पंकज मिश्रा
पंकज मिश्रा अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित लेखक हैं और राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर टिप्पणी लिखते हैं। उनकी यह टिप्पणी 2 फरवरी, 2016 को दि गार्डियन में प्रकाशित हुई है। हम इसे वहीं से साभार ले रहे हैं। सारी तस्वीरें भी वहीं से साभार हैं। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव का है।
अरुंधति रॉय के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। ज़ाहिर है, मोदी की सरकार ने कला और विचार के खिलाफ़ इस अपराध के मौका-ए-वारदात पर अपनी उंगलियों के कोई निशान नहीं छोड़े हैं।
मिस्र और तुर्की की सरकारें इस समय लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों पर चौतरफा हमले की अगुवाई में पूरी ढिठाई से जुटी हुई हैं। तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तयिप एर्दोगन ने पिछले महीने तुर्की के अकादमिकों द्वारा अपनी आलोचना को खारिज करते हुए उन्हें विदेशी ताकतों की देशद्रोही कठपुतलियों की संज्ञा दे डाली थी, जिसके बाद से कई को निलंबित और बरखास्त किया जा चुका है। तुर्की और मिस्र दोनों ने ही अपने यहां पत्रकारों को कैद किया है जिसका विरोध अंतरराष्ट्रीय स्तर के प्रदर्शनों में देखने को मिल चुका है। भारत, जिसे औपचारिक तौर पर मुक्त लोकतांत्रिक संस्थानों के देश के रूप में अब तक जाना जाता रहा है, वहां बौद्धिक और रचनात्मक आज़ादी का दमन हालांकि कहीं ज्यादा कुटिल तरीके अख्तियार करता जा रहा है।
उच्च जाति के हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा नियंत्रित भारतीय विश्वविद्यालय बीते कुछ महीनों से अपने पाठ्यक्रम और परिसरों से ''राष्ट्र-विरोधियों'' को साफ़ करने में जुटे हुए हैं। पिछले महीने एक चौंकाने वाले घटनाक्रम में हैदराबाद के एक शोध छात्र रोहित वेमुला ने अपनी हत्या कर ली। भारत की एक परंपरागत रूप से वंचित जाति से आने वाले इस गरीब शोध छात्र पर ''राष्ट्र-विरोधी विचारों'' का आरोप मढ़कर पहले इसे निलंबित किया गया और बाद में उसका वजीफा बंद कर के छात्रावास से बाहर निकाल दिया गया। दिल्ली में बैठी मोदी सरकार द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन को भेजे एक पत्र में इस तथ्य का उद्घाटन हुआ कि प्रशासन पर परिसर में मौजूद ''अतिवादी और राष्ट्र-विरोधी राजनीति'' पर कार्रवाई करने का भारी दबाव था। वेमुला का हृदयविदारक सुसाइड नोट एक प्रतिभाशाली लेखक और विचारक के क्षोभ और अलगाव की गवाही देता है।
उच्च जाति के राष्ट्रवादियों का विस्तारित कुनबा अब सार्वजनिक दायरे में अपना प्रभुत्व स्थापित करने को अपना स्पष्ट लक्ष्य बना चुका है, लेकिन अपने आभासी दुश्मनों को कुचलने के लिए वे इस विशालकाय राज्य की ताकत को ही अकेले अपना औज़ार नहीं बना रहे, जैसा कि स्थानीय और विदेशी आलोचक पहली नज़र में समझ बैठते हैं। यह काम व्यक्तिगत स्तर पर पुलिस के पास दर्ज शिकायतों और निजी कानूनी याचिकाओं के रास्ते भी अंजाम दिया जा रहा है- भारत में लेखकों और कलाकारों के खिलाफ तमाम आपराधिक शिकायतें दर्ज की जा चुकी हैं। यह सब मिलकर एक ऐसा माहौल कायम कर देते हैं जहां दुस्साहसी गिरोह अखबारों के दफ्तरों से लेकर कला दीर्घाओं और सिनेमाघरों तक पर हमला करने की खुली छूट हासिल कर लेते हैं।
अपने संदेश को प्रसारित करने के लिए वे तमाम तरीकों से माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं और इस तरह से वे माध्यमों को संदेश में रूपांतरित कर डालते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के करीबी बड़े कारोबारी आज भारतीय टेलीविज़न पर बर्लुस्कोनी की शैली में तकरीबन कब्ज़ा जमा चुके हैं। हिंदू राष्ट्रवादियों ने अब नए मीडिया को अपने हक़ में इस्तेमाल करने और जनधारणा को प्रभावित करने की तरकीब भी सीख ली है: एर्दोगन के शब्दों में कहें, तो वे अपने लक्षित श्रोताओं को गलत सूचनाओं के सागर में डुबोने के लिए सोशल मीडिया पर एक ''रोबोट लॉबी'' को तैनात करते हैं, तब तक, जब तक कि दो और दो मिलकर पांच न दिखने लगे।
कारोबार, शिक्षण तंत्र और मीडिया के भीतर ऐसे संस्थानों और व्यक्तियों की पहचान करना बिलकुल संभव है जो सत्ताधारी दल की पहरेदारी करने में जुटे हुए हैं और उसी के आदेश पर कुत्ते की तरह हमला करने को दौड़ पड़ते हैं। चापलूस संपादकों से लेकर पीछा करने वाले हुड़दंगी गिरोहों तक फैला राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सत्ता का यह जकड़तंत्र साथ मिलकर प्रवृत्तियों का निर्माण करता है और धारणाओं को नियंत्रित करता है। इनकी सामूहिक ताकत इतनी ज्यादा है कि रोहित वेमुला के मुकाबले किसी कमज़ोर व्यक्ति के ऊपर तो वे तमाम रास्तों से चौतरफा दबाव बना सकते हैं।
पिछले हफ्ते जब उपन्यासकार अरुंधति रॉय को ''न्यायालय की अवमानना'' के मामले में अचानक आपराधिक सुनवाई झेलनी पड़ी जिसके चलते उन्हें जेल भी हो सकती है, उसी दौरान एक संदेश प्रसारित किया गया कि यह लेखिका रोहित वेमुला की हत्या में लिप्त उन ईसाई मिशनरियों के षडयंत्र का हिस्सा है जो भारत को तोड़ना चाहते हैं। इस घटिया और मनगढ़ंत बकवास को इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता था। इसके बाद भारत के मुख्यधारा के मीडिया में उदासीनता के साथ ही सही जो खबर चली, वह किसी को भी यह मानने को बाध्य कर देती कि रॉय की जवाबदेही तो बनती ही है।
वास्तविकता यह है कि जिसे रॉय की अदालती ''अवमानना'' बताया जा रहा है, वह पिछले साल मई में प्रकाशित उनका एक लेख है जिसमें उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के लेक्चरार साईबाबा के उत्पीड़न की ओर ध्यान दिलाया था, जो गंभीर रूप से विकलांग हैं और जिन्हें पुलिस ने अगवा कर के ''राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों'' के आरोप में जेल में कैद किया हुआ है। लेख में रॉय की दलील थी कि दर्जनों हत्याओं में दोषी मोदी के सहयोगियों को यदि ज़मानत मिल सकती है तो वीलचेयर पर चलने वाले उस शख्स को भी मिल सकती है जिसकी सेहत वैसे भी लगातार गिरती जा रही है।
सात महीने बाद नागपुर के एक जज ने ज़मानत को खारिज करते हुए रॉय को ''अश्लील'', ''असभ्य'', ''अशिष्ट'' और ''बेअदब'' व्यक्ति करार देते हुए कहा कि यह लेख साईबाबा को ज़मानत पर बाहर निकालने के एक जघन्य ''गेमप्लान'' का हिस्सा है जिसे अदालत अपनी अवमानना के तौर पर लेती है (जबकि सचाई यह है कि रॉय का लेख जब प्रकाशित हुआ था उस वक्त साईबाबा की ज़मानत की अर्जी लंबित नहीं थी, न ही किसी लंबित कानूनी प्रक्रिया की मांग करते हुए रॉय ने अदालत के किसी फैसले या जज की कोई आलोचना ही की थी)। जज ने आरोप लगाया कि रॉय ''भारत जैसे अतिसहिष्णु देश'' के खिलाफ प्रचार करने के लिए ''प्रतिष्ठित पुरस्कारों'' का इस्तेमाल कर रही हैं जो ''उन्हें मिले बताए जाते हैं''। रॉय इधर बीच अपने दूसरे उपन्यास पर काम कर रही हैं। इस अदालती फैसले से वे अचानक उन लोगों की दुश्मन बना दी गई हैं ''जो देश में गैरकानूनी और आतंकी गतिविधियों को रोकने की लड़ाई लड़ रहे हैं''।
आपको भी ऐसा विश्वास करने में कोई दिक्कत नहीं होती यदि आपने हाल ही में रॉय पर बनाई गई एक लघु फिल्म भारत के सवाधिक लोकप्रिय टीवी चैनलों में से एक पर देख ली होती, जिसे ज़ी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइज़ेज़ चलाता है जो भारत की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में एक है और मोदी का सबसे जोशीला चीयरलीडर भी है। नवंबर में प्रसारित इस फिल्म का दावा है कि एक राष्ट्र-विरोधी तत्व का 'सच्चा'' और पूरी तरह कलंकित चेहरा अपने दर्शकों को दिखाना ही उसका उद्देश्य है।
इस तरह कानून की अदालत समेत जनमानस में भी रॉय के संभावित दुश्मन तैयार कर दिए गए हैं और उन्हें सबसे निपटना है; इन सबकी उलाहनाएं और झूठे आरोप न केवल रॉय की अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं, बल्कि दुनियावी कोलाहल और बाधाओं से उस तुलनात्मक राहत को भी नष्ट कर रहे हैं जिसके आसरे एक लेखक अपने कमरे में महफ़ूज़ होकर लिखता-पढ़ता है। ज़ाहिर है, मोदी की सरकार ने कला और विचार के खिलाफ़ इस अपराध के मौका-ए-वारदात पर अपनी उंगलियों के कोई निशान नहीं छोड़े हैं। इसी तरह भारत जैसे एक औपचारिक लोकतंत्र में कलाकारों और बुद्धिजीवियों का दमन कई जटिल स्वरूपों में हमारे सामने आता है।
इसमें न सिर्फ एक बर्बर सत्ता की ओर से बंदिशें तारी की जाती हैं, बल्कि उसके शिकार कमज़ोर व्यक्तियों की ओर से खुद पर ही बंदिशें लगा ली जाती हैं। बात इससे भी ज्यादा व्यापक इसलिए है क्योंकि यह सब कुछ दरअसल सार्वजनिक व निजी नैतिकता के धीरे-धीरे होते जा रहे पतन पर टिका हुआ है, जहां घेर कर आखेट करने वाली भीड़ की सनक बढ़ती जाती है तो नागरिक समाज का लहजा भी मोटे तौर पर तल्ख़ होता जाता है। इस स्थिति के बनने में पंचों से लेकर मसखरों तक की बराबर हिस्सेदारी होती है।
जिस दिन नागपुर में रॉय आपराधिक सुनवाई का सामना कर रही थीं, संयोग से उसी दिन जयपुर लिटररी फेस्टिवल में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर एक परिचर्चा रखी गई थी, जिसका प्रायोजक ज़ी है। ''क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी निरपेक्ष होनी चाहिए''? इस विषय के खिलाफ़ सबसे उज्जड्ड तर्क रखने वाले और कोई नहीं बल्कि अनुपम खेर थे, जो बॉलीवुड में अपने नाटकीय मसखरेपन के लिए जाने जाते हैं। पिछले नवंबर में खेर ने उन भारतीय लेखकों के खिलाफ एक प्रदर्शन आयोजित किया था जिन्होंने तीन लेखकों की हत्या और मुस्लिमों व दलितों के क़त्ल के खिलाफ विरोध में अपने-अपने साहित्यिक पुरस्कार लौटा दिए थे। ''लेखकों को जूते मारो'' जैसे नारे लगाने के बाद उन्होंने दिल्ली में प्रधानमंत्री के सरकारी आवास पर मोदी के साथ तस्वीरें खिंचवाई थीं।
परदे पर एक विक्षुब्ध मसखरे से राजनीति में एक खतरनाक भांड़ में कायांतरित हो चुके अनुपम खेर की एक साहित्यिक समारोह में मौजूदगी तब भी उतनी ही बुरी होती अगर उन्होंने वहां ''मोदी, मोदी'' चिल्ला रहे श्रोताओं के बीच अपनी मुट्ठी नहीं लहरायी होती या फिर उन्होंने या दूसरे वक्ताओं ने अरुंधति रॉय का जि़क्र ही कर दिया होता। लेकिन तब, कम से कम एक जीवंत मेधा और वैयक्तिक चेतना की बढ़ती जा रही उपेक्षा- और उसके बढते अनुकूलन- के बारे में कुछ बात आ जाती। आदम मीत्सकेविच से लेकर रबींद्रनाथ टैगोर तक तमाम लेखकों ने कभी राष्ट्रीय चेतना को अपने लेखन से जीवंत किया था। आज हिंदू राष्ट्रवादी राष्ट्रीय चेतना के समक्ष इस बात का प्रदर्शन कर रहे हैं कि एक लेखक की हत्या कितने तरीकों से की जा सकती है।
साभार: जनपथ
साभार: जनपथ
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