तब वे प्रधानमंत्री नहीं थे. तब
हर-हर
मोदी थे. घर-घर मोदी बन रहे थे. जब
उन्हें गंगा मां ने बुलाया था. वैसे
नदी किसी को नहीं बुलाती. कभी-कभी बाढ़ को बुलाती है नदी. ऐसा
कहते हैं कवि.
बाढ़ अपने आसपास को उपजाऊ करती है. पर वह बहुत कुछ तबाही भी भरती है. जहां तक पहुंच होती है बाढ़ की तबाही वहां तक पहुंचती है.
बाढ़ अपने आसपास को उपजाऊ करती है. पर वह बहुत कुछ तबाही भी भरती है. जहां तक पहुंच होती है बाढ़ की तबाही वहां तक पहुंचती है.
जैसा उन्हें नदी ने बुलाया, गंगा
ने बुलाया, वे
देश में बाढ़ की तरह आए. पूरे
देश में तबाही की तरह छाए.
अब जब फिर से पहुंचे हैं उसी शहर. प्रधानमंत्री
बनकर. उन्हें
किस बात का है डर. मां
नहीं इस बार बेटियां बुला रही हैं. गुजरना
था उन्हें उसी रास्ते से. जहां
से उन्हें गुजरना था. जहां
हजारों उन्ही बेटियों का प्रदर्शन और धरना था.
जिन्हें पढ़ाने और बचाने के नारे उन्होंने गढ़े हैं. वे
नारे जिससे उनके विज्ञापन भरे हैं. उन्हीं
बेटियों के रास्ते से गुजरना था. यूं
रास्ता तो नहीं बदलना था. पर
उनका रास्ता बदल दिया गया.
ताकि यह कायम रहे कि सब कुछ ठीक चल रहा है और देश बदल रहा है. यह
बात उन तक पहुंचे. रास्ता
बदल रहा है यह बात उन तक न पहुंचे. क्यों बदल रहा है रास्ता इसकी वजह भी न पहुंचे.
बनारस हिंदू युनिवर्सिटी में वर्षों से चले आ रहे
लड़कियों के उत्पीड़न पर यह छात्राओं द्वारा शायद पहला इतना बड़ा प्रतिरोध है. जब
वे इतनी भारी तादात में बाहर निकल कर आई हैं. जहां
उन्हें हर रोज 7 बजे
हॉस्टल के भीतर बंद कर दिया जाता था.
वे हास्टल और हास्टल के बाहर की चहरदीवारी को लांघ कर सड़क पर आ गई
हैं. वे
कुलपति को हटाने के नारे लगा रही हैं. वे
अपने विश्वविद्यालय में अपनी असुरक्षा को जता रही हैं.
एक छात्रा के साथ हुई छेड़खानी से उठा यह मामला सरकार के जुमले पर एक बैनर लगा रहा है. बेटी
बचाओ, बेटी
पढ़ाओ के आदेश को उन्होंने सवाल में बदल दिया है. बचेगी
बेटी, तभी
तो पढ़ेगी बेटी. उसके
आगे बैनर में जगह नहीं है नहीं तो वे यह भी लिख देती. बचेगी
तो पढ़ेगी बेटी, नहीं
तो लड़ेगी बेटी!
महानता और महामना दोनों को वर्षों से ढोने वाले विश्वविद्यालय पर ये लड़कियां थोड़ा स्याही लगा रही हैं. उस
बड़े से बुर्ज नुमा गेट पर उन्होंने जो बैनर टांग दिया है, उसने
उसकी महानता और भव्यता को ढंक दिया है. आंड़े-तिरछे अक्षरों से लिखा हुआ यह पहला बैनर होगा जिसने उस सिंहद्वार पर लटक कर पूरे द्वार को ही लटका दिया है.
ऐसा नहीं कि इस विश्वविद्यालय के इतिहास में विद्यार्थियों के आंदोलन नहीं रहे. बिद्यार्थियों
के आंदोलन रहे, छात्रों
के आंदोलन रहे. छात्राओं
के आंदोलन नही रहे शायद.
मैं वहां का छात्र रहा. जब
तक रहा यह सुनता रहा कि पूरे कैम्पस में धारा 144 लागू
है. एक
पढ़ाई की जगह जैसे एक दंगा और लड़ाई की जगह हो. जहां 144 लगा दिया गया हो हर वक्त के लिए.
जहां अपने हॉस्टल के कमरे में कविताओं के पोस्टर पर प्रतिबंध हो. जहां
किसी भी तरह की विचार गोष्ठी करने पर आप डरते हों. वहीं
प्रशासन की मदद से कुछ लोग आर.एस.एस. की
शाखा करते हों.
ऐसे विश्वविद्यालय में आवाज़ उठाना उनका निशाना बनना है. उनका
निशाना बनना जो इस विश्वविद्यालय को हिन्दुओं का विश्वविद्यालय मानते हैं. उनकी
संख्या यहां बहुतायत है.
वे परंपरा की दुहाई देते हैं और सामंती घरों की तरह लड़कियों को शाम 7 बजे
तक हॉस्टल की छतों के नीचे ढंक देते हैं. वे
हास्टल से बाहर नहीं जा सकती. सिर्फ
दिन में उन्हें पढ़ने जाने की छूट है.
दिन में भी उनके चलने के रास्ते तय हैं. वे
उधर से नहीं जाती जिधर से छात्रों के हास्टल हैं. उन
पर तंज कसे जाते रहे हैं. उनके
साथ बदसुलूकी होती रही है. इसलिए
उन्होंने रास्ते बदल लिए हैं.
उन्होंने अपने रास्ते बना लिए हैं. चुप
होकर चलने के रास्ते. ये
ब्वायज हास्टलों के किनारे से होकर नहीं गुजरते. यह
हिन्दू विश्वविद्यालय होने की पहचान है. यह
इसकी नीव है जिसने इस परंपरा को विकसित किया है.
शिक्षा में यह एक अछूत बर्ताव है जो हिन्दू विश्वविद्यालय में इस तरह था. जहां
ग्रेजुएट स्तर पर भी लड़कों और लड़कियों की अलग-अलग
कक्षाएं बनाई गई हैं. लड़कियों
के लिए अलग हास्टल हैं पर लड़कियों के कालेज भी अलग हैं.
उनके बीच कोई इंट्रैक्शन नहीं है. न
ही उनके बीच कोई संवाद है. इसी
बीच की खाली जगह ने वह संस्कृति पैदा की है जो अश्लील व छेड़खानी
के संवाद से भरती है.
विश्वविद्यालय के लिए ये दोनों अलग-अलग
जीव हैं जिन्हें अलग-अलग
रखना है. सीख
और समझ की उम्र में जब किसी को एक पूरी आबादी के सारे अनुभवों से दूर कर दिया जाता है तो पुरुष वर्चस्व अपने तरह से काम करता है.
वह एक महिला के डर, उसके
पढ़ने के हक़ के बजाए उस वस्तु के रूप में ही देखता है जो वह देर रात देखी जाने वाली फिल्म से अनुभव करता है. वह
उसके लिए एक साथी नही बन पाती. प्रशासन
उसे उसका साथी नहीं बनने देता. इस
पूरे स्वरूप को समझने की जरूरत है.
जो लड़कियां आंदोलन कर रही हैं. उनकी
जो मांगे हैं वे बहुत कच्ची हैं. पर
उनके सड़क पर आने का इरादा जरूर पक्का है. वे
सीसीटीवी कैमरे मांग रही हैं. वे
एक तकनीकी देखरेख की मांग कर रही हैं.
वे और ज्यादा सुरक्षा गार्ड बढ़ाए जाने की मांग कर रही हैं. जबकि
कोई कैमरा कोई गार्ड महिलाओं के उत्पीड़न को नहीं रोक सकता. उन्हें
हर वक्त घूरे जाने वाली आंखें, उन्हें
हर वक्त बोले जाने वाले शब्द जिसे कोई कैमरा नहीं कैद कर सकता.
जिसे कोई गार्ड नहीं सुन सकता. वही
सुन सकती हैं. वे
सुनती भी हैं. यह
उस संस्कृति की आवाज है जो उन्हें देवी बताता है. जो
बेटी बचाता है. जो
बेटी पढ़ाता है. जो
भेद को बरकरार रखता है.
महिला होने और पुरुष होने के हक़ को अलग-अलग
तरह से देखता है. उन्हें
एक-दूसरे
से दूर रखता है. एक
दूसरे से अनभिज्ञ बनाता है. सवाल
उठाने पर वह लांछन लगाता है. सवाल
उठाने पर वह उनके साथ खड़ा हो जाता है जिनके वर्चस्व बने हुए हैं.
इसलिए जो लड़कियां आज निकल आई हैं. जो
आज रात सड़क पर सोई हैं. जिनमें
सड़क पर सोने और हांथ में मुट्ठी होने का पहला एहसास आया है. वे
बहुत कुछ भले न कर
दें पर कुछ न कुछ
तो कर ही गुजरेंगी. अपने
वक्त को ऐसे नहीं गुजर जाने देंगी.
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