आर. जगन्नाथन
1993 के मुंबई बम धमाकों में उसकी भूमिका के लिए याकूब मेमन को अगर फांसी पर चढ़ाया जाता है, तो यह एक बहुत भारी नाइंसाफी होगी और इससे बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी और कुछ नहीं होगी। फिलहाल, मेमन की दया याचिका पर महाराष्ट्र के राज्यपाल का फैसला और सुप्रीम कोर्ट में तीसरी अपील ही उसकी गरदन और जल्लाद के फंदे के बीच खड़ी दिखती है।
आज अचानक उभर कर सामने आ रहे (या दोबारा सार्वजनिक हो रहे) तमाम तथ्य यह दिखा रहे हैं कि मेमन के मामले में हमारी कानून प्रणाली किस कदर नाकाम रही है। मेमन की वापसी से जुड़े रहे गुप्तचर विभाग के एक पूर्व अधिकारी बी. रमन का लिखा और अब रीडिफ डाॅट कॉम द्वारा प्रकाशित एक पत्र तथा बम धमाकों के बाद याकूब की भारत वापसी पर मसीह रहमान नाम के पत्रकार द्वारा 2007 में लिखी गई एक रिपोर्ट साफ तौर पर बताती है कि बम धमाकों में मेमन परिवार का सक्रिय हाथ नहीं था।
यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि 1992 में मुंबई में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद तुरंत उभरे आक्रोश के ठंडा पड़ जाने पर मेमन परिवार के अधिकतर सदस्य पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ का बंधक बनकर नहीं जीना चाहते थे, जिसने धमाकों की साजिश रची थी। मेमन परिवार में फांसी पर लटकाए जाने योग्य टाइगर और अयूब हैं (जो अब भी आइएसआइ की सरपरस्ती में पाकिस्तान में बैठे हैं)। यही दोनों 1993 में तमाम जगहों पर सिलसिलेवार बम धमाके करने की साजिश में लिप्त थे, जिसमें 257 लोग मारे गए थे। अगर खून से किसी के हाथ रंगे हुए हैं तो इन दोनों के हैं, याकूब के नहीं, जो इनका सीधा-सादा भाई था जो अनजाने में जनता के गुस्से का शिकार बना है। ऐसा कहने का मतलब यह नहीं कि वह निर्दोष है, लेकिन बेशक याकूब वो शख्स नहीं है जिसे 1993 में मारे गए लोगों की पीड़ा की सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़े। रमन और मसीह रहमान दोनों को इस बात का पूरा भरोसा है कि 1994 में तीन बार में भारत लौटने वाला मेमन परिवार मोटे तौर पर स्वेच्छा से यहां आया (सिवाय याकूब के, जो या तो बदकिस्मती से पकड़ा गया या फिर किसी सौदे के तहत जिसने आत्मसमर्पण किया)। परिवार को भारत लौटने में सीबीआइ ने मदद की थी। इससे प्रत्यक्षतः यह स्थापित होता है कि भले ही भय और गुस्से के चलते मेमन परिवार ने धमाकों में मदद की (या निष्क्रिय सहयोग दिया) जिसके चलते बाद में वे सब पाकिस्तान निकल लिए, लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि भारत का कानून उनके साथ निष्पक्ष बरताव करेगा।
रमन और रहमान के लिखे से पता चलता है कि याकूब ने अपने भाई के कुकर्मों और पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों पर अहम सबूत मुहैया कराए थे, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से न तो उसे और न ही उसके परिवार को मुकदमे में सरकारी गवाह बनने का लाभ मिल सका जिसके चलते धमाकों में अपनी भूमिका के बदले उनकी सजा कुछ हलकी हो सकती थी।
यह मामला इस बात का एक क्लासिक उदाहरण है कि कैसे एक कमजोर राज्य ने अपनी ताकत कमजोर के ऊपर आजमाने का फैसला किया और इस तरह इंसाफ को चकमा दे डाला। जो राज्य मजबूत होते हैं, वे इंसाफ की राह में जनता के जज्बात और सियासी करामातों को रोड़ा नहीं बनने देते हैं। भारत में मेमन परिवार के खिलाफ जनाक्रोश को तुष्ट करने के सियासी दबाव में नरसिंह राव की ‘‘कमजोर’’ सरकार ने उसके भारत वापस आने की असल वजहों को नकार दिया और याकूब समेत मेमन परिवार के दूसरे सदस्यों को असली खलनायक बना डाला (वे भले ही अपनी जमीन-जायदाद बचाने के लिए भारत आए रहे हों, लेकिन सच यह है कि वे भारतीय कानून का सामना करने के लिए लौटे थे)।
मनोविज्ञान में इसे ''विस्थापित आक्रोश'' कहते हैं। इसका मतलब यह होता है कि जब आप अपने दोषी पर सीधा वार नहीं कर पाते, तो आप उसे निशाना बना डालते हैं जो आसानी से उपलब्ध हो।
रमन ने याकूब के बारे में यह लिखा थाः ‘‘मेरे खयाल से, मौत की सजा देने से पहले इस सशक्त परिस्थितिगत साक्ष्य को जरूर संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि काठमांडू से उठाए जाने के बाद याकूब ने जांच एजेंसियों को सहयोग करते हुए परिवार के कुछ अन्य सदस्यों को पाकिस्तान से वापस आने और आत्मसमर्पण करने के लिए राजी किया था।’’
मसीह रहमान ने लिखा है कि टाइगर मेमन के पिता को जब पता चला कि उनके बेटे ने मुंबई में बम रखने के लिए पाकिस्तान की सेवाओं का इस्तेमाल किया है, तो उन्होंने उसे बाकायदे ‘‘पीटा’’ था।
स्वेच्छा से भारत लौटने वाले मेमन परिवार को हमारे कानून ने बेइज्जत किया है। हमारे कमजोर नेताओं और कानूनी प्रणाली ने स्वैच्छिक आत्मसमर्पण का इस्तेमाल कर के यह दिखाया कि उन्होंने एक खतरनाक आतंकवादी को पकड़ा है और वे वास्तव में आतंक के खिलाफ गंभीर हैं।
याकूब की कहानी में तीन त्रासदियां पैबस्त हैंः
पहली, यह वास्तविक इंसाफ दिलाने में हमारी राजनीतिक और कानूनी प्रणाली की असमर्थता को जाहिर करती है जो इसके बजाय उस काम पर ज्यादा ध्यान लगाती हैं जो अपेक्षया ज्यादा आसान हो। याकूब एक आसान शिकार था और उसके साथ सिर्फ इसलिए कोई रहम नहीं दिखाया जा रहा ताकि यह साबित किया जा सके कि आतंकवाद से निपटने के मामले में राज्य बहुत गंभीर है। दरअसल, इससे उलटा ही साबित होता है। यह इस बात का सबूत है कि यह राज्य असली दोषियों दाउद इब्राहिम और टाइमर मेमन को दंडित कर पाने में नाकाम है और उनके बजाय किसी और फांसी के तख्ते तक भेजकर खुश है। इससे यही संदेश जाता है स्वेच्छा से आत्समर्पण करने वालों के मामले में अगली बार किसी को भी भारत की कानून प्रणाली पर भरोसा करने की जरूरत नहीं है कि वह उसकी मदद करेगी और असली अपराधियों को पकड़ेगी।
दूसरे, अभी सामने आ रहे तथ्यों के बावजूद यदि मेमन को फांसी पर लटकाया गया, तो इससे एक बार फिर साबित हो जाएगा कि दोषियों को आसान सजा दिलवाने की कुंजी उनका राजनीतिक समर्थन है। हम अच्छे से जानते हैं कि बलवंत सिंह राजोवाना (पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के दोषी) और राजीव गांधी की हत्या के तीन दोषियों के मामले में पंजाब और तमिलनाडु में राजनीतिक समर्थन ने कितनी अहम भूमिका निभाई है। राजोवाना और राजीव के हत्यारों को जिन मामलों में दोषी ठहराया गया है, यदि उससे कम अपराध करने के लिए याकूब को फांसी दे दी जाती है तो यह आकलन सिद्ध हो जाएगा।
तीसरे, इस मामले की आखिरी त्रासदी यह होगी कि आतंकवाद से निपटने में मज़हब एक केंद्रीय मसले के तौर पर स्थापित हो जाएगा। हमारे नेता इस बात को बड़ी शिद्दत से कहते हैं कि आतंक का कोई मज़हब नहीं होता, लेकिन उनका बरताव इसके उलट होता है। इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी कि याकूब मेमन का बचाव करने वाला इकलौता नेता एमआइएम का असदुद्दीन ओवैसी खुद मुस्लिम है। सिर्फ सियासी कायरता ही है जिसके चलते बाकी सारे कथित ‘‘सेकुलर’’ दल इस मसले पर खामोश हैं।
बीजेपी और नरेंद्र मोदी की सरकार के ऊपर दक्षिणपंथी होने के नाते मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगने की कोई संभावना नहीं है, इसलिए उन्हें इस मौके का इस्तेमाल यह दिखाने के लिए करना चाहिए था कि वे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ हो रही नाइंसाफकी के मसले पर आंखें मूंदे हुए नहीं हैं।
यदि याकूब मेमन को वास्तव में फांसी हो जाती है, तो वह अव्वल तो किसी भी तरीके से मेमन परिवार के दूसरे सदस्यों के सिर पर लगे दोष को कम नहीं कर पाएगी। दूसरे, यह इस देश के लिए तिहरी त्रासदी होगी। मुकदमे को अंजाम तक पहुंचाने का माहौल बनाकर धमाके के पीड़ितों को संतुष्ट करने का मतलब यह नहीं होगा कि भारतीय कानून का सामना करने के लिए भारत आए मेमन परिवार के साथ धोखा नहीं किया गया।
याकूब को लटकाने का एक अर्थ यह भी होगा कि उसे न लौटने की सलाह देने वाला टाइगर मेमन सही था। मसीह रहमान की रिपोर्ट में याकूब को टाइगर की दी हुई चेतावनी कुछ यों हैः ‘‘तुम गांधीवादी बन के जा रहे हो, लेकिन वहां आतंकवादी करार दिए जाओगे।’’
याकूब को फांसी पर लटकाना टाइगर को सही साबित कर देगा। इससे अंत में अगर किसी को खुशी होगी तो वह पाकिस्तान की आइएसआइ है, जो याकूब के आत्मसमर्पण को तो नहीं रोक सकी लेकिन आज भारत एक ऐसे शख्स को मारने जा रहा है जिसने आइएसआइ के सामने घुटने नहीं टेके। क्या सेकुलर भारत यही चाहता है?
26 जुलाई, 2015
साभार: फर्स्टपोस्ट डाॅट काॅम
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव
1993 के मुंबई बम धमाकों में उसकी भूमिका के लिए याकूब मेमन को अगर फांसी पर चढ़ाया जाता है, तो यह एक बहुत भारी नाइंसाफी होगी और इससे बड़ी राष्ट्रीय त्रासदी और कुछ नहीं होगी। फिलहाल, मेमन की दया याचिका पर महाराष्ट्र के राज्यपाल का फैसला और सुप्रीम कोर्ट में तीसरी अपील ही उसकी गरदन और जल्लाद के फंदे के बीच खड़ी दिखती है।
आज अचानक उभर कर सामने आ रहे (या दोबारा सार्वजनिक हो रहे) तमाम तथ्य यह दिखा रहे हैं कि मेमन के मामले में हमारी कानून प्रणाली किस कदर नाकाम रही है। मेमन की वापसी से जुड़े रहे गुप्तचर विभाग के एक पूर्व अधिकारी बी. रमन का लिखा और अब रीडिफ डाॅट कॉम द्वारा प्रकाशित एक पत्र तथा बम धमाकों के बाद याकूब की भारत वापसी पर मसीह रहमान नाम के पत्रकार द्वारा 2007 में लिखी गई एक रिपोर्ट साफ तौर पर बताती है कि बम धमाकों में मेमन परिवार का सक्रिय हाथ नहीं था।
यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि 1992 में मुंबई में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद तुरंत उभरे आक्रोश के ठंडा पड़ जाने पर मेमन परिवार के अधिकतर सदस्य पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ का बंधक बनकर नहीं जीना चाहते थे, जिसने धमाकों की साजिश रची थी। मेमन परिवार में फांसी पर लटकाए जाने योग्य टाइगर और अयूब हैं (जो अब भी आइएसआइ की सरपरस्ती में पाकिस्तान में बैठे हैं)। यही दोनों 1993 में तमाम जगहों पर सिलसिलेवार बम धमाके करने की साजिश में लिप्त थे, जिसमें 257 लोग मारे गए थे। अगर खून से किसी के हाथ रंगे हुए हैं तो इन दोनों के हैं, याकूब के नहीं, जो इनका सीधा-सादा भाई था जो अनजाने में जनता के गुस्से का शिकार बना है। ऐसा कहने का मतलब यह नहीं कि वह निर्दोष है, लेकिन बेशक याकूब वो शख्स नहीं है जिसे 1993 में मारे गए लोगों की पीड़ा की सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़े। रमन और मसीह रहमान दोनों को इस बात का पूरा भरोसा है कि 1994 में तीन बार में भारत लौटने वाला मेमन परिवार मोटे तौर पर स्वेच्छा से यहां आया (सिवाय याकूब के, जो या तो बदकिस्मती से पकड़ा गया या फिर किसी सौदे के तहत जिसने आत्मसमर्पण किया)। परिवार को भारत लौटने में सीबीआइ ने मदद की थी। इससे प्रत्यक्षतः यह स्थापित होता है कि भले ही भय और गुस्से के चलते मेमन परिवार ने धमाकों में मदद की (या निष्क्रिय सहयोग दिया) जिसके चलते बाद में वे सब पाकिस्तान निकल लिए, लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि भारत का कानून उनके साथ निष्पक्ष बरताव करेगा।
रमन और रहमान के लिखे से पता चलता है कि याकूब ने अपने भाई के कुकर्मों और पाकिस्तान के साथ उसके रिश्तों पर अहम सबूत मुहैया कराए थे, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से न तो उसे और न ही उसके परिवार को मुकदमे में सरकारी गवाह बनने का लाभ मिल सका जिसके चलते धमाकों में अपनी भूमिका के बदले उनकी सजा कुछ हलकी हो सकती थी।
यह मामला इस बात का एक क्लासिक उदाहरण है कि कैसे एक कमजोर राज्य ने अपनी ताकत कमजोर के ऊपर आजमाने का फैसला किया और इस तरह इंसाफ को चकमा दे डाला। जो राज्य मजबूत होते हैं, वे इंसाफ की राह में जनता के जज्बात और सियासी करामातों को रोड़ा नहीं बनने देते हैं। भारत में मेमन परिवार के खिलाफ जनाक्रोश को तुष्ट करने के सियासी दबाव में नरसिंह राव की ‘‘कमजोर’’ सरकार ने उसके भारत वापस आने की असल वजहों को नकार दिया और याकूब समेत मेमन परिवार के दूसरे सदस्यों को असली खलनायक बना डाला (वे भले ही अपनी जमीन-जायदाद बचाने के लिए भारत आए रहे हों, लेकिन सच यह है कि वे भारतीय कानून का सामना करने के लिए लौटे थे)।
मनोविज्ञान में इसे ''विस्थापित आक्रोश'' कहते हैं। इसका मतलब यह होता है कि जब आप अपने दोषी पर सीधा वार नहीं कर पाते, तो आप उसे निशाना बना डालते हैं जो आसानी से उपलब्ध हो।
रमन ने याकूब के बारे में यह लिखा थाः ‘‘मेरे खयाल से, मौत की सजा देने से पहले इस सशक्त परिस्थितिगत साक्ष्य को जरूर संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि काठमांडू से उठाए जाने के बाद याकूब ने जांच एजेंसियों को सहयोग करते हुए परिवार के कुछ अन्य सदस्यों को पाकिस्तान से वापस आने और आत्मसमर्पण करने के लिए राजी किया था।’’
मसीह रहमान ने लिखा है कि टाइगर मेमन के पिता को जब पता चला कि उनके बेटे ने मुंबई में बम रखने के लिए पाकिस्तान की सेवाओं का इस्तेमाल किया है, तो उन्होंने उसे बाकायदे ‘‘पीटा’’ था।
स्वेच्छा से भारत लौटने वाले मेमन परिवार को हमारे कानून ने बेइज्जत किया है। हमारे कमजोर नेताओं और कानूनी प्रणाली ने स्वैच्छिक आत्मसमर्पण का इस्तेमाल कर के यह दिखाया कि उन्होंने एक खतरनाक आतंकवादी को पकड़ा है और वे वास्तव में आतंक के खिलाफ गंभीर हैं।
याकूब की कहानी में तीन त्रासदियां पैबस्त हैंः
पहली, यह वास्तविक इंसाफ दिलाने में हमारी राजनीतिक और कानूनी प्रणाली की असमर्थता को जाहिर करती है जो इसके बजाय उस काम पर ज्यादा ध्यान लगाती हैं जो अपेक्षया ज्यादा आसान हो। याकूब एक आसान शिकार था और उसके साथ सिर्फ इसलिए कोई रहम नहीं दिखाया जा रहा ताकि यह साबित किया जा सके कि आतंकवाद से निपटने के मामले में राज्य बहुत गंभीर है। दरअसल, इससे उलटा ही साबित होता है। यह इस बात का सबूत है कि यह राज्य असली दोषियों दाउद इब्राहिम और टाइमर मेमन को दंडित कर पाने में नाकाम है और उनके बजाय किसी और फांसी के तख्ते तक भेजकर खुश है। इससे यही संदेश जाता है स्वेच्छा से आत्समर्पण करने वालों के मामले में अगली बार किसी को भी भारत की कानून प्रणाली पर भरोसा करने की जरूरत नहीं है कि वह उसकी मदद करेगी और असली अपराधियों को पकड़ेगी।
दूसरे, अभी सामने आ रहे तथ्यों के बावजूद यदि मेमन को फांसी पर लटकाया गया, तो इससे एक बार फिर साबित हो जाएगा कि दोषियों को आसान सजा दिलवाने की कुंजी उनका राजनीतिक समर्थन है। हम अच्छे से जानते हैं कि बलवंत सिंह राजोवाना (पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के दोषी) और राजीव गांधी की हत्या के तीन दोषियों के मामले में पंजाब और तमिलनाडु में राजनीतिक समर्थन ने कितनी अहम भूमिका निभाई है। राजोवाना और राजीव के हत्यारों को जिन मामलों में दोषी ठहराया गया है, यदि उससे कम अपराध करने के लिए याकूब को फांसी दे दी जाती है तो यह आकलन सिद्ध हो जाएगा।
तीसरे, इस मामले की आखिरी त्रासदी यह होगी कि आतंकवाद से निपटने में मज़हब एक केंद्रीय मसले के तौर पर स्थापित हो जाएगा। हमारे नेता इस बात को बड़ी शिद्दत से कहते हैं कि आतंक का कोई मज़हब नहीं होता, लेकिन उनका बरताव इसके उलट होता है। इससे बड़ी त्रासदी और क्या होगी कि याकूब मेमन का बचाव करने वाला इकलौता नेता एमआइएम का असदुद्दीन ओवैसी खुद मुस्लिम है। सिर्फ सियासी कायरता ही है जिसके चलते बाकी सारे कथित ‘‘सेकुलर’’ दल इस मसले पर खामोश हैं।
बीजेपी और नरेंद्र मोदी की सरकार के ऊपर दक्षिणपंथी होने के नाते मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगने की कोई संभावना नहीं है, इसलिए उन्हें इस मौके का इस्तेमाल यह दिखाने के लिए करना चाहिए था कि वे अल्पसंख्यक समुदायों के साथ हो रही नाइंसाफकी के मसले पर आंखें मूंदे हुए नहीं हैं।
यदि याकूब मेमन को वास्तव में फांसी हो जाती है, तो वह अव्वल तो किसी भी तरीके से मेमन परिवार के दूसरे सदस्यों के सिर पर लगे दोष को कम नहीं कर पाएगी। दूसरे, यह इस देश के लिए तिहरी त्रासदी होगी। मुकदमे को अंजाम तक पहुंचाने का माहौल बनाकर धमाके के पीड़ितों को संतुष्ट करने का मतलब यह नहीं होगा कि भारतीय कानून का सामना करने के लिए भारत आए मेमन परिवार के साथ धोखा नहीं किया गया।
याकूब को लटकाने का एक अर्थ यह भी होगा कि उसे न लौटने की सलाह देने वाला टाइगर मेमन सही था। मसीह रहमान की रिपोर्ट में याकूब को टाइगर की दी हुई चेतावनी कुछ यों हैः ‘‘तुम गांधीवादी बन के जा रहे हो, लेकिन वहां आतंकवादी करार दिए जाओगे।’’
याकूब को फांसी पर लटकाना टाइगर को सही साबित कर देगा। इससे अंत में अगर किसी को खुशी होगी तो वह पाकिस्तान की आइएसआइ है, जो याकूब के आत्मसमर्पण को तो नहीं रोक सकी लेकिन आज भारत एक ऐसे शख्स को मारने जा रहा है जिसने आइएसआइ के सामने घुटने नहीं टेके। क्या सेकुलर भारत यही चाहता है?
26 जुलाई, 2015
साभार: फर्स्टपोस्ट डाॅट काॅम
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव
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