25 जनवरी 2008

संविधान में मौलिक अधिकारों की प्रासंगिकता-


संविधान को लागू हुये 58 वर्ष बीत चुके है तब से तीन थके हुये रंगों को एक पहिया ढो रहा है। हर वर्ष 26 जनवरी को परेडों और जुलुसों के बीच राष्ट्र की संमप्रभुता और संविधान में प्रदत्त नागरिक अधिकारों का गुणगाण किया जाता है। पर इतने वर्षो बाद आम जन को ये अधिकार कितने मिल पायें है इसके विष्लेषण की जरूरत हैं। 1789 में मानवाधिकारों या मौलिक अधिकारों कों अपने नागरिकों के लिए सुनििष्चत करने वाला पहला राज्य फ्रांस था। भारतीय संविधान में नागरिकों के 7 मौलिक अधिकार अनुच्छेद 12 से 35 तक वणीZत किये गये है। परंतु 1975 के 44 वे संषोधन में संपत्ति का अधिकार समाप्त होने के बाद 6 अधिकार ही बचे। और इन अधिकारों क® लेकर 13 के खंड 2 मेें इस बात का वर्णन किया गया है कि राज्य कोइ भी ऐसा कानून नहीं बनायेगा जो इन अधिकारों को छीनती है या कम करती है और बनायी गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक षून्य होंगी। भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को जो अधिकार प्रदत्त किये गये उनकी कुछ सीमायें थी, सीमायें ही नहीं वरन उनमें इस तरह की व्यवस्था रखी गयी कि राज्य का कोई हस्तक्षेप न होते हुये भी राज्य की इच्छा के अनुरूप ही यह अधिकार मिल सके और नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन होता रहा।

समानता का अधिकार
अनुच्छेद 14 से 18 में नागरिकों को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है। जिनमें कई तरह की समानता नागरिकों को देने की बात कहीं गयी है। इनमे कानूनों के समक्ष समानता, अवसर की समानता, सामाजिक समानता, अस्पृष्यता का निषेध, उपाधियों का निषेध आदि षामिल है। पर गौर करने की बात यह है कि संविधान में वणिZत दिखावे की यह समानता है। आज भी समाज में वर्चस्ववादी वर्ग के लोगों का ही बोलबाला है। समाज में अवसर लाभ उसी को मिलता है जिसका समाज में वर्चस्व है। व्यवस्था में षिर्षस्थ स्थान पर वही लोग बैठे है जो पीढी दर पीढी से सारी परिस्थितियों को अपने अनुकूल रखे हुयें है। ऐसी स्थिती में आरक्षण की व्यवस्था होने के बाद भी सामाजिक परिस्थितीयों ने दमित व षोषित वर्ग को वंचित ही बनाके रखा है। थोडे बहुत परिवर्तन यदि आये भी तो उन्ही के पास जिन्होने इस वर्चस्ववादी जन से समझौता किया है। पर वे परिवर्तन कहीं से भी अस्पृष्यता निषेध या जातिविहीन समाज बनाने में मददगार साबित नही लगते।

स्वतंत्रता का अधिकार
मूल संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को जो स्वतंत्रतायें प्रदान की गयी। जिनमें विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अस्त्र षस्त्र रहित षांतिपूर्ण संमेलन, संघ तथा समुदाय बनाना, देष में कही भी भ्रमण, देष के किसी भी क्षेत्र मे निवास तथा व्यापार व व्यवसाय की स्वतंत्रता है। परंतु नागरिकों को ये स्वतंत्रता प्रदान करने के बाद कुछ प्रतिबंध भी लगाये गये यदि कोई व्यक्ति राज्य की सुरक्षा, विदेषी राज्यों से मैत्रिपुर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, षिष्टाचार या सदाचार, न्यायालय अवमानना, मानहानि या अपराध या फिर 1963 के 16 वे संषोधन में एक नया प्रतिबंध जोडा गया कि किसी क्षेत्र को भारत से अलग करने की मांग कोई करता है तो उसपर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। इन प्रतिबंधों के बाद अब ऐसा कुछ भी व्यक्त करने को नहीं बचता जिसके लिए आप स्वतंत्र है, और जो बचता है वह है राज्य की इच्छा की अनुरूप अभिव्यक्ति या राज्य की पक्षधरता अन्यथा इनकी व्याख्या करके राज्य किसी भी व्यक्ति की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगा सकता है यदि वह उसके उनुरूप न हो। अस्त्र षस्त्र रहित षांतिपूर्ण सम्मेलनों की व्याख्या राज्य किन रूपों में करेंगी। इसका कोई आधार नहीं है। लाठी या डंडे को अस्त्र माना जा सकता है। परंतु एके 47 लेकर रैलियों में सामूहिक प्रदषZन और गोलीबारी करने पर कोई प्रतिबंध नही लगता जैसा की पिछले दिनों उत्तर प्रदेष मेें मायावती सरकार की जीत के जष्न में उनके एक विधायक ने किया था।

शोषण के विरूद्ध अधिकार
अनुच्छेद 23-24 में वणिZत ये अधिकार व्यक्ति की गरिमा को सुनिष्चत करने के लिए बनायें गये हैं जिसके पीछे कारण यह था कि भारत में बेगार लेने या मजदूरों को गुलाम बनाने की प्रथा थी। परंतु जीवन की मूलभूत जरूरतों को पूरी करने के लिए रोटी, कपडा और प्रश्रय के अभाव में एक बडी जनसंख्या जी रही है। जो पहले दास के रूप में गुलाम बनकर अपना जिवन यापन करती थी। आज उसका स्वरूप थोडा बदल गया है। औद्योगिकरण के बाद उन दास का केंद्रीकरण हुआ है और वे किसी कंपनी में पूंजी घराने के दास बने हुये हैं और अपने श्रम को सस्ते दामों पर बेचने के लिए मजबूर हैं। जिसका मुनाफा उस निजी पूंजी घराने को जा रहा है। यही नहीं दूर दराज के गांव में आज भी यह व्यवस्था थोडे बहुत परिवर्तनों के साथ मौजूद है और मजदूर के रूप में सामंतों की जमीनों की जोत के बदले एक बडा तबका दास बनने को अभिसप्त है। यह अधिकार संविधान की किताब में लिखे चंद हफोंZ के अलावे कुछ नहीं दिखते।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 25 से 28 तक दिए गये इन अधिकारों में नागरिकों को किसी भी धर्म को अंगीकार करने तथा उसके प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गयी थी। जिसमें यह भी बात कही गयी थी कि उस नागरिक को राज्य कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता जो किसी विषेष धर्म अथवा धार्मिक संप्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विषेष रूप से सुनििष्चत किया हो। जिसका परिणाम यह हुआ की एक बडा व्यवसायी व संपन्न वर्ग इसकी आड में पूंजी का केंद्रीकरण करता रहा तथा आम जनता को धार्मिकता से ओतप्रोत करता रहा। जिसका फायदा आगे उठाकर धार्मिक कट्टरपंथियों ने लोगों की धार्मिक संवेदनाओं को सांप्रदायिकता के हद तक पहुचाया। लोगों को अपने धर्म के प्रति कट्टर बनाया और ताकिZक चिंतन और वैज्ञानिक चिंतन की परंपरा को भी कुंद करने का काम किया। कारणवष धर्म और धर्मगं्रथों में वणिZत व्यवस्थायें जो सामंती समाज आधारित थी उनको भी पुष्टी मिली और समाज में वर्णव्यवस्था वा विषमता को बरकरार रखने को बल मिला। सांप्रदायिक दंगों को भी अपरोक्ष रूप से आधार प्रदान किया गया और अल्पसंख्यकों के हितों का अनदेखा होता रहा।

संस्कृति और षिक्षा संबंधी अधिकार
अनुच्छेद 29-30 में संस्कृति और षिक्षा संबंधी अधिकारों का मूल उद्देष्य था कि अल्पसंख्यकों को इस बात से आष्वस्त करना कि उनके मामले में किसी भी प्रकार का अनावष्यक एवं अनुचित हस्तक्षेप नही किया जायेगा तथा भारतीय संघ किसी भी आधार पर भेदभाव नही करेगा। परंतु देष की सत्ता में विराजमान अधिकांषत: व सत्ता चरित्र के मुताबिक अपनी संस्कृति का निर्माण किया गया जो व्यवस्था को किसी भी रूप में स्थायित्व प्रदान कर सके। विभिन्न पार्टीयों ने वोट की राजनीति के लिए अपने हित के अनुरूप संस्कृति बनायी और उसे पोषित किया। पूंजी के इस युग में लोककला-संस्कृति को तरजीह देने के बजाय साम्राज्यवादी संस्कृति के रूप में उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास किया गया। गुजरात में आज यदि अल्पसंख्यक के रूप में रह रहा मुस्लिम इतना भयभीत है कि वह गाडी, दुकान में हिंदू देवों की मुर्तिया लगा रहा है, अपने वेषभूषा को हिंदुओं के मुताबिक ढाल कर चलने को मजबूर है। तो उसके मौलिक अधिकार कहां है और उनकी रक्षा करने वाला कौन?

संवैधानिक उपचारों का अधिकार
अनुच्छेद 32 से 35 को अंबेडकर ने संविधान की आत्मा कहा जिसके अंतर्गत न्यायपालिका- व्यवस्थापिका व कार्यपालिका की ऐसे सभी काननों और कार्याे को असंवैधानिक घोषित कर देगी जो मौलिक अधिकारों को अनुचित रूप से प्रतिबंधित करते है। किंतु गौरतलब बात यह है कि न्यायपालिका में बैठा हुआ न्यायाधीष वर्तमान लोकतंत्र के फासीवादी चरित्रपर सिर्फ नकाब पहना रहा है। जबकि इन अधिकारों का हनन करने वाले कितने ऐसे कानूनों- पोटा, आस्पा, छत्तीसगढ जनसुरक्षा अधिनियम आदि बनाये गये है। और हाल के कई फैसलों ने यह सिद्ध किया है कि न्यायपालिका-कार्यपालिका व व्यवस्थापिका के कायोZं पर परदा डाल कर लोकतंत्र या जनता पर न्यायपूर्ण षासन का ढोंग कर रही है।

24 जनवरी 2008

शामिलः-

हाशिया वाले रेयाज भाई की यह कविता आज के समय में लिखे जा रहे साहित्य से हट कर छत्तीसगढ़ के समय और संघर्ष को व्याख्यायित करती है| जब छत्तीसगढ़ में जनसंघर्ष चल रहा है, या यूं कहें की युद्ध चल रहा है, ऐसी स्थिती में छत्तीसगढ़ के लेखक अपनी भाषा के गुल खिला रहें है, और चटकारे लेकर लिख रहें है, उनकी पक्षधरता भी दिख रही है, किसी घटना पर कुछ न बोलने की| चाहे वह सलवा जुडुम हो या विनायक सेन की गिरफ्तारी, शायद उन्हे डर है सत्ता से सम्मान खोने का, उन्हे परहेज है जनपक्षधर हो के लिखने का| ऐसे में रेयाज की यह कविता उनके लिये जबाब भी हो सकती है की सिर्फ लेखक बने रहने के लिये लिखना और अपने समाज काल की स्थितियों और अभिव्क्तियों से लोगों को वाकिफ कराना दोनों में अंतर है...रेयाज की साहसशील लेखनी को सलाम


तुम कहोगी
कि मैं तो कभी आया नहीं तुम्हारे गांव
सलीके से लीपे तुम्हारे आंगन में बैठ
कंकडों मिला तुम्हारा भात खाने
लाल चींटियों की चटनी के साथ
तो भला कैसे जानता हूं मैं तुम्हारा दर्द
जो मैं दूर बैठा लिख रहा हूं यह सबङ्क्ष

तुम हंसोगी
मैं यह भी जानता हूं

तुम जानो कि मैं कोई जादूगर नहीं
न तारों की भाषा पढनेवाला कोई ज्योतिषी
और रमल-इंद्रजाल का माहिर
और न ही पेशा है मेरा कविता लिखना
कि तुम्हारे बारे में ही लिख डाला, मन हुआ तो

मैं तुम्हें जानता हूं
बेहद नजदीक से
जैसे तुम्हारी कलाई में बंधा कपडा
पहचानता है तुम्हारी नब्ज की गति
और सामने का पेड
चीन्ह लेता है तुम्हारी आंखों के आंसू

मैं वह हूं
जो चीन्हता है तुम्हारा दर्द
और पहचानता है तुम्हारी लडाई को
सही कहूं
तो शामिल है उन सबमें
जो तुम्हारे आंसुओं और तुम्हारे खून से बने हैं

दूर देश में बैठा मैं
एक शहर में
बिजली-बत्तियों की रोशनी में
पढा मैंने तुम्हारे बारे में
और उस गांव के बारे में
जिसमें तुम हो
और उस धरती के बारे में
जिसके नीचे तुम्हारे लिए
बोयी जा चुकी है बारूद और मौत

सुना कि तुम्हारा गांव
अब बाघों के लिए चुन लिया गया है
तुमने सुना-देश को तुम्हारी नहीं
बाघ की जरूरत है
बाघ हैं बडे काम के जीव
वे रहेंगे
तो आयेंगे दूर देश के सैलानी
डॉलर और पाउंड लायेंगे
देश का खजाना भरेगा इससे

सैलानी आयेंगे
तो ठहरेंगे यहां
और बनेंगे इसके लिए सुंदर कमरे
रहेंगे उनमें सभ्य नौकर
सुसज्जित वरदी में
आरामदेह कमरों के बीच
जहां न मच्छर, न सांप, न बिच्छू
बिजली की रोशनी जलेगी
और हवा रहेगी मिजाज के माफिक

...वे बाघ देखने आयेंगे
और खुद बाघ बनना चाहेंगे
तुम्हारे गांव में कितनी लडकियां हैं सुगना
दस, बीस, पचास
शायद नाकाफी हैं उनके लिए
उनका मन इतने से नहीं भर सकेगा

जो बाघ देखने आते हैं
उनके पास बडा पैसा होता है
वे खरीद सकते हैं कुछ भी
जैसे खरीद ली है उन्होंने
तुम्हारी लडकियां
तुम्हारा लोहा
तुम्हारी जमीनें
तुम्हारा गांव
सरकार
...वह जमादार
जो आकर चौथी बार धमका गया तुम्हें
वह इसी बिकी हुई सरकार का
बिका हुआ नौकर है
घिनौना गोखरू
गंदा जानवर
ठीक किया जो उसकी पीठ पर
थूक दिया तुमने

आयेंगे बाघ देखने गाडियों से
चौडी सडकों पर
और सडकें तुम्हारे बाप-दादों की
जमीन तुमसे छीन कर बनायेगी
और तुम्हारी पीठ पर
लात मार कर
खदेड देगी सरकार तुम्हें
यह
तुम भी जानती हो

पर तुम नहीं जानतीं
दूसरी तरफ है बैलाडिला
सबसे सुंदर लोहा
जिसे लाद कर
ले जाती है लोहे की टेन
जापानी मालिकों के लिए
अपना लोहा
अपने लोहे की टेन
अपनी मेहनत
और उस पर मालिकाना जापान का

लेकिन तुम यह जानती हो
कि लोहा लेकर गयी टेन
जब लौटती है
तो लाती है बंदूकें
और लोहे के बूट पहने सिपाही
ताकि वे खामोश रहें
जिनकी जगह
बाघ की जरूरत है सरकार को

सुगना, तुमने सचमुच हिसाब
नहीं पढा
मगर फिर भी तुम्हें इसके लिए
हिसाब जानने की जरूरत नहीं पडी कि
सारा लोहा तो ले जाते हैं जापान के मालिक
फिर लोहे की बंदूक अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे की टेन अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे के बूट अपनी सरकार के पास कैसे

जो नहीं हुआ अब तक
जो न देखा-न सुना कभी
ऐसा हो रहा है
और तुम अचक्की हो
कि लडकियां सचमुच गायब हो रही हैं
कि लडके दुबलाते जा रहे हैं
कि भैंसों को जाने कौन-सा रोग लग गया है
कि पानी अब नदी में आता ही नहीं
कि शंखिनी और ढाकिनी का पानी
हो गया है भूरा
और बसाता है, जैसे लोहा
और लोग पीते हैं
तो मर जाते हैं

तुम्हारी नदी
तुम्हारी धरती
तुम्हारा जंगल
और राज करेंगे
बाघ को देखने-दिखानेवाले
दिल्ली-लंदन में बैठे लोग

ये बाघ वाकई बडे काम के जीव हैं
कि उनका नाम दर्ज है संविधान तक में
और तुम्हारा कहीं नहीं
उस फेहरिस्त में भी नहीं
जो उजडनेवाले इस गांव के बाशिंदों की है.

बाघ भरते हैं खजाना देश का
तुम क्या भरती हो देश के खजाने में सुगना
उल्टे जन्म देती हो ऐसे बच्चे
जो साहबों के सपने में
खौफ की तरह आते हैं-बाघ बन कर

सांझ ढल रही है तुम्हारी टाटी में
और मैं जानता हूं
कि मैं तुम्हारे पास आ रहा हूं
केवल आज भर के लिए नहीं
हमेशा के लिए
तुम्हारे आंसुओं और खून से बने
दूसरे सभी लोगों की तरह
उनमें से एक

हम जानते हैं
कि हम खुशी हैं
और मुस्कुराहट हैं
और सबेरा हैं
हम दीवार के उस पार का वह विस्तार हैं
जो इस सांझ के बाद उगेगा

हम लडेंगे
हम इसलिए लडेंगे कि
तुम्हारे लिए
एक नया संविधान बना सकें
जिसमें बाघों का नहीं
तुम्हारा नाम होगा, तुम्हारा अपना नाम
और हर उस आदमी का नाम
जो तुम्हारे आंसुओं
और तुम्हारे खून में से था

जिसने तुम्हें बनाया
और जिसे तुमने बनाया
सारी दुनिया के आंसुओं और खून से बने
वे सारे लोग होंगे
अपने-अपने नामों के साथ
तुम्हारे संविधान में

जो जिये और फंफूंद लगी रोटी की तरह
फेंक दिये गये, वे भी
और जिन्होंने आरे की तरह
काट डाला रात का अंधेरा
और निकाल लाये सूरज

जो लडे और मारे गये
जो जगे रहे और जिन्होंने सपने देखे
उस सबके नाम के साथ
तुम्हारे गांव का नाम
और तुम्हारा आंगन
तुम्हारी भैंस
और तुम्हारे खेत, जंगल
पगडंडी,
नदी की ओट का वह पत्थर
जो तुम्हारे नहाने की जगह था
और तेंदू के पेड की वह जड
जिस पर बैठ कर तुम गुनगुनाती थीं कभी
वे सब उस किताब में होंगे एक दिन
तुम्हारे हाथों में

तुम्हारे आंसू
तुम्हारा खून
तुम्हारा लोहा
और तुम्हारा प्यार

...हम यह सब करेंगे
वादा रहा.

16 जनवरी 2008

फिल्मी दुनिया केज्यादातर लोग कम पढ़े-लिखे हैं


साहित्य अकादेमी अवार्ड, इकबाल सम्मान, बहादुर शाह जफर अवॉर्ड, गालिब अवॉर्ड, राजभाषा अवॉर्ड, उदूü अकादमी अवॉर्डü, फिराक सम्मान आदि से नवाजे जा चुके `गमन´, `उमराव जान´, `अंजुमन´ जैसी फिल्मों में गीत लिख चुके और स्थानीय जनवादी लेखक संघ के 15 वषोZ से अध्यक्ष शहरयार आज हिंदुस्तानी शायरी की पहचान बन चुके हैं। इन पर कई पीएचडी हो चुकी हैं, तो कई विश्वविद्यालयों में (जहां मॉडनü पोएट्री है) एमए में उनको पढ़ाया जाता है। यह इत्तेफाक ही है कि जिस फिल्म के लिए उन्होंने अनमने से गीत लिखे, उसी ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। पहला संग्रह छपा, उस समय भारत-पाक जंग शुरू हो गई थी। मगर उनकी शायरी को सीमाओं के दायरे पड़ोसी देश पहुंचने से नहीं रोक सके और वाया लंदन उनकी किताब पाकिस्तान भी पहुंच गई। अलीगढ़ में उनके आवास पर हुई बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं :

शहरयार साफ-साफ बात कहने और सुनने में विश्वास करते हैं। उनकी रचनाएं संवेदना और समय का भरा-पूरा दस्तावेज हैं। अब तक उन्हें साहित्य जगत के अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। गजलगो शहरयार हिंदुस्तानी शायरी का एक चेहरा बन गए हैं।

`दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए´ और `जिंदगी जब भी तेरी बज्म में लाती है हमें´ जैसी गजलों का रचनाकार आज एक फ्लैट में सीमित होकर रह गया। क्या फिल्मों में आगे काम नहीं मिला या आपको फिल्मों का काम पसंद नहीं आया?


दरअसल, मुझे बहुत जल्द पता चल गया कि वहां की जिंदगी के लिए मैं बना ही नहीं हूं। वहां फिल्में बनाने और बेचने वाले अधिकांश लोग कम पढ़े-लिखे और छोटे जेहन के लगे। वहां मौलिकता की गुंजाइश भी नहीं थी। जिनसे वास्ता पड़ता था, उनकी बातेें बहुत सतही होती थीं। एक प्रोडKूसर मिला, जो बमुश्किल दस्तखत कर सकता था। संक्षेप में कहूं, तो `दुपट्टा मेरा´ टाइप गाने की फरमाइश मैं पूरी नहीं कर सकता था।


दूसरा कारण था कि जिस मुकाम पर आकर मुझे फिल्मों में काम करने का मौका मिला, वहां तक पहुंचकर मैं पूरी तरह सुकून की जिंदगी गुजारने का आदी हो गया था। मैं परिवार छोड़कर नहीं रह सकता था। मैंने देखा है कि लोगों ने पैसे तो बहुत कमा लिए, मगर उनके बच्चे गुमराह हो गए। मैं पिता का रोल बच्चों के साथ रहकर अदा करना चाहता था। (एक क्षण रुककर) जो कमियां बचपन में मेरे साथ रहीं, वह अपने बच्चों के साथ होते नहीं देखना चाहता था।


आपने फिल्मों तक का रास्ता कैसे तय किया?

मुजफ्फर अली पेंटर थे और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में मेरे जूनियर भी। वे शायरी पसंद करते थे। उन दिनों (वर्ष 1965 में) मेरा पहला गजल संग्रह `इस्मे आजम´ छपा, जो उनके पास था। उससे वे प्रभावित थे। पांच-छह साल बाद उनका एक खत मिला कि वे `गमन´ फिल्म में मेरी दो गजलें रखना चाहते हैं।


सीने में जलन आंखों में तूफान-सा क्यों है


इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है


और दूसरी...


अजीब सानिहा मुझ पर गुजर गया यारो


मैं अपने साये से कल रात डर गया यारो


इस तरह ये गजलें सुरेश वाडकर और हरिहरन ने गाईं, जो उनकी भी बेस्ट रहीं।


उमराव जान में गाने का प्रस्ताव कैसे मिला?


इन गजलों के कैसेट रिलीज के मौके पर मुजफ्फर ने मुझे मुंबई बुलाया और लखनवी अदब पर फिल्म बनाने की बात कही। मैं फिक्शन पढ़ाता था और उमराव जान उपन्यास उस समय बन रहा था। मैंने इस किताब की बुनियाद पर फिल्म बनाने का सुझाव दिया। इस फिल्म में मेरी पांच गजलें हैं।


ऐसी कोई बात, जो भुलाए न भूल रही हो?


मेरे गॉड फादर के समान खलीलुर्रहमान की मृत्यु...। (काफी देर चुप रहने के बाद) मैं अपनी पत्नी से 12 वषोZ से अलग हूूं, यह बात भी मुझे भुलाए नहीं भूलती।


हालांकि यह नितांत निजी मामला है और पूछने में संकोच भी हो रहा है फिर भी बात निकली है, तो क्यों न पूरी कर लें। इस अलगाव का कारण?


(बहुत ही शांत चित्त से) कुछ मेरा कुसूर है, लेकिन इसका इल्म शादी से पहले था। मेरी हर कमजोरी से पत्नी वाकिफ थीं, लेकिन एक वक्त के बाद वह चाहती थी कि वे आदतें अच्छाइयों में तब्दील हो जाएं। बात नहीं बनी और हम अलग हो गए। (एक शेर सुनाते हैं)


इस मोड़ पर अब तुमसे बिछड़ना नहीं आसान


पहले ही कहीं तुमसे जुदा हो गए होते


आखिरी व्यक्तिगत प्रश्न पूछ रहा हूं। बच्चे ऐसे में कैसा महसूस करते है?


मैंने उन्हें सिखाया है कि वे अपनी मां को पूरा सम्मान दें। क्योंकि मैंने भी अपनी मां से बहुत प्यार किया। बड़ा बेटा हम दोनों का बराबर सम्मान करता है।


(हम साहित्य पर लौटते हैं)


हिंदी कविता तमाम बंदिशों को तोड़कर आगे बढ़ रही है। छंद-लय तक सीमित न रहकर वह अर्थ-लय तक पहुंच गई मगर ऐसा लगता है कि उदूü शायरी बंदिशों से मुक्त नहीं हो पा रही है।


ऐसा नहीं है। उदूü में काम बहुत हुआ है। हिंदी और उदूü की तुलना सम्मेलनों और मुशायरों को लेकर नहीं की जा सकती। उदूü में `सीरियस´ और `पॉपुलर´ में काफी अंतर रहा है। इसकी वजह हमारी साहिçत्यक गतिविधियों का व्यावसायिक पहलू न होना है। बेदी और इस्मत चुगताई आदि की कहानियां पहले हिंदी में छपीं तब उदूü में। प्रेमचंद भी इसी कारण उदूü से हिंदी में आ गए। रही बात छंदों की, तो मीटर तोड़ने की जरूरत नहीं है। मीटर की पाबंदियों में रहकर मुख्तलिफ बातें कही जा सकती हैं। अब शायरी बदल गई है। उसके सामाजिक और नैतिक पहलू का ध्यान रखा जाने लगा है। फैज़ म$कदूम और मजरूह सुल्तानपुरी की शायरी पूरी तरह प्रोग्रेसिव है।


हिंदी में भी आज बड़े पैमाने पर गजलें लिखी जा रही हैं, जिनसे उदूü के बड़े शायर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। आपका क्या खयाल है?

मेरा कुछ भी कहना ज्यादती होगी। हां, दुष्यंत कुमार हिंदी के बेहतरीन गजलगो हैं। कई स्थानीय शायर भी बेहतरीन काम कर रहे हैं। मैं इसके खिलाफ नहीं हूं। भाषा कोई भी हो, गजल की शतेZ उसमें बरकरार होना जरूरी है। दो लाइनें बराबर तो होनी ही चाहिए।


आपने अपनी शायरी को भाषा के स्तर पर काठ का जूता नहीं पहनाया, जबकि उदूü के अधिकांश शायर ऐसा करते रहे हैं।


मैं अपने लिए शेर नहीं कहता। शायरी लोगों की समझ में आनी चाहिए, भले ही उसे कम लोग समझ पाएं। गालिब और मीर ने भी बहुत आसान शायरी की है। (दोनों के एक-एक शेर सुनाते हैं):


इब्ने मरियम हुआ करे कोई


मेरे दुख की दवा करे कोई


या फिर


नाजुकी उसके लब की क्या कहिए


पंखुड़ी एक गुलाब की-सी है


ऐसा नहीं लगता कि पुरानी उदूü शायरी कुछ हद तक सीमित दायरे में और पूर्वाग्रह से ग्रस्त है?


शायरी में इश्क-मोहब्बत होनी ही चाहिए, यह पूर्व धारणा है। मगर यही सब कुछ नहीं है, ये अब की सोच है। मैंने शराब पर कोई शेर नहीं कहा, न ही शराब पीकर शायरी की। दरअसल शायरों के साथ कई मिथक गढ़ दिए गए हैं। जैसे शायर है, तो अनपढ़ होगा, शक्ल-ओ-सूरत खराब होगी, शराब पीता होगा, गैरजिम्मेदार होगा आदि-आदि। हालांकि ऐसा हो भी सकता है, मगर यह जरूरी भी नहीं।


आपकी अपनी पसंदीदा गजल?


किसी एक को कहना मुश्किल है, मगर मेरी एक गजल चçर्चत हुई:


जिंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है।


हर घड़ी होता है एहसास कहीं, कुछ कम है॥


घर की ताकीर तसव्वुर में ही हो जाती है।


अपने नक्शे के मुताबिक ये जमीं, कुछ कम है॥


जीवन का उद्देश्य किस तरह व्याख्यायित करेंगे?


आदमी को किसी के लिए जिंदा रहना चाहिए। जिन चीजों से अच्छाइयों को खतरा है, उनका विरोध हो।


ये सफर वो है कि रुकने का मुकाम इसमें नहीं।


मैं जो थम जाऊं, तो परछाईं को चलता देखूं॥




(ऊर्दू के मशहूर शायर शहरयार से गीतेश्वर की बातचीत)
अमर उजाला से साभारः-

10 जनवरी 2008

मुक्तिबोध की तीन कवितायेंः-




1:- मृत्यु और कवि

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर
व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर
है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती,
जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर
बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला,
वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन
घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, कवि का मन गीला
"ये सब क्षनिक, क्षनिक जीवन है, मानव जीवन है क्षण-भंगुर" ।

ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।

क्षण-भंगुरता के इस क्षण में जीवन की गति, जीवन का स्वर
दो सौ वर्ष आयु होती तो क्या अधिक सुखी होता नर?
इसी अमर धारा के आगे बहने के हित ये सब नश्वर,
सृजनशील जीवन के स्वर में गाओ मरण-गीत तुम सुंदर
तुम कवि हो, यह फैल चले मृदु गीत निर्बल मानव के घर-घर
ज्योतित हों मुख नवम आशा से, जीवन की गति, जीवन का स्वर ।

2:- नाश देवता

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा,
तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा
हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है
तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।

तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे,
तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे
कोपुत तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन
रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन ।

सभी उरों के अंधकार में एक तड़ित वेदना उठेगी,
तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित जड़ावरण की महि फटेगी
शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अंकुर
दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी ।

हे रहस्यमय, ध्वंस-महाप्रभु, जो जीवन के तेज सनातन,
तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सृजन
हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वंदन
मेरे सर पर एक पैर रख नाप तीन जग तू असीम बन ।

3:- ऐ इन्सानों

आँधी के झूले पर झूलो
आग बबूला बन कर फूलो
कुरबानी करने को झूमो
लाल सबेरे का मूँह चूमो
ऐ इन्सानों ओस न चाटो
अपने हाथों पर्वत काटो

पथ की नदियाँ खींच निकालो
जीवन पीकर प्यास बुझालो
रोटी तुमको राम न देगा
वेद तुम्हारा काम न देगा
जो रोटी का युद्ध करेगा
वह रोटी को आप वरेगा ।
- गजानन माधव मुक्तिबोध