28 सितंबर 2007

लोकतंत्र : किसका, किसके लिए ?

देवाशीष प्रसून जी महत्मा गांधी अंतरराष्तीय हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र है आज देश में चल रहे लोकतंत्र को ढोंग के रूप में देखते है सवाल है कि लोकतंत्र किसका है क्योंकि कोई भी सत्ता किसी एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है तो आज का लोकतंत्र किस वर्ग की छाँव में पल रहा है? किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है? कुछ मौजू़ सवालों को उठाया है.....
सरकार नामक संस्था का निर्माण जन-सामान्य के हितों के लिये होता है। ऐसी ही परिकल्पना एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में सरकार की होती है, बिना भेदभाव के सबके विकास को ध्यान में रख कर ऐसी नीतियों को बनाना और लागू करना, जिससे सामाज का हर तबका ,देश के सभी क्षेत्र और राष्ट्र की प्रत्येक जातियों और धर्मो को समान रूप से लाभान्वित किया जा सके। शायद एक सफल सरकार का यही कार्य होता है। कम से कम सही अर्थों में एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में सरकारो का सही अर्थों में लोकतांत्रिक प्रयोग है, कि इस विश्व में कई ऐसे लोकतांत्रिक राष्ट्र हुए हैं जहॉ लोकहितों का कोई ख्याल नहीं रखा गया है,उनका प्रयोग सिर्फ सत्ता कायम करते वक्त मत एकत्र करने हेतु किया जाता है ,ताकि दुनिया के सामने लोकतांत्रिक होने का ढोग किया जा सके, उदाहरण है कि जिस तरह का लोकतंत्र अफगानिस्तान ,पाकिस्तान में है और जो सद्दाम के समय इराक में था, अभी जो अमेरीका नियंत्रित है क्या उन्हें सही अर्थों में लोकतंत्र कहा जा सकता है ?
भारत की स्थिति भी लोकतंत्र के मामले में दूध की धुली नहीं है, भारतीय लोकतंत्र में कहने को तो भारत में छह दशको से लोकतंत्र है ,फिर भी आज बढती जन-सामान्य विरोधी नीतियों और सरकार में बढ़ती प्रतिरोध के प्रति असहिष्णुता से अदांज लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक सरकार किस दिशा में जा रही है, आज भारत विकाससील से विकसित राष्ट्र बनने की बात करता है, विकास के क्या मायने है? क्या यह राष्ट्रीय संपत्ति का विकस है या चुनिंदा पूंजीपतियॉ का विकास या फिर जन सामान्य का विकास? यह सोचने की जरूरत है, जन सामान्य का विकास तो अब बस राजनीतिक घटनाओं तक ही सीमित रह गया है, सरकार कितनी उदासीन है जन सामान्य के प्रति, आराम से यह बात समझ में आती है, कि भारतीय सरकार संस्था बहुसंख्यक आम जनता के प्रति गंभीर नहीं है। भारत सरकार की नीतियॉं अलोकतांत्रिक हो रही है? भले कुछ लोग इसे लोकतंत्र कहें लेकिन इस लिबरल लोकतंत्र से जन सामान्य का हित गौण है।

सरकारी नजरिया

ग्यारहवी पंचवर्षीय योजना के उददेश्य पत्र की रूपरेखा पर विचार करने और उसे मंजूरी दिलाने के लिये आयोजित विकास परिसद की 52 वीं बैठक में उद्धाटन के उपरांत प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह यह ज़ाहिर करते हैं कि कृषी क्षेत्र इस समय संकट में है और विकास के पथ पर केंद्र और राज्य सरकारों को कुछ कठिन फैसले लेने होंगे।
प्रधानमंत्री को यह जवाब देना चाहिए कि क्यों कृषी क्षेत्र संकट में है? क्या कृषी के प्रति सरकार की लापरवाही इसके लिए जिम्मेवार नहीं है? क्या कृषी के प्रति सरकार का व्यवहार सौतेला नहीं है?
कृषी क्षेत्र, वह क्षेत्र जिस पर बहुसंख्यक आम जनता निर्भर है, संकट में हैं। केंद्र और राज्य सरकारें कृषी की उन्नति और किसानों के हित के प्रति उदसीन है। हर फैसले में किसानों, खेतिहर-मज़दूरों और कृषी-आश्रितों के हित को हाशिये पर रखा जा रहा है?

विषेश आर्थिक क्षेत्र

आर्थिक विकास का सिगूफा छोड़ते हुए विषेश आर्थिक क्षेत्र अधिनियम 2005 लागू कर किसका भला किया गया है और किसको भाले की नोक पर रहने की स्थिति में ला दिया गया है, यह स्पष्ट है। इस अधिनियम ने काफी हद तक किसानों को विस्थापन के लिए मज़बूर किया, कृषी-क्षेत्र और संकटों में आ घिरा है। कृषी को हाशिये पर रख उद्योगों को उन्नत करना कैसा अर्थषास्त्र है? समझ में नहीं आता। वह भी ऐसे उद्योगों को उन्नत करना जिससे मुट्ठीभर पूंजीपतियों को लाभ हो... इसे पूरा करने में सरकार अपनी पूरी उर्जा झोंक रही है।
विषेश आर्थिक क्षेत्र के नाम पर पूंजीपतियों को कर में छूट दी जा रही है और उनकी मनमानी के लिए यह क्षेत्र ऐसे अभ्यारण्य के रूप में विकसित करने की परियोजना है, जहॉं कोई भी श्रम कानून नहीं हो। यदि विषेश आर्थिक क्षेत्र राष्टीय विकास के लिए इतने आवश्यक भी है तो उन्हें उन स्थानों पर होना चाहिए था, जो कृषी के लिए अयोग्य भूमि हो। लेकिन अरबों - खरबों रूपयों की पूंजी लगाने वाली ये कंपनियॉं निम्नस्तरीय भूमि को नहीं स्वीकार करतीं, इसलिए सरकार किसानों की उपजाऊ जमीनों को अपने विषेशाधिकार से जबरन अधिग्रहित कर औने-पौने दाम में इन कंपनियों के चरणों में सौंपने लगी है, तो कृषी-क्षेत्र संकट में क्यों नहीं आयेगा?

सलवा जुडुम
सन 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने एस्सार और टाटा समूह के साथ समझौते किये, जिसमें सूचना के अधिकार को ताख़ पर रखते हुए यह उपवाक्य है कि किसी तीसरे पार्टी को शर्त एवं नियम का उद्धाटन नहीं होना चाहिए। फिर भी सरकार और कंपनियां अपनी प्रतिबद्धताओं को दावे के साथ कहती है, कि औद्योगिक घरानों के माध्यम से राज्य का औद्योगिक विकास होगा। जिसमें सरकार भूमि, खनिज, बिजली और पानी उपलब्ध करायेगी।
छत्तीसगढ़ के 16 जिलों में खनिज संपदा और उपजाऊ भूमि का धनी दांतेवाडा जिला की भूमि का 80 फीसदी आदिवासियों का है। कानूनन प्राकृतिक संसाधनों पर इन्हीं आदिवासियों का अधिकार है। सरकार ने इनको नक्सलियों का भय दिखा कर इनकी भूमि से विस्थापित कर इन्हें शिविरों मे रहने को मज़बूर किया है। सरकार इनके हाथों में हथियार दे नक्सलियों से लड़ने का काम करती हैं।
दो-चार प्रश्न स्वभाविक हैं-
पहला, नक्सल से लड़ने में क्या राज्य की सुरक्षा व्यवस्था इतनी लाचार है, जो आम नागरिकों के हाथ में हथियार डाल रही है?
दूसरा, जिन आदिवासियों को अपने पारंपारिक रोजगारों में व्यस्त रहना चाहिये था, क्या उनके पहचान को नष्ट नहीं किया जा रहा है? तीसरा, पिछले डेढ़ साल से जबरन शिविरों में रख और उन्हे विस्थापित कर उनकी ज़मीन हडपने का तो इरादा नहीं है?
इन प्रश्न के उत्तर की अब तक प्रतीक्षा है। आम जनता क्या सोचती है, इन विषयों पर? सरकार के इस रवैये पर भारत कि लोकतांत्रिक चेतना क्या कहती है?
यदि ग़ौर से देखें, तो पूजी के नवसाम्राज्यों के हाथों देश का सौदा हो रहा है और फिर देश गुलामी की जंजीर में जकड़ता जा रहा है। आज स्थिति और भी बदतर है, जब लड़ने के लिए कोई विदेशी शासन नहीं। बल्कि लिबरल लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुखौटे में छुपी नवसाम्राज्यवाद की गुलामी होंगी।

14 सितंबर 2007

बाजारवाद की गिरफ्त में हिन्दी:-



आज हिन्दी दिवस है,अन्य ढेर सारे दिवसों की ही तरह......
विवेक जी महत्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र है, हिन्दी को बाजार में किस तरह से यूज किया जा रहा है? उसके क्या कारण है? हिन्दी के विकास की क्या संभावना है? कुछ गहरी चिन्ताओं के साथ इन्होंने अपनी सोच दखल के पाठकों तक रखनी चाही है, आज जब इंटरनेट से ब्लाग की दुनियाँ के लोग क्राति कर रहे है. हिन्दी में बहुत सारे ब्लाग प्रकाशित हो रहे है तो इनकी चिन्ता उन जमीन के लोगों से है जो इंटरनेट को दुनियाँ का अजूबा मानते है....
विवेक जायसवाल
बाजारवाद और ग्लोबल विषय के इस दौर में जब अंग्रेजी का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है तो एक सवाल शिद्दत से उठ रहा है, कि आखिर हिन्दी की जरूरत किसे है? आज से दस साल पहले जवान हुई, वह पीढ़ी जिसने गांवों में जन्म लिया और गांव के टाट-पट्टी वाले स्कूलों में शिक्षा ग्रहण की, परन्तु आज भी वह अंग्रेजी व उसके साम्राज्यवादी जंजीरों से मुक्त नहीं हो पाई है। जिस देश की राजभाषा हिन्दी हो, वहां ऐसी कुंठाएं उस पीढ़ी को तो चिन्तित करती हैं, लेकिन देष परेशान नहीं होता, देश के रहनुमा परेशान नहीं होते। उनके परेशान होने की वजह भी नहीं है, क्योंकि उदारवादी संरक्षण में देश लगातार विकास कर रहा है।
भारत का जनसंख्या आयोग भले ही यह कहता रहे कि अगले दो दशकों में भारत गांवो का देश नहीं रहेगा, लेकिन इस देश की अधिकतर जनसंख्या आज भी गांवों में ही रहती है और विकास की जो गति है उससे अधिकांस लोग गांवों में ही रहते रहेंगें। जनसंख्या आयोग के अनुसार 65 प्रतिशत लोग आज भी गांवों में रहते हैं, वहां टाट-पटि्टयों वाले स्कूल आज भी हैं, लेकिन अधकचरी अंग्रेजी सिखाने वाले स्कूलों में काफी इजाफा हो गया है। इसके बावजूद वहां आज भी हिन्दी आम जन-जीवन की आशा नहीं बन पाई है। वहां बाजार हाट से लेकर आपसी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति भी हिन्दी या कई बार कहें तो अपनी स्थानीय बोलियों में ही की जाती है। यह सच है कि बाजारवादी घुसपैठ के बाद हमारे यहां अग्रेजी का बोलबाला कुछ ज्यादा ही बढ़ा। वैसे तो इस देश में अंग्रेजी का वर्चस्व पहले से ही रहा है, लेकिन बाजारवाद अमेरिकी कारपोरेट जगत को अब पता चल गया है कि महानगरों में पैठ के बावजूद गांवों में उनकी पहुच अंग्रेजी के जरिये नहीं हो सकती। आज खुदरा व्यापार की दुनिया में कदम रखने वाली अमेरिकी कम्पनी वालमार्ट, बालिया अंग्रेजी में अपना व्यापार करने जा रही है। भारत जैसे देश के लिए यह सच है कि अगर आपको यहां गांवों तक पैठ जमानी है, तो आपको हिन्दी और दूसरी क्षेत्रीय बोलियों के सहारे ही यह राह तय करनी होगी। विदेशी कम्पनियों को इसकी जरूरत महसूस होने लगी है।
पिछले दिनों एक कम्पनी को अपने प्रोडक्ट का प्रचार हिन्दी भाषी राज्यों में कराना था। उस कम्पनी ने अपनी जनसंपर्क फर्म को साफ बता दिया कि उसकी प्रोडक्ट लांचिंग में अंग्रेजी के पत्रकार नहीं चाहिए, बल्कि खालिस हिन्दी के वे पत्रकार दिखने चाहिए जिनके अखबार उस क्षेत्र विषेश में निकलते हों। विदेषी मीडिया संस्थानों को हिन्दी की इस ताकत का पूरा अहसास है, आजादी के आंदोलन के दौरान हिन्दी अखबार और पत्रिकाएं निकालने वाले अधिकांष लोगों का मकसद देश सेवा थी। इसके साथ ही छिपी थी हिन्दी को ताकतवर बनाने की मंशा, लेकिन आज हिन्दी सिर्फ बाजार की भाषा है। वैसे भाषाएं बाजार का विषय नहीं होती, वे बाजार से कहीं ज्यादा संस्कृति और सामाजिक विकास की सतत धारा से जुड़ी होती है। संस्कृति के विकास के साथ भाषा समृद्ध होती है, लेकिन कुछ वक्त के लिए हिन्दी को बाजार का विषय मान भी लें तो हिन्दी पर बाजार के नियम लागू नहीं किये जा रहे है। बाजार का भी एक नियम होता है- अपने उत्पाद को निरन्तर बेहतर बनाकर पेश करना। आज के मीडिया बाजार के लिए अगर हिन्दी एक उत्पाद भी है, तो बाजार को चाहिए कि वह अपने इस उत्पाद को निरन्तर बेहतर बनाता रहे, लेकिन दुर्भाग्य से हिन्दी के साथ बाजार के इस नियम का भी पालन नहीं हो रहा है। दरअसल, हिन्दी के साथ सिर्फ छेड़-छाड़ हो रही है और यह सब हो रहा है आम जन के नाम पर। एक जुमला खूब सुनाई देता है-``भाषा ऐसी हो जिसे रिक्सावाला भी समझ सके।´´ ऐसा कहने वाले लोग भूल जाते हैं कि हिन्दी बेल्ट में गरीबी के तमाम आंकड़ों के बावजूद हिन्दी दषZक और पाठक की दुनिया बदल गई है। षिक्षा के जरिए जो लक्ष्य हासिल किये जाने थे वे भले ही हासिल न किये जा सके हों पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि हिन्दी अनपढ़ों और गंवारों की भाशा है। सवाल यह उठता है कि आप किस बैरोमीटर पर हिन्दी पाठक या दर्शक की समझ को नाप कर उसे संकुचित कर देते हैं? आज जिस हिन्दी का इस्तेमाल मीडिया में हो रहा है वह हिन्दी नहीं बल्कि अधकचरी हिन्दी है। ऐसे में यह प्रश्न उठाना गलत भी नहीं है कि आखिर हिन्दी का विकास क्या इसी तरह होगा? दुर्भाग्य की बात यह है कि बाजार और कारपोरेट के नियमों से जितना पश्चिमी दुनियां और उनके संस्थान बंधे हुए हैं उतना हम भारतीय नहीं। आज मीडिया अपने व्यावसायिक साम्राज्यवाद के लिए अपने अराजक होने की हद तक, भाषा, संस्कृति और समाज को विखण्डित करने से भी संकोच नहीं करेगी। उसके लिए समाज मात्र उपभोक्ता भर है। समाज उसके प्रोडक्ट की ग्राहक है। इसके साथ विडम्बना यह भी है कि सम्पूर्ण हिन्दी भाषा-भाषी समाज भी भाषा के साथ किए जा रहे ऐसे विराट छल को गूंगा बन कर देख रहा है।

12 सितंबर 2007

नक्सलवाड़ी-

साहित्य का एक चमकता हुआ सितारा जिसका नाम धूमिल है पर वह धूमिल नहीं है उसकी कवितायें जो आज भी प्रासंगिक है उसी तरह जैसे नक्सलवाड़ी, जब तक इस दुनिया में भूख रहेगी,जब तक असमानता रहेगी, तब तक धूमिल जिंदा रहेंगे, तो क्या धूमिल की प्रासंगिकता बनी रहनी चाहिये? या धूमिल की कविताओं को अप्रासंगिक बनाया जाय?

सहमति...
नहीं यह समकालीन शब्द नहीं है
इसे बालिगों के बीच चालू मत करो
जंगल से जिरह करने के बाद
उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख
का इलाज सिर्फ नींद के पास है!
मगर इस बात से वह सहमत नहीं था
बिरोध के लिये सही शब्द पटोलते हुए
उसनें पाया कि वह अपनी जुबान
सहुवाइन की जा़घ पर भूल आया है
फिर भी हकलाते हुए उसने कहा-
मुझे अपनी कविताओं के लिये
दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है
सहसा तुम कहोगे और फिर एक दिन-
पेट के इसारे पर
प्रजातंत्र से बहर आकर
वाजिब गुस्से के साथ अपनें चेहरे से
कूदोगे
और अपने ही घूँसे पर
गिर पड़ोगे|
क्या मैनें गलत कहा? अखिरकार
इस खाली पेट के सिवा
तुम्हारे पास वह कौन सी सुरक्षित
जगह है,जहाँ खड़े होकर
तुम अपने दाहिने हाँथ की
शाजिस के खिलाफ लड़ोगे?
यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी-
दांये हांथ की नैतिकता से
इस कदर मजबूर होता है
कि तमाम उम्र गुज़र जाती है मगर गाँड़
सिर्फ बांया हाथ धोता है
और अब तो हवा भी बुझ चुकी है
और सारे इश्तिहार उतार लिये गये है
जिनमें कल आदमी-
अकाल था! वक्त के
फा़लतू हिस्सों में
छोड़ी गयी फा़लतू कहांनियाँ
देश प्रेम के हिज्जे भूल चुकी है
और वह सड़क
समझौता बन गयी है
जिस पर खड़े होकर
कल तुमने संसद को
बाहर आने के लिये आवाज़ दी थी
नहीं,अब वहाँ कोई नहीं है
मतलब की इबारत से होकर
सब के सब व्यवस्था के पक्ष में
चले गये है|लेखपाल की
भाषा के लंबे सुनसान में
जहाँ पालों और बंजरों का फर्क
मिट चुका है चंद खेत
हथकड़ी पहनें खड़े है|

और विपक्ष में-
सिर्फ कविता है|
सिर्फ हज्जाम की खुली हुई किस्मत में एक उस्तूरा- चमक रहा है
सिर्फ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है
नागरिकता का हक हलाल करती हुई
गंदगी के खिलाफ

और तुम हो, विपक्ष में
बेकारी और नीद से परेशान!

और एक जंगल है-
मतदान के बाद खून में अंधेरा
पछीटता हुआ
(जंगल मुखबिर है)
उसकी आंखों में
चमकता हुआ भाईचारा
किसी भी रोज तुम्हारे चेहरे की हरियाली को बेमुरव्वत चाट सकता है

खबरदार!
उसनें तुम्हारे परिवार को
नफ़रत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक
अपनीं स्लेट से काट सकता है|
क्या मैनें गलत कहा?
आखिरकार..... आखिरकार.....

04 सितंबर 2007

बाजार का राजा मध्यम वर्ग:-


भारत में एक बहुत बड़ा मध्यम वर्ग है,इसलिये भारत एक बड़ा बाजार भी है|साथ में विज्ञापन ने लोगों की आवश्यकताओं को खत्म कर इच्छाओं को बढा़वा दिया है ...एसे में बाजार को किस तरह से मध्यम वर्ग पोशित कर रहा है एक रिपोर्ट कुछ आंकणों के साथ.....
भारतीय मध्यम वर्ग की धाक दुनियाभर में जमने लगी है। आज विदेशी कंपनियाँ भी अपने उत्पाद भारत के मध्यम वर्ग को ध्यान में रखकर तैयार कर रही है। चाहे घर का सपना हो या कार का, सब कुछ मध्यम वर्ग की पहुँच में आता जा रहा है। देश का यही ऐसा वर्ग हैजो अपने आप को टीप-टॉप रखने से लेकर खाने-पीने और स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रहा है। बेशक आने वाले दो-तीन वर्षों में भारत में सबसे मजबूत होगा तो सिर्फ मध्यम वर्ग।

नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर) द्वारा दो साल पहले देश में घरेलू वस्तुओं के बाजार और मध्यम वर्ग पर किए गए सर्वे (माकेoट इंफारमेशन सर्वे ऑफ हाउसहोल्ड) में भी स्पष्ट रूप से बताया गया है मध्यम वर्ग ही देश पर राज करेगा और इसी से अर्थव्यवस्था का नाप-जोख तय होगा।

कारों का सबसे बड़ा खरीददार : मध्यम वर्ग के हाथ भी अब स्कूटर या बाइक के हैंडल से संतुष्ट नहीं होते, उन्हें कार का स्टियरिंग ही लुभाने लगा है। उच्च मध्यम वर्ग की बात छोड़ दें तो निम्न मध्यम वर्ग की चाहत में कार भी शुमार हो गई है। इसीलिए इस वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई जा रही टाटा समूह की लखटकिया कार जल्द ही सड़कों पर दौड़ती नजर आएगी। एनसीएईआर के आँंकड़ों पर गौर करें तो देश में वर्ष 2005-06 के दौरान जहाँ कारों के उपभोक्ता 15,60,000 थे वहीं 2009-10 में यह दोगुने से भी ज्यादा यानी 34,66,000 हो जाएँगे। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह वर्ग कितनी तेजी से बाजार पर छाने वाला है। अन्य उपभोक्ता वस्तु जैसे मोटरसाइकल, कलर टीवी, रेफ्रिजरेटर, वािश्ांग मशीन की माँग भी आगामी तीन वर्षों में दो से तीन गुना तक बढ़ जाएगी।

सेहत की चिंता
एनसीएईआर का सर्वे कहता है कि आने वाले वर्षों में मध्यम वर्ग जहाँ अपनी सेहत को लेकर ज्यादा फिक्रमंद होगा, वहीं खुद को टीप-टॉप रखने और बनने-संवरने में ®बदास होकर खर्च भी करेगा। सेहत की ओर ध्यान जाने के कारण खाद्य तेलों की खपत का ग्राफ वर्ष 2001-02 के मुकाबले 2009-10 में पाँंच प्रतिशत तक कम हो जाएगी। बात यदि लुक की करें तो सौंदर्य प्रसाधन जैसे क्रीम, पाउडर की खपत भी तीन गुना तक बढ़ जाएगी।

ग्रामीण मध्यम वर्ग का फैलता दायरा : खरीददारी के मामले में अब सिर्फ शहरी मध्यम वर्ग ही नहीं ग्रामीण मध्यम वर्ग भी सिक्का जमाने लगा है। आज से 11 साल पहले 1996 में जहाँ गाँंवों में मात्र 2.1 प्रतिशत लोग ही कार के मालिक हुआ करते थे, वहीं 2002 में यह आँकड़ा आठफीसदी तक पहुँच गया और 2009-10 में यह 10 प्रतिशत को पार कर जाएगा। इसका असर निश्चित ही दो पहिया वाहनों की बिक्री पर पड़ेगा। स्कूटर की बिक्री गाँंवों में पाँच साल पहले जो थी वह आगामी तीन सालों में भी वही रहेगी, जबकि बाइक की बिक्री 10 फीसदी तक बढ़जाएगी।

दोगुनी होगी माँग
वस्तु...................2005-06...................2009-10

कार...................1560...................3466

मोटरसाइकल...................4663...................8369

कलर टीवी...................6295...................9957

रेफ्रिजरेटर...................4335...................6774

अन्य इलेक्टि[क...................8727...................13149

उत्पाद......................................(सभी आँकड़े हजार में)

खाद्य तेल...................... 8514......................10586

शैंपू......................33......................50

वाशिंग पाउडर......................2596......................3364

........................................(सभी आँकड़े हजार टन में)
नई दुनियाँ से साभार-