चन्द्रिका
(मूल रूप से जागरण में प्रकाशित)
जासूस समाज में कभी अच्छे मूल्य का शब्द नहीं बन पाया. कभी भी नहीं बन पाया. वह संदिग्ध रहा. घर से लेकर राष्ट्र तक. पर उसका होना बचा रहा. उसकी जरूरत बची रही. इसलिए यह राज्य के लिए एक गुप्तचर और वैध सी चीज बना रहा. आज भी बना हुआ है. जो जितने बड़े राष्ट्र हैं उनके पास उतने ज्यादा जासूस हैं. कहा यह भी जा सकता है कि उनकी जासूसी ने उन्हें बड़े राष्ट्र होने में मदद की है. किसी मुल्क की आंतरिक सूचनाएं जुटाना और उससे वाकिफ होना उस मुल्क को कमजोर बनाता है. इस दौर और पहले के दौर की बड़ी लड़ाईयां जासूसों की मजबूती और उनकी जासूसी कामयाबी से जीती गई हैं. इसलिए इस बात में कोई शक़ नहीं किया जाना चाहिए कि दो पड़ोसी मुल्क जिनकी सरकारों ने लगभग दुश्मनाना रिश्ता रखा हुआ है उनके जासूस एक दूसरे मुल्क में नहीं हैं या नहीं रहेंगे. वे रहेंगे, जब तक राज्य रहेगा. जब तक राज्य और राज्य के बीच लड़ाईयां रहेंगी. जब तक भेदों और भीतर की सूचनाओं को जानने की जरूरत रहेगी. वे जब गैर मुल्कों में पकड़े जाएंगे उनको सजाएं दी जाएंगी. इसकी परवाह किए बगैर दूसरे जासूस फिर तैयार किए जाएंगे. कुलभूषण जाधव के बाद कोई और जासूस होगा. क्योंकि कुलभूषण जाधव के पहले दसियों भारतीय जासूसों को पाकिस्तान में पकड़ा गया है. उन्हें सज़ा हुई है. कुछ को मौत की भी सज़ा सुनाई गई है. सज़ा सुनाने के बावजूद किसी को फांसी नहीं हुई है. उनमे से ज़्यादातर जेल में आजीवन कारावास काटते हुए मर गए हैं.
फांसी की सजा उसे नहीं होनी चाहिए. यह बात सिर्फ कुलभूषण के लिए नहीं कही जानी चाहिए. बल्कि मौत की सज़ा लोकतंत्र में किसी को नहीं होनी चाहिए. यह बात यहां से शुरू की जानी चाहिए. किसी का जीवन लेने के बाद उसे वापस लाने का सामर्थ्य अगर मनुष्य और राज्य के पास नहीं है तो उसे जीवन लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए. यह कानून इंसान में सुधार होने की गुंजाइश को ख़त्म करता है. एक कल्याणकारी और लोकतांत्रिक राज्य को हमेशा अपने इंसान में सुधार की उम्मीद रखनी ही पड़ती है. ऐसी बहुत सी दलीलें और भी हैं. दुनिया के ज्यादातर राष्ट्रों ने सज़ा-ए-मौत को प्रतिबंधित कर दिया है. इसलिए कुलभूषण की सज़ा-ए-मौत के खिलाफ हमे होना चाहिए. लेकिन उससे पहले हमे किसी भी अपराधी की मौत के ख़िलाफ होना चाहिए. पर मुल्कों के अपने कायदे हैं. भारत और पाकिस्तान दोनों सज़ा-ए-मौत के कानून को मानते हैं. इस आधार पर दोनों यह भी मानते हैं कि अपराधियों को सुधारा नहीं जा सकता उन्हें खत्म करना ही एक मात्र उपाय है. एक मात्र उपाय तानाशाही के अलावा और कहीं नहीं हो सकता.
जबकि हमारी सरकार यह कह रही है कि अगर जाधव को सज़ा दी गई तो वह उसे हत्या मानेगी. हमे इसे किस रूप में देखना चाहिए. जो सरकार अपने राज्य के कानून में हत्या करने का प्रावधान रखती है उसे किसी भी मुल्क में अपराधी को हत्या की सज़ा देने से रोकने का हक़ तबतक नहीं बनता जबतक वह अपने कानून से हत्या और मौत को ख़ारिज न कर दे. जबकि इसको लेकर दोनों मुल्कों की सरकारों के एक मत हैं. अपराध के बदले हत्या पर वे दोनों सहमत हैं. हत्या के बदले हत्या एक लोकतांत्रिक कानून नही हो सकता. यह एक मध्य-युगीन मूल्य है. जिसे लोकतंत्र के ढांचे में नहीं होना चाहिए.
कुलभूषण के जासूस होने और संगीन अपराधों में शामिल होने का पाकिस्तान दवा कर रहा है. वह दावा कर रहा है कि कुलभूषण के पास उसके दो पासपोर्ट थे. एक उसके अपने नाम से और एक किसी मुस्लिम नाम से. वह दावा कर रहा है कि उसके पास कई हमले कराने में कुलभूषण का हाथ होने के सुबूत हैं. उसका दावा है कि जिस कोर्ट में सज़ा हुई है वहां तीस दिन के भीतर फैसले का प्रावधान है पर उसने एक बरस से ज़्यादा वक्त लेकर इसकी जांच की है. वह ढेर सारे सबूत देने के लिए तैयार है. सारी जांच पड़ताल के बावजूद, अपराध होने के बावजूद सज़ा-ए-मौत को खारिज किया जाना चाहिए.
अगर कुलभूषण को सज़ा दी जाती है तो इसे हत्या माना जाना चाहिए. पर भारत सरकार के दोहरे चरित्र की वजह से नहीं. राष्ट्रप्रेम की वजह से नहीं. इसे हत्या मानने के कारण और हैं. इस हत्या के ज़िम्मेदार वे सब होंगे जो नागरिक अधिकारों के ख़िलाफ हैं. जो मानवाधिकारों के ख़िलाफ हैं. जो हर घटना के बाद सड़कों पर उन्मादी भीड़ की तरह निकल आते हैं और फांसी पर लटका देने की मांग करते हैं. वही अपने दोहरे चरित्र को दिखाते हुए इसे रोकने की बात कर रहे हैं. उन्हें अपने विचारों का आकलन करना चाहिए. पाकिस्तान का जासूस यदि भारत के लिए आतंकवादी है तो भारत का जासूस पकिस्तान के लिए आतंकवादी ही होगा. अतंकवाद और देशभक्ति किसी भी राष्ट्र के लिए एक सापेक्ष चीज है.
एक उन्मादी भीड़ है पाकिस्तान में भी. एक उन्मादी भीड़ है हिन्दुस्तान में भी. लंबे वक्त में राज्य और सरकारों के द्वारा पैदा की गई दुश्मनी ने ही इस भीड़ को भी पैदा किया है. यह हिन्दुस्तान की वही भीड़ जो पाकिस्तान का जासूस कहकर 2015 में कानपुर में एक आदमी की हत्या कर देती है. वही भीड़ जो वकीलों के भेष में यह फैसला करती है कि आतंकवाद के आरोपी का कोई केस नहीं लड़ेगा. वही भीड़ जो कोर्ट परिसर में जे.एन.यू. के कन्हैया कुमार पर हमला करती है. वही भीड़ जो आलोचकों को पाकिस्तान भेजने के लिए उतावली रहती है. वैसी ही भीड़ पाकिस्तान के वकीलों में भी है. जिसने कुलभूषण के केस को न लड़ने का एलान किया है. यहां की भी बार काउंसिल ने ऐसे कई फैसले लिए हैं. हमारे लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि जो हम खुद नही कर पाते उसकी अपेक्षा दूसरों से कैसे करें. नफरत के जो बीज राज्य बोता है. उसकी फसल हमारे यहां ही क्यों तैयार होगी. वह दोनों मुल्कों में बराबर तैयार की जाती रही है. जब तक इस नफरत को बोने के कारण को हम नहीं समझेंगे. हम विचार के आधार पर अपने फैसले नहीं लेंगे. हमारे फैसले उन्माद और अवसरपरस्त होंगे. हम कुलभूषण को बचा भी लें तो इंसान के बतौर जो एक आरोपी या फिर अपराधी का हक़ है उसे खो देंगे.