06 फ़रवरी 2012

“कुकी’ के तख्ते पर सभ्यता का इतिहास

चन्द्रिका.

इतिहास से हमे कुछ सीखना हो तो ’कुकी’ बन जाना चाहिए. पिछले 20 सालों में ओम प्रकाश शर्मा नाम तो उनके पड़ोसी भी भूल चुके हैं और अब उन्हें कुकी के ही नाम से जानते हैं. जिन्होंने एक सभ्यता के इतिहास को अपने आस-पास की पहाड़ियों और जंगलों में खोजा और यह जाना कि इतिहास की ओर लौटना धर्म और जातियों के विलुप्त हो जाने या विलुप्त कर देने की कार्यवाही जैसा है. वे मानते हैं कि पुरातत्वों की खोज में ही कहीं वह मानवता छुपी थी जिसने उनकी जिंदगी बदल दी. उन्होंने अपने भगवा कपड़ों को उतार दिया और ज़ेहन से धर्म भी धीरे-धीरे तिरोहित होता गया. जो बची वह आदिम इतिहास खोजने की ललक थी.

उनके पिता शिवनाथ भारत पाकिस्तान बंटवारे के समय पंजाब से भागकर राजस्थान के बूंदी जिले में आ बसे थे. 1955 में जब कुकी पैदा हुए तो घर में विस्थापन की गरीबी बरकरार थी. जब घर में गरीबी हो तो बच्चों का स्कूल जाना रस्म अदायगी जैसा ही होता है और कुकी आठवीं तक ही पढ़ पाए. उनके घर का जो दरवाजा गली की तरफ खुलता था वही उनके रोजगार का भी दरवाजा बन गया. कम उम्र में यह एक गरम काम था चाय बनाने से लेकर मिठाईयां बनाने तक का. कुकी ने अपनी पढ़ाइ की उम्र में चाय, मिठाइयां और हल्दी, मिर्च बेंची. जब फुर्शत मिलती या फिर पिता की नजरों से कन्नी काटकर वे घूमने निकल जाते. आसपास की पहाड़ियों और झाड़ियों में घूमते हुए पहली बार उन्हें वे दो गोल चीजें मिली थी जिसने उनकी जिंदगी को उल्टा घुमा दिया. ये पुराने सिक्के थे जिसे इतिहास में जाने कौन छोड़ गया था और वर्तमान में जाने क्यों छठी कक्षा में पढ़ने वाले एक बच्चे ने उठा लिया था. घर पर जब पिता ने इन सिक्कों को देखा तो वे खुश हुए. अपने बच्चे के किए हुए पर पिताओं की खुशियां ही उसके उत्साह का सर्टिफिकेट बन जाती हैं. अब कुकी अक्सर पहाड़ों में जाते और वहां पुराने सिक्के खोजा करते. शदियोँ पुराने सिक्कों को वे वर्षों तक इकट्ठा करते रहे, सिक्कों की संख्या बढ़ने के साथ उनका शौक भी बढ़ता रहा. अपनी रोजगार और कमाई को छोड़कर पहाड़ों पत्थरों में उनका इस तरह घूमना मुहल्ले वालों को बेवजह लगना लाजमी था कि आदमी बगैर पैसे और स्वार्थ के भला ऐसे क्योंकर घूमता है, पर खोज हमेशा स्वार्थ और पूजी से इतर भी होती रही है.. उन्हें एक कमसिन पागल मान लिया गया. उनके पड़ोसी सुभाष शर्मा पहाड़ों में पन्ना पत्थर ढूढ़ा करते और जयपुर शहर लाकर महंगी कीमतों में बेचा करते. पर कूकी को कभी कोई पन्ना पत्थर न मिला उन्हें जो पत्थर मिले उसकी कीमत आदमी बनने के प्रक्रिया के कीमत जैसी कुछ हो सकती थी पर हर चीज को कीमतों में नहीं आंका जा सकता.

अपनी शादी के वर्षों बाद जब 1988 में कुकी दिल्ली गए तब तक उनके पास 250 से ज्यादा सिक्के इकट्ठा हो गए थे, नेशनल म्यूजियम में उन्होंने सिक्के का परीक्षण करवाया तो वे 400 ई.पू. मौर्य काल तक सिक्के थे. कुकी ने पहली बार कोई संग्रहालय देखा और देर तक वे उसे निहारते रहे थे आठवीं के बाद वे फिर से पढ़ रहे थे. संग्रहालय के पत्थर, सिक्के, धातुएं और उनकी संरचनाएं उन्हें पढ़ा रही थी. संग्रहालय में रखी वस्तुओं जैसी कितनी चीजों को कुकी पहाड़ों पर घूमते हुए पीछे छोड़ आए थे. उन्हें आदि जीवन की अन्य चीजों के बारे में भी पता चला. उनकी निगाहों में पूरी की पूरी एक पुरानी सभ्यता ही बस गयी. बाद के दिनोँ में जब वे पहाड़ों में घूमते तो सिक्के ही नहीं खोजते वे ऐसी सभी चीजों को खोजते जिनकी तस्वीर वे संग्रहालय से अपनी आंखों में लेकर लौटे थे. कुछ ही वर्षों में अपने छोटे से घर में उन्होंने पूरा एक संग्रहालय बना लिया. लकड़ी के एक पुराने जर्जर तख्ते पर पुरानी सभ्यताओँ के अवशेष को उन्होंने कपड़े से ढक कर रख छोड़ा, जिसमे लाखोँ बरस पुरानी पत्थर की कुल्हाड़ियां हैं, गुलेग जैसी चीजों के लिए प्रयोग की जाने वाले हल्के पत्थर हैं और कुछ सौ साल पहले बंदूकों में प्रयोग की जाने वाली लेड की छोटी और भारी गोलियां हैं. दस लाख वर्ष पुराने मानवीय अवशेषों से लेकर कुछ सौ वर्ष पुराने अवशेषों का यह संग्रहालय हर आगंतुक के लिए खुला रहता है बगैर किसी टिकट के और साथ में उनके घर की चाय भी.

1995 के बाद कुकी ने आदिम मानवों द्वारा पत्थरोँ पर बनाए गए भित्तिचित्रों को खोजना शुरु किया. अभी तक देश में सबसे ज्यादा 81 भित्तिचित्र स्थान कुकी के द्वारा खोजे जा चुके हैं. उन्होने उन पत्थरों को भी खोजा जिनकी सहायता से आदिम मानव रंग तैयार करते थे उस जर्जर तख्ते के समृद्ध संग्रहालय से वे अचानक एक पत्थर उठाते हैं और थोड़ा सा पानी डालकर अपने आंगन की फर्स पर धिसते हैं और वह रंग तैयार हो जाता है जो हजारों साल पहले चित्र बनाने के लिए आदिम मानव तैयार करता था. हम अपने जीवन में जाने ऐसी कितने ही ज्ञान को दुहराते हैं जो हमने आदिम सभ्यता में सीखा था कि आग जलाने के ज्ञान को ज्ञान की परिभाषा से ही अस्वीकृत कर दिया गया.

भीलवाड़ा जिले में डूंगरीनाला नदी के किनारे उनके द्वारा अब तक की सबसे लंबी 35 किमी. की भित्तिचित्र श्रृंखला खोजी जा चुकी है. कुकी ने विदेशी पुरात्त्ववेत्ताओं से इन चित्रों की व्याख्याएं सीखी जो उन इलाकों में कभी किसी खोज के सिलसिले में आया जाया करते थे. कुकी मानते हैं कि ये भित्तिचित्र मानव की प्रथम पाठशाला हैं जहां आदिम लोग अपने बच्चों को चित्रों की सहायता से शिकार करने व जीवन जीने की शिक्षा दिया करते थे. उन्होने कई ऐसे स्थानों को ढूढ़ निकाला जहाँ आदिवासी अपने औजार बनाया करते थे. अब उनके पास छठी ई.पू. से लेकर मुगल काल तक के 1200 से अधिक सिक्के हैं और आदिम समाज के जीवन से जुड़ी ऐसी अनगिनत वस्तुएं जिनकी कभी उन्होने शायद गिनती ही नहीं की, बस उन्हें इकट्ठा करते रहे. इतिहासकारों की सूची में बूंदी जैसी छोटी जगह में रहने वाले कुकी एक ऐसा ही सिक्का हैं जिसे न खोजा गया न पाया गया. जो अपनी युगीन जरूरतों को पूरी कर पड़ा हुआ है घिरी पहाड़ियों के बीच एक बेहद मामूली से घर में बगैर किसी लोभ के. हमारी सभ्यता का एक डर है जो सहज और मामूली लोगों की खोजों से हर वक्त डरता रहता है कि खोज हमेशा सत्ताएं ही करेंगी कि नामावर कोई नामवर ही बनेगा.

10 टिप्‍पणियां:

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