25 मार्च 2008

दख़ल पत्रिका का महिला विशेषांक:-

8 मार्च को महिला दिवस था|आधी आबादी की वर्तमान स्थितियां और उनके संघर्ष को याद करते हुये दख़ल पत्रिका का मुद्रित अंक महिलाओं पर केन्द्रित है जिसे हम यहाँ प्रकाशित कर रहे है|




अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस क्यों? :-

यदि स्त्री और पुरूश के बीच की असमानता हमारे रोजमर्रा के जीवन का निèाZारक व प्रमुख कारक है और इसलिए इसे खत्म करने का प्रयास भी रोजमर्रा के स्तर पर ही होना चाहिए (ऐसा हो भी रहा है ) तो किसी खास दिवस पर ही इस तरह के आयोजन का क्या औचित्य है? सीधे व साफ लजों में कहें तो अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस क्यों? क्या इसलिए कि 8 मार्च के दिन स्त्रियों ने सड़कों पर उतरकर, विरोध प्रदषZन करके दमनकारी व्यवस्था के स्त्री विरोधी पक्ष पर प्रहार किया ओैर अपने हक हासिल किए? क्या इसलिए कि यह दिन उनकी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उपलब्धियों का दिन रहा है? लेकिन ऐसे तो कई दिवस मनाए जाते हेैं। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, इत्यादिण्ण्ण्ण्ण्ण् लंबी सूची है। ये तो रिचुअल मात्र बनकर रह गए हैं। तो क्या हम रिचुअल्स की फेहरिस्त में महिला दिवस के रूप में एक और रिचुअल जोड़ने भर जा रहे हैं?
ऐसी बात नहीं। हम महिला दिवस इसलिए मनाते हैं कि उन असंख्य कुबाZनियों की सार्थकता सिद्ध हो सके, उनका विस्तार हो सके और सबसे बड़ी बात हम आत्मावलोकन कर सकें। आज हम उन लोगों में भी जागृति लाते हैं जो स्त्री, संघशZ की परिधि के बाहर हैं। कि स्त्री की मुक्ति के क्या मायने हैं? इसके साथ ही, जिन लोगों में यह बोध होता है लेकिन जो नििश्क्रय से हो जाते हैं अथवा भटकाव के षिकार हो जाते हैं उनके बोध को जगाने के लिए अथवा उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए भी यह दिवस उचित अवसर प्रदान करता है। तो आईए, आज के दिन हम संकल्प लें कि स्त्री-चेतना के बीज हम जन-जन तक बोएंगे और इस दुनियां से सभी प्रकार के ‘ाोशणों व दमनों का नामोनिषान मिटाकर एक समतावादी समाज बनाएंगे।
हमें प्राय: सुनने को मिला है कि थ्योरी के लिए हम पिष्चम की ओर ताकते हैं। वहा¡ की थ्योरी के माध्यम से हम अपने यहा¡ की सामाजिक संरचनाओं को समझने की कोषिष करते हैं। खासकर मुक्तिकामी परियोजनाओं के आलोचक इन तकोZं के आधार पर पूरे-के-पूरे चिंतन को खारिज करते हैं।
गौरतलब है, विचारों को इस भा¡ति `पिष्चमी´ और `पूरबी´ या `प्राच्य´ के अलग अलग चौखटों में देखने की यह सोच वास्तव में पिष्चमी सोच है। इसे हम प्राच्यवाद या ओरियन्टलिज्म के नाम से जानते हेैं। प्राचीन काल से मानव-समुदायों का एक जगह से दूसरे जगह आना-जाना और इस क्रम में विचारों व संस्कृतियों का आदान-प्रदान होता रहा है। कुछ भी ‘ाुध्द `पिष्चमी´ या ‘ाुध्द `पुरबी´ नहीं। सब कुछ संकर (भ्लइतपक ) है, जैसा कि भाभा ने कहा हैं।
खासकर, मनुश्य की मुक्ति से ताल्लुक रखने वाली कोई भी परियोजना किसी चौखटे में नही कैद की जा सकती। नारीवाद भी एक मुक्तिकामी परियोजना है। यदि हमारे यहा¡ विद्यमान पितृसत्ता की संरचनाओं को समझने में कोई नारीवादी थ्योरी मददगार साबित होती है तो हम उसे गले लगाने से नहीं हिचकेंगे। हम यह नहीं देखने में लग जाए¡गे कि वह थ्योरी पिष्चमी है या पूरबी। मामला प्रासंगिकता और अर्थसत्ता का है। जो लोग आ¡ख मू¡दकर ऐसा करते हैं दरअसल वे यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि सामाजिक संरचनाओं की कार्य पद्धति पर से अज्ञान रूपी धुंध छ¡टे।
जहा¡ तक भारत में उसमें भी खासकर हिंदी में नारीवादी िंचंतन की बात है तो हमे साहित्यकारों द्वारा अनुभव किए गए सतही उच्छावासों के ढे़रों गप्प-षप्प देखने को मिलते हैं और नारीवादी चिंतन की इसी प्राक-अवस्था को स्त्री-विमषZ या चिंतन मानकर आत्मतुश्ट नारीवादियों की लंबी फेहरिस्त बनायी जा सकती है। मैनेजर पांडेय जैसे आलोचक महादेवी वर्मा की `श्रृंखला की किड़या¡´ को सिमोन द बोउआर के दि सेकेंड सेक्स के बरअक्स रखकर देखते है। जबकि `श्रृंखला की किड़या¡´ एक संवेदनषील साहित्यकार व्दारा व्यक्त की गई सहज हृदयोद्गार है। कोई लेखन या कार्य चिंतन थ्योरी का स्तर तभी प्राप्त कर पाता है जब उसकी संरचना दाषZनिक हो यानी जिसमें तत्वमीमंासा, ज्ञानमीमांसा और मूल्यमीमांसा का व्यवस्थित उपयोग हुआ है। यही वजह है कि सिमोन का `दि सेकेंड सेक्स´ एक डंहीनउ वचमे हेै और मजबूत थ्योरिरिकल ट्रीटाईज भी।


अंतरराश्ट्रीय महिला दिवस इतिहास :-
अनुवाद : सुधीर अनुवाद विभाग महत्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय

हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है उसे हम उतने ही हल्के लेते हैं। जनतंत्र व मताधिकार इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। ब्रिटिष उपनिवेषवाद से मुक्ति के साथ ही हमें जनतंत्र, इससे जुड़े मूल्य और सार्वभौम मताधिकार अपने-आप मिल गए यानी इनके लिए हमें राजषाही या निरंकुष सत्ता से वैसा संघशZ नहीं करना पड़ा जैसा यूरोप या अन्य जगहों पर। इसका मतलब यह नहीं कि हमारा समाज ज्यादा उदार रहा है। दरअसल अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ की लड़ाई जिस धरातल पर लड़ी गयी उस धरातल के अवयव ही जनतंत्र व उसके मूल्यों से निर्मित थे। और इन्हें हासिल करने के लिए यूरोप में असंख्य कुबाZनिया¡ दी गयीं। आज भी दुनिया भर में इसके लिए संघशZ जारी है।
इस संघशZ में महिलाओं की भागेदारी अत्यंत महत्वपूर्ण, बल्कि निर्णायक रही। अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस महिलाओं की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उपलब्धियों का दिवस है। 8 मार्च 1908 के दिन 15000 स्त्रिया¡ न्यूयार्क की सड़को पर उतर पड़ी। उनकी मा¡गे थीं-काम के घंटे कम करो, मजदूरी बढ़ाओ और बोट का अधिकार दो। 28 फरवरी 1909 के दिन संयुक्त राज्य अमेरिका की स्त्री समाजवादियों ने कामगार स्त्रियों के इन्हीं हकों के लिए देष भर में मीटिंग, धरने और प्रदषZन आयोजित किए। यह पहला महिला दिवस था। `महिला दिवस´ मनाया जाता रहा। 1931 तक फरवरी के अंतिम रविवार के दिन 1910 में कोपेनहेगेन (डेनमार्क) में समाजवादियों के सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें जर्मनी की समाजवादी चितंक और क्लारा जेटकिन नें अंतरराश्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा। 19 मार्च का दिन यू¡ ही नहीं चुना गया था, दरअसल यही वह दिन था जब जनोन्मुखी घोशाणायें हुइ, उनमें से एक था स्त्रियों के मताधिकार यह बात अलग है कि उसने इन घोशनाओं का खुद पालन नही किया। रूस में स्त्रियों ने प्रथम विष्वयुध्द के खिलाफ ‘ाांन्ति के मोर्चे के रूप में पहला अंतराश्ट्रीय महिला दिवस 1913 के फरवरी महिने के अंतिम रविवार को मनाया।
इसी केे एक साल बाद यूरोप में अन्य जगहों पर भी युध्द के खिलाफ आठ मार्च को महिलायें सड़को पर उतर पड़ी। लगभग दो लाख रूसी सैनियों की बलि के विरोध में अपना विरोध दर्ज कराने के लिए पुन: 1917 में फरवरी के अंतिम रविवार के दिन प्रदषZन किया। दरअसल भूख, ठंड और युध्द की विभीिशका से त्रस्त श्रमिक और कृशक महिलाओं का ध्ौर्य जवाब दे गया और वे `रोटी और ‘ाान्ति´ का नारा लगाती हुई हड़ताल पर उतर आयी। हाला¡कि उस वक्त सक्रिय राजनीतिक नेताओं ने इसे समयोचित नहीं माना लेेकिन स्त्रियों ने अपना पैर पीछे नहीं किया। जूलीयन कैलैंडर के अनुसार वह दिन 28 फरवरी था लेकिन गि्रगोरियन कैलेैंडर के अनुसार अन्य जगहों के लिए 8 मार्च था। 1917 का यह महिला दिवस इतिहास का वह क्षण था, जो पूरी दुनिया को दस दिनों तक हिला देनी वाली क्रांति के लिए निर्णायक साबित हुआ। तब से 8 मार्च का दिन अंतरराश्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा और प्रत्येक 8 मार्च महिलाओं के समाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक आधिकारों के संघशZ तथा स्त्री मुक्ति के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धियों का दिवस बन गया। कुछ उल्लेखनीय महिला दिवस तिथिया¡ निम्न हैं।
1) आठ मार्च 1935 : स्पेनिष औरतों ने फासिज्म के विरोध में प्रदषZन किया क्योंकि जर्मनी में उस समय हिटलर स्त्रियों को युध्द के लिए अधिक बच्चे पैदा करने के लिए उकसा रहा था। 1936 में स्पेन की महिलाओं ने जनरल फ्रेंको के अत्याचारी दमनकारी ‘ाासन के विरोध में जबरदस्त प्रदषZन किया।
2) आठ मार्च 1943 : इटली में मुसोलिनी के तानाषाही ‘ाासन के खिलाफ महिलाओं ने आवाज उठाई।
3) आठ मार्च 1945 : पेरिस में वीमेंस इंटरनेषनल डेमोक्रेटिक फेडरेषन की स्थापना पर सभी देषों की स्त्रियों व्दारा महिला आंदोलन को विष्व स्तर पर संगठित रूप में चलाने का निष्चय किया गया।
4) आठ मार्च 1974 : वियतनाम में अमेरिकन साम्राज्यवाद के खूनी आक्रमणकारी हमलों के विरोध का औरतों ने जमकर विरोध किया।
5) आठ मार्च 1975 : संयुक्त राश्ट्र महासभा ने अंतरराश्ट्र्रीय महिला वशZ घोिशत किया।
6) इरान में चादोर (गुलामी व्यवस्था की निषानी) के विरोध में महिलाओं ने मोर्चा निकाला।
7) आठ मार्च 1980 : भारत की खेतिहर महिलाओं तक ने 16 वशीZय मथुरा नाम की लड़की के साथ बलत्कार की दोशी पुलिस को माफ करने के विरोध में सुप्रीम कोर्ट तक आवाज उठाई। इसके कारण भारत में पहली बार बलत्कार संबंधी कानून में बदलाव लाना पड़ा।
8) आठ मार्च 1987 : महाराश्ट्र में गर्भजल परीक्षण के विरोध में आंदोलन किया गया। परिणामत: महाराश्ट्रª में इस परिक्षण पर पाबंदी लगा दी।
9) आठ मार्च 1988 : भारत भर की महिला संगठनों ने सती प्रथा के विरोध में जोरदार आंदोलन किया परिणामत: सती प्रथा के लिए नये व कड़े कानून बनाने पड़े।

सीमोन द बुवा :-

दुनिया की आधी आबादी को उनके अधिकरों, उनके हकों के बारे में सजग करने वाली, सेकन्ड सेक्स की रचयिता सीमोन द बुवा की जन्म सदी पर हम उनकी पुस्तक सेकन्ड सेक्स के अनुवाद स्त्री उपेक्षिता के कुछ अंस प्रस्तुत कर रहे हैं।

1:- आत्ममुग्धा स्त्री इतना अधिक अपने को देखती है कि वह दूसरों का कुछ भी देख नहीं सकती। वह दूसरों में केवल उतना ही देखती है जितना कि वह उनमें अपने जैसा पाती है।
2:- स्त्री स्वभावत: आत्ममुग्धा होती है। पुरूशों की दृिश्ट में स्वीकृत होने के लिए वह सुंदर दिखता चाहती है। उसकी मां और बड़ी बहनों ने षुरू से ही उसके मन में एक सुंदर घोंसले की जरूरत पैदा कर दी है। किन्हीं दूसरे रास्तों से स्वतंत्रता मिल जाने पर भी वह अपनी इन इच्छाओं को छोड़ना नहीं चाहती। जिस हद तक वह पुरूश की दुनिया में असुरक्षित महसूस करती है, उसी हद तक वह इन जरूरतों को, जिनका प्रतीकात्मक अर्थ हुआ आंतरिक संरक्षण, अपने आपमें बनाए रखती है।
3:- एक स्त्री, जो जीना चाहती है और जिसने अपनी हर इच्छा तथा कामना को दफन नहीं कर दिया है, नििस्क्रय उदासीनता के बदले जोखिम लेना अधिक पसंद करेगी। उसे एक पुरूश की तुलना में अधिक प्र्रतिकूल और चुनौतीपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है। समाज स्त्री की स्वतंत्रता की इच्छा को सहजता से स्वीकार नहीं करता।
4:- स्त्री जब खुले रूप से प्रस्ताव रखती है तो पुरूश खिसक जाता है, क्योंकि वह जीतने की हवस रखता है। स्त्री अपने आपको षिकार बनाकर ही कुछ पा सकती है। उसे नििस्क्रय वस्तु बनना पड़ता है। जैसे वह केवल एक समर्पित प्रत्याषा-भर हो। इसलिए जब पुरूश उसकी पहल को ठुकराता है तो वह बड़ी अपमानित होती है। पुरूश जब हारता है तो वह यही समझता है कि अपनी एक कोषिष में वह नाकामयाब हुआ।
5:- कुछ सुविधाएं ऐसी भी हैं जो औरत को अपनी हीन अवस्था के ही कारण मिल जाती हैं। चूंकि षुरू से ही पुरूश की अपेक्षा उसकी स्थिति कमजोर है, इसलिए वह किसी भी घटना के लिए अपने आपको जिम्मेदार नहीं ठहराती। अपने कृत्यों के सामाजिक औचित्य का प्रतिपादन वह नहीं करती। एक सभ्य पुरूश स्त्री से कोमल और उचित व्यवहार करना अपना फर्ज समझता है और औरत की स्थितिग्रस्तता स्वीकार करता है। वह मूल्य-बोध, दायित्व और करूणा का बंधन अनिवार्यत: स्वीकार कर लेता है। अपनी इस स्वाभाविक कमजोरी के कारण प्राय: पुरूश उन औरतों का षिकार हो जाते हैं जो अपनी षोषक ओैर पराजीवी प्रवृत्ति के कारण उनकी कमजोरियों का पूरा फायदा उठाती हैं।
6:- स्त्रियां पांडित्य के बोझ और अधिकाधिक सत्ता के प्रति सम्मान भाव से प्राय: आक्रांत रहती हैं। उनके विचार केवल किताबी होेने के कारण संकुचित होते हैं, इसीलिए एक ईमानदार छात्रा की भी आलोचनात्मक क्षमता ओैर बुिध्द का-हास होता है। अधिकारियों को प्रसन्न करने की अत्याधिक चाह उसके मनोभावों को तनावग्रस्त बनाए रखती है।
7:- स्त्री-स्वाधीनता का अर्थ हुआ कि स्त्री पुरूश से जिस पारम्परिक सम्बंध को निभा रही है, उससे मुक्त हो । हम स्त्री-पुरूश के बीच घटने वाले सम्बंध को नहीं नकार रहे। उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होगा और वह पुरूष की होकर भी जिएगी। दोनों अपनी-अपनी स्वायत्तता में दूसरे का अनन्न रूप भी देखेंगे। सम्बंधों की पारस्परिकता और अन्योन्याश्रितता से, चाह, अधिकार, प्रेम ओैर आमोद-प्रमोद के अर्थ समाप्त नहीं हो जाएंगे और नहीं समाप्त होंगे दो संवगोZं के बीच के षब्द देना, प्राप्त करना, मिलन होना, बल्कि दासत्व जब समाप्त होगा ओैर वह भी आधी मानवता का, तब व्यवस्था का यह सारा ढोंग समाप्त हो जाएगा। स्त्री-पुरूश के बीच का विभेद वास्तव में एक महत्वपूर्ण नई सार्थकता को अभिव्यक्त करेगा। माक्र्स कहते हैं: ``स्त्री और पुरूश का आपसी सम्बंध सबसे अधिक प्राकृतिक है। विकास के दौरान हमें यह देखना है कि किस हद तक मानव सही मामले में मानव बना, यानी प्राकृतिक अवस्था से बढ़ते हुए मानवीय स्वभाव को उसने पाया?´´

दासी पुन्ना एक जातक कथा :-

( स्त्री और पुरूश के बीच विद्यमान असमानता का तर्क के आधार पर प्रतिकार करते हुए तो हम बुध्द के षिश्य आनंद को भी पाते हैं। जातक कथाओं में जाति-व्यवस्था ओैर स्त्री-पुरूश असमानता की बुनियाद पर ताकिZक प्रहार के कई उदाहरण मौजूद हैं। यहा¡ जातक कथाओं में से एक ऐसी ही कहानी का प्रकाषन किया जा रहा है। )

पुन्ना एक दासी थी। केैसा भी मौसम हो, वह हर सुबह नदी से अपने मालिक के घर के लिए पानी लाने जाती। उसने पाया कि एक बा्रम्हण भी रोज सुबह नदी में स्नान करने आता हैं, भले ही ठंड का मौसम क्यों न हो । ठंड से थरथराते स्नान करने वाले उस ब्राम्हण से उसने कहा:
जाडे़ के मौसम में ठंड के बावजूद
मुझे यहा¡ सुबह-सुबह पानी लाने आना पड़ता है,
मैं तो मालकिन की गाली और उसके ताने की डर से ऐसा करती
हू¡ लेकिन हे ब्राम्हण, तुम्हें किस का डर है? तुम
क्यों इतनी ठंड में का¡पते हुए स्नान के लिए विवष हो?
ब्राम्हण ने पुन्ना को जवाब दिया कि वह ऐसा अपना पाप धोने और पवित्र होने (पुण्य बटोरने) के लिए करता है। इस पर पुन्ना ने जवाब दिया:
तुम्हे किसने कह दिया कि जल से तुम्हारे बुरे कर्म या पाप धुल जाए¡गे? तब तो मछलिया¡, कछुए और जल में रहने, तैरने वाले सभी जीवों को सीधे स्वर्ग ही मिल जाना चाहिए! (लेकिन) यदि धुलना ही होगा तो तुम्हारे पुण्य भी धुल जाएंगे।


गार्गी के प्रष्न :-

याज्ञवल्क्य अपने समय के प्रसिद्ध दाषZनिक थे । उन्होंने एक दिन अन्य विद्वानों को ‘ाास्त्रार्थ के लिए चुनौती दिया। उद्वेष्य यह पता करना था कि उस समय सबसे बड़ा विद्वान कौन है? इसमें ‘ाामिल होने के लिए छह लोग तैयार हुए। इनमें गार्गी को छोड़ सभी पुरूश थे। ‘ाास्त्रार्थ ‘ाुरू होने के बाद धीरे धीरे सब विद्वान चुप होते गए । याज्ञवल्क्य की विद्वता के समक्ष वे सभी झुक गए। अंत में गार्गी की बारी आई। गार्गी एक बड़े दाषZनिक की पुत्री थी वह अच्छी कुषलता का परिचय देते हुए याज्ञवल्क्य से बहस करने लगी। धीरे-धीरे उसके प्रष्न कठिन होते गए ‘ाास्त्रार्थ ने महत्वपूर्ण मोड़ ले लिया और जब गार्गी ने तीर के सामन दो प्रष्नों से याज्ञवल्क्य पर प्रहार किया तो याज्ञवल्क्य जबाब देने के बजाए ब्रह्माणवादी पुरूश की भूमिका में आ गए। उन्होंने गार्गी को धमकी दी : गार्गी बहस को इतना न खीचों कि तुम्हारा सर फट जाए। इसके बाद गार्गी को चुप हो जाना पड़ा। गौरमतलब है कि सभी पुरूश प्रतिभागी अपने आप चुप हो गए थे, कारण वो याज्ञवल्क्य की विद्वता का सामना नही कर पाए थे। जबकि गार्गी ने याज्ञवल्क्य को निरूत्तर सा कर दिया था। इसलिए उसे चुप करने के लिए याज्ञवल्क्य को धमकी देनी पड़ी। यहॉ यह बात गौर करने लायक है कि निचले दर्जे के पुरूशों के अवाज को दबाने के लिए जहॉ हिंसा के सहारे की जरूरत होती थी, वही स्त्रियों को चुप करने में हिंसा की धमकी काफी थी।
इस कहानी में बाद में जोड़े गए अंष में इस बात का जिक्र है कि गार्गी पहले तो चुप हो गई। लेकिन याज्ञव्ल्क्य की सर्वश्रेश्ठता को स्वीकार करने के लिए गार्गी ने पुन: बातचीत में हिस्सा लिया और वह अब याज्ञवल्क्य के उत्तरों से संतुश्ठ थी। इस तरह गार्गी ने याज्ञवल्क्य को सर्वश्रेश्ठ दाषZनिक मान लिया। कहानी जिस तरह समाप्त होती है वह अत्यंत दिलचस्प है। वर्चस्व प्राप्त विचार धारा को प्रभावी या पुनरोत्पादित होने के लिए स्त्री की सहमति आवष्यक हो जाती है।
दलित नारीवादी लेखिका कुमुद पावड़े का कहना है कि गाार्गी के चुनौतिपूर्ण प्रष्नों की प्रतिक्रिया ने ही सभी स्त्रीयों को ‘ाास्त्रीय ज्ञान के दायरे से बाहर रखा। परिणाम यह हुआ कि उनके अपने प्रष्न उनके पुरूशों की धारणाअों में गुम हो गये।

बहलोन के लिए
शशिभूषण सिंह

जैसे अभी अभी पड़ी हो मार
या किसी ने लगाई हो कड़ी फटकार
सूख कर ऑसुअों की बूंदे गालों पर
जर्द हो आयी हो जैसे
किसी मासूम का षिषु मुख

बहलोन ,
कुछ ऐसा ही लगता रहा है मुझे
जब जब करती हो अपना
हाले दिल बयॉ ।
बदलता है क्रम बातों का
जैसे कोई बाल-सखा
मिल गया हो बरसों बाद
तुम साथ बैठी बतियाने लगती हो
करती हो चर्चा उपलब्धियोंं की
एक मासूम खिल-खिल हंसी
छलक आया हो जैसे
किसी षिषुमुख पर अनायास

बहालोन,
कुछ ऐसा ही लगता रहा है मुझे
जब-जब रखती हो अपने
सपनों के सामने ।
क्या हुआ जो जीती हो
अनाथों से जीवन
कुदाहतु के निपट गंवार माहौल में
झारखंड के वन-ग्राम में
क्या हुआ जो कुछ और नहीं है
तुम्हारे पास
सिवाय चंद किताबों
और सपनोंें के
तुम्हारे होठों की कंपन
कंपा देती है क्षण भर को
किंतु दूसरे ही क्षण
करवट लेते
तुम्हारे सीने में सोये सपने
यकीन दिला जाते हैं -

``सत्य की बेदी बड़ी सख्त है
किंतु सक्षम नहीं
कि तुम्हारा सीना चाक कर सके
जहॉ चलते हैं तुम्हारे सपने
मजबूत इरादों के बीच। ´´

चाईबासा (झारखंड) के समीप एक छोटे से गॉव
(कुदाहत) की ग्यारह वशीZया अनाथ आदिवासी बच्ची।



स्वतंत्रता :-
अज्ञात

तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो ,
तुममे कुछ ऐसा है
जो मेरे मन के गहराइयों को छू लेता है
तुम सृजनषील हो, संवेदनषील हो
तुममें एक सुंदर भविश्य की
जमीन दिखाई पड़ती है,
तुम्हारी कलम तुम्हारी रचनायें
जीवन्त हैं तुम्हारी ऑखों की तरह
तुम जो सोचते हो, रचते हो
जैसे सपने देखा करते हो तुम
वैसे ही मैं भी सोचा, रचा
और देखा करती हूं।

जीवन के प्रति तुम्हारा दृिश्टकोण
मेरे बहुत करीब है
करीब-करीब मेरे भी वही लक्ष्य हैें
जो तुम्हारे हैं
और कुछ अनुचित न होगा
अगर मैं कहूं कि इन तमाम बातों के कारण
मैं तुमसे प्रेम भी करती हूं।
फिर भी मेरे दोस्त
तुमसे भी ज्यादा
एक चीज प्यारी है मुझे
मेरी स्त्रतंत्रता,
मेरा स्वतंत्र चिंतन
जो तुमसे प्रभावित तो है
पर संचालित नहीं
जो तुम्हारा साहचर्य चाहती है
पर प्रभ्ुत्व नहीं।

तुम्हें और अपनी आजादी को
एक साथ चाहती हूं मैं
दोंनों में से किसी एक का भी खोना
असहय है मेरे लिए
लेकिन फिर भी
अगर तुम अड़ ही गए
अपने प्रभुता की खातिर
तो मैं चुन लूंगी
स्वतंत्रता।।

सीलमपुर की लड़कियां
चेतन क्रांति

सीलमपुर की लड़किया `विटी´ हो गयीं
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
जन्म से लेकर पंद्रह साल की उम्र तक
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया
पद्रह साला बुढ़ापा
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
विनम्र होकर झुक जाती थी
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
खुर्राट बुढ़िया
पचपन साल की उम्र में आकर लेिस्बयन हुई!
यह डाक्टर मनमोहन सिंह और एम टीवी के उदय से पहले की बात है
तब उन लड़कियों के लिए न देष देष था
न काल-काल
ये दोनों
दो कूल्हे थे
दो गाल
और छातियां
बदन और वक्त की हर हरकत
यहां आकर मांस के
एक लोथडे़ में बदल जाती थी
और बंदर के बच्चे की तरह
एक तरफ लटक जाती थी
यह तब की बात है जब हौजखास से दिलषाद
गार्डन जाने वाली
बस का कंडक्टर
सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था।
फिर वक्त ने करवट बदली
सुिस्मता सेन मिस वल्र्ड बनी
और ऐश्वर्य राय मिस यूनीवर्स
और अंजलि कपूर जो पेषे से वकील थी
किसी पत्रिका में अपने अध्र्दनग्न चित्र छपने को दे आई
और सीलमपुर
‘ाहादरा की बेटियों के गालों
कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथडे़
सप्राण हो उठे वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
पंद्रह साला इन लड़कियों की
हजार साला पोपली आत्माएं
अनजाने कंपनों
अनजानी आवाजों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
और मेरी ये बेडोैल पीठवाली बहनें
बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
घर की दीवारों से और गलियों-चोैबारों से
एक साथ तटस्थ हो गई
जहां उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
वहां वे स्तब्ध होने लगी
जहां उनसे मेहनत की उम्मीद थी
वहां वे यातना कमाने लगी
जहां उनसे बोलने की उम्मीद थी
वहां से सिर्फ आकुलाने लगी।
उनके मन के भीतर दरअसल
एक कुतुबमीनार निर्माणाधीन थी
उनके और उनके माहौल के बीच
एक सममतल मैदान निकल रहा था
जहां चौबीसो घंटे खटखट हुआ करती थी।
यह उन दिनों की बात है
जब अनिवासी भारतीयों ने
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के उपर
हिंदुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना ‘ाुरू किया था।
और बड़े-बड़े नौकरषाहों और नेताओं की बेटियों ने
अंग्रेजी पत्रकारोें को चुपके से बताया था
कि एक दिन वे किसी अनिवासी के साथ उड़ जाएंगी
क्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी था
कैरियर जो आजादी था
उन्हीं दिनोंं यह हुआ कि
सीलमपुर के जो लड़के
प्रिया सिनेमा पर खडे़
युध्द की प्रतिक्षा कर रह थे
वहां की सौन्दर्यातीत उदासीनता से
बिना लड़े ही पस्त हो गए
चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
समय उन्हें भीतर से चाट गया
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिये
उनके चेहरे एक खूंखार तेज से तप रहे थे
वे साकार चाकू थे वे साकार षिष्न थे
सीलमपुर उन्हें जज्ब नहींं कर पाएगा
वे सोचते आ रहे थे।
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
जो लड़कियों की टांगों में
तराष दी गयी थी
ओैर उन मैदान के बारे में
जो उन लड़कियों
और उनके समय के बीच
जाने कहां से निकल आया था
इसलिए जब उनका पांव
उस जमीन पर पड़़ा
जिसे उनका स्पशZ पाते ही
धसक जाना चाहिए था
वे ठगे से रह गए
और लड़कियां हंस रही थी
वे जाने कहां की बस का इंतजार कर रही थी
और पता नहीं लगने दे रही थी
कि वे इंतजार कर रही हैं।


वाजपेयी `जी´ की बानगी :-

वाजपेयी की कविता की बानगी देखनी हो तो नसबंदी पर लिखी उनकी कविता ´ आओ मर्दों, नामर्द बनो´, पढ़नी चाहिए। आपातकाल में इिन्दरा गांधी ने नसबंदी का अभियान चलाया। इससे वाजपेयी जी का पुरूषार्थ जाग उठा। मर्दानगी पर इस हमले के विरोध में और चूल्हे-चौके से स्त्रियों को छुटकारा दिलाये जाने की निन्दा करते हुए उन्होंने लिखा -
मर्दों ने काम बिगाड़ा है,
मर्दों को गया पछाड़ा है
झगड़े-फसाद की जड़ सारे
जड़ से ही गया उखाड़ा है
मर्दों की तूती बन्द हुई
औरत का बजा नगाड़ा है
गमीZ छोड़ो अब सर्द बनो।
आओ मर्दों, नामर्द बनों।
नसबंदी से `पौरूश विहीनता´ हो जाती है ? पौरूश की रक्षा में व्यंग्य की छींटाकषी स्त्री समाज पर की गयी नसबंदी पर दी गयी। अत: पुरूश को तो अब चूल्हा-चक्की संभालना पड़ेगा। अटल जी इससे बडे़ आहत होते हैं- `चौकड़ी भूल, चौका देखो, चूल्हा फूकों मोैका देखो´।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के लेख `संस्कृति के सवाल´ से




नारी मुक्ति आंदोलन में दलित महिलाएं :- अंजली देशपांडे

भारत में यद्यपि लम्बे समय से महिलाओं पर छोटे छोटे आंदोलन और अभियान चलते रहे हैं पर 1980 के दषक में इसमें जो प्रखरता देखने को मिली वह कम ही दिखायी देती है। उस समय अमेरिका और यूरोप में नारीवादी आंदोलन कुछ निढाल हो चुका था मगर भारत में मानवाधिकारों और मजदूर संघों से जुड़ी अनेकानेक महिलाआंें ने बलात्कार से संबंधित कानूनों के खिलाफ साफ साफ और उंची आवाज़ मेें जो विरोध प्रकट किया वह कभी भी पहले देखने को नहीं मिला था। कुछ मायनों में 1980 में हुए इस आंदोलन को हम आधुनिक नारीवादी आंदोलन की षुरूवात कह सकते हैं।
नारीवादी, बलात्कार को राजनैतिक हथियार मानते हैं और मानते हैं कि पुरूष स्त्री पर अपनी सत्ता जताने के लिए स्त्री से, और ताकतवर पुरूश अपने से कमजोर तबके के पुरूश पर अपनी सत्ता जताने के लिए उसके परिवार की स्त्रियों से बलात्कार करते हैं। कुल मिलाकर पुरूश स्त्री को अपनी जायदाद समझते हैं और `दूसरे पुरूश´ की `जायदाद´ छीनने का यह रास्ता वे अिख्तयार करते हैं। भारतीय समाज का सच यह है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों का छुआ तो सवर्ण खा नहीं सकते मगर ``अछूत´´ स्त्रियों के साथ बलात्कार को वे अपना अधिकार समझते हैं। इस सच के बावजूद बलात्कार कानून के खिलाफ विरोध प्रदषZन से षुरू हुए नारी मुक्ति आंदोलन के इस नये दौर में न दलित महिलाओं को और न ही उनकी िंचंताओं को विषेश स्थान मिला। फिर भी उस चर्चा कें कथित निचली जातियों की स्त्रियों से सवणेंा व्दारा बलात्कार की बात उठी तो थी मगर बाद में अन्य किसी भी मुद्दे पर दलितों की चिंताएं और अपेक्षाएं अमूमन नारी मुक्ति आंदोलन के एजेंडा से गा़यब ही रहीं ।
जन मुद्दों पर नारीवादियों ने बडे़-बडे़ अभियान छेड़े उनकी पड़ताल भी जातिवाद की उनकी खोखली समझ, बल्कि उनके पूरे अज्ञान का पर्दा फाष कर देती है। एक था 1980 के दषक के अन्त में सती विरोधी अभियान। नारीवादियेां ने इस परिप्रेक्ष्य में इस सच को पूरी तरह अनदेखा कर दिया कि दलितों में कोई सती नहीं करायी जाती, उनमें विधवा विवाह की छूट और परंपरा है (वह औरत को कितने अधिकार देता है यह बहस अलग है) और सती प्रथा को पूरे भारत की विधवाओं की स्थिति का प्रतीक करार नहीं दिया जा सकता।
फिर भी सती प्रथा का विरोध आवष्यक था। उस समय हिंदुत्व के पुनरूत्थान की कोषिषें जो़रों पर थी। ऐसे में जनवादी महिला समिति ने भी साफ षब्दों में दलित संगठनों को साथ लेने से इंकार कर दिया था। जबकि हिंदुत्व के पुनरूत्थान की कोषिष का सीधा और सबसे गहरा असर दलितों पर ही पड़ना था और इसके विरोध से दलितों के हित जुड़े थे। उल्लेखनीय है कि पार्टी समर्थित महिला संगठनों में माकपा समर्थित जनवादी महिला समिति और भाकपा समर्थित भारतीय महिला महासंघ दोनों ने दलितों को साथ लेने से इन्कार कर दिया था मगर पार्टी के दायरे से बाहर स्वायत्त महिला संगठनों ने दलितों को साथ लेने के प्रस्ताव का समर्थन किया था।
इसके बावजूद गैर-पार्टी स्वायत्त महिला संगठनों में दलित मुद्दों को जगह कभी नहीं मिली । न ही दलित महिला नेताओं को वह स्थान मिला जो उनका हक है। आज संसद में महिला आरक्षण बिल अधर में लटका पड़ा है मगर कोई नारीवादी यह कहती सुनायी नहीं देती कि विधायिका में महिला आरक्षण की मांग 1942 में एक दलित, सुलोचना डोंगरे ने उठायी थी। नारीवादी षायद यह तथ्य जानते ही नहीं। एक और ताज़ा मिसाल है। पिछले साल कलकत्ता में हुआ स्वायत्त महिला संगठनों का राश्ट्रीय सम्मेलन। उस समय मुम्बई में बार में नाचने वाली लड़कियों के पेषे को अवैध घोिशत कर दिया था और मदिरालयों में लड़कियोंं को नाचने दिया जाये या नहीं इस पर मीडिया में भी खूब बहस चल रही थी।
नारी मुक्ति आंदोलन को कई कारणों से इस बहस में भागीदारी करने की ज़रूरत थी। एक, यह सीधे सीधे महिलाओं के एक ऐसे पेषे का सवाल था जिसपर समाज की कथित सभ्य भृकुटियां हमेषा तनी रहती हैं। यह सवाल भी महत्वपूर्ण था कि बार-बलाएं स्वेच्छा से यह काम कर रही थी या नहीं। दलित महिलाओं के लिए यह एक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा था। वजह यह थी कि कुछ दलित जातियां और आदिवासी महिलाएं यही काम करती हैं। महाराश्ट्र में सांगली की कोलाटी जाति (दलित) की महिलाएं बड़ी संख्या में बार-बालाएं थी। वे जब उक्त सम्मेलन में अपनी बात कहने पहुंची तो उनकी सुनी ही नहीं गयी। उन्हें मंच पर नचाया गया ओैर कुछ औरतों ने बड़े मर्दाना अन्दाज़ में उन पर पैसे भी फेंके। ऐसी असंवेदनषीलता नारी मुक्ति आंदोलन में देखने को मिले तो उसके बुनियादी फलसफे पर ही सवालिया निषान लग जाता है।
मंडाल आरक्षण के लागू होने के बाद ‘ाुरू हुए दलित-विरोधी अभियान में भी बहुत-सी महिला संगठनों, जिनमें आधुनिक नारीवाद का मार्ग प्रसस्त करने वाली `सहेली´ जैसे संगठन भी हैं, ने कोई स्टैन्ड ही नहीं लिया । यह स्पश्ट ही नहीं किया कि इस लड़ाई में वे किस तरफ हैं।
नारी मुक्ति आंदोलन के यह रूख लम्बी बहस की मांग करते हैं। जिस तरह पुरूश प्रधान समाज में अन्याय के खिलाफ हर तरह के आंदोलनों (मज़दूर, मानवाधिकार, आदि आंदोलनों) के भीतर महिलाओं को अलग से अपनी आवाज़ उठानी पड़ी हेै ‘ाायद उसी तरह दलित महिलाओं को भी अपने सारोकारों पर महिला आंदोलन के भीतर अलग से आवाज़ उठानी होगी। क्योंकि दलित महिला केवल सवर्ण और दलित पुरूषों की ही सतायी हुई नहीं है वे तो सजग और प्रबुध्द महिलाओं की भी सतायी हुई हैं।

सावित्री बाई फुले :-
वेद प्रकाश

उन्नीसवीं सदी विष्व इतिहास के महान लोगोंं, आंदोलनों और परिवर्तनों की जननी है। भारत में भी इसी दोैरान अनेकानेक ऐसे आंदोलनों और महान व्यक्तियों ने जन्म लिया जिन्होंने विदेशी सत्ता, जड़वत आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था को चुनौती दी। ‘ाूद्र समाज से प्रतिक्रियावादी, यथास्थितिवादी ताकतों को चुनोैती देने वालों में क्रांति सूर्य ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का नाम अग्रणी है, विशेष रूप से स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने के कायोZं को ज़मीनी लड़ाई बनाने में इनका योगदान अनुकरणीय है।
3 जनवरी 1831 को जन्मी बालिका सावित्री का ब्याह नौ वशZ की उम्र में 13 वशीZय ज्योतिबा फुले से कर दिया गया। ज्योतिबा फुले ने स्त्री षिक्षा को अमली जामा पहनाने के लिए सावित्री बाई को षिक्षित किया।
1 जनवरी 1848 में बुधवार पेठ, पुणे में दलित स्त्रियों के लिए पहला स्वैच्छिक प्रयास स्कूल खोला गया जिसमें 8 बालिकाएं आईं। इनमें से दो मुस्लिम, दो ब्राम्हण लड़कियां भी थीं। इसी तरह उन्होंने गांव-गांव में युवतियों और अस्पृष्यों के स्कूल खोले।
हम आज उस स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते जिस स्थिति में उन्होंने ‘ाूद्रों और अछूतों के बीच षिक्षा की मषाल जलाई थी। धर्म और समाज के ठेकेदारों ने इन्हें जाति बाहर कर दिया। ब्राम्हणों ने इन पर गोबर फेंका, पत्थर बरसाए। पर यह विरोध समाज सुधार का रथचक्र न रोक सका। समाज, विषेश कर ‘ाूद्र और अछूत समाज में जागृति लानेे के लिए इन्होंने अथक प्रयास किया।
तत्कालीन समाज में बाल विधवाओं के साथ परिवार के मदोंZं व्दारा यौन संबंध बनाने के उपरांत गर्भवती हुई युवतियों को लोक लाज से बचने के लिए आत्महत्या करनी पड़ती थी। उन्हें सामाजिक जीवन से निर्वासित करके उनका मुंडन करके समाज से कट कर जीने को विवष किया जाता था।
सावित्री बाई फुले ने अपने घर में तथाकथित अवैध प्रसव के लिए सेन्टर खोल कर विधवा एवं बाल विधवाओें को जीवन जीने की राह दिखाई। वे सत्यषोधक समाज की सक्रिय कार्यकर्ता थी। उन्होंने पहला महिला मंडल बनाया, दलित-गैर दलित स्त्रियों को एक साथ बैठाया। विधवा मुंडन का विरोध किया और धर्म के पाखंड और कर्मकांड का विरोध किया। ज्योतिबा फुले के महापरिनिर्वाण के बाद उन्होंने अपने पति की चिता को मुखाग्नि दी। सावित्री बाई फुले ओजस्वी, तेजस्वी, निभीZंक, बहादुर नेता थीं। वे भारतीय महिला, समाज के महिला आंदोलन की प्रमुख रीढ़ ओैर आदषZ हैं।
आज का स्त्री मुक्ति आंदोलन अंतरराश्ट्रीय सीमाओं को पार करके विष्व बहनापे का दावा कर रहा है। परंतु भारत मेें दलित महिलाओं के साथ जातिगत हिंसा व मजदूर औरतों पर आर्थिक दबाव, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदायों की स्त्रियों के साथ घोर अत्याचार और सामाजिक भेदभाव बदस्तूर जारी है। उनका सामाजिक आर्थिक ‘ाोशण लगातार बढ़ रहा है। औरतों के साथ होने वाले पितृसत्तात्मक अन्याय के साथ-साथ वे जातीय व वर्गीय पूर्वाग्रहों की मार भी झेलती हैं। स्त्री मुक्ति आंदोलन और आम औरतों के बीच समझ, जानकारी, जाति और वर्ग की गहरी खाई है। इस कारण दलित पिछड़ी औरतें 10 मार्च को अपना दिन यानी भारतीय महिला दिवस मानती व मनाती हैं। महाराश्ट्र, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेष, हरियाणा में यह दिन अपना स्थान बना चुका है। 8 मार्च की ही भांति 10 मार्च भी समानांतर भारतीय महिला दिवस के रूप में ख्याति पा चुका है। सावित्री बाई फुले नििष्चत रूप से भारतीय महिला आंदोलन की प्रेरणा स्रोत हेैं।

1 टिप्पणी:

  1. बडी मेहनत से अन्क तय्यार किया गया लगता है. पढने के बाद ही कोइ पर्तिकिर्या करना थीक होगा. सरसरी निगाह से देखने पर विचारोतेजक लग रहा है.

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