26 नवंबर 2008

तुम्हारी कहानी कही जानी चाहिये:-

अनुराधा गांधी ने इस दुनिया को विदा कह दिया, उनके दोस्तों के कुछ पत्र जो एक किताब के रूप में अनुराधा को याद करते हुए आये हैं उसका हिन्दी में अनुवाद यहाँ प्रकाशित है


प्रिय अनु,
जेल की सलाखें लगभग एक इंच मोटी हैं........ जिसमे सूर्य की किरणे हर सुबह थिरकते हुए आती हैं. और अभी गर्मी है.....वे तीखी मजबूत ....जोशीली हैं. ठीक उन्हीं दिनों की तरह जब हम विश्वविद्यालय बिल के खिलाफ चल रहे थे. तुम्हें याद है? सूरज की मारक गर्मी थी, और तुम मोर्चे की पूरी लम्बाई में उदित और अस्त होती दिखती थी. यह मेरा पहला मोर्चा था, मुझ पर तुम्हारी पहली छाप- उर्जा की एक पाँच फुट ऊची बंडल, एक छोटी सी कूद के साथ सूर्य पर प्रत्येक नारे से मुट्ठी का प्रहार करती हुई. जब आप आसमान पर प्रहार करने का निश्चय कर लेते हैं तो ऊचाई की बाधा बमुश्किल मायने रखती है.पहली छाप आवश्यक नहीं की स्थायी रहे. किन्तु साल और दशक इस पहली छवि को बहुत धुधले नहीं कर पाते. कुछ सालों बाद मैने तुम्हें एक मीटींग में तथ्यों, आंकडों और विचारों को मशीनगन की गति से रखते हुए सुना. मैने तुम्हारे विचारों को जाना और सीखा कि तुम चिंतन की जानी मानी विजेता हो. मगर मैं तुम्हारी छवि को चिंतकों के दायरे में बिठा नहीं पाता हूँ. संभवतः वह बहुत पानी कम था. कम-अज-कम जब तुमने न केवल दुनिया को व्याख्यायित बल्कि उसे बदलने का निश्चय किया. तब न केवल विचारों को व्याख्यायित और स्पष्ट करना था, उसे विविध और विस्तृत भूमि में लडा़ जाना था. और उस संघर्ष शील बर्ताव का क्या माने जब तुम नागपुर के लक्ष्मी नगर स्थित अपने कमरे में फरवरी की एक शाम मेरे साथ आयी थी. मैं मुंबई की ताजगी के साथ उस कड़कडा़ती ठण्ड से बचने के लिये खिड़कियों को बन्द करना चाह रहा था.......और तुम्हारे पास उस खोजी की वह कथा थी जिसने दक्षिणी ध्रुव के आक्रमण के लिये खुद को अनुकूलित कर लिया था.वर्षों बाद भी क्या इस स्थिति से मदद मिली थी जब अपने कंधे पर रायफल रखे, बस्तर के आडे़ तिरछे जंगलों से गुजरी थी? जरूर मिली होगी, या उस घुटन के दर्द ने तुम्हें उस पहाडी़ को जीतने की इजाजत नहीं दी.लेकिन इन भौतिक अनुकूलन, सांस्कृतिक, जाति विरोधी, महिला, ट्रेड यूनियन, नागरिक स्वतंत्रता, झुग्गियों, विद्यार्थियों तथा अन्य विविध मोर्चे के सतत युद्ध जैसी स्थितियों की दशा कहीं ज्यादा रही होगी.वैसे दिल जीतने में तुम्हें बमुश्किल ही परेशानी होती थी. लड़ते हुए लोग सभी जगहों पर एक जैसे ही होते हैं और तुम उनके संघर्ष के आम मुहाबरों से आसानी से जुड़ गयी होगी. और जहाँ भाषायी बाधा रही होगी वहाँ तुम इसे आसानी से लांघते हुए एक नई भाषायी बोली को अपना लेती होगी. जबकि हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी के अलावे तुम गुजराती गोंदी और यहाँ तक कि तेलगू की अल्पग्य भी थी.और उस दिन इ.पी.डब्ल्यू. में कृष्णा बंदोपाद्यायाय के आख्यान से गुजरते हुए मैं अपने को आश्चर्य चकित होने से नहीं रोक सका कि तुम्हारे आख्यान को कैसे पढा़ जायेगा.तुम्हारे सभी अनुभवों को जो हम सभी पुरूष कामरेडों के बरताव से हुए. लीडर, आर्गनायजर, गुरिल्ला, कमेटी मेम्बर, नीति निर्धारक, एक्टविस्ट बनने के वो सभी अनुभव, खासकर वो सारी परीक्षायें और ट्रायल जो महिला क्रंतिकारी बनने के चयन करने वाली को देना होता है.वस्तुतः मैं केवल बहुत ही परावर्तित और अपरावर्तित रूपों में उन अनुभवों को जान सकता हूँ. जैसे मैं जानता कि श्रेष्ठ कामरेडों की मानक छडी़ से तुम्हारे किसी कार्य की मानक तुलना का मानसिक जोड़ करना हम पुरूष मस्तिस्क के लिये कितना और किसी पुरूष के विवेकी सलाह को फटकार नहीं समझना कितना कठिन है. यह भी कि एक पुरूष का क्रोध महिमा मंडित हो सकता है और स्त्री का क्रोध महज चिड़चिडा़पन, पुरूष के आँसु इतने गम्भीर जबकि स्त्री के ब्लैक मेलिंग से मिलते जुलते. और कैसे किसी महिला को उस पौरूषीय आकांछी रूढ़ धारणा में संभवतः केवल संघर्ष रत होना होता है नकि किसी सांचागत सामर्थ्य में.अनु मैं जानता हूँ कि तुम्हारा हस्तक्षेप पहला होगा जिससे चीजें बदलने लगी. पितृ सत्ता के विरूद्ध सुधारवादी मुहिम पुरुषवादी वर्चस्व के स्तम्भ को अगर धराशायी नहीं कर रहा था (आन्दोलन के अन्दर और बाहर) तो भी नेतृत्व कट के गिर रहे थे. महिला सदस्यों की संख्या में बृद्धि हो रही थी. लेकिन यह भी तुम बेहतर जानोगी कि जब चीजें बदलती हैं तो कुछ ऎसी भी चीजें होती हैं जो यथास्थिति को बरकरार रखना चाहती हैं.और सतत सुधार्वादी लहरों की मांग रखती हैं. वो तुम और तुम्हारी बहनों के उत्कर्ष बिन्दु से कहानी कहने की मांग करती हैं.तुमने चीजों को न केवक अपने अनुभवों से देखा किन्तु उन हजारों कार्यकर्ताओं की दृष्टि से भी देखा, जिनमे तुम्हारा सामना देश के प्रत्येक कोने में हुआ था. तुमने महिलाओं के लिये नीति प्रतिपादन करने में हिस्सेदारी की और उसके कार्यान्वयन के लिये आगे बढी़. तब तुम्हारी कहानी अलग होगी ये वो कहानी है जिसे सुनाया जाना बाकी है.और यही वो था जो मैं तुम्हारे बारे में उस हप्ते लिखना चाहता था. जब अप्रैल के उस हप्ते ई.पी.डब्लू. में कृष्णा अपनी कहानी को सुना रही थी. तुमसे कहने के लिये कि तुम उस कहानी को सुनाने का प्रयास करो जो कृष्णा की कहानी के दशकों पार संवाद कर सकें. एक कहानी जिसे दसियों हजार कहानी कहनी है. आने वाले कल के उन असंख्य लड़के, लड़कियों से कई कृष्णाओं से और कई अनुओं से.लेकिन अनु इससे पहले कि मैं यह आंक पाता कि तुम तक पहुंच संभव है भी या नहीं कि ठीक उसी हप्ते के अखबार से हमे पता चला कि सेरीब्रल मलेरिया तुम्हें शहीद कर चुका है.स्मृतियों के बाढ़ से लहरें उतरती और यकायक आंसुओं को धक्का दे जाती और लगता है कि आँसु का प्रत्येक टुकडा़ कहानी कहने के लिये चीखना चाहता है-जो कहानी तुम्हारी है, उसकी है, हमारी है. एक कहानी जो बगैर नैतिकतावादी हुए सैकडो़ आदर्श/आचार गढे़गी, जो बगैर दाहक हुए लाखों मनों को जला सकती है. उस अनु की कहानी जो किसी दिन कही जायेगी किसी अनु के द्वारा.और अनु, सलाखें लगभग एक इंच मोटी हैं. लेकिन वे अरबों आत्माओं, करोडो़ं मन के लौ के साथ खडे़ रहने के लिये नहीं बने हैं. जैसे हजारों और अब लाखों कार्यकर्ता दृढ़ता से तुम्हारे रास्ते पर चलेंगे, आगे बढे़ंगे और नये क्षितिज मांपेंगे. उनके सामने से सलाखें व अन्य बाधायें उनको बनाये रखने वाले बिखर कर भागेंगे. पूरी दुनिया में और पूरे भारत में भी पुराने तरीके से शासित होने के अस्वीकार घोषणा कर रही गुस्से से उठी जनता की मुट्ठीयों के सामने साम्राज्यवाद और उनके शासक एजेन्ट का संकट निवर्तमान हो जाने को होगा इस प्रकार कि जैसा कि हो सकता है हमने कल्पना भी न की हो. जिस कल का हमने स्वप्न देखा है उसे वे जन्म दे रहे होंगे और हम वहाँ होंगे. तुम्हारा- छोटू, जेल से, मई २००८

24 नवंबर 2008

अनुराधा गांधी को याद करते हुए :-रमालू
स्नेह का एक प्रतीक याद करते हुए आँखें नमनाक हैं. तुम्हारे साथ गुजारे हुए दोस्ती के स्नेही पल अभी भी मेरी मुट्ठी में शेष बचे हैं. ११ अप्रेल को ५४ वर्ष की ही उम्र में दुनिया को तुमने विदा कह दिया.अनुराधा गांधी एक मानवतावादी थी. उनके पिता कुर्ग कर्नाटक से थे जो कम्युनिष्ट पार्टी ट्रेड यूनियन के कार्यकर्ता थे.बाद में वकालत के पेशे के साथ वे बाम्बे आ गये.और अनुराधा की पढा़ई लिखाई बाम्बे में हुई.महाराष्ट्र में नागरिक स्वतंत्रता अधिकार के लिये उसने एक अहम भूमिका अदा की उसने क्रांतिकारी आंदोलन में छ्त्रों के नवजवान भारत सभा में आवाह्ननाट्य मंडल को खडा़ करने में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई. १९७० में आज़ादी के बाद एक नयी पीढी़ नये विचारों के साथ उदित हुई. जिसने इस समाज को पूरी तरह समता पर आधारित बनाना चाहा, अनुराधा उस नौजवान शिक्षित पीढी़ की अगली पंक्ति में थी जो अपने समय के विभिन्न आंदोलनों के साथ खडे़ थे. वह उनमे से एक थी जिन्होंने आराम की जिन्दगी छोड़कर समाज में व्याप्त बुराईयों के खिलाफ संघर्ष का रास्ता चुना.मेरा परिचय उनसे तब हुआ जब बाम्बे में अपनी उच्च शिक्षा को समाप्त कर वे क्रान्तिकारी आंदोलन का एक हिस्सा बन लेक्चरर के रूप में नागपुर आयी.आंदोलन में सांस्कृतिक गतिविधियों की अहमियत को समझते हुए १९८३ में उन्होंने ए.आई.एल.आर.सी. (आल इंडिया लीग फार रिवोल्यूसनरी कल्चर) को बनाने में एक सक्रिय योगदान दिया.१९९६ तक वे इसकी सेन्ट्रल कमेटी की मेम्बर रही और इस दौरान उन्होंने कई सफल कार्यक्रम का आयोजन करवाया अपनी गतिविधियों को पूरा करने के लिये वह एक सायकिल से चला करती थी. जल्द ही नागपुर छोड़कर वे आदिवासी क्षेत्र में एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में चली गयी.मुझे याद आ रहा है १९८३ में जब ए.आई.एल.आर.सी. द्वारा दिल्ली में पहला कार्यक्रम लिया गया विरसम के कुछ वरिष्ठ सदस्यों (आन्ध्र प्रदेश क्रान्तिकारी लेखक संघ) ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की तरफदारी की थी यह अनुराधा ही थी जिसने बडी़ स्पष्टता के साथ क्षेत्रीय भाषाओं के विकास को ऎतिहासिक परिप्रेक्ष में समझाया और बताया कि मातृभाषा किस तरह से मानवसमुदाय के लिये सहज ग्राह्य होती है व उसकी क्या प्रक्रिया होती है. सारे प्रश्नों के जबाब को व्याख्यायित करते हुए उसने सबको संतुस्ट कर दिया.जुलाई १९८५ की बात है जब ७ क्रंतिकारी संगठन के प्रतिनिधि के रूप में मैं, वरवर राव, गदर, संजीव, और डोला किस्ट राजू हैदराबाद से पूरे भारत भ्रमण पर निकले थे.हमारा पहला ठहराव नागपुर था. यह अनुराधा गांधी थी जो नागपुर की एक दलित बस्ती में किराये के मकान में रहती थी और बडी़ गर्म जोशी के साथ हमारा स्वागत किया था.उसके बाद उन्होंने आंध्रप्रदेश में क्रान्तिकारी आंदोलन पर हो रहे दमन के खिलाफ सीता बर्डी के एक हाल में एक सभा आयोजित करवायी थी. जाने माने समाज सुधारक बाबा आम्टे इसमे मुख्य अतिथि के रूप में सम्मलित हुए थे.महाराष्ट्र के क्रांतिकारी आंदोलन को उभारने में अनुराधा गांधी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की उन्होंने कई लेखकों संस्कृति कर्मियों छात्रों और युवाओं को संगठित किया इस मायने में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता. क्रंतिकारी आंदोलन के अखिल भारतीय स्तर पर सेमिनार आयोजित करने में मुख्यतः उनके सुझाव और चर्चाओं में वे बडे़ स्तर की अवधारणा को पेश करती थी. क्रांतिकारी आंदोलन में राष्ट्रीयता, जातिप्रथा, महिला के सवालों को लेकर व आंदोलन में छात्रों और कामगार वर्ग के संगठन में नयी उर्जा की सहायक भूमिका आदि विषय पर. उनके प्रयास व कार्य क्रांतिकारी महिला आंदोलन के लिये मार्ग दर्शक होते थे.क्रांतिकारी आंदोलन के ढांचे को व्यापक बनाने में भी उनके सुझाव मदद करते थे. उन्होंने अंबेडकर के विचारों पर जाति के मसले को हल करने को लेकर एक नयी अंतर्दृष्टि दी. महाराष्ट्र में उन्होंने एक ऎसी व्यवस्था विकसित की जहाँ महिलायें महिलाओं के लिये एक विशिष्ट सत्र आयोजित करें. समस्याओं को चिन्हित कर खास समस्याओं के लिये रिजोल्यूसन बनायें और व्यवहारिकता के लिये एक मार्ग दर्शक सूत्र बनायें. उन्होंने जीवन साथी के रूप में कोबड गांधी को चुना और खुद को व्यवहारिक रूप से वर्गच्युत किया. वह आदिवासियॊं के साथ जंगलों में घूमती थी. जंगलों में घूमते हुए उन्हें मलेरिया हुआ और ब्रेन तक पहुचने के कारण उनकी मौत हो गयी. वह आपने कार्यों को बडी़ दिल्लगी के साथ करती थी. एक एक बेहतर कल के लिये वह लोगों को संगठित करती थी और यह सब करते हुए उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

14 नवंबर 2008

फिलिस्तीनी जन-संघर्षों के कवि महमूद दरवीस की कविता:-

लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
मेरा कार्ड न. ५०,००० है
मेरे आठ बच्चे हैं
नौवा अगली गर्मी में होने जा रहा है
नाराज तो नहीं हो?

लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
अपने साथियों के साथ पत्थर तोड़ता हूँ
पत्थर को निचोड़ देता हूँ
रोटी के एक टुकडे़ के लिये
एक किताब के लिये
अपने आठ बच्चों के खातिर
पर मैं भीख नहीं माँगता
और नाक नहीं रगड़ता
तुम्हारी ताबेदारी में
नाराज तो नहीं हो?

लिखो कि
मैं एक अरब हूँ
सिर्फ एक नाम, बगैर किसी अधिकार के
इस उन्माद धरती पर अटल
मेरी जडें गहरी गई हैं
युगों तक
समयातीत हैं वे
मैं हल चलाने वाले
किसान का बेटा हूँ
घास-फूस की झोपडी़ में रहता हूँ
मेरे बाल गहरे काले हैं
आँखें भूरी
माथे पर अरबी पगडी़ पहनता हूँ
हथेकियाँ फटी-फटी है
तेल और अजवाइन से नहाना पसंद करता हूँ

मेहरबानी कर के
सबसे ऊपर लिखो कि
मुझे किसी से नफरत नहीं है
मैं किसी को लूटता नहीं हूँ
लेकिन जब भूखा होता हूँ
अपने लूटने वालों को
नोचकर खा जाता हूँ

खबरदार
मेरी भूख से खबरदार
मेरे क्रोध से खबरदार॥

12 नवंबर 2008

संसद में मैकाले हंस रहा था :-

एक लम्बे अर्से बाद छः से चौदह वर्ष के बच्चों को अनिवर्य रूप से शिक्षा मुहैया करवाने वाले शिक्षा के अधिकार विधेयक को केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने कानूनी रूप से स्वीकृति दे दी है.संविधान के नीतिनिर्देशक तत्व में अनुच्छेद ४५ के तहत यह यह अनिवार्यता दी गयी है नीतिनिर्देशक तत्व की यह एक मात्र धारा थी जिसमे १० वर्ष के समय की बचन बद्धता थी. बचन बद्धता के पचास साल बाद शिक्षा के अधिकार की मंजूरी को कुछ विफल एतिहासिक दावों और भविष्य में प्राथमिक शिक्षा से निर्मित होने वाले समाज के आलोक में देखने की जरूरत है. १९५५ मेम जब प्रायमरी स्कूलों को आरम्भ करने का निर्णय लिया गया था तब से एक सुधारवादी अवधारणा के साथ यह बात सामने आनी शुरू हुई कि प्राथमिक शिक्षा का उत्तरोत्तर विकास होगा. जिसको लेकर समय समय पर कई समितियां बनायी गयी, और कुछ नये तरह के बदलाव भी किये गये. पर इन ५० वर्ष के दौरान प्राथमिक शिक्षा की जो स्थिति रही और वर्तमान में जो है वह एक निराशाजनक ही कही जा सकती है.. प्राथमिक स्कूलों की स्थिति, पाठ्यपुस्तकें, और शिक्षण की प्रक्रिया के साथ ५७.६१ प्रतिशत छात्र आज भी प्राथमिक शिक्षा को बीच में ही छोड़ देते हैं. ऎसे में इस अधिकार को मंजूरी मिलना आम जन जो अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल या महगे शिक्षण संस्थानों की शिक्षा को नहीं खरीद पा रहा है व असमानता की इस खाई में उसका आक्रोश वर्गीय आधार पर बढ़ता जा रहा है कही यह विधेयक उनके सब्र का झुनजुना तो नहीं है. १९८६ मेम नई शिक्षा नीति लागू होने के साथ तत्कालीन शिक्षा मंत्री कृष्ण चंद पंत ने शिक्षा स्थायी समिति के सामने यह बयान दिया था कि १९९० तक सभी को प्राथमिक शिक्षा प्राप्त हो जायेगी पर २२ वर्ष बाद आज जो आंकडे़ हमारे सामने हैं वो इन दावों को खोखला ही साबित करते हैं. प्राथमिक शिक्षा को लेकर १९६४ में डा. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में गठित आयोग ने शिक्षा दिये जाने की अवधारणा पर सवाल उठाते हुए कहा था कि शिक्षा प्रणाली बच्चों को मूल्य युक्त शिक्षा देने के बजाय उसे एक छोटे से अल्प मत के लिये उपलब्ध करा पाती है जो योग्यता से नहीं बल्कि फीस देने की क्षमता से बनता है. समतावादी आदर्श समाज के विपरीत यह एक अलोकतांत्रिक स्थिति है जिससे आम जन के बच्चे निम्न स्तर की शिक्षा पाने या न पाने को मजबूर हैं. जबकि सम्पन्न वर्ग अच्छी शिक्षा खरीदने में समर्थ है. ऎसी स्थिति में शिक्षा की समता के लिये जन शिक्षा को सर्वमान्य प्रणालि की ओर बढ़्ना होगा. बावजूद इसके कि इसका कार्यान्वयन इमानदारी से किया जाता यह पूरी तरह से रद्दी की टोकरी में पडी़ रही.और १९८६ में नई शिक्षा नीति की समीक्षा के लिये राममूर्ति कमेटी गठित की गयी जिसने मूल्य आधारित शिक्षा के नाम पर धर्म और अवैग्यानिक शिक्षा पर ज्यादा जोर दिया. जब इस पर सवाल उठा तो कोर्ट ने धर्म को उदारवादी अवधारणा के रूप में देखने की बात कही. इस लिहाज से पुस्तकों के लेखकों और सत्ता में आसीन विभिन्न विचारधारा की पार्टीयों को अपने मुताबिक इसे व्याख्यायित करने का मौका मिला. और जब भाजपा केन्द्र में आयी या जिन राज्यों में सत्ता सीन हुई अपने विचारों के अनुरूप किताबों का धार्मिकीकरण और साम्प्रदायिकी करण किया. अब बच्चों को ग से गमला की जगह ग से गणेश हो गया. सवाल यह उठता है कि जब प्राथमिक शिक्षा के अधिकार का विधेयक पास हो चुका है तो उसका आम जन को और सम्पूर्णता मेम समाज को क्या लाभ होने जा रहा है. लोग अंगूठा लगाने के बजाय हस्ताक्षर करना सीख जायेंगे और और साक्षरता का प्रतिशत थोडा़ बढ़ जायेगा जिसे सरकारें विकसित होने की प्रक्रिया में एक उपलब्धि के तौर पर गिनायेंगी पर अगूठा लगाने और हस्ताक्षर करने के बीच कोई खास फर्क नहीं दिखता. और सरकारे उस समझ तक आम जन को नहीं जानें देना चाहती जहा वे अपने हक अधिकार को समझ सकें अपने शोषण के विरुद्ध लड़ सकें. अन्ततः यह शिक्षा अधिकार का कानून किनके हितों की पूर्ति करेगा इस बात को समझने की जरूरत है. शिक्षा की अवधारणा मानवीय विकास के पीढी़ गत हस्तांतरण को लेकर होनी चाहिये थी. अपने देश के लोगों सहित विश्व की संचित संस्कृतियों के सर्वोत्तम त्त्वों से बच्चों का परिचय सीखने की उत्सुकता व चाहत जगाना अप्ने ग्यान को वे खुद बढा़यें बच्चों में इस तरह की क्षमता पैदा करना होना चाहिये . पर वर्गीय आधार पर स्कूलों का विभाजन जहाँ जिस वर्ग के पास पब्लिक स्कूल में अपने ब्च्चों को भेजने और महंगी शिक्षा को खरीदने की क्षमता है वह अपने मनमाफिक पाठ्यपुस्तकों को खरीदने के लिये आजाद है. सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले वर्ग के बच्चों को एक ही तरह की पाठ्यपुस्तकें थोप दी गयी हैं. पाठ्यपुस्तकों के सातह जो सबसे बडी़ समस्या दिखती है वह यह कि घटनाओं, व समाज के विकास, इतिहास, को एक कहानी के रूप में चित्रित कर दिया गया है जहाँ बच्चे को यह नही बताया जाता कि यह इतिहास कैसे निकाला गया इसके सही होने के क्या प्रमाण हैं पुस्तकें विवरणों का ढेर बनकर रह गयी हैं जो जिग्यासा को ग्यान की प्रक्रिया नहीं मानती . अतः बच्चों के मनोविग्यान मेम आस्थावादी भावना को विकसित किया जाता है . दूसरी तरफ पब्लिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को एक ऎसी संस्कृति में ढाला जाता है जहाँ वे टाइ जूते के साथ साफ सफाई युक्त एक खास तरह की संस्कृति में पलत्व हैं और समाज के यथार्थ से दूर रहते हुए समाज की गरीबी भूख बेरोजगारी अन्याय के संघर्षों को जानने से महरूम रह जाते हैं यह मध्यम वर्ग की मानसिकता को विकसित करने का पहला चरण होता है ऎसे में समान शिक्षा की अवधारणा को लागू करना ही समता की तरफ बढ़ना हो सकता है. शिक्षा का पतन राजनैतिक व सांस्कृतिक पतन है प्राथमिक शिक्षा को सभी के लिये जरूरी है पर यह न तो वर्गीय विभाजन के आधार पर होनी चाहिये न ही थोपी गयी हो बल्कि एक ऎसी व्यवस्था को इजाद करना होगा जहाँ बच्चे ग्यान को खुद से बढा़ने कि क्षमता पैदा कर सकें और आम जन के संघर्षों से जुड़ सकें.