29 दिसंबर 2016

अफ़वाह, सोशल मीडिया और पोस्ट ट्रूथ का दौर

--    दिलीप ख़ान
सोशल मीडिया के दौर में ख़बरों और सूचनाओं की बमबारी ने हमें उस जगह ला खड़ा किया है जहां किसी भी ख़बर की अगर आपने पुष्टि करने की कोशिश नहीं की तो अफ़वाहों के शिकंजे में ख़ुद को आप जकड़ा पा सकते हैं। मामला सिर्फ़ सोशल मीडिया यूजर्स या आम लोगों तक सीमित नहीं है, अफ़वाह फैलाने के तंत्र के तौर पर जिस बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल हो रहा है उसकी ज़द में वो तमाम संस्थान हैं, जिन्हें आप ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ कहते हैं। जिनका काम है ख़बरों को आप तक पहुंचाना और ज़िम्मेदारी के साथ पहुंचाना। 

2000 के नोट जिसमें 'चिप' की बात कही गई

2016 में ऐसी कई ‘ख़बरें’ सोशल मीडिया से उछलकर टीवी और अख़बारों में टंग गईं जो पूरी तरह झूठ थीं। नोटबंदी के बाद जब 2000 रुपए का नोट छापा गया तो इसमें किसी ऐसी ‘चिप’ लगे रहने की अफ़वाह ज़ोरों से उड़ी, जोकि ‘ज़मीन के 200 मीटर अंदर भी नोट का लोकेशन बताने में क़ामयाब’ हो। हिंदी और अंग्रेज़ी के तमाम बड़े अख़बारों ने पहले पन्ने पर इसे छापा। इनमें टाइम्स ऑफ इंडिया से लेकर राजस्थान पत्रिका तक शामिल हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया पूरी दुनिया में अंग्रेज़ी का सबसे बड़ा अख़बार है। सबसे ज़्यादा पाठक इसे पढ़ते हैं, लेकिन बिना किसी पुष्टि के अख़बार ने पहले पन्ने पर एक ऐसा झूठ छापा जिसकी कोई बुनियाद नहीं थी। हद तो तब हो गई, जब उग्र दक्षिणपंथ के एजेंडे को लगातार देश में स्थापित करने की कोशिश करने वाले ज़ी न्यूज़ ने इस पर ख़बर दिखाई। चैनल के सबसे बड़े चेहरे सुधीर चौधरी ने इस पर लंबा शो किया और ‘चिप’ की ख़ासियत कई मिनटों तक दर्शकों को समझाते रहे।

जैसे ही इस ‘ख़बर’ को कथित राष्ट्रीय मीडिया में जगह मिली, इसके भीतर ‘अफ़वाह’ का तत्व झड़कर अलग हो गया और उसी प्लेटफॉर्म पर अब ये विश्वसनीय तरीके से फैलने लगी, जहां से इसकी उत्पत्ति हुई थी। यानी सोशल मीडिया पर फैले इस झूठ ने ‘मुख्यधारा के मीडिया’ में घुसकर ख़ुद को ‘तथ्य’ में तब्दील कर दिया और यही ‘तथ्य’ अब उस सोशल मीडिया पर सच के तौर पर नए सिरे से नमूदार हुआ। सरकार की सफ़ाई के बावजूद ख़बर के फ़ैलाव के चलते लोगों का चिप पर बना यक़ीन टूटा नहीं। करोड़ों लोगों को आज भी लगता है कि उस नोट में ‘चिप’ लगी है और सरकार गुप्त तरीके से खंडन कर उस चिप का आपातकालीन इस्तेमाल करने में जुटी है।

सुधीर चौधरी ने नोट में 'चिप' पर पूरा शो कर डाला

इस ख़बर के खंडन में भी तमाम ख़बरें मीडिया में आईं, लेकिन तब तक करोड़ों लोगों के पास ‘पहले पहुंच चुकी सूचना’ एक तरह से ‘तथ्य’ के तौर पर स्थापित हो चुकी थी। बतौर खंडन आई ख़बर भी एक तथ्य के तौर पर ही पहुंची। यानी अब एक ही मामले पर दो तथ्य थे। कौन सा तथ्य सही है और कौन सा नहीं, ये साबित करना दोनों पक्ष के लिए उतनी ही मशक्कत भरा काम बन गया। जो अफ़वाह को ‘तथ्य’ मानकर चल रहा है उसके लिए आपके द्वारा पेश की गई सच्चाई भी महज एक ‘तथ्य’ ही है और ये ज़रूरी नहीं कि आपके द्वारा पेश किए गए तथ्य से वो अपने ‘तथ्य’ को कट जाने दें। 


असल में सोशल मीडिया के बाद पोस्ट ट्रूथ के विमर्श के मूल में यही आपाधापी और सनकपन है, जहां शोध और आमफ़हम जानकारियों के वजन को बराबर की कमोडिटी मान लिया गया हैं। मान लेते हैं कि आपने बहुत रिसर्च किया, और किसी ने उसी मुद्दे पर कोई जानकारी WhatsApp पर पाई। आपने किसी विश्वसनीय अख़बार/पत्रिका/जर्नल में कोई लेख पढ़ा और किसी ने उसी मुद्दे पर किसी टीवी चैनल में कोई कार्यक्रम देख लिया। किसी ने अपने भरोसेमंद व्यक्ति के मुंह से वो ‘फैक्ट’ पा लिया, जिसके लिए आपने दिन-रात एक की हो। आपने पूरी तन्मयता और मेहनत के साथ किताब पढ़ी, और उसी मसले पर किसी व्यक्ति ने पसंदीदा लोगों के फ़ेसबुक स्टेटस पढ़ लिए। हो सकता है कि आपकी जानकारी और तथ्य उससे बहुत अलग, बहुत विशद और सत्य के ज़्यादा क़रीब हो, लेकिन जिसने whatsApp या फ़ेसबुक पर वो जानकारी पाई है, उसके लिए आपकी मेहनत का कोई मोल नहीं है। उसके लिए जो मायने रखता है वो ये कि आपके पास भी किसी मुद्दे पर कोई जानकारी है और उसके पास भी एक जानकारी है। बिल्कुल उलट जानकारी होने के बावजूद उसे ख़ुद के ‘तथ्य’ पर भरोसा है।

नरेन्द्र मोदी को दुनिया के बेहतरीन प्रधानमंत्री क़रार देने की अफ़वाह तेज़ी से फैली

आपकी मेहनत और उसकी कोशिश का अंतिम नतीजा क्या है? दोनों के पास आख़िर में आया क्या? फैक्ट्स। आपका फैक्ट सही है और उनका ग़लत, ये साबित करने में आपका पसीना निकल जाएगा। सबको अपने-अपने फैक्ट्स पर भरोसा है। सबका अपना-अपना तथ्य है। पोस्ट ट्रूथ दौर में तथ्यों का उत्पादन और पुनरुत्पादन हो रहा है। सच के कई शेड्स बन गए हैं जिनमें कौन सा सच सही है ये तय कर पाना मुश्किल बना दिया गया है। 

सच को भी एक तथ्य माना गया है और अफ़वाह को भी एक 'तथ्य'। ऐसे में सच का कोई अलग मोल नहीं है। सच को झूठी सूचनाओं की बमबारी से ढंक देने की कोशिश दुनिया भर में जारी है। 2000 रुपए के नोट में ‘चिप’ की बात कोई इकलौता मामला नहीं है जिसे आप अपवाद करार दें। पिछले कुछ महीनों में आपने ये ख़बरें भी पढ़ी होंगी कि यूनेस्को ने नरेन्द्र मोदी को दुनिया का सबसे बेहतरीन प्रधानमंत्री क़रार दिया या फिर यूनेस्को ने ‘जन गण मन’ को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रगाण बताया है। इसे आज भी करोड़ों लोग सच मानते हैं और ऐसी ‘ख़बरों’ के उत्पादन करने वालों का जो लक्ष्य था, उसे उतनी मज़बूती से लोग मुहर लगा रहे हैं जितनी किसी सांगठनिक-सांस्थानिक और महीनों की मेहनत से की गई पत्रकारिता पर। 

आपको लग सकता है कि मामले को जितना गंभीर बनाकर पेश किया जा रहा है उतना है नहीं, तो दुनिया भर में पिछले कुछ महीनों से चल रही ख़बरों पर नज़र दौड़ाइए और देखिए कि कितने बड़े-बड़े फ़ैसले ऐसी अफ़वाहों की बदौलत हो चुके हैं। कैथरीन विनर ने हाल ही में द गार्डियन में पोस्ट ट्रूथ के मुद्दे को समझाने के लिए ‘ब्रेग्जिट’ का उदाहरण दिया और बताया कि यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन को अलग करने के मामले में जो जनमत संग्रह हुआ, उसमें अफ़वाहों ने कैसे बड़ी भूमिका अदा की। अलग होने वालों के समर्थकों ने जिस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया था, वो था ‘यूरोपियन यूनियन से अलग होने पर हर ब्रिटिश परिवार को राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के तहत ख़र्च करने के लिए 12000 पाऊंड हर हफ्ते ज़्यादा मिलेंगे’। ब्रेग्जिट का नतीजा घोषित होते ही सारे प्रचारकों ने उसी दिन खुलकर माना कि इस दावे में सच्चाई नहीं है और ये महज प्रचार के उद्देश्य से किए गए थे। 

भारत में इसे आजकल हम और आप ‘जुमला’ नाम से जानते हैं। सोशल मीडिया ने जुमलों की शक्ति को बढ़ा दिया है और जुमले आजकल तथ्य के तौर पर स्थापित होने की पूरी कोशिश में है। झूठा साबित होने के बावजूद ऐसे 'तथ्यों' का उत्पादन नहीं रुक रहा। ये मान लिया गया है कि 'झूठे तथ्यों' में भी उतनी ही शक्ति है जितनी एक तथ्य में। सवाल ये है कि अफ़वाह को कितने आत्मविश्वास से भरोसेमंद बनाकर उसे लोगों के ज़ेहन में उतार दिया जा रहा है। 

अथॉरिटी पर सवाल न करने में यक़ीन रखने वाले लोग इस अफ़वाह के सबसे बड़े उपभोगकर्ता है और एक तरह से उत्पादकों के साथ उनकी मिलीभगत है और ये लोग ऐसी अफ़वाहों को 'एंप्लिफाई' करने में जुटे रहते हैं। चेतनाशून्य और क्रिटिकल दिमाग़ को एक तरफ़ भोथड़ा बनाने की कोशिश जारी है और दूसरी तरफ़ अफ़वाहों की खेती। दूसरे को चलाने के लिए पहला कदम बहुत ज़रूरी है।

(इसी मुद्दे पर कैथरीन विनर के लेख का अनुवाद के बाद ये लेख लिखा है। जल्द ही उस लेख को भी ब्लॉग पर लगाया जाएगा।)

25 दिसंबर 2016

देशभक्ति की आड़ में पितृसत्ता को (पुनः) स्थापित करने का प्रयास: 'दंगल'

चंन्दन पाण्डेय



अमूमन कहानियाँ तीन तरह से कही जाती हैं। पहला तरीका, सत्य घटनाओं का अपनी दृष्टि के मद्देनजर सीधा सच्चा बयान। दूसरा, आद्यांत कपोल कल्पना। तीसरा, सत्य घटनाओं से कुछ हिस्से उठाकर उसे समाजपयोग के लिए मन-माफिक मोड़ देना। यह तीसरा तरीका ही ज्यादातर किस्सागो अपनाते हैं। इसे समाजपयोग के लिए बनाने का काम दरअसल लेखक की सोच, उसकी तैयारी और समाज के प्रति उसकी प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है।

दंगल फिल्म तीसरे तरीके से कही गई कथा है। राष्ट्रकुल खेलों में गीता फोगाट को मिला गोल्ड इस फिल्म की प्रस्थान बिंदु है। महावीर फोगाट के संघर्षों को समेट पाने में नितांत असफल यह फिल्म देशभक्ति के खोल में लिपट जाती है।

सौरभ दुग्गल ने महावीर फोगाट की जीवनी लिखी है, जिससे यह फिल्म उठाई गई है, उस जीवनी में महावीर के आतंरिक, सामाजिक और घरेलू संघर्षों का जितना बढ़िया और सटीक वर्णन है, यह फिल्म उस पूरे संघर्ष का शतांश भी नहीं पकड़ पाती। उस असफलता के कारण फिल्म देशभक्ति का आसान रास्ता पकड़ लेती है और वह पूरा संघर्ष एक मामूली कथा में बदल दिया गया है, जिसे फिल्म के शुरू में ही बता दिया जाता है कि - इस फिल्म में गीता और महावीर के जीवन को 'फिक्सनलाईज' किया गया है। यह वो 'फिक्शन' वाला हिस्सा ही है जो पुरातनपंथी है।

दंगल से पहले 'तारे जमीन पर' का जिक्र करते हैं। उस फिल्म में भी एक पिता है जिसके अपने बच्चों से अरमान असीम हैं, बड़ा बेटा सफल होता दीखता है लेकिन छोटा अपने अलग मिजाज का है, वह पिता के अरमानों पर पानी फेरते रहता है। फिर पिता और स्कूल की क्रूरताएं हैं। वहाँ, आमिर खान के रूप में एक शिक्षक आता है। वह छोटे बेटे को नई राह दिखाता है। यहाँ बात पिता बनाम शिक्षक नहीं है। ऐसा होता भी नहीं। किसी के भी जीवन में शिक्षक का एक किरदार होता है, जिसकी एक सीमा होती है, उसी तरह पिता का भी किरदार अपनी सीमाओं को लिए रहता है। मुख्य बात यह होती है कि जीवन में आपकी दिलचस्पी कौन जगा पाता है। वह दिलचस्पी ही बहुधा जीवन के रास्ते तय करती है, मिलने वाले लोग तय करती है। तारे जमीन पर फिल्म वह दिलचस्पी चित्रकारी के रूप में शिक्षक जगाता है और दंगल, कुश्ती के रूप में, यह काम गीता और बबीता की वह सहेली करती है, जिसकी शादी में वो दोनों गयी होती हैं। वरना उसके पहले तो पिता की लाख कोशिशों के बावजूद दोनों बहनें कुछ भी सीखने को राजी नहीं।

असल जीवन से उलट फिल्म में पिता का सपना कुश्ती को लेकर कम, देश के लिए मेडल लाने को लेकर अधिक है। एक भौतिक सफलता: जैसा कि अमूमन भारतीय पिताओं का स्वप्न होता है। यही वो पहलू है जहाँ महावीर फोगाट के जीवन संघर्ष को हल्का कर दिया गया है। कुश्ती के लिए, एक कला के लिए, समर्पित इंसान को, व्यवसायिक फायदे के लिए देशभक्ति के चासनी में डुबो दिया गया है। और देशभक्ति की चाशनी जब सबको नजरबन्द कर लेती है तो शुरू होता है: एजेंडा सेटिंग। न खाता न बही, जो पापा बोले वही सही, वाले फॉर्मूले पर फिल्म बढ़ निकलती है। यह परिवार व्यवस्था का सबसे बड़ा हथियार है कि पिता ने जो कह दिया वो सही है। यह फिल्म उन सभी पिताओं को तर्क देती है कि पिता ही बच्चों का भविष्य बनायेगा और इसके लिए हर तरह का शासन सही माना जाएगा।

इस फिल्म में सबसे पहले तो विराट जीवन को 'महान भारतीय परिवार' वाली फॉर्मूला कहानी में बदल दिया गया है और फिर मनमाफिक खलनायक भी चुन लिए गए हैं। जैसे, कोच। गिरीश कुलकर्णी ने उस पतित आदमी के किरदार को जबर्दस्त निभाया है लेकिन उस किरदार के लिखावट/बनावट पर गौर करें तो पाएंगे कि आमिर यानी पिता के चरित्र को मजबूत बनाये रखने ( यानी परिवार ही सही है) के लिए कोच के किरदार को लगातार गलत दर गलत दिखाया गया है। अंततः वह किसी भुनगे की माफिक दीखता है। अच्छे कोच की तो जाने दीजिए, खराब से खराब कोच भी इतने जुगाड़-जतन से अपना पोजिशन बरकरार रखता है कि एक खिलाड़ी के पिता से उसे कोई खतरा हो ही नहीं सकता।

कहानी यों बनाई गयी है कि जहाँ जहाँ गीता ने अपने पिता की बात मानी है, वहाँ वहाँ वो सफल हुई है। और पिता भी अपनी सारी बात देशभक्ति के रसे में भिंगो कर कहता है। देशभक्ति के नाम पर इस फिल्म में अनुशासन को हंसने वाली चीज बना दी गयी है। कुश्ती ही नहीं दुनिया के सारे खेल पर्याप्त लगन और अनुशासन की मांग रखते हैं। फिल्म का इरादा जो भी रहा हो, सन्देश यही देती है फिल्म कि पिता नाम की सत्ता ही आपके अच्छे बुरे का ख्याल रख सकती है।

फिल्म का सर्वश्रेष्ठ हिस्सा है जो पिता और बेटी का द्वन्द दिखाता है, नया बनाम पुराना का आदिम द्वन्द। अंततः यह द्वन्द पिता और पुत्री को आमने सामने कर देता है। अखाड़े में। पिता को यह अखर जाता है कि उसके ही अखाड़े में उसकी ही बेटी नए सीखे दाँव आजमा रही है। वो खुद बेटी को कुश्ती लड़ने की चुनौती देता है, और अभी बेटी तैयार भी नहीं होती है कि उसे उठाकर पिता पटक देता है। बेटी, जो कि खिलाड़ी पहले है और बेटी बाद में, कहती है, पापा मैं तैयार नहीं थी। तब पिता फिर ललकारता है। बेटी तैयारी से लड़ती है और पिता को चित्त कर देती है। यह फिल्म का सर्वाधिक प्रशंसनीय हिस्सा है।

पिता भी खिलाड़ी रहा है, उसका मान सम्मान के लिए लड़ना समझ में आता है। कोई भी लड़ जाएगा। लेकिन ठीक इस दृश्य के बाद फिल्म को रसातल में ले जाने की कवायद लिख दी जाती है। जीतने वाली बेटी को शर्मिन्दा कराया जाता है, पिता की उम्र हो गयी है, वो बड़े हैं, उन्होंने इतना कुछ किया है..मार तमाम..आशय यह कि गीता को अपने पिता को हराना नहीं चाहिए था।

आमने सामने के जोर में हारने के बाद पिता फिर से भारतीय पिता बन जाते हैं। रखवाला, सबसे बड़े ज्ञानी, स्ट्रैटजिस्ट...। कहानी में यह भी लिख दिया गया है कि महावीर यानी आमिर न मौजूद हों तो बेटी एक भी दाव सही लगा ही नहीं सकती। और हर बात में वही तर्क: देश के लिए मैडल लाना है। सोल्जर बोल दिया, आर्गुमेंट ख़त्म। क्योंकि तर्क खत्म हो गए इसलिए कोई नहीं जानना चाहता कि महावीर फोगाट का संघर्ष देश के लिए मैडल लाने से बहुत ऊपर का संघर्ष था, वरना जिस खेल में जिस वर्ष गीता को स्वर्ण पदक मिला, उसी वर्ष अलका तोमर को 59 किलो वर्ग और अनीता श्योराण को 67 किलो वर्ग में स्वर्ण पदक मिला था।

आशय यह कि अगर इस फिल्म को गीता फोगाट और महावीर फोगाट के नाम पर न बेंचा गया होता और हर दूसरा डायलॉग देश के लिए मैडल लाने से सम्बंधित न होता तो यह फिल्म अपने सच्चे रूप में दिखती। लेकिन, ऊपर कहे गए दोनों तथ्यों के जरिए नजरबंदी कर दी गयी है और फिर,पूरी फिल्म एक आदर्श और देवतुल्य पिता पर लिखा निबंध हो कर रह गयी है। भारत के नए पिताओं के लिए यह डूबते तिनके का सहारा बन कर आई है जिसके मार्फ़त वो अपने बच्चों पर धौंस दोगुनी कर सकें। जो पापा बोले वही सही। जो परिवार बोले वही सही। वरना, सोल्जर बोलकर बहस ख़त्म कर दी जायेगी और निर्णय लाद दिए जाएंगे।

15 दिसंबर 2016

बिना डाकघरों वाला देश

हम डरे हुए हैं. डरे हुए वे भी हैं. हमारा यह वक्त डरे हुओं का वक्त है. वे डरे हुए हैं कि अब भी हम बचे हुए हैं. हम, जो उनके झूठ को सच कहने से इनकार कर रहे हैं. वे जिसे नायक और नायक से महानायक कह रहे हैं. हम उसे अपराधी और हत्यारा लिख रहे हैं. उनकी बढ़ी हुई ताकतें हमारे साहस को कम न पर पा रहीं. वे हमारी यादों से गुजरात और गुजरात जैसी कई रात की कालिख़ मिटाना चाहते हैं और हम उस कालिख़ को अपने दवात की स्याही बनाना चाहते हैं.  
हम जो हमारी उम्र में राष्ट्रद्रोही होने की सोच में ऊब रहे हैं. हम जो जाने कितनी फाजिल की बहसों में हर रोज डूब रहे हैं. हम जिनकी डायरियों में कुछ और लिखा जाना था. कुछ और कहा जाना था. जहां पुरानी प्रेमिकाओं की यादें उतरनी थी. उन डायरियों में उनके फैलाए जा रहे झूठ से फैली परेशानियां उतर रही हैं. ऐसे ही वक्त की यह डायरी है. जिसे दोस्त मिथिलेश प्रियदर्शी ने लिखा है. जेएनयू वाली ‘एन्टीनेशनल’ डायरी. जे.एन.यू. के उन दिनों को बयान करती हुई जब अपने दोस्तों को जेएनयू का सच बताना ‘पाकिस्तान’ हो जाना था. जिसका एक छोटा हिस्सा यहां पढ़ सकते हैं. बाकी पूरा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. 
डायरी का एक हिस्सा
कैलेंडर की हर तारीख के पास बताने के लिए बहुत कुछ महत्वपूर्ण नहीं होता. पर जेएनयू के 9 फरवरी के हिस्से कुछ ऐसा आया था, जिसके बारे में सभी जानना चाहते थे.    
यह साबरमती ढाबे की घटना थी. ‘ढाबा संस्कृति’ जेएनयू की जान है. जेएनयू से अगर ढाबों को हटा दिया जाए तो जेएनयू उतना ही बचेगा जितना गीत हटा देने के बाद बिहार की शादियां. बहसों-मुबाहिसों के केंद्र ये ढाबे शाम होते ही जीवंत हो उठते हैं, जो देर रात तक गतिशील रहते हैं. बैठकें, पोस्टर-प्रदर्शनी, विरोध प्रदर्शन, नुक्कड़-नाटक, गीत-संगीत आदि कई सारे कार्यक्रम इन्हीं ढाबों पर होते हैं. खुले आसमान के नीचे अच्छी संख्या में चाय-पकौड़ियां टूंगते विद्यार्थी इन कार्यक्रमों में हमेशा मौजूद होते हैं.     
9 फरवरी को साबरमती ढाबे पर कश्मीर को लेकर एक कार्यक्रम था, ‘द कंट्री विदाउट अ पोस्ट ऑफिस’. यह शीर्षक आगा शाहिद अली के 1997 में आये कविता संग्रह से लिया गया था. 1990 में कश्मीर में करीब सात महीनों तक कोई चिट्ठी नहीं बांटी गयी थी. यह ठीक आज के उन हालातों की तरह था, जब मोबाईल और इंटरनेट की सुविधा घाटी में कभी भी बंद कर दी जाती है, व्हाट्सअप ग्रुप रजिस्टर करवाने के लिए थाने को बताना पड़ता है, मोबाईल से सामूहिक संदेशों का भेजा जाना रोक दिया जाता है और कश्मीर पूरी दुनिया से कटकर एक टापू में तब्दील हो जाता है. उस रोज़ उस कार्यक्रम में कश्मीर में मौजूदा नारकीय जीवन से मुक्ति के लिए गीत गाए जा रहे थे. घाटी के गायब हुए उन युवाओं को याद किया जा रहा था, जो अपने पीछे एक अंतहीन और बेहद दर्दीला इंतज़ार छोड़ अनुपस्थित हो गए हैं. उन आधी विधवाओं को याद किया जा रहा था, जिन्हें यह तक नहीं मालूम कि उनके पति ज़िंदा भी हैं या नहीं. सेना द्वारा कश्मीरियों पर किये जा रहे अत्याचारों, बलात्कार और छद्म मुठभेड़ों पर बात हो रही थी, जो इस कदर आम है कि यह बच्चों के खेल में शामिल हो गया है. साथ ही, अफ़जल की फांसी पर बात हो रही थी, जिसे इस देश के ‘सामूहिक अंतःकरण की संतुष्टि’ के लिए मार दिया गया. आफ्सपा पर बात हो रही थी, जिसके अमानवीय कानूनों ने कश्मीरियों का जीवन सीमित कर दिया है. इस कार्यक्रम में कई लोग आफ़्सपा, सेना की ज्यादतियों, बलात्कार के मामले, अफ़जल आदि के मसलों पर सहमति की वजह से इसमें शामिल हुए थे जो जेएनयू की जनवादी राजनीतिक परम्परा के अनुरूप था. इस मामले में जेनयू की एक 'वाल्तेयराना' परम्परा रही है कि तमाम असहमतियों के बावज़ूद किसी के अपनी बात रखने के अधिकार की रक्षा के लिए लोग खड़े होते हैं. खासकर, किसी भी कार्यक्रम में एबीवीपी की गुंडई से होने वाले व्यवधानों से बचाने की एक ज़िम्मेदारी के तहत भी दूसरे छात्र संगठन घेरा बनाकर उसमें शामिल होते हैं. इस कार्यक्रम में भी वाम संगठनों की भागीदारी की मुख्य वज़ह जेएनयू की यही 'वाल्तेयराना' परम्परा थी. पिछले साल 'मुज़फ्फरनगर बाकी है' डाक्यूमेंट्री का प्रदर्शन भी इसी वजह से हो पाया था. अन्यथा एबीवीपी की संघी मानसिकता जेएनयू में इस किस्म का एक कार्यक्रम न होने दे.
इधर गीत गाये जा रहे थे, गिटार बजाया जा रहा था, उधर एबीवीपी के सदस्य इस कार्यक्रम के ख़िलाफ़ ढाबे के बगल की सड़क पर बैठकर प्रदर्शन कर रहे थे. वे बेहद आक्रामक अंदाज़ में 'खून बहेगा सड़कों पर, जो अफ़जल की बात करेगा, वो अफ़जल की मौत मरेगा, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे’ जैसे नारे लगा रहे थे. पर इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि जेएनयू पर हमले के लिए तैयार बैठे लोगों को मौक़ा मिल गया.
अब तक ढाबे पर झुटपुटा सा अंधेरा उतर गया था. अचानक कार्यक्रम में चार-पांच लोगों का एक समूह नमूदार होता है. उनके चेहरे रूमाल से ढंके होते हैं. वो एक छोटा सा घेरा बनाते हैं और नारे लगाने लगते हैं. कश्मीर की आज़ादी के लिए नारे लगाता वह समूह अचानक भारत की बर्बादी के नारे लगाने लगता है. बस यहीं से सब कुछ बदल जाता है. वहां मौजूद लोग असहज हो उठते हैं. उन्हें रोका जाता है. सब एक दूसरे से उनकी बाबत पूछ रहे होते हैं. उनके किसी अन्य विभाग/सेंटर से होने का अनुमान लगा रहे होते हैं पर उनके बारे में ठीक-ठीक कोई नहीं जानता. बाद में स्पष्ट होता है, वो यहाँ किसी सेंटर के नहीं थे. तब सवाल आता है, वो कौन थे और कहां से आये थे और कहाँ गायब हो गए?
इस बीच कार्यक्रम एक जुलूस में तब्दील हो जाता है, जिसे गंगा ढाबा पर समाप्त होना होता है. देखादेखी एबीवीपी के लोग भी ‘मार देंगे, काट देंगे, गोलियों से आरती करेंगे’ जैसी धमकियों वाले नारे लगाते हुए सामानांतर जुलूस निकालते हैं. जुलूस के दौरान बार-बार टकराव की स्थिति आती है. जुलूस के समापन के साथ ही उस वक्त तो यह मामला ख़त्म हो जाता है. यही जेएनयू की संस्कृति भी है. यहाँ हर कोई अपनी बात रखने को स्वतन्त्र है. लोग धैर्य से सुनते हैं, अगर सहमत हुए तो तालियाँ बजाकर उत्साहवर्धन करते हैं, अन्यथा मुस्कुराकर चल देते हैं. और मामला खत्म हो जाता है. पर इस बार यह महज़ जेएनयू के भीतर की बात नहीं थी. दिलचस्पी लेने वाले लोग बाहर के थे. इस पूरे प्रकरण में जी न्यूज का एक रिपोर्टर वहां शुरू से ही मौजूद होता है, जो एबीवीपी के आमंत्रण पर आता है. दिलचस्प सवाल यह कि इन्हें कैसे पता होता है कि जेएनयू में कुछ बिल्कुल अलग घटने जा रहा है? दिल्ली के एक भाजपा नेता जेएनयू में हुए कार्यक्रम को लेकर तुरंत एक मुकदमा लिखवा देते हैं. और कार्रवाई के मामले में ‘सेलेक्टिव कैरेक्टर’ वाली पुलिस फ़ौरन से पेश्तर जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लेती है.

09 दिसंबर 2016

नोटबंदी: संदिग्ध फायदे, निश्चित नुकसान

आनंद तेलतुंबड़े बता रहे हैं कि किस तरह नोटबंदी के फैसले ने लोगों के लिए अभूतपूर्व परेशानियां खड़ी की हैं और यह भाजपा के लिए वाटरलू साबित होनेवाली है. अनुवाद: रेयाज़ उल हक

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 500 और 1000 रुपए के करेंसी नोटों को बंद करने के फैसले से होने वाली तबाही और मौतों की खबरें पूरे देश भर से आ रही हैं. एक ऐसे देश में जहां कुल लेनदेन का 97 फीसदी नकदी के ज़रिए किया जाता है, कुल करेंसी में से 86.4 फीसदी मूल्य के नोटों को अचानक बंद करने से अफरा-तफरी पैदा होना लाजिमी था. अभी तक 70 मौतों की खबरें आ चुकी हैं. पूरी की पूरी असंगठित अर्थव्यवस्था ठप पड़ी हुई है, जो भारत की कुल कार्यशक्ति के 94 फीसदी और सकल घरेलू उत्पाद का 46 फीसदी का हिस्सेदार है. पहले से बदहाली झेल रही ग्रामीण जनता इस बात से डरी हुई है कि उसके बचाए हुए पैसे रद्दी कागज में तब्दील हो रहे हैं. उनमें से कइयों ने तो कभी बैंक का मुंह भी नहीं देखा है. बैंकों के बाहर अपनी खून-पसीने की कमाई को पकड़े हुए लोगों की लंबी कतारें पूरे देश भर में देखी जा सकती हैं. मध्य वर्ग और मोदी भक्तों की शुरुआती खुशी हकीकत की कठोर जमीन पर चकनाचूर हो गई. लेकिन अब तक की सबसे कठोर टिप्पणी मनमोहन सिंह की ओर से आई है, जिनके पास रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर, पूर्व वित्त मंत्री और दो बार पूर्व प्रधानमंत्री रहने के नाते मोदी के इस तुगलकी फरमान का जायजा लेने के लिहाज से एक ऐसी साख है जो और किसी के पास नहीं है. उन्होंने नोटबंदी के इस कदम को “भारी कुप्रबंधन” कहा और इसे “व्यवस्थित लूट और कानूनी डाके” का मामला बताते हुए राज्य सभा उन्होंने कहा कि यह देश के जीडीपी को दो फीसदी नीचे ले जाएगा. ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं हैं. अर्थशास्त्रियों, जानकारों और चिंतकों की एक बड़ी संख्या ने भारत की वृद्धि में गिरावट की आशंका जताई है. उनमें से कुछ ने 31 मार्च 2017 को खत्म हो रही छमाही के लिए इसमें 0.5 फीसदी गिरावट आने का अनुमान लगाया है. लेकिन आत्ममुग्ध मोदी पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ेगा, उल्टे वह उन सभी लोगों को राष्ट्र-विरोधी बता देंगे जो इस तबाही लाने वाले कदम पर सवाल उठा रहे हैं. यह सब देख कर सैमुअल जॉनसन की वह मशहूर बात याद आती है कि देशभक्ति लुच्चे-लफंगों की आखिरी पनाहगाह होती है.

इस अजीबोगरीब दुस्साहस के असली मकसद के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं है. यह उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और मणिपुर में आनेवाले चुनावों के लिए उनकी छवि को मजबूत करने के लिए चली गई एक तिकड़म थी. चुनाव के पहले किए गए सभी वादे अधूरे हैं, तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक समेत उनके सभी कदम बुरी तरह नाकाम रहे हैं, जनता खाली जुमलेबाजियों और बड़बोलेपन से ऊब गई है. ऐसे में अब कुछ नाटकीय हरकत जरूरी थी. विपक्षी दल चुनावों के दौरान जनता को मोदी के इस चुनावी वादे की याद जरूर दिलाते कि उन्होंने 100 दिनों के भीतर स्विस बैंकों में जमा सारा गैरकानूनी धन लाकर हरेक के खाते में 15 लाख रुपए डालने की बात की थी. यह कार्रवाई यकीनन इस दलील की हवा निकालने के लिए और यह दिखाने के लिए ही की गई कि सरकार अर्थव्यवस्था को भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए साहसिक कदम उठाने की ठान चुकी है. अफसोस कि इसने पलट कर उन्हीं को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया. इसने लोगों के लिए जैसी अभूतपूर्व परेशानियां खड़ी की हैं, उससे यह बात पक्की है कि इससे भाजपा को आने वाले चुनावों में भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. भले ही वह विपक्षी दलों की जमा नकदी को रद्दी बना देने और इस तरह उन्हें कमजोर करने में कामयाब रही है.

जाली अर्थव्यवस्था

मोदी ने गैरकानूनी धन और भ्रष्टाचार पर चोट करने, नकली नोटों के नाकाम करने और आतंक पर नकेल कसने का दावा किया है. अब तक अनेक अर्थशास्त्रियों ने इन दावों की बेईमानी को बखूबी उजागर किया है. जैसा कि छापेमारी के आंकड़े दिखाते हैं, आय से अधिक संपत्तियों में नकदी का हिस्सा महज 5 फीसदी है. इनमें जेवर भी शामिल हैं जिनका हिसाब नकदी के रूप में लगाया जाता है. अगर नोटबंदी का कोई असर पड़ा भी तो इससे गैरकानूनी धन का बहुत छोटा सा हिस्से प्रभावित होगा. यह थोड़ी सी नकदी अमीरों के हाथ में होती है, जो इसका इस्तेमाल गैर कानूनी धन को पैदा करने और चलाने वाली विशालकाय मशीन के कल-पुर्जों में चिकनाई के रूप में करते हैं. गैरकानूनी धन असल से कम या ज्यादा बिलों वाली विदेशी गतिविधियों (बिजनेसमेन), किराए, निवेश और बॉन्ड आदि गतिविधियों (राजनेता, पुलिस, नौकरशाह) और आमदनी छुपाने के अनेक तरीकों (रियल एस्टेट कारोबारी, निजी अस्पताल, शिक्षा के सेठ) के जरिए बनाया जाता है. इस धन को कानूनी बनाने के अनेक उपाय हैं, जिनका इस्तेमाल करते हुए छुटभैयों (कागजों पर चलने वाली अनेक खैराती संस्थाएं यही काम करती हैं) से लेकर बड़ी मछलियां तक करों की छूट वाले देशों के जरिए भारत में सीधे विदेशी निवेश के रूप में वापस ले आती हैं. गैर कानूनी धन पैदा करने और चलाने के इन उपायों पर नोटबंदी का कोई असर नहीं पड़ेगा.

नोटबंदी से नकली नोटों की समस्या पर काबू पाया जा सकता है, अगर यह उतनी बड़ी समस्या हो. लेकिन कोलकाता स्थित भारतीय सांख्यिकी संस्थान (आईएसआई) की रिपोर्ट के मुताबिक जितनी करेंसी चलन में है, उसका महज 0.002 फीसदी मूल्य के नोट यानी 400 करोड़ रुपए ही नकली नोटों में हैं, जो इतने ज्यादा नहीं है कि उनसे अर्थव्यवस्था की सेहत पर कोई असर पड़े. आईएसआई रिपोर्ट में कभी भी नकली नोटों से निजात पाने के लिए नोटबंदी का सुझाव नहीं दिया. अगर सरकार को नकली नोटों की चिंता थी, तो नोटबंदी के बाद आने वाले नए नोटों में सुरक्षा के बेहतर उपाय होते. लेकिन ऐसा भी नहीं किया गया. रिजर्व बैंक ने खुद कबूल किया है कि 2000 के नए नोटों को बिना किसी अतिरिक्त सुरक्षा विशेषता के ही जारी किया जा रहा है. आतंकवादियों के पैसों की दलील पूरी तरह खोखली है. अगर आतंकवादियों के पास नकदी हासिल करने का कोई ज़रिया है, तो वे नए नोटों से निबटने के रास्ते भी उनके पास होंगे. इस तरह नोटबंदी के पीछे मोदी के आर्थिक दावे पूरी तरह धोखेबाजी हैं. इसके अलावा नए नोटों को छापने पर अंदाजन 15,000-18,000 करोड़ रुपए का खर्च अलग से हुआ और फिर हंगामे से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान भी हुआ और यह स्थिति तब तक बनी रहेगी जब हालात स्थिर नहीं होते.

‘स्वच्छ भारत’ 

शगूफे छोड़ते हुए मोदी ने नोटबंदी के फैसले को अपने स्वच्छ भारत अभियान से जोड़ दिया, जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है कि इस अभियान का भी कोई खास नतीजा नहीं निकल पाया है. अगर उन्होंने इस अभियान पर खर्च होने वाली कुल रकम का आधा भी भारत को रहने के लायक बनाने वाले दलितों को दे दिया होता तो बहुत कुछ हासिल किया जा सकता था. लेकिन जहां दलितों द्वारा मैला ढोने की प्रथा के खात्मे की मांग के लिए संघर्ष जारी है, मोदी अपने स्वच्छ भारत का ढोल पीट रहे हैं. वे भारत को भ्रष्टाचार और गंदे धन से मुक्त कराने का दावा करते हैं. उनके सत्ता में आने के लिए वोट मिलने की वजहों में से एक संप्रग दो सरकार के दौरान घोटालों की लहर भी थी, जिसका कारगर तरीके से इस्तेमाल करते हुए उन्होंने देश को पारदर्शी बनाने और ‘बहुत कम सरकारी दखल के साथ अधिकतम प्रशासन’ का वादा किया था. वे अपना आधा कार्यकाल बिता चुके हैं और उनके शासन में ऊंचे किस्म के भ्रष्टाचार की फसल भरपूर लहलहाती हुई दिख रही है. भ्रष्टाचार के मुहाने यानी राजनीतिक दल अभी भी अपारदर्शी हैं और सूचना का अधिकार के दायरे से बाहर हैं. ‘पनामा लिस्ट’ में दिए गए 648 गद्दारों के नाम अभी भी जारी नहीं किए गए हैं. उनकी सरकार ने बैंकों द्वारा दिए गए 1.14 लाख करोड़ रुपए के कॉरपोरेट कर्जों को नन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कह कर माफ कर दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए 11 लाख करोड़ है, लेकिन कॉरपोरेट लुटेरों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं की जा रही है. कॉरपोरेट अरबपतियों का सीधा कर बकाया 5 लाख करोड़ से ऊपर चला गया है, लेकिन मोदी ने कभी भी इसके खिलाफ ज़ुबान तक नहीं खोली. पिछले दशक के दौरान उनको करों से छूट 40 लाख करोड़ से ऊपर चली गई, जिसकी सालाना दर मोदी के कार्यकाल के दौरान 6 लाख करोड़ को पार कर चुकी है, जो संप्रग सरकार के दौरान 5 लाख करोड़ थी. मोदी अपने आप में कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के भारी समर्थक रहे हैं, जो गैरकानूनी धन का असली जन्मदाता है.

यहां तक कि यह भी संदेह किया जा रहा है कि नोटबंदी में भी भारी भ्रष्टाचार हुआ है. इस फैसले को लेकर जो नाटकीय गोपनीयता बरती गई, वह असल में लोगों को दिखाने के लिए थी. इस फैसले के बारे में भाजपा के अंदरूनी दायरे को पहले से ही पता था, जिसमें राजनेता, नौकरशाह और बिजनेसमेन शामिल हैं. इसको 30 सितंबर को खत्म होने वाली तिमाही के दौरान बैंकों में पैसे जमा करने में आने वाली उछाल में साफ-साफ देखा जा सकता है. खबरों के मुताबिक भाजपा की पश्चिम बंगाल ईकाई ने घोषणा से कुछ घंटों पहले अपने बैंक खाते में कुल 3 करोड़ रुपए जमा किए. एक भाजपा नेता ने नोटबंदी के काफी पहले ही 2000 रु. के नोटों की गड्डियों की तस्वीरें पोस्ट कर दी थी और एक डिजिटल पेमेंट कंपनी ने 8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे होने वाली घोषणा की अगली सुबह एक अखबार में नोटबंदी की तारीफ करते हुए पूरे पन्ने का विज्ञापन प्रकाशिक कराया. असल में, नोटबंदी ने बंद किए गए नोटों को कमीशन पर बदलने का एक नया धंधा ही शुरू कर दिया है. इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं है कि ट्रांस्पेरेंसी इंटरनेशनल द्वारा भारत की रैंकिंग में मोदी के राज में कोई बदलाव नहीं आया है जो 168 देशों में 76वें स्थान पर बना हुआ है.

आत्ममुग्ध बेवकूफी

सिर्फ एक पक्का आत्ममुग्ध ही ऐसी बेवकूफी कर सकता है. इससे भारत के संस्थागत चरित्र का भी पता लगता है, जो सत्ता के आगे झुकने को तैयार रहता है. मोदी को छोड़ दीजिए, यह वित मंत्रालय के दिग्गजों और खास कर आरबीआई के गवर्नर उर्जित पटेल की हैसियत को भी उजागर करता है, जो न सिर्फ अपने पद की प्रतिष्ठा को बनाए रखने में नाकाम रहे हैं, बल्कि जिन्होंने यह बदनामी भी हासिल की है कि वे पेशेवर रूप से अक्षमता हैं. ऐसा मुमकिन नहीं होगा कि आरबीआई के मुद्रा विशेषज्ञ इस फैसले के दोषपूर्ण हिसाब-किताब को नहीं देख पाए होंगे, लेकिन जाहिर है कि वे साहेब की मर्जी के आगे झुक गए. नोटबंदी भ्रष्टाचार का इलाज नहीं है, लेकिन इतिहास में कई शासक इसे आजमा चुके हैं. हालांकि उन्होंने जनता के पैसे के साथ इसे कभी नहीं आजमाया. आखिरी बार मोरारजी देसाई ने 1978 में 1000 रुपए के नोट को बंद किया था, जो आम जनता के बीच आम तौर पर चलन में नहीं था. अपनी क्रयशक्ति में यह आज के 15,000 रुपयों के बराबर था. यह तब प्रचलित धन का महज 0.6 फीसदी था, जबकि आज की नोटबंदी ने कुल प्रचलित धन के 86.4 फीसदी को प्रभावित किया है.

अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मोदी हमेशा ही अपनी जन धन योजना की उपलब्धियों की शेखी बघारते रहे हैं, जो संप्रग सरकार की वित्तीय समावेश नीतियों का ही महज एक विस्तार है. उन्होंने सिर्फ गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स के लिए बैंकों को खाते खोलने पर मजबूर किया. जुलाई 2015 में किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 33 फीसदी ग्राहकों ने बताया कि जन धन योजना का खाता उनका पहला खाता नहीं था और विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक 72 फीसदी खातों में एक भी पैसा नहीं था. विश्व बैंक-गैलप ग्लोबल फिनडेक्स सर्वे द्वारा किए गए एक और सर्वेक्षण में दिखाया गया कि कुल बैंक खातों का करीब 43 फीसदी निष्क्रिय खाते हैं. यहां तक कि रिजर्व बैंक भी कहता है कि सिर्फ 53 फीसदी भारतीयों के पास बैंक खाते हैं और उनका सचमुच उपयोग करने वालों की संख्या इससे भी कम है. ज्यादातर बैंक शाखाएं पहली और दूसरी श्रेणी के शहरों में स्थित हैं और व्यापक ग्रामीण इलाके में सेवाएं बहुत कम हैं. ऐसे हालात में सिर्फ एक आत्ममुग्ध इंसान ही होगा जो भारत में बिना नकदी वाली एक कैशलेस अर्थव्यवस्था के सपने पर फिदा होगा. यह सोचना भारी बेवकूफी होगी कि ऐसे फैसलों से भाजपा लोगों का प्यार पा सकेगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि दलितों और आदिवासियों जैसे निचले तबकों के लोगों को इससे सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है और वे भाजपा को इसके लिए कभी माफ नहीं करेंगे. भाजपा ने अपने हनुमानों (अपने दलित नेताओं) के जरिए यह बात फैलाने की कोशिश की है कि नोटबंदी का फैसला असल में बाबासाहेब आंबेडकर की सलाह के मुताबिक लिया गया था. यह एक सफेद झूठ है. लेकिन अगर आंबेडकर ने किसी संदर्भ में ऐसी बात कही भी थी, तो क्या इससे जनता की वास्तविक मुश्किलें खत्म हो सकती हैं या क्या इससे हकीकत बदल जाएगी? बल्कि बेहतर होता कि भाजपा ने आंबेडकर की इस अहम सलाह पर गौर किया होता कि राजनीति में अपने कद से बड़े बना दिए गए नेता लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा होते हैं.