21 जून 2010

किताबें नहीं, लड़ने की जिद

चन्द्रिका
(तहलका के साहित्य विशेषांक में छपे इस आलेख कों सम्पादक द्वारा इतना संपादित कर दिया गया कि इसका मर्म ही नहीं बचा लिहाजा इसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है. )
किताबें पढ़कर कोई क्रांति नहीं की गयी, पर क्रांतियों के घटित होने में किताबों की भूमिका अहम रही और किताबें क्रांति का दस्तावेज बनी. शब्द जब चलना शुरू किये होंगे, इंसान के ज़ेहन से निकलकर जुबानों तक और जुबानों से निकलकर कई जुबानों तक विस्तार पाते गये होंगे और न जाने कितने वर्षों तक इसी तरह भटकते रहे होंगे. इस प्रक्रिया में जाने कितने शब्द और वाक्य विलीन हो गये होंगे और अपने अस्तित्व को बचाते-बचाते दम तोड़ दिया होगा. दादियों के मुंह की कितनी कहानियां, गर्मी की छुट्टियों में नानियों के कितने किस्से उनके गुजरने के साथ-साथ गुजर गये होंगे. अलाव सेंकते बाबा के मुंह से पुरखों की सुनाई गयी शौर्य गाथायें असहाय और साहस विहीन होकर न जाने किस गाँव में बस गयी कि अब कोई आवाज ही नहीं सुनती. आज अपनी उम्र के साथ वे कितनी जर्जर और बेबस होंगी. हम नाकामयाब रहे उनमे से कितनों को बचाने में जबकि दुनिया की किताबों में उनकी जगह आज भी सूनी सी है कोई रसूल हमजातोव नहीं हुआ जो हिन्दी समाज के दागिस्तान को कह दे.
अलबत्ता कुछ प्रकाशन संस्थान ऐसे हुए जो अब तक के समय और घटनाओं के लेखन को प्रकाशित कर इतिहास के दृष्यों को रंगते रहे, धूमिल होती घटनाओं से धूल झाड़ते रहे. बीता हुआ वह सब, जो हमारे बीच मौजूद हैं या यूं कहें कि किताबों ने जिन्हें बचाये रखा है, हर अगली पीढ़ी उनसे रूबरू हो रही है. हिन्दी समाज के कई ऐसे प्रकाशन हैं जिन्होंने पुस्तकों का प्रकाशन व्यवसाय के लिये नहीं बल्कि बीते हुए समय को संरक्षित कर, दस्तावेजों, गुजरे समय की कथाओं, कविताओं, उपन्यासों, जीवनी, आत्मकथाओं, नाटकों को सजो कर रखा. इन्होंने किताबों को मनोरंजन के साधन के रूप में नहीं बल्कि जीवन जीने के नशे की एक जरूरी खुराक के रूप में पाठकों के बीच में प्रस्तुत किया. यह एक आंकड़ा विहीन तथ्य है कि ये पुस्तकें ऐसी पुस्तकें रही जिनसे कितनों ने दुविधा के क्षण में अपने जीवन को बचाया कि कितने सारे जीवन इन किताबों के रिणी हो गये.
समाज परिवर्तन और संघर्ष के कई तरीके और कई पहलू होते हैं लिहाजा सत्ता व संरचना दोनों के बदलाव के बावजूद जरूरी नहीं कि समाज के अंतर्विरोध खत्म हो जायें जोकि संरचना बदलने के साथ अपेक्षित थे, उनके बदलाव के लिये चेतना का विकास व मनोदशा की दिशा को ही बदलना पड़ेगा. यह बदलाव ज्ञान आधारित उपक्रमों से ही सम्भव है, एक आदमी के अपने भीतर का संघर्ष जाति, सम्प्रदाय, धर्म से लड़ने का, समाज में व्याप्त गैरबराबरी को समझने का, लोकतंत्र के दायरे को बढ़ाने का, जिनसे सही मायने में पुस्तकें ही मुखातिब करवाती हैं. जब एक अन्यायपूर्ण समाज में खामोशी और चुप्पी जी रही होती है तो ये किताबें ही हैं जो बीज के रूप में इंसान में अन्याय के प्रति प्रतिकार को जिंदा रखती हैं और बदलाव के अंकुर वहीं कहीं से फूटते हैं.
संवाद प्रकाशन इसी अन्याय के प्रतिकार की एक अकेली कोशिश से शुरू की गयी मुहिम है. आलोक श्रीवास्तव एक पत्रकार, कवि, लेखक के साथ संवाद प्रकाशन के एक कर्मठ श्रमिक भी हैं. एक कवि, लेखक को श्रमिक कहते हुए शायद हम सब मे जो महसूसियत होती है वह समाज में कामों के बटवारे की श्रेणीबद्धत्ता को तोड़ती है, यह उस संरचना को भी तोड़ना है जिसमे एक लेखक या पत्रकार अपनी भूमिका के साथ अपना ओहदा तय कर लेता है और उस ओहदे की ऊंचाई भी. जिसे तोड़ते हुए आलोक श्रीवास्तव ने १९९६ में संवाद प्रकाशन की शुरूआत की. संवाद प्रकाशन के पास विचारों की पूजी थी यह आलोक श्रीवास्तव का जुझारुपन था जो २०० के आस-पास दुनिया के तमाम उत्कृष्ठ साहित्य को हिन्दी में अनुवाद के जरिये व हिन्दी की कुछ उकृष्ठ रचनाओं को मूल रूप में लाया जा सका. इन पुस्तकों को लाने के पीछे यह मकसद नहीं था कि जो ज्यादा बिकें उन्हें प्रकाशित किया जाय बल्कि इसके पीछे का मकसद हिन्दी में ऐसे विचारों का बौद्धिकवर्ग पैदा करना जो विचारों और सृजन की दुनिया से जुड़ना चाहता है. संवाद ने एक ऐसा पाठक वर्ग बनाया भी जो हर साल उसकी नयी प्रकाशित होने वाली किताबों का इंतजार करता है. अधिकांस किताबों को पेपर बैक में इसलिये छापा गया ताकि ये पाठकों के लिये सस्ते मूल्य पर उपलब्ध करायी जा सकें. यह किसी संगठन के बजाय अकेले आंदोलन छेड़ने जैसा था, जिसकी ये मुहिम थी कि देश-दुनिया के श्रेष्ठतम पुस्तकों को लोगों तक पहुंचाया जाय और हिन्दी में वैचारिक व कलात्मक आकर्षण के साथ विभिन्न भाषाओं की किताबों का अनुवाद संवाद के जरिये प्रकाशित हुआ. दरअसल संवाद प्रकाशन के जरिये यह मुहिम किसी समाज के बदलाव के पहले व बदलने की प्रक्रिया में चेतना की ऐसी खुराक है जो वह जमीन तैयार करती है जिस पर परिवर्तनकामी शक्तियों को एक सही दिशा मिल सके. संवाद प्रकाशन के इस मुहिम में बदलाव का कोई उतावलापन जैसा नारा नहीं है. “किताबें जिनसे झांक रहा है एक सपना” ये स्वप्न दिखाती हैं एक मानवीय समाज का. ये एक पाठक को तब संवेदित करती हैं, जब समाज में घट रही हर घटना किसी कहानी से और घटनाओं में शामिल वे लोग किसी पात्र से टकरा जाते हैं और यह सब हमारे अंदर ही घटित होता है. कई ऐसे दार्शनिकों की जीवनी, जिनके दर्शन के साथ जीवन भी हमें जीने और घोर हतासा के बीच जीकर स्व का परित्याग कर दुनिया के जोखिम को उठाने का सबब देते हैं. इजाडोरा की प्रेमकथा, रूसो की आत्म कथा ऐसी किताबें हैं जो एक व्यक्ति के द्वारा अपने किये हुए को कुबूल करने का असीम साहस पैदा कराती हैं जहाँ जीवन संघर्ष की अप्रतिम ऊंचाई मिलती है. संवाद के जरिये विचार दर्शन, उपन्यास, इतिहास व विमर्ष की कुछ ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद प्रकाशित किया गया है जो निश्चित तौर पर हिन्दी समाज की वैचारिक उर्जा को संवेग प्रदान करने वाला है. यह चालीस करोड़ हिन्दी भाषी समाज को एक समृद्ध परम्परा के जरिये ऐसी वैज्ञानिक चेतना की मौलिकता प्रदान कर सकता है जो किसी भी संकीर्णता की सीमा को तोड़ते हुए मानव विकास के आंतर्राष्ट्रीयतावादी परिदृष्य को खोलता है.
फर्नांदो पेसेवा, विस्साव सिम्बोर्सका के साथ दुनिया के कई अन्य महत्वपूर्ण कविताओं का हिन्दी में आना आज के समय में हिन्दी कवियों को एक सीख देगा, जबकि वे घटनाओं की सपाट बयानी को कविता के रूप में रख रहे हैं. इंसान की उन छोटी-छोटी हरकतों को, उनकी मनोदशा को पेसेवा और सिम्बोर्सका की कवितायें एक बुककर की तरह बुनती हैं. इस रूप में संवाद एक प्रकाशन नहीं बल्कि अपनी स्वीकारोक्ति के साथ “एक अभियान, एक आंदोलन है” जो हिन्दी भाषा में बुद्धिजीवी वर्ग के तलास की सम्भावना में है, भविष्य में उन नये बुद्धिजीवियों से संवाद करना और उनको तैयार करना जिनसे नवजागरण की संस्कृति को मजबूत किया जा सके.
हिन्दी समाज में आंदोलनों के स्वर जब धीमे पड़ रहे थे खास तौर से २००० के बाद का समय, उस वक्त इलाहाबाद के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जिनमें लाल बहादुर वर्मा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है ने इतिहास बोध प्रकाशन की शुरूआत की. कुछ मित्रों ने मिलकर महज़ बीस-तीस हजार रूपये लगाये. ये बाजार की सबसे सस्ती किताबें थी जिनके प्रथम संस्करण साल भर में ही खत्म हो जाते थे इससे इन पुस्तकों की उपयोगिता को समझा जा सकता है. इन पुस्तकों की जरूरत ने ही इन्हें सीमित नहीं रहने दिया और जब इसका दायरा बढ़ने लगा तो सम्न्वय में परेशानियां आने लगी फिर इसका भार साहित्य उपक्रम ने उठा लिया. इलाहाबाद सांस्कृतिक आंदोलन की एक विरासत के रूप में था ऐसे में इस प्रकाशन की शुरुआत निश्चित तौर पर एक छटपटाहट की उपज थी जो बौद्धिक स्तर पर एक जमीन तैयार कर सके या फिर उस जमीन को बचाये रखे जिसके लिये किन्हीं दिनों में इलाहाबाद को जाना जाता था. एक इतिहास का प्रख्यात लेखक लालबहादुर वर्मा अपने कंधे पर उन पुस्तकों को वर्षों ढोता रहा जिनसे उसे भविष्य के बेहतर इतिहास की सम्भावना दिख रही थी. यह लोगों को, बुद्धिजीवियों को संघर्षों के इतिहास का बोध कराने जैसा ही था. इसके तहत तकरीबन २५ से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया गया जो देश-दुनिया के श्रेष्ठ साहित्य में से हैं. ये किताबें जनता की जरूरत और जेब के मुताबिक थी, प्रकाशन ने इतिहास बोध नाम की पत्रिका का भी नियमित प्रकाशन किया जिसने दुनिया के इतिहास को नये रूप में हिन्दी समाज को परिचित कराया. इतने परिश्रम के बावजूद इतिहास बोध प्रकाशन कुछ ही वर्षों तक चल पाया और एक कड़ी के रूप में ४ वर्ष पूर्व साहित्य उपक्रम नाम से इसे चलाया जाने लगा जहाँ से कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन अभी भी जारी है.
जन चेतना, राहुल फाउंडेशन, परिकल्पना जैसे हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशन हैं जिन्होंने दो दशक पूर्व प्रगतिशील व जनपक्षधर साहित्य को लोगों तक पहुंचाने के लिये छोटी सी मुहिम से अपनी शुरुआत की. शुरुआत कुछ पुस्तिकाओं के साथ हुई एक समूह था जो आपस में पढ़ने लिखने का काम किया करता था, उसमे एक मित्र के पास कम्प्यूटर था और इसी से कम्पोजिंग की शुरुआत की गयी. परिकल्पना साहित्यिक किताबों के प्रकाशन और राहुल फाउंडेशन राजनैतिक किताबों के प्रकाशन के उद्देश्य से शुरू किये गये. इसके साथ जनचेतना इन पुस्तकों व अन्य समाज की जन पक्षधर साहित्य की पुस्तकों के वितरण का काम करने लगा. बाद में बच्चों के लिये अनुराग ट्रस्ट नाम से भी प्रकाशन की शुरूआत की गयी. धीरे-धीरे इसका विस्तार भी हो गया, एक टीम बनायी गयी जो यह तय करती है कि किन पुस्तकों का प्रकाशन जरूरी है इसके बाद समूह के सदस्यों में इसे टाइपिंग के लिये बांट दिया जाता है फिर आपस में अदल-बदल कर प्रूफ चेक कर लिये जाते हैं. आज के समय में सबसे ज्यादा जिन पुस्तकों को लोग पसंद कर रहे हैं वे भगत सिंह, राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचंद, है पर युवा पीढ़ी में मार्क्सवाद की किताबों की मांग बढ़ी है वे चाहते हैं कि सरल रूप में मार्क्सवाद की पुस्तकें उन्हें उपलब्ध कराई जायें, साथ में राजनीतिक पुस्तकों की भी मांग बढ़ी है. बड़े पैमाने पर पहुंचाने की दरकार है पर अपनी सीमित क्षमता के कारण यह काम बहुत कम पूरा हो पा रहा है. हिन्दी समाज के लिये यह एक बहुत जरूरी काम था जो चल रहा है. यह एक वैचारिक परियोजना और सांस्कृतिक मुहिम थी जो झोलों और ठेलों से शुरु हुई थी. इस तरह की जनपक्षधर किताबें प्रकाशित करने व उन्हें लोगों तक पहुंचाने की एक सांगठनिक व सजग पहल शायद हिन्दी समाज में पहली बार हुई. किताबों के साथ जनता का सम्बन्ध इन प्रकाशकों के लिये कई रूप में था मसलन ये मानते थे कि बेहतर ज़िंदगी का रास्ता, बेहतर किताबों से होकर जाता है. किताबों को लेकर इन प्रकाशकों ने कई तरह के नारे दिये और लोगों में किताबों के प्रति रुचि पैदा करने के लिये किताबों के बारे में कवितायें लिखी. इनकी प्रतिबद्धता सपनों के हरकारे और विचारों के डाकिये के रूप में थी. इनके द्वारा प्रकाशित किताबों ने देश में द्वन्दात्मक भौतिकवाद और वैज्ञानिक चिंतन की एक समझ जरूर पैदा की. यह मुहिम इतनी सफल हुई कि इसने न सिर्फ हिन्दी समाज बल्कि पंजाब के सुदूर गाँवों में अपने विचारों को घर की आलमारियों तक पहुंचाया. अंग्रेजी, हिन्दी और पंजाबी में इन प्रकाशनों ने सैकड़ों किताबें प्रकाशित की. एक हिन्दी समाज के वामपंथी कार्यकर्ता के लिये उसकी वैचारिक उर्जा का आधार यही पुस्तकें बनी. प्रकाशन ने अभियान के रूप में दुनियाँ की तमाम बहसों को सरल भाषा में प्रकाशित किया गया. यह एक सुनियोजित मुहिम थी, लिहाजा इसने एक व्यक्ति के निर्माण में उसके बदलते उम्र के साथ वैचारिक खुराक की जरूरत का ख्याल रखते हुए कुछ ऐसी किताबों और बाल साहित्य का प्रकाशन किया जो समाज में वंचित तबके का सवाल बाल मन से उठा सके, नौजवानों के लिये सस्ते दर में भगत सिंह व पीटर क्रोपोटकिन की पुस्तकों का प्रकाशन हिन्दी समाज की जड़ता से मुक्ति के लिये व वैज्ञानिक चिंतन और द्वन्द पैदा करने का एक सपना था. देश के अन्य कई ऐसे प्रकाशन हैं जो किसी के कंधों पर किन्हीं झोलों में और साईकिलों से आज भी चल रहे हैं और दुनिया को बदलने की जिद को अपनी कोशिशों के साथ मजबूत कर रहे हैं.
आम लोगों के लिये
जरूरी हैं वे किताबें
जो उनकी जिंदगी की घुटन
और मुक्ति के स्वप्नों तक
पहुंचाती हैं विचार
जैसे कि बारूद की ढेरी तक
आग की चिंगारी.

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