चन्द्रिका
(द वायर हिंदी में प्रकाशित)
गौरी लंकेश की हत्या को वे जायज ठहरा रहे हैं. वे उनकी हत्या का जश्न मना रहे हैं. हत्यारों को बधाई तक दे रहे हैं. उन्हें यह ठीक लग रहा है कि उनसे असहमत एक आवाज़ को किसी ने चुप करा दिया. उन्हें यह जायज लग रहा कि किसी ने उस आवाज़ की हत्या कर दी जो उनकी जुबान नहीं बोल रही थी. उनकी बातों में हत्या करने वालों को हौसला देना शामिल है. हत्या और नफरत को उकसाना शामिल है. यह सब देखकर ऐसा लगता है कि वे बहुतायत में हैं जो ऐसी हत्या किए जाने की मंशा रखते हैं. पिछले कुछ बरसों में जैसे बहुत से हत्यारे तैयार हुए हैं. सब अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं. ऊपर बैठकर चुप रहकर वह अपनी भूमिका निभा रहा है. कुछ हत्या को जायज ठहराने की भूमिका में हैं. कुछ हत्या कर रहे हैं और कुछ हत्यारों को बधाईयां दे रहे हैं. उन्होंने एक पूरी संरचना बना ली है. अलग-अलग तरह की भक्ति और उन्माद ने अब उन्हें यहां ला खड़ा किया है कि वे अपराधी से बन गए हैं. ऐसे अपराधी जिनके हाथों में हथियार भले ही न हो. उनके ज़ेहन अपराध से भरे हुए हैं. यहां किसी भी तरह की नैतिकता भुरभुरी सी हो गई है. यह ख़तरनाक है और दुख़द भी. यह उनकी राजनीति के लिए भी ख़तरनाक है जिन्होंने उन्हें उभारा है और जो लगातार उन्हें उभार रहे हैं. वे जो समाज बना रहे हैं उसके भीतर से वह चीज ख़त्म की जा रही है जो इंसान के भीतर बची रहनी चाहिए थी. इंसान और इंसानियत के बाद ही हम किसी भी राजनीति की कल्पना कर सकते हैं.
गौरी लंकेश की हत्या को वे जायज ठहरा रहे हैं. वे उनकी हत्या का जश्न मना रहे हैं. हत्यारों को बधाई तक दे रहे हैं. उन्हें यह ठीक लग रहा है कि उनसे असहमत एक आवाज़ को किसी ने चुप करा दिया. उन्हें यह जायज लग रहा कि किसी ने उस आवाज़ की हत्या कर दी जो उनकी जुबान नहीं बोल रही थी. उनकी बातों में हत्या करने वालों को हौसला देना शामिल है. हत्या और नफरत को उकसाना शामिल है. यह सब देखकर ऐसा लगता है कि वे बहुतायत में हैं जो ऐसी हत्या किए जाने की मंशा रखते हैं. पिछले कुछ बरसों में जैसे बहुत से हत्यारे तैयार हुए हैं. सब अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं. ऊपर बैठकर चुप रहकर वह अपनी भूमिका निभा रहा है. कुछ हत्या को जायज ठहराने की भूमिका में हैं. कुछ हत्या कर रहे हैं और कुछ हत्यारों को बधाईयां दे रहे हैं. उन्होंने एक पूरी संरचना बना ली है. अलग-अलग तरह की भक्ति और उन्माद ने अब उन्हें यहां ला खड़ा किया है कि वे अपराधी से बन गए हैं. ऐसे अपराधी जिनके हाथों में हथियार भले ही न हो. उनके ज़ेहन अपराध से भरे हुए हैं. यहां किसी भी तरह की नैतिकता भुरभुरी सी हो गई है. यह ख़तरनाक है और दुख़द भी. यह उनकी राजनीति के लिए भी ख़तरनाक है जिन्होंने उन्हें उभारा है और जो लगातार उन्हें उभार रहे हैं. वे जो समाज बना रहे हैं उसके भीतर से वह चीज ख़त्म की जा रही है जो इंसान के भीतर बची रहनी चाहिए थी. इंसान और इंसानियत के बाद ही हम किसी भी राजनीति की कल्पना कर सकते हैं.
जिनके विचार अपराध से भर गए हैं उन्हें भी हत्या के बाद चुप हो जाना
चाहिए था. उन्हें
कुछ नही बोलना चाहिए था. किसी की हत्या पर उन्हें दुख न
भी हो तो भी. शायद उन्हें उस चीज को बचा लेना चाहिए था
जिसकी जरूरत हमे और उन्हें भी है. और वह जरूरत हमेशा
बनी रहेगी. वे उस इंसानियत को बचा लेते. उस मानवता को बचा लेते जो किसी भी पार्टी से पुरानी है. जो किसी भी संगठन की भक्ति से पुरानी है. जो
किसी राजनीति से भी पुरानी है. जो उनकी देशभक्ति से
बहुत ही पुरानी है. उन्हें उसे बचाने के लिए चुप होना चाहिए
था. पर वे चुप नहीं हुए. वे
हत्या के पक्ष में दलीलें देने लगे. वे हत्यारों को
बधाईयां देने लगे. उन्होंने गौरी लंकेश की हत्या को
सिर्फ जायज नहीं ठहराया. वे हत्या के बाद ठंडी पड़ चुकी
उस लाश को गालियां देने लगे. जैसे वे उस पर और गोलियां
चलाना चाहते हों. वे कितनी हद तक नफरत करने वाले लोग
हैं. यह हत्या के बाद फैलाई जा रही उनकी बातों में देखा
जा सकता है. जैसे वे एक हत्या के बाद और हत्याओं के लिए
खुद को तैयार कर रहे हों. अपने भीतर और उन्माद भर रहे
हों. और असहमति की सारी हत्याओं को जायज ठहराने का
रास्ता बना रहे हों. जैसे उनकी गोलियां और चलना चाहती
हों. वे और बींधना चाहते हों उस लाश को और उस लाश के
आसपास को. वे उन सबको ख़त्म करना चाहते हों जो इस तरह
की हत्याओं के खिलाफ हैं. जो उनसे असहमत हैं. उनके भीतर की नफरत उन तीन गोलियों से ख़त्म नहीं हुई हो जैसे. उनके हाथ और भी आतुर से लग रहे. ऐसा उनकी जुबान
कह रही है. जो हत्या के पक्ष में अलग-अलग तरह से लिख रहे हैं. वे गौरी लंकेश को इसाई
बता रहे हैं. उन्हें दफनाए जाने को लेकर तरह-तरह का झूठ फैला रहे हैं. वे दशहरे के पहले
लंकेश की हत्या बता कर इसका जश्न मना रहे हैं. वे और भी
बहुत कुछ कह रहे हैं. वे सब इस हत्या के साझीदार से
बनने को तैयार हैं. उसे जायज ठहराने की बिनाह पर. वे उस विचार की पैरोकारी निबाह रहे हैं. जहां
उनसे कोई असहमत न हो.
उन्हें यह साहस कहां से मिल रहा है. वह कौन सी राजनैतिक भक्ति है
जो उन्हें यह ताकत दे रही है. शायद पुरानी हत्याओं पर न
होने वाले इंसाफ उन्हें उत्साह दे रहे हैं. कलबुर्गी, दाभोलकर और पंसारे का हत्यारा अभी तक कोई नही है. क्योंकि किसी को अभी तक कोई सज़ा नहीं मिली है. किसी
को पकड़ा नहीं गया है. उन्हें अभी तक खोजा भी नहीं गया
है. वर्तमान सत्ता की नाकामी या नाचाही ने ही उन्हें यह
साहस दिया हुआ है. सत्ता के संस्थानों ने हत्यारों को न
खोज पाने की नाकामी से उन्हें मोहलत दी हुई है. यह
मोहलत ही उन्हें और हत्याओं का साहस दे रही है.
जरूरी नहीं कि वह कोई एक इंसान हो जिसने इन सारी हत्याओं को अंज़ाम
दिया. यह
भी जरूरी नहीं कि ये सारे लोग किसी एक संगठन के हों. पर
ये ऐसे सभी विचारों के हत्यारे हैं जो उनके विचारों से मेल नहीं खाते. इस लिहाज से ये एक विचार के लोग हैं. सब के सब
हत्याएं नहीं कर सकते. हत्या का जश्न मना सकते हैं. ये हत्यारों के लिए ताकत की तरह हैं. उन्हें
हत्या करने के विचार यहीं से मिल रहे हैं. जहां एक देश
में एक विचार ही सर्वश्रेष्ठ विचार बनाया जा रहा. यह
लोकतंत्र का विचार नहीं है. लोकतंत्र का विचार और
ज़्यादा विचारों को जगह देने और फलने-फूलने का विचार है. उन्हें सुन लेने का विचार है जो आपसे असहमत हैं. वह कहने का विचार है जिसे आप मानते हैं. इसलिए
इन हत्याओं को शह देने वाले लोकतंत्र के खिलाफ के लोग हैं. वे यह सबकुछ कहते हुए, इतने सारे झूठ को फैलाते
हुए सिर्फ हत्या को सही बताना चाहते हैं.
वह एक अलग विचार है जो इन सारी हत्याओं से दुखी है. वह
ऐसी हर हत्या के फिलाफ आवाज़ उठा रहा है. जबकि हत्यारा
पकड़ा जाए इससे पहले एक और हत्या कर दी जा रही है. किसी
की गिरफ्तारी संभव नहीं हो पा रही. क्योंकि इसे पकड़ने
और सज़ा देने वाले संस्थानों को इसी विचार के मुखियाओं ने जकड़ रखा है. इसलिए हत्या पर जश्न मनाने वाले ही नहीं बल्कि हमारी सत्ता इन हत्याओं को
उकसा रही है. वह हर रोज नए तरह की हत्याएं करवा रही है.
गौरी लंकेश पर गोलियां किसी एक ने चलाई होंगी. गालियां
देने वालों की पूरी फौज सी आ गई है. यह वंदेमातरम और
तिरंगे की फौज़ है. यह उन भक्तों की फौज है. जो असहमति की एक आवाज़ के चुप करने का जश्न मना रही है. वह देश और लोकतंत्र दोनों को एक संकरी गली में ले जा रही है. वह इससे पहले गौरी लंकेश को नही जानती थी. वे
जो गालियां दे रहे हैं, जो हत्या को जायज ठहरा रहे हैं
उनके कोई व्यक्तिगत मतभेद नहीं हैं. मतभेद विचारों का
ही था कि गौरी भक्त पत्रकार नहीं थी. गौरी किसी और
विचार को मानती थी. यह वक्त ऐसा बना दिया गया है. जहां गैर विचार रखना ही अपराध बनता जा रहा है. यही
वह ख़तरा है जो लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है. यही वह चीज
है जो उससे भी हमारा भरोसा उठा रहा है जो लोकतंत्र और किसी भी तंत्र के पहले की
चीज है. इंसानियत के बाद कोई भी तंत्र पैदा हुआ है. फिलवक्त वे सारी चीजें मिटाई जा रही हैं. जिसे
हमे बचाना था, जिसे हमे समाज में और बढ़ाना था. उनकी राजनैतिक भक्ति इंसानियत तक पर भारी पड़ रही है. ये जो भक्त हैं ये उनका ही वक्त है. हमारा वक्त
हमे लाना है. हमे उसे बचाना है जो इस भक्ति के पहले की
चीज है. जो किसी भी राजनैतिक शक्ति के पहले की चीज है.
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