-दिलीप ख़ान
अभी टीवी मीडिया में विज्ञापन की सीमा को लेकर भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण के प्रस्ताव को दो साल भी नहीं हुए थे कि नए सूचना और प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने इसको लागू करने पर अनचाहापन जाहिर किया। जेटली के मुताबिक़ ऐसा करना अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ धोखा होगा। पहला जे एस वर्मा स्मृति संबोधन देते हुए उन्होंने कहा कि टीवी न्यूज़ मीडिया के लिए प्रति घंटे अधिकतम 12 मिनट विज्ञापन दिखाने की बाध्यता अंतत: संविधान के अनुच्छेद 19(1) के साथ मेल नहीं खाती। ट्राई ने 2013 के मार्च महीने में सारे टीवी न्यूज़ चैनलों को एक एक नोटिस दिया था कि अक्टूबर 2013 से प्रति घंटे 12 मिनट से ज़्यादा विज्ञापन नहीं दिखाए जा सकते। उस वक़्त ब्रॉडकास्टरों ने अपने राजस्व में कमतरी का तर्क देते हुए कहा था कि इतनी कम समयावधि में अगर इसे लागू किया गया तो सारे न्यूज़ चैनल घाटे में चले जाएंगे।
मूल रूप से राष्ट्रीय सहारा में छपा लेख |
मंत्रालय ने इसके लिए दिसंबर 2014 तक के लिए समय सीमा बढ़ाई जब तक डिज़िटाइजेशन की प्रक्रिया पूरा करने का मंत्रालय ने लक्ष्य रखा था। डिज़िटाइजेशन के साथ इसको लागू करने का तर्क ये था कि एक बार अगर ये प्रक्रिया पूरी होती है तो राजस्व का जो हिस्सा चैनलों को विज्ञापन से हासिल होता है उसका बड़ा टुकड़ा सब्सक्रिप्शन पर शिफ्ट हो जाएगा। यानी सेट टॉप बॉक्स और सब्सक्रिप्शन के ज़रिए चैनलों को होने वाली मात्र 10 फ़ीसदी की आमदनी बढ़कर 30-40 फ़ीसदी के स्तर तक पहुंच जाएगी। लेकिन ना ये पूरा हुआ और ना ही विज्ञापन की समय सीमा निर्धारित हो पाई। सब्सक्रिप्शन के चलते ग्राहकों पर तो बोझ बढ़ गया लेकिन ना ही उनके सामने टीवी स्क्रीन पर विज्ञापन कम हुए ना ही पुरानी दर में न्यूज़ देखा मुमकिन हो पाया।
पूरे मीडिया उद्योग में ये अफ़वाहें तैरती रही कि ट्राई का ये नियम 'नया' और प्रतिकामी है। हक़ीकत ये है कि केबल टेलीविज़न नेटवर्क्स रूल्स 1994 के तहत ही उसने चैनलों को ये हिदायत दी थी। इस सरकारी क़ानून को मंत्रालय ने जब मंजूर किया है तो फिर मंत्रालय इसको लागू कराने के प्रति गंभीरता क्यों नहीं दिखा रहा? अगर नियम में कोई पेंच है तो उसमें संशोधन होना चाहिए या पूरे क़ानून को निरस्त कर देना चाहिए फिर नियम लागू होना चाहिए। लेकिन हो ये रहा है कि क़ानून भी है क़ानून का पालन भी नहीं हो रहा। उसी अधिनियम में एडवर्टाइज़मेंट कोड ऑफ़ टीवी नेटवर्क (विनियमन) रूल 1994 के तहत ये भी चर्चा की गई है कि टीवी में दिखाए जाने वाले विज्ञापन इस तरह के होंगे ताकि वो उसके मुख्य विषय सामग्री से अलग दिखे। क्या टीवी में इस नियम को फॉलो किया जाता रहा है?
अगर नहीं, तो इस पर मंत्रालय ने क्या कार्रवाई की? निर्मल बाबा का प्रायोजित शो (विज्ञापन) जब चैनलों के लिए झमाझम टीआरपी का ज़रिया बना तो एक के बाद एक चैनलों पर उसका प्रसारण शुरू हुआ। उसमें स्क्रीन पर बेहद छोटे अक्षर में चालाकी बरतते हुए एडीवीटी (Advt.) लिखा होता था जिसे किसी दर्शक के लिए देख पाना मुश्किल था। तमाम आलोचनाओं के बाद इस शो को कुछ चैनलों ने बंद कर दिया और जो चलाते रहे उन्होंने एडीवीटी का फोंट बढ़ा दिया।
विज्ञापन के मोर्चे पर नियम-क़ायदे को लागू करने का मामला अभिव्यक्ति की आज़ादी से टकराव का मामला नहीं है। किसी भी टीवी न्यूज़ चैनल को जब मंत्रालय लायसेंस देता है तो वो न्यूज़ नाम की सामग्री के प्रसारण के लिए होता है। विज्ञापन उसकी आमदनी का ज़रिया है ताकि ख़बर को चलाए रखने लायक राजस्व चैनल बना पाए। इस तरह ये पूरा मामला मीडिया के पत्रकारिता वाले पक्ष का नहीं बल्कि उद्योग वाले पक्ष का है। उद्योग के लिए नियम लागू करना कहीं से भी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ना तो चोट है ना ही किसी भी तरह का अंकुश। दूसरी बात, क्या विज्ञापन का जो मौजूदा स्लैब है जिसमें चैनल मनमाना तरीके से 20-22 मिनट तक विज्ञापन दिखाते रहते हैं, इसमें छोटे-मझोले चैनलों के लिए प्रतियोगिता में टिके रहने का कोई स्कोप है?
अगर विज्ञापन पर बने नियम को हम अभिव्यक्ति की आज़ादी से जोड़ भी दें तो इसमें लोकतांत्रिक रवैया कहां है? बड़े चैनलों और बड़े समूहों के पास ज़्यादा विज्ञापन झटकने के सौ तरीके हैं और छोटे चैनल इस पूरे परिदृश्य में टिक नहीं पाते। भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने भी चैनलों के रवैये पर दो-तीन बार गंभीर टिप्पणी की है। विज्ञापन लाने का जो प्रमुख जरिया चैनलों के पास है वो है टीआरपी। लिहाजा विज्ञापन को लुभाने के लिए चैनल टीआरपी को लुभाते हैं और टीआरपी को लुभाने के लिए कई दफ़ा विषय सामग्री में गंभीरता की बजाए सनसनी और हल्केपन की चाशनी लपेट देते हैं। यानी ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन जुटाने का संबंध सीधे तौर पर कंटेंट से भी जुड़ा है। चैनलों की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करने के लिए इस तरह का कोई आयोग नहीं है जो उन्हें दिशा-निर्देश दे सके। चैनलों के स्व-नियमन की कुछ संस्थाएं पिछले कुछ वर्षों में इतने मौक़ों पर असफ़ल साबित होते रहे हैं कि ऐसे किसी भी संस्था का वजूद सतह पर मालूम ही नहीं पड़ता।
प्रिंट मीडिया के लिए समाचार और विज्ञापन का अनुपात बहुत पहले से निश्चित है। टीवी इससे बाहर क्यों रहे? लेकिन टीवी मीडिया ने इतनी आक्रामकता से अपनी मौजूदगी दर्ज की है कि इसको लेकर नियम-क़ायदे बनाने के लिए सरकार के पास कोई समय मिलता ही नहीं दिख रहा। 2013 में ही 'पेड न्यूज़' पर संसद की स्थाई समिति की लंबी चौड़ी-रिपोर्ट में भी विज्ञापन को लेकर कई चिंताएं जताई गईं। पेड न्यूज़ ख़ुद में विज्ञापन का ही रूप है। क्या नई सरकार उस रिपोर्ट को लागू कराने के पक्ष में है? अगर विज्ञापन को लेकर खुली छूट जारी रही और एडवर्टाइज़मेंट स्टैंडर्ड काउंसिल ऑफ़ इंडिया के हाथ में मौजूद शक्ति असल में विज्ञापनदाताओं को ताक़तवर बनाने को लेकर झुकी रही तो टीवी की ख़बरों की गुणवत्ता पर सवाल उठते रहेंगे।
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