25 सितंबर 2017

बीएचयू को जेएनयू बनने दीजिए, बीएचयू को जनेऊ मत बनाइए वीसी साहेब!

चन्द्रिका
मैं बीएचयू और जेएनयू दोनों विश्वविद्यालयों का छात्र रहा. इसलिए कह रहा हूं कि बीएचयू को जेएनयू बनने दीजिए वीसी साहेब. बीएचयू को जनेऊ से मत बांधिए. जनेऊ को उस ब्राम्हणवादी वर्चस्व के प्रतीक के रूप में लीजिएगा
जिसमे एक ठसक होती है. जिस ठसक की वजह से आप कुर्सी छोड़कर गेट तक नहीं आए. अपनी सुरक्षा की गुहार लगा रही लड़कियों से यह कहने नहीं आए कि उनका उत्पीड़न गलत है. उनकी सुरक्षा की मांग सही है. ग़लत पर हम कार्यवाही करेंगे. सही के साथ खड़े रहेंगे
यह कहने के बजाय उन्हें धमकाया. उनके घर से भी उन्हें असुरक्षित करने की कोशिश की. उन पर लाठियां चलवाई. उन्हें हास्टल से बाहर जाने पर विवश कर दिया. वे सुरक्षा मांग रही थी, उन्हें और असुरक्षित किया. उन्हें घायल किया
आपका बयान आया है कि बीएचयू को बदनाम किया जा रहा है. बीएचयू एक पुरानी संस्था है. 100 साल से भी ज़्यादा पुरानी. अपने वक्त का वह शायद भारत का सबसे बड़ा आवासीय परिसर भी रहा है. वहां लोगों ने पढ़ाई की अपने क्षेत्रों में नाम कमाए. उन काम और नाम के जरिए बीएचयू ने भी नाम कमाए
आपका यह कहना कि बीएचयू को बदनाम किया जा रहा है. गलत हैं. बीएचयू का नाम और ज़्यादा रोशन हो उसके लिए यह काम किया जा रहा है. लड़कियों को भी आज़ादी मिले उसके लिए वे अपना हक़ मांग रही हैं. वे सुरक्षित रहें उनकी इतनी ही मांग है
किसी भी तारीख़ के चौबीस घंटे उनके लिए आधे किए जाएं. आधी आबादी का दिन भी पूरे चौबीस घंटे का हो. यह आज़ादी और यह वक्त उनकी प्रतिभा को और निखारेगा. वे निखरेंगी तो बीएचयू भी निखरेगा. बीएचयू का नाम होगा. बदनाम नहीं होगा बीएचयू
बुरी घटनाएं और छिनी हुई आज़ादी बदनामी होती है. आज़ादी के ख़्वाब को बदनामी कहना किन्हीं और समाजों का चलन है. जिसे मैने जनेऊ कहा है यह वहां का प्रचलन है. वहां खड़े होकर आप मत बोलिए. देर से ज़ुबान खोला है तो लोकतंत्र और सामंतशाही को एक ही गिलास में मत घोलिए
यह कहना आसान है कि बाहर के लोग उकसा रहे हैं. जेएनयू और इलाहाबाद के लोग बहका रहे हैं. आज़ादी बहकाने और उकसाने से नहीं मिलती. आप 1857 के अंग्रेजों जैसा कुछ बता रहे हैं. आज़ादी का अहसास दिलाना बहकाना नहीं है. झूठ मत बोलिए. फिलवक्त यह काम मुल्क के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के लिए छोड़िए. जो झूठ बोल रहे हैं और बोलवा रहे हैं. जो ज़हर घोल रहे हैं और घोलवा रहे हैं.
बीएचयू को जेएनयू बनने दीजिए. बीएचयू की दीवारें भी विचारों और नारों से रंगने दीजिए. कविताएं लगने दीजिए. पर्चे पोस्टर बंटने दीजिए. धारा 144 हटा लीजिए. उन्हें राजनीति भी करने दीजिए. राजनीति करेंगे तो देश की नीति और नियति दोनों बदलेगी. अगर यह शिक्षा के संस्थानों में नहीं होगा. अगर यह विश्वविद्यालयों में नही होगा तो फिर कहां होगा
बहस, विचार और विमर्श अगर विश्वविद्यालयों में नहीं पैदा होंगे तो फिर कहां होंगे. उन्हें स्क्रू और नटबोल्ट मत बनाइए. कमोबेस जेएनयू में यह बचा हुआ है. अलग-अलग विचारों का होना और पर्चे, पोस्टरों का कोना अभी बचा हुआ है. कमोबेस जेएनयू में जनेऊ का धागा भी कमजोर है. थोड़ा ही सही बहस विमर्श भी अभी वहां बचा हुआ है. जो सत्ताओं को चुनौती देता है
जो उन ताकतों को चुनौती देता है जो मानवीय अधिकारों को ताक पर रख रही हैं. वह सरकारों को चुनौती देता है जो लोगों के अधिकारों को खा रही हैं. मुझे यकीन है आप और आपके पक्षकार किसी के अधिकार को खाए जाने के पक्ष में नहीं खड़े होंगे. वे इसके ख़िलाफ खड़े होंगे. इसलिए जेएनयू के साथ खड़े होंगे. उस जगह के साथ खड़े होंगे जहां शंख और डफली एक साथ बजते हैं और लोग अपनी समझ बनाकर किसी एक को चुनते हैं.
बेशक राष्ट्रवाद को कमजोर मत होने दीजिए. पर अंग्रेजों के जमाने के राष्ट्रवाद को मत ढोइए. वंदेमातरम और झंडे के राष्ट्रवाद से राष्ट्र को ऊपर उठाइए. मुल्क के लोग किसी भी झंडे और गीत से बड़े हैं. उन्हीं की बाजूओं पर सारे झंडे खड़े हैं. उनके बाजुओं को ताकत दीजिए. राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादियों को नई आदत दीजिए. लोकतंत्र की नई तस्वीर खीचिए पुरानी को सहेज कर रख दीजिए. कल की किताबों के लिए, कल के बच्चों के लिए. ताकि जब वे आएं तो समझ पाएं अपने पुराने देश को, बदले हुए परिवेश को.
जेएनयू ने जितनी पढ़ाई की है. जेएनयू ने उतनी लड़ाई की है. एक शिक्षा का संस्थान अगर शोध और विमर्श करता है. समाज के किसानों, मजदूरों और आदिवासियों को जाकर पढ़ता है. उसे समझता है और डिग्रियां लेता है. उसका फर्ज बनता है कि वह उन स्थितियों को बदले. वह उसे बदले जिसे बदले जाने की जरूरत है
जो उसने पढ़ा और समझा है उसके सहारे उनके अधिकारों के लिए सवाल करे. इन्हीं सवालों और समझदारियों ने हमे वहां से निकाला है जहां एक राजा हुआ करता था. जहां राजा ईश्वर का दूत हुआ करता था. सवाल करके और वहां से निकल करके ही हम लोकतंत्र में आए हैं. सबकी बराबरी का वह दस्तावेज बनाए हैं. उसे और बेहतर करना और पुराना जो बचा हुआ अवशेष है उससे बाहर करना हम ही करेंगे. हमने ही औरतों के साथ उनके घरों से बाहर आने की लड़ाई लड़ी है. बाहर आने पर हम ही उनके साथ उनकी सुरक्षा के लिए भी लड़ेंगे. ताकि रात का चांद वे भी चौराहों से देखें. ताकि वे भी किसी गुमटी से चाय पिएं उधार लेके
अभी उन्हें अपने लिए यह जगह बनानी है. क्योंकि किताब, और कम्प्यूटरों से मिला ज्ञान बहुत कम होता है. अगर ज्ञान यहीं से मिलता तो पढ़ाई के सारे संस्थान बंद हो जाते. जेएनयू भी बंद हो जाता. बीएचयू भी बंद हो जाता. ज्ञान किताबों के अक्षरों से नहीं पूरा होता. सौ साल बाद ही सही महामना के महान संस्थान को यह अवसर उन्हें देना चाहिए कि रात को सड़क के अहसास को वे जान सकें. किसी पुलिया पर बैठ के कविता लिखने का ठान सकें.  
वे असुरक्षित हैं. वे किस बात से असुरक्षित हैं. वे असुरक्षित हैं कि उन्हें छेड़ा जा रहा है. उनका उत्पीड़न किया जा रहा है. समाज और संस्थान दोनों जगह यही स्थिति है. इन स्थितियों को बदलने के लिए इस संस्कृति को बदलने के लिए बहुत बदलाव की जरूरत है. वह धीरे-धीरे आएगा. जैसे धीरे-धीरे जनतंत्र आया. जैसे धीरे-धीरे उनकी आबादी आई स्कूलों तक. स्कूलों से विश्वविद्यालयों तक
जब वे एक साथ पढ़ेंगे एक साथ रहेंगे. एक दूसरे को तभी समझ पाएंगे. एक दूसरे को तभी समझा पाएंगे. बीएचयू ने इसे रोक रखा है. उनकी पढ़ाई, उनकी कक्षाएं तक अलग कर रखी हैं. उन्हें एक क्लास में बैठकर पढ़ने के साथ-साथ अवसर मिलने देना. इस असुरक्षा को कम करेगा. वे विचार और कमजोर होंगे जो यह कह रहे हैं कि 6 बजे बाहर जाने की क्या जरूरत थी. लड़कियों के बाहर जाने की जरूरतों पर सवाल कम हो जाएंगे. सच के लोकतंत्र के लिए लड़कियों को लड़ने दीजिए. राष्ट्रवाद और राष्ट्रहित के लिए उन्हें लड़ने दीजिए. जो आज़ादी और हक़ के लिए उकसा रहे हैं उन्हें बधाई दीजिए. बदनाम होने की जड़ों को कमजोर करिए. लड़कियां जहां कमजोर पड़ें राष्ट्रहित के लिए आप खुद लड़िए.