दिलीप ख़ान
पहले एक तस्वीर आई। इसके बाद प्रो. विवेक कुमार ने फेसबुक पर लिखा, “मेरी फोटो शेअर करने वाले ने यह क्यों नही बताया की प्र. विवेक कुमार किस विषय पर भाषण दे रहे थे और इस कार्यक्रम का शीर्षक क्या था. ना ही सामने बैठे श्रोताओं को दिखाया ? ना ही यह बताया इसी संगठन के एक विंग ने ग्वालियर में मेरे उपर हमला करवाया था. केवल फोटो शेयर करके लोगो को गुमराह न करे…आज मुझे अहसास हो रहा है की मै बहुत बड़ी परसोनालिटी बन गया हूँ…क्योंकि बहुत बड़े बड़े लोग इस फोटो को शेयर कर रहे है. मुझे आशा है की मेरा समाज मेरी आंदोलन के प्रति प्रतिबद्धता एवं सत्य-निष्ठा को अवश्य समझेगा..प्रो. विवेक कुमार.”
पहले एक तस्वीर आई। इसके बाद प्रो. विवेक कुमार ने फेसबुक पर लिखा, “मेरी फोटो शेअर करने वाले ने यह क्यों नही बताया की प्र. विवेक कुमार किस विषय पर भाषण दे रहे थे और इस कार्यक्रम का शीर्षक क्या था. ना ही सामने बैठे श्रोताओं को दिखाया ? ना ही यह बताया इसी संगठन के एक विंग ने ग्वालियर में मेरे उपर हमला करवाया था. केवल फोटो शेयर करके लोगो को गुमराह न करे…आज मुझे अहसास हो रहा है की मै बहुत बड़ी परसोनालिटी बन गया हूँ…क्योंकि बहुत बड़े बड़े लोग इस फोटो को शेयर कर रहे है. मुझे आशा है की मेरा समाज मेरी आंदोलन के प्रति प्रतिबद्धता एवं सत्य-निष्ठा को अवश्य समझेगा..प्रो. विवेक कुमार.”
फिर दूसरी फोटो आई, जिसमें श्रोता दिख रहे थे। फिर तीसरी आई जिसमें विवेक कुमार चंद लोगों के साथ मंच पर बैठे गप लड़ाते दिख रहे हैं।
विवेक कुमार ने पहले पहली तस्वीर को झूठा कहा, फिर सारी तस्वीरों को। इस प्रकरण पर मैंने फ़ेसबुक पर जब लिखा तो कई लोगों ने कहा कि विवेक कुमार फोटो को नकली बता रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वे उस कार्यक्रम में गए ही नहीं। बीते कुछ साल से दक्षिणवर्ती दुनिया द्वारा स्थापित फोटोशॉप के भयंकर दौर में पहली नज़र में मुझे कुछ भी मुमकिन नज़र आता है। मैंने पोस्ट डिलीट कर दी। लेकिन इसी दौर ने हमें यह भी सिखाया है कि हम अपने सीमित ज्ञान के बूते असली फोटो और फोटोशॉप्ड फोटो में अंतर पहचान जाएं! मुझे एक भी तस्वीर फोटोशॉप्ड नहीं लगी। अलबत्ता, विवेक कुमार के दावे को गंभीरता से लेते हुए यह ज़रूर लगा कि प्रामाणिक जानकारी के साथ इस पर लिखा जाना चाहिए क्योंकि जिस व्यक्ति पर सवाल उठाया जा रहा है वह ऐसे किसी कार्यक्रम के होने की दावेदारी को ही नकार रहा था/है।
तस्वीर में मौजूद जिस एक व्यक्ति को मैं निजी-सार्वजनिक तौर पर जानता हूं वह व्यक्ति अगर समूचे कार्यक्रम और वहां अपनी भागीदारी को झुठला रहा हो तो कोई वजह नहीं बनती थी कि विवेक कुमार की बातों को न माना जाए। लेकिन बातों को मानने के दौरान आंखों में पानी का छींटा मारकर थोड़ा चौकन्ना हुआ तो विवेक कुमार की तरफ़ से परस्पर विरोधी दावों का मैंने पता लगाना शुरू किया। शुरुआत में कार्यक्रम के बारे में जो जानकारियां हाथ लगीं वो हैं-
स्थान- संजय वन, भारतीय जनसंचार संस्थान के बगल में
तारीख़- 8 अक्टूबर 2017
टाइम- सुबह के 8-9 बजे
आयोजक- RSS का आरके पुरम खंड
ये सब आसानी से पता चल गया लेकिन विवेक कुमार और उनके तरफ़दार ‘कार्यक्रम का विषय’ पूछते रहे। संघ के कई लोगों से मैंने पता किया। कार्यक्रम में मौजूद कुछ लोगों से भी मैंने जानना चाहा कि विवेक कुमार ने क्या बोला? आम तौर पर चकल्लस में रहने वाले 12वीं से ऊपर के संघपरस्त छात्रों का ध्यान बहुत ज़्यादा भाषणों पर नहीं टिकता और तब तो और भी नहीं जब भाषण पार्क में हो। सो, एक ने बताया कि विवेक सर ने अपने जीवन संघर्षों और उपलब्धियों पर भाषण दिया।
यह संतुष्ट करने वाला जवाब नहीं था। 12वीं से ऊपर के छात्रों के लिए आयोजित इस विशेष कार्यक्रम में विवेक कुमार के सिर्फ़ जीवन संघर्षों और उपलब्धियों को सुनने के लिए संघ क्यों उन्हें न्यौता देगा? फिर संघ के कुछ और लोगों से बात हुई और अंत में संघ के राजीव तुली से। राजीव तुली से पता चला कि राष्ट्रनिर्माण में युवा की भादीदारी और उनके भीतर देशप्रेम जगाने जैसे किसी मुद्दे पर विवेक कुमार ने भाषण दिया, जिसमें प्रसंगवश उन्होंने अपने जीवन के भी कुछ किस्से भी सुनाए।
मंच पर हरे रंग के कुर्ते में जो सज्जन बैठे हैं उनका नाम जतिन है, जिन्हें संघ के लोग पारंपरिक तरीके से जतिन जी कहते हैं। वे दिल्ली RSS के सह प्रांत प्रचारक हैं। जिस फोटो में विवेक कुमार कुछ लोगों के साथ बैठकर गप मार रहे हैं उनमें बैठा एक व्यक्ति जेएनयू में ही कंप्यूटर साइंस जैसा कुछ पढ़ाते हैं।
संघ के लोगों से जब मैंने इस बाबत जानकारी चाही तो उनमें से एक ने इस बात पर हैरानी जताई कि विवेक कुमार इस बात से कैसे मुकर सकते हैं कि वे कार्यक्रम में शरीक हुए। राजीव तुली ने कहा विवेक जी को ऐसा नहीं करना चाहिए। वे गए थे और उन्हें सार्वजनिक तौर पर ऐसा स्वीकार करना चाहिए। हालांकि राजीव तुली ने इस मामले को तूल देने की कोशिश करने वाले हम जैसे लोगों की सहिष्णुता पर भी सवाल उठाए कि विवेक कुमार अगर संघ के कार्यक्रम में चले गए तो बाक़ी लोग इसमें क्यों इतना उतावलापन भरी रुचि दिखा रहे हैं।
संघ का मानना है कि वह हर विचारधारा के लोगों को बुलाने के लिए मंच मुहैया कराने की कोशिश में जुटा है। ज़ाहिर है कि संघ का मंच इस मायने में विलग विचारधारा के लोगों के लिए बेहद सुरक्षित और मुफ़ीद है क्योंकि दूसरे मंच से अगर यही लोग बोलने जाते हैं तो संघ के लोग उन पर हमला तक कर बैठते हैं। विवेक कुमार जब ग्वालियर गए थे तो ABVP के लोगों ने उन पर हमला किया था। TISS प्रशासन ने आख़िरी मौक़े पर कार्यक्रम रद्द कर दिया था या फिर विवेक कुमार को आने से मना कर दिया था।
RSS रह-रह कर इन दिनों आंबेडकर को को-ऑप्ट करने की कोशिश में जुटा है। बहुत मुश्किल काम ले लिया है RSS ने। उससे न तो आंबेडकर पकड़ा जा रहा है और न छोड़ा। इसलिए हो सकता है वो आंबेडकर पर बिल्कुल अपनी लाइन से उलट वालों को भी बुलाकर लोगों को लामबंद कर रहे हों। मज़दूरों-किसानों-दलितों का विंग तो पहले से ही मौजूद है। इनमें वो कई बार जेनुइन मुद्दे उठाकर फिर उसकी भोंडी व्याख्या कर नकली और अश्लील चेतना का विकास करते हैं, जो लोगों के वर्गीय-जातीय हितों के उलट होता है।
संघ और विवेक कुमार दोनों का पक्ष सुनने के बाद मुझे अब सच में यक़ीन हो गया है कि दुनिया बेहद लोकतांत्रिक हो गई है और भारतीय समाज लोकतंत्र की पराकाष्ठा को छू चुका है। जाहिर तौर पर संघ की पताका लोकतंत्र के टीले पर उदार विचारधारा के सबसे बड़े नुमाइंदे के तौर पर अपना नाम दर्ज़ करा रही है। विवेक कुमार भी बेहद लोकतांत्रिक हो चुके हैं कि उन्हें बाएं-दाएं-ऊपर-नीचे हर मंच पर ‘अपनी बात’ रखने में कोई परेशानी नहीं होती। कथ्य और विषयवस्तु ही अहम है, मंच गौण। कथ्य नाम के आदर्शवादी शब्द ने मंच नाम के भौतिकवादी शब्द पर जीत हासिल कर ली है। विवेक कुमार इतने लोकतांत्रिक हो गए हैं कि हमलावर (पूरे दलित समुदाय पर हमलावर) के मंच पर जाने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। हो सकता है कि वे सच में इतने ही लोकतांत्रिक हों, लेकिन उनके इस ‘जाने’ को RSS ख़ुद के लोकतांत्रिक होने की दावेदारी और चिह्न को मज़बूती से पेश करने की कोशिश कर रहा है। किसका फ़ायदा हुआ?
दिलचस्प यह है कि विवेक कुमार की फोटो इंटरनेट पर सबसे पहले संघ के लोगों ने शेयर की क्योंकि कार्यक्रम में शरीक श्रोतागण उसी खित्ते के थे। या तो हम इस शेयर करने को सामान्य तौर पर फेसबुकिया परिघटना के दायरे में अनिवार्यत: ‘एटैंडिंग ए प्रोग्राम विद मुन्ना एंड 48 अदर्स’ नामक ललक का नतीजा मान लें, या फिर इसे ‘लीक’ मान लें। लीक करने से संघ का कोई नुकसान नहीं है। नुकसान विवेक कुमार और संघविरोधी खित्ते में हैं, जिसमें लोग विवेक कुमार से सवाल पूछेंगे, उनकी राजनीति पर सवाल पूछेंगे, इसी बहाने दलित आंदोलन और आंबेडकरवाद पर सवाल उठेगा, लेफ़्ट के लोग चपेट में आएंगे कि संघ के मंच पर किसी के पहुंच भर जाने से वामपंथियों के पेट में मरोड़ क्यों उठता है? संघ का तो सब कुछ बम-बम है। आप देखिए न कि विवेक कुमार ने अपने फेसबुक पोस्ट में भी फोटो शेयर करने वाले ग़ैर-संघी लोगों को ही निशाना बनाया है।
अगर विवेक कुमार गए, तो उन्हें मान लेना चाहिए था। झूठ बोलना अच्छी बात नहीं है। ख़ासकर तब, जब आप शिक्षक हों। झूठ क्यों बोले? इसका मतलब आप मानते हैं कि वहां जाना ‘ठीक’ नहीं था। यानी आप ख़ुद संघ के मंच पर जाने को ‘ग़लत’ मानते हैं और जब ख़ुद वहां चले गए और लगा कि एक वैचारिक ज़मीन पर रहने वाले लोग आपसे पूछेंगे तो आपने झूठ बोलना शुरू कर दिया। कम्यूनिकेशन और साइकोलॉजी में इसे ‘कॉग्निटिव डिजोनेंस’ कहते हैं, जिसमें लोग वो करते हैं जिसे वो करना ठीक नहीं समझते। और जब वो कर लेते हैं तो उसे ढंकने के लिए ऐसा तर्क गढ़ने की कोशिश करते हैं जिससे उनका कृत्य छुप जाए। लेकिन इस मामले में विवेक कुमार ने ढंकने के लिए तर्क के बजाय झूठ का सहारा लिया। इससे फौरी तौर पर उनका वहां जाना कई लोगों को काल्पनिक लगा, लेकिन जब सच्चाई सामने आ ही गई है तो उनके चरित्र में झूठ नाम की अतिरिक्त चीज़ भी जुड़ गई। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। हमें दुख हुआ है और दुखी होने के चलते ही यह सब लिखा। उम्मीदों का क्या है, पता नहीं किस गली में टूट जाए। जो लोग उम्मीद बचा लेते हैं, उन्हें बचा लेनी चाहिए।
बाक़ी संघ का क्या है। कई आंदोलनों और आंदोलनकारियों को अपने कार्यक्रम में बुला-बुलाकर सम्मानित कर-कर के पूरी लीगेसी को शून्य कर देने की उसकी पुरानी ट्रेनिंग है। लोग बताते हैं कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन में उत्तराखण्ड क्रांति दल के ज़्यादातर लोगों को संघ गांव-कस्बों में किसी भी कार्यक्रम में बुलाकर फूल-माला पहना देता था। उन्हें अच्छा लगता था कि कोई तो पूछ रहा है। फिर, धीरे-धीरे और अच्छा लगने लगा। जब उससे भी और अच्छा लगा तो फूल-माला की उन्हें आदत पड़ गई और फिर संघ ने बाहें फैलाकर कहा कि आओ, समाहित हो जाओ। फिर आधे समाहित हो गए और जो बचे, उनमें से ज़्यादातर कब दाएं मुड़ेंगे और कब बाएं और कब बीच में खड़े रहेंगे, कोई नहीं जानता।
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