रामशरण जोशी
अनुभव चार- सरकारी अधिकारी और कर्मचारी विकास के नाम पर आदिवासियों से मुर्गा धान शद गोंद महुआ बांस ईमारती लकडी आदि वसूली किया करते. जरूरत पडने पर लकडी के साथ-साथ लडकी भी वसूलते. दांतेवाडा के औद्योगीकृत बैलाडीला क्षेत्र में तो यह जीवन का यथार्थ ही बन चुका था.
अनुभव पांच- ऋणग्रस्तता भूमिहीनता पलायन और खुदकुशी दक्षिण बस्तर के जीवन का अविभाज्य हिस्सा रहे हैं विशेषरूप से तब से जब से वे तथाकथित आधुनिक बहुआयामी विकास संस्कृति से संप्रित हुए. वास्तव में आदिवासी विकास को एक स्वतंत्र व स्वायत्त घटना के रूप में देखता नहीं है वह जीवन को सम्पूर्णता के रूप में देखता है जब कोई प्रक्रिया या हस्तक्षेप उसके अस्तित्व व अस्मिता के विपरीत होता है तब वह भयभीत हो उठता है. वह कई प्रकार की आशंकाओं में घिर जाता है और उसकी यही मनोदशा उसके और राज्य के बीच में अविश्वास की जमीन तैयार कर देती है. विगत कई दशकों में सबसे बडा परिवर्तन तो मुझे आज ये दिखाई देता है कि उनमे शुप्त अस्तित्व अस्मिता के भाव अब मुखरित होने लगे हैं. वे विकास को ही नहीं बल्कि भारतीय राज्य की सम्पूर्ण उपस्थिति को एक प्रकार से अपनी सांस्कृतिक पारिस्थितिकी के परिप्रेक्ष में देखने-समझने की कोशिश करने लगे हैं और इसी प्रक्रिया में वे अपनी जडता से भी अनायास ही मुक्त हो रहे हैं जिससे कि वे ऐसे विकल्पों की खोज कर सकें जो कि परिवर्तित समय में भी उनके सम्पूर्ण ईथास को सुरक्षित व गतिशील बना सके. सारांश यह है कि आज का सबसे बडा विमर्श यह है कि क्या दांतेवाडा की मानवता स्वयं को कमोडिटी बनने दे और किस सीमा तक व किस कीमत पर अपनी इस नई पहचान को स्वीकार करे
भारत में विगत दो दशकों मंे जल जंगल और ज़मीन इन तीनों की भूख बेतहासा बढ़ी है। एक प्रकार से भूख का विस्फोट हुआ है। इस विस्फोट में देश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की भूमिका क्या रही है यह आज मुख्य रूप से विचारणीय प्रश्न है। जाहिर है किसी भी देश की राजसत्ता ही राजनीतिक अर्थव्यवस्था ;च्वसपजपबंस म्बवदवउलद्ध का रूप व दिशा निर्धारण करती है। यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है भारत भी इसका अपवाद नहीं रहा है। भारतीय राज्य ने अपने चरित्र के अनुसार राजनीतिक अर्थव्यवस्था का निर्माण किया दिशा निर्धारण और अन्ततः इसका क्रियान्वयन किया। यह सिलसिला औपनिवेशिक भारत से लेकर स्वतंत्र भारत तक निर्बाध रूप से चलता आ रहा है। अलबत्ता आवश्यकतानुसार इसके आकार-प्रकार और क्रियान्वयन-नीतियां बदलते रहे हैं। इसमें नये-नये आयाम जुड़ते रहे हैं; औपनिवेशिक शासकों की लूट-नीतियों से भूख जन्मी थी आज राष्ट्र-विकास की नीतियों ने भूख- विस्फोट किया है। निःसंदेह इस विस्फोट ने भारतीय राज्य और विकास रणनीतिकारों के समक्ष गंभीर चुनौती प्रस्तुत की है। इस चुनौती को विकास-संकट कहना भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा क्योंकि जल जंगल और ज़मीन को लेकर नागरिक तथा राज्य आमने-सामने खड़े दिखाई दे रहे हैं। देश के सुदूर भीतरी आदिवासी अंचलों और कतिपय ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में टकराव स्थितियां बनी हुई हैं। राजसत्ता के साथ सीमांत लोगों की मुठभेड़ेें भी जारी हैं और शांतिपूर्ण आंदोलन भी चल रहे हैं। आखि़र इस तनाव संघर्ष भूख के कारण क्या हैं क्यों पीड़ित व सीमांत नागरिक राज्य को शत्रु के रूप में देखने लगे हैं क्यों इन अंचलों में राज्य-बल (सेना- अर्द्ध सैन्य बल पुलिस आदि) का जाल फैलता रहा है क्यों भूख की तृप्ति और संघर्षों-आंदोलनों के दमन के मामले में भारतीय राजसत्ता का जन-विरोधी चरित्र उजागर हो रहा है ये ऐसे सवाल हैं जिनसे पलायन संभव नहीं है बल्कि इनके कारणों की पड़ताल अपरिहार्य बनती जा रही है।
बूंदी, राजस्थान में पढ़े गए एक पत्र का अंश.
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