दिल्ली 9 फरवरी 2010
प्रिय विभूतिजी
अभिवादन !
उम्मीद है, स्वस्थ होंगे .
लम्बे समय से इस उधेड़बुन में था कि चन्द बातें आप तक किस तरह संप्रेषित करूं ? व्यक्तिगत मुलाकात संभव नहीं दिख रही थी, सोचा पत्र के जरिए ही अपनी बात लिख दूं. और यह एक ऐसा पत्र हो, जो सिर्फ हमारे आप के बीच न रहे बल्कि जिसे बाकी लोग भी पढ़ सकें, जान सकें. इसकी वजह यही है कि पत्र में जिन सरोकारों को मैं रखना चाहता हूं, उनका ताल्लुक हमारे आपसी संबंधों से जुड़े किसी मसले से नहीं है.
आप को याद होगा कि महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर आप की नियुक्ति होने पर मेरे बधाई सन्देश का आपने उसी आत्मीय अन्दाज़ में जवाब दिया था. उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश की पुलिस द्वारा एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की अनुचित गिरफ्तारी के मसले को जब मैंने आप के साथ सांझा किया तब आपने अपने स्तर पर उस मामले की खोज-ख़बर लेने की कोशिश की थी. हमारे आपसी संबंधों की इसी सांर्द्रता का नतीजा था कि आप के संपादन के अंतर्गत सांप्रदायिकता के ज्वलंत मसले पर केन्द्रित एक किताब में भी अपने आलेख को भेजना मैंने जरूरी समझा. इतना ही नहीं कुछ माह पहले जब मुझे बात रखने के लिए आप के विश्वविद्यालय का निमंत्रण मिला तब मैंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया.
यह अलग बात है कि वर्धा की अपनी दो दिनी यात्रा में मेरी आप से मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी. संभवतः आप प्रशासनिक कामों में अत्यधिक व्यस्त थे. आज लगता है कि अगर मुलाक़ात हो पाती तो मैं उन संकेतों को आप के साथ शेअर करता -जो विश्वविद्यालय समुदाय के तमाम सदस्यों से औपचारिक एवं अनौपचारिक चर्चा के दौरान मुझे मिल रहे थे- और फिर इस किस्म के पत्र की आवश्यकता निश्चित ही नहीं पड़ती.
मैं यह जानकर आश्चर्यचकित था कि विश्वविद्यालय में अपने पदभार ग्रहण करने के बाद अध्यापकों एवं विद्यार्थियों की किसी सभा में आप ने छात्रों के छात्रसंघ बनाने के मसले के प्रति अपनी असहमति जाहिर की थी और यह साफ कर दिया था कि आप इसकी अनुमति नहीं देंगे.
विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी परिषद की आकस्मिक बैठक करके अनिल चमड़िया को पद से मुक्त करने का फैसला लिया गया और उन्हें जो पत्र थमा दिया गया, उसमें उनकी नियुक्ति को ‘कैन्सिल’ करने की घोषणा की गयी. |
यह बात भी मेरे आकलन से परे थी कि सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबके से आने वाले एक छात्र- सन्तोष बघेल को विभाग में सीट की उपलब्धता के बावजूद शोध में प्रवेश लेने के लिए भी आंदोलन का सहारा लेना पड़ा था और अंततः प्रशासन ने उसे प्रवेश दे दिया था. विश्वविद्यालय की आयोजित एक गोष्ठी में जिसमें मुझे बीज वक्तव्य देना था, उसकी सदारत कर रहे महानुभाव की ‘लेखकीय प्रतिभा’ के बारे में भी लोगों ने मुझे सूचना दी, जिसका लुब्बेलुआब यही था कि अपने विभाग के पाठयक्रम के लिए कई जरूरी किताबों के ‘रचयिता’ उपरोक्त सज्जन पर वाड्मयचैर्य अर्थात प्लेगिएरिजम के आरोप लगे हैं. कुछ चैनलों ने भी उनके इस ‘हुनर’ पर स्टोरी दिखायी थी.
बहरहाल, विगत तीन माह के कालखण्ड में पीड़ित छात्रों द्वारा प्रसारित सूचनाओं के माध्यम से तथा राष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से में विश्वविद्यालय के बारे में प्रकाशित रिपोर्टों से कई सारी बातें सार्वजनिक हो चुकी हैं. अनुसूचित जाति-जनजाति से संबंधित छात्रों के साथ कथित तौर पर जारी भेदभाव एवं उत्पीड़न सम्बन्धी ख़बरें भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
6 दिसम्बर 2009 को डॉ. अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित रैली में शामिल दलित प्रोफेसर लेल्ला कारूण्यकारा को मिले कारण बताओ नोटिस पर टाईम्स आफ इण्डिया भी लिख चुका है. उन तमाम बातों को मैं यहां दोहराना नहीं चाहता.
जनवरी माह की शुरूआत में मुझे यह भी पता चला कि हिन्दी जगत में प्रतिबद्ध पत्रकारिता के एक अहम हस्ताक्षर श्री अनिल चमड़िया- जिन्हें आप के विश्वविद्यालय में स्थायी प्रोफेसर के तौर पर कुछ माह पहले ही नियुक्त किया गया था- को अपने पद से हटाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन आमादा है.
फिर चंद दिनों के बाद यह भी सूचना सार्वजनिक हुई कि विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी परिषद की आकस्मिक बैठक करके उन्हें पद से मुक्त करने का फैसला लिया गया और उन्हें जो पत्र थमा दिया गया, उसमें उनकी नियुक्ति को ‘कैन्सिल’ करने की घोषणा की गयी.
मैं समझता हूं कि विश्वविद्यालय स्तर पर की जाने वाली नियुक्तियां बच्चों की गुड्डी-गुड्डा का खेल नहीं होता कि जब चाहें हम उसे समेट लें. निश्चित तौर पर उसके पहले पर्याप्त छानबीन की जाती होगी, मापदण्ड निर्धारित होते होंगे, योग्यता को परखा जाता होगा. यह बात समझ से परे है कि कुछ माह पहले आप ने जिस व्यक्ति को प्रोफेसर जैसे अहम पद पर नियुक्त किया, उन्हें सबसे सुयोग्य प्रत्याशी माना, वह रातों रात अयोग्य घोषित किया गया और उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया गया ?
कानून की सामान्य जानकारी रखनेवाला व्यक्ति भी बता सकता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कदम प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है. और ऐसा मामला नज़ीर बना तो किसी भी व्यक्ति के स्थायी रोजगार की संकल्पना भी हवा हो जाएगी क्योंकि किसी भी दिन उपरोक्त व्यक्ति का नियोक्ता उसे पत्र थमा देगा कि उसकी नियुक्ति –‘कैन्सिल’.
यह जानी हुई बात है कि हिन्दी प्रदेश में ही नहीं बल्कि शेष हिन्दोस्तां में लोगों के बीच आप की शोहरत एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की रही है, जिसने अपने आप को जोखिम में डाल कर भी साम्प्रदायिकता जैसे ज्वलंत मसले पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की कोशिश की. ‘शहर में कर्फ्यू’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से या ‘वर्तमान साहित्य’ जैसी पत्रिका की नींव डालने के आप की कोशिशों से भी लोग भलीभांति वाकीफ हैं. संभवतः यही वजह है कि कई सारे लोग, जो कुलपति के तौर पर आप की कार्यप्रणाली से खिन्न हैं, वे मौन ओढ़े हुए हैं.
इसे इत्तेफाक ही समझें कि महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के समय से ही विवादों के घेरे में रहा है. चाहे जनाब अशोक वाजपेयी का कुलपति का दौर रहा हों या उसके बाद पदासीन हुए जनाब गोपीनाथन का कालखण्ड रहा हो, विवादों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा है. मेरी दिली ख्वाहिश है कि साढ़े तीन साल बाद जब आप पद भार से मुक्त हों तो आप का भी नाम इस फेहरिस्त में न जुड़े.
मैं पुरयकीं हूं कि आप मेरी इन चिंताओं पर गौर करेंगे और उचित कदम उठाएंगे.
आपका
सुभाष गाताडे
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