प्रिय अनु,
जेल की सलाखें लगभग एक इंच मोटी हैं........ जिसमे सूर्य की किरणे हर सुबह थिरकते हुए आती हैं. और अभी गर्मी है.....वे तीखी मजबूत ....जोशीली हैं. ठीक उन्हीं दिनों की तरह जब हम विश्वविद्यालय बिल के खिलाफ चल रहे थे. तुम्हें याद है? सूरज की मारक गर्मी थी, और तुम मोर्चे की पूरी लम्बाई में उदित और अस्त होती दिखती थी. यह मेरा पहला मोर्चा था, मुझ पर तुम्हारी पहली छाप- उर्जा की एक पाँच फुट ऊची बंडल, एक छोटी सी कूद के साथ सूर्य पर प्रत्येक नारे से मुट्ठी का प्रहार करती हुई. जब आप आसमान पर प्रहार करने का निश्चय कर लेते हैं तो ऊचाई की बाधा बमुश्किल मायने रखती है.पहली छाप आवश्यक नहीं की स्थायी रहे. किन्तु साल और दशक इस पहली छवि को बहुत धुधले नहीं कर पाते. कुछ सालों बाद मैने तुम्हें एक मीटींग में तथ्यों, आंकडों और विचारों को मशीनगन की गति से रखते हुए सुना. मैने तुम्हारे विचारों को जाना और सीखा कि तुम चिंतन की जानी मानी विजेता हो. मगर मैं तुम्हारी छवि को चिंतकों के दायरे में बिठा नहीं पाता हूँ. संभवतः वह बहुत पानी कम था. कम-अज-कम जब तुमने न केवल दुनिया को व्याख्यायित बल्कि उसे बदलने का निश्चय किया. तब न केवल विचारों को व्याख्यायित और स्पष्ट करना था, उसे विविध और विस्तृत भूमि में लडा़ जाना था. और उस संघर्ष शील बर्ताव का क्या माने जब तुम नागपुर के लक्ष्मी नगर स्थित अपने कमरे में फरवरी की एक शाम मेरे साथ आयी थी. मैं मुंबई की ताजगी के साथ उस कड़कडा़ती ठण्ड से बचने के लिये खिड़कियों को बन्द करना चाह रहा था.......और तुम्हारे पास उस खोजी की वह कथा थी जिसने दक्षिणी ध्रुव के आक्रमण के लिये खुद को अनुकूलित कर लिया था.वर्षों बाद भी क्या इस स्थिति से मदद मिली थी जब अपने कंधे पर रायफल रखे, बस्तर के आडे़ तिरछे जंगलों से गुजरी थी? जरूर मिली होगी, या उस घुटन के दर्द ने तुम्हें उस पहाडी़ को जीतने की इजाजत नहीं दी.लेकिन इन भौतिक अनुकूलन, सांस्कृतिक, जाति विरोधी, महिला, ट्रेड यूनियन, नागरिक स्वतंत्रता, झुग्गियों, विद्यार्थियों तथा अन्य विविध मोर्चे के सतत युद्ध जैसी स्थितियों की दशा कहीं ज्यादा रही होगी.वैसे दिल जीतने में तुम्हें बमुश्किल ही परेशानी होती थी. लड़ते हुए लोग सभी जगहों पर एक जैसे ही होते हैं और तुम उनके संघर्ष के आम मुहाबरों से आसानी से जुड़ गयी होगी. और जहाँ भाषायी बाधा रही होगी वहाँ तुम इसे आसानी से लांघते हुए एक नई भाषायी बोली को अपना लेती होगी. जबकि हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी के अलावे तुम गुजराती गोंदी और यहाँ तक कि तेलगू की अल्पग्य भी थी.और उस दिन इ.पी.डब्ल्यू. में कृष्णा बंदोपाद्यायाय के आख्यान से गुजरते हुए मैं अपने को आश्चर्य चकित होने से नहीं रोक सका कि तुम्हारे आख्यान को कैसे पढा़ जायेगा.तुम्हारे सभी अनुभवों को जो हम सभी पुरूष कामरेडों के बरताव से हुए. लीडर, आर्गनायजर, गुरिल्ला, कमेटी मेम्बर, नीति निर्धारक, एक्टविस्ट बनने के वो सभी अनुभव, खासकर वो सारी परीक्षायें और ट्रायल जो महिला क्रंतिकारी बनने के चयन करने वाली को देना होता है.वस्तुतः मैं केवल बहुत ही परावर्तित और अपरावर्तित रूपों में उन अनुभवों को जान सकता हूँ. जैसे मैं जानता कि श्रेष्ठ कामरेडों की मानक छडी़ से तुम्हारे किसी कार्य की मानक तुलना का मानसिक जोड़ करना हम पुरूष मस्तिस्क के लिये कितना और किसी पुरूष के विवेकी सलाह को फटकार नहीं समझना कितना कठिन है. यह भी कि एक पुरूष का क्रोध महिमा मंडित हो सकता है और स्त्री का क्रोध महज चिड़चिडा़पन, पुरूष के आँसु इतने गम्भीर जबकि स्त्री के ब्लैक मेलिंग से मिलते जुलते. और कैसे किसी महिला को उस पौरूषीय आकांछी रूढ़ धारणा में संभवतः केवल संघर्ष रत होना होता है नकि किसी सांचागत सामर्थ्य में.अनु मैं जानता हूँ कि तुम्हारा हस्तक्षेप पहला होगा जिससे चीजें बदलने लगी. पितृ सत्ता के विरूद्ध सुधारवादी मुहिम पुरुषवादी वर्चस्व के स्तम्भ को अगर धराशायी नहीं कर रहा था (आन्दोलन के अन्दर और बाहर) तो भी नेतृत्व कट के गिर रहे थे. महिला सदस्यों की संख्या में बृद्धि हो रही थी. लेकिन यह भी तुम बेहतर जानोगी कि जब चीजें बदलती हैं तो कुछ ऎसी भी चीजें होती हैं जो यथास्थिति को बरकरार रखना चाहती हैं.और सतत सुधार्वादी लहरों की मांग रखती हैं. वो तुम और तुम्हारी बहनों के उत्कर्ष बिन्दु से कहानी कहने की मांग करती हैं.तुमने चीजों को न केवक अपने अनुभवों से देखा किन्तु उन हजारों कार्यकर्ताओं की दृष्टि से भी देखा, जिनमे तुम्हारा सामना देश के प्रत्येक कोने में हुआ था. तुमने महिलाओं के लिये नीति प्रतिपादन करने में हिस्सेदारी की और उसके कार्यान्वयन के लिये आगे बढी़. तब तुम्हारी कहानी अलग होगी ये वो कहानी है जिसे सुनाया जाना बाकी है.और यही वो था जो मैं तुम्हारे बारे में उस हप्ते लिखना चाहता था. जब अप्रैल के उस हप्ते ई.पी.डब्लू. में कृष्णा अपनी कहानी को सुना रही थी. तुमसे कहने के लिये कि तुम उस कहानी को सुनाने का प्रयास करो जो कृष्णा की कहानी के दशकों पार संवाद कर सकें. एक कहानी जिसे दसियों हजार कहानी कहनी है. आने वाले कल के उन असंख्य लड़के, लड़कियों से कई कृष्णाओं से और कई अनुओं से.लेकिन अनु इससे पहले कि मैं यह आंक पाता कि तुम तक पहुंच संभव है भी या नहीं कि ठीक उसी हप्ते के अखबार से हमे पता चला कि सेरीब्रल मलेरिया तुम्हें शहीद कर चुका है.स्मृतियों के बाढ़ से लहरें उतरती और यकायक आंसुओं को धक्का दे जाती और लगता है कि आँसु का प्रत्येक टुकडा़ कहानी कहने के लिये चीखना चाहता है-जो कहानी तुम्हारी है, उसकी है, हमारी है. एक कहानी जो बगैर नैतिकतावादी हुए सैकडो़ आदर्श/आचार गढे़गी, जो बगैर दाहक हुए लाखों मनों को जला सकती है. उस अनु की कहानी जो किसी दिन कही जायेगी किसी अनु के द्वारा.और अनु, सलाखें लगभग एक इंच मोटी हैं. लेकिन वे अरबों आत्माओं, करोडो़ं मन के लौ के साथ खडे़ रहने के लिये नहीं बने हैं. जैसे हजारों और अब लाखों कार्यकर्ता दृढ़ता से तुम्हारे रास्ते पर चलेंगे, आगे बढे़ंगे और नये क्षितिज मांपेंगे. उनके सामने से सलाखें व अन्य बाधायें उनको बनाये रखने वाले बिखर कर भागेंगे. पूरी दुनिया में और पूरे भारत में भी पुराने तरीके से शासित होने के अस्वीकार घोषणा कर रही गुस्से से उठी जनता की मुट्ठीयों के सामने साम्राज्यवाद और उनके शासक एजेन्ट का संकट निवर्तमान हो जाने को होगा इस प्रकार कि जैसा कि हो सकता है हमने कल्पना भी न की हो. जिस कल का हमने स्वप्न देखा है उसे वे जन्म दे रहे होंगे और हम वहाँ होंगे. तुम्हारा- छोटू, जेल से, मई २००८