को उन्होंने संग्रहालय में तब्दील कर दिया है जिसकी भव्यता देखते ही बनती है. इसके तीन कमरे उन्होंने अपनी कला को समर्पित किए हैं—एक कमरे में 1950 के दशक में बनाई गई पेंटिग्स रखी गई हैं. इनमें अपने आप में एक कहानी ‘मारिया कलेक्शन’ भी शामिल है. दूसरे कमरे में पेंटिंग्स की एक श्रंखला, जिसे वो ‘हुसैन डिकोडेड’ कहते हैं, मौजूद है. तीसरे में मुगले-आज़म पर आधारित पेंटिंग्स रखी गई हैं.
इन दो अपार्टमेंट्स के बीच हुसैन अपनी जिंदगी उस ऊर्जा, उत्साह और सक्रियता के साथ जी रहे हैं जो उनसे एक तिहाई उम्र के लोगों को भी शर्मिंदा कर दे. वो सुबह सात बजे उठते हैं और रात को दो बजे तक जागे रहते हैं. उन्हें शानदार कारों का शौक है और उनके बेड़े में फेरारी, बेंटली, जगुआर और सात करोड़ में खरीदी गई बुगाटी शामिल है. हुसैन हंसते हुए कहते हैं, “लोग मूर्तियां खरीदते हैं, मैं कारें खरीदता हूं.”
शरारत उनके खून में है. फिदा की पत्नी साहिबा कहती हैं, “जब चाचा घर पर होते हैं तो सांस लेने की भी फुरसत नहीं होती.” हुसैन ने उन सबकी जिंदगी का कायाकल्प कर दिया है. फिल्में, पॉपकॉर्न, समारोह, मेहमान, महंगी जगहों पर भोजन, सस्ते रवि ढाबा पर दिन का खाना, एक मालाबारी होटल की चाय जैसी चीजों में ही उनका वक्त बीत रहा है.
पेंटिंग के इतर भी हुसैन सतत चलायमान रहते हैं. उनकी उंगलियां लगातार किसी काल्पनिक तबले पर थिरक रही होती हैं. वो एक दिन आबूधाबी में होते हैं तो दूसरे दिन कतर में. हर साल गर्मियों के महीने वो लंदन जाते हैं. इन दिनों वो अरबी भाषा भी सीख रहे हैं. इसके अलावा वो एक साथ चार प्रोजेक्ट्स पर भी काम कर रहे हैं. कतर की रानी के लिए वो अरबी सभ्यता पर 99 पेंटिंग्स बना रहे हैं. लक्ष्मी निवास मित्तल के लिए भी वो इसी स्तर की एक श्रंखला तैयार कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त हुसैन भारतीय सिनेमा के इतिहास और मुगले आजम को भी चित्रबद्ध करने में लगे हुए हैं.
अकूत धनसंपदा का ये मालिक आज भी पहले की ही तरह अपने ड्राइंग रूम में बिछे एक साधारण गद्दे पर सोता है. हुसैन अकेले यात्रा करना पसंद करते हैं. 93 साल की उम्र के इस शख्स की शारीरिक फुर्ती और मानसिक क्षमता देखकर हैरत होती है. लगता है जैसे उन्हें कोई दिव्य वरदान मिला हुआ है.
हुसैन एक तरह से जीता-जागता इतिहास और राष्ट्रीय धरोहर हैं. जिस दिन एनडीटीवी के अहमदाबाद आफिस में बीस लोग तोड़-फोड़ करते हैं उसी शाम हम उस्ताद अमजद अली खान और उनके बेटों के संगीत आयोजन में जाते हैं. लोगों की भीड़ उन्हें ऐसे घेर लेती है जैसे वो एक फिल्म स्टार हों. बार-बार सुनने को मिलता है, “दुबई का सौभाग्य है कि आप यहां हैं.” लोग उन्हें छूने, उनका ऑटोग्राफ लेने और उनके साथ फोटो खिंचवाने की कोशिश करते हैं. उस्ताद के सरोद का संगीत अब भी माहौल में गूंज रहा है. कुछ देर पहले हमने उनकी गणेश वंदना का आनंद लिया है. विविधताओं से बनी भारत की जिस मजबूत संस्कृति पर हम गर्व करते हैं वो ऐसे ही लोगों में बसती है. इस माहौल में भी रह-रहकर भारत में हो रही घटनाओं पर ध्यान चला जाता है. बाद में मालाबार रेस्टोरेंट में चाय पीते हुए हुसैन इस बारे में मानो कुछ सोचते हुए कहते हैं, “गालिब ने एक बार बहुत परेशान होकर कहा था कि या तो मेरे श्रोताओं को समझ दे या फिर मेरी आवाज बदल दे.” वो एक साथ चार प्रोजेक्ट्स पर भी काम कर रहे हैं. कतर की रानी के लिए वो अरबी सभ्यता पर 99 पेंटिंग्स बना रहे हैं. लक्ष्मी निवास मित्तल के लिए भी वो इसी स्तर की एक श्रंखला तैयार कर रहे हैं. इसके अतिरिक्त हुसैन भारतीय सिनेमा के इतिहास और मुगले आजम को भी चित्रबद्ध करने में लगे हुए हैं.
हुसैन की आत्मकथा ‘अपनी जबान में’ में एक घटना है. एक बच्चा मिट्टी से खेलता हुआ कुछ आकृतियां बना रहा है. मक़बूल नाम का एक नौजवान आता है और इन्हें चटख रंगों में रंग देता है. कोई भी इन आकृतियों में दिलचस्पी नहीं लेता. इसके बाद एम एफ हुसैन नाम का एक शख्स आता है और उन पर अपने हस्ताक्षर कर देता है. अचानक ही आकृतियों को खरीदने के लिए भीड़ टूट पड़ती है. हुसैन कहते हैं, “तीनों पात्र मैं ही हूं. कला की कीमत बढ़ाने के लिए मैंने एम एफ हुसैन को सोचसमझकर एक ब्रांड के रूप में तब्दील किया. मैं चाहता था कि कला के बारे में लोगों की जागरूकता बढ़े. मेरे लिए ये एक मिशन था.”
एम एफ हुसैन ब्रांड को लोगों ने हाथों-हाथ लिया. कला के बाजारीकरण से कई नाराज भी हुए मगर इसने भारतीय कला को विश्व स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई. 90 के दशक में जब हुसैन ने अपनी एक कलाकृति का मूल्य 40 हजार से बढ़ाकर एक लाख रुपये किया था तो लोगों ने इसे आत्मघाती कदम बताया. आखिर में जीत हुसैन की ही हुई और ये पांच लाख रुपये में बिकी. अगली बार उन्होंने अपने काम की कीमत पांच लाख लगाई, फिर दस लाख और इसके बाद आया एक करोड़ का मुकाम. इसे कामयाब बनाने के लिए उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्होंने इस आयोजन को सिटीबैंक से प्रायोजित करवाया और चुनिंदा दर्शकों को ही आमंत्रित किया. फिर उन्होंने एक तमाशा किया. संगीत की धुन और नर्तकों के थिरकते कदमों के बीच उनका कैनवास मखमल के किसी पर्दे की तरह लहराते हुए नीचे आया. इससे पहले वो ऐसा ही तामझाम भरा एक आयोजन वो माधुरी दीक्षित के साथ कर चुके थे. हुसैन कहते हैं, “मैंने माधुरी से पूछा कि क्या वो भारतीय कला को मशहूर बनाने के मिशन में मेरा साथ देंगी. आयोजन में हमने रंगों से पोता हुआ एक सफेद घोड़ा रखा हुआ था. शानदार लिमोजीन में बैठकर हम जानबूझकर आयोजन में देर से आए. लोगों को ये तमाशा खूब पसंद आया.”
हंसते हुए हुसैन कहते हैं, “लेकिन मैंने खुद को बचाए रखा है. मेरे भीतर वो बच्चा और चित्रकार मकबूल अब भी जिंदा है. मकबूल के बिना एम एफ हुसैन का वजूद नहीं होता.”
हुसैन के एक प्रशंसक और करीबी मित्र पूछते हैं, “हुसैन अपने काम के जरिये अपना गुस्सा क्यों जाहिर नहीं करते.” हुसैन जवाब देते हैं, “मैं वास्तव में कोई कड़वाहट महसूस ही नहीं करता. मेरा जिंदगी भर का काम ही मेरा जवाब है. बतौर कलाकार मैं अपनी ऊंचाई 1950 के दशक में छू चुका हूं. मेरा बाकी का काम उसी का प्रतिबिंब है. जब मेरी बीवी फाज़िला का भाई बंटवारे के वक्त पाकिस्तान चला गया तो कई दशक तक मैंने उससे कोई संपर्क नहीं रखा. मैं हमेशा से राष्ट्रवादी रहा हूं. मगर मुझे जगहों से कोई जुड़ाव महसूस नहीं होता. मां का प्यार आपके दिल में घर का अहसास पैदा करता है...आपको बांधकर रखता है. मैं बस डेढ़ साल का था जब मेरी मां चल बसी इसलिए मैंने इस तरह का लगाव भी कभी महसूस नहीं किया. मेरा पहला बच्चा शब्बीर तीन साल की उम्र में ही चल बसा. मैंने खुद एक गटर से उसकी लाश बाहर निकाली. इसके बाद खोने के लिए बाकी क्या रह जाता है.”
हुसैन के विचारों से आपको एक तरह की बुद्धिमत्ता की झलक मिलती है. इस उम्र में भी उनके भीतर खुद को दूसरी जगह जमाने और जिंदगी को फिर से गढ़ने की हिम्मत है. वो इसे इतना आसान बना देते हैं कि आपको ये बात बहुत हल्की लग सकती है. एक प्रशंसक और करीबी मित्र पूछते हैं, “हुसैन अपने काम के जरिये अपना गुस्सा क्यों जाहिर नहीं करते.” हुसैन जवाब देते हैं, “मैं वास्तव में कोई कड़वाहट महसूस ही नहीं करता. मेरा जिंदगी भर का काम ही मेरा जवाब है.
लेकिन अगर सिर्फ एक निगाह भर डालें तो उनके निर्वासन से जुड़ा बेतुकापन खुलकर सामने आ जाता है. यहां एक ऐसा व्यक्ति है जिसने लगभग एक सदी से भारत के हर पक्ष को बहुत नजदीक से देखा है. 1955 तक वह एक स्थापित कलाकार हो चुके थे और पद्मश्री से सम्मानित भी. 1971 तक उन्हें साओ पाओलो में पाब्लो पिकासो के साथ आमंत्रित किया जाने लगा था. 1986 में वह राज्यसभा सांसद भी बने. और ये सब महज ऊपर-ऊपर की बातें हैं—अगर ये सोचा जाए कि उन्होंने भारत के हर छोटे-बड़े रंग को 10,000 से ज्यादा चित्रों में उकेरा है तो ये बेतुकापन बिल्कुल नग्न हो जाता है.
एम एफ हुसैन एक चलता-फिरता इतिहास है. एक राष्ट्रीय धरोहर. और हमने उन्हें क्या दिया? देशनिकाला.
दुबई में हुसैन के साथ तीन दिन बिताने के बाद मैं भारत वापस आई. मैंने हुसैन के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले अपोलो अस्पताल के एंडोक्राइनोलॉजिस्ट डा. राम प्रताप सिंह को फोन किया. फोन उठाते ही जैसे उन्हें बिजली का झटका लगा. डॉ. सिंह निहायत ही गर्ममिजाज आदमी हैं. बात शुरू करते ही वो फट पड़े, "मैं आप जैसे लोगों को अच्छी तरह जानता हूं. आप मुझसे सवाल क्यों पूछ रही हैं? आप लोग हमेशा हमें लतियाने की फिराक में रहते हैं." मैंने कहा, "आप किस 'हम' की बात कर रहे हैं डॉ. सिंह? मैं भी एक हिंदू हूं. ठीक है आप हुसैन से सहमति नहीं रखते हैं, लेकिन आप एक पढ़े-लिखे आदमी हैं इसलिए मैं सिर्फ इतना पूछना चाहती हूं क्या आप लोग ऑफिसों में तोड़फोड़, कला दीर्घाओं में आगजनी रोक नहीं सकते हैं. क्या आप तांत्रिक कला की परंपरा के बारे में नहीं जानते और कृष्ण राधा, शिव पार्वती के कामुक प्रेम चित्रण को बताने की जरूरत नहीं है..." आप मुझे पढ़ा लिखा आदमी कह रही हैं? आप लोग हमेशा हमें गालियां देते हैं.. मुझसे सवाल पूछने वाली आप होती कौन हैं? मैं आपसे तंत्र या फिर किसी चीज़ के बारे में बात नहीं करूंगा. आप लोग हमारे साथ सम्मान के साथ क्यों नहीं रहते? आप जैसे लोग इस देश में सिर्फ एक फीसदी हैं, हम आपके साथ भी वही करेंगे...”
डॉ. सिंह की याचिका हुसैन के खिलाफ उन सात याचिकाओं में शामिल है जिनकी जानकारी हुसैन के वकील अखिल सिब्बल को है. सबको एक में ही दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा समाहित कर दिया गया है. सिब्बल ने बताया, "इसके अलावा अब मेरी जानकारी में उनके खिलाफ कोई और अदालती कार्रवाई नहीं चल रही है. लेकिन अक्सर हमें इसके बारे में जानकारी मीडिया के जरिए ही मिलती है."
हुसैन ने 2006 में उस वक्त हमेशा के लिए भारत छोड़ दिया था जब दक्षिणपंथियों के हमलावर रुख के बाद हरिद्वार की कोर्ट ने उनके खिलाफ ग़ैर ज़मानती वारंट जारी कर दिया था और इसमें भारत के भीतर उनकी सभी संपत्तियों की कुर्की का निर्देश भी था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर रोक लगा दी लेकिन बीते साल में ही हुसैन की पेंटिंग्स का कई हिंसक विरोधों से सामना हो चुका है. 2006 में लंदन के एशिया हाउस में आयोजित एक प्रदर्शनी में एक कट्टरपंथी हिंदू गुट ने जमकर तोड़फोड़ मचाई. यही कहानी अमेरिका के पीबॉडी एसेक्स संग्रहालय में लगी उनकी महाभारत श्रृंखला की पेंटिग्स के साथ भी दोहराई गई. ऐसा ही कुछ पिछले साल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में देखने को मिला जब केरल सरकार को दबाव में राजा रवि वर्मा पुरस्कार स्थगित करना पड़ा. मई 2007 में एबीएन एमरो बैंक को भी दबाव में अपने प्लेटिनम क्रेडिट कार्ड से हुसैन की कृति हटानी पड़ी. एक डरावने और बेतुके घटनाक्रम में लखनऊ में एक स्वघोषित हिंदू पर्सनल लॉ बोर्ड ने हुसैन का सिर लाने वाले को 51 करोड़ रूपये, आंखों के लिए 11 लाख और हाथ के बदले एक किलो सोना इनाम में देने की घोषणा की. एनडीटीवी के ऑफिस पर हमला इसी श्रंखला की ताज़ा कड़ी है. दुबई में हुसैन के साथ तीन दिन बिताने के बाद मैं भारत वापस आई. मैंने हुसैन के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले अपोलो अस्पताल के एंडोक्राइनोलॉजिस्ट डा. राम प्रताप सिंह को फोन किया. फोन उठाते ही जैसे उन्हें बिजली का झटका लगा.
अगर डॉ. राम प्रताप सिंह की जबान में ही बोला जाए तो ऐसे लोग भारत की आबादी का दशमलव कुछ फीसदी हिस्सा भी नहीं है. और भावनाओं का अनियंत्रित उफान भी नहीं है. उदाहरण के तौर पर गुजरात मामले को ही लें. बेरोजगार, कुंठित और बजरंग दल द्वारा दुत्कार दिया गया अशोक शर्मा किसी भी तरह से नाम कमाना चाहता था. अहमदाबाद के संयुक्त पुलिस कमिश्नर सतीश शर्मा भी इसका समर्थन करते हुए उसे ‘आवारा’ बताते हैं. इंटरनेट पर भी ये अभियान सुनियोजित तरीके से चलाया जा रहा है लेकिन इसके बाद भी इस तरह की खुराफातों में हिस्सा लेने वाले लोग गिनती के ही हैं. तरस खाने वाली बात ये है कि ये गिने चुने, असहिष्णु, किसी तरह की बात में विश्वास न रखने वाले और क़ानूनों की बेशर्मी से धज्जी उड़ाने वाले लोग ही हमारे सार्वजनिक जीवन की दिशा तय करने लगे हैं. और इन मामलों में कोई भी गिरफ्तारी नहीं होती जबकि सिब्बल बताते हैं कि राज्य, कोर्ट और पुलिस के पास सिर्फ शक्तियां ही नहीं है बल्कि उनकी जिम्मेदारी भी बनती है कि उनकी जानकारी में क़ानूनों का उल्लंघन करने की बात आए तो तो खुद-ब-खुद हस्तक्षेप करें. इस मसले पर हमने बीजेपी के अरुण जेटली से राय जानने की कोशिश की मगर उनका कहना था कि मीडिया से बात करना बंद कर रखा है. कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी से पूछिए आपको रटी रटाई लाइन सुनने को मिलेगी, “हुसैन के महत्व पर किसी को शक नहीं है, लेकिन भारत एक लोकतांत्रिक देश है और सबको विरोध और असहमति जताने का हक़ है. उनका शोषण नहीं होना चाहिए आदि...“ जहां तक सड़क पर जो हिंसा होती है उसका क्या? “अगर कोई ग़लत काम करते पकड़ा जाता है तो निश्चित रूप से उसे गिरफ्तार करना चाहिए लेकिन क़ानून व्यवस्था का मसला राज्य सरकार के जिम्मे है”
अपनी तरह का विशिष्ट और हाईप्रोफाइल मामला होने की वजह से हुसैन का निर्वासन देश के सामने भी चुनौती बन गया है. तस्लीमा नसरीन, सलमान रश्दी, तैयब मेहता, अकबर पद्मसी, मृदुला गर्ग, हबीब तनवीर, विजय तेंदुलकर, दीपा मेहता... हिंदू और मुस्लिम असहिष्णु गुटों द्वारा सताए गए लोगों की गिनती करते करते उंगलियों में दर्द होने लगता है. कलाकारों के ऊपर बातचीत के जरिए नहीं बल्कि मारपीट के जरिए प्रतिबंध थोपा गया. खुद तहलका भी प्रतिष्ठित छायाकार रघु राय की एक नग्न महिला की फोटो प्रकाशित करने के आरोप में मुंबई में इसी तरह के एक मामले का सामना कर रही है. हर बार जब सुनवाई होती है प्रधान संपादक को कोर्ट में हाज़िर होकर फिर से ज़मानत करवानी पड़ती है.
इन सभी मामलों में सभ्यता से जुड़े चार बड़े सवाल पैदा होते हैं. अश्लीलता की परिभाषा क्या है? धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला वो बिंदु क्या है (इन दिनों ये बहुत आसानी से चोट खा जाता है) जिसे पार करने से बचना चाहिए? लेखक और कलाकार की समाज में भूमिका क्या है? और, एक सभ्य समाज में हमें किस तरह से अपना विरोध जताना चाहिए? एम एफ हुसैन 2006 में तब प्रमुखता से ख़बरो में आ गए जब उनकी एक बिना नाम वाली पेंटिंग जिसमें एक नग्न युवती के रूप में देश का चित्रण किया गया था, का प्रदर्शन शैरोन एपारोस सैफ्रोनॉर्ट द्वारा किया गया. एक निष्पक्ष आदमी के लिए ये प्रेरक और सुंदर काम था. कुछ हिंदू गुटों ने इस पर हल्ला मचाना शुरू कर दिया. हुसैन को केरल अवार्ड दिए जाने का विरोध करने वाले रवि वर्मा बताते हैं, "हुसैन ने ये काम देश के 80 करोड़ हिंदुओं और इसके अलावा विदेशों में बसने वाले लाखों हिंदुओं की भावनाओं को जानबूझ कर चोट पहुंचाने की नीयत से किया है." ये पूछना ही बेकार है कि इतनी बड़ी संख्या की भावनाओं के बारे में वो कैसे दावा कर सकते हैं. सिब्बल के शब्दों में, "भारत माता पर किसी एक समुदाय का अधिकार नहीं है और क़ानूनों के मुताबिक खुद वर्मा के आरोप सांप्रदायिक और विभाजनवादी हैं."
इसके अलावा हुसैन द्वारा 1988 में बनायी गई सरस्वती पेंटिंग पर रूढ़िवादियों ने भौहें तरेरी थी. इसे निजी रूप से ही खरीदा गया था और इसका प्रकाशन भी टाटा स्टील द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक के सीमित संस्करणों में ही हुआ था. भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में जिस हद तक उत्तेजना का पुट होता है इस पेंटिंग में उसका एक चौथाई भी नहीं है. लेकिन अगर आप इस बात को कुछ देर के लिए छोड़ भी दें तो भी अश्लीलता पर जब हम बहस करते हैं तो एक अहम सवाल उठता है कि ये किस सीमा तक सार्वजनिक है? हुसैन का मामला हो, या किसी कलाकार का इन सभी मामलों में सभ्यता से जुड़े चार बड़े सवाल पैदा होते हैं. अश्लीलता की परिभाषा क्या है? धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाला वो बिंदु क्या है (इन दिनों ये बहुत आसानी से चोट खा जाता है) जिसे पार करने से बचना चाहिए? लेखक और कलाकार की समाज में भूमिका क्या है? और, एक सभ्य समाज में हमें किस तरह से अपना विरोध जताना चाहिए?
, वो अपना काम आपके ऊपर थोपते नहीं हैं, वो अपने काम का प्रचार बड़ी बड़ी होर्डिंग्स के सहारे नहीं करते जिनसे आपका सामना हर दिन होता है और आपके पास और भी विकल्प होते हैं. छोटी सी बात है, अगर आपको उनका काम पसंद नहीं है तो उसे मत देखिए. गैलरी में मत जाइए, किताबें मत खरीदिए. किसी समान विचारधारा वाले मीडिया में इसके खिलाफ अपने लेख प्रकाशित कीजिए. ये विरोध का एक सभ्य तरीका हो सकता है.
एक कलाकार या लेखक की तमाम जिम्मेदारियों में एक काम ये भी है कि वो समाज के विचारों की सीमा को आगे बढ़ाए. अगर उन्हें इस तरह से दबाया जाएगा तो फिर सारी कलाधर्मिता रुक जाएगी. खुशी की बात ये है कि बीते सालों में सुप्रीम कोर्ट ने बारीकी से आम ज़िंदगी में अश्लीलता का निर्धारण करने की कोशिश की है. रंजीत डी उदेशी बनाम महाराष्ट्र सरकार(1965), अजय गोस्वामी बनाम भारत सरकार(2005), समरेश बोस बनाम अमल मित्रा(1985) जैसे तमाम मामलों में अदालत ने ये राय दी है कि कला में सेक्स और नग्नता को अश्लीलता के दायरे में नहीं रखा जा सकता, न ही भद्देपन की समानता अश्लीलता से की जा सकती है. सिर्फ उन स्थितियों को, जिनमें जानबूझकर किसी का चरित्र बिगाड़ने या फिर भ्रष्ट करने की कोशिश की गई हो या कामुकता को भड़काने और दर्शक की यौन भावनाओं को उघाड़ने की कोशिश हो, ही अश्लीलता के दायरे में रखा जाना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि अश्लीलता की सीमा निर्धारित करने में वो अतिसंवेदनशील व्यक्तियों की सोच को इस्तेमाल नहीं कर सकता.
इसके पीछे का आशय काफी मायने रखता है. इन उदाहरणों के आगे हुसैन के खिलाफ मामले कहीं खड़े नहीं हो सकते. 10,000 कैनवास के जखीरे में बमुश्किल तीन पेंटिंग विवाद में हैं. क्या उनका मकसद अपमान करने का है? बजाय इसके उनका संपूर्ण काम ही उनके समर्पण को दर्शाता है. कला इतिहासकार अल्का पाण्डेय कहती हैं, "हुसैन असली मास्टर है. चित्र उकेरने की उनकी विशिष्ट कला, उनका बड़े पैमाने पर किया गया काम, खुद ही सीखने का गुण--ये सब अतुलनीय हैं. जहां तक कामुकता का सवाल है तो ये हमेशा से हमारे दर्शन और सौंदर्यप्रधान संस्कृति का हिस्सा रहे हैं. हुसैन इसी मिट्टी में सांस लेकर बड़े हुए हैं. उनकी कला भी इसी का नमूना है. उनका विरोध लज्जाजनक है.” ऐसा समर्थन उन्हें खूब मिलता है लेकिन इसका तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक कि कोई उनकी लड़ाई को लड़ने के लिए आगे नहीं आता. हुसैन खुद कुछ नहीं कहेंगे. वो एक उक्ति पर जीते हैं, “न कोई सफाई, न कोई बुराई”
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