दिलीप ख़ान
कौन बड़ा सेल्समैन? |
“नरेन्द्र मोदी मुझसे बढ़िया सेल्समैन हैं”- मनमोहन सिंह। मनमोहन
सिंह का ये बयान बदले भारत में चल रही राजनीति के सारे पत्ते खोल देता है। पुरानी
यूपीए-2 सरकार का मुखिया इस वक़्त के प्रधानमंत्री को जब ‘सेल्समैन’ कह रहे हैं तो उसके
साथ ‘बढ़िया’ नाम का विशेषण भी
लगाना नहीं भूल रहे। यानी इस वाक्य को ज़रा सा विस्तार देकर इसका अर्थ खोले तो कुल
मतलब ये निकलता है कि मनमोहन सिंह ने अपने सेल्समैनशिप को पूरी तन्मयता से अंजाम
देने की कोशिश की और उन्हें ‘बढ़िया सेल्समैन’ नहीं होने का मलाल रह गया। बहस का एक
मुद्दा तो ये है ही कि कैसे देश में प्रधानमंत्री का पद ‘सेल्समैन’ में रिड्यूस हो
गया। लेकिन बीते डेढ़-दो दशक की राजनीति पर नज़र रखने वालों को इसमें कोई चौंकाने
वाला तथ्य हाथ नहीं लगा होगा, क्योंकि सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग़रीब-वंचितों के
सवाल उठाने वालों ने लंबे समय से सत्ता गलियारे पर ये आरोप लगाए हैं कि ये अपनी
उपलब्धियों से लेकर योजना, कार्यक्रम को बेचने की जद्दोजेहद में रहते हैं। यही
नहीं प्राकृतिक संसाधनों को जिस आनन-फानन में कॉरपोरेट्स के हाथों में सौंपने की
मुहिम चली है उसमें हर सरकार का कमोबेस समान रुख रहा है। हाल ही में अरावली
पहाड़ों के आस-पास एक निश्चित दूरी पर कोई भी निर्माण कार्य पर रोक लगाने का जब
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने फैसला सुनाया तो हरियाणा की पूर्ववर्ती कांग्रेस
सरकार की तर्ज पर मौजूदा बीजेपी सरकार ने भी इसे चुनौती देने की ठान ली।
सवाल ये है कि सेल्समैन के तौर पर कोई राजनेता ‘किसको’ कोई चीज़ बेचेगा? ख़रीदने की स्थिति
में कौन है? खेती-किसानी के सवाल को इस ज़मीन से देखने पर मौजूदा राजनीतिक स्पेस
में किसानों की स्थिति का अंदाज़ा लगाना आसान होगा। हालांकि इस पर कोई ठोस
आधिकारिक अध्ययन नहीं हुआ है, लेकिन छिट-पुट आंकड़े बताते हैं कि बीते 15 साल में
लाखों की तादाद में लोगों ने खेती छोड़ दी। क्या खेती छोड़ने के बाद वो बेहतर
आर्थिक कारोबार में शामिल हो गए इस पर अध्ययन होना चाहिए, लेकिन ये साफ है कि जो
लोग खेती में जुटे हुए हैं उसका बड़ा तबका परेशानी और सतत दबाव में जी रहा है।
सरकार उन्हें ये भरोसा दिलाने में नाकाम रही है कि फ़सल नष्ट होने पर सही मुआवज़ा
या फिर बेहतर पैदावार ही हालत में अच्छे न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को मिल
पाएंगे।
खेती की मुश्किलें |
देश जब आज़ाद हुआ था तो उस वक़्त कुल जीडीपी में
खेती और संबंधित क्षेत्र का योगदान 50 फ़ीसदी से ज़्यादा था। विकासशील
अर्थव्यवस्था से जैसे-जैसे कोई मुल्क़ विकसित की तरफ़ कदम बढ़ाता है कृषि का
जीडीपी में योगदान भी घटता जाता है, लेकिन क्या देश में खेती-किसानी सचमुच यूरोप
या अमेरिकी मॉडल पर हो रही है और क्या भारत की सामाजिक बनावट उन मुल्क़ों की तरह
है? दोनों
सवाल का जवाब ना में है। इस वक़्त कुल जीडीपी में कृषि का योगदान महज 13 फ़ीसदी
है, लेकिन प्लान आउटले के आंकड़ें देखें तो साफ़ हो जाता है कि सरकार का ध्यान
इतने हिस्से पर भी ठीक से नहीं जाता। खेती का बजट आवंटन 8 फ़ीसदी के क़रीब है।
भारत जैसे विशाल देश के लिए ये जानना बेहद ज़रूरी है कि 13 फ़ीसदी जीडीपी में
हिस्सेदारी वाला कृषि क्षेत्र की बदौलत ही सवा अरब लोगों का पेट भरता है। यानी
जीडीपी की हिस्सेदारी से कहीं व्यापक महत्व खेती-किसानी का है जिसे नज़रअंदाज़
करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही।
जाहिर है खेती पर दबाव है। दोतरफ़ा दबाव। यानी
अगर पैदावार नष्ट हुई तो किसानों की लागत वसूली नहीं होती और अगर बंपर पैदावार हुई
और न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाया गया तो अनाज की क़ीमत में कमी आने की वजह से
फिर से लागत निकालने के लाले पड़ जाते हैं। किसान उस छोर पर नहीं खड़ा है जहां वो ‘सेल्समैन’ के उत्पादों को
ख़रीद सके। राजनीतिक मोर्चे पर भी किसान लगातार रिसिविंग एंड पर पहुंचता जा रहा है।
ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ किसानों के ज़बर्दस्त प्रदर्शन के वावजूद सरकार
अध्यादेश लाने पर अडिग रही। फिर, सेल्समैन में तब्दील हो चुकी सरकार को परवाह
किसकी रहेगी? जाहिर है उनकी जो उनका माल ख़रीद सके। नागरिक से उपभोक्ता तक का
विमर्श नवउदारवादी संरचना में बहुत पुराना है, लेकिन उसे जिस सरलीकृत तरीके से
मनमोहन सिंह ने पेश किया वो बताता है कि जो ख़रीदने की स्थिति में है वही सरकार से
मोल-तोल करने की भी हालत में है। या कहिए कि सरकार भी उसी से मोल-भाव कर रही है। ‘वो’ कौन है? किसान तो कतई नहीं। ‘वो’ वो हैं जो मुंबई
में अपनी बहुमंजिला इमारत के एक फ्लोर पर बागवानी करते हैं। वो धान नहीं उगाते, ना
ही गेहूं। वो ‘शौकिया बागवानी’ करते हैं। ज़मीन से दर्जनों फुट की ऊंचाई पर। ऐसे
खेतीहरों के कई रूप हैं। किसी का नाम अंबानी नामक शब्द पर ख़त्म होता है, किसी का
वाड्रा और किसी का अदानी।
राहुल गांधी ने हाल ही में ज़मीन अधिग्रहण के
ख़िलाफ़ ‘माहौल’ बनाने के लिए देश के कई इलाक़ों का दौरा किया। रेल के साधारण डब्बे
में बैठकर पंजाब गए और पंजाब में जिन चंद
किसानों से मिले और जिन्हें मदद का आश्वासन दिया गया, उनमें से एक बुजुर्ग किसान
ने शुरुआती जून में थक-हारकर आत्महत्या कर ली। किसान आत्महत्याओं को लेकर राष्ट्रीय
अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो का काम लगातार बढ़ता जा रहा है। सबकुछ आंकड़ों में तब्दील हो
गया है। 1995 में डब्लूटीओ सम्मेलन के ठीक सामने एक कोरियाई किसान ने जब
किसानविरोधी नीतियों से विरोध जताते हुए आत्मदाह किया था उसके बाद से दुनिया में
कुछ नहीं बदला। भारत में तो कतई नहीं। भारत के कई हिस्से आत्महत्या वाले नक्शे में
अब एंट्री पा रहे हैं। पंजाब इनमें से एक है। विदर्भ, तेलंगाना, बुंदेलखंड और
छत्तीसगढ़ तो पुराने इलाक़े हैं। इन आत्महत्याओं की वजहें क्या हैं? पहली, फ़सल नष्ट
होना। दूसरी, तकनीक पर बढ़ती निर्भरता। तीसरी, संकर नस्ल के बीजों का आगमन और
पारंपरिक बीजों का लुप्तप्राय होना। चौथा, सिंचाईं का अभाव और पांचवां, विदर्भ
जैसे इलाक़ों में खाद्यान्न के बदले नकदी फ़सलों का उत्पादन। ज़्यादातर मामलों में
सीधी वजह इनमें से कोई नहीं होती। सीधा और तात्कालिक कारण क़र्ज होता है, लेकिन
क़र्ज के तार इन्हीं कारकों से जुड़े हैं।
कपास उगाने वाले किसान की अगर फ़सल नष्ट हुई तो
लागत तो डूबी ही, साथ ही खाद्यान्न उत्पादन करने वाले किसानों की तरह बची-खुची
फ़सल वो खा भी नहीं सकता। सरकारी स्तर पर जो मुश्किले हैं वो मुख्यत: तीन हैं। पहली,
मुआवज़े के बंटवारे की सही नीति का अभाव। दूसरी, कंटींजेंसी प्लान का सही तरीके से
लागू ना हो पाना और तीसरा किसानों की पहचान। आम तौर पर ‘किसानों की पहचान’ पर भारत के समकालीन
कृषि विमर्श में चर्चा नहीं होती, लेकिन इससे बहुत सारी चीज़ें नत्थी हैं। एक
मिसाल से समझिए। बुंदेलखंड के एक भूमिहीन किसान ने बड़े किसान से किराए पर साल भर
के लिए ज़मीन ली। पैदावार अच्छी थी लेकिन जब कटने पर आई तो बेमौसम बरसात और
ओलावृष्टि के चलते फ़सल बर्बाद हो गई। लागत भी नहीं निलकी। सरकार ने मुआवज़े का
ऐलान किया। नियम के मुताबिक़ ज़मीन के मालिक को मुआवज़ा मिला। अब जिस छोटे किसान
ने किराए पर ज़मीन ली, जिसने मेहनत की, जिसका पैसा डूबा, जिसकी फ़सल डूबी, सरकार
की पूरी नीति में वो कहीं मौजूद ही नहीं है।
खेती में फंसी जान |
मुआवज़े के नाम पर कैसे 10 रुपए और 100 रुपए के
चेक बांटे गए ये दो-तीन महीने पहले की राष्ट्रीय सुर्खियां थीं। जाहिर है ये कोई
पहली बार नहीं हुआ। मुआवज़े की रकम किसानों तक पहुंचने से पहले लूट-खसोट और
कमीशनखोरी का समूचा तंत्र बिछा है। फिर सवाल आता है कि मुआवज़ा किस हालात में? पहले आधी फ़सल नष्ट
होने पर मुआवज़े का नियम था, मोदी सरकार ने इसे घटाकर 33 फ़ीसदी कर दिया। पहल
अच्छी है, लेकिन किसान इसे दूसरे नज़रिए से देख रहा है। किसानों का कहना है कि अगर
30 फ़ीसदी फ़सल नष्ट होने पर उन्हें मुआवज़ा नहीं मिलेगा और 33 फ़ीसदी नष्ट होने
पर मिलेगा तो 3 फ़ीसदी वो ख़ुद से नष्ट कर देंगे। ज़ाहिर है सरकार को किसानों की
स्थिति का अंदाज़ा नहीं है कि प्राकृतिक वजहों से 30 फ़ीसदी फ़सल नष्ट होने पर वो
कैसी परिस्थिति में फंस जाते हैं!
ये लगातार दूसरा साल है जब मौसम विभाग ने मानसून
में 12 फ़ीसदी कमी का आकलन पेश किया है। बीते साल देश के कई इलाक़े सूखे की चपेट
में थे और इस बार भी यही अंदेशा है। इससे किसानों की सेहत पर सीधे फर्क तो पड़ता
ही है, लेकिन बाद की स्थिति से भी उसे जूझना पड़ता है। एक तो सिंचाईं के साधन नहीं
होने के चलते पैदावार गई और दूसरा आमदनी नहीं होने के चलते हाथ में क्रयशक्ति नहीं
रह गई जिससे बाज़ार से वो खाद्यान्न ख़रीद सके। देश में इस वक़्त भी 45 फ़ीसदी से
ज़्यादा हिस्से पर सिंचाईं का पूरा दारोमदार बारिश के हाथों में है। सेंटर फॉर
साइंस एंड इनवायरामेंट से जुड़ी चर्चित पर्यावरणविद सुनीता नारायण कई वाकयों पर
इसी संदर्भ में एक बात दोहराती रहती हैं कि ‘मानसून देश का वित्तमंत्री है’। यानी मानसून समय
पर नहीं आया या फिर बेमौसम बरसात हुई तो उत्पादन चौपट। सरकार इससे पार पाने के लिए
दो तरीके अपना रही है। पहला, फौरी कदम के रूप में कंटींजेंसी प्लान। यानी वित्तीय
राहत। दूसरा, भारतीय कृषि एवं अनुसंधान संस्थान इस दिशा में लगातार काम कर रहा है
कि बीजों का वो नस्ल तैयार किया जाए जो देर से मानसून आने पर कम समय में उतनी ही
पैदावार के लायक हो। यानी सामान्य तौर पर जो फ़सल चार महीने में तैयार होती है,
उतनी ही फ़सल दो-ढाई महीने में तैयार हो जाए। लेकिन अभी इस प्रयोग को शहरों में भी
ठीक से स्वीकृति नहीं हासिल हुई है और देहातों में तो खेती के योजनाकार पहुंचने
में भी हिचकिचाहट दिखाते हैं।
खेती का संबंध सिर्फ़ खेती तक टिका नहीं है, जब
तक खेती के अलावा इससे संबंधित क्षेत्रों को मिलाते हुए एक मुकम्मल योजना तैयार
नहीं होती, कृषि का संकट बरकरार रहेगा। स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन के सपने देखने
वाले गलियारे में लघु-कुटीर उद्योग के जाल को विस्तार देने की योजना प्राथमिकता
में बहुत पीछे है। यही वजह है कि खाद्य मुद्रास्फीति लगातार बढ़ती जाती है और सकल
मुद्रास्फीति आंकड़ों में शून्य के स्तर पर दिखती रहती है। यही विडंबना है और यही
देश में नीति-निर्माताओं की प्राथमिकता और लोकेशन भी दर्शाता है। स्मार्ट सिटी को
दो बार बेचा जा सकता है। पहले तो निर्माताओं के सामने योजना को बेचकर और फिर अपनी
ताक़त दिखाने के लिए तैयार स्मार्ट सिटी को दुनिया के मानचित्र पर। सबकुछ बिकने और
बेचने का मामला है। मामला सेल्समैन तक पहुंच गया और बेचने का हुनर बदल गया, लेकिन
किसान अभी भी मंडी के चक्कर में ही चप्पलें घिस रहा है। उनके चप्पलों की आवाज़
छोटे मंडी कारोबारियों तक ही सीमित रहती है और ‘बढ़िया सेल्समैन’ देश स्तर की
नीतियां बेचते रहते हैं।
(सबलोग के जुलाई महीने में प्रकाशित)
(सबलोग के जुलाई महीने में प्रकाशित)
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन : द माउंटेन मैन - दशरथ मांझी में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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