11 सितंबर 2014

सरकारी विदेश दौरे और मीडिया

-दिलीप ख़ान


फोटो राज्य सभा टीवी से साभार
पिछले दिनों कुछ टेलीविज़न चैनलों पर एक साथ कई पत्रकारों ने इस बात को लेकर चिंता जाहिर की कि मौजूदा प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर पत्रकारों को साथ नहीं ले जा रहे। अलग-अलग मसलों पर शामिल स्टूडियो परिचर्चा में जो सूत्र इन पत्रकारों को जोड़ता है वो यही बात है। चिंता ये जताई गई कि इससे पत्रकारिता को नुकसान पहुंच रहा है और फर्स्ट हैंड ऑब्जर्वेशन के अभाव के चलते आधिकारिक बयानों का ही सहारा लेना पड़ रहा है। एक हद तक इस बात से सहमति जताई जा सकती है कि किसी इवेंट में पत्रकारों की मौजूदगी नहीं होने के चलते ख़बरों के संकलन पर इसका असर पड़ सकता है, लेकिन मीडिया उद्योग के लिए इस सवाल के सिरे को पलट कर देखना चाहिए।
क्या लगातार विस्तार पा रहा भारत का मीडिया उद्योग किसी इवेंट में शिरकत के लिए ख़ुद अपने बूते पत्रकार नहीं भेज सकता? क्या वजह है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित किसी भी मंत्री के साथ विदेश दौरे पर जाने के लिए मीडिया संस्थान उत्साही रवैया दिखाता है? क्या ये महज पत्रकारिता के लिए ख़बरों के संकलन तक सीमित मामला है या फिर इसके जरिए सैर-सपाटा, सत्ता के गलियारे में जान-पहचान और व्यावसायिक गुणा-गणित भी साधने की कोशिश होती है। इस बात को प्रमुखता से इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि इन दौरों पर कई मौक़ों पर सक्रिय पत्रकार के बदले मीडिया संस्थान के मालिक ख़ुद शामिल हो जाते हैं।

जापान में मोदी. फोटो- Salon.com से साभार
अगर चिंता पत्रकारिता संबंधी है तो फिर पूरे साल नफ़ा-नुकसान की गणना करने वाले मालिक के मन में अचानक रिपोर्टिंग की भावना कैसे पनप जाती है? दूसरी बात ये कि अगर चिंता सचमुच पत्रकारिता और ख़बरों के संकलन की है तो मीडिया संस्थानों को सत्ता गलियारे की रिपोर्टिंग के अलावा देश-विदेश के बाक़ी मुद्दों की खोज-बीन पर साल भर ध्यान देना चाहिए। लेकिन देश के कथित राष्ट्रीय टीवी चैनलों का कोई भी स्थायी रिपोर्टर पड़ोस के किसी भी देश में नहीं है और ना ही देश के सभी राज्यों में। रिपोर्टिंग के ख़र्च को जिस तरह कतरब्यौंत किया जा रहा है उससे वो पत्रकार भी सहमत दिखते हैं जो विदेश यात्रा पर पत्रकारों को नहीं ले जाने को लेकर चिंताभाव प्रकट कर रहे हैं।

पिछले 5-6 साल में भारत का मीडिया उद्योग लगभग दोगुना विस्तार पा चुका है। केपीएमजी और फ़िक्की के आंकड़ों के मुताबिक़ 2008 में मीडिया का कुल बाज़ार 58,000 करोड़ रुपए का था, जो 2013 में बढ़कर 91,800 करोड़ तक पहुंच गया। अनुमान है कि 2018 में यह बाज़ार 1,78,600 करोड़ तक पहुंच जाएगा। अगर बाज़ार इतना विस्तार पा रहा है तो पत्रकारिता के सिमटते दायरे का सवाल इस धंधे में लगे मालिकों के सामने उछाला जाना चाहिए। विश्व कप फुटबॉल कवर करने अगर कोई मीडिया संस्थान दो-तीन रिपोर्टर भेज सकता है तो इराक़-सीरिया कवर करने एक अदना रिपोर्टर क्यों नहीं भेज सकता? अगर विदेशों की रिपोर्टिंग प्रधानमंत्री दौरे के इंतज़ार में स्थगित रहती है तो ये मीडिया उद्योग में घटते पेशेवर रवैये पर सवाल है। दूसरी बात ये कि मीडिया संस्थान अगर अपने ख़र्च से पत्रकारों को इन दौरों की रिपोर्टिंग के लिए भेजते हैं तो उसकी वस्तुनिष्ठता कहीं अलहदा क़िस्म की होगी। लिहाजा सवाल करने और असंतोष प्रकट से पहले ये बेहद ज़रूरी है कि वो वाक़ई ईमानदार क़िस्म की हो और जिस उद्योग की तरफ़ से सवाल उठाए जा रहे हैं उसके भीतर भी सवाल उठे।
                   [राज्य सभा टीवी से साभार]

03 सितंबर 2014

मीडिया ओनरशिप के मसले और मौजूदा हालात

-    दिलीप ख़ान
ट्राई ने 12 अगस्त को मीडिया ओनरशिप पर लंबी-चौड़ी रिपोर्ट दी
जिस पर मीडिया में चर्चा नहीं हुई। फोटो- मिंट से साभार

भारत में मीडिया को लेकर हाल के वर्षों में जो चिंता जताई गई है उस पर मीडिया के बाहर और भीतर लगातार चर्चा हुई, लेकिन उसे दुरुस्त करने की दिशा में कदम ना के बराबर उठे। पिछले पांच-छह वर्षों में बड़े निगमों ने जिस स्तर पर मीडिया में निवेश किया है उसकी वजह से इसका चरित्र भी तेज़ी से बदला है। बिल्कुल नई क़िस्म की चुनौतियां इसके सामने खड़ी हुईं जो पहले या तो नहीं थीं, या फिर थीं भी तो सतह पर नहीं दिखती थीं। लेकिन इसके सूक्ष्म चारित्रिक बदलाव को अगर छोड़ भी दें तो तीन-चार ऐसे विचलन हैं जो असल में मीडिया की संरचना के साथ सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। इनमें मीडिया के मालिकाने में आया बदलाव, निजी संधियां और पेड न्यूज़ सबसे अहम हैं। इन तीन समस्याओं के इर्द-गिर्द ही बाक़ी मुश्किलों की झोपड़ियां बसती हैं। इन तीनों के संबंध को भी अगर आपस में तलाशा जाए तो मीडिया ओनरशिप सबसे अहम चुनौती के तौर पर दिखता है। अब सवाल ये है कि जब मीडिया में इन बदलावों को साफ़ तौर पर चौतरफ़ा नोटिस किया जा रहा है तो इस पर लगाम कसने की कोई ठोस रणनीति क्यों नहीं बन पा रही? क्या सरकार और संसद की तरफ़ से कोताही बरती जा रही है या फिर मीडिया नाम के उद्योग की संरचना को लेकर ये पसोपेश कायम है कि इसे बाक़ी उद्योगों से अलग किस रूप में अलगाया जाए? ज़्यादा पीछे ना जाए तो पिछले 6 साल में संसद, सरकार और इसके अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं ने मीडिया को लेकर दर्ज़न भर से ज़्यादा रिपोर्ट्स जारी की हैं, पचासों टिप्पणियां की हैं और सैंकड़ों बार चिंता जताई हैं।
 
अभी हाल में 12 अगस्त को भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने मीडिया ओनरशिप पर अपनी सिफ़ारिश सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सौंप दी। इस मसले पर ट्राई का ये तीसरा अध्ययन है। सबसे पहले साल 2008 में मंत्रालय ने ट्राई को मीडिया ओनरशिप के पैटर्न का अध्यन करने के बाद सुझाव देने को कहा था। 25 फ़रवरी 2009 को प्राधिकरण ने मीडिया पर चंद लोगों के नियंत्रण से उपजे हालात और क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर अपने सुझाव सौंप दिए। इसमें ख़ास तौर पर क्रॉस मीडिया ओनरशिप के ख़तरों से मंत्रालय को अवगत कराया गया था और बताया गया था कि देश के भीतर इसके चलते ख़बरों और विचारों की बहुलता किस तरह प्रभावित हो रही है। साथ ही विदेशों में इस पर बने नियम-क़ायदों से भी मंत्रालय को अवगत कराया गया था। 16 मई 2012 को मंत्रालय ने ट्राई को अपने इन सुझावों का पुनर्वालोकन करने को कहा जिसमें कुछ तकनीकी मसलों पर विस्तार देने की बात अंतर्निहित थी।
 
मूल रूप से जनसत्ता में प्रकाशित
मिसाल के लिए होरिजोंटल ओनरशिप और वर्टिकल ओनरशिप। होरिजोंटल क्रॉस मीडिया ओनरशिप का मतलब हैं एक ही समूह का प्रसारण के अलग-अलग माध्यमों पर कब्जा होना। यानी अख़बार, टीवी, रेडियो और पत्रिका अगर एक ही मालिक निकाल रहा हो तो ये होरिजोंटल ओनरशिप है। इसी तरह वर्टिकल ओनरशिप उसको कहेंगे जिसमें प्रसारण और वितरण के अलग-अलग व्यवसाय एक ही मालिक के कब्जे में हो। यानी अगर एक ही समूह का टीवी चैनल भी है और उसके वितरण के लिए डीटीएच और केबल प्रसारण भी तो ये वर्टिकल ओनरशिप है। इन दोनों मसलों की तहकीकात करते हुए 15 फ़रवरी 2013 को ट्राई ने मंत्रालय को एक परामर्श पत्र सौंपा जिसमें कुछ अंतिम टिप्पणियां की गईं थी। परामर्श पत्र सौंपने के बाद 22 अप्रैल से लेकर 29 अप्रैल 2013 तक प्राधिकरण ने मीडिया मालिकों के अलग-अलग पक्षों से पूरे मामले पर टिप्पणियां मांगी। 33 पक्ष में और 6 विपक्ष में आईं दलीलें थीं जो ट्राई की वेबसाइट पर चस्पां कर दी गईं। यही नहीं, इसके बाद देश के अलग-अलग पांच शहरों में खुली बहस भी कराई गईं। इसमें ट्राई के नज़रिए से अहमति जताते हुए जो तर्क आए उनमें सबसे प्रमुख ध्वनि ये थी कि भारत दुनिया के अन्य मुल्क़ों से कुछ महत्वपूर्ण अर्थों में भिन्न है। यहां पर जितनी भाषाओं में और जितनी तादादा में अख़बार और टीवी चैनल हैं उतने कहीं और मुमकिन नहीं, लिहाजा विचारों और ख़बरों की बहुलता यहां प्रभावित नहीं हो रही है। लेकिन ट्राई ने इस 12 अगस्त को जो अंतिम सिफ़ारिश सौंपी है उसमें ऐसे तमाम तर्कों के जवाब दिए गए हैं।
 
देश में अख़बारों, टीवी चैनलों और रेडियो स्टेशनों की बड़ी तादाद के बावजूद ये महसूस किया गया है कि असर और प्रसार के मामले में सब बराबर नहीं हैं। प्राधिकरण ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात का ज़िक्र किया है। रिपोर्ट में दिल्ली से निकलने वाले अख़बारों के उदाहरण से बताया गया है कि भले ही यहां दर्जन भर से ज़्यादा अख़बार निकलते हो, लेकिन दो-तीन अख़बार यहां के बाज़ार पर वर्चस्व बनाए हुए है, इसलिए उसकी तुलना छोटे-मझोले अख़बारों से करना ख़बरों की विविधता के अर्थ में बेमानी है। विविधता के मसले और कॉरपोरेट ओनरशिप के साथ-साथ धार्मिक व्यक्तियों और संस्थाओं तथा राजनीतिक ओनरशिप पर विस्तार से टिप्पणी की गई है। ये बात देश में अब शिद्दत से महसूस की जा रही है कि यदि किसी ख़ास राजनीतिक पार्टी से जुड़े किसी व्यक्ति के हाथ में मीडिया हो तो वो उसका इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने या फिर विरोधी पार्टी के ख़िलाफ़ प्रोपेगैंडा के लिए करता है। आंध्र प्रदेश में दो-तीन महीने पहले टीवी चैनलों और केबल प्रसारण पर राजनीतिक पार्टियों के बीच तकरार इतना तेज़ हो गया था कि तेलंगाना और आंध्र के कुछ इलाकों में हिंसक झड़पों के साथ-साथ ये मसला संसद में भी उठा। राजनीतिक मालिकाने को आम तौर पर दक्षिण भारत और उत्तर पूर्व के साथ लोग जोड़कर देखते हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ये अख़िल भारतीय चलन के तौर पर उभरा है।
रिलायंस का 'इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट' क्रॉस मीडिया ओनरशिप
की बड़ी मिसाल है। फोटो- इंडिया टुडे से साभार
 
पार्टी मुखपत्र को लोग उसी राजनीतिक दायरे और पार्टी लाइन का मानते हुए पढ़ते हैं, लिहाजा मुखपत्र में छपी बातों पर वो अपने तर्कों के ज़रिए राजनीतिक विभेद ढूंढ लेते हैं, लेकिन सामान्य समाचार मीडिया ने जो अपनी साख स्थापित की है, उसमें सेंधमारी के ज़रिए अगर कोई राजनेता ख़बरों को मरोड़ता है तो एक दर्शक/पाठक के लिए उसको नकार पाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन ये सब ना सिर्फ़ जारी है, बल्कि इसे लगातार विस्तार दिया जा रहा है। ट्राई की सिफ़ारिश में इसको तत्काल प्रभाव से बंद करने की बात कही गई है और बताया गया है कि अगर पहले से कोई ऐसा मीडिया चालू हालात में है तो उसे बंद करने के रास्ते निकाले जाए।
 
रिपोर्ट में होरिजोंटल और वर्टिकल क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर भी एक हद तक पाबंदी की बात कही गई है। इसमें दो-तीन फॉर्मूलों के जरिए नियंत्रण की बात कही गई है और सुझाया गया है कि अगर प्रसारण और वितरण दोनों में किसी समूह का 32 प्रतिशत से ज़्यादा शेयर है तो किसी एक में उसे घटाकर 20 प्रतिशत के स्तर तक लाना होगा। इसी तरह अगर एक से अधिक मीडिया में उसका निवेश है तो उसे ‘प्रासंगिक बाज़ार में उसके असर’ को देखते हुए कतरा जाना चाहिए। प्रासंगिक बाज़ार की परिभाषा इस तरह की है कि अगर कोई मीडिया तेलुगू माध्यम का है तो ग़ैर-तेलुगू लोगों के लिए उसका कोई महत्व नहीं है, क्योंकि वो मीडिया ग़ैर-तेलुगू भाषी लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता। इसलिए भाषावार और क्षेत्रवार ऐसे प्रासंगिक बाज़ार तलाशे गए हैं। इसमें हिंदी बाज़ार के दायरे में 10 राज्यों को रखा गया है। लेकिन मुश्किल ये है कि प्राधिकरण की इस सिफ़ारिश से छोटे बाज़ार में सक्रिय मीडिया उद्यमियों पर तो लगाम लग जाएगा, लेकिन जो बड़े समूह है और जिनका एक साथ हिंदी, अंग्रेज़ी से लेकर दो-तीन भाषाओं के बाज़ार में दख़ल है उसके लिए मुश्किल उतनी बड़ी नहीं होगी क्योंकि उनके लिए हर बाज़ार में अलग-अलग हिस्सा तय होगा। 
 
मीडिया में जिस तरह गुपचुप तरीके से निवेश का चलन बढ़ा है उससे कई दफ़ा असली मालिक का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। इसको देखते हुए भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने रिलायंस के मीडिया समूह इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट का उदाहरण देते हुए दो साल पहले ये कहा था कि मीडिया उद्योग में ‘नियंत्रण’ को भी ओनरशिप की तरह देखा जाना चाहिए। अगर अध्ययनों का ही ज़िक्र किया जाए तो भारतीय प्रेस परिषद की 2009 में आई पेड न्यूज़ की रिपोर्ट के बाद संसद की स्थायी समिति ने पिछले साल इसी मसले पर लंबी-चौड़ी रिपोर्ट सौंपी। विधि आयोग ने मई 2014 में इस पर एक परामर्श पत्र दिया। एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज ऑफ इंडिया ने अपने अध्ययन के ज़रिए इस पर रोशनी डाली। भारतीय प्रतियोगिता आयोग ने इस चलन पर नए क़िस्म के तौर-तरीके अपनाने की वकालत की।
 
एक ही मालिक के हाथ में सारे मीडिया होने के चलते
विचारों की बहुलता ख़त्म हो रही
लेकिन इन तमाम अध्ययनों के बावजूद कोई ठोस रूप-रेखा अब तक तैयार नहीं हो पाई। ट्राई ने जो हाल में सूचना प्रसारण मंत्रालय को अपनी सिफ़ारिशें सौंपी है, उसके बाद दो तथ्यों को देखते हुए उम्मीद जगती है। पहला, जब पहली दफ़ा मीडिया ओनरशिप पर ट्राई  ने 2008 में सुझाव दिए थे तो उस वक़्त इसके अध्यक्ष नृपेन्द्र मिश्रा थे, जो अब मोदी सरकार में प्रमुख सचिव हैं। दूसरा, संसद की स्थाई समिति ने पिछले साल जो पेड न्यूज़ पर रिपोर्ट दी थी उसके तत्कालीन अध्यक्ष राव इंद्रजीत सिंह अब कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और अब सत्ताधारी पार्टी के हिस्सा हैं। लेकिन मीडिया पर किसी भी तरह की कार्यवाही ना करने के पिछले कई साल के रिकॉर्ड को देखते हुए यही लग रहा है कि ये सरकार भी बिल्ली के गले में घंटी बांधने का काम आगे के लिए टाल देगी। टीवी में आत्म नियमन के तमाम निकाय बुरी तरह असफ़ल रहे हैं और प्रिंट के लिए भारतीय प्रेस परिषद कितना कारगर है ये मीडिया से जुड़ा हर व्यक्ति अच्छी तरह जानता है। ट्राई ने अपनी सिफ़ारिश अब सरकार को सौंप दी है। गेंद अब सरकार के पाले में है। लिहाजा देखना दिलचस्प होगा कि क्या उस गेंद पर शॉट भी लगाए जाते हैं या फिर पाले में आई हुई गेंद रखे-रखे पुरानी हो जाएगी।