05 मई 2015

सोन का पानी लाल है...भाग-2

अभिषेक श्रीवास्‍तव । सोनभद्र से लौटकर

कनहर बांध के मामले में कुछ तो है जो छुपाया जा रहा है। कुछ है जो उजागर तो हो गया है लेकिन शीशे की तरह साफ़ नहीं है। एक सच उनका है जिनके घर डूब जाएंगे। इन्‍हें बदले में क्‍या मिलेगा, इस पर सवाल है। यह सवाल हमेशा से रहा है। भाखड़ा-नंगल से लेकर रिहंद तक एक से ज्‍यादा बार विस्‍थापित होने वाले परिवारों को साठ साल में कायदे से उचित मुआवज़ा नहीं मिला। नर्मदा की लड़ाई तीस साल से हमारे सामने है। बहरहाल, दूसरा सच उनका है जिनके घर नहीं डूबेंगे। जिनके घर डूब रहे हैं, वह आदिवासी ग्रामीण है। जिनके नहीं डूब रहे, वह मोटे तौर पर गैर-आदिवासी और शहरी है। चूंकि इस तबके को बांध बनने से कोई नुकसान नहीं है, लिहाज़ा इस तबके को बांध बनने तक कुछ न कुछ फायदा ज़रूर है। जब 2800 करोड़ का एक बांध बनता है तो उसमें बहुत सी चीज़ों की ज़रूरत होती है। किसी का डम्‍पर चलता है। कोई ट्रक चलवाता है। कोई रोड़ी देता है। कोई बालू और कंक्रीट देता है। कोई मजदूर सप्‍लाई करता है। किसी का गेस्‍ट हाउस चमक जाता है। एक बांध के इर्द-गिर्द एक समूची परजीवी अर्थव्‍यवस्‍था खड़ी हो सकती है। इसका मतलब कि बांध से नुकसान झेलने वाले और उससे लाभ उठाने वाले वर्ग वास्‍तव में परस्‍पर शत्रुवत स्थिति में होते हैं। इन दोनों से इतर एक तीसरा पक्ष भी है। इसका अपना सच है। यह सच उन लोगों से जुड़ा है जो कनहर बांध के खिलाफ़ आंदोलन का नेतृत्‍व कर रहे हैं। ये वे लोग हैं जिनका बांध बनने से कोई निजी नुकसान तो नहीं हो रहा, लेकिन फिर भी वे बांध के खिलाफ और आदिवासी ग्रामीणों के साथ खड़े माने जाते हैं। रोमा इसी पक्ष की नुमाइंदगी करती हैं, लेकिन कनहर बांध के संबंध में उनकी सक्रियता बहुत पुरानी नहीं मानी जाती है।

बताते हैं कि कनहर नदी को बचाने के लिए बांध के विरोध में आंदोलन का आरंभ गांधीवादी कार्यकर्ता महेशानंद ने आज से पंद्रह साल पहले किया था। उनके लोग आज भी गांवों में आदिवासियों के बीच सक्रिय हैं लेकिन महेशानंद समूचे परिदृश्‍य से नदारद हैं। दिलचस्‍प बात यह है कि बांध-विरोधी ग्रामीणों से लेकर बांधप्रेमी प्रशासन तक महेशानंद के बारे में एक ही राय रखते हैं जो अकसर एक ही जैसे वाक्‍य में भी ज़ाहिर होती है, ''वो तो भाग गया।'' 18 अप्रैल की सुबह जब सोते हुए ग्रामीणों पर लाठियां बरसायी गयीं, उसके कुछ देर बाद सुन्‍दरी गांव में आंदोलन का महिला नेतृत्‍व मानी जाने वाली सुकालो ने फोन पर बताया था, ''यहां कोई लीडर मौजूद नहीं था। महेशानंद तो भाग गया है। कहीं छुपा हुआ है।'' भीसुर गांव के नौजवान शिक्षक उमेश प्रसाद कहते हैं, ''सब लीडर फ़रार हैं। गम्‍भीरा, शिवप्रसाद, फणीश्‍वर, चंद्रमणि, विश्‍वनाथ- सब फ़रार हैं। इसीलिए जनता परेशान है। पहले ये लोग महेशानंद के ग्रुप के थे, बाद में इसमें रोमा घुस गयीं।'' य‍ह पूछने पर कि यहां के लोग अपने आंदोलन का नेता किसे मानते हैं, उन्‍होंने कहा, ''यहां के लोग तो गम्‍भीराजी को ही अपना नेता मानते हैं, लेकिन उनको फरार मानकर ही चलिए। जब से आंदोलन बदरंग हुआ, रामप्रताप यादव जैसे कुछ लोग बीच में आकर समझौता कर लिए। महेशानंद भी समझौते में चले गए हैं। रोमाजी तो यहां हइये नहीं हैं, बाकी आंदोलन तो उन्‍हीं का है। उन्‍हीं के लोग यहां लाठी खा रहे हैं।''

आंदोलन के नेतृत्‍व के बारे में सवाल पूछने पर पुलिस अधीक्षक शिवशंकर यादव कहते हैं, ''महेशानंद आंदोलन छोड़कर भाग गए हैं। उन्‍होंने मान लिया है कि उनके हाथ में अब कुछ भी नहीं है। उनका कहना है कि बस उनके खिलाफ मुकदमा नहीं होना चाहिए। उनके जाने के बाद रोमाजी ने कब्‍ज़ा कर लिया है।'' आंदोलन पर ''कब्‍ज़े'' वाली बात इसलिए नहीं जमती क्‍योंकि लोग अब भी इसे रोमा का आंदोलन मानते हैं। ऐसा लगता है कि प्रशासन को दिक्‍कत दूसरी वजहों से है। यादव कहते हैं, ''महेशानंद बांध क्षेत्र से बाहर के इलाके में शांतिपूर्ण आंदोलन चलाते थे। इससे हमें कोई दिक्‍कत नहीं थी।'' प्रशासन को दिक्‍कत रोमा के आने से हुई। जिलाधिकारी संजय कुमार कहते हैं, ''रोमाजी बहुत अडि़यल हैं।'' वे इसके लिए ''पिग-हेडेड'' शब्‍द का इस्‍तेमाल करते हैं। वे कहते हैं, ''वे कहती हैं कि हमें बात करनी ही नहीं है... आप हमें गोली मार दीजिए, हम बांध नहीं बनने देंगे। उन्‍होंने संवाद की कोई जगह छोड़ी ही नहीं है। आखिर हम कहां जाएं?''

माना जाता है कि रोमा का यह समझौता नहीं करने वाला रवैया ही जनता को और महेशानंद के पुराने लोगों को उनके पाले में खींच लाया है। इसके अलावा महेशानंद के आंदोलन से हट जाने का लाभ कुछ दूसरे किस्‍म के समूहों ने भी उठाया है। मसलन, पीयूसीएल की राज्‍य इकाई से लेकर भाकपा(माले)-लिबरेशन और आज़ादी बचाओ आंदोलन के लोग भी अचानक इस आंदोलन में सक्रिय हो गए हैं। पड़ोस के सिंगरौली में महान के जंगल और नदी को बचाने के लिए अंतरराष्‍ट्रीय संस्‍था ग्रीनपीस के सहयोग से जिस महान संघर्ष समिति का गठन हुआ था, वह भी अब सोनभद्र के आंदोलन में जुड़ गयी है। ये सभी धड़े रोमा को आंदोलन का असली नेता मानते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि 14 और 18 अप्रैल को जब कनहर के आदिवासियों पर पुलिस का कहर टूटा, तब और उसके बाद भी रोमा वहां नहीं मौजूद रहीं क्‍योंकि उनके आते ही उन्‍हें गिरफ्तार कर लिया जाता। लोग इस बात को भी समझते हैं।

बांध के विरोध में अलग-अलग संगठनों का इतना बड़ा गठजोड़ बनने के जवाब में बांध समर्थक लोगों ने भी आंदोलन खड़ा कर दिया है। इस आंदोलन का नाम है ''बांध बनाओ, हरियाली लाओ''। दिलचस्‍प है कि इस आंदोलन में भाकपा(माले) के कुछ पुराने लोग शामिल हैं जिनमें अधिवक्‍ता प्रभु सिंह प्रमुख हैं। भीसुर गांव के रामप्रकाश कहते हैं, ''माले वाले भी हक के लिए ही लगे हुए हैं, लेकिन इनमें से कुछ लोग हैं जो बिचौलिये का काम कर रहे हैं। वे इधर भी हैं और उधर भी हैं।'' माले के एक स्‍थानीय नेता कहते हैं, ''हम लोग यहां स्थिति को ब‍हुत संभालने की कोशिश किए। रोमा तो हम लोगों के बाद आयीं और बने-बनाए आंदोलन में घुस गयीं।''

इस मामले में सबसे दिलचस्‍प पहलू यहां की विधायक रूबी प्रसाद से जुड़ा है। स्थानीय प्रशासन ने विधायक रूबी प्रसाद की अध्यक्षता में पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना के मसले पर 16 जून 2014 को ग्रामीणों की एक सभा बुलायी। तहलका में प्रकाशित ''कनहर कथा'' में अंशु मालवीय लिखते हैं, ''इस सभा में हजारों लोग मौजूद थे। मंच पर आकर सभी ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बांध के विरोध में बात रखी। यहां वक्ताओं में वे ग्राम प्रधान भी मौजूद थे जिन्होंने बांध के विरोध में प्रस्ताव पारित कर रखा है। अंत में मुख्यमंत्री को संबोधित एक ज्ञापन भी प्रशासन को सौंपा गया, लेकिन जब इस सभा की कार्यवाही की रपट प्रधानों के पास पहुंची तो वे चकित रह गए। इसमें सिर्फ सरकारी अधिकारी एवं विधायक के वक्तव्य थे। जनता के विरोध को उसमें जगह ही नहीं दी गई थी। इससे पता चलता है कि प्रशासन एवं सरकार एक कृत्रिम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है।''

रूबी प्रसाद की सभा में उठी ग्रामीणों की बांध के विरोध में आवाज़ों के चलते कई लोगों को यह भ्रम हुआ था कि विधायक खुद बांध के विरोध में हैं। पुलिस अधीक्षक यादव इसे साफ़ करते हुए कहते हैं कि रूबी प्रसाद तो बांध के समर्थन में हैं। लोगों को भ्रम है। विधायक ने खुद यादव से कहा था कि ''अगर आप खाली नहीं करवा पा रहे (बांध स्‍थल को प्रदर्शनकारियों से) तो कहिए हम करवा दें।'' यादव दावा करते हैं, ''सभी पार्टियों के लोग बांध के समर्थन में हैं। एक सौ एक परसेंट लोग चाहते हैं कि बांध बने।''

एक सौ एक परसेंट लोगों से यादव का आशय उन लोगों से है जिन्‍हें बांध के बनने से कोई नुकसान नहीं हो रहा। इसमें सरकार, प्रशासन, गैर-आदिवासी शहरी वर्ग और हर राजनीतिक दल शामिल है। ये सब बांध के समर्थन में एकजुट हैं, लिहाजा आदिवासी ग्रामीण बिलकुल अकेले पड़ गए हैं। कुल 22000 के आसपास इन आदिवासियों को कोई भी मनुष्‍यों के बीच नहीं गिन रहा। यह संख्‍या सिर्फ उनकी है जो उत्‍तर प्रदेश की सीमा में रहते हैं। कनहर की डूब में आने वाले छत्‍तीसगढ़ और झारखण्‍ड के गांवों को भी गिन लिया जाए तो 101 परसेंट का बर्बर चेहरा और साफ हो जाएगा। गोलीकांड के बाद कनहर के आदिवासियों की आखिरी उम्‍मीद रोमा, स्‍थानीय नेता गम्‍भीरा और शिवप्रसाद पर टिकी थी। रोमा मौके पर पहुंच पाने में असमर्थ हैं क्‍योंकि उन्‍हें जिला बदर कर दिया गया है जबकि गम्‍भीरा को 20 अप्रैल की रात इलाहाबाद से गिरफ्तार कर लिया गया जब वे पीयूसीएल के वकील रविकिरण जैन के घर गए हुए थे। गम्‍भीरा को वहां से सोनभद्र लाकर पूछताछ की गई और बाद में जेल भेज दिया गया।

बांध विरोधी आंदोलन में सक्रिय भीसुर के एक नौजवान दुखी मन से कहते हैं, ''आंदोलन की दिशा टूटने के कगार पर जा चुकी है। जनता बहुत चोटिल हो चुकी है। आधे लोग धरने से उठकर चले गए थे। उन्‍हें किसी तरह वापस लाया गया है। पूरा इलाका धारा 144 लगाकर सील कर दिया गया है। जैसे ही लोग जमा होते हैं, कोई न कोई पुलिस की मुखबिरी कर देता है।''

इस शहर में मुखबिरों की कमी नहीं है। हर आदमी एक संभावित मुखबिर है। सोनभद्र का शहरी समाज बिलकुल सिंगरौली की तर्ज पर विकसित हो रहा है जहां हर आदमी हर दूसरे आदमी को मुखबिर मानता है, हर कोई हर किसी पर अविश्‍वास करता है और छोटी-छोटी टुच्‍ची आकांक्षाओं व हितों का नतीजा अंतत: पुलिस की लाठी और गोली के रूप में दिखायी देता है जिसे ''लॉ ऑफ दि लैंड'' कह कर जायज़ ठहराया जाता है। ऐसा समाज बनाने में स्‍थानीय मीडिया की भूमिका सबसे ज्‍यादा नज़र आती है। सोनभद्र के प्रमुख अख़बारों में खबरों का प्रमुख स्रोत पुलिस और प्रशासन हैं। पत्रकार सच्‍चाई को सामने नहीं लाने के लिए कटिबद्ध हैं क्‍योंकि उनके अपने हित झूठ के कारोबार के साथ जुड़े हुए हैं। यही कारण है कि 14 और 18 अप्रैल की घटना के बाद आदिवासी ग्रामीणों के साथ हुई नाइंसाफी की ख़बर को इस कदर दबाया गया कि उसे सामने लाने के लिए दिल्‍ली से एक तथ्‍यान्‍वेषी दल को यहां आना पड़ा, जिसमें यह लेखक भी शामिल था।

इस तथ्‍यान्‍वेषी दल में कुल छह लोग थे- भाकपा(माले)-लिबरेशन की कविता कृष्‍णन, ग्रीनपीस की प्रिया पिल्‍लई, स्‍वतंत्र स्‍त्री अध्रिकार कार्यकर्ता पूर्णिमा गुप्‍ता, स्‍वतंत्र पत्रकार रजनीश, विंध्‍य बचाओ अभियान से देबोदित्‍य सिन्‍हा और यह लेखक। साथ में बनारस से पत्रकार सिद्धांत मोहन भी जुड़ गए थे। गोलकांड की सच्‍चाई को दबाने के लिए स्‍थानीय प्रशासन किस हद तक जा सकता है, उसका पता इस दल के सामने खड़ी की गयी मुश्किलों और इसके उत्‍पीड़न से लगता है। इस दल ने 19 अप्रैल की सुबह बनारस में भर्ती अकलू चेरो से मुलाकात कर के उसका बयान दर्ज किया, जिसके सीने में 14 को गोली लगी थी। इसके बाद शुरू हुआ पुलिसिया निगरानी का सिलसिला, जो अगले दिन वापसी तक लगातार जारी रहा।

बनारस से रॉबर्ट्सगंज के बीच 19 अप्रैल को कड़ा पहरा था। हमारी गाड़ी को रास्‍ते में तीन बार रोकर जांचा गया। किसी तरह सूरज ढलते-ढलते दुद्धी के गांवों में जब दल ने प्रवेश किया, तो उसे बिलकुल अंदाज़ा नहीं था कि आगे क्‍या होने वाला है। कोरची से कुछ दूरी पर बघाड़ू नाम का एक गांव है। यह गांव आधा डूब में आता है। यहीं पर शाम सात बजे के आसपास दल के सदस्‍य एक चाय की दुकान के बाहर बैठकर सुस्‍ता रहे थे कि जंगल के घुप्‍प अंधेरे में अचानक पुलिस की कुछ गाडि़यां आकर रुकीं। अचानक कुछ पुलिसवाले एक सादे कपड़े वाले अफसर के नेतृत्‍व में नीचे उतरे और उन्‍होंने पूछताछ शुरू कर दी। सादे कपड़े वाले अफसर ने अपना परिचय नहीं बताया, अलबत्‍ता उसकी गाड़ी पर उपजिला मजिस्‍ट्रेट अवश्‍य लिखा हुआ था। पहले पूछा गया कि आप यहां क्‍या कर रहे हैं। फिर कहा गया कि यह नक्‍सली इलाका है और वे हमारी सुरक्षा करने आए हैं। उसके बाद कविता कृष्‍णन पर मोबाइल से रिकॉर्डिंग करने का आरोप लगाते हुए सादे कपड़े वाले अफसर ने कहा, ''ज्‍यादा होशियारी मत दिखाइए वरना बेइज्‍जत हो जाएंगी।'' ऐसा कहते हुए उसने कविता औश्र दल की महिला सदस्‍यों के साथ बदतमीज़ी की और मोबाइल छीनने की कोशिश की। दल के सदस्‍य देबोदित्‍य सिन्‍हा ने जब इस कार्रवाई पर आपत्ति जतायी तो अफसर ने कहा, ''यही नक्‍सली है। इसे अंदर करो।'' कुछ हस्‍तक्षेप के बाद जब यह मामला ठंडा हुआ तो पुलिस ने दल के ड्राइवर को पकड़कर उसे धमकाना शुरू किया। बड़ी मुश्किल से उसे छुड़ाया गया तो कथित मजिस्‍ट्रेट ने सामान की तलाशी के आदेश दे डाले। एसडीएम की मौजूदगी में पुलिसवालों ने एक-एक कर के सबका सामान जांचना शुरू किया। जब दल की महिलाओं ने पुरुषों द्वारा महिलाओं के सामान की जांच पर आपत्ति जतायी, तब महिला सिपाहियों को बुलाने के लिए वायरलेस करने की बात कही गयी लेकिन अंत तक कोई नहीं आया।

छत्तीसगढ़ की सीमा से महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर अंधेरे जंगल में पुलिस का व्‍यवहार ऐसा था जैसे आतंकवादियों के साथ किया जाता है। तकरीबन एक घंटे तक पुलिस ने दल को हिरासत में रखा। कथित मजिस्‍ट्रेट का आग्रह था कि दल को दुद्धी थाने ले जाकर पूछताछ की जाए। जब दल ने जिलाधिकारी को भेजे पत्र की प्रति दिखायी, तब अचानक खुद को मजिस्‍ट्रेट कह रहा सादे कपड़ों वाला शख्‍स कहीं गायब हो गया और एक सभ्‍य पुलिस इंस्‍पेक्‍टर जाने कहां से आ गया। इस दौरान घटना की सूचना बड़े पैमाने पर फोन और एसएमएस से फैलायी जा चुकी थी। कुछ पत्रकारों ने सोनभद्र के डीएम को फोन भी कर दिया था। इस दबाव में इंस्‍पेक्‍टर ने माना कि प्रशासनिक स्‍तर पर दल के आने की सूचना को निचले अधिकारियों तक नहीं भेजा गया था और यह एक चूक है। इसके बावजूद दल को गांव में रुकने से मना किया गया और नक्‍सलियों सुरक्षा के नाम पर खदेड़ कर दुद्धी तहसील तक ले आया गया।

बाज़ार में पुलिस की गाडि़यां नदारद हो गयीं और अचानक खुद को एसडीएम बताने वाले एक और अधेड़ शख्‍स सादे कपड़ों में अवतरित हुए। आखिर जंगल में मिला खुद को मजिस्‍ट्रेट कहने वाला वह शख्‍स कौन था? इसका पता अब तक नहीं चल सका है। बार-बार कहने पर जिलाधिकारी ने भी उसकी पहचान उजागर नहीं की। बहरहाल, रात में दुद्धी के जिस डीआर पैलेस नामक होटल में कमरा देखा गया, उसने भोजन के बाद कमरा देने से इनकार कर दिया। उसके ऊपर संभवत: कोई दबाव था, जिसका उद्घाटन सवेरे हुआ। रात में खुद को होटल का मालिक बताने वाले मनोज जायसवाल नाम के व्‍यक्ति से बातचीत कर के रुकने का इंतज़ाम हुआ लेकिन रात भर होटल की गश्‍त लगने की आवाज़ें आती रहीं। सवेरे पता चला कि रात में होटल में मौजूद कर्मचारी के पास थाने से दो बार फोन आए थे और पुलिसवाले भी वहां पहुंचे थे।

अगले दिन सुबह होटल से बाहर निकलते ही दल को पुलिस ने घेर लिया। डीएस यादव नाम के पुलिसकर्मी ने दल के ऊपर लौट जाने का भारी दबाव बनाया। यह दल जब घायलों से मिलने अस्‍पताल पहुंचा तो वहां पुलिस ने भीतर जाने से रोकते हुए धारा 144 का हवाला दिया। डीएम से फोन पर बातचीत के बाद भीतर जाने की अनुमति तो मिली, लेकिन असली दृश्‍य अभी बाकी था। थोड़ी देर बाद एक दो सितारा पुलिसकर्मी देवेश मौर्य एक उत्‍तेजित भीड़ को लेकर विजयी भाव में अस्‍पताल पहुंचे। यह भीड़ भड़काऊ नारे लगा रही थी और किसी तरह दल को बाहर निकालने पर आमादा थी। ''एनजीओ वापस जाओ'', ''विकास विरोधी मुर्दाबाद'', ''आइएसआइ एजेंट वापस जाओ'', ''मारो जुत्‍ता तान के'', आदि नारे लगाने वाले करीब डेढ़ सौ लोग थे जिन्‍होंने अस्‍पताल को घेर लिया था। पुलिस वालों में इस भीड़ में दोगुनप उत्‍साह आ गया था। संदीप कुमार राय नाम के एक पुलिसकर्मी ने पत्रकार सिद्धांत मोहन से चुटकी लेते हुए कहा, ''सबका समय आता है। कल तक आपका था, आज हमारा समय है।'' यह भीड़ पूरी तरह पुलिस की ओर से प्रायोजित थी जिसमें बाज़ार के लोग, व्‍यापारी, वकील और ठेकेदार शामिल थे जो बांध समर्थक हैं।

एक बार फिर डीएम के हस्‍तक्षेप के बाद पुलिस ने उग्र भीड़ को पीछे धकेला और तकरीबन दो घंटे तक दल को अस्‍पताल में बंधक बनाए रखने के बाद उसकी गाड़ी तक पुलिस संरक्षा में छोड़ा गया। इसके बावजूद एसडीएम की जिस गाड़ी में दल के सदस्‍यों को उनके होटल तक ले जाया गया, उस पर पीछे से जूते और चप्‍पल फेंके गए। दो बजे रॉबर्ट्सगंज में डीएम से बैठक थी। वहां जाते वक्‍त हाथीनाला पर एक बार फिर दल को पुलिस ने रोका और सबके नाम लिखवाए। डीएम से इन घटनाओं की बाबत पूछे जाने पर संक्षिप्‍त-सा जवाब मिला, ''अगर अभद्रता हुई है तो आइ फील सॉरी फॉर इट।''

पुलिस अधीक्षक का कहना था कि ''आपको इलाके में चुपके-चुपके नहीं जाना चाहिए था।'' जब ईमेल से भेजे गए पत्र का हवाला दिया गया तो यादव बोले, ''ईमेल की क्‍या विश्‍वसनीयता है?'' जांच दल की महिलाओं के साथ हुए दुर्व्‍यवहार पर यादव ने कहा, ''अगर आपने बता दिया होता कि पत्रकार हैं तो कोई दिक्‍कत नहीं होती।'' यह पूछे जाने पर कि क्‍या इसका मतलब यह माना जाए कि आपको सामाजिक कार्यकर्ताओं से दिक्‍कत है, तो यादव ने सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति खुले तौर पर अपना विद्वेष जाहिर किया। बाद में निजी बातचीत में यादव ने कहा, ''हमें गुप्‍तचर विभाग से सूचना मिली थी कि दिल्‍ली से जो टीम आ रही है, वह गांवों में जाकर लोगों को संगठित करने का काम करेगी।''
जांच दल से मुलाकात के बाद 20 अप्रैल की देर शाम जिलाधिकारी संजय कुमार ने एक प्रेस नोट जारी किया। उसमें लिखा है:
''वाकई 'कनहर सिंचाई परियोजना' के विस्थापितों को सभी अनुमन्य सुविधाएं दी जाएंगी। किसी विस्थापित को विस्थापन राशि के लिए भटकना नहीं होगा। डूब क्षेत्र के सुन्दरी, भीसुर, कोरकी, कुदरी, बड़खोरा आदि गांवों में कैम्प लगाकर दस दिनों के अन्दर चेक वितरण का कार्य किया जाएगा।'' उक्त बातें जिलाधिकारी श्री संजय कुमार ने कनहर सिंचाई परियोजना के डूब के गांव सुन्दरी के प्राथमिक विद्यालय प्रांगण में वरिष्‍ठ सपा नेता इस्तयाक अहमद की पहल पर कनहर विस्थापितों के साथ खुली बातचीत/बैठक में कहीं।
''जिलाधिकारी श्री कुमार ने मौके पर मौजूद राबर्ट्सगंजजिलाध्यक्ष समाजवादी पार्टी अविनाश कुशवाहा, जिला महासचिव विजय यादव, विधानसभा अध्यक्ष दुद्धी श्री अवध नारायण यादव, जुबैर आलम, डा. लवकुश प्रजापति, तकरार अहमद, नूरूल हक सदर, चन्द्रमणि, ग्राम प्रधान कुदरी इस्लाउद्दीन, ग्राम प्रधान सुन्दरी राम प्रसाद, प्रधान कोरची रमेश कुमार, प्रधान भीसुर परमेश्‍वर यादव के सार्थक प्रयासों की तारीफ करते हुए सारा श्रेय ग्रामीणों/विस्थापितों को दिया।''

अगले दिन इस प्रेस नोट को सारे स्‍थानीय अखबारों ने प्रमुखता से छापा, लेकिन किसी ने भी यह सवाल पूछने की ज़हमत नहीं उठायी कि जिलाधिकारी की इस बैठक में समाजवादी पार्टी के वे तमाम नेता क्‍यों मौजूद थे जो उसी सुबह दुद्धी अस्‍पताल के बाहर जांच दल के खिलाफ नारा लगाते और गाली देते पाए गए थे। 22 अप्रैल के अखबारों में यह ख़बर तो छपी कि सुन्‍दरी गांव में सर्वे का काम शुरू हो गया है, लेकिन किसी ने भी यह सूचना मिलने के बावजूद छापने की ज़हमत नहीं उठायी कि अकलू के साथी लक्ष्‍मण और अशर्फी जिन्‍हें 14 के बाद से लापता बताया जा रहा था, वे मिर्जापुर जेल में हैं। अलबत्‍ता जो खबरें छापी गयीं उनका शीर्षक कुछ ऐसे था:

1. कनहर बांध के निर्माण ने अब पकड़ी रफ्तार (हिन्‍दुस्‍तान)
2. कनहर परियोजना मार्च 2018 तक होगी पूरी (हिन्‍दुस्‍तान)
3. पुलिस पर हमले का मुख्‍य आरोपी गिरफ्तार (दैनिक जागरण, गम्‍भीरा प्रसाद की खबर)
4. सुंदरी गांव में शुरू हुआ सर्वे (दैनिक जागरण)
5. एसडीएम, कोतवाल का हमलावर बंदी (अमर उजाला, गम्‍भीरा प्रसाद की खबर)

इनके अलावा एक अप्रत्‍याशित खबर सभी अखबारों के सोनभद्र संस्‍करण में 22 अप्रैल को प्रकाशित हुई:
 ''खनन हादसे में दो खान अफसरों समेत आठ फंसे''
 यह खबर 27 फरवरी 2012 को बिल्‍ली-मारकुंडी खनन क्षेत्र में हुए एक हादसे की मजिस्‍ट्रेटी जांच से जुड़ी है जिसमें 11 मजदूर मारे गए थे। लंबे समय से इाकी जांच चल रही थी लेकिन अचानक इस जांच को पूरा कर के जिलाधिकारी संजय कुमार ने रिपोर्ट पेश कर दी जिसमें दो खन अधिकारी, एक डीएफओ और आठ लोगों को दोषी बना दिया गया है। स्‍थानीय अखबार ''वनांचल एक्‍सप्रेस'' के संपादक शिवदास का कहना है, ''यह रिपोर्ट इसलिए लायी गयी है ताकि कनहर में हुए गोलीकांड पर परदा डाला जा सके और प्रशासन की साफ-सुथरी छवि को सामने लाकर आदिवासियों के दमन पर उठी ताज़ा बहस को कमजोर किया जा सके।''

कनहर की जटिल कहानी यहीं रुकने वाली नहीं है। बांध पर लगातार काम जारी है। इलाके में पुलिस बल बढ़ा दिया गया है। जांच दल के आने से जो खबरें और तस्‍वीरें बाहर निकल पायी हैं, उनसे प्रशासन बहुत चिंतित है क्‍योंकि मामला सिर्फ एक अवैधानिक बांध बनाने का नहीं बल्कि पैसों की भारी लूट और बंटवारे का भी है जिसके सामने आने का डर अब पैदा हो गया है। इसके अलावा जांच दल की वापसी के बाद कनहर की ओर राष्‍ट्रीय मीडिया ने भी अपना रुख़ कर लिया है। एनडीटीवी ने छोटी ही सही लेकिन एक अहम खबर आदिवासियों के दमन पर 21 अप्रैल को प्रसारित की है। जांच दल से दुर्व्‍यवहार की खबरें अंग्रेज़ी के अखबारों में आने के बाद उम्‍मीद बंधी है कि कि शायद यह मामला आने वाले दिनों में राष्‍ट्रीय फ़लक पर उठ सकेगा।

इस दौरान कनहर के आदिवासियों के लिए सोशल मीडिया पर अच्‍छा-खासा समर्थन जुटा है। वरिष्‍ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्‍तव ने कनहर गोलीकांड पर फेसबुक पर जो लिखा है, सोन नदी के ऊपर फैले अभद्रता के राज पर उससे बेहतर लिखना मुमकिन नहीं:
''यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बर्लिन से ट्वीट कर चिंता ज़ाहिर की है हेम्बोल्ट विश्वविदयालय के अभिलेखागार से लोहिया जी की वह थीसिस ग़ायब है जिस पर उन्हें डॉक्टरेट दी गयी थी। ख़बर सुनते ही तमाम समाजवादी पत्रकार और लोहियावादी सोशल मीडिया पर रोना-पीटना मचाने लगे हैं। उन सबके लिए सूचना है कि डॉक्टर लोहिया की थीसिस अधबने कनहर बाँध में ख़ून से लिथड़ी पड़ी है। कुछ पन्ने सोनभद्र पुलिस की संगीनों पर भी चिपके दिखे हैं। दम हो तो बचा लें समाजवादी थीसिस को!''

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