03 फ़रवरी 2015

दिल्ली में कांग्रेस यानी डूबने-उबरने का आख्यान


-दिलीप ख़ान

(24 जनवरी को ये लेख मासिक 'सबलोग' के लिए लिखा गया। दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस की हालत की पड़ताल इसमें की गई है।)

माकन के सर पर हिमालय-सा बोझ
पिछले दिल्ली चुनाव में अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस के लिए उसके बाद लगातार झटके मिलते रहे हैं। लोक सभा चुनाव में 44 सीटों पर सिमटने के बाद केंद्र में सत्ता का तक़रीबन पर्याय बन चुकी इस पार्टी के पूरे तौर-तरीके में ज़बर्दस्त मायूसी पसरी हुई दिख रही है। दिल्ली में पिछले एक साल से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली लगातार अलग-अलग मुद्दों पर प्रदर्शन करते हुए अपनी पार्टी के लिए खोया हुआ जनाधार जुटाने की कोशिश करते तो दिखे, लेकिन जैसे ही चुनाव की घोषणा हुई प्रचार के मोर्चे पर बीजेपी और आम आदमी पार्टी की तुलना में कांग्रेस कहीं नहीं दिख रही। आख़िर वजह क्या है? क्या 2004 का लोक सभा चुनाव लड़ने के बाद दिल्ली की स्थानीय राजनीति से ऊपर उठ चुके अजय माकन का अचानक पूरे परिदृश्य में उतरने के बाद नई शैली को आजमाने का इरादा पार्टी ने बनाया? सवाल और भी हैं। 

पिछले चुनाव में जब कांग्रेस को 8 सीटों पर सिमटना पड़ा था तो उस सत्ता विरोधी लहर में भी 30 हज़ार से ज़्यादा वोटों से जीतने वाले कांग्रेस के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली को टिकट देने की बजाय उनके हाथों प्रचार का ज़िम्मा सौंपकर क्या कांग्रेस अपनी पूरी मरम्मत करना चाहती है? 8 में से उन 5 सीटों पर पिछली बार कांग्रेस को जीत मिली जहां अल्पसंख्यकों की तादाद ज़्यादा हैं। क्या इस बार अल्पसंख्यकों का भरोसा पार्टी जीत पाएगी?

दिल्ली में इस वक़्त (लेख लिखे जाने तक) जो हालात हैं उसमें आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच सीधी टक्कर दिख रही है और किसी भी चमत्कार की उम्मीद को दरकिनार करते हुए ये माना जा रहा है कि कांग्रेस तीसरे स्थान से बेहतर प्रदर्शन करने की हालत में नहीं है। फिर भी, चांदनी चौक लोक सभा के दायरे में आने वाली मटियामहल विधान सभा सीट पर पिछला चुनाव जनता दल (यूनाइटेड) के टिकट से जीतने वाले शोएब इक़बाल ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है। बिल्कुल चुनावी सीज़न में। जदयू से कांग्रेस में ना सिर्फ़ इक़बाल शामिल हुए बल्कि मुंडका से निर्दलीय जीतने वाले रामबीर शौकीन भी कांग्रेस में आ गए हैं। इन सब समीकरणों का कांग्रेस के लिहाज से क्या मायने हैं?

शीला दीक्षित को घोषणापत्र बनाने में भी जगह नहीं दी गई
प्रचार समिति के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस की तरफ़ से अजय माकन इस चुनाव में पार्टी के आधिकारिक चेहरे हैं। शीला दीक्षित को सिर्फ़ प्रचार का ज़िम्मा दिया गया है। घोषणापत्र बनाने में भी दीक्षित को नहीं रखा गया। ए के वालिया को इसकी ज़िम्मेदारी मिली। शीला दीक्षित पर पिछले चुनाव में आक्रामक तेवर अख़्तियार करने वाले अरविंद केजरीवाल को दोबारा ये मौक़ा नहीं देने के उद्देश्य से उन्हें मुख्य भूमिका नहीं दी गई या फिर कांग्रेस यहां नया नेतृत्व खड़ा करना चाहती है?नेतृत्व का सवाल इसलिए अहम है क्योंकि ये सिर्फ़ मौजूदा चुनाव भर का मामला नहीं है बल्कि जिस तरह दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी का आगमन हुआ उसके बाद चुनावी मैदान में बाइनरी मुक़ाबले का दौर भी ख़त्म हो गया, जिसमें कांग्रेस के सामने सिर्फ़ बीजेपी थी। केंद्रीय राजनीति में सबसे बुरी हार देखने वाली कांग्रेस के कई नेताओं ने धीरे-धीरे पार्टी का हाथ छोड़ कर दिया और कुछ छोड़ने के संकेत दे रहे हैं। लेकिन इसी दौर में क्या कांग्रेस के कुछ कद्दावर नेता केंद्रीय सत्ता से दूर होने के बाद स्थानीय ज़मीन पकड़कर अपनी टिकाऊ राजनीति करना चाहते हैं?

अजय माकन को लोक सभा चुनाव में नई दिल्ली सीट पर तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा था। पार्टी में अब भी वो कई मामलों में निर्णायक भूमिका में हैं, लेकिन अगर उनकी अगुवाई में कांग्रेस ज़रा भी अपने पुराने नतीजे में सुधार कर पाई तो नीतिगत मामलों में वो अगली पांत में खड़े हो जाएंगे। कांग्रेस के इतिहास की जानकारी जिन नेताओं के पास है वो जानते हैं कि डूबते-डूबते ये पार्टी कई बार फिर से अमरबेल की तरह पनपी है क्योंकि पुराने भरोसे और कई प्रदेशों में विकल्पहीनता की स्थिति में लोगों ने अंतत: कांग्रेस पर भरोसा जताया। शोएब इक़बाल और रामबीर शौकीन के कांग्रेस में शामिल होने को इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए। शोएब इक़बाल पांच बार सांसद रहे हैं और वो प्रदेश की राजनीति को लंबे समय से जानते हैं। जनता दल, जनता दल (एस) और जदयू के प्रतिनिधि के तौर पर वो लगातार विधान सभा तो पहुंचते रहे, लेकिन दिल्ली के भीतर इस पार्टी के भविष्य को देखते हुए इक़बाल के पास बहुत कुछ हासिल होने की उम्मीद नहीं थी। 

मटियामहल से इस बार कांग्रेस से अगर वो जीतते हैं तो इसका कई मोर्चों पर वो फ़ायदा उठाने की स्थिति में होंगे। अपने अनुभव के दम पर कांग्रेस के भीतर उन्हें बेहतर ज़िम्मेदारी मिल सकती है जो जदयू में मुमकिन नहीं था। दूसरा, मटियामहल इकलौती सीट है जहां बीजेपी को भी मुस्लिम उम्मीदवार उतारना पड़ा। अल्पसंख्यकों के भीतर इस बार वोट का बड़ा हिस्सा आम आदमी पार्टी की तरफ़ मुड़ जाने की बात कई जानकार बता रहे हैं। लिहाजा, कांग्रेस और ‘आप’ के बीच की टक्कर में अगर शोएब ने कांग्रेस खेमे में जाकर अपनी पुरानी जान-पहचान को वोट में तब्दील किया तो कांग्रेस उनके लिए बेहतर प्लेटफॉर्म बन जाएगी।

दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस के लिए यही दोहरी स्थिति पनप रही है। पार्टी मुक़ाबले में है भी नहीं और कुछ लोग इस बुरे दौर में कांग्रेस को प्लेटफॉर्म मानकर भविष्य की मज़बूती देख रहे हैं। लेकिन असल सवाल तो ये हैं कि मोटे तौर पर इस चुनाव में कांग्रेस कहां खड़ी है और उसकी क्या रणनीति है? क्या कांग्रेस की राजनीति के तौर-तरीक़ों में पहले के मुक़ाबले बदलाव आया है? अजय माकन जिस दिन नामांकन भरने जा रहे थे तो उन्होंने जनसभा की। जनसभा में भाषणों और उनके बयानों से ज़्यादा जिस चीज़ पर ग़ौर किया जाना चाहिए था वो थी उनके सिर पर हाथ छाप और कांग्रेस लिखी टोपी। ये पारंपरिक ‘कांग्रेसी टोपी’ से अलग थी। ये आम आदमी पार्टी की शैली वाली टोपी थी। यानी कांग्रेस अपने वोट का दायरा जिन वर्गों के बीच देख रही है उसमें इसे असल टक्कर ‘आप’ से ही मिलती दिख रही है। बीजेपी को जिन तबकों का वोट मिलता रहा है उसको हथियाने में कांग्रेस फ़िलहाल तो असफ़ल मालूम पड़ती है क्योंकि नरेन्द्र मोदी की छवि के पीछे मध्य वर्ग का बड़ा तबका जिस तरह अभी भी लहालोट है वैसे में कांग्रेस वापस अवैध कॉलोनियों, बिजली, पानी और ठेका-मज़दूरी के प्रश्न पर टिक गई है।

चुनाव लड़ने के बदले प्रचार का ज़िम्मा
पिछली बार की तुलना में कांग्रेस ने तरीके तो बदले हैं लेकिन पूरी भाव-भंगिमा ऐसी है जैसे हारने का नतीजा पार्टी को पहले से पता हो। ना प्रचार में चुस्ती, ना पुरानी आक्रामकता और ना ही नेताओं में आत्मविश्वास। राहुल गांधी और सोनिया गांधी के साथ-साथ 100 से ज़्यादा प्रचारकों की सूची तो माकन ने बना ली, लेकिन जनवरी के लगभग आख़िर तक गांधियों की कोई चुनावी सभा और रैली नहीं हो पाई। पिछली बार जिस तरह ख़ाली कुर्सियों के सामने राहुल गांधी को भाषण देना पड़ा था उस लिहाज से पार्टी शायद भविष्य के लिए उन्हें बचा लेना चाहती है। अरविंदर सिंह लवली जैसे नेताओं को चुनाव ना लड़ाकर प्रचार के मैदान में उतारना शायद इसी रणनीति का हिस्सा है। 

हालांकि इस बार लवली की तरह बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय भी चुनाव नहीं लड़ रहे और दोनों पार्टियों का दावा है कि उनके अध्यक्ष सभी 70 सीटों पर निगरानी रख रहे हैं। लेकिन, इसके बावजूद मौजूदगी दर्ज कराने के लिए दोनों के समर्थकों ने टिकट ना मिलने के चलते ‘नाराजगी’जताते हुए पार्टी दफ़्तरों पर विरोध प्रदर्शन किया। लवली का एक समर्थक तो बिजली के टावर पर चढ़कर कूदने की धमकी भी दे रहा था। क्या टावर पर चढ़ा वो आदमी दिल्ली के भीतर कांग्रेस की पतली होती हालत का रूपक है?

ज़मीनी प्रचार में भले ही कांग्रेस पिछड़ती रही, लेकिन घोषणापत्र सबसे पहले जारी कर एक बढ़त बनाने की कोशिश की गई। दिलचस्प ये है कि कांग्रेस के घोषणापत्र का आधा हिस्सा आम आदमी पार्टी और आधा हिस्सा बीजेपी जैसा लग रहा था। मिसाल के लिए 200 यूनिट तक बिजली के दाम 1.50 रुपए करने से लेकर मुफ़्त सीवर देने जैसे कांग्रेस से वादों के बाद आम आदमी पार्टी के संजय सिंह ने बाक़ायदा प्रेस कांफ्रेस करके ये कह दिया कि ये मुद्दा उनकी पार्टी है जिसको कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में जगह दी है, लेकिन जनता आम आदमी पार्टी में ही भरोसा जताएगी। मेट्रो से लेकर अस्पताल जैसे जो मुद्दे कांग्रेस के घोषणापत्र में हैं वो मध्य या उच्च मध्य वर्ग को लुभाने वाले हैं। तो क्या कांग्रेस बीजेपी और ‘आप’ के बीच संतुलन बनाते हुए सत्ता के लिए बीच का रास्ता पकड़ना चाहती है? 

क्या इस देश की राजनीति में सबसे लंबी सक्रियता के बावजूद कांग्रेस अपनी मज़बूत लकीर खींच पाने में अक्षम हो चली है? दिल्ली के भीतर बीजेपी और आप को लेकर कांग्रेस तीखी भी रही। दोनों पर हवाई वायदे करने के आरोप कांग्रेस ने लगातार लगाए और ये भी कहा कि कांग्रेस ही इक़लौती पार्टी है जो ऐसे वायदे कर रही है जिसे डेलिवर करना मुमकिन है। हालांकि कांग्रेस के पास बयानों में ये आक्रामकता जताने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है क्योंकि इस बार खोने के लिए पार्टी के पास ज़्यादा है नहीं। अल्पसंख्यकों के वोट में आम आदमी पार्टी ने सेंधमारी कर ली और पार्टी का एक दलित चेहरा कृष्णा तीरथ अचानक खेमा बदल कर पटेल नगर से बीजेपी की उम्मीदवार बन गई। ये वो तबके हैं जो बीजेपी की बजाय कांग्रेस में भरोसा जताते आए हैं, लेकिन कांग्रेस ये जानती है कि अगर दिल्ली में इस बार पिछले परिणाम को भी बचाने में असफ़ल रही तो अगले कई वर्षों तक दिल्ली में भी वही हालात बन जाएंगे जैसा बिहार या उत्तर प्रदेश में बने।

केजरीवाल फेनोमिना को जिस तरह पिछले चुनाव में कांग्रेस ने नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की उसके नुकसान का आकलन पता नहीं पार्टी ने किया या नहीं, लेकिन इस बार चुनाव आयोग के सामने केजरीवाल को लेकर शिकायतों में कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा तत्परता दिखाई। यानी कांग्रेस अरविंद केजरीवाल को लेकर ज़्यादा चिंतित है और उसकी चिंता का असल कारण यही है कि दिल्ली के परिदृश्य में यही वो पार्टी है जिसने कांग्रेस के वोट का मोटा हिस्सा ‘चुरा’ लिया। बीजेपी पहले भी थी और अब भी है। तो लड़ाई में पैनापन बीजेपी के ख़िलाफ़ लाए या आम आदमी पार्टी के ख़िलाफ़, ये कांग्रेस के लिए चुनावी रणनीति का बड़ा सवाल है। 

लेकिन, आलम ये है कि ऐसी रणनीतियों पर विचार करने में ही कांग्रेस के हाथों प्रचार का ज़्यादातर वक़्त फ़िसल गया और मैदान में मौजूदगी से ज़्यादा रणनीति बनाने में ही पार्टी लगी रह गई। चेहरे के चुनाव में तब्दील हुआ दिल्ली का ये चुनाव हाल के वर्षों का पहला चुनाव है जिसमें सभी तीनों पार्टियों ने अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर अपने-अपने मुख्यमंत्रियों के दावेदारों को सामने कर दिया। लोकसभा चुनाव में सिर्फ़ बीजेपी के पास मोदी थे, लेकिन यहां आम आदमी पार्टी के पास केजरीवाल, बीजेपी के पास पहले मोदी फिर बेदी और कांग्रेस के पास अजय माकन हैं। 

लेकिन, पिछले दो साल में दिल्ली की राजनीति जिस धुरी पर घूमती रही है वो अन्ना हज़ारे के बाद का शुरू हुआ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उससे उपजे अरविंद केजरीवाल हैं। लिहाजा चेहरे की दावेदारी ‘आप’ के पास भी है और उसी आंदोलन की जड़ से निकली किरण बेदी के रूप में बीजेपी के पास भी, लेकिन अजय माकन की लंबी राजनीतिक यात्रा के बावजूद फ़ौरी मसलों पर दिल्ली की राजनीति के साथ जनता उनको कितना कनेक्ट करेगी ये फ़रवरी महीने में ही सबको मालूम पड़ सकेगा।

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