26 जुलाई 2010

संसदीय लोकतंत्र का नैतिक पतन

चन्द्रिका
बिहार विधान सभा में हुए हंगामा न तो पहला है न ही आखिरी बिहार के अलावा भी यदि अन्य राज्यों की एक सूची बनाई जाय तो लम्बी फेहरिस्त बनेंगी. अलबत्ता इस घटना के बाद ६७ सांसदों को निलम्बित कर दिया गया है. इस पूरी घटना को क्या इस रूप में लिया जाना चाहिये कि विपक्ष, नितीश सरकार के द्वारा की गयी ११,४१२ करोड़ की कथित अनियमितता को उजागर करना चाहता था जिसकी प्रतिरोध स्वरूप यह हंगामा किया गया या फिर यह संसदीय राजनीति का क्रमवार नैतिक पतन है. दरअसल यह एक नाटक है जो संसदीय राजनीति में खेला जाना जरूरी हो गया है और तब इसकी अहमियत और भी ज्यादा बढ़ जाती है जब चुनाव नजदीक हों. जिस सी.ए.जी. की रिपोर्ट को लेकर यह हंगामा हुआ वह जुलाई २००९ में ही सदन में प्रस्तुत की गयी थी तब से लेकर अब तक कोई खास विरोध विपक्ष के द्वारा नहीं किया गया. अब जबकि बिहार में चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो ऐसी स्थिति में यह नाटक खेला जाना राजनीतिक परिदृष्य में एक अहम भूमिका अदा करेगा और मीडिया के जरिये इन्हें प्रचार या कुप्रचार मिल सकेगा. यह ऐसा ही मसला है जैसे कुख्याति की भी एक ख्याति होती है और अब तक इसे देश की राजनीति में कई आपराधिक तत्व इस प्रवृत्ति को भुनाते रहे हैं. अपने आपराधिक कुख्यातपन को ख्याति में बदल कर भीड़तंत्र का समर्थन हासिल करने में वे कामयाब हो जाते हैं. ऐसी स्थिति में मीडिया सर्वसुलभ होती है जिसके जरिये परिदृष्य से वर्षों से गायब एक नेता लोगों के सामने दृष्यमान हो उठता है, वह भी प्रतिरोध करता हुआ, अनियमितताओं के खिलाफ जूझता हुआ, कुमारी ज्योति की तरह जो शारीरिक अक्षमता के बावजूद गमले तोड़े जा रही थी.

कुछ वर्ष पूर्व ही जब बिहार विधान सभा में एक पत्रकार के प्रसाशनिक दमन के बाद पत्रकारों ने सदन से वहिस्कार का फैसला लिया था ऐसी स्थिति में सदन के सदस्यों द्वारा यह कहा गया था कि मीडिया की अनुपस्थिति में शोर सराबे का कोई मतलब नहीं है और उस दिन शोर सराबा स्थगित रहा, तो क्या यह मान लिया जाय कि सदन में किया जाने वाला शोर सराबा मीडिया के लिये किया जाता है ताकि नेताओं और विपक्षि दलों के दिखावटी विरोध लोगों तक मीडिया के जरिये पहुंच सके और लोगों को लगे कि उनके नेता मुद्दों के प्रति कितने जुझारू हैं. निश्चित तौर पर सदन के प्रतिरोध महज दिखावटी ही रह गये है क्योंकि सत्तारूढ़ और विपक्ष दोनों ही इस संरचना में एक पॉलिसी के तहत कार्य कर रहे हैं जहाँ विपक्ष के लिये प्रतिरोध एक अनुष्ठानिक कार्यक्रम बन जाता है.
विधायिका संसदीय राजनीति का एक अहम स्तम्भ है पर इसमे क्रमवार गिरावट देखी जा सकती है राज्य सभा के सभापति के रूप में जब डा. शंकर दयाल शर्मा को रोते हुए यह कहना पड़े कि “लोकतंत्र की हत्या न करें चाहें तो मेरी जान ले लें” इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि सदन के कार्यवाही की स्थितियां किस रूप में विद्रूप होती चली गयी हैं. जबकि वास्तविक स्थिति ये है कि सदन के कार्यवाहियों का जो हिस्सा मीडिया के जरिये प्रस्तुत किया जाता है वह सम्पादित किया हुआ रहता है. जिसमे सदन में हुए अशोभनीय आचरण को पहले ही निकाला जा चुका होता है. आखिर देश की जनता जिन नेताओं को चुनाव कर अपने प्रतिनिधि के तौर पर भेजती है उनके आचरण को ठीक उसी रूप में देखने का हक क्यों नहीं मिल पाता जिस रूप में वे सदन में आचरण करते हैं.

यही नहीं बल्कि सदन में कई बार प्रतिनिधियों के साथ वर्गीय व जातीय आधार पर भेदभाव के मसले भी खुलकर सामने आये और हंगामा भी हुआ पर उन्हें सदन की कार्यवाही से बाहर करार दिया गया है. चाहे वह झारखंड में आदिवासी विधायक करिया मुंडा के हड़िया पीकर सदन में आने का मसला हो या उत्तर प्रदेश में गाजीपुर के विधायक काशीनाथ यादव के बिरहा गाने का. झारखंड में आदिवासी विधायक करिया मुंडा के हड़िया पीकर आने पर सदन के कई सदस्यों द्वारा उनका उपहास किया गया था और मुंडा रोते हुए बोले थे कि जब कोई सदस्य व्हिस्की और रम पीकर आ सकता है तो वे हड़िया पीकर क्यों नहीं आ सकते, उन पर कोई आवाज क्यों नहीं उठाता. इसी तौर पर गाजीपुर के विधायक काशीनाथ यादव ने कुछ वर्ष पूर्व सदन में कहा कि वे अपनी बात बिरहा से शुरू करना चाहते हैं और सदन में हो हल्ला मचने लगा लालजी टंडन ने तो यहाँ तक कहा कि सदन में एक पतुरिया की कमी और रह जायेगी कहिये तो उसे भी पूरी कर दें ऐसी स्थिति में अध्यक्ष ने हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि जब लोग सदन में दुष्यंत कुमार, निदा फाजली, गालिब से अपनी बात शुरू कर सकते हैं तो बिरहा में बात क्यों नहीं रखी जा सकती जबकि यह एक लोक विधा है. ये ऐसी घटनायें हैं जो देश के उस सदन में घटित होती हैं जो समता, समानता के नारे की संरचना निर्मित करता है और अपनी कार्यप्रणाली में असमानता की संस्कृति को बनाये हुए है.

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