चुनाव के पहले चरण में बैलेट पर बुलेट दाग कर नक्सलियों ने अपनी पांच साल पहले की उस सोच को ही मूर्त रुप देना शुरु किया है, जिसे एमसीसी और पीडब्लूजी ने मिलकर पाला था। ठीक पांच साल पहले 2004 में बिहार-झारखंड में सक्रिय माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और आंध्रप्रदेश से लेकर बस्तर तक में सक्रिय पीपुल्सवार ग्रुप यानी पीडब्ल्युजी एक हुये थे। उस वक्त नक्सली संगठनों के अंदर पीडब्ल्यूजी की पहचान हथियारबंद संघर्ष के लिये मजबूत ट्रेनिंग दस्ते का होना था तो एमसीसी की पहचान प्रभावित इलाकों में लोगो को सामूहिक तौर पर जोड़ कर किसी भी हमले को अंजाम देना था।
लेकिन, 2004 में जब दोनों संगठन एक हुये और सीपीआई माओवादी का गठन किया तो पहला सवाल दोनों के बीच इसी बात को लेकर उठा कि संसदीय राजनीति के चुनाव में माओवादियों की पहल का तरीका इस तरह का होना चाहिये, जिससे आर्म्स स्ट्रगल में बहुसंख्यक लोगों की भागेदारी नजर आये। सांगठनिक तौर पर संघर्ष के नक्सली तरीकों में आम लोगो की गोलबंदी को एमसीसी ने बखूबी अंजाम देना जहानाबाद जेल ब्रेक से ही शुरु किया । जेल ब्रेक को सफल प्रयोग मान कर माओवादियो ने बीते पांच साल में जो भी प्रयोग किये, उसमें आंध्र के नक्सलियों ने अगर उपरी कमान संभाली तो बिहार झारखंड के नक्सलियों ने जमीनी कमान संभाली ।
पहले चरण के मतदान के वक्त माओवादियों की यही रणनीति सामने भी आयी । लेकिन माओवादियों की सोच को सिर्फ चुनावी हिंसा से जोडकर देखना भूल होगी । हकीकत में झारखंड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में नक्सली हिंसा हुई हैं, वहां की सामाजिक आर्थिक स्थिति के उपर पहली बार राजनीतिक हालात हावी हुये है। यानी पहले नक्सल प्रभावित इलाको में बहस की गुंजाइश विकास को लेकर होती रही। जिसमें रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरतों का सवाल माओवादी उठाते रहे। नक्सली संगठन पीपुल्सवार ने हमेशा इसी नजरिये को राजनीतिक आधार भी बनाया। जिस वजह से राष्ट्रीय राजनीति में हमेशा नक्सली संघर्ष को सामाजिक-आर्थिक समस्या के ही इर्द-गिर्द रखा गया। लेकिन बीते पांच साल में सीपीआई माओवादी ने सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से इतर राजनीतिक तौर पर ही अपने प्रभावित इलाकों में हर कार्रवाई शुरु की। जिसका असर आंध्र प्रदेश के तेलागंना, महाराष्ट्र के विदर्भ और छत्तीसगढ के बस्तर से लेकर मध्यप्रदेश, उडीसा, झारखंड बिहार और पश्चिमी बंगाल के हर उस मुद्दे में नजर आया जो राजनीतिक दलों को प्रभावित कर रहा था।
तेलांगना में माओवादियों ने शुरु से ही इस प्रचार को आगे बढाया कि वह किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं है। और तेलागंना राष्ट्रवादी पार्टी की राजनीति उनकी सोच से अलग है। इस थ्योरी ने माओवादियो की राजनीतिक जमीन झटके में चन्द्रशेखर से अलग की और वायएसआर रेड्डी को भी चेताया कि वह एनटीआर की बोली अन्ना या बडे भाई वाली ना बोले। वहीं, विदर्भ के चन्द्रपुर और गढ़चिरोली में किसानों की आत्महत्या से लेकर उघोगपतियो के मुनाफे को भी उस राजनीति से जोड़ा, जहां सवाल सामाजिक-आर्थिक आधार पर रखकर पिछड़े आदिवासियों का आंकलन ना हो, बल्कि राजनीतिक दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का विद्रूप चेहरा ही उभरे।
इसलिये कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों के जरीये उनके नेताओं के लाभ का लेखा-जोखा भी इन इलाको में रखा गया। कुछ उसी तर्ज पर छत्तीसगढ में भी माओवादियों की पहल राजनीतिक तौर पर ही हुई, जिसके एवज में सलमा जुडुम को राज्य सरकार ने खड़ा किया। लेकिन माओवादियों ने सलवा-जुडुम के सामानातंर उस राजनीतिक लाभ को इन इलाकों में उभारना शुरु किया जो प्रकृतिक संपदा को निचोड़ कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ कौडियो के भाव जा रहा है। इसी आधार का असर उडीसा में नाल्को के अधिकारियो पर हमले में नजर आया । जबकि झारखंड और बिहार में सीधे राजनेताओ पर निशाना साध कर माओवादियों ने राजनीतिक संदेश देने की ही पहल को आगे बढाया।
असल में माओवादियों की नयी थ्योरी कहीं ज्यादा राजनीतिक चेतावनी वाली है । खासकर संसदीय राजनीति के उस तंत्र को वह सीधे चेतावनी देने की स्थिति में खुद को लाना चाहती है, जो अभी तक विकास के अंतर्विरोध के मद्देनजर ही पिछड़े इलाकों में सक्रिय माओवादियो का आईना देश को दिखाती रही है । एसइजेड यानी स्पेशल इकनॉमी जोन की अधिकतर योजनाएं उसी रेड कारिडोर में हैं, जहा माओवादी सक्रिय हैं । लेकिन पहली बार एसईजेड का विरोध सामाजिक-आर्थिक तौर पर करने की जगह माओवादियों ने उसे उसी राजनीति से जोड़ा, जिसकी आर्थिक नीतियों को लेकर आम शहरी जनता में भी सवाल उठ रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगुर इस मायने में पारदर्शी राजनीति का प्रतीक है । जहां माओवादियो ने वाम राजनीति के सामानातंर उस प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढाया, जिसने वामपंथियों को सत्ता के लिये विचारधारा से उतरते देखा। बंगाल में वाममोर्चा का यह बयान दुरस्त है कि ममता के पीछे माओवादियो का राजनीतिक संघर्ष काम कर रहा है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि ममता की राजनीति उसी वाम राजनीति का विकल्प है। हकीकत में पहली बार माओवादी राजनीतिक तौर पर उस सोच को खारिज करना चाहते हैं जिसके जरीये यह सवाल खड़ा होता है कि सत्ता अगर बंदूक की नली से नहीं निकलती तो माओवाद की थ्योरी संसदीय राजनीति में सिवाय हिंसा के क्या मायने रखती है। यह सवाल माओवाद के सामने इसलिये भी बड़ा है क्योकि पहली बार केन्द्र सरकार ने नक्सल हिंसा को आंतकवाद सरीखा माना है। जिसे उन्हीं वामंपथियों ने सही ठहराया है, जो एक दशक पहले तक अतिवाम को भटकाव या बड़े भाई के तर्ज पर देखते थे। लेकिन सरकार की इस पहल को भी माओवादियों ने राजनीतिक तौर पर ही उठाया । जिसका असर नंदीग्राम में दिखा । लेकिन चुनाव में वोटिंग के दौरान नक्सली हिंसा लोकतंत्र के खिलाफ की भाषा मानी जायेगी, यह भी हकीकत है ।
लेकिन, देश की राजनीति का नया सवाल लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक दलों के आम लोगो से गैर सरोकार वाले मुद्दों का उठना भी है और सरोकार के उन मुद्दो को लोकतंत्र का ही नाम लेकर हाशिये पर ढकेल देना भी, जो लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाते हैं। मसलन , अपराधियों और बाहुबलियों से कोई राजनीतिक दल नहीं बच पाया है लेकिन इसे मुद्दा नहीं बनने दिया गया। बालीवुड या क्रिकेट खिलाडियों के जरीये राजनीति का गैर राजनीतिक राग हर राजनीतिक दल ने छेड़ा । रोजगार और मंहगाई के निपटने का कोई तरीका किसी दल के पास नहीं है। अगर इन सवालों ने गांव और छोटे शहरो में चुनाव के लोकतंत्र को लेकर वोटरो में सवाल खडे किये हैं तो आंतकवाद के सवाल ने शहरी मतदाताओ के बीच राजनीति को लेकर एक आक्रोष भी पैदा किया है।
यह वही परिस्थितयां हैं, जिसमें पहली बार विकल्प का सवाल खड़ा तो हो रहा है लेकिन बिना किसी रास्ते के विकल्प का सवाल सवाल ही बना रह जा रहा है । इसलिये चुनाव के वक्त नक्सली हिसा ने नक्सल प्रभावित इलाको में कुछ नये सवाल पैदा कर दिये हैं। बिना स्थानीय मदद के चुनाव के वक्त हिंसा कैसे संभव है । स्थानीय वोटरों का यह एहसास खत्म हो चुका है कि वह चुनाव के जरीये लोकतंत्र को जीते हैं। राजनीतिक दलों के उम्मीदवार खलनायक माने जाते हैं। हिंसा का अंदेशा जब सरकार और सुरक्षाकर्मियों को भी था तो भी नक्सली कार्रवाई कर कैसे सुरक्षित निकल गये। राजनीतिक दलों ने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी। और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक को क्यों कहना पडा कि नक्सलियों से निपटने में राज्य सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। और उनसे नक्सल संकट सुलझ भी नही सकता है। असल में माओवादियों के लेकर बड़े सवाल अब शहरी मतदाताओ तक भी पहुंच रहे हैं । क्योंकि जिन राजनीतिक परिस्थियों से वोटर यह जानते समझते हुये गुजर रहा है कि चुनावी लोकतंत्र में उसकी शिरकत सिवाय वोट डालने भर की है। उसमें चुनाव के जरीये सत्ता बनाना या बदलना लोकतंत्र का नही सौदे का हिस्सा है, जो उन्हीं नेताओं के हाथ में है, जिन्हे वह लगातार सवाल उठाता रहा है । यानी चुनावी लोकतंत्र का जो खाका पिछले साठ साल से चला आ रहा है, उसमें राजनीति के जरीये विकल्प के सपनो को संजोना खत्म हो चला है। और माओवाद की नयी राजनीतिक दस्तक चुनावी लोकंतंत्र के टूटे सपने से निकल कर फिर से सत्ता बंदूक की नली से निकलने का अंदेशा जगाना चाह रही है । पुण्य प्रसून vajpeyee
लेकिन, 2004 में जब दोनों संगठन एक हुये और सीपीआई माओवादी का गठन किया तो पहला सवाल दोनों के बीच इसी बात को लेकर उठा कि संसदीय राजनीति के चुनाव में माओवादियों की पहल का तरीका इस तरह का होना चाहिये, जिससे आर्म्स स्ट्रगल में बहुसंख्यक लोगों की भागेदारी नजर आये। सांगठनिक तौर पर संघर्ष के नक्सली तरीकों में आम लोगो की गोलबंदी को एमसीसी ने बखूबी अंजाम देना जहानाबाद जेल ब्रेक से ही शुरु किया । जेल ब्रेक को सफल प्रयोग मान कर माओवादियो ने बीते पांच साल में जो भी प्रयोग किये, उसमें आंध्र के नक्सलियों ने अगर उपरी कमान संभाली तो बिहार झारखंड के नक्सलियों ने जमीनी कमान संभाली ।
पहले चरण के मतदान के वक्त माओवादियों की यही रणनीति सामने भी आयी । लेकिन माओवादियों की सोच को सिर्फ चुनावी हिंसा से जोडकर देखना भूल होगी । हकीकत में झारखंड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ और महाराष्ट्र के जिन इलाकों में नक्सली हिंसा हुई हैं, वहां की सामाजिक आर्थिक स्थिति के उपर पहली बार राजनीतिक हालात हावी हुये है। यानी पहले नक्सल प्रभावित इलाको में बहस की गुंजाइश विकास को लेकर होती रही। जिसमें रोजगार से लेकर न्यूनतम जरुरतों का सवाल माओवादी उठाते रहे। नक्सली संगठन पीपुल्सवार ने हमेशा इसी नजरिये को राजनीतिक आधार भी बनाया। जिस वजह से राष्ट्रीय राजनीति में हमेशा नक्सली संघर्ष को सामाजिक-आर्थिक समस्या के ही इर्द-गिर्द रखा गया। लेकिन बीते पांच साल में सीपीआई माओवादी ने सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से इतर राजनीतिक तौर पर ही अपने प्रभावित इलाकों में हर कार्रवाई शुरु की। जिसका असर आंध्र प्रदेश के तेलागंना, महाराष्ट्र के विदर्भ और छत्तीसगढ के बस्तर से लेकर मध्यप्रदेश, उडीसा, झारखंड बिहार और पश्चिमी बंगाल के हर उस मुद्दे में नजर आया जो राजनीतिक दलों को प्रभावित कर रहा था।
तेलांगना में माओवादियों ने शुरु से ही इस प्रचार को आगे बढाया कि वह किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं है। और तेलागंना राष्ट्रवादी पार्टी की राजनीति उनकी सोच से अलग है। इस थ्योरी ने माओवादियो की राजनीतिक जमीन झटके में चन्द्रशेखर से अलग की और वायएसआर रेड्डी को भी चेताया कि वह एनटीआर की बोली अन्ना या बडे भाई वाली ना बोले। वहीं, विदर्भ के चन्द्रपुर और गढ़चिरोली में किसानों की आत्महत्या से लेकर उघोगपतियो के मुनाफे को भी उस राजनीति से जोड़ा, जहां सवाल सामाजिक-आर्थिक आधार पर रखकर पिछड़े आदिवासियों का आंकलन ना हो, बल्कि राजनीतिक दलों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का विद्रूप चेहरा ही उभरे।
इसलिये कांग्रेस और बीजेपी की नीतियों के जरीये उनके नेताओं के लाभ का लेखा-जोखा भी इन इलाको में रखा गया। कुछ उसी तर्ज पर छत्तीसगढ में भी माओवादियों की पहल राजनीतिक तौर पर ही हुई, जिसके एवज में सलमा जुडुम को राज्य सरकार ने खड़ा किया। लेकिन माओवादियों ने सलवा-जुडुम के सामानातंर उस राजनीतिक लाभ को इन इलाकों में उभारना शुरु किया जो प्रकृतिक संपदा को निचोड़ कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ कौडियो के भाव जा रहा है। इसी आधार का असर उडीसा में नाल्को के अधिकारियो पर हमले में नजर आया । जबकि झारखंड और बिहार में सीधे राजनेताओ पर निशाना साध कर माओवादियों ने राजनीतिक संदेश देने की ही पहल को आगे बढाया।
असल में माओवादियों की नयी थ्योरी कहीं ज्यादा राजनीतिक चेतावनी वाली है । खासकर संसदीय राजनीति के उस तंत्र को वह सीधे चेतावनी देने की स्थिति में खुद को लाना चाहती है, जो अभी तक विकास के अंतर्विरोध के मद्देनजर ही पिछड़े इलाकों में सक्रिय माओवादियो का आईना देश को दिखाती रही है । एसइजेड यानी स्पेशल इकनॉमी जोन की अधिकतर योजनाएं उसी रेड कारिडोर में हैं, जहा माओवादी सक्रिय हैं । लेकिन पहली बार एसईजेड का विरोध सामाजिक-आर्थिक तौर पर करने की जगह माओवादियों ने उसे उसी राजनीति से जोड़ा, जिसकी आर्थिक नीतियों को लेकर आम शहरी जनता में भी सवाल उठ रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगुर इस मायने में पारदर्शी राजनीति का प्रतीक है । जहां माओवादियो ने वाम राजनीति के सामानातंर उस प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढाया, जिसने वामपंथियों को सत्ता के लिये विचारधारा से उतरते देखा। बंगाल में वाममोर्चा का यह बयान दुरस्त है कि ममता के पीछे माओवादियो का राजनीतिक संघर्ष काम कर रहा है। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि ममता की राजनीति उसी वाम राजनीति का विकल्प है। हकीकत में पहली बार माओवादी राजनीतिक तौर पर उस सोच को खारिज करना चाहते हैं जिसके जरीये यह सवाल खड़ा होता है कि सत्ता अगर बंदूक की नली से नहीं निकलती तो माओवाद की थ्योरी संसदीय राजनीति में सिवाय हिंसा के क्या मायने रखती है। यह सवाल माओवाद के सामने इसलिये भी बड़ा है क्योकि पहली बार केन्द्र सरकार ने नक्सल हिंसा को आंतकवाद सरीखा माना है। जिसे उन्हीं वामंपथियों ने सही ठहराया है, जो एक दशक पहले तक अतिवाम को भटकाव या बड़े भाई के तर्ज पर देखते थे। लेकिन सरकार की इस पहल को भी माओवादियों ने राजनीतिक तौर पर ही उठाया । जिसका असर नंदीग्राम में दिखा । लेकिन चुनाव में वोटिंग के दौरान नक्सली हिंसा लोकतंत्र के खिलाफ की भाषा मानी जायेगी, यह भी हकीकत है ।
लेकिन, देश की राजनीति का नया सवाल लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक दलों के आम लोगो से गैर सरोकार वाले मुद्दों का उठना भी है और सरोकार के उन मुद्दो को लोकतंत्र का ही नाम लेकर हाशिये पर ढकेल देना भी, जो लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान लगाते हैं। मसलन , अपराधियों और बाहुबलियों से कोई राजनीतिक दल नहीं बच पाया है लेकिन इसे मुद्दा नहीं बनने दिया गया। बालीवुड या क्रिकेट खिलाडियों के जरीये राजनीति का गैर राजनीतिक राग हर राजनीतिक दल ने छेड़ा । रोजगार और मंहगाई के निपटने का कोई तरीका किसी दल के पास नहीं है। अगर इन सवालों ने गांव और छोटे शहरो में चुनाव के लोकतंत्र को लेकर वोटरो में सवाल खडे किये हैं तो आंतकवाद के सवाल ने शहरी मतदाताओ के बीच राजनीति को लेकर एक आक्रोष भी पैदा किया है।
यह वही परिस्थितयां हैं, जिसमें पहली बार विकल्प का सवाल खड़ा तो हो रहा है लेकिन बिना किसी रास्ते के विकल्प का सवाल सवाल ही बना रह जा रहा है । इसलिये चुनाव के वक्त नक्सली हिसा ने नक्सल प्रभावित इलाको में कुछ नये सवाल पैदा कर दिये हैं। बिना स्थानीय मदद के चुनाव के वक्त हिंसा कैसे संभव है । स्थानीय वोटरों का यह एहसास खत्म हो चुका है कि वह चुनाव के जरीये लोकतंत्र को जीते हैं। राजनीतिक दलों के उम्मीदवार खलनायक माने जाते हैं। हिंसा का अंदेशा जब सरकार और सुरक्षाकर्मियों को भी था तो भी नक्सली कार्रवाई कर कैसे सुरक्षित निकल गये। राजनीतिक दलों ने कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दी। और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक को क्यों कहना पडा कि नक्सलियों से निपटने में राज्य सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। और उनसे नक्सल संकट सुलझ भी नही सकता है। असल में माओवादियों के लेकर बड़े सवाल अब शहरी मतदाताओ तक भी पहुंच रहे हैं । क्योंकि जिन राजनीतिक परिस्थियों से वोटर यह जानते समझते हुये गुजर रहा है कि चुनावी लोकतंत्र में उसकी शिरकत सिवाय वोट डालने भर की है। उसमें चुनाव के जरीये सत्ता बनाना या बदलना लोकतंत्र का नही सौदे का हिस्सा है, जो उन्हीं नेताओं के हाथ में है, जिन्हे वह लगातार सवाल उठाता रहा है । यानी चुनावी लोकतंत्र का जो खाका पिछले साठ साल से चला आ रहा है, उसमें राजनीति के जरीये विकल्प के सपनो को संजोना खत्म हो चला है। और माओवाद की नयी राजनीतिक दस्तक चुनावी लोकंतंत्र के टूटे सपने से निकल कर फिर से सत्ता बंदूक की नली से निकलने का अंदेशा जगाना चाह रही है । पुण्य प्रसून vajpeyee
dear chandrika,
जवाब देंहटाएंtoday for the first time i am going through your blog.in a confusing and chocking crowd of blogs you are trying to make a serious effort to voice something which really means business as long as our poltical stakes are concerned.i must congratulate you on this accout with lots of good wishes for your promising future.
keep it up..........
akhilesh dixit.
dear chandrika,
जवाब देंहटाएंfirst of all i want to say that the aritcle you have writtne is full of subjectivity uou are saying so many internal story about mcc and pw in your begning but can uou please tell me that how you came to know about all these facts. in the last you clamouring and shouting that without the healp of local people how the naxals escaped safely. my dear i m still unable to think what is the use of armed detention in the general election process. if its success depends upon peoples particepation and lastely you attached the insatisfaction of regressive and blind middle class on a facist demand of terrorism which largely led by BJP and this also gows against all progresive politics including naxals.
If you will shought so blindely in your blog than only you people will write in your blog you read yourself and praise among yourself.
chandika lekh men punyaprasoon vajpeyi ka naam to dena chahiye tha jo is lekh ke lekhak hain.
जवाब देंहटाएंtum se aisi galti ki ummeed nahin thi.