13 दिसंबर 2010

लवासा नेतृत्व हीनता में बंद पड़ी लड़ाई

चन्द्रिका
लवासा पुणे और मुंबई के पास वरसगांव बांध (वरसगांव बांध एवं जलाशय) के पीछे बाजी पासलकर जलाशय के किनारे, पश्चिमी घाट में स्थित है. यह शहर दीर्घीभूत वरसगांव बांध जलाशय को चारों तरफ से घेरने वाली आठ बड़ी-बड़ी पहाड़ियों की गोद में स्थित है. इस परियोजना में लगभग २५,००० एकड़s (१०० कि.मी.२) भूमि शामिल है. लवासा पुणे (लगभग 50 किमी) से 80 मिनट और मुंबई (लगभग 180 किमी) से 3 घंटे की दूरी पर स्थित है.
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने लवासा को नोटिस भेजकर बड़े पैमाने पर चल रहे पेड़ों की कटाई और पहाड़ियों के उत्खनन को स्थगित कर दिया है जिस पर कोई फैसला आने तक मुंबई हाई कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है. शरद पवार नाराज हैं कि आखिर नोटिस क्यों भेजी गयीं. लवासा के साथ शरद पवार के खड़े होने की वजह है. वजह है कि उनकी पारिवारिक रकम इस योजना में बड़ी मात्रा में लगी है और हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी के मालिक अजीत गुलाबचंद पवार के करीबी माने जाते हैं. बहरहाल सरकार और कार्पोरेट के करीबीपन का रिस्ता किसी भी रिस्ते से अधिक नजदीकी होता है. पवार की नाराजगी इसी मिलीजुली दायित्वबोध की अदायगी है. यह कम्पनी का अजीत पवार के प्रति महज प्रेम नहीं है कि महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री बनने के बाद लवासा में उनके बधाईयों के बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर टांग दिये गये हैं. यह लवासा की विवादित परियोजना में महाराष्ट्र सरकार की अनिष्टकारी दखलंदाजी न होने की अपील है जो शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले द्वारा अपने भाई से की जा रही है. इसे पारिवारिक सम्पत्ति की राजनैतिक हिफाजत के रूप में देखा जाना उचित होगा.लवासा पुणे और मुम्बई के स्थित पहाड़ियों में योजनाबद्ध तरीके से बनाया जाने वाला देश का पहला शहर है जिसका नाम मराठी में अलंकृत कर दिया गया है. शायद यह राजठाकरे का भय हो कि इस योजनाबद्ध शहर को मराठी शब्दों से नामित कर दिया गया हो. २५ हजार एकड़ भूमि में बन रहे इस शहर में मुम्बई और पुणे की ऊब से निकलकर धनाड्य वर्ग लवासा में सुकून पा सके यह एक दूरगामी मकसद है. देश के धनाढ्य वर्ग को शहर और सुकून के साथ प्राकृतिक सौंदर्य से भरापुरा गाँव भी चाहिये, सब कुछ एक साथ. लिहाजा बड़े शहरों के आसपास की सुंदरता को इनके लिये संरक्षित कर दिया जा रहा है जिसकी कीमत वहाँ के मूलवासियों को अपने घरों से उजड़ कर देनी पड़ रही है. हजारों अपार्टमेंट्स और विलाओं के साथ यह योजना चार चरणों में पूरी की जायेगी जिसकी अनुमानित लागत २० हजार करोड़ रूपये से अधिक आंकी गयी है. जिसे देश के विकसित होने का स्वप्न वर्ष विजन २०-२० के एक साल बाद पूरी तरह से निर्मित देखा जा सकेगा. लेकिन इस परियोजना के कई और भी पेंच हैं जो कार्पोरेट और सरकार के मधुर सम्बन्धों को बयां करती है. जिसके तहत हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्सन कम्पनी ने कई आदिवासी गाँवों की जमीने औने-पौने दामों पर ले रखी हैं. जिस जगह यह परियोजना निर्मित की जा रही है और जिन आदिवासियों के गाँवों को उजाड़ कर लवासा बनाया जा रहा है वहाँ के मूलनिवासियों को अभी तक सरकार विजली, पानी, स्कूल पहुंचाने में अक्षम रही है. जबकि दुनिया की सर्व सुविधा सम्पन्न निर्माणाधीन इस नगरी को कई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है वहीं आसपास के गांवों में एक अनुमान के मुताबिक बिजली पहुंचाने का खर्च ३ करोड़ रूपये ही लगेगा पर वह अभी तक नहीं पहुंचाई जा सकी. महज कुछ वर्षों में ही २० हजार करोड़ से अधिक लागत की इस परियोजना को चालू कर दिया गया. दरअसल यह सरकार का आदिवासियों के प्रति उपेक्षा का दृष्टिकोण है. उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखे जाने और उनके विद्रोह की प्रतिक्षा करने की परम्परा विकसित हो गयी है. मुंबई और पुणे के बीच यहाँ का आदिवासी उसी जीवन स्तर के साथ जीता है जैसा कि बस्तर और गड़चिरौली में. शहरों से दूर स्थित आदिवासी क्षेत्रों में सरकार विकास न कर पाने, स्कूलों की अव्यवस्था का तर्क इस तौर पर देती रही है कि माओवादी इसे बाधित करते हैं जबकि माओवादी आंदोलन से कोसों दूर बसे इन आदिवासियों की दयनीय स्थिति के लिये सरकार के पास आखिर क्या जवाब हो सकता है. लिहाजा यह एक संरचनात्मक समस्या है जिसमे आदिवासी अपने को संरक्षित नहीं पाता और इसके विरुद्ध खड़ा होता है. जिसके पश्चात भी सरकार कोई कार्यक्रम आदिवासियों के उत्थान के लिये बनाने के बजाय इनके दमन के लिये ही कार्यक्रम बनाती रही है. पूरे देश में आदिवासियों के बीच चल रहे माओवादी आंदोलन का स्वरूप और प्रक्रिया यही रही है. उन्हें सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रखा गया और जब सुविधाभोगी शहरों की जमीने खोखली हो गयी तो आदिवासियों द्वारा प्राकृतिक रूप से संरक्षित पहाड़ों और जंगलों को कार्पोरेट जगत के हांथों देकर हथियाने का काम किया गया जिसमे सरकार आदिवासियों का विस्थापन करने में मदद करती रही. अभी देश में प्राकृतिक सम्पदायें वहीं सुरक्षित बच पाई हैं, जहाँ आदिवासी निवास कर रहे हैं.पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लवासा को जो नोटिस भेजी गई है वह अन्ना हजारे और मेधा पाटेकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का दबाव ही है पर इसके कोई दूरगामी परिणाम नहीं निकलने वाले क्योंकि सरकार ने विस्थापन की जो नीतियां बनाई हैं राज्यों के लिये उसमे कुछ ऐसे रास्ते छोड़ दिये गये हैं जहाँ से वे मनमानी कर सकें. इन गाँवों के आदिवासी शायद अपनी जमीने बचा लेते यदि इनके साथ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा हो पाता पर यह सम्भव इसलिये भी नहीं है कि देश के जिन हिस्सों में आदिवासियों ने अपने विस्थापन के खिलाफ बड़े आंदोलन खड़े किये हैं और सफल रहे हैं उनमें माओवादियों का जुझारू नेतृत्व ही रहा है जबकि इस क्षेत्र में माओवादीयों की कोई खास पैठ नहीं है लिहाजा सरकार और संविधान से आगे की संगठित लड़ाई लड़नी मुमकिन नहीं दिखती.

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