15 सितंबर 2009

अगली बारिश के पहले

तो सोचा ये
“कोई कब तलक यूँ ही राह देखेगा
और सोचगा चाँद रात की बात
ख़्वाब जितने थे शायद लालाज़ार हुए
अब तो शाहिद-ए-गुल भी बाग से बाज़ार हुए?
वही सागर वही साक़ी वही मीना है
आख़िर कितनी बारिशों का तल्ख़ जाम पीना है
कि मौसम का मुसाफ़िर तो चलता जायेगा
उसेे मंज़िल की दरकार नहीं शायद
मगर हम सब
औलाद हैं जन्नत से धकेले गये इंसान की
फ़रावाँ दर्द अब कितना समेट पायेंगे
सराब-ए-दहर से कब तक फ़रेब खायेंगे,
जहां
सय्याद है असीरी है
रोता हुआ फ़नकार जबीं ख़ाक पे घिसता शायर
बस्तियाँ वीरान सपनों के नगर जलते हुए
अब न देखेंगे तहज़ीब के सूरज को यूँ ढलते हुए
चलो अब अपने आप से मिलते हैं
यहां नहीं उसी मैकदे में चलते हैं
जिसकी आराइश में है हुजूम-ए-नुजूम
जाम-ए-अफ़लाक़ में छलकती है कहकशाँ की शराब
और माहताब का तवील सफर
देता रहता है पैग़ाम-ए-सहर
धूप आती है मगर साये का कोई काम नहीं
न ख़िरद न जुनूँ न ही लुत्फ़-ओ-सितम
सांसो का तार भी सितारों में ढल गया होगा।”

मगर आदत नहीं थी जल्दबाजी़ की
बड़े सुकून बड़े सुकूत से आगे बढ़तेे थे
जो था अव्वल उससे ये ख़्याल किया शायद....।

“वो जो शहरताश है शनास नहीं
इसी शहर-ए-तमद्दुन में क़याम करते हैं
कम से कम इतना तो जतन कर लें
उन हम ख़्यालो को हम वतन कर लें
जब इरादा ही कर लिया पुख़्ता
तो फिर क्यों किसी को भरमायें
चलो रिज़्वाँ से जाके कहते हैं
कम से कम इतना करम तो फरमायें
वो जो साहब-ए-तमकी ज़मी पे रहते हैं
क्यों न वो भी यहां चले आयें
न उसी रोज़ सही कोई शिकवा भी नहीं
अगली बरसात से पेश्तर तो आ जायें।”

तो क्या ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेगें दीवाने...

अजब सी कैफ़ियत से रूबरू हैं हम
जबकि अब ये हमारे दर्मियान नहीं
चाँद हो सकते हैं सितारे या घटायें भी कहीं
जितना सोचो उतने पेंच बढ़ते हैं
सोगवार अज़ीज़ रो से पड़ते हैं
मगर जब बारहा बड़े एहतियात से ग़ौर किया
लम्हा-ए-सोहबत-ए-मय को बार-बार पिया
अल हासिल ये
उनकी नर्मज़ुबानी में ग़ज़ब का जोश होता था
मुज़्हमिल शामोें में भी ताबिंदा होश होता था
आजुर्दा लम्होें में भी फ़रायज़ का इल्म रहता था
और तवज्जोे इस बात पर भी होती थी
कि ख़ुरशीद के ढलने के साथ-साथ
जब सियाह रात के आसेब डैने खोलेंगे
कितने पज़मुर्दा गुल डाली से टूट जायेंगे
सुब्ह जब माहताब का ताब ढल सा जायेगा
कितने सपने आँखों से छूट जायेंगे।

कि क़ायम नहीं क़ुदरत पे क़ाबू में हो किसी के
वो और बात है
कि
मौसम का रूख़ देखकर ही मल्लाह कश्ती लाते हैं
आख़िर किसी भरोसे पर ही तो हम सब
इस चमन में आशियां बनाते हैं
मगर नग़म-ए-मर्ग
फ़स्ल-ए-लाला-ओ गुल का पाबन्द नहीं
इक ऐसा राज़ है जो हर वक़्त कहीं न कहीं
फरज़न्द-ए-आदम पे खुलता रहता है
पर इक बात है जो दिल में उठती है...
परियों की, दश्त-ओ-सहरा मेें बिछड़े लोगोें की
इश्क़ की, सोने के महल, जलती हुई चट्टानोें की
उड़ते घोड़ों की, दीवानों की दिल के मारों की
ग़रज़ ये कि बचपन से आज तक
जितनी कहानियों को जाना है
उन सब में भी राज़ खुलता था
किसी सिहरन, किसी मौसम या रक़्स-ए-कलाम के बाद
हमपे भी ये काला तिलिस्म खुला
इक नहीं बारहाबार खुला... मगर पहले
और फिर हम
तमाम नस्ल-ए-आदम की तरह
देखते ही रह गये बादशाही-ए-मिट्टी का जलाल
क़ुवत-ए-क़ुदरत की कारसाज़ी का कमाल
जिसकी तौफ़ीक ने
दी सदाक़त, रग-ए-बातिल, नक़्काद और तनकीद दिये
आरज़ू, शौक़, तमन्ना, फ़स्ल,-ए-गुल, दौर-ए-ख़िजाँ
गूँगी शामें भी कीं आवाज़ के सूरज भी किये
फ़ना का जज़्बा भी दिया, तूफान-ओ-तलातुम भी दिये
तार-ए-नफ़स भी दिया, बर्क़, मौज, शहीदी, ग़म-ए-जाँ
बुलबुल, गुल-ओ-शबनम, गुलिस्ताँ बाद-ए-सबा
शोला, सीमाब भी, परवाज़ भी परिंदे भी दिये
दश्त-ओ-दमन, हैवान, सबात, नामूस-ए-ज़बीं, रेगे रवाँ,
आग, आसमान, तूफ़ान और सफ़ीने भी दिये
अंजुमन-ए-आराई, अज़ाख़ाना और न जाने क्या-क्या
जो गिनते जाओगे तो खुद को भूल जाओगें
बहरहाल
उस लम्हा कोई फ़र्क नहीं पड़ता
ज़हर हो, आब-ए-हयात, कोई माजिज़ाँ या बर्क़ लहराये
तुम्हें रोकने की ख़ातिर सारी दुनिया ही चली आये
आयें पीर-ओ-पैयम्बर मुर्शिंद-ओ-औलिया आयेें
कोई संजीवनी लाये या येस्पिरेटर ही उठा लाये
पंडित मौलवी आलिम-ओ-फ़ाज़िल भी आ जायें
कि जितनी भीड़ बढ़ती है तन्हाई उतनी पसरती है।
हाँ
तो ज़िक्र होता था वक़्त कटने का
फ़सील-ए-आसमाँ की चैखट पर
मुख़्तलिफ दीवानोें के साथ मिलने का
चलो माान लें कि आती बारिश के बाद
तमाम अहबाब को यह ख़्याल आये
कि ख़ूब गुज़रेगी तो मिल बैठेंगे... मगर
कै़स जंगल में अकेला ही तो था...।
जब उलझे रहते थे फ़िक्र-ए-दुनिया में
राधिका, राघव, चम्पुल तो कभी मुनिया में
तब भी तबियत मेें बेदारी बेनियाज़ी थी
गुल, हँसी, प्यार, दुआ सब्र का गहना
अपने दामन में समेट लाते थे
गुज़रते सालों की सिलसिलेवार
दावत में ख़ामोश और संजीदा रहकर
बड़े ख़ुलूस से बस पेश होते जाते थे

जब हम सफ़र ने दूसरी दुनिया में बनाया था मक़ाम
तब भी नींव तक हिल गया था ये दीवान-ए-आम
कितनी तन्हाइयोेें मेें डूब गया होगा वो दिल
जिसको ये सोचना था कि अब क्या हासिल
मगर ये ज़र्फ़-ए-शख़्सियत था जो कहता था
ये दीवाने आम तुम्हारा ही नहीं सबका है
दादाजानी, बड़ी दीदी, छोटे बच्चों की ज़बीं का क़शक़ा है
अब जब ये दीवान-ए-आम सूना है
सारे घर का एक अहम मगर ख़ामोश सा कोना है
जिसकी दर-ओ-दीवार-ओ-दरीचे अब भी
नज़र आते हैं ख़ाना आबादाँ की तरह।

ऐसे साहिलों को भी इनने माफ़ किया
जो हर लम्हा इस शिकायत से जूझते रहते थे
भला ये समंदर हमें क्या देता है
जो शब-ओ-दिन माहल रहकर
सारे नशेमन पर रखते थे नज़र
वो परिंदे भी यहाँ पाते थे पनाह
और जैसे किसी शायर ने यह बयान किया
वो हवाख़्वार-ए-चमन हूँ कि चमन में
पहले मैं आया और बाद-ए-सबा मेरे बाद
सफ़र-ए-आख़िर में भी इस अहद पे क़ायम थे जनाब

ये इरादों के बड़े पक्के थे
दौर-ए-आलाम में भी ये कह के हँसा करते थे
ज़रा ग़ौर से देखो कि इस दुनिया में
कितने ग़म हैं जिनका हमें इल्म नहीं
यही जज़्बा था जो रग-ए-जाँ में रहकर
क़श्ति-ए-ज़ीस्त को लिये जाता था मौज-ए-दरिया के ख़िलाफ़।

और अब
“ये जो सिरहाने पे झिलमिलाता है चराग़
आओ और ज़रा ग़ौर से देखो
कि जले हैं खुद तो ये परछांइयाँ निकाली हैं
इक बुत-ए-माज़ी है और कितने सवाली हैं
ये शहर-ए-जिस्म
जो अनासिर से तामीर हुआ रेज़ा-रेज़ा
क़ज़्ज़ाक-ए-अजल से थर्रा कर
कैसे बिखरा पड़ा है सफ़ेद सिल्लियों पर
और अंजुमन-ए-आरजू भी
तवीपगडंडियोें पे चलते चलते
थक के अज़दाद की बाहों में सोने आयी है
आशना मर्ग से ये दिल आज होता है
इक दीवार की दूरी थी क़फ़स
तोड़कर सारे सलासिल
अब चमन में सोता है
अज़ाब है अज़ीज़ों की ग़मगुसारी भी
नींद भी टूटती है ख़ुमारी भी
कि अब
इस मकाँ के खुले दर मत देखो
खुशियाँ अब एक नहीं रूकने वाली
हाँ
सारे ग़म ही आज़ाद होते जायेंगे
हमारा सुकूत-ए-सुख़न हमारी लामकाँ हसरत
बाहम
मुल्क-ए-अदम को अब अपना घर बनायंेगें”।

और
यहाँ फ़र्दा में
याद कर गहरी लकीरें वो पेशानी
रतजगे भी मनाने में लिये आयेंगे
हर सिम्त ओ हर लम्हा कहीं न कहीं
धुधलायी शाम और तमन्ना के शबिस्तानों में
कितने ख़्वाब ख़ुशबू से बिछड़ जायेंगे
अगली बारिश से पहले...बाद...मुसलसल...
शायद...।



अखिलेख दीक्षित, जनसंचार माध्यम एवं संगप्रेषण विभाग, म।गां.अं.वि.हि.वि.वि., वर्धा

2 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति । यह टिप्पणियाँ किस फॉण्ट में आ रही हैं यहाँ ? स्पाम तो नहीं ।

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