-दिलीप ख़ान
[फ़ेसबुक पर टुकड़ों में बात करने के बदले एक साथ ही यहां अपना पक्ष लिख दे रहा हूं।]
शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ़्तर पर हुए ख़ूनी हमले के बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी का पुराना विमर्श फिर से सामने आ गया है। पूरे मामले पर सोशल मीडिया पर जिस तरह की बहस चल रही है उसको मोटे तौर पर तीन-चार खांचों में बांटा जा सकता है। पहला तबका ऐसे लोगों का है जो ऐसे किसी भी हमले के ख़िलाफ़ हैं और पत्रिका में छपे कार्टूनों से जिन्हें कोई परेशानी नहीं है। दूसरा तबका ऐसे लोगों का है जो हमले के ख़िलाफ़ हैं, लेकिन कार्टून्स के भी ख़िलाफ़ हैं। तीसरा तबका वो है जो कार्टून्स के कारण हमले तक के पक्ष में दबी ज़ुबान हामी भर रहे हैं।
पहले खांचे में वो लोग भी शामिल हैं जो हाल-हाल तक ‘पीके’ पर प्रतिबंध लगाने की बात करते थे। अचानक धार्मिक दायरा बदलने से वो शार्ली एब्दो की अभिव्यक्ति की आज़ादी के समर्थक हो गए। ऐसे लोग, एक ही मसले पर अपने धर्म पर अलग और दूसरे धर्म पर अलग स्टैंड लेने वाले ढुलमुल प्रजाति के होते हैं।
दूसरे और तीसरे खांचे के लोगों में से तीन-चार तर्क ज़ोरों से दिए जा रहे हैं। पहला, पैग़ंबर की कोई आकृति नहीं है तो फिर उनपर कार्टून बनाना धार्मिक भावना को आहत करने वाला कदम है। दूसरा, शार्ली एब्दो पत्रिका लगातार धर्म पर चोट करने के चलते विवादों से घिरी रही है। तीसरा, वो ना सिर्फ़ इस्लाम बल्कि कैथोलिक और यहूदियों को भी समय-समय पर नाराज़ करती रही है। कुल जमा मतलब ये कि उस पत्रिका के कंटेंट ने धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का काम लगातार किया है। तर्कों को खींचकर उस समूची पत्रिका को ही अश्लील, हल्की और फसाद पैदा करने का कारखाना बताया जा रहा है।
विवादित कार्टून्स
2006 में इस साप्ताहिक पत्रिका ने पैगंबर मोहम्मद पर एक कार्टून छापा और इसके चलते बड़ा विवाद हुआ। इसके बाद सीरीज़ में इस्लाम पर इस पत्रिका ने अंक निकाले। सर्वाधिक विवादित कार्टूनों में से एक में पैगंबर मोहम्मद कह रहे हैं कि “कट्टरपंथियों की हरक़त से पैगंबर खुश हुआ है”। इस व्यंग्य में अगर इस्लामिक चरमपंथियों के नकार के बजाए पैगंबर का कैरीकेचर ध्यान खींचता है तो कार्टून नाम की पुरानी विधा के अब-तक के सफ़र पर समाज की कूपमंडूकता का झटके में भारी पड़ना तय हो जाता है। अगर पैगंबर के नाम पर ही मार-काट मचाने वाले कुछ चरमपंथी अपनी राजनीति को समाज में पैबस्त करने पर जुटे हुए हैं तो एक कैरीकेचर वाली पत्रिका के सामने कोई विकल्प नहीं बचता कि वो यह बात सीधे पैगंबर के मुंह से कहलवाए कि उनके नाम के आधार पर ये तमाम हमले बंद होने चाहिए।
इस अंक का फ्रांस सहित दुनिया के कई मुल्क़ों में विरोध हुआ। तत्कालीन फ्रांसीसी राष्ट्रपति यॉक शिरॉक ने इसे भड़काऊ बताया था और अंतत: पत्रिका को लंबी क़ानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। फ्रांस में अदालती लड़ाई जीतने के बाद पत्रिका में साप्ताहिक प्रकाशन जारी रहा, जिनमें अलग-अलग सामाजिक, राजनीतिक मसले (सिर्फ़ धार्मिक नहीं) शामिल थे। बाद के दिनों में निकोलस सरकोज़ी और फ्रांस्वा ओलांद ने “फ्रांस की पुरानी व्यंग्य परंपरा” का हवाला देते हुए पत्रिका का बचाव किया। 2011 में एक बार फिर पत्रिका को लेकर विवाद हुआ। पत्रिका ने एक अंक में पैगंबर मोहम्मद को अतिथि संपादक बना दिया और उस अंक में पत्रिका के मॉस्टहेड के नीचे एक उपशीर्षक दिया और अंक का नाम रखा ‘शरिया एब्दो’। ये शरिया क़ानून पर चोट करने वाला अंक था।
क्या शार्ली रेसिस्ट पत्रिका है?
सवाल ये है कि क्या शार्ली एब्दो सिर्फ़ इस्लाम पर कार्टून्स छापकर उस एकमात्र धर्म को निशाने पर अब तक रखती आई है या फिर क्या ये पत्रिका सिर्फ़ धार्मिक मामलों पर ही कार्टून्स और व्यंग्य छापती है? मौजूदा परिप्रेक्ष्य में ये दोनों सवाल काफी अहम हैं। शार्ली एब्दो में व्यंग्य, कार्टून और कैरीकेचर ही प्रमुख सामग्री है और हफ़्तेवार प्रकाशन में विवाद का मामला सिर्फ़ धर्म को लेकर ही बार-बार आया। इसलिए पत्रिका के बारे में पढ़ने पर ऐसा लगता है गोया पत्रिका हर अंक में धार्मिक मामलों पर विवादित कार्टून प्रकाशित करती रही हो। जबकि ऐसा है नहीं। जिस दूसरे कार्टून पर ज़्यादा विवाद है वो है- पोप का कंडोम पहनना। ये तब की ख़बर है जब ख़बर आई थी कि पोप चर्च के भीतर सेक्स करते हैं। हालांकि अब तो ब्रूसेल्स मे एक पोप पर बाल तस्करी, बलात्कार सहित कई मामले अदालत में साबित हुए। इसलिए पोप पर चोट करने पर हैरानी नहीं होनी चाहिए, लेकिन हैरानी सिर्फ़ इसलिए होती है क्योंकि पोप को आलोचना से परे कर दिया गया है।
ठीक पराशक्ति अल्लाह या ईश्वर की तरह। अगर पोप के सेक्स करने के तथ्य को कार्टून का रूप दे दिया गया तो धार्मिक असहिष्णुता का मामला कैसे हो गया? तथ्य, तथ्य है। चर्च के भीतर सेक्स पर पाबंदियों पर व्यंग्य करते हुए किसी कार्टून में अगर नन को हस्तमैथुन करते दिखाया गया है तो ये व्यक्तिगत और निजी मामला नहीं है। किसी ख़ास नन के बारे में नहीं है, बल्कि उस ट्रेंड पर बात करता हुआ ये कार्टून है जिसमें नन की सैक्सुअल ज़रूरत को पूरा करने के तरीके को रेखांकित किया गया है। क्या सेक्स पर बात करना या सेक्स पर कार्टून छापना अश्लील है? या, धार्मिक लोगों के सेक्स पर बात करना अश्लील और नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त है? या, धार्मिक मान्यताओं को चुनौती देते हुए राजनीतिक यथार्थ को बयां करने के लिए पैगंबर मोहम्मद का कार्टून बना देना दुनिया के लिए ख़तरनाक है? अभिव्यक्ति के टूल हर दफ़े अगर समाज के हर तबके से पूछकर तलाशे जाए तो शायद कार्टून और कैरीकेचर में दर्ज़ होने वाले कैरेक्टरों की संख्या मुट्ठी भर रह जाएगी।
राजनीतिक मामलों को लेकर प्रतिबंध
1970 के दशक में प्राकृतिक आपदा को लेकर निकाले गए एक अंक के बाद इस पत्रिका को प्रतिबंधित कर दिया गया था। तब तक ये दूसरे नाम से निकलता था। प्रतिबंध के दायरे से बाहर निकलने के लिए इसका नाम शार्ली एब्दो रखा गया। हालांकि इस पत्रिका में कई बार ये आरोप भी लगे हैं कि इसके कुछ कार्टून्स नस्लवादी रहे हैं। लेकिन, नस्लीयता का मामला जहां भी रहा शार्ली एब्दो के भीतर भी विरोध हुए। कोई भी पत्रिका ग़लती करती है, शार्ली ने भी की। कुछ लोग निकलकर नई पत्रिका भी निकाले। लेकिन नस्लीयता के जितने इल्ज़ाम है, उनमें से ज़्यादातर धार्मिक संगठनों ने ही लगाए। लिस्ट उठाकर चेक कर लीजिए। मैं फ्रेंच नहीं जानता, इसलिए ये दावा नहीं कर सकता कि मैंने पत्रिका पढ़ी है।
लेकिन, इस पत्रिका पर हमले के बाद इंटरनेट सहित समाचार एजेंसियों पर जितनी सामग्रियां थीं, उनमें से ज़्यादातर को पढ़ा क्योंकि अगले दिन आधे घंटे को प्रोग्राम बनाना था इस पर। कुल जमा इस नतीजे पर हूं कि असहमत हैं तो असहमति जताइए लेकिन जो सहमत हैं उनपर क्यों पिल पड़ रहे हैं? आपकी असहमति किसी कार्टून पर ठीक वैसे ही हो सकती है जिस तरह आपकी किसी बात पर किसी और की असहमति। आपकी असहमति के चलते कोई बात करना बंद नहीं कर देगा। आप आहत हैं तो आहत होना मुबारक़। कार्टून और कैरीकेचर के नाम पर ज़रा-ज़रा सी बात पर आहत होने के चलन को जिस तरह सिद्धांत के तौर पर पेश करने की कोशिश की जा रही है वो अंतत: बहुत संकुचित दिशा की तरफ़ लेकर हमें बढ़ेगा।
good article sir
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