चन्द्रिका
देश की सभी संसदीय पार्टियों के सामने आज नायकत्व का संकट है. मनमोहन सिंह को जब प्रधानमंत्री बनाया गया तो वे किसी भी रूप में जन लोकप्रिय नेता नहीं थे. लोगों ने देश की जिस पार्टी को अपना समर्थन दिया उसके पास एक ऐसे नेता का आभाव था जिसकी देश में लोकप्रिय छवि हो. हाल के दिनों में कांग्रेस का यह अंतर्विरोध और भी उभर कर सामने आया जब आदिवासी प्रतिरोध के विरोधी गतिविधियों और सैन्य कार्यवाहियों के चलते पी. चिदम्बरम की लोकप्रियता बढ़ने लगी. चाहे वह जिस भी रूप में रही हो. अब तक राजनीति में लोकप्रियता के आधार इसी तौर पर निर्मित होते रहे हैं जिसमे व्यक्ति का चेहरा और नाम लोगों की नजर और जुबान पर चढ़ जाय. राहुल गांधी के अनूठे कारनामे और सनसनी दौरे इसी स्थापना के लिये जारी हैं. लिहाजा कांग्रेस के भीतर एक नये तरीके का अंतर्विरोध बढ़ा. माओवादियों को लेकर दिग्विजय सिंह के जो बयान आये वह चिदम्बरम की रणनीति के खिलाफ थे, पर पॉलिसी के आधार पर कांग्रेस ही नहीं बल्कि देश की सभी पार्टियाँ माओवाद को लेकर एक जैसा ही रुख रखती हैं. इस बयान से कांग्रेस पार्टी लोगों और बुद्धिजीवी तबके में पनप रहे विमोह को एक लोकतांत्रिक और उदार चेहरे के रूप में दिग्विजय सिंह को प्रस्तुत कर कम करना चाहती थी. दरअसल देश में अब तक जो ढांचा निर्मित हुआ है उसमे किसी भी संगठन में व्यक्ति का नायकत्व और उच्चता क्यों उभारी जाती है जबकि इसके साथ ही कोई संरचना अपने में असमान हो जाती है. किसी भी ढांचे में पदों की श्रेष्ठता और निम्नता उसे असमान आधारों पर ला खड़ा करती है. यह असमानता महज देश की संसदीय पार्टियों में ही नहीं बल्कि गैर संसदीय पार्टियों और संगठनों में भी व्याप्त है, जो इस असमानता के खिलाफ लड़ रहे होते हैं.
कोई भी संरचना अपने लिये एक मूल्य का विकास करती है. व्यवस्था के एक ढांचे में रहते हुए वैचारिक तौर पर उससे बाहर की सोच तो पैदा हो जाती है पर व्यव्हारिक तौर पर उसे लागू करना कम सम्भव होता है, जब तक कि कोई नया ढांचा निर्मित न हो जाय. इस देश में जो संरचना विकसित हुई उसने समूह के बजाय व्यक्ति को उभारने का काम किया यानि सामूहिकता के विरोध में व्यक्ति केन्द्रीयता ज्यादा हावी रही, चाहे वह आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, खेल किसी भी क्षेत्र में देखा जा सकता है. व्यक्ति की ब्रांडिंग की जाती रही और उसे सेलीब्रिटी के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा. एक ऐसा मूल्य विकसित हुआ जहाँ लोगों ने समूह, संगठन को तरजीह देने के बजाय व्यक्ति आधारित ब्रांडिंग के लिहाज से समूह व संगठन को चुनने लगे. भाजपा में रहते हुए अटल बिहारी बाजपेयी के साथ लोगों का यही बर्तव था, एक बड़ा तबका एक व्यक्ति के प्रभाव से एक पार्टी को समर्थन करता था.
इस केन्द्रीयता का विकास अचानक नहीं हुआ बल्कि यह धीरे-धीरे समाज के सभी आयामों में विकसित हुई. फिल्मों में सांगठनिक प्रतिरोध के बजाय एक व्यक्ति का नायकत्व, पार्टियों में समूह के बजाय व्यक्ति का उभारा जाना या अन्य विभिन्न सांस्कृतिक विधाओं में एक विधा को श्रेष्ठता प्रदान करना. एक ऐसे निर्माण का दौर चला जहाँ केन्द्रीयता हावी होती गयी. लिहाजा देश में राष्ट्रीय स्तर की पार्टीयों के पास बड़ा जनाधार होने के बावजूद नेतृत्व की कमी उभर कर सामने आयी क्योंकि नायक के अवसान से आये खालीपन को भरने में या नया नायक निर्मित करने में समय लगता है.
इससे संरचना को सहूलियत इस आधार पर हुई कि उस एकल नायकत्व को डिगा पाने में आसानी हो गयी जो समूह में कम सम्भव थी. हर क्षेत्र में केन्द्रीकृत प्रणाली मजबूत होती गयी और एक ही उद्देश्य के लिये निर्मित किये गये समूह में स्तरीकरण व्यापक गैरबराबरी के साथ सामने आया. केन्द्रीयता की अवधारणा पर बने मॉडल की यह मजबूत होती प्रणाली थी जिसमे हमेशा एक छोटे वर्ग की ही कब्जेदारी होनी तय है. देश में विभिन्न मुद्दों को लेकर प्रतिरोध करने वाले जो संगठन थे उनका टूटना भी आसान हो गया. वे इस स्वरूप से अलग कोई ढांचा विकसित नहीं कर पाये. मजदूर संगठन, किसान संगठन अनगिनत समस्याओं के बावजूद संगठित होने में नाकामयाब हुए क्योंकि कोई भी प्रतिरोध एक नायक की मंशा पर निर्भर करने लगा और सत्ता को उनकी खरीद फरोख्त में आसानी हो गयी. लिहाजा देश के परिदृष्य से बड़े और लम्बे संघर्ष गायब होते चले गये.
सत्ता संरचना से बाहर जो प्रतिरोध बचे वे या तो आदिवासियों के या फिर दलितों का एक तबका। जिसने यह मान लिया कि इस संरचना में उन्हें उपयुक्त स्थान मिलना सम्भव नहीं है. देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे संगठित आदिवासीयों के प्रतिरोध जो वर्तमान संरचना में विद्रोह के तौर पर आ रहे हैं न चाहते हुए भी यह प्रवृत्ति कम-ओ-बेस उनमे भी दिखायी पड़ती है. यह एक सत्तासीन ढांचे का प्रभाव होता है जहाँ ढांचे के बाहर लोकतांत्रिक और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले संगठन अपने स्वरूप में अलोकतांत्रिक हो जाते हैं और इसी स्वरूप में समाहित हो जाते हैं. संगठन और उद्देश्य से हटकर पदों की लोलूपतायें वहाँ भी प्रभावशाली हो जाती हैं वर्ग-संघर्ष करने वाले संगठनों में भी एक ऐसे वर्ग की श्रेष्ठता हावी हो जाती है जहाँ सबको समान अवसर नहीं मिल पाते.
देश की सभी संसदीय पार्टियों के सामने आज नायकत्व का संकट है. मनमोहन सिंह को जब प्रधानमंत्री बनाया गया तो वे किसी भी रूप में जन लोकप्रिय नेता नहीं थे. लोगों ने देश की जिस पार्टी को अपना समर्थन दिया उसके पास एक ऐसे नेता का आभाव था जिसकी देश में लोकप्रिय छवि हो. हाल के दिनों में कांग्रेस का यह अंतर्विरोध और भी उभर कर सामने आया जब आदिवासी प्रतिरोध के विरोधी गतिविधियों और सैन्य कार्यवाहियों के चलते पी. चिदम्बरम की लोकप्रियता बढ़ने लगी. चाहे वह जिस भी रूप में रही हो. अब तक राजनीति में लोकप्रियता के आधार इसी तौर पर निर्मित होते रहे हैं जिसमे व्यक्ति का चेहरा और नाम लोगों की नजर और जुबान पर चढ़ जाय. राहुल गांधी के अनूठे कारनामे और सनसनी दौरे इसी स्थापना के लिये जारी हैं. लिहाजा कांग्रेस के भीतर एक नये तरीके का अंतर्विरोध बढ़ा. माओवादियों को लेकर दिग्विजय सिंह के जो बयान आये वह चिदम्बरम की रणनीति के खिलाफ थे, पर पॉलिसी के आधार पर कांग्रेस ही नहीं बल्कि देश की सभी पार्टियाँ माओवाद को लेकर एक जैसा ही रुख रखती हैं. इस बयान से कांग्रेस पार्टी लोगों और बुद्धिजीवी तबके में पनप रहे विमोह को एक लोकतांत्रिक और उदार चेहरे के रूप में दिग्विजय सिंह को प्रस्तुत कर कम करना चाहती थी. दरअसल देश में अब तक जो ढांचा निर्मित हुआ है उसमे किसी भी संगठन में व्यक्ति का नायकत्व और उच्चता क्यों उभारी जाती है जबकि इसके साथ ही कोई संरचना अपने में असमान हो जाती है. किसी भी ढांचे में पदों की श्रेष्ठता और निम्नता उसे असमान आधारों पर ला खड़ा करती है. यह असमानता महज देश की संसदीय पार्टियों में ही नहीं बल्कि गैर संसदीय पार्टियों और संगठनों में भी व्याप्त है, जो इस असमानता के खिलाफ लड़ रहे होते हैं.
कोई भी संरचना अपने लिये एक मूल्य का विकास करती है. व्यवस्था के एक ढांचे में रहते हुए वैचारिक तौर पर उससे बाहर की सोच तो पैदा हो जाती है पर व्यव्हारिक तौर पर उसे लागू करना कम सम्भव होता है, जब तक कि कोई नया ढांचा निर्मित न हो जाय. इस देश में जो संरचना विकसित हुई उसने समूह के बजाय व्यक्ति को उभारने का काम किया यानि सामूहिकता के विरोध में व्यक्ति केन्द्रीयता ज्यादा हावी रही, चाहे वह आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, खेल किसी भी क्षेत्र में देखा जा सकता है. व्यक्ति की ब्रांडिंग की जाती रही और उसे सेलीब्रिटी के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा. एक ऐसा मूल्य विकसित हुआ जहाँ लोगों ने समूह, संगठन को तरजीह देने के बजाय व्यक्ति आधारित ब्रांडिंग के लिहाज से समूह व संगठन को चुनने लगे. भाजपा में रहते हुए अटल बिहारी बाजपेयी के साथ लोगों का यही बर्तव था, एक बड़ा तबका एक व्यक्ति के प्रभाव से एक पार्टी को समर्थन करता था.
इस केन्द्रीयता का विकास अचानक नहीं हुआ बल्कि यह धीरे-धीरे समाज के सभी आयामों में विकसित हुई. फिल्मों में सांगठनिक प्रतिरोध के बजाय एक व्यक्ति का नायकत्व, पार्टियों में समूह के बजाय व्यक्ति का उभारा जाना या अन्य विभिन्न सांस्कृतिक विधाओं में एक विधा को श्रेष्ठता प्रदान करना. एक ऐसे निर्माण का दौर चला जहाँ केन्द्रीयता हावी होती गयी. लिहाजा देश में राष्ट्रीय स्तर की पार्टीयों के पास बड़ा जनाधार होने के बावजूद नेतृत्व की कमी उभर कर सामने आयी क्योंकि नायक के अवसान से आये खालीपन को भरने में या नया नायक निर्मित करने में समय लगता है.
इससे संरचना को सहूलियत इस आधार पर हुई कि उस एकल नायकत्व को डिगा पाने में आसानी हो गयी जो समूह में कम सम्भव थी. हर क्षेत्र में केन्द्रीकृत प्रणाली मजबूत होती गयी और एक ही उद्देश्य के लिये निर्मित किये गये समूह में स्तरीकरण व्यापक गैरबराबरी के साथ सामने आया. केन्द्रीयता की अवधारणा पर बने मॉडल की यह मजबूत होती प्रणाली थी जिसमे हमेशा एक छोटे वर्ग की ही कब्जेदारी होनी तय है. देश में विभिन्न मुद्दों को लेकर प्रतिरोध करने वाले जो संगठन थे उनका टूटना भी आसान हो गया. वे इस स्वरूप से अलग कोई ढांचा विकसित नहीं कर पाये. मजदूर संगठन, किसान संगठन अनगिनत समस्याओं के बावजूद संगठित होने में नाकामयाब हुए क्योंकि कोई भी प्रतिरोध एक नायक की मंशा पर निर्भर करने लगा और सत्ता को उनकी खरीद फरोख्त में आसानी हो गयी. लिहाजा देश के परिदृष्य से बड़े और लम्बे संघर्ष गायब होते चले गये.
सत्ता संरचना से बाहर जो प्रतिरोध बचे वे या तो आदिवासियों के या फिर दलितों का एक तबका। जिसने यह मान लिया कि इस संरचना में उन्हें उपयुक्त स्थान मिलना सम्भव नहीं है. देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे संगठित आदिवासीयों के प्रतिरोध जो वर्तमान संरचना में विद्रोह के तौर पर आ रहे हैं न चाहते हुए भी यह प्रवृत्ति कम-ओ-बेस उनमे भी दिखायी पड़ती है. यह एक सत्तासीन ढांचे का प्रभाव होता है जहाँ ढांचे के बाहर लोकतांत्रिक और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले संगठन अपने स्वरूप में अलोकतांत्रिक हो जाते हैं और इसी स्वरूप में समाहित हो जाते हैं. संगठन और उद्देश्य से हटकर पदों की लोलूपतायें वहाँ भी प्रभावशाली हो जाती हैं वर्ग-संघर्ष करने वाले संगठनों में भी एक ऐसे वर्ग की श्रेष्ठता हावी हो जाती है जहाँ सबको समान अवसर नहीं मिल पाते.