20 अप्रैल 2017

फांसी को हत्या माना जाना चाहिए

चन्द्रिका
(मूल रूप से जागरण में प्रकाशित)
जासूस समाज में कभी अच्छे मूल्य का शब्द नहीं बन पाया. कभी भी नहीं बन पाया. वह संदिग्ध रहा. घर से लेकर राष्ट्र तक. पर उसका होना बचा रहा. उसकी जरूरत बची रही. इसलिए यह राज्य के लिए एक गुप्तचर और वैध सी चीज बना रहा. आज भी बना हुआ है. जो जितने बड़े राष्ट्र हैं उनके पास उतने ज्यादा जासूस हैं. कहा यह भी जा सकता है कि उनकी जासूसी ने उन्हें बड़े राष्ट्र होने में मदद की है. किसी मुल्क की आंतरिक सूचनाएं जुटाना और उससे वाकिफ होना उस मुल्क को कमजोर बनाता है. इस दौर और पहले के दौर की बड़ी लड़ाईयां जासूसों की मजबूती और उनकी जासूसी कामयाबी से जीती गई हैं. इसलिए इस बात में कोई शक़ नहीं किया जाना चाहिए कि दो पड़ोसी मुल्क जिनकी सरकारों ने लगभग दुश्मनाना रिश्ता रखा हुआ है उनके जासूस एक दूसरे मुल्क में नहीं हैं या नहीं रहेंगे. वे रहेंगे, जब तक राज्य रहेगा. जब तक राज्य और राज्य के बीच लड़ाईयां रहेंगी. जब तक भेदों और भीतर की सूचनाओं को जानने की जरूरत रहेगी. वे जब गैर मुल्कों में पकड़े जाएंगे उनको सजाएं दी जाएंगी. इसकी परवाह किए बगैर दूसरे जासूस फिर तैयार किए जाएंगे. कुलभूषण जाधव के बाद कोई और जासूस होगा. क्योंकि कुलभूषण जाधव के पहले दसियों भारतीय जासूसों को पाकिस्तान में पकड़ा गया है. उन्हें सज़ा हुई है. कुछ को मौत की भी सज़ा सुनाई गई है. सज़ा सुनाने के बावजूद किसी को फांसी नहीं हुई है. उनमे से ज़्यादातर जेल में आजीवन कारावास काटते हुए मर गए हैं.
फांसी की सजा उसे नहीं होनी चाहिए. यह बात सिर्फ कुलभूषण के लिए नहीं कही जानी चाहिए. बल्कि मौत की सज़ा लोकतंत्र में किसी को नहीं होनी चाहिए. यह बात यहां से शुरू की जानी चाहिए. किसी का जीवन लेने के बाद उसे वापस लाने का सामर्थ्य अगर मनुष्य और राज्य के पास नहीं है तो उसे जीवन लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए. यह कानून इंसान में सुधार होने की गुंजाइश को ख़त्म करता है. एक कल्याणकारी और लोकतांत्रिक राज्य को हमेशा अपने इंसान में सुधार की उम्मीद रखनी ही पड़ती है. ऐसी बहुत सी दलीलें और भी हैं. दुनिया के ज्यादातर राष्ट्रों ने सज़ा-ए-मौत को प्रतिबंधित कर दिया है. इसलिए कुलभूषण की सज़ा-ए-मौत के खिलाफ हमे होना चाहिए. लेकिन उससे पहले हमे किसी भी अपराधी की मौत के ख़िलाफ होना चाहिए. पर मुल्कों के अपने कायदे हैं. भारत और पाकिस्तान दोनों सज़ा-ए-मौत के कानून को मानते हैं. इस आधार पर दोनों यह भी मानते हैं कि अपराधियों को सुधारा नहीं जा सकता उन्हें खत्म करना ही एक मात्र उपाय है. एक मात्र उपाय तानाशाही के अलावा और कहीं नहीं हो सकता. 
जबकि हमारी सरकार यह कह रही है कि अगर जाधव को सज़ा दी गई तो वह उसे हत्या मानेगी. हमे इसे किस रूप में देखना चाहिए. जो सरकार अपने राज्य के कानून में हत्या करने का प्रावधान रखती है उसे किसी भी मुल्क में अपराधी को हत्या की सज़ा देने से रोकने का हक़ तबतक नहीं बनता जबतक वह अपने कानून से हत्या और मौत को ख़ारिज न कर दे. जबकि इसको लेकर दोनों मुल्कों की सरकारों के एक मत हैं. अपराध के बदले हत्या पर वे दोनों सहमत हैं. हत्या के बदले हत्या एक लोकतांत्रिक कानून नही हो सकता. यह एक मध्य-युगीन मूल्य है. जिसे लोकतंत्र के ढांचे में नहीं होना चाहिए. 
कुलभूषण के जासूस होने और संगीन अपराधों में शामिल होने का पाकिस्तान दवा कर रहा है. वह दावा कर रहा है कि कुलभूषण के पास उसके दो पासपोर्ट थे. एक उसके अपने नाम से और एक किसी मुस्लिम नाम से. वह दावा कर रहा है कि उसके पास कई हमले कराने में कुलभूषण का हाथ होने के सुबूत हैं. उसका दावा है कि जिस कोर्ट में सज़ा हुई है वहां तीस दिन के भीतर फैसले का प्रावधान है पर उसने एक बरस से ज़्यादा वक्त लेकर इसकी जांच की है. वह ढेर सारे सबूत देने के लिए तैयार है. सारी जांच पड़ताल के बावजूद, अपराध होने के बावजूद सज़ा-ए-मौत को खारिज किया जाना चाहिए. 
अगर कुलभूषण को सज़ा दी जाती है तो इसे हत्या माना जाना चाहिए. पर भारत सरकार के दोहरे चरित्र की वजह से नहीं. राष्ट्रप्रेम की वजह से नहीं. इसे हत्या मानने के कारण और हैं. इस हत्या के ज़िम्मेदार वे सब होंगे जो नागरिक अधिकारों के ख़िलाफ हैं. जो मानवाधिकारों के ख़िलाफ हैं. जो हर घटना के बाद सड़कों पर उन्मादी भीड़ की तरह निकल आते हैं और फांसी पर लटका देने की मांग करते हैं. वही अपने दोहरे चरित्र को दिखाते हुए इसे रोकने की बात कर रहे हैं. उन्हें अपने विचारों का आकलन करना चाहिए. पाकिस्तान का जासूस यदि भारत के लिए आतंकवादी है तो भारत का जासूस पकिस्तान के लिए आतंकवादी ही होगा. अतंकवाद और देशभक्ति किसी भी राष्ट्र के लिए एक सापेक्ष चीज है. 
एक उन्मादी भीड़ है पाकिस्तान में भी. एक उन्मादी भीड़ है हिन्दुस्तान में भी. लंबे वक्त में राज्य और सरकारों के द्वारा पैदा की गई दुश्मनी ने ही इस भीड़ को भी पैदा किया है. यह हिन्दुस्तान की वही भीड़ जो पाकिस्तान का जासूस कहकर 2015 में कानपुर में एक आदमी की हत्या कर देती है. वही भीड़ जो वकीलों के भेष में यह फैसला करती है कि आतंकवाद के आरोपी का कोई केस नहीं लड़ेगा. वही भीड़ जो कोर्ट परिसर में जे.एन.यू. के कन्हैया कुमार पर हमला करती है. वही भीड़ जो आलोचकों को पाकिस्तान भेजने के लिए उतावली रहती है. वैसी ही भीड़ पाकिस्तान के वकीलों में भी है. जिसने कुलभूषण के केस को न लड़ने का एलान किया है. यहां की भी बार काउंसिल ने ऐसे कई फैसले लिए हैं. हमारे लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि जो हम खुद नही कर पाते उसकी अपेक्षा दूसरों से कैसे करें. नफरत के जो बीज राज्य बोता है. उसकी फसल हमारे यहां ही क्यों तैयार होगी. वह दोनों मुल्कों में बराबर तैयार की जाती रही है. जब तक इस नफरत को बोने के कारण को हम नहीं समझेंगे. हम विचार के आधार पर अपने फैसले नहीं लेंगे. हमारे फैसले उन्माद और अवसरपरस्त होंगे. हम कुलभूषण को बचा भी लें तो इंसान के बतौर जो एक आरोपी या फिर अपराधी का हक़ है उसे खो देंगे.    

08 अप्रैल 2017

लोकतंत्र की नाकामी से उपजता उन्माद



अब तक भेदभाव खत्म हो जाने थे. धर्म और रेस के आधार पर हत्याएं बंद हो जानी थी. तीन सौ बरस से भी पहले दुनिया में आए लोकतंत्र की प्रेक्टिस को इतना तो करना ही था. पर हत्याएं बढ़ गई हैं और नफरत कई गुना ज्यादा उभर कर सामने आ रही है. यह सिर्फ हमारे अपने देश की हालात नहीं हैं, यह पूरी दुनिया में हो रहा है. अमेरिका में भी जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सबसे पहली भागीदारी हुई थी वहां भी लोग इसी तरह की नफरत दिखा रहे हैं. इतने लम्बे वक्त के बाद इस तरह की घटनाओं का होना कहीं न कहीं उस नाकामयाबी को दिखा रहा है जो लोकतंत्र से मिलनी थी. जिन मूल्यों के साथ लोकतंत्र आया था वह घटता जा रहा है. सबके लिए सब बराबर नहीं हो पा रहा. हमें तलाशी लेनी चाहिए. अपने देश के राजनीतिक विकास की, दुनिया के राजनीतिक विकास की. शायद पूरे लोकतंत्र के प्रणाली की ही तलाशी लेनी चाहिए. हमे यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि क्यों समता, समानता और बंधुत्व दुनिया में कमजोर पड़ रहा है.  

अलग-अलग देशों में इसके अलग-अलग रूप देखने को मिल रहे हैं. पर समग्रता में देखें तो लोगों में असहिष्णुता सब जगह बढ़ी है. हाल ही में ट्रंप सरकार आने के बाद अमेरिका में नस्लीय हमले बढ़े हैं. गैर-अमेरिकियों में एक असुरक्षाबोध पैदा हुआ है. जो एक मॉडर्न राष्ट्र के रूप में देखा जाता है और जहां लोग बेहतर जीवन और नौकरियों के लिए जाते रहे हैं रेस आधारित हिंसा और घटनाओं ने वहां लोगों में भय पैदा कर दिया है. ट्रंप जब चुनाव लड़ रहे थे तो उनके चुनावी अभियान में भी यह विभेद उनके भाषणों के तहत देखने में आ रहा था. अमेरिकी और गैर-अमेरिकी को मुद्दा बनाया जा रहा था. शायद वहां के लोगों ने इसे स्वीकार किया और उन्हें अपना मत दिया. जीतने के बाद जिसका प्रतिफल हम देख रहे हैं. लोगों के द्वारा इस तरह की नफरत को स्वीकार किया जाना ही इस बात को दिखाता है कि संरचना के तौर पर एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का होना और लोगों में लोकतंत्र के मूल्य का स्थापित हो पाना दोनों अलग-अलग चीजें हो गई हैं. लोगों में वे लोकतांत्रिक मूल्य नहीं निर्मित हो पा रहे हैं जो रेस, जाति, धर्म को बराबरी से देख सकें. सबके साथ समानता का बर्ताव कर सकें.  

अमेरिका में जब दिन्दुस्तानियों पर हमला होता है तो हिन्दुस्तानियों के लिए यह शोक और दुख की बात होती है. उन्हें लगता है कि यह ग़लत हुआ. पर जब हिन्दुस्तान में नाइजिरिया और साउथ अफ्रीकन देशों के लोगों पर हमले होते हैं तो वे इन घटनाओं को ठीक वैसे नहीं देख पाते जैसे कि अमेरिका में गैर-अमेरिकी पर हुए हमले को देखते हैं. महाराष्ट्र में मनसे और शिवसेना बिहारियों के नाम पर उत्तर भारतीयों पर हमले करती रही है. मद्रासी कह के दक्षिण भारतीयों को निशाना बनाया जाता रहा है. नेपाली के नाम पर नॉर्थ-ईस्ट के लोगों को प्रताड़ित किया जाता रहा है. मुसलमानों को तो पूरी दुनिया में अलग-अलग तरह से हमले किए जा रहे हैं. उनके कई मुल्कों को तबाह कर दिया गया. इन सारे हमलों को हम अलग-अलग देशों और अलग-अलग संदर्भों के साथ देख सकते हैं. जबकि हम इसके मूल में जाएंगे तो एक ही कारण समझ में आएगा. बदले हुए अर्थतंत्र ने जो असुरक्षा पैदा की है उस असुरक्षा ने लोगों को उन्मादी बना दिया है. उसी असुरक्षा ने मुल्क की सरकारों को भी उन्मादी बना दिया है. बड़े मुल्क छोटे मुल्कों पर हमले कर रहे हैं और स्थानीय और ताकतवर लोग गैर-स्थानीय और कम ताकतवर पर हमले कर रहे हैं. यह बड़े पैमाने से लेकर छोटे पैमाने पर हितों की लड़ाई है.  

इन हमलों की वजह कई बार बहुत साफ तौर पर दिखती है. कई बार ये हमले बहुत अपरोक्ष होते हैं. कारण कोई और गिनाया जाता है लेकिन उसके पीछे की वजह कोई और ही होती है. इसे हमे समझने की कोशिश करनी चाहिए. पूरे दुनिया के स्तर पर अर्थव्यावस्था इस तरह से गड़बड़ हुई है कि राज्य अपने लोगों को रोजगार देने की स्थिति में नहीं है. दो करोड़ प्रति वर्ष नौकरियों का दावा करने के बाद भी हमारी केन्द्र सरकार कुछ हजार नौकरियां देने में भी असफल रही है. तकनीकी विकास ने कई प्राइवेट संस्थानों व अन्य संस्थाओं में भी नौकरियां कम कर दी हैं. ऐसे में लोग बेरोजगार और बेहाल स्थिति में हैं. कम से कम लोगों द्वारा ज्यादा से ज्यादा काम कराना ही इस मुनाफे की व्यवस्था के लिए लाभकारी है. यह वित्तिय व्यवस्था जितना ज्यादा और बढ़ेगी बड़ी पूजी और कम लोगों के हाथों में सिमटती जाएगी. रोजगार और कम होते जाएंगे. पूजी का डिस्ट्रीब्यूशन भी और कम होता जाएगा.

इस बेहाली के लिए राजनैतिक पार्टियां अलग-अलग तरह के वायदे लेकर आती हैं पर उनके लिए बेरोजगारी को दूर करना मुश्किल हो रहा है. ऐसे में वे बेरोजगारी की वजहों को बदल देती हैं और लोगों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास करती हैं. वे यह बताने के बजाय कि राज्य अपनी नीतियों के कारण रोजगार देने में असफल हो रहा है यह बताती हैं कि स्थानीय की नौकरियां गैर-स्थानीय के हाथों में जा रही हैं. इस तरह से स्थानीय और गैर-स्थानीय के बीच एक नफरत को पैदा किया जाता है. सरकार खुद हमले न करके लोगों के भीतर इस तरह का भाव पैदा करती है कि वे ख़तरनाक हो जाते हैं. उन्हें उनका हित जाता हुआ दिखता है. वे सरकार की नीतियों पर सोचने के बजाय दूसरों के लिए नफरत की रणनीतियां तैयार करने लगते हैं. वे उन्मादी हो जाते हैं.
भारत के संदर्भ में यदि हम देखें तो जो उन्माद दिख रहा है वह सिर्फ भाजपा के सत्ता में आने का उन्माद नहीं है. कांग्रेस के वक्त भी वे उन्मादी थे. बस यह उन्माद थोड़ा और बढ़ गया है. अमेरिका से लेकर नोएडा तक और दादरी से लेकर बाबरी तक जो लकीर खींची जा रही है. वह हमारे इतिहास के पन्नों से कई लाइने काट रही है. वह लोकतंत्र और संविधान की लाइन को भी काट रही है जिसके तहत हमे धर्मनिर्पेक्षता और बंधुत्व का एक मूल्य मिला हुआ है. अमरीका में भारतीय महफूज नहीं हैं. यह हमे अपने मुल्क में रहते हुए दिखता है. जबकि अमेरिका से कई देश महफूज नहीं हैं. क्योंकि बड़ी अर्थव्यवस्था को बनाना और उसे टिकाए रखने के लिए जरूरी हो गया है कि किसी न किसी तरीके से गैर मुल्कों पर कब्जेदारी बनी रहे. वहां के संसाधनों को अपने लिए उपयोग किया जा सके.

लोकतंत्र और उसके बाद ग्लोबलाइजेशन का यह परिणाम तो नहीं सोचा गया था कि अमेरिका में गैर अमरीकी मारा जाएगा. अस्ट्रेलिया में भारतीय मारा जाएगा. और भारत में नाइजीरियन और साउथ अफ्रीकन मारा जाएगा. यह सब कबीलाई समाजों के इतिहास सा हो रहा है. जो अपने कबीले में दूसरे कबीले को नहीं घुसने देते थे. पर फिर से हमारे समाजों में हत्या और नफरत के जो आधार बन रहे हैं वे ऐसा समाज बना रहे हैं जहां ग्लोबलाइजेशन भी है और कबीले का पुरानापन भी है.

05 अप्रैल 2017

गांव बचेगा तो गाय बचेगी


 चन्द्रिका
 (मूलरूप से द वायर में प्रकाशित)

वे गाय को बचा रहे हैं और गांव को खत्म कर रहे हैं. गांव बचेगा तो गाय खुद ही बच जाएगी. वैसे यह कहना भी ख़तरनाक हो गया है. फिलहाल कुछ भी कहना ख़तरनाक हो गया है. सुनने के लिए दो लोगों के नाम बचे हैं और इसी के उन्माद में जाने कितने लोग फंसे हैं. फंसे हैं कि उन्हें लगता है कि यही है जो उन्हें उबार देगा. उन्हें उनके दुख और डर से निकाल लेगा. वे भीतर से डरे हुए लोग हैं जो उन्मादी हो गए हैं. हत्या और उन्माद के लिए उन्हें वहीं से ताकत मिल रही है. जबकि एक को दूसरे से शोहरत मिल रही है.

जहां कोई नाम बहुत बड़ा बना दिया जाता है. उसकी मान्यता बढ़ा दी जाती है और एक समूह भक्त बन जाता है. धर्म, राजनीति, ब्यूरोक्रेसी कहीं भी इसे देखा जा सकता है. वे एक अदृश्य ताकत के बल पर फलते-फूलते हैं और तलवार की तरह समाज के चेहरे पर झूलते हैं. वे, जो गाय की रट लगाए हुए हैं. वे जो कोई भी मांस न खाने की हठ लगाए हुए हैं. वे गाय प्रेमी नहीं हैं. अगर होते तो गाय और गांव के संबध को समझते. कि वह गांव खत्म हो रहा है जहां गाय रह पाती थी. गांव वह बच रहा है जहां गाय की जगह दो गऊ जैसे बूढ़े ही बच पा रहे हैं. इसी विकास की प्रक्रिया ने गाय पालने वाले लोगों को गांव से बाहर कर दिया है. खेतीबाड़ी तबाह कर उन्हें शहर में भर दिया है. शहरों और शहरों के बीच अथाह भरे हुए इलाकों के बीच जो रिक्त स्थान है, वही गांव है. इन रिक्त स्थानों को गाय से नही भरा जा सकता. गाय से कोई भी रिक्त स्थान नहीं भरा जा सकता. फिलहाल जहां-जहां गाय लिखा जा रहा है, जहां-जहां गाय बोला जा रहा है. नफरत का कोई और ही चीज घोला जा रहा है. दो समुदायों के बीच जो बना हुआ, बचा हुआ रिश्ता था उसका धागा खोला जा रहा है.

गाय के बहाने वे उससे अपनी नफरत जता रहे हैं. सुअर (बाराह) जो उनके मिथक में ईश्वर था उसके खाए जाने, मारे जाने पर सवाल तक नहीं उठा रहे हैं. सवाल नहीं उठना चाहिए. न गाय पर न सुअर पर. खानपान के अलग-अलग भौगोलिक, सांस्कृतिक कारण हैं. वैसे उन्हें किसी की संस्कृति का सम्मान नहीं है. उन्हें किसी से प्यार नहीं है. न मुल्क से, न गाय से, न गांव से, न गोरू से. क्योंकि गांव और गाय वाले मुल्क का बचना एक अलग तरह से बसना है. पूरी तरह से एक अलग अर्थव्यवस्था को रचना है. जिसे उजाड़ा गया और उजाड़ा जा रहा है. गाय से प्यार बगैर चरागाहों के नहीं हो सकता. गाय से प्यार बिना बैलों और हरवाहों के नहीं हो सकता. शहर चरागाह नहीं बना सकते. वहां हम हल बैल नहीं चला सकते. वहां तो हम खुद ही हर रोज कातिक के बैल बने हुए हैं. शहर जितने बड़े हैं हम उतना ज्यादा मिट्टी में सने हैं. इन घनी बस्तियों की बहुतायत आबादी जमीन से ऊपर सीढ़ियों वाले छतों की है. जानवरों ने अभी अपने को इस मुताबिक नहीं बनाया. सीढ़ियों पर चढ़ने और छतों पर रहने के लायक खुद को नहीं ढाला. हम हैं कि यह सब नहीं सोचते. अपनी ज़िंदगी और अपनी आंख से न देखकर गाय और गोबर में अड़े हुए हैं.

वन बीएचके में कोई कैसे गाय बसाएगा. बस वह अपनी दौड़ती-फिरती ज़िंदगी में जब भी गाय का नाम सुनेगा भावुक हो जाएगा. उसके लिए वन बीएचके की भी जरूरत नहीं. ट्रेन की सीट पर भी बैठकर गाय को लेकर भावुक हुआ जा सकता है. गाय को पालने और बचाने की बात वहीं पर ठहरी हुई है और हररोज ट्रेन हमे शहर की तरफ लिए जा रही है. शहर की भीड़ हररोज और बढ़ रही है. आसपास के गांव को अपने भीतर कर रही है. इंसान का ही रहना यहां मुहाल है. यह तो गाय को बचाने और बसाने का सवाल है.

सारे रोजगार, सारे संस्थान शहर में हैं. सारी मुफलिसी, सारी तंगी घर में है. एक को तो छोड़ देना पड़ेगा. या इस विकास के रास्ते को ही मोड़ देना पड़ेगा. शहर टूटेंगे गांव तभी बस पाएगा. गाय तभी बस पाएगी. जब गाय सिर्फ धरम के लिए नहीं होगी. जब गोमूत्र सिर्फ पीने के लिए नहीं होगा. जब गोबर सिर्फ हवन के लिए नहीं होगा. वह खेतों में खाद के लिए होगा, उपजाऊं अनाज के लिए होगा. हमारे जीवन की पूरी प्रक्रिया का हिस्सा होगा. होंगे सारे जानवर. गाय जैसा होगा उनका भी होना.

पर ऐसा नहीं होगा इस सरकार से. इससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा और उससे पहले की भी सरकार से नहीं होगा. क्योंकि इस मुल्क के विकास के लिए उनके पास वही खाका है. जिससे बना न्यूयार्क है, जिससे बना ढाका है. मुल्क हमारे अलग हैं पर उनका विकास, हमारा विकास एक है. गाय के मामले में वे हमसे ज्यादा नेक हैं. हम बड़ी आबादी वाले देश को बगैर गांव के नहीं जीना था. हमारे कपड़े अलग थे हमे अपने तरीके से सीना था. हम न्यूयार्क नहीं हो सकते, हम जापान नहीं हो सकते. कई मुल्कों की लाशों पर चमकता हुआ शहर दुनिया में बहुत कम बन सकता है. अमेरिका बनना कई मुल्कों के इतिहास, भूगोल को निगल जाना है. अमरीका बनना कई मुल्कों का पड़ोसी मुल्कों से युद्ध कराते रहना है. अमेरिका होना दुनिया में सबसे ज्यादा हथियार तैयार करना है. हथियार तैयार करना भविष्य में तबाही और भय की उम्मीद को ज़िंदा रखना है. दुनिया में हम सबको असुरक्षित रखने का ही नाम है सबसे विकसित देश का नाम. हम उसी का पीछा करते हुए कुछ दशक पीछे हैं. शायद हम हमेशा पीछा करने वाले देश ही रहेंगे. हम आगे तभी जा सकते हैं जब वह पीछे जाए. इस एक लाइन वाली दुनिया की व्यवस्था में ऐसे ही सबको खड़े होना है. आगे जाने के लिए कोई और रास्ता नहीं है सिवाय इसके कि अपने से आगे वाले को पीछे छोड़ा जाए, इसके लिए उसकी बांह मरोड़ा जाए.

हमे भारत बनाना था. जहां सबको बसना था. जहां इतिहास में सबके हिस्से थे. जहां जातीयों के जुल्म के भी किस्से थे. हमे उसे खतम करना था. हमने वह नहीं किया. हमने वह नहीं सोचा. दुनिया के उन मुल्कों के उधारी विकास को हमने अपनी मिल्कियत बना ली. अब जो है वह भयावह है. उनके विकास का ही मॉडल शहर है कि हमे भी उसे ज़हर की तरह पीना पड़ रहा है. मौत के पहले हर रोज की मौत को जीना पड़ रहा है. युवा उम्र के लोग अफवाह की तरह फैल गए हैं, इन शहरों में. निराधार, हर रोज बदल दिए जाने वाली ख़बर की तरह. पहले उन्हें नौकरी न पाने के ख़तरे हैं, नौकरी पाने के बाद इसके छिन जाने के ख़तरे हैं. इन खतरों से जो बचा हुआ मोहलत का वक्त होता है उसमे वे खुद भी खतरनाक हो जाते हैं. कहीं उन पर ख़तरा है तो कहीं वे उससे उबरने के लिए खुद खतरा बन रहे हैं. उन्माद यहीं से पैदा होता है. व्यवस्था उन्हें खतरे में डालती है और उससे उबरने के लिए उन्हें खतरनाक बनाती है. तब गाय ही सबसे बड़ा सवाल बना दिया जाता है. गांव वहां से फिर भी हट जाता है.

जिन्हें इतनी असुरक्षाओं के बीच ज़िंदा रहना और बचे रहना है उन्हें नैतिकता नहीं सिखाई जा सकती. नैतिकता उस ढांचे से पनपती है जहां आप जीवन जी रहे होते हैं. अर्थतंत्र पर टिकी इस दुनिया में आर्थिक तंगी के बीच आप किसी को ईमानदार नहीं बना सकते. ईमानदार बनाने की धारणा बना सकते हैं. इस आधार पर एक राजनैतिक पार्टी बना सकते हैं. सदी के सबसे बड़े झूठ को सच बना सकते हैं. और भी बहुत कुछ बना सकते हैं पर ईमानदार इंसान नहीं बना सकते. क्योंकि इंसान अपने समाज की जरूरतों और ढांचों से अपने मूल्य बनाता है. न कि उसके मूल्य के आधार पर ढांचा बन पाता है. बहते हुए नाले का पानी अगर साफ हो तो सारी चीजें अपने मूल रंग में दिख सकती हैं. एक-एक चीज को निकालकर उसे धुलकर उसका रंग दिखाना सिर्फ बहकावा है. ऐसे बहकावे में ही उन्माद भी है, हिंसा भी है और वह सबकुछ है जो पूर्णता में किसी चीज को देखने से रोक देगा. गाय दिखेगी, गांव नहीं दिखेगा. विकास सुनाई पड़ेगा और हर कोई परेशान रहेगा.       

03 अप्रैल 2017

स्किल इंडिया; एक विकास विरोधी अभियान


चन्द्रिका
(मूलरूप से जागरण में प्रकाशित)

हर वक्त के अपने मूल्य होते हैं. वक्त बदलता है और मूल्य बदल जाते हैं. विकास हमारे वक्त का ऐसा मूल्य बन चुका है जिसे फिलहाल सामूहिक तौर पर लोगों में स्वीकृति मिली हुई है. जबकि विकास के कई आयाम हैं और इसके कई परिणाम. परिणाम वर्तमान के भी हैं और भविष्य के भी हैं. जिसे विकास कहकर आज बढ़ावा दिया जा रहा है जरूरी नहीं कि आने वाले भविष्य में उसको उसी तरह स्वीकार किया जाए. भाजपा द्वारा स्किल इंडिया की अवधारणा भी इसी विकास की बात से निकल कर आई है. लोगों में स्किल पैदा कर सरकार उन्हें बेहतर बनाने का दावा पेश कर रही है. उसे हमारे एजुकेशन का एक नया पैटर्न बताया जा रहा है. फिर वह क्या फर्क है जो स्किल और एजुकेशन को अलग कर रहा है. क्या एजुकेशन के बजाय सिर्फ स्किल पैदा करना एक विकसित समझ है.  
दरअसल यह हमारी शिक्षा और ज्ञान के मायने को बदलने की एक कवायद है. उसके स्वरूप को बदला जा रहा है. इस तरह से बदला जा रहा है कि जिसके तात्कालिक असर भले न दिखें पर आने वाले वक्त में हम एक मूढ़ समाज बनाने की तैयारी कर रहे हैं. एक ऐसा समाज जो एक ही दिशा में सोचने वाला हो, एक ही जैसा सोचने वाला हो. एक यूनीलीनियर दुनिया बनाने की परियोजना का यह एक हिस्सा है. जो उस ज्ञान परंपरा को ख़त्म कर दे जिसके तहत बहुआयामी और आलोचनात्मक सोच विकसित होती है. जो लोकतंत्र के विचार को और मजबूत बनाती है.
शिक्षा के बजट में लगातार कटौती की जा रही है. शोध करने और विमर्ष करने के दायरे भी कम किए जा रहे हैं. यूजीसी नोटीफिकेशन 2016 के तहत सभी विश्वविद्यालयों में शोध को सीमित कर दिया गया है. जे.एन.यू. जैसे शोध आधारित देश के अग्रणी संस्थानों में 80% से ज्यादा सीटें इस वर्ष कम कर दी गई हैं. देश के अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालयों के भी हालात कुछ ऐसे ही है. यह सरकार के विकास की नई दिशा है. जो ज्ञान के उस दायरे को कमजोर करना चाहती है जहां असहमति और मतभिन्नता का स्पेस निर्मित होता है. वह अपनी अलग-अलग योजनाओं के जरिए उस कल्याणकारी राज्य की परियोजना को ख़त्म कर रही है जिसके तहत शिक्षा, स्वास्थ्य को नागरिक अधिकार बनाया जाना था. वर्तमान सरकार और इसके पहले की सरकारें दोनों में ही इस योजना को लेकर कोई अंतर नहीं दिखता. वे निजीकरण को बढ़ावा और राज्य द्वारा लोगों को दी जाने वाली सुविधाओं में कटौती कर रही हैं. जब सरकार शिक्षा के बजट कम करेगी तो संस्थानों के लिए अपने संसाधन सीमित करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. शोधार्थियों को शोध के लिए दी जाने वाली सीमित राशि भी देना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा. लिहाजा वे संस्थानों के लिए कुछ इस तरह के नियम बनाएंगे कि शोध और अध्ययन में कम लोग दाख़िला पा सकें. इसलिए शिक्षा में बजट की कटौती लोगों के ज्ञान की कटौती भी है. यहां मूल समस्या सरकार की मंसा में है. निजीकरण को बढ़ावा देने वाली उस प्रक्रिया में है. पब्लिक संसाधनों का सीमित होना या उच्च शिक्षा में सीटों का कम होना तो बस इसका उत्पाद भर है. जो निजीकरण के ख़िलाफ नहीं हैं, जिन्हें शिक्षा में बजट कटौती से परेशानी नहीं है. उन्हें केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में और कम पैसों में अपने बच्चों के न पढ़ पाने का कोई मलाल नहीं होना चाहिए.
जबकि पढ़ने वाली आबादी बढ़ रही है. शिक्षा के संस्थान भी बढ़े हैं पर संस्थानों की यह बढ़ोत्तरी निजी क्षेत्रों में हुई है. दुनिया के बड़े निवेशक व्यापारी एक नए निवेश के रूप में शिक्षा को देख रहे हैं और उसमे निवेश कर रहे हैं. जबकि उनके पास कोई कल्याणकारी योजना नहीं है कि वे समाज के लोगों को शिक्षित करना चाहते हैं. उनका यह भी उद्देश्य नहीं है कि वे दुनिया में ज्ञान की कोई परंपरा विकसित करना चाहते हैं. वे इसे एक लाभ के क्षेत्र के रूप में ही देख रहे हैं. उनके लाभ दोहरे हैं. आर्थिक लाभ के अलावा वे अपने मुताबिक मानव संसाधन को निर्मित कर रहे हैं. एक वर्ग के बच्चे, एक तरह के मूल्य, एक तरह का माहौल, एक खास तरह के कंक्रीट, जैसा कि निजी संस्थानों में दिखता है. शिक्षा के संस्स्थानों में किताबों के अलावा हमारे ज्ञान निर्माण में इस परिवेश की भी भूमिका होती है. यह एक मशीन सा है जो एक सांचे से एक ही तरह का पुर्जा पैदा करती है. वह वहीं फिट होगा जहां उसकी जगह है. वहां आलोचनात्मक समझदारी या संवेदनशीलता नहीं पनप सकती. वे बहुआयामी नहीं हो सकते. निजी क्षेत्र को इसकी जरूरत भी नहीं है कि सवाल और आलोचना पैदा हो. यह उसकी व्यवस्था के लिए ही परेशानी बनती है. तो राज्य लोगों के लिए शिक्षा की जो क्राइसिस पैदा कर रहा है वह निजी क्षेत्र के लिए लाभदायक बन रहा है.
इसलिए सरकार के द्वारा शिक्षा के बजट में कटौती और निजी संस्थानों के बढ़ने का सीधा संबंध है. जब सरकार शिक्षा मुहैया नहीं कराएगी तो व्यवसायी उसे अपना नया क्षेत्र बनाएंगे. यह योजना हमारे समाज के ज्ञान को भी कमजोर करेगी. क्योंकि समाज विज्ञान के विषयों के अध्ययन अध्यापन में भी कमी आएगी. ये ऐसे विषय हैं जो रोजगार से ज्यादा अपने समाज को समझने और उसे नई दिशा में आगे बढ़ाने के चिंतन को विकसित करते हैं. इनका प्रत्यक्ष लाभ नहीं दिखता. व्यवसायिक शिक्षा में ऐसे विषय संस्थानों के दायरे से बाहर होंगे. केवल कम्पनियों और फैक्ट्रियों की जरूरत के मुताबिक स्किल्ड लोग तैयार किए जाएंगे.
नए विकास में ज्ञान और शिक्षा देने के बजाय स्किल्ड बनाने की घोषणा सरकार ने कर ही दी है. यह वर्तमान सरकार के विकास की योजनाओं में से एक है. अंग्रेजी का यह स्किल्ड हिन्दी का कारीगर है. भाषा कई बार हमारे भीतर भ्रम पैदा करती है और चीजें उलट-पुलट जाती हैं. जाहिर सी बात है कि सरकारी उपक्रम कम होते गए हैं तो सरकार जो कारीगर तैयार कर रही है वह भी व्यवसायियों के लिए ही है. ऐसे में ज्ञान का मायने यही बन रहा है कि राज्य हमे व्यवसायियों के हाथो में सौंप रहा है. शिक्षित होने के लिए और शिक्षित होने के बाद भी. क्योंकि स्किल्ड बनाने के जरिए हमारे शिक्षा और ज्ञान की अवधारणा को ही बदला जा रहा है. शिक्षित होने और स्किल्ड होने के मायने एक जैसे नही हैं. कारीगर बनाना और ज्ञान अर्जित करना दोनों एक चीज नहीं है. ज्ञान का संबंध सीधे-सीधे नौकरियां पाने से ही नहीं था. बल्कि वह अपने समाज को समझना और सीखना था. आगे आने वाली पीढ़ी को अपने सीखे अनुभवों से और उन्नत करना था. इसे बदला जा रहा है. यह विकास के नाम पर दिया जाने वाला एक झांसा है. अपनी जरूरत के मुताबिक लोग स्किल्ड हो ही जाते हैं. किसी स्किल का होना कोई बुरी बात भी नहीं है. जरूरी सवाल यह है कि हमें क्यों स्किल्ड बनाया रहा है? हम किसके लिए स्किल्ड हो रहे हैं? क्या हमारे पढ़ने-लिखने और ज्ञान को इस स्किल्ड के जरिए अपदस्त तो नहीं किया जा रहा है.
इसलिए एक तरफ विकास की बात करना और दूसरी तरफ स्किल इंडिया के जरिए लोगों से ज्ञान को छीनकर उनको कारीगर बनाना एक विकसित समझ नहीं है. यह एक तरह से ज्ञान और तार्किक सोच समझ को रोकना है. जहां हम अपने समाज में एक विषय पर विभिन्न मत रखते थे और वे मतभेद के अन्तर्विरोध ही थे जो हमारे समाज और ज्ञान को और आगे बढ़ाते थे. उसे ख़त्म करने की कवायद का ही नाम है स्किल इंडिया. जिसका असर हमारे समाज को लंबे समय में दिखेगा. फिलहाल तो जो चमक रहा है उसे हर कोई सोना ही कहने को आतुर दिख रहा है.