आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, मणिपुर, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, झारखण्ड के मानवाधिकार संगठनों के १७ सदस्य जांच दल ने २५ से २९ मार्च २०१२ के बीच तीन जिलों लातेहार, गढ़वा, और पलामू का दौरा किया. इस दौरे में मानवाधिकार हनन के कुछ नए मामलों के साथ-साथ कुछ पुराने मामलों में हुई कार्यवाही की भी जांच की गयी. पिछले दिनों झारखण्ड राज्य जल जंगल ज़मीन के अधिकारों के संघर्षों और ओपेराशन ग्रीन हंट के लिए चर्चा में रहा है. जहां जनता के संघर्ष चल रहे हैं वह उन्ही इलाकों में पुलिस पिकेट, सी आर पी एफ कैंप आदि के रूप में सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती की गयी है . यह इस बात का एक लक्षण मात्र है की किस प्रकार राज्य जन विरोधी विकास नीतियों के खिलाफ जनता के संघर्षों को कुचलने का प्रयास कर रहा है . जिन मामलों की छान बीन हमने की उससे सरकार की अमीर परस्त विकास नीति उजागर हो जाती है जिससे कई और मुद्दे भी सामने आ जाते हैं.
दल ने कुल दस मामलों की मौके पर छान बीन करने का प्रयास किया. इनमे से कुछ निम्नलिखित हैं:
१. संजय प्रसाद, बरवाडीह, लातेहार- हमारा जांच दल जैसे अपने दौरे पर लातेहार के एक स्थान से निकल पड़ा था, संजय प्रसाद के पिता और भाई उसकी आपबीती सुनाने हमारे पास चले आये. २१ मार्च २०१२ को किसी पूछताछ के सिलसिले में थाणे ले जाया गया था. चार दिनों तक उसे पुलिस हिरासत में ही रखा गया जब की परिजनों को बताया जा रहा था की उसे पहले ही दिन छोड़ दिया गया है. दो दिन बाद संजय को मंडल और चेमु संय कके बीच के जंगलों से गिरफता दिखाया गया. २६ मार्च को जब अखबारों में संजय की गुमशुदगी की रिपोर्ट छपी तो पुलिस ने कहा की उसे माओवादी और मंडल-चेमु संय के जंगल में बम्ब लगाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है. विदित है की २०१२ में अब तक उस क्षेत्र में कही भी कोई बम्ब विस्फोट हुआ ही नहीं है.
२. जसिंता देवी, लादी गाँव, लातेहार - २७ अप्रैल २०१० को इस गाँव में माओवादियों और सी आर पी एफ के बीच एक मुट्ठबेढ़ हुई. तत्काल बाद अपने तलाशी अभियान के दौरान से आर पी एफ ने जसिनता देवी के छिपे होने का आरोप लगाया. घर को आग लगाने की धमकी देकर उन्होंने घर के सभी जनों को बाहर आने का फरमान दिया. जसिनता देवी घर के पिछवाड़े में लेटे हुए अपने बूढ़े चरवाहे को बुलाकर लाने की इजाज़त मांगी. जैसे ही वह बूढ़े चरवाहे के साथ आँगन में पहुंची उस तीन बच्चो की माँ को वही ढेर कर दिया गया और चरवाहा भी ज़ख़्मी हो गया. घर के अन्दर और छत पर आज भी गोलियों के निशाँ देखे जा सकते हैं और पीड़ितों के साथ आज तक कोई न्याय भी होता दिखाई नहीं देता. पुलिस के हाथों मारे जाने के कारण उसे ५ लाख रूपए और एक नौकरी अंतरिम राहत के तौर पर दी जानी चाहिए थी. लेकिन अब तक उस परिवार को सिर्फ १ लाख रूपए ही मिले हैं. दोषी पुलिस अफसरों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई है. यहाँ तक की पीड़ित की शिकायत पर कोई प्रथिमिकी भी दर्ज नहीं हो पायी है.
३. लुकास मिंज, नवर्नागो, लातेहार - लुकास मिंज नाम का नवर्नागो का निवासी जो न सुन सकता था और न ही बोल सकता था, १ फ़रवरी २०१२ को सी आर पी एफ की गोली का शिकार बना. गाँव के पास की कोयल नदी पर अपने गाय-भैंस चराने गया था जबकि इसी दौरान पुलिस अपने अभियान पर थी. पुलिस के सवालों का जवाब न दे पाने के कारण, वह मारा गया. पाच दिन बाद उसकी लाश बालू में दबी पायी गयी. परिवार को आज तक कोई मुहाफ्ज़ा नहीं मिला है और न ही किसी पुलिस कर्मी के खिलाफ कोई कायवाही हुई है.
४. बलिगढ़ और होमिया, गढ़वा- इन गावों में स्थानीय सामंती तत्वों की मिलीभगत से एसार और जिंदल जैसी बढ़ी कंपनियों के नाम सैंकड़ों एकड़ ज़मीन कर दी गयी है. पिछले एक साल के दौरान आदिवासी और दलित समेत कुछ स्थानीय किसानो की ज़मीन राम नारायण पाण्डेय उर्फ़ फुल्लू पाण्डेय एवं कुछ अन्य व्यक्तियों के द्वारा फर्जी कागजात बनवाकर इन कंपनियों के नाम कर दी गयी है. इसमें भूदान की वह ज़मीन भी शामिल है जिसे खरीदा बेचा नहीं जा सकता. इस फर्ज़िबाड़े के तेहत जिस ज़मीन की लगान गाँव के किसानो के नाम वर्षों से वसूली जा रही थी उसका मालिकाना फुल्लू पण्डे के नाम लिखवा लिया गया. इस प्रकास होमिय में ११५ एकड़ और बलिगढ़ में ३३८ एकड़ ज़मीन उन गरीब किसानो से हथिया ली गयी जिन्होंने लगभग पच्चीस साल तक अपने संघर्षों की बदौलत इसका अधिकार प्राप्त किया था. उक्त फुल्लू पाण्डे पर इस गाँव कई सारे बलात्कारों आदि को अंजाम दिए जाने का आरोप है परन्तु किसी एक मामले में भी उसको कोई सज़ा नहीं हुई है. कोर्पोराते कम्पनियों और पुलिस अर्धसैनिक बालों के आगमन के साथ बदले शक्ति संतुलन के कारण आज एक बार फिर इस क्षेत्र के १०,००० निवासियों पर जीवन, आजीविका और सुरक्षा का खतरा मंडरा रहा है.
५. रामदास मिंज और फ़िदा हुसैन, गढ़वा- २१ जनवरी २०१२ को ग्राम पंचायत के मुखिया रामदास मिंज और उसी गाँव के फ़िदा हुसैन को तीन अन्य लोगों के साथ माओवादियों को भोजन खिलाने के आरोप में थाणे ले जाया गया. उसी दिन ग्राम पंचायत की एक ज़मीन पर निर्माणाधीन उप-स्वास्थय केंद्र के विरोध में एक शान्ति पूर्ण धरना भी चल रहा था. गाँव के लोग इसी ज़मीन पर आस पास के कई गावों पर लोगो के साथ मिलकर अपने वन उपज बेचा करते थे. जन उपरोक्त पांच व्यक्तियों की पूछताछ थाणे में हो रही थी, उसी दौरान उसी इलाके में माओवादियों ने एक बारूदी सुरंग का विस्फोट कराया. पुलिसवालों ने इसका दोष हिरासत में लिए गए ५ व्यक्तियों पर मढ़ा और आरोप लगाया की गांववालों का शान्तिपूर्वक धरना माओवाद्यों के बम्ब विस्फोट के लिए एक आढ़ था इन्हें जानवरों की तरह पीता गया और कुछ दिन बाद पांच में से तीन को छोड़कर रामदास और फ़िदा को संगीन आरोपों में जेल भेज दिया गया. यह घटना इस बात का ज्वलंत उदहारण है की किस प्रकार माओवादियों के खिलाफ लड़ने की आड़ में गाँव के गरीबों के जायज़ संघर्षों को दबाया जाता है.
६. कुटकू-मंडल बाँध परियोजना, ग्राम सान्या, गढ़वा- सान्या गाँव झारखण्ड के वीर नायक नीलाम्बर और पीताम्बर का पुश्तैनी गाँव है. उसी नीलाम्बर-पीताम्बर की जोड़ी का जिन्होंजे ने भूमि अधिकारों के लिए अंग्रेजों से लोहा लेकर अपनी जान कुर्बान की थी. आज यह गाँव कुटकु मंडल बाँध परियोजना के डूब क्षेत्र के बत्तीस गाँव और अन्य प्रभावित १३ गाँव में से एक है. मुहवाज़े के मानदंड कईं दशकों पहले हुए सुर्वे के आधार पर निर्धारित किये गए थे. बीते दशकों के दौरान उस क्षेत्र में बसे परिवारों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है जिनमे से बहुत ही कम परिवारों को मुवाव्ज़े के पात्र माना गया है. यहाँ के लोगों का पुनर्वास मर्दा में किया जा रहा है जहां की ज़मीन खेती के लिए कतई उपयुक्त नहीं है. यह क्षेत्र दरअसल सी आर पी एफ और पुलिस के दमन अभियानों के सबसे ज्यादा प्रभावित इलाको में से एक है.
७. राजेंद्र यादव, थाना छत्तरपुर, पलामू- इन्हें ३० दिसंबर २००९ को पौ फटने से पहले ही थाना ले जाया गया. थाणे लेजाकर लगातार तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के निवास पर पीट पीट कर मार डाला गया. राजेंद्र को क्यों शिकार बनाया गया, यह तो अभी भी स्पष्ट रूप से कहना संभव नहीं है. मगर यह बात की दो साल से चल रही उच्च स्तारिये पुलिस जांच के निष्कर्ष अभी तक सामने नहीं आये हैं, अपने आप में बहुत कुछ कह जाती हैं. इस दरमियान राजेंद्र की विधवा को कठिन संघर्ष के बाद सरकारी नौकरी मिल गयी है मगर सरकार दोषी पुलिस अफसरों को सजा देना तो दूर, दोष स्वीकारने को भी तैयार नहीं है. हर साल जब राजेंद्र की बरसी मनाई जाती है तो उसके परिजनों और मित्रो को तरह तरह से धमकाया जाता है और कार्यक्रम में अवरोध उत्पन्न किये जाते हैं.
८. बेह्रातांड, निकट सरयू पहाड़, लातेहार- ६ फ़रवरी २०१२ को ग्राम प्रधान बीफा पर्हैय्या समेत गाँव के ९ व्यक्तियों को सी आर पी ऍफ़ द्वारा उठाकर अपने कैंप में यातनाएं दी गयी. प्रधान बीफा की दाहिनी आँख पर गंभीर चोट लग गई और इन लोगों को केवल इसलिए पीटा गया की अर्धसैनिक बालों को यह शक हो गया था की उन्होंने माओवादियों को खाना खिलाया होगा. इस तरह के हमलों का खतरा तब तक मदरता रहेगा जब तक माओवादियों के खिलाफ ऐसे अभियान चलते रहेंगे.
९. बिरजू उरांव, मुर्गीदी ग्राम, लातेहार- इस गाँव के युवक बिरजू उरांव को सी आर पी ऍफ़ ने चत्वा करम नामक बाज़ार में धर दबोचा जब वह रात में किसी पारिवारिक समारोह से गत फ़रवरी माह में लौट रहा था. सुरक्षा बालों ने उसको न केवल बुरी तरह पीटा बल्कि तार काटने वाले औज़ार से उसकी सभी अँगुलियों के छोर को बेदर्दी के साथ काट दिया. बाद में मामला उठने पर स्थानीय पत्रकारों की मौजुद्गो में उसे मुहफ्ज़े के तौर पर एक बोरा चावल दिया गया. लेकिन जब इस घटना की खबर दूर तक फैली तब पुलिस ने मामे को दबाने के लिए प्रेस वार्ता आयोजित कर बिरजू से जबरन ये बयान दिलवाया की उस समय वह शराब पिया हुआ था इसलिए यह स्पष्ट रूप से नहीं बता पा रहा है की हमलावर सी आर पी एफ के ही थे.
कुल मिलाकर जांच दल अपनी जांच से पुलिस और सी आर पी एफ की ओर से हुए असंख्य अनावश्यक हत्याओं के मामले पाए. जहां भी ऐसी घटनाएं घटी थी वहाँ पीड़ितों और प्रभावित परिवारों को न्याय मिलने के मामले में भी कोई प्रगति नहीं हुई थी. इससे स्पष्ट होता है की इस पुरे क्षेत्र में पोलिस की मनमानी किस कदर कायम है और आम लोगों की निगाह में तरह तरह के सुरक्षा बालों के असंख्य करमचारी का दर्ज़ा कुछ समाज विरोधी तत्वों से अलग नहीं है.
हमारे इस ग्रामीण सर्वेक्षण के दौरान हमारी भाकपा(माओवादी) के एक सशत्र दल के साथ एक अनियोजित मुलाकात हुई. झारखण्ड की इस दुर्दशा के बारे में उनका दृष्टिकोण क्या है यह humein जाने का मौका मिला. इसका विस्तृत ब्यौरा हम अपनी सम्पूर्ण रिपोर्ट में सांझा करेंगे. लेकिन यहाँ हम केवल इसी मुद्दे पर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं की किस प्रकार टी पी सी, जे पी सी, पी एल एफ आई, जे जे एम् पी, जे एल टी, जैसे सर्कार द्वारा प्रायोजित लड़ाकू दलों को पुलिस से आश्रय मिलता है जबकि आम तौर पर इन्हें नाक्सल्वादी समूहों के रूप में जाना जाता है. और यह भी गलत धारणा बनती है की यहाँ नक्सलवादी समूहों के बीच आपसी झडपे होती हैं. यह दरसल सलवा जुडूम झार्कंदी संस्करण मालुम होता है जो की यहाँ की ठोस परिस्थितियों में यहाँ के पुलिस ने इजाद किया है. भाकपा(माओवादी) के अनुसार इन गिरोहों को उनका सफाया करने के उद्देश्य से तो तैनात किया गया है ही लेकिन साथ ही यह इसलिए भी किया जा रहा है की पुलिस द्वारा प्रायोजित इनकी असामाजिक गतिविधियों की ज़िम्मेदारी नक्सलवादियों के मत्थे डाली जा सके. यहाँ यह बात भी गौरतलब है की सरकार १९०८ के सी एल ए कानून और हाल के यु ए पी ए क़ानून के सहारे नक्सलवादियों और माओवादियों के साथ साधारण अपराधी जैसा बर्ताव कर पाती है जब की माओवादियों की रणनीति और कार्यनीति जो भी हो, वे किसी राजनैतिक आन्दोलन की सरपरस्ती करते दिखाई देते हैं.
हमें इस बात की ख़ुशी है की भाकपा माओवादी ने हमसे मिलने और बातचीत करने की अपनी तैय्यारी बतायी किन्तु इस बात का खेद है की पुलिस के आला अफसरान ने पूछे जाने पर इसमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई.
हमारी जांच के दौरान कई सारे मुद्दों की वास्तविकता उजागर हुई. समयकित एक्शन प्लान (आई ए पी) जिस तरह से लागू किया जा रहा है वहाँ से लेकर कुद्कू बाँध परियोजना तक की असलियत सामने आई जिसमे की सैंकड़ों गांववालों की ज़मीन डूबने के कगार पर है. सान्या गाँव में समस्या यह भी है की बाँध परियोजना तो वस्तुतः ठप्प पड़ी है जबकि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के सन्दर्भ में परियोजना अभी जारी है. नतीजतन वहाँ के बत्तीस प्रभावित गावों में आंगनवाडी, स्कूल, प्राथिमिक वास्थ्य केंद्र आदि कार्यक्रमों का कोई नामो निशाँ नहीं है. दूसरी समस्या वहाँ यह है की वहाँ की उर्वर ज़मीन जहां पहले साल में दो फसलें देती थी आज पानी के स्वाभाविक प्रभाव और भूगर्भीय जल की कमी के कारण एक फसल भी बड़ी मुश्किल से दे पा रही है.
जांच दल ने यह पाया की छोटानागपुर और संथाल परगाना के रयत अधिनियमों (सी एन टी और एस. पी. टी. ) और विलकिंसन नियम के अनुसार जनता को जो अधिकार मिलने चाहिए उन्हें भी सरकार नहीं दे रही है. और अब राज्य सर्कार केंद्र की शह पर सी.एन.टी. क़ानून का संशोधन करने जा रही है जिससे लम्बर संघर्षों के बाद आदिवासियों को हासिल हुए भूमि अधिकार भी छीने जायेंगे. वन अधिकार अधिनियम भी यहाँ लागू होता नहीं दिखाई दिया. यह बात बाँध परियोजना के कारण डूब क्षेत्र में लागू होती है तो बलिगढ़ और होमिय जैसे उन गावों में लागू होती है जहां गुप चुप तरीके से ज़मीन जिंदल और एसार को बेचीं जा रही है. आज तक इस कानून के तेहत गाओ स्टार पर कमेटियों को गठित करने का काम शुरू भी नहीं हुआ है. ग्राम समाज के व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों की अनदेखी की जा रही है.
उपरोक्त जांच से यह भी पता चलता है की इस तरह लोगों पर फर्जी मुकद्दमे थोप कर ज़मीन के अधिकार से वंचित किये जाने के विरोध में जन संघर्षों को दबाने का प्रयास किया जाता है. लोगों को माओवादी या माओवादी समर्थक होने का आरोप लगाया जाना भी इसी क्रम में पोलिस का एक हथकंडा ही है. ओपेराशन ग्रीन हंट की आड़ में, जिसके तेहत पुलिस के किसी भी अपराध के लिए कोई दंड दिए जाने का सवाल नहीं उठता, एक अनियंत्रित, कानून से परे शक्ति बनी हुई है.
यह कहना ज़रूरी है की हमने जितने मामलों की जांच की है वे केवल चाँद उदहारण मात्र ही हैं. असलियत इससे कहीं ज्यादा गंभीर और व्यापक है. क्योंकि हम जहां भी जाते थे वहाँ हमारे पास ऐसे अनगिनत मामले आ जाते थे जिनकी जांच करना इस टीम के समय और संसाधनों की सीमा के कारण संभव नहीं था. इसीलिए यहाँ जो छिटपुट मामलों का ब्यौरा दिया गया है, वो वास्तव में झारखण्ड के स्टार पर व्याप्त एक आम परिघटना का परिचायक ही है. पुराने मामलों में हुई कार्यवाही की जांच हमने की वह पता चलता है की न्याय हासिल करना यहाँ के लोगों के लिए कितना बड़ा मुश्किल और असंभव सा काम हो गया है .
सी आर पी एफ जैसे बालों की छत्रछाया में फलने फूलने वाले बड़े बड़े ज़मींदार, व्यापारी, ठेकेदार और बड़ी बड़ी कंपनियां पूरी तरह क़ानून के परे हो गयी हैं . हमे इस बात की गहरी चिंता है की इन समस्याओं के साथ साथ लोग सरकार की किस्म किस्म की नयी नीतियों के कारण ही अपने अधिलारों से यहाँ के लोग वंचित किये जा रहे हैं जैसे की सी एन टी एक्ट को संशोधित करने के लिए केंद्र और राज्य की ओर से की जा रही हाल की कार्यवाही.
जनता को यहाँ न केवल दशकों से उपेक्षित रखा गया है बल्कि आने वाले दिनों में उनके सामने अस्तित्व का संकट गहराता जा रहा है.
सी आर पी एफ के पिकेट, बेस कैंप आदि जिस गति से स्थापित होते जा रहे हैं और स्चूलों और कॉलेजों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है उससे इन जिलों का नज़ारा किसी रणभूमि के सामान ही हो चूका है. जनता यहाँ पल पल इस भय में जीती रहती है की कब इस भयंकर पुलिस तैनाती की गाज उस पर गिरेगी. महुआ, तेंदू पत्ता और अन्य वन उपज का संग्रहण करने के लिए जब लोग निकलते हैं तो यह खतरा कदम कदम पर उनके सामने खडा रहता है. इससे ना केवल उनकी आजीविका का स्त्रोत बल्कि उनकी पूरी जीवन शैली ही बुरी तरह प्रभावित हो रही है. अतः हम मांग करते हैं की:
१. ऑपरेशन ग्रीन हंट को तत्काल रोक दिया जाए.
२. सी आर पी एफ को इन क्षेत्रों से हटाया जाए.
३. सी एन टी एक्ट का संशोधन ना किया जाए..
४. वनों पर आधारित गाँव वासियों के व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकार प्रदान करने वाले वन अधिलर अधिनियम को लागू किया जाए.
५. सार्वनिक निगमों और कॉर्पोरेट कंपनियों द्वारा लागू की जा रही विभिन्न प्रयोजनाओं के विरोध में जनता के ओर से उठ रही आवाज़ के मद्दे नज़र इन पर पुनर्विचार किया जाए ताकि जनता के विरोध को उसकी जायज़ एहमियत मिले.
६. सी आर पी एफ और पुलिस की ज्यादतियों के सभी मामलों की न्यायोचित जांच पूरी की जाए और दोषी कर्मचारियों के खिलाफ यथाशीघ्र की जाए.