अनुराग शुक्ला
सुना है पूरब के आक्सफोर्ड के जन संचार विभाग के उन कुर्सियों पर बैठ कर पढने वाले स्टूडेंट शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ लडाई लड रहें हैं जिन पर बैठ कर कभी हम पढा करते थे मेरठ में बैठ कर भी पोर्टल और ब्लाग पर पढा है कि केंद्रीय यूनिवर्सिटी बन जाने के बाद भी कोई प्राक्टर साहब स्टूडेंट को मुर्गा बना रहें हैं दोनों खबरें सुनी और एक स्वनाम धन्य तथाकथित अकादमिक रूप से दक्ष वीसी के वक्त में ऐसा हो रहा है अनुशासन के नाम पर तानाशाही की जा रही है और पढा लिखा वाइस चांसलर कह रहा है कि खबरनवीस की क्या हैसियत जो मुझसे बात करें सुना है और कभी कभी देखा भी है कि अकादमिक रूप से बेहद जानकार ये आदमी पूरे शहर का फीता काट सेलीब्रेटी बन चुका है अपने से सवाल पूछने से ये साहब इतने नाराज हुए कि जनसत्ता के संवदादाता राघवेंद्र के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी अब यूनिवर्सिटी में पच्चीस साल पुराने जन संचार विभाग होते हुए भी ये साहब जगह जगह यूनिवर्सिटी में अखबार के अखाडे बाज पैदा करने की दुकाने खुलवा रहे हैं
जन संचार विभाग में पढाने वाले सुनील उमराव ने जब शिक्षा की इस दुकानदारी के खिलाफ आवाज उठाई सैंकडो स्टूडेंटस ने कैम्पस में इस डिग्री खरीद प्रथा के खिलाफ झंडा बुलंद किया तो सुनील को नोटिस भेजी गई है कि आप अराजकता का माहौल फैला रहे हैं हम लोग भी राजीनीति विज्ञान के स्टूडेंट रहे हैं और अराजकता और तानाशाही का मतलब बखूबी समझते हैं प्लानिंग कमीशन की भी शोभा बढा चुके वाइस चांसलर साहब जो कुछ कर रहे हैं वो तानाशाही और अराजकता देानों पर फिट बैठता है रही अराजकता और सुनील उमराव की बात तो सुनील सर का स्टूडेंट रहा हूं सिर्फ मैं नहीं बल्कि मुझसे पहले और बाद में उनके स्टूडेंट रहे लोग अगर ईमानदारी से बोलेंगे तो हर कोई कहेगा कि सुनील सर कम से कम अराजक नहीं हो सकते और संस्थागत बदलावों में यकीन रखते हैं मीडिया के नाम पर खोली जा रही दुकानों में किसी फूं फां टाइप सेलीब्रटी को बुलवाकर फीताकाट जर्नलिज्म नहीं पढाते हैं कि आप ने साहब सबसे तेज चैनल पर बोलने वाली किसी खूबसूरत एंकर के दर्शन कर लिए और आप बन गए जर्नलिस्ट
खैर बात को अब शिक्षा के निजीकरण पर लौटना चाहिए यूनिवर्सिटी अब केंद्रीय हो चुकी है अब उसके पास केंद्र सरकार से मिलना वाला अकूत पैसा है तब यूनिवर्सिटी में अखबारनवीस पैदा करने वाले फ्रेंचाइजी खोलने की क्या जरूरत आन पडी है अगर ज्यादा व्यापक पैमाने पर बात की जाए तो प्रोफेशनल स्टीजड जैसे छलावे बंद किए जाएं और जनसंचार की पढाई को कम से अलग रूप में देखना ही पडेगा अगर मीडिया को चैथा खंभा कहना का नाटक अभी कुछ हद तक जारी है तो कम से कुछ ऐसे लोग हैं जो मीडिया की जन पक्षरधरता बरकरार रखने की लडाई लड रहे हैं ये लडाई सिर्फ सुनील उमराव की लडाई नहीं है आईआईएमसी से पढे राजीव और जनसंचार विभाग के स्टूडेंट रह चुके शहनवाज इस जनपक्षधरता की लडाई लड रहे हैं मुझे नहीं पता कि अपने अकादमिक जगत में मस्त वाइस चांसलर इनकी उपलब्ध्यिों को कितना जानते हैं लेकिन शहनवाज और राजीव ने आतंकवाद के मसले पर जितना बढिया काम किया है उसे अगर वीसी साहब जानते होंगे तो उन्हें जरूर गर्व होगा कि ये लोग कभी इस यूनिवर्सिटी से जुडे रहे हैं और आज भी यूनिवर्सिटी इनका कार्य स्थल है इनके काम से व्यक्तिगत रूप से वकिफ रहा हूं और दावे से कह सकता हूं कि ये उन्हीं संस्कारों की देन है जिनकी लडाई सुनील आज यूनिवर्सिटी में लड रहे हैं ये जन पक्षधरता और डेमोक्रेटिक वैल्यूज के संस्कार थे कि शहनवाज भाई ने एक प्राक्टर की गुंडागर्दी के खिलाफ उसके आॅफिस में घुसकर मुंह काला किया था ये शहनवाज के संस्कार थे कि गुंडागर्दी किसी प्राक्टर की ही क्यूं न हो बर्दाशत नहीं की जाएगी राजीव ने भी सरायमीर और आजमगढ की लडाई में कितने पापड बेले ये शायद विकास की टिकल डाउन थ्योरी में यकीन रखने वाला ब्यूरोक्रटिक किस्म का अकादमिक न समझ पाए लेकिन आप के न समझने से इनकी लडाई कमजोर नहंी पड सकती है हां अगर आप समझ जाए तो शायद दो चार लाख रूपए देकर डिग्री खरीदने वाले हम्टी डम्टी छाप स्टूडेंट के अलावा ऐस भी कुछ लोग पढाई लिखाई की दुनिया में कुछ कर सकते हैं जिनके बारे में अपना मोर्चा में काशीनाथ सिंह ने लिखा है मुझे पता है आप अंग्रेजी भाषी हैं और अपना मोर्चा नहीं पढा होगा आप कंपनी बाग के उन फूलों के बारे में नहंी जानेते होंगे जो ब्यूरोक्रसी के ढांचे में अपनी जगह बनाने के लिए इतने तंग कमरों में रहते हैं कि दोपहर की धूप में भी उन तक रोशनी नहीं पहुंचती है काश आप अगर उनके बारे में जानते होते तो दो दो चार लाख रूपए लेकर सपनों की बिक्री नहीं करते एजूकेशन हिंदुस्तान में इंस्पििरेशनल वैल्यू रखती है डिग्री बहुतों के लिए सपना ही है आप पढे लिखे समझदार आदमी हैं कम से कम डिग्रियों को कारोबार मत करिए दो चार लाख में डिग्री बेंचना उस जालसाजी से अलग नहीं है जिसमें नकली डिग्रियां बेंची जाती हैं मीडिया की पढाई बीटेक और मैनेजमेंट जैसी पढाई भी नहीं है अगर ये मान भी लिया जाए कि अखबार प्रोडक्ट है तो भी अखबार कम से कम ऐसे प्रोडक्ट है जिसकी कुछ सामाजिक जिम्मेदारयां हैं इसे अखबार मालिक, कलमनवीस से लेकर अखबारनवीस तैयार करने वालों, सबको समझना चाहिए आप अगर सेल्फ फाइनेंस के नाम पर पैसे देकर खबरनवीस तैयार करने के धंधे को बढावा दे रहे हैं तो आप जाने अनजाने या यूं कहिए कि जान बूझ कर उस परम्परा के भी पक्षधर बन रहे हैं जो पैसे लेकर खबरें छाप रहे हैं जो पैसे देकर खबरनवीस बन रहे हैं वे पैसे लेकर खबर छापेंगे ही पूंजी के संस्कार आखिरकार ऐसी ही दिशा में जाते हैं आज जिस विभाग के स्टूडेंट बहुत सालों बाद हक की लडाई के लिए सुनील सर के साथ सडकों पर उतरे हैं उसकी जय हो अनर्तमन के समर्थन के साथ.
पुरा छात्र पत्रकारिता व जनसंचार विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
( साथियों, आप भी इस आन्दोलन में कोई सहयोग या वैचारिक समर्थन देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। आपके समर्थन से इस आन्दोलन में नया उत्साह आएगा. अपने विचार हम तक पहुँचने के लिए आप टिप्पणी बाक्स में अपनी टिप्पणी दर्ज करें) और जानकारी के लिए देखें http://naipirhi.blogspot.com
सुना है पूरब के आक्सफोर्ड के जन संचार विभाग के उन कुर्सियों पर बैठ कर पढने वाले स्टूडेंट शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ लडाई लड रहें हैं जिन पर बैठ कर कभी हम पढा करते थे मेरठ में बैठ कर भी पोर्टल और ब्लाग पर पढा है कि केंद्रीय यूनिवर्सिटी बन जाने के बाद भी कोई प्राक्टर साहब स्टूडेंट को मुर्गा बना रहें हैं दोनों खबरें सुनी और एक स्वनाम धन्य तथाकथित अकादमिक रूप से दक्ष वीसी के वक्त में ऐसा हो रहा है अनुशासन के नाम पर तानाशाही की जा रही है और पढा लिखा वाइस चांसलर कह रहा है कि खबरनवीस की क्या हैसियत जो मुझसे बात करें सुना है और कभी कभी देखा भी है कि अकादमिक रूप से बेहद जानकार ये आदमी पूरे शहर का फीता काट सेलीब्रेटी बन चुका है अपने से सवाल पूछने से ये साहब इतने नाराज हुए कि जनसत्ता के संवदादाता राघवेंद्र के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी अब यूनिवर्सिटी में पच्चीस साल पुराने जन संचार विभाग होते हुए भी ये साहब जगह जगह यूनिवर्सिटी में अखबार के अखाडे बाज पैदा करने की दुकाने खुलवा रहे हैं
जन संचार विभाग में पढाने वाले सुनील उमराव ने जब शिक्षा की इस दुकानदारी के खिलाफ आवाज उठाई सैंकडो स्टूडेंटस ने कैम्पस में इस डिग्री खरीद प्रथा के खिलाफ झंडा बुलंद किया तो सुनील को नोटिस भेजी गई है कि आप अराजकता का माहौल फैला रहे हैं हम लोग भी राजीनीति विज्ञान के स्टूडेंट रहे हैं और अराजकता और तानाशाही का मतलब बखूबी समझते हैं प्लानिंग कमीशन की भी शोभा बढा चुके वाइस चांसलर साहब जो कुछ कर रहे हैं वो तानाशाही और अराजकता देानों पर फिट बैठता है रही अराजकता और सुनील उमराव की बात तो सुनील सर का स्टूडेंट रहा हूं सिर्फ मैं नहीं बल्कि मुझसे पहले और बाद में उनके स्टूडेंट रहे लोग अगर ईमानदारी से बोलेंगे तो हर कोई कहेगा कि सुनील सर कम से कम अराजक नहीं हो सकते और संस्थागत बदलावों में यकीन रखते हैं मीडिया के नाम पर खोली जा रही दुकानों में किसी फूं फां टाइप सेलीब्रटी को बुलवाकर फीताकाट जर्नलिज्म नहीं पढाते हैं कि आप ने साहब सबसे तेज चैनल पर बोलने वाली किसी खूबसूरत एंकर के दर्शन कर लिए और आप बन गए जर्नलिस्ट
खैर बात को अब शिक्षा के निजीकरण पर लौटना चाहिए यूनिवर्सिटी अब केंद्रीय हो चुकी है अब उसके पास केंद्र सरकार से मिलना वाला अकूत पैसा है तब यूनिवर्सिटी में अखबारनवीस पैदा करने वाले फ्रेंचाइजी खोलने की क्या जरूरत आन पडी है अगर ज्यादा व्यापक पैमाने पर बात की जाए तो प्रोफेशनल स्टीजड जैसे छलावे बंद किए जाएं और जनसंचार की पढाई को कम से अलग रूप में देखना ही पडेगा अगर मीडिया को चैथा खंभा कहना का नाटक अभी कुछ हद तक जारी है तो कम से कुछ ऐसे लोग हैं जो मीडिया की जन पक्षरधरता बरकरार रखने की लडाई लड रहे हैं ये लडाई सिर्फ सुनील उमराव की लडाई नहीं है आईआईएमसी से पढे राजीव और जनसंचार विभाग के स्टूडेंट रह चुके शहनवाज इस जनपक्षधरता की लडाई लड रहे हैं मुझे नहीं पता कि अपने अकादमिक जगत में मस्त वाइस चांसलर इनकी उपलब्ध्यिों को कितना जानते हैं लेकिन शहनवाज और राजीव ने आतंकवाद के मसले पर जितना बढिया काम किया है उसे अगर वीसी साहब जानते होंगे तो उन्हें जरूर गर्व होगा कि ये लोग कभी इस यूनिवर्सिटी से जुडे रहे हैं और आज भी यूनिवर्सिटी इनका कार्य स्थल है इनके काम से व्यक्तिगत रूप से वकिफ रहा हूं और दावे से कह सकता हूं कि ये उन्हीं संस्कारों की देन है जिनकी लडाई सुनील आज यूनिवर्सिटी में लड रहे हैं ये जन पक्षधरता और डेमोक्रेटिक वैल्यूज के संस्कार थे कि शहनवाज भाई ने एक प्राक्टर की गुंडागर्दी के खिलाफ उसके आॅफिस में घुसकर मुंह काला किया था ये शहनवाज के संस्कार थे कि गुंडागर्दी किसी प्राक्टर की ही क्यूं न हो बर्दाशत नहीं की जाएगी राजीव ने भी सरायमीर और आजमगढ की लडाई में कितने पापड बेले ये शायद विकास की टिकल डाउन थ्योरी में यकीन रखने वाला ब्यूरोक्रटिक किस्म का अकादमिक न समझ पाए लेकिन आप के न समझने से इनकी लडाई कमजोर नहंी पड सकती है हां अगर आप समझ जाए तो शायद दो चार लाख रूपए देकर डिग्री खरीदने वाले हम्टी डम्टी छाप स्टूडेंट के अलावा ऐस भी कुछ लोग पढाई लिखाई की दुनिया में कुछ कर सकते हैं जिनके बारे में अपना मोर्चा में काशीनाथ सिंह ने लिखा है मुझे पता है आप अंग्रेजी भाषी हैं और अपना मोर्चा नहीं पढा होगा आप कंपनी बाग के उन फूलों के बारे में नहंी जानेते होंगे जो ब्यूरोक्रसी के ढांचे में अपनी जगह बनाने के लिए इतने तंग कमरों में रहते हैं कि दोपहर की धूप में भी उन तक रोशनी नहीं पहुंचती है काश आप अगर उनके बारे में जानते होते तो दो दो चार लाख रूपए लेकर सपनों की बिक्री नहीं करते एजूकेशन हिंदुस्तान में इंस्पििरेशनल वैल्यू रखती है डिग्री बहुतों के लिए सपना ही है आप पढे लिखे समझदार आदमी हैं कम से कम डिग्रियों को कारोबार मत करिए दो चार लाख में डिग्री बेंचना उस जालसाजी से अलग नहीं है जिसमें नकली डिग्रियां बेंची जाती हैं मीडिया की पढाई बीटेक और मैनेजमेंट जैसी पढाई भी नहीं है अगर ये मान भी लिया जाए कि अखबार प्रोडक्ट है तो भी अखबार कम से कम ऐसे प्रोडक्ट है जिसकी कुछ सामाजिक जिम्मेदारयां हैं इसे अखबार मालिक, कलमनवीस से लेकर अखबारनवीस तैयार करने वालों, सबको समझना चाहिए आप अगर सेल्फ फाइनेंस के नाम पर पैसे देकर खबरनवीस तैयार करने के धंधे को बढावा दे रहे हैं तो आप जाने अनजाने या यूं कहिए कि जान बूझ कर उस परम्परा के भी पक्षधर बन रहे हैं जो पैसे लेकर खबरें छाप रहे हैं जो पैसे देकर खबरनवीस बन रहे हैं वे पैसे लेकर खबर छापेंगे ही पूंजी के संस्कार आखिरकार ऐसी ही दिशा में जाते हैं आज जिस विभाग के स्टूडेंट बहुत सालों बाद हक की लडाई के लिए सुनील सर के साथ सडकों पर उतरे हैं उसकी जय हो अनर्तमन के समर्थन के साथ.
पुरा छात्र पत्रकारिता व जनसंचार विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
( साथियों, आप भी इस आन्दोलन में कोई सहयोग या वैचारिक समर्थन देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। आपके समर्थन से इस आन्दोलन में नया उत्साह आएगा. अपने विचार हम तक पहुँचने के लिए आप टिप्पणी बाक्स में अपनी टिप्पणी दर्ज करें) और जानकारी के लिए देखें http://naipirhi.blogspot.com
वाकई जब तक अत्याचार रहेगा, लडाइयां भी तब तक जारी रहेंगी...पूंजीवादी प्रेस पत्रकार नहीं भेड़ चाहता है, और इसमें उसका साथ देते हैं निजी पत्रकारिता संस्थान, जिनकी फीस इतनी होती है की मजलूमों के पक्षधर कभी पत्रकार बन ही न पाएं | इस शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ संघर्ष करना होगा, जिससे एक बेहतर कल का आगाज हो सके...
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विश्वविद्यालयों में नौकरशाही बढती जारही है. लोकतान्त्रिक जगहें तभी तक बच पाएंगीं जब तक उनके लिए संघर्ष किया जाता रहेगा.हम सब इस लडाई में साथ हैं.
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