हैदराबाद में एक शोध
छात्र की आत्महत्या ने शैक्षणिक संस्थानों में दलितों के साथ भेदभाव और उच्च
शिक्षा की बदहाली को बेपरदा किया है. एक आदमी का मोल इतना भर रह गया है कि वह
अभी क्या है और उसका तुरत-फुरत क्या इस्तेमाल किया जा सकता है. उसे एक वोट, एक संख्या, एक सामान के रूप में देखा जाता है. किसी इंसान को कभी एक दिमाग की तरह तवज्जो
नहीं दी गई. एक ऐसी खूबसूरत शय जिसे सितारों ने अपनी धूल से पैदा किया. हर जगह यही
हो रहा है, चाहे पढ़ाई हो, चाहे सड़क, राजनीति और यहां तक कि जीने
और मरने में भी.” अपने 27वें जन्मदिन से ठीक 13 दिन पहले 17 जनवरी को हैदराबाद विश्वविद्यालय के न्यू रिसर्च स्कॉलर्स हॉस्टल में आंबेडकर
स्टुडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) के नीले बैनर का फंदा गले में डालकर और पंखे से लटक जब
शोध छात्र रोहित वेमुला ने अपनी जान दी, तो जाते-जाते वह पांच पन्ने
के अपने सुसाइड नोट में बहुत कुछ कह गया. रोहित के आखिरी खत में बातें तो बहुत-सी
हैं, लेकिन इसका मर्म कैंपस में दलित छात्रों के साथ हो रहे अन्याय में ही छिपा है.
उसे पिछले सात महीने से जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) के तहत बकाया पौने दो लाख
रु. का वजीफा भी नहीं मिला था जो वह अपने परिवार को दिए जाने की इच्छा जाहिर कर
गया है. इसी पैसे से वह दिहाड़ी मजदूरी करने वाली अपनी मां और छोटे भाई की मदद किया
करता था.
इस मौत ने देश को
हिलाकर रख दिया. हैदराबाद विश्वविद्यालय से लेकर दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्री
स्मृति ईरानी के घर और दफ्तर तक जबरदस्त प्रदर्शन हुए. रोहित समेत पांच दलित
छात्रों को 21 दिसंबर,
2015 को हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रावास से निष्कासित कर
दिया गया था, जिसके बाद से वे लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. मामले की जड़ में 3 अगस्त को एएसए और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के छात्रों के बीच
हुई एक झड़प है. यह झड़प मुंबई धमाकों के गुनहगार याकूब मेनन को जुलाई में हुई फांसी
को लेकर लिखी गई एक पोस्ट और मुजफ्फरनगर बाकी है नाम की डॉक्यूमेंट्री से जुड़ी थी.
एएसए फांसी के विरोध में था और एबीवीपी की ओर से उक्त डॉक्यूमेंट्री के विरोध के
खिलाफ भी था. एबीवीपी की ओर से छात्र नेता एन. सुशील कुमार ने फेसबुक पर एक कमेंट
किया, जिसमें उसने एएसए के कार्यकर्ताओं को गुंडा करार दिया. हालांकि विरोध के बाद
सुशील ने इसके लिए माफी मांगी लेकिन फिर उसने रोहित और अन्य चार पर मारपीट करने का
आरोप लगा दिया. इसके बाद 17 अगस्त को केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय
ने ईरानी को एक पत्र लिखा, जिसमें घटना का विवरण देते हुए एएसए को “राष्ट्रविरोधी” करार दिया गया. यूनिवर्सिटी
के प्रॉक्टोरियल बोर्ड की जांच के बाद 9 सितंबर को हैदराबाद
विश्वविद्यालय ने रोहित समेत अन्य छात्रों को एक सेमेस्टर के लिए निलंबित कर दिया.
दो दिन बाद कार्यकारी कुलपति आर.पी. शर्मा ने उनके निलंबन को सिर्फ छात्रावास तक
सीमित कर दिया और सार्वजनिक आयोजनों में उनकी हिस्सेदारी पर बंदिश लगा दी.
अहम बात यह है कि ठीक
दस दिन बाद पी. अप्पा राव को विश्वविद्यालय का नया कुलपति नियुक्त किया गया. इस
दौरान सुशील कुमार की मां ने हाइकोर्ट में अर्जी लगाई और कोर्ट ने यूनिवर्सिटी से
पूछा कि सुशील की पिटाई करने वालों पर क्या कार्रवाई की गई है? दूसरी तरफ,
शर्मा के फैसले को चुनौती देते हुए एएसए ने हाइकोर्ट में एक याचिका दायर की.
इसके तीन दिन बाद 21 दिसंबर को अप्पा राव ने रोहित और अन्य को
प्रशासनिक भवन में घुसने से प्रतिबंधित कर दिया, परिसर में अन्य छात्रों के साथ घुलने-मिलने पर पाबंदी लगा दी और छात्र चुनाव
में हिस्सा लेने से रोक दिया. इसके अलावा, उन्हें छात्रावास से भी निकाल दिया गया.
पिछले साल सितंबर और
नवंबर के बीच मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हैदराबाद विश्वविद्यालय को तीन पत्र
लिखकर पूछा था कि बंडारू दत्तात्रेय की शिकायत पर क्या कार्रवाई की गई है? वहीं निष्कासन को लेकर आक्रोशित छात्रों ने 4 जनवरी को अपना प्रदर्शन उग्र करते हुए परिसर के खुले क्षेत्र में एक तंबू गाड़
दिया और प्रशासन पर फैसला पलटने का दबाव बनाने के लिए छात्रों की एक संयुक्त
संघर्ष समिति बना ली. जब विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से कोई जवाब नहीं आया, तो छात्रों ने 17 जनवरी को अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी. इस
दौरान रोहित लापता रहा.
रोहित की आत्महत्या
के बाद गुस्साए छात्रों ने पुलिस को उसका पार्थिव शरीर नहीं ले जाने दिया.
उन्होंने मांग की कि कुलपति, दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी पर अनुसूचित जाति और
जनजाति उत्पीडऩ निरोधक कानून के तहत मुकदमा चलाकर, उन्हें गिरफ्तार किया जाए. अप्पा राव कहते हैं, “एबीवीपी के एक छात्र नेता पर हमले के मामले में कार्यकारी परिषद की एक उपसमिति
की सिफारिश और प्रॉक्टोरियल समिति की जांच के बाद इन लड़कों को निलंबित किया गया
था.” मानव संसाधन विकास मंत्री ईरानी
ने 20 जनवरी को मीडिया को बताया कि बार-बार भेजा गया पत्र सांसदों की ओर से की गई
शिकायत पर की जाने वाली मानक प्रक्रिया का हिस्सा है, हालांकि मामला कहीं ज्यादा जटिल है. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष
पी.एल. पुनिया के मुताबिक, “श्रम मंत्री ने एचआरडी मंत्री को जो पत्र लिखा, उसमें पूरा सच नहीं है. दूसरी जगहों से भी दबाव था, जो कि पहली जांच के बाद लिए गए यू-टर्न से साफ होता है, जिसमें छात्रों को निर्दोष करार दिया गया था.” हैदराबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष
जुहैल केपी कहते हैं, “रोहित की मौत परिसर में जातिगत
भेदभाव की बढ़ती खाई को रेखांकित करती है.”
असली वजह
वैसे, रोहित की मौत इस तरह की इकलौती मौत नहीं है. अकादमिक जगत के लोग इस तरह की
घटनाओं के लिए प्रशासन की संवेदनहीनता और दलित छात्रों को आर्थिक मदद पहुंचाने की
कारगर व्यवस्था न होने की तरफ इशारा करते हैं.
ऐसी वजहों से कई
दलित छात्रों को पढ़ाई बीच में ही छोडऩी पड़ती है. नाम न छापने की शर्त पर एक
शिक्षाविद् कहते हैं, “1974 में हैदराबाद विश्वविद्यालय की स्थापना से लेकर आज
तक यहां का प्रबंधन किसी वंचित तबके के शख्स के हाथ में नहीं आया.” ओपी जिंदल स्कूल ऑफ गवर्नमेंट ऐंड पब्लिक पॉलिसी में प्रोफेसर और
सामाजिक अध्येता शिव विश्वनाथन कहते हैं, “रोहित की खुदकुशी विश्वविद्यालय की स्वायत्तता के झूठ का पर्दाफाश करती है. यह
दिखाती है कि छात्र कैसे एक-दूसरे के परस्पर सहारे से जीते हैं. वह एक अद्भुत
शक्चस था जो कार्ल सैगान की तरह लिखने और सितारों के सफर का सपना देखता था.”
इससे पहले भी
हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्रों की मौत हुई है लेकिन उन पर किसी का ध्यान
नहीं गया. सलेम के एक छात्र सेंथिल कुमार ने 2008 में आत्महत्या कर ली थी, तब विश्वविद्यालय ने इस शोध छात्र को सुपरवाइजर
उपलब्ध नहीं कराया था. इस मौत की जांच करने वाली समिति ने दलित छात्रों के खिलाफ
गंभीर भेदभाव की बात कही थी. इसके बाद 2013 में एम. वेंकटेश नामक एक
छात्र ने आत्महत्या कर ली. तीन साल तक गुहार लगाने के बाद भी विश्वविद्यालय ने
वेंकटेश को गाइड और लैब नहीं मुहैया कराया था. उसकी मौत के बाद बनी एक समिति ने
वंचित तबके से आने वाले छात्रों का “ध्यान न रखे जाने और उनसे संवेदनहीन व्यवहार किए जाने के मामलों” को पाया था.
शिक्षाविदों का
मानना है कि छुआछूत और जात-पात एक तबके के दिमाग में गहरी जड़ें जमाए है जो समय-समय
पर अपना असर दिखाता रहता है. पुनिया कहते हैं, “रोहित की खुदकुशी और आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल (एपीएससी) पर लगे प्रतिबंध
में ऐसा ही चलन देखा जा सकता है. ऐसे मामले मनगढ़ंत किस्सों से शुरू होते हैं और
फिर अनुसूचित जाति के लोगों को निराधार जांचों के आधार पर दोषी ठहरा दिया जाता है.” पिछले साल आइआइटी- मद्रास
के अधिकारियों की एपीएससी पर लगाई गई बंदिश ने न केवल छात्रों की राजनैतिक
सक्रियता को केंद्र में ला दिया है, बल्कि देश भर के विश्वविद्यालयों में दलित आंदोलन
को बड़ा हौसला भी दिया है. यह प्रतिबंध मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजी गई एक “अनाम” शिकायत के आधार पर लगाया
गया था. उसमें इस छात्र समूह पर आरोप था कि यह एससी और एसटी छात्रों का “ध्रुवीकरण” करने की कोशिश कर रहा है और
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का “आलोचक” है. इस प्रतिबंध के विरोध में देश भर में प्रदर्शन हुए और जून की शुरुआत में
प्रतिबंध को हटा दिया गया. इस अस्थायी बंदिश को हटाए जाने के बाद दूसरे आइआइटी
परिसरों और उच्च शिक्षण संस्थानों में भी छात्रों ने एपीएससी की इकाइयां बना दी
हैं या एकजुटता में ऐसे ही मंच गठित कर लिए हैं.
आइआइटी-मुंबई के
छात्रों ने जहां आंबेडकर-पेरियार-फुले सर्किल (एपीपीसी) नामक नए समूह की शुरुआत की
है, वहीं आइआइटी-दिल्ली, जाधवपुर यूनिवर्सिटी, कोलकाता और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) ने अपने परिसरों में
एपीएससी के चैप्टर शुरू किए हैं. इसी तरह तमिलनाडु में कामराज अरविंदन ने मदुरै
में एपीएससी का एक चैप्टर शुरू किया है.
एपीएससी और एएसए
आंबेडकर तथा पेरियार की विरासत में विश्वास करते हैं और इनका उद्देश्य “जाति की घातक प्रथा” को खत्म करने के तरीके
खोजना है. ये सत्ता और विमर्श की मुख्यधारा को चुनौती देते हैं.
जाति के आधार पर भेदभाव
हैदराबाद
विश्वविद्यालय और आइआइटी-मद्रास की घटनाओं ने उच्च शिक्षा के बेहतरीन संस्थानों
में जारी जात-पांत और दबंगई को भी उजागर कर दिया है. आइआइटी-मुंबई की पीएचडी की एक
छात्रा आरोप लगाती हैं, “जाति के आधार पर भेदभाव यहां बड़ा मुद्दा है. यह बाहर केवल तभी आता है जब कोई
छात्र खुदकुशी कर लेता है. मसलन, सितंबर 2014 में अनिकेत अंभोरे ने साथी
छात्रों और स्टाफ की तरफ से जाति के आधार पर हो रहे भेदभाव से तंग आकर खुद को मार
डाला था. लेकिन तब इसे महज हादसा बताकर खारिज कर दिया गया था.” वे कहती हैं, “जाति का आधुनिक चेहरा खालिस
छुआछूत से बिल्कुल अलग है. कपट के लबादे में छिपी यह प्रवृत्ति और घातक हो जाती है. जरूरत इस बात की है कि हम
जातिवाद और वर्गवाद के बारे में खुलकर चर्चा करें. छात्रों के साथ ही फैकल्टी को
भी संवेदनशील बनाने की जरूरत है.”
जेएनयू में काम कर
रहे एक छात्र संगठन बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टुडेंट्स एसोसिएशन (बीएपीएसए) ने डायरेक्ट
पीएचडी दाखिले को लेकर 15 जनवरी को
विश्वविद्यालय में विरोध प्रदर्शन किया. दरअसल 2015-16 के विंटर सेमेस्टर में डायरेक्ट पीएचडी दाखिले की 75 सीटें थीं,
लेकिन इसमें महज 6 ओबीसी सीट भरी गईं और अनुसूचित जाति-जनजाति की एक
भी सीट नहीं भरी गई. कुछ ऐसा ही हाल 2014-15 के विंटर सेमेस्टर में भी
रहा था. सिर्फ पीएचडी ही नहीं, एमफिल में दाखिले की प्रक्रिया पर भी सवाल उठते रहे
हैं. जेएनयू से मीडिया स्टडीज में एमफिल कर रहे एक छात्र बताते हैं, “पिछड़े तबके के छात्रों को
इंटरव्यू में दो-तीन-चार या शून्य नंबर तक दे दिया जाता है. वह तो लिखित परीक्षा
में अच्छे नंबर हासिल करने की वजह से ऐसे छात्र दाखिला ले पाते हैं.” इस प्रतिष्ठित
विश्वविद्यालय में भेदभाव के आलम को बताते हुए यहां के छात्र बाल गंगाधर कहते हैं, “जेएनयू में पीएचडी कर रहे
वंचित समुदाय के डेढ़ दर्जन छात्र हर साल बीच में ही पढ़ाई छोडऩे के लिए मजबूर हो
जाते हैं.”
दिल्ली
विश्वविद्यालय (डीयू) के दयाल सिंह कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर और एकेडमिक फोरम
फॉर सोशल जस्टिस के अध्यक्ष केदार कुमार मंडल ने आरटीआइ के जरिए जानकारी जुटाई तो
पाया कि 2010-11 सत्र में डीयू में दाखिले की करीब 5,000 अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी समुदाय की सीटें खाली रह गईं और इनको बाद में सामान्य वर्ग के
छात्रों से भर दिया गया. 2011 तक दाखिले के दो-तीन कट-ऑफ ही निकाले जाते थे. इस
मामले को लेकर मंडल और उनके सहयोगी सुप्रीम कोर्ट गए. मंडल बताते हैं कि सुप्रीम
कोर्ट ने 18 अगस्त,
2011 को फैसला दिया कि इन आरक्षित सीटों के लिए न्यूनतम कट-ऑफ
जारी किया जाए और सीटों के खाली रहने तक कट-ऑफ कम की जाती रहे. यही वजह है कि डीयू
में अब 12-14 कट-ऑफ लिस्ट निकलती हैं. मंडल कहते हैं, “यहां नियुक्तियों में भी विसंगतियां हैं और इसकी लड़ाई मैं अदालत में लड़ रहा
हूं.”
वहीं दाखिला मिलने
के बाद भी छात्रों की समस्या खत्म नहीं होती. जैसा कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में
सेंथिल और वेंकटेश के साथ हुआ. दूसरी ओर, 2014 में काशी हिंदू
विश्वविद्यालय (बीएचयू) के एक दलित छात्र के साथ उसके गाइड ने मारपीट की. मजबूरन
उसे दूसरे गाइड की शरण में जाना पड़ा. इसी तरह दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान
संस्थान (एम्स) और महावीर वर्धमान चिकित्सा महाविद्यालय भी कठघरे में रहे हैं. एम्स
में एक के बाद एक आत्महत्या के बाद दलित-आदिवासी समुदाय के छात्रों के साथ भेदभाव
की जांच के लिए गठित प्रोफेसर सुखदेव थोराट समिति ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा कियाः 80 फीसदी से ज्यादा छात्रों ने बताया कि फैकल्टी सदस्य और परीक्षक उनकी जातिगत
पृष्ठभूमि पूछते हैं और लिखे के मुताबिक नंबर नहीं देते. पिछले साल अक्तूबर में
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने एम्स की एक फैकल्टी सदस्य और दलित शशि मावर के
जातीय उत्पीडऩ को अपनी जांच में सही पाया और एम्स से उचित कार्रवाई करने को कहा.
संगठन जनहित अभियान के तहत एम्स में भ्रष्टाचार और जातीय उत्पीडऩ के खिलाफ अभियान
चला रहे राज नारायण कहते हैं, “इस केस में आयोग भी कुछ नहीं करा सका है.” वहीं पुनिया कहते हैं, “हम सिर्फ सिफारिश ही कर सकते हैं.”
सियासी
औजार
दलित और पिछड़े वर्ग
के छात्र मुख्यधारा के विमर्श और लफ्फाजी पर सवाल उठाते हैं और नेताओं के जबानी
जमाखर्च को भी कोसते हैं. मौजूदा परिदृश्य में दलित छात्रों में राहुल गांधी के
हैदराबाद विश्वविद्यालय में आने पर भी विवाद है. तेलंगाना बनने के बाद राहुल इससे
पहले केवल एक बार जून 2014 में कांग्रेसी दिग्गज और दलित नेता जी. वेंकटस्वामी
को श्रद्धांजलि अर्पित करने हैदराबाद आए थे. इस तरह के दौरों को सियासी बढ़त बनाने
की कवायद माना जाता है, जिससे वंचित समूह को मुख्यधारा में लाने में खास
मदद नहीं मिलती. दलित छात्र कहते हैं कि नेता अपने लिए मुफीद किसी भी महापुरुष या
विचार को हथिया लेते हैं. उनकी दलील है कि ठीक इसी तरह भगत सिंह को हिंदू
राष्ट्रवादी के तौर पर प्रचारित किया गया हालांकि वे देश की आजादी के लिए लड़ रहे
थे.
इस बीच दूसरे भी
राहुल गांधी के नक्शेकदम पर चल पड़े. बीएसपी की सुप्रीमो मायावती, टीएमसी के सांसद डेरेक ओब्रायन और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की भेजी गई
लोक जनशक्ति पार्टी की टीम ने अपने हिस्से का सियासी पुण्य कमाने के लिए हैदराबाद
विश्वविद्यालय के परिसर की तीर्थयात्राएं कीं. कोलकाता में टीएमसी के पूर्व सांसद
और गायक कबीर सुमन ने रोहित के लिए 63 सेकंड का एक गाना बनाया, गाया और सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया. इस तरह विश्वविद्यालय के मामलों में
मानव संसाधन विकास मंत्रालय का हस्तक्षेप और कुलपति का कथित पूर्वाग्रह गौण मुद्दे
बन गए.
वैसे, दलित उत्पीडऩ का दायरा केवल विश्वविद्यालयों और कॉलेजों तक ही सीमित नहीं है.
बिहार के कैमूर जिले में एक स्कूल अध्यापक ने दलित छात्रों को इस तरह भेदभाव का
शिकार बनाया कि प्रार्थना के दौरान एक-एक कर उन्हें उनके जाति के नाम से पुकारा और
फिर आखिरी कतार में खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया. राजस्थान में कुछ जगहों पर नाई
एससी और एसटी समुदायों के ग्राहकों के बाल काटने से इनकार कर देते हैं.
दलित एक्टिविज्म का उभार
इन ज्यादतियों की
वजह से वर्ष 2000 के बाद से दलित और आदिवासी छात्र आंदोलन में नई ऊर्जा आई है. हैदराबाद में
रहने वाले सामाजिक नृविज्ञानी पी. जयप्रकाश राव कहते हैं, “हमारे बेहतर अकादमिक संस्थानों के नए मुखर समूह जैसे-जैसे विकसित होते जाएंगे, उनकी आवाज बुलंद होती जाएगी, क्योंकि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में वे सबसे
मेधावी छात्रों की तुलना में उम्मीद से कम कामयाबी हासिल कर पाते हैं. यह संभवतः
अगले दो दशकों तक जारी रहेगा, जब तक कि साधनहीन तबकों की इन नई पीढिय़ों में
मुकाबला करने की ज्यादा काबिलियत नहीं आ जाती. किसी भी पड़ाव पर उनकी आवाज नहीं
दबाई जानी चाहिए, बल्कि उन्हें खासकर विभाजनकारी मुद्दों पर खुलकर
अपनी बात कहने देनी चाहिए, क्योंकि उच्च शिक्षा का कुल जमा यही मतलब है.”
बीएचयू के हिंदी
विभाग में 2013-14 सत्र में पीएचडी में दाखिले में आरक्षण फॉलो न करने को लेकर दलित-आदिवासी
छात्रों ने भारी विरोध किया था, जिसके बाद प्रशासन ने आरक्षण के अनुसार सीटें भरी
थीं. दाखिले और नियुक्तियों को लेकर ही नहीं, अपनी अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान को लेकर भी दलितों-आदिवासियों और पिछड़े
समुदाय के छात्रों में उभार आया है. जेएनयू में 2011 में ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टुडेंट्स फोरम (एआइबीएसएफ) ने महिषासुर को आदिवासी
नायक बताते हुए महिषासुर दिवस मनाना शुरू किया था. 2014 तक आते-आते यह समारोह उत्तरी भारत के करीब 100 शहरों, कस्बों और शैक्षणिक
संस्थानों में मनाया जाने लगा. मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में 2014 में छात्रों ने बीफ और पोर्क सेवन के नाम पर छात्रावासों में ओवन पर लगे
प्रतिबंध के बाद मेस मेन्यू में इसकी मांग यह कहते हुए की कि ये दलित-आदिवासी
समुदायों के पारंपरिक भोजन में शामिल रहे हैं. इसी तरह, एक ओर जहां 5 सितंबर को देश में सर्वपल्ली राधाकृष्ण के जन्मदिन
पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है, वहीं छात्रों और शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग सावित्री
बाई फुले के जन्मदिन 3 जनवरी को शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है.
केंद्र में बीजेपी
नेतृत्व वाली एनडीए सरकार आने के बाद यह विभाजन और बढ़ गया है. इसके बाद
आइआइटी-मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रशासन ने प्रतिबंध लगाया.
सरकार बनने के कुछ माह बाद जेएनयू में महिषासुर दिवस को भावनाओं को भड़काने वाला
बताते हुए बीजेपी समर्थित छात्र संगठन एबीवीपी ने इसके आयोजकों के खिलाफ
विश्वविद्यालय प्रशासन और पुलिस में शिकायतें दर्ज कराई थीं और झड़प भी हुई थी.
नतीजतन 2015 में यह समारोह जेएनयू में नहीं मनाया जा सका. अब हैदराबाद मामले को लेकर
सरकार कठघरे में है. रोहित की मौत को लेकर बुद्धिजीवी और छात्र-छात्राएं महाभारत
के मशहूर चरित्र द्रोणाचार्य की ओर से एकलव्य का अंगूठा मांगे जाने वाला प्रसंग
याद कर रहे हैं. क्या देश के शैक्षणिक संस्थानों में इसी तरह वंचित तबके के
छात्रों के अंगूठे काटे जाते रहेंगे?
यह साफ है कि कहीं न
कहीं से विवि प्रशासन पर दबाव बना था जिससे पहली प्रशासनिक रिपोर्ट को बदल दिया
गया जिसमें रोहित और अन्य चार छात्रों को निर्दोष करार दिया गया था.
ज्वालामुखी बनती छात्र चिनगारी
मई, 2014 में केंद्र सरकार में बीजेपी
नेतृत्व वाली सरकार आने के बाद उसे छात्रों के एक के बाद एक बड़े विरोधों का सामना
करना पड़ा है
नवंबर 2014 छात्रसंघ की मांग
बीएचयू, पंजाब, पटना और जयपुर समेत दिल्ली में व्यापक प्रदर्शन
मई 2015 एपीएससी पर बैन
आइआइटी-मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर
बैन को लेकर देशभर में विरोध
जून 2015 एफटीआइआइ
गजेंद्र चौहान की नियुक्ति को लेकर संस्थान और देशभर
में छात्रों का विरोध
अक्तूबर 2015 यूजीसी घेराव
नॉन-नेट फेलोशिप खत्म किए जाने के फैसले पर यूजीसी दफ्तर
समेत देशभर में भारी विरोध प्रदर्शन
जनवरी 2016 हैदराबाद विवि
रोहित की आत्महत्या ने देशभर के छात्रों को आंदोलित
किया. मुंबई, पुणे दिल्ली से लेकर पटना तक
विरोध.
अब अल्पसंख्यक दर्जे पर आपत्ति
जनवरी, 2016 के पहले पखवाड़े में एटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि
धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आधार पर अल्पसंक्चयक संस्थान की स्थापना नहीं की
जानी चाहिए. सो सरकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को अल्पसंख्यक संस्थान
नहीं मानती. यह उस पूर्ववर्ती फैसले के खिलाफ है जिसमें तत्कालीन कांग्रेस सरकार
ने 2006 में इलाहाबाद हाइकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ अपील की थी, जब उसने एएमयू में पीजी मेडिकल में दाखिले की 50 फीसदी सीटों के मुसलमानों के लिए आरक्षित करने को असंवैधानिक कहा था. 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका खारिज कर दी थी जिसमें एएमयू को संसद के ऐक्ट
के तहत स्थापित होने और किसी मुसलमान की ओर से नहीं स्थापित होने के आधार पर
अल्पसंख्यक दर्जे से वंचित किए जाने की मांग की गई थी. कानून मंत्रालय ने एचआरडी
मंत्रालय को जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय को 2011 में मिले अल्पसंख्यक दर्जे को वापस लेने की कानूनी सलाह भी दी है. वहीं एएमयू
के कुलपति ने इस दर्जे को मुसलमानों के लिए बेहद अहम बताया है. इन संस्थानों के
छात्र, अल्पसंख्यक संगठन और अन्य लोग भी इस पर मुखर हैं तथा सरकार को भारी विरोध का
सामना करना पड़ सकता है.
“अगर हम इसी तरह के प्रतिबंध लगाते रहे, तो विचार कहां से आएंगे? विश्वविद्यालय ऐसी जगहें हैं जहां बड़ी संख्या में
विचार जन्म लेते हैं- कांचा इलैया (लेखक और दलित एक्टिविस्ट)
प्रतिभाओं की मौत
सितंबर 2014, आइआइटी मुंबईः दलित छात्र अनिकेत अंभोरे की संदिग्ध हालात में मौत, कथित आत्महत्या.
नवंबर 2013, हैदराबाद विश्वविद्यालयः दलित पीएचडी छात्र एम. वेंकटेश ने कथित तौर पर भेदभाव
से तंग आकर आत्महत्या कर ली.
2013, आइआइटी-दिल्लीः दलित जाति के राजविंदर सिंह ने आत्महत्या की.
मार्च 2012, एम्स, नई दिल्लीः आदिवासी छात्र अनिल कुमार मीणा ने फांसी लगाकर आत्महत्या की.
फरवरी 2011, आइआइटी रुड़कीः दलित छात्र मनीष कुमार ने उत्पीडऩ से तंग आकर आत्महत्या की.
मार्च 2010, एम्स, नई दिल्लीः एमबीबीएस फाइनल इयर के बाल मुकुंद भारती ने जातीय भेदभाव से
आत्महत्या की.
जनवरी 2009, आइआइटी-कानपुरः एमटेक फाइनल इयर की जी. सुमन ने आत्महत्या कर ली, 2008 में यहां प्रशांत कुरील ने आत्महत्या की थी.
फरवरी 2008, हैदराबाद विश्वविद्यालयः पीएचडी छात्र सेंथिल कुमार ने विश्वविद्यालय से
फेलोशिप बंद किए जाने के बाद आत्महत्या की.
जनवरी 2007, आइआइटी-मुंबईः बीटेक फाइनल इयर के दलित छात्र एम. श्रीकांत की आत्महत्या, इसी साल आइआइटी, दिल्ली में दलित अंजनी कुमार ने आत्महत्या की.
अगस्त 2007, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज, बंगलूरूः शोध छात्र अजय एस. चंद्रा ने आत्महत्या
की.
हैदराबाद
विश्वविद्यालय में 2008 के बाद छह दलित छात्रों ने जातीय उत्पीडऩ की वजह से आत्महत्या
की.
यही हाल एम्स, आइआइटी जैसे संस्थानों और अन्य विश्वविद्यालयों का
है. जाति आधारित भेदभाव वंचित समुदाय के छात्रों की मौत की वजह बन रहा है. इंडिया टुडे की ओर से डाली गई आरटीआइ और
कुछ गैर-सरकारी संगठनों की जानकारी के आधार पर उजागर होता है कि पिछले आठ साल में
देश के अग्रणी उच्च शिक्षा संस्थानों में दो दर्जन से ज्यादा दलित-आदिवासी छात्रों
ने आत्महत्या की है.
संकट में फेलोशिप, छात्रों में उबाल
भारी विरोध के बाद सरकार
को नॉन-नेट फेलोशिप बंद करने के फैसले से पीछे हटना पड़ा, लेकिन इसकी समीक्षा बैठक अब तक नहीं हुई है.
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले से दिल्ली आकर जवाहरलाल
नेहरू विश्वविद्यालय में एमफिल कर रहीं सोनम मौर्या अपनी पढ़ाई को लेकर फिक्रमंद हैं. दरअसल, पिछले साल अक्तूबर में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अपनी बैठक में
शोध छात्रों को मिलने वाली नॉन-नेट फेलोशिप को बंद करने का फैसला लिया. सोनम कहती
हैं, “नॉन-नेट फेलोशिप काफी कम और
देर से मिलती है, उस पर इसे बंद करने का फैसला जरूरतमंद
छात्र-छात्राओं के लिए रास्ते बंद करने की तरह है.” हालांकि इस फैसले के बाद देशभर के विश्वविद्यालयों
के छात्र-छात्राओं ने ऑक्यूपाइ यूजीसी मुहिम के तहत दिल्ली में जोरदार प्रदर्शन
किया. इसमें बीएचयू से लेकर, इलाहाबाद, पटना, हैदराबाद,
पंजाब, राजस्थान समेत दिल्ली के जेएनयू, जामिया मिल्लिया और डीयू के
छात्र भी शामिल थे. उन्होंने इस फैसले को निरस्त करने के साथ-साथ नॉन-नेट फेलोशिप
की राशि बढ़ाने की भी मांग की. नवंबर के पहले हफ्ते में अपने घर के सामने प्रदर्शन
कर रहे छात्र-छात्राओं से मानव संसाधव विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा था कि
नॉन-नेट फेलोशिप को रोका नहीं जाएगा और इसकी समीक्षा की जाएगी. इसके लिए एक समिति
भी गठित की गई और इसकी बैठकें पिछले साल दिसंबर और फिर जनवरी, 2016 में की जाने की बात कही गई. लेकिन अब तक इसको लेकर किसी भी तरह की बैठक नहीं
हुई है. नॉन-नेट फेलोशिप देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों और कुछ अन्य अहम
संस्थानों के उन छात्रों को मिलती है, जिन्होंने नेट-जेआरएफ उत्तीर्ण नहीं किया है या जो विभिन्न वर्गों के तहत
जरूरतमंद छात्र-छात्राओं को मिलने वाली फेलोशिप से वंचित रह जाते हैं. इनमें
अधिकतर नेट (नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट) उत्तीर्ण छात्र होते हैं. करीब 3,200 एमफिल और पीएचडी छात्रों को नेट-जेआरएफ फेलोशिप
मिलती है, जिसके तहत प्रतिमाह 25,000 रु. मिलते हैं. वहीं
नॉन-नेट फेलोशिप के तहत एमफिल छात्रों को 5,000 रु. और पीएचडी छात्रों को 8,000 रु. हर महीने मिलते हैं.
यूजीसी के पूर्व
सदस्य योगेंद्र यादव बताते हैं कि यूजीसी यह आंकड़ा नहीं जाहिर करता लेकिन करीब 25,000 से ज्यादा छात्र-छात्राओं को नॉन-नेट फेलोशिप मिलती है. वे कहते हैं, “ऑक्यूपाइ यूजीसी हो या हैदराबाद
विश्वविद्यालय का मसला, एक अरसे बाद छात्र-छात्राएं आंदोलित हो रही हैं. यह
नई चेतना का संकेत है और आने वाले दिनों में यह चिनगारी कोई बड़ा स्वरूप ले सकती
है.” यादव के मुताबिक, हालिया नॉन-नेट फेलोशिप के मसले ने शिक्षा व्यवस्था में इस तरह की फेलोशिप की
जरूरत को भी उभार दिया है. करीब तीन माह बाद भी ऑक्यूपाई यूजीसी अभियान जारी है.
इस फेलोशिप को लेकर छात्र-छात्राओं की व्यापक घेराबंदी की तस्दीक जेएनयू के
छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया भी करते हैं, “इस मसले पर हम अभी देशभर के विश्वविद्यालयों में हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं
और जब तक छात्रों के हित में सरकार का कोई फैसला नहीं होता, हम थमने वाले नहीं हैं.”
दिमाग की सफाई भी तो हो: सुखदेव थोराट
उच्च शिक्षा में दाखिले की दर को बढ़ाए जाने की कोशिश होनी चाहिए. इनमें महिलाओं, दलितों-आदिवासियों, मुसलमानों का प्रतिनिधित्व काफी कम है, इस विषमता को दूर करने की जरूरत है.
वर्तमान में केंद्र सरकार नई शैक्षणिक नीति बनाने की कोशिश
कर रही है. यह अच्छी बात है, इससे एजुकेशन एक कदम आगे बढ़ेगी. लेकिन यह करते समय
यह ध्यान में रखना जरूरी है कि इससे पहले शिक्षा को लेकर जो कदम उठाए गए थे, उनको बिल्डअप करने की जरूरत है. इसकी वजह यह है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में 2006 से लेकर 2011 तक उच्च शिक्षा की समस्या का अध्ययन किया गया था. उससे यह मालूम हुआ कि उच्च
शिक्षा में क्या-क्या समस्याएं हैं. उनके उपाय पर भी अध्ययन हुआ और उसके आधार पर
ह्युमन प्लान की नीति बनाई गई.
इसलिए पहले जो नीति
तैयार हुई थी,
उनमें से कुछ चीजों को आधार मानकर नई नीति बनाई जानी चाहिए. मेरी समझ में उच्च
शिक्षा की जो समस्याएं हैं, वे चार तरह की हैं. पहली समस्या जो है वह है उच्च
शिक्षा की दर यानी कि एनरॉलमेंट नंबर बहुत कम है, जिसे बढ़ाया जाना चाहिए. दूसरी समस्या दर्जा यानी की गुणवत्ता की है, जिसको बढ़ाया जाना चाहिए.
तीसरी समस्या शिक्षा संधि की है. चौथी समस्या उपयोगी शिक्षा यानी रेलवेंट एजुकेशन
की है, जिससे कि छात्र-छात्राएं आज के दौर में रोजगार के लिए उन्मुख हों.
हमारी उच्च शिक्षा
की दर अभी 25 तक है, जिसे 50-60 तक लाया जाना बेहद जरूरी है. इसके लिए मौजूदा विश्वविद्यालयों को क्षमता
बढ़ानी पड़ेगी और जहां-जहां जरूरी है कि वहां विश्वविद्यालय और कॉलेजों की संख्या
बढ़ाई जानी चाहिए. यह मुख्य तौर पर पैसे का मसला है. सरकार को विश्वविद्यालयों की
मदद करनी है और कॉलेजों की संख्या बढ़ानी है. जहां तक क्वालिटी का सवाल है, यह तीन बातों से तय होती हैः एक तो शिक्षक, दूसरा इन्फ्रास्ट्रक्चर और तीसरा पाठ्यक्रम यानी शिक्षा क्रम और पढ़ाने की
पद्धति. हमारे यहां शिक्षकों को लेकर समस्याएं रही हैं. हमारे यहां शिक्षकों की
काफी कमी है और इसको दूर करने के लिए हमें बड़ी संख्या में शिक्षकों की नियुक्ति
करनी पड़ेगी. पिछली पंचवर्षीय योजना में शिक्षकों का वेतन बढ़ाया गया था. इससे अच्छे
लोगों की इस पेशे में आने की संभावना बनी थी. लेकिन इसके लिए ज्यादा से ज्यादा
पीएचडी छात्र-छात्राओं की जरूरत है और उनकी संख्या हमें बढ़ानी होगी. इसके लिए उनकी
आर्थिक सिक्योरिटी बढ़ाने की जरूरत है&संख्या और राशि दोनों मामले
में. इससे उच्च शिक्षा में सप्लाई बढ़ती है. इनफ्रास्ट्रक्चर की बात तो सामान्य-सी
बात है कि शैक्षणिक संस्थानों और अन्य शैक्षणिक मामलों में बुनियादी चीजों को
दुरुस्त करने के साथ उन्हें और बढ़ाना होगा.
पाठ्यक्रम में जो
शैक्षणिक सुधार हैं, क्रेडिट और ग्रेडिंग सिस्टम, सेमेस्टर सिस्टम आदि, ये सभी तो पहले ही शुरू किए जा चुके हैं. वर्तमान
सरकार भी इस पर जोर दे रही है, तो यह अच्छे से होना चाहिए. इससे शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ जाएगी. तीसरा मसला है कि शिक्षा तक सबकी समान
पहुंच होनी चाहिए. अभी उच्च शिक्षा में महिलाओं, दलित, आदिवासियों,
हिंदू और ईसाई के मुकाबले मुस्लिम छात्र-छात्राओं की संख्या काफी कम है. इसी
तरह शहरों की तुलना में गांवों का प्रतिनिधित्व कम है. उच्च शिक्षा में दाखिले की
जो यह विषमता है, इसको हमें दूर करना होगा. इसके लिए एक नीति बनाई
जानी चाहिए. शिक्षा सबको मिलनी चाहिए, सबको अपनी उत्पादकता बढ़ाने
का अधिकार है. सो यह एक अहम मसला है. इसी तरह उपयोगी शिक्षा के मामले में स्किल एजुकेशन बढ़ाई जानी चाहिए.
अच्छी बात है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने स्किल डेवलपमेंट को लेकर एक अलग नीति बनाई
है.
प्रासंगिक शिक्षा का
दूसरा पहलू यह है कि हमें ऐसी शिक्षा देने की जरूरत है जिससे छात्र-छात्राओं में
नागरिक प्रदत्त अधिकारों की समझ बढ़ाई जा
सके. हैदराबाद विश्वविद्यालय का मामला भी इसी से जुड़ा लग रहा है. विश्वविद्यालयों
में विभिन्न जाति, समुदाय, और धर्म के बच्चे पढऩे आते
हैं. वे अपने पुराने विचारों के साथ आते हैं और उसकी वजह से उनके बीच अलगाव पैदा
होता है. इसकी वजह से उनके बीच विवाद होते हैं. इसमें समानता, भेदभाव की बात भी आती है और आरक्षण की वजह से दलित-आदिवासी छात्र-छात्राओं के
प्रति अन्य की सही भावना नहीं होती है. सो हमें उन्हें एक कोर्स बनाकर उनमें
समानता और न्याय की मूल भावनाएं, हर किसी के धर्म एवं संस्कृति को आदर करने की शिक्षा
देनी होगी. हैदराबाद विश्वविद्यालय में हालिया विवाद की एक वजह छात्र-छात्राओं के
बीच पैदा हुआ अलगाव है. यह अलगाव जाति, विचार आदि के आधार पर हुआ क्योंकि
उन्हें हम वैसी शिक्षा दे ही नहीं पा रहे हैं, जिससे उनमें समान भाव पैदा हो. अमेरिका में तो बाकायदा कोर्स बनाकर विषमता, गरीबी, जाति, धर्म और जेंडर जैसी समस्याओं पर पढ़ाई होती है. इस तरह हम कैंपसों में भेद और
दीवारें खत्म करने की कोशिश कर सकते हैं. अभी हमारी उच्च शिक्षा में ऐसा कुछ नहीं
है. कभी-कभी मानव अधिकार विषय पर जरूर बात होती रहती है पर यह सही तरीके से हम नहीं
दे पा रहे हैं. एम्स में इसी तरह के जातिगत भेदभाव की जांच समिति का मैं अध्यक्ष
था तो समिति ने भी वहां प्रशासनिक भेदभाव पाया और यह भेदभाव अधिकतर शैक्षणिक
संस्थानों में होता है. इस तरह छात्र-छात्राओं के बीच अलगाव दूर करने वाली शिक्षा
की जरूरत और बढ़ जाती है.
साभार: इंडिया टूडे
साभार: इंडिया टूडे
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