03 फ़रवरी 2017

नदी को रोक दो तो क्या बनेगा

उत्तराखंड में रामनगर के करीब एक गांव मालधन से.
पहाड़ में पलायन की कहानियां पूरे पहाड़ की हैं. वे धीरे-धीरे खाली होते जा रहे हैं और कहीं कोई शहर भरता जा रहा है. शहर भर रहा है और मर रहा है, लगातार. जहां बेहतर जीवन की संभावनाएं थी वहां ज़िंदगी बिताना पहाड़ सा हो गया है. यह मुहाबरा यहां किताबों से ज़्यादा ज़िंदगी की चीज है. पढ़ने से ज़्यादा इसे छूना चहिए. पहाड़ जिन्हें हम सुनते आए थे कि खड़े हैं करीब जाकर देखने से लगा कि वे बैठे हैं. खड़े होते तो कहीं और चले गए होते. इत्मिनान से इतने लंबे वक्त तक बैठना भी एक कठिन काम है. सारे के सारे पहाड़ एक कठिन काम पर लगे हैं. उत्तराखंड बनने के बाद ऊपरी इलाकों से पलायन और तराई के विस्थापन दोनों जारी हैं. बहुत थोड़ी सी स्याही से किया गया प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री या मंत्री-संत्री किसी का भी एक हस्ताक्षर कई गांवों को स्याह कर देता है. गांव उजड़ जाते हैं और वहां फैक्ट्री बन जाती है. जंगल कट जाते हैं और वहां कम्पनी लग जाती है. नदी रुक जाती है और वहां बांध बन जाता है. घरों की जगह पानी ले लेता है और पानी की जगह खाली और खाली जगहें किसी और चीज से भर दी जाती हैं. और इससे भरते रहते हैं कुछ के खजाने. अब कम लोग बचे हैं जो उन भरते खजाने वालों को पूजीपति कहते हैं. उससे भी कम हैं जो उन्हें दलाल कहते हैं और उन्हें लुटेरा कहने वाली पीढ़ी अब बची ही नहीं. कई बार कुछ नए, बिल्कुल नए लोग पुरानों की याद में उन्हें लुटेरा कहते हुए मिलते हैं. पर ऐसा कहना अब समझदारी नहीं माना जाता. समझदारों के बीच में यह एक अप्रचलित और पुराना हो चुका शब्द है.
पिछ्ले महीने जब उस गांव में गया था तो लोग दुखी थे. उन्हें पानी का दुख था. पानी जाने का दुख. उनके दुख में ही डर भी शामिल था. नदी किनारे के गांव और नदी किनारे के शहर का दुख एकदम उल्टा होता है. शहर पानी के कम होते जाने से दुखी हैं और यह गांव पानी के बढ़ते जाने से. उत्तराखंड के रामनगर कस्बे से इस गांव की दूरी बहुत कम है. गांव का नाम मालधन है और लोगों का नाम विस्थापित. सरकारी आदेशों के बावजूद अभी तक उस गांव के लोग वहां से नहीं गए हैं. जंगल, जमीन और ज़िंदगी के इतिहास सरकारी आदेशों से ज़्यादा मजबूत होते हैं. लोग अपनी जगह और स्मृतियां नहीं छोड़ पाते. यहां के लोग भी नहीं छोड़ पा रहे हैं. वे यहां अपने घर बनाने और बस जाने की तारीख़ें गिनवाते हैं. दुनिया में विस्थापन की लडाईयां अपनी जमीन छोड़ने से ज़्यादा जमीन से जुड़े इतिहास को छोड़ने की हैं. हत्या का भय ही उन्हें उनकी जमीन से जाने को विवश करता है. बहुत ही कम वक्त में वे अवैध निवासी हो जाते हैं. इसके बाद वे अपराधी और उग्रवादी हो जाते हैं. उग्रवादी होने के कारणों पर कौन जाता है. उग्रवाद एक गलत रास्ता है इस पर ज्यादातर की सहमति होती गई है. इस बिनाह पर राज्य उनसे उनकी जमीन छीन लेता है. मालधन गांव के ये लोग जिन्होंने सरकार की बात अभी तक नहीं मानी है. वहां अभी भी खेतों में फसल लगी हुई है. लोग गाय-भैंस चरा रहे हैं. औरतें पानी और घास लेकर लौट रही हैं. बूढ़ी औरत धूप सेंक रही है. बकरियां पत्ते टूंग रही हैं. आदमी लोग आदमी की तरह खड़े हैं, जो किसी काम पर नहीं गए हैं. अध्यापक पढा रहा है. यह सब होना एक गांव का होना है. पर अब यहां गांव नहीं है. यह बांध है और सरकार के नक्शे में यहां पानी है. नक्शे में पानी है इसलिए सरकार यहां कोई सड़क नहीं बनाती. पानी में सड़क बनाना एक नाजायज बात है. सरकार बिजली के तार नहीं लगाती. यहां गांव का मुखिया नहीं चुना जाता. अस्पताल तो सचमुच के गांव में भी नहीं होते. विधानसभा और उससे बड़े चुनावों के लिए यहां की आबादी वोट जरूर बनती है. कोई नियम होगा. पर यहां बगैर गांव के पते वाले लोग मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री चुनते हैं. अभी उत्तराखंड विधानसभा के चुनाव हैं और जब आप वहां के लोगों से गांव, बांध, विस्थापन, बिजली, सडक के बारे में बात करते हैं तो वे आपको किसी पार्टी का नेता समझने लगते हैं. कई वर्षों के अनुभव ने शायद उन्हें ऐसा ही सिखाया है.
बाहर के लोग कहते हैं कि वे डूब के लोग हैं. वे कहते हैं कि सरकार ने उन्हें डुबो दिया है. बहुत बड़े इलाके में चारो तरफ से मिट्टी की मोटी ऊंची दीवार बांध दी गई है. और गांव इसी में बंध गया है. इसी में जानवर बंध गए हैं. उनके घर बंध गए हैं. और बांध दी गई है उनके नागरिक होने की सीमा भी. वे पंचायत का चुनाव नहीं लड़ सकते. उन तक कोई सडक नहीं जाती, पर वे जिधर से आते-जाते हैं वही उनके पैरों के निशान ही सड़क है. सडक जो बाकियों के लिए उनके गांव, घर तक जाने का रास्ता होती है. अब उनके लिए अपने घर और गांव से बाहर निकलने का रास्ता है. एक दिन उन्हें इधर से निकलना हैं और फिर अपने घर नहीं लौटना है. गांव से नई बस्ती की तरफ आने का रास्ता और फिर खेतों के बीच बनी सड़कों से रामनगर तक आने का रास्ता. रामनगर से वे कहीं भी जा सकते हैं. अभी उनके घरों के ऊपर छत नहीं है, उनके घरों की दीवारें मिट्टी की बनी हुई हैं. इसे पक्का करने का हक भी उनको नहीं है. कुछ भी पक्का करने का हक उनको नहीं है. वे एक कच्ची ज़िंदगी जीने वाले लोग हैं. फिलहाल अभी वह मौसम आया हुआ है जिसमे उनके पकने और घरों के पक्के होने और रात में बल्ब लगने के वादे पक रहे हैं. वे जो चुनाव में उतरे हैं. सब के सब उन्हें ऐसा ही आस्वासन दे रहे हैं.
यहां बसने वाले हजारों लोगों के नाम उस जमीन से मिटा दिए गए हैं. वह जमीन अब सिर्फ एक नाम पर कर दी गई है कि वह बांध की जमीन है. तोमरिया बांध. ढेला. कोसी, रामगंगा तीन नदियों के पानी को रोक कर वह बांध बना दिया गया है. एक बहती हुई नदी के बगल में यह गांव बहुत पहले से बसा था. सौ साल के किस्से तो सभी सुना देते हैं. वे भी जिनकी उम्र अभी महज २० बरस है. मैं सोचता हूं कि सौ साल से रहने के किस्से उनके रहने के दावे को कितना मजबूत करेंगे. जबकि और जगहों पर आदिवासियों के कई सौ साल पहले से रहने के दावे को गोलिंयों से भूना जा रहा है. राज्य के लिए पुराने बसने का दावा अब पुराना हो चुका है. शहर से लेकर गांवों तक यह फैला हुआ है कि किसी जगह से बहुत से लोगों का नाम जब मिट जाता है तो वहां कोई बड़ी चीज बन जाती है. बांध हो, कम्पनी हो, मॉल हो या फैक्ट्री. देश के बड़े और विकसित होने का यही तौर बनता जा रहा कि बहुतों को हटाकर एक बड़ा सा कुछ खड़ा करना.

मालधन की आबादी काफी बड़ी है. कुछ हजार लोग तो बसते ही हैं यहां. मैने उन्हें बस देखा. उनमे से किसी से यह पूछा कि अब वे क्या करेंगे. कहां जाएंगे. उनकी और क्या मुसीबते हैं. उनके नाम भी पूछे. यह सब पूछना एक उम्मीद पाल देना है. कि कोई उन्हें पूछने वाला है. कि कोई है जो उनकी परेशानी सुनना चाहता है. शायद कोई उन्हें और उनके घर बचा ले. उन्हें वहां रोकने का कुछ जुगत बता दे. क्योंकि मैं जानता था कि इस सदी में मालधन जैसे गांवों में रहने वाले सभी लोगों का नाम विस्थापित होना है. उन्हें ही अपनी लड़ाई लडना है, उन्हें ही पाना है या उन्हें ही खोना है.  

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