28 नवंबर 2007

भूमंडलीकरण एक प्रचार :-















ए.वी.वर्धन

इन दिनों भूमंडलीकरण एक बहु-प्रचारित अवधारणा है। यह आर्थिक विषयों पर सभी लेखन तथा बातचीत से सामने आ जाता है। इसे एक बड़ी वास्तविकता के रूप में स्वीकार करने के लिए दबाव बढ़ रहा है। यह दलील दी जाती है कि इससे बचा नहीं जा सकता है। स्पष्टत: इसका उद्देश्य सहज सत्य बतलाना नहीं है कि हम सभी `एक ही भूमंडल´ में रहते है। यह भौगोलिक तथ्य तो मंद बुद्वि के लिए भी साफ है। न ही इसका उद्देश्य इस नवीनतम सत्य को सामने लाना है कि संचार प्रौद्योगिकी में क्रांति ने दूरियों को काफी कम कर दिया है और विश्व एक `भूमंडलीय गांव´ बन गया है।
भूमंडलीकरण एक नीति-एक आर्थिक, सामाजिक तथा राजनितिक नीति का प्रतिनिधित्व करता है। यह एक ऐसी नीति है जिसकी कुछ शक्तिशाली हितों द्वारा आक्रामक रूप से वकालत की जाती है और उन लोगों के गले में जबर्दस्ती उतारने का प्रयास किया जाता है जो असहाय हो कर इसे स्वीकार कर सकते हैं या इसका विरोध करने का प्रयास कर सकते हैं, हालांकि उन्हें अधिक सफलता नहीं मिल सकती हैं। ऐसे भी लोग हैं जो यह कहते हैं कि आप इसे उतना ही पीछे कर सकते हैं जितना आप किसी लहर को पीछे कर सकते हैं। यह देर-सबेर प्रत्येक देश को अपने आगोश में ले लेगा।
भूमंडलीकरण वास्तव में `नव-उदारवादी´ की संतति हो सकता है और अपने अभिभावक की भांति यह भी एक नीति है जिसे साम्राज्यवादी देशों द्वारा आगे बढ़ाया जाता है और वह तीसरी दुनिया के देशों के खिलाफ नििर्दष्ट है जिन्हें वह अपना िशकार बनाता है। तीन बहनें- उदारवाद, निजीकरण और भूमंडलीकरण साथ-साथ चलती हैं।
तीसरी दुनिया के देशों ने पिछली दो या तीन सदियों से साम्राज्यवाद के प्रभुत्व के तहत तकलीफें भोगी हैं। उन्होंने अपने उननिवेशी स्वामियों से पिछड़ेपन की विरासत प्राप्त की है। 20वीं सदी के मध्य या उत्तरार्ध के दौरान स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से वे अपने को कठोर स्थिति में पाते हैं, खासकर पूंजी तथा प्रौद्योगिकी के मामले में जिसकी विकास के लिए जरूरत है। वे हर क्षेत्र में अर्धविकास से पीिड़त हैं। भयंकर गरीबी, उच्च बेकारी, निरक्षरता, स्वास्थ्य-देखभाल का अभाव ही उनकी नियति बन गयी है।
द्वितीय विश्वययुद्ध की समाप्ति के बाद जो इतिहास का सर्वाधिकार विध्वंसकारी युद्ध था- विजेता ब्रेटनवूड्स सम्मेलन में शामिल हुए और उन्होंने पुनिर्नर्माण तथा विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों की स्थापना की। इन संस्थानों पर विकसित पूंजीवादी देशों खासकर अमरीका का प्रभुत्व कायम हो गया । जल्द ही वे यह निर्देश देने के औजार हो गये कि अपनी जरूरतों के लिए इन संस्थाओं से कर्ज लेने वाले ग्राहक देशों की किस तरह की आर्थिक नीतियां अपनानी चाहिए। कर्जों के साथ लगातार `शर्तो´ को भी थोप दिया गया। इसके साथ ही उन्होंने एक पूर्ण संरचनात्मक समायाजोन कार्यक्रम को जोड़ दिया जो सभी विकासशील देशों के लिए एक रामबाण हो गया, चाहे उनकी खास विशेषता जो भी हो।
संयुक्त राष्ट्र ने एक `नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था´ की रूपरेखा तैयार की। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद एक ऐसी व्यवस्था की बातें बंद हो गयीं और उसकी जगह अमरीका निर्देिशत `नयी आर्थिक व्यवस्था´ की बात की जाने लगी। ` नव- उदरतावाद ´ का आर्थिक दशZन इस क्षेत्र में प्रभावी होने लगा। `मुक्त बाजार´ प्रतिस्पर्धा, निजी उद्यम, संरचनात्मक समायोजन आदि की बातों के आवरण में तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, बहुराष्ट्रीय कंपनियों जो अमरीका तथा ग्रुप-8 देशों से काम करती हैं, नवगठित विश्व व्यापार संगठन के औजार साथ जो असमान गैट संधि द्वारा सामने लाया गया, साम्राज्यवादी देशों ने तीसरी दुनिया के देशों की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं पर नियंत्रण करने का निष्ठुर अभियान शुरू कर दिया है। यह और कुछ नहीं बल्कि नये रूप में, नये तरीके से समकालीन विश्व स्थिति में नव उपनिवेशी शोषण थोपने का एक तरीका था। उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडीकरण प्रिय मुहावरा हो गये हैं।
तथ्य यह साबित कर रहे हैं कि इन सभी नीतियों ने वस्तुत: गरीबी, बेकारी, निरक्षरता तथा बीमारी की समस्याओं को और अधिक गहरा किया है जिनसे विकासशील देशा लगातार पीडित रहे हैं। इन नीतियों ने अमीर तथा गरीब देशों के बीच एवं प्रत्येेक देश में अमीर तथा गरीब के बीच खाई को बढ़ाया है।
विश्व व्यापार संगठन की कार्यविधि के जरिये सभी देशों पर निवेश पर बहुपक्षीय समझौते को थोपने के प्रयास का उद्देश्य भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में तेजी लाना एवं आगे बढ़ाना है जिसकी पहल अमरीका ने यूरोपीय यूनियन तथा आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के समर्थन से की है। वह विकासशील देशों की आर्थिक संप्रभुता का भितरघात करेगा।
नव-उदार भूमंडलीकरण एक अराजक विश्व का निर्माण कर रहा है जो पूंजीवाद, अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं विश्व व्यापार संगठन के अंधे कानूनों की दया पर निर्भर रहेंगें। क्या भूमंडलीकरण यह काम कर सकता है ? या मानव जाति की बुनियादी समस्याओं का समाधान कर सकता है ? ऐसा भूमंडलीकरण आर्थिक संकट ही लायेगी जो अधिकांश देशों की अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में ले लेगा। हम ऐसे संकट के पूर्व संकेतों को देख रहे हैं।
इस तरह का भूमंडलीकरण नििश्चत तौर से अधिकांश देशों में मेहनतकश जनता की उपलब्धियों की निष्फल कर देगा।
हम केवल एक भूमंडलीकरण की परिकल्पना कर सकते हैं वह है समाजवादी भूमंडलीकरण जिसकी माक्र्स ने 150 वषZ पहले परिकल्पना की थी। लेकिन वह अभी काफी दूर है। पर इसके लिए संघषZ को विकसित किया जाना है। जन- प्रतिरोध तथा सभी विकासशील देशों के संयुक्त रूख ने नव-उदावादी भूमंडलीेकरण के प्रस्तावकों की योजनाओं को पराजित किया जा सकता है और एक नयी अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था पर आधारित एक भूमंडलीकरण के लिए मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

20 नवंबर 2007

54 करोड़ की विकल्पहीन दुनिया :-

एक आंकडे़ के मुताबिक भारत 54 करोड़ युवाओं की आबादी का देश है जो कि दुनिया में किसी भी देश के युवा आबादी की सबसे बड़ी संख्या है। 54 करोड़ युवा मस्तिष्क, एक अरब आठ करोड़ ( देश की सम्पूर्ण जनसंख्या से कुछ ज्यादा ही) हाथों वाला देश, देश की सबसे बड़ी शक्ति हो सकती है! यह शक्ति देश को बना सकती है और तबाह भी कर सकती है। बनाने व तबाह करने में इन हाथों को औजार की जरूरत है। इन हाथों में औजारों के चेहरे देश के भविष्य का चेहरा तय करेंगे। इनके उदर की भूख इस व्यवस्था में चारे की तलाश करेगी। इनका आक्रोश विकल्प को ढूंढ़ निकालेगा। देश के दो असमान बंटे ध्रुवों में पुल बनाकर रास्ता तय करने की कोई गुजांइश नहीं दिखती। अत: इस खाई को पाट कर समतल किया जाय, यह फैसला युवा आबादी की बहुसंख्या तय करेगी।
युवा वर्ग में शिक्षा की स्थिति व शिक्षा प्राप्त करने के जो कारण हैं उसका मनोविज्ञान शिक्षा प्रणालियों व पाठ्यक्रमों से तय होता है। शिक्षा के द्वारा समय-काल व हित को देखते हुए हमेशा लोगों का मनोभाव बनाया जाता रहा है। आज जो शिक्षा दी जा रही है चाहे वह मीडिया के द्वारा या फिर शिक्षण संस्थानों के द्वारा उसके पीछे के हित को हमेशा समझना होगा यद्यपि यह अलग बात है कि देश का मात्र 4% युवा ही विश्वविद्यालय के प्रांगण की सूरत देख पाता है पर देश की व्यवस्था प्रणाली को पूरी संचालित यही वर्ग कर रहा है। उच्च शिक्षा पाने वाला यह अल्प वर्ग आज किस वर्गों से आ रहा है यह देखना महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि शिक्षा कुछ खास घरानों में कैद होती जा रही है बल्कि शिक्षा के निजीकरण ने इस दायरे को और संकुचित करने का कार्य किया हैं शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकार उन्हीं हाथों में कैद होते जा रहे हैं जिनके पास पहले से पैसे हैं, रोजगार हैं। तकनीकी शिक्षा, विज्ञान की शिक्षा या फिर सामाजिक विषयों कि शिक्षा मौलिक चितंन की परंपरा को बढ़ावा देकर समाज सापेक्ष बनाने के बजाय कुछ वगो के हित में अपनी भूमिका अदा कर रही है जिसका एक और उद्देश्य नौकरी पाने और निजी संपत्ति को बढ़ावा देने की योग्यता हासिल करना मात्र रह गया है। ऐसा करने में पाठ्यक्रमों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इन पाठ्क्रमों को तय करने वाले लोगों का हित व उद्देश्य इससे जुड़ा हुआ है। यह वर्ग इन पाठ्यक्रमों के जरिये अपने और आम युवा वर्ग के बीच एक मध्यस्थ तैयार कर रहा है। अपनी भाषा के मुताबिक इस वर्ग का मनोविज्ञान बना रहा है। शिक्षा मानव समाज के सभी पहलुओं के विकास के बजाय निजी विकास व व्यक्तिवाद के बढ़ावा देने वाली होती जा रही है, जिसका असर शहरी मèयम वर्ग में साफ तौर पर दिखाई पड़ता है, वह संवेदनहीन होता जा रहा है। समाज के निचले पायदान पर खड़ा आदमी उसके लिये जरूरत के मुताबिक सिर्फ मशीन है। उसके दुख, शोषण, अधिकार, निजता के स्वप्न में बहुत दूर-दूर तक नहीं दिखाई पड़ते। मानसिक रूप से इनके साथ वह खड़े होने को भी तैयार नहीं है। यह निजीगत मुनाफे का भाव शिक्षा प्रणाली के जरिये मानव के मशीनीकरण की एक प्रक्रिया है। जो वेदना, करूणा, सहानुभूति जैसे मूल्यों को कमजोर बना रहा है। तकनीक, विज्ञान चिकित्सा में हो रहे शोध सामाजिक कल्याण के बजाय मुनाफे को ध्यान में रख कर किये जा रहे हैं। इसी पर दुनिया का बड़ा बजार टिका है।
शिक्षा व रोजगार के सवाल को एक दूसरे से जोड़ कर देखा जाता है और कुछ विषयों को लेकर बूम जैसी बातें की जाती है जिसमें मीडिया, तकनीक, मैनेजमेंट आदि विषय शामिल है। यह बूम क्या है ? इसे समझने की जरूरत है समाज के इस एक पक्षीय विकास में, जरूरत के मुताबिक कुछ खास तरह की योग्यता रखने वालों की जरूरत है ऐसी जरूरतें नयी तकनीक के कारण पैदा होती है। अत: अधिकाधिक संख्या में इस योग्यता या ज्ञान को बढ़ावा देकर ज्यादा से ज्यादा मानव संसाधन तैयार किया जाता है ताकि उन्हें बार्गेन कर सस्ती मजदूरी देकर मुनाफा कमाया जा सके। बूम जैसे फलसफे सिर्फ मुनाफे की बढ़ोत्तरी के लिये बनाये गये है। दूसरे पक्ष में उसका फायदा यह होता है कि बड़े-बड़े निजी संस्थान खोल कर अधिकाधिक फीस ली जाती है और धीरे-धीरे इस बूम में कूदनें वाले युवाओं की छलांग छोटी होती जाती है।

युवा और राजनीति :-
युवाओं में राजनीति एक अस्पृश्य शब्द है। यह माना जाता है कि राजनिति और शिक्षा दो अलग-अलग ध्रुव हैं। शिक्षण संस्थानों से राजनीति को धीरे- धीरे और दूर किया जा रहा है बी.एच.यू. जिसे एिशया के सबसे बड़े शिक्षण संस्थान के नाम से जिसे जाना जाता है, छात्र-संघ को बैन रख किसी तरह की राजनीतिक गतिविधियां रोकने के लिये कई वषोZं से धारा 144 लगा दी गयी है। जिसमें 5 लोग एक साथ इकट्ठा भी नहीं हो सकते और दूसरी तरफ प्रशासन के सहयोग से संघ की शाखायें चलायी जाती है अन्य संस्थानों में राजनीति को संसदीय राजनीति से ही जोड़ कर देखा जा रहा है जिसका समाज से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है।
विश्वविद्यालय की राजनीति को लूट-अत्याचार का कैम्प बनाकर¡ इसे संसदवादी राजनीति के ट्रेंनिग कैम्प के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है। जहा¡ विश्वविद्यालय में िशक्षा प्राप्त राजनीतिक युवा को समाज के साथ जुड़ना चाहिये वहीं इसके विपरीत वह जनराजनीति को भूल जाता है। इस तरह से िशक्षा और राजनीति को अलग कर युवा वर्ग का गैर राजनीतिकरण किया जा रहा है। शिक्षण संस्थानों में चुनावों के बंद करने के पीछे एक कारण यह भी है कि संस्थानों में यदि राजनीति होगी तो जनपक्षीय राजनीति के भी उभार की आशंका बनी रह जाती है अत: किसी भी तरह राजनीति को शिक्षण संस्थानों में वर्जित किया जा रहा है।

मीडिया का प्रभाव :-
मीडिया के विभिन्न माध्यमों ने अपने-अपने तरह से युवा वर्ग को प्रभावित करने का प्रयास किया है फिल्मों की दुनिया में दिखने वाला युवा एक उच्च वर्ग का है जिसके पास गाड़ी है, समय की सबसे कीमती मोबाइल है, जीवन जीने की अपनी एक अलग शैली है, साथ में एक प्रेमी अवश्य है जिसमें दोयम दर्जे का प्रेम पाने के लिये उसे तमाम ताकतों से जूझना पड़ता है। यह एक सच हो सकता है पर उसकी जीवन शैली युवा वर्ग को प्रभावित कर अपनाने के लिये प्रेरित करती है। अपने शातिराने प्रेम मे वह समाज की समस्याओं से बहुत दूर खड़ा दिखता है। भविष्य में यदि इन फिल्मों को कोई इतिहासविद् आधार बनाकर समय को परिभाषित करेगा तो प्रेम समाज की सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आयेगी जहा¡ से रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार में जूझता समाज गायब ही दिखता है। ये फिल्मों के चरित्र किस युवा वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहें है। समाज के मूल्यों को इतना बदल दिया गया है कि भगत सिंह, महात्मा गांधी को रूमानी अंदाज में परोस कर सामने लाने की जरूरत महसूस हो रही है और लाया भी जा रहा है। विज्ञापन ने इच्छाओं को आवश्यकताओं में तब्दील कर दिया है मानसिक रूप से सभी वर्गों की जरूरतों में समानता स्थापित करने का काम किया जा रहा है। जहा¡ बिना मोबाइल, परयूम व अन्य कई चीजें जरूरत बनती जा रही हैं। इन्हें पूरा करने के लिये वह विवश है। विज्ञापनों ने जिस चालाकी के साथ यह सोच डाली है उसमें वो विशेष वस्तु के विज्ञापनों के लिये विशेष माडल व पीढ़ी का चुनाव कर रही है शीतल पेय, ब्रांडेड कपड़े, वाइन, बाइक, व मोटर गािड़यों का विज्ञापन किसी पापुलर युवा ब्रांड द्वारा करवा रही है उसके साथ एक विशेष वेश-भूषा में महिला ब्रांड के रूप में अभिनय करती है जिसमें विज्ञापन परोक्ष रूप से यह कहता हुआ दिखता है कि यदि आप के पास फला ब्रांड है तो इस तरह की लड़की भी आपके साथ हो सकती है या मिल सकती है।

विकल्प हीन दुनिया :-
पूंजी प्रधान इस युग में युवा पैसे के लिये कुछ भी करने को तैयार है, किसी भी तरह का रोजगार जहा¡ उसे पैसा मिल सकें, उसकी एक बड़ी उपलब्धियाँ के तौर पर यह है चाहे वह डोर-टु-डोर जा कर कंपनियों में हुए अति उत्पादन की खपत करे या काल सेंटरों में वक्त बेवक्त अपनी श्रम देकर तनाव भरी जिंदगी जिये। समाज के विकास की अवधारणा को उसने स्व विकास में ढाल लिया है पर इन समस्त बिंदुओं में सीमित अवसर के बीच एक स्थान बनाता है तो दूसरों की कब्र खोदकर, तीसरे को धक्का देकर। ऐसे में सम्पूर्ण युवा वर्ग के सामने एक अंधेरी दुनिया है जिसे बिना बदले कोई विकल्प सामने नहीं दिखता।

02 नवंबर 2007

23 मार्च:-

भगत सिंह पर पंजाब के क्रांतिकारी कवि पाश के डायरी से प्राप्त ये कविताः-

-पाश

उसकी शहादत के बाद बाक़ी लोग
किसी दृश्य की तरह बचे
ताज़ा मु¡दी पलकें देश में सिमटती जर रही झांकी की
देश सारा बच रहा बाक़ी
उसके चले जाने के बाद
उसकी शहादत के बाद
अपने भीतर खुलती खिड़की में
लोगों की आवाजें जम गईं
उसकी शहादत के बाद
देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोगों ने
अपने चिहरे से आ¡सू नहीं, नाक पोंछी
गला साफ़ कर बोलने की
बोलते ही जाने की मशक की
उससे संबधित अपनी उस शहादत के बाद
लोगों के घरों में, उनके तकियों में छिपे हुए
कपड़े की महक की तरह बिखर गया
शहीद होने की घड़ी में वह अकेला था ईश्वर की तरह
लेकिन ईश्वर की तरह वह निस्तेज न था।

(डायरी, 23 मार्च 1982)

भगत सिंह के कुछ पत्रः-

घर को अलविदा : पिता जी के नाम पत्र:-

( सन् 1923 में भगतसिंह, नेशनल कालेज, लाहौर के विद्यार्थी थे। जन-जागरण के लिए ड्रामा-क्लब में भी भाग लेते थे। क्रान्तिकारी अध्यापकों और साथियों से नाता जुड़ गया था। भारत को आजादी कैसे मिले, इस बारे में लम्बा-चौड़ा अध्ययन और बहसें जारी थीं।
घर में दादी जी ने अपने पोते की शादी की बात चलायी। उनके सामने अपना तर्क न चलते देख पिता जी के नाम यह पत्र लिख छोड़ा और कानपुर में गणेशशंकर विद्यार्थी के पास पहु¡चकर `प्रताप´ में काम शुरू कर दिया। वहीं बी.के. दत्त, िशव वर्मा, विजयकुमार सिन्हा-जैसे क्रान्तिकारी साथियों से मुलाकात हुई। उनका कानपुर पहु¡चना क्रान्ति के रास्ते पर एक बड़ा कदम बना। पिता जी के नाम लिखा गया भगतसिंह का यह पत्र घर छोड़ने सम्बन्धी उनके विचारों को सामने लाता है।


पूज्य पिता जी,
नमस्ते।
मेरी जिन्दगी मकसदे आला यानी आजादी-ए-हिन्द के असूल के लिए वक्फ हो चुकी है। इसलिए मेरी जिन्दगी में आराम और दुनियावी खाहशात बायसे किशश नहीं है।
आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन के लिए वक्फ कर दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हू¡।

आपका ताबेदार
भगतसिंह



कुलतार के नाम अन्तिम पत्र:-

सेण्ट्रल जेल,
3 मार्च,1931


प्यारे कुलतार,
आज तुम्हारी आ¡खों में आ¡सू देखकर बहुत दुख पहु¡चा। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। तुम्हारे आ¡सू मुझसे सहन नहीं होते। बरखुरदार, हिम्मत से विद्या प्राप्त करना और स्वास्थ्य का ध्यान रखना। हौसला रखना, और क्या कहू¡-



उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्जे-जफ़ा क्या है,
हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहा¡ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें।

कोई दम का मेहमा¡ हू¡ ऐ अहले-महिफ़ल,
चराग़े- सहर हू¡ बुझा चाहता हू¡।

हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।

अच्छा रूख़सत। खुश रहो अहले-वतन, हम तो स़फर करते हैं। हिम्मत से रहना।
नमस्ते।
तुम्हारा भाई,
भगतसिंह



बलिदान से पहले साथियों को अन्तिम पत्र:-
22मार्च,1931

साथियों,
स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन मैं एक शर्त पर जिन्दा रह सकता हू¡, कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।
मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है और क्रान्तिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हर्गिज नहीं हो सकता।
आज मेरी कमजोरिया¡ जनता के सामने नहीं है। अगर मैं फा¡सी से बच गया तो वे जाहिर हो जायेंगी और क्रान्ति का प्रतीक-चिन्ह मिद्धम पड़ जायेगा या सम्भवत: मिट ही जाये। लेकिन दिलेराना ढंग से हसते-हसते मेरे फासी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताए¡ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देनेवालों की तादाद इतनी बढ़ जायेगी कि क्रान्ति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।
हा¡, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवा¡ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, जिन्दा रह सकता तब शायद इन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता।
इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फा¡सी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अन्तिम परीक्षा का इन्तजार है। कामना है कि यह और नजदीक हो जाये।
आपका साथी,
भगतसिंह



असेम्बली बम काण्ड:-

असेम्बली हॉल में फेंका गया पर्चा
(8 अप्रैल,सन् 1929 को असेम्बली में बम फेंकने के बाद भगतसिंह और दत्त द्वारा बाटें गये अंग्रजी पर्चे का हिन्दी अनुवाद)

`हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातािन्त्रक सेना´
सूचना


``बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊ¡ची आवाज की आवश्यकता होती है´´ प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलिया¡ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वषोंZ में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जानेवाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग `साइमन कमीशन´ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आखें फैलाये हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार `सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक´ (पब्लिक सेटी बिल) और `औद्योगिक विवाद विधेयक´ (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आनेवाले अधिवेशन में `अखबारों द्धारा राजद्रोह रोकने का कानून´ (प्रेस सैडिशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करनेवाले मजदूर नेताअो की अन्धाधुन्ध गिरतारिया¡ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गम्भीरता को महसूस कर `हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ´ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाये। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परन्तु उसकी वैधनिकता की नकाब फाड़ देना आवश्यक है।
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखण्ड को छोड़ कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरूद्ध क्रान्ति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम
`सार्वजनिक सुरक्षा´ और `औद्योगिक विवाद´ के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।
हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शान्ति और स्वतन्त्रता का अवसर मिल सके। हम इन्सान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रान्ति द्वारा सबको समान स्वतन्त्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रन्ति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
इन्कलाब जिन्दाबाद! कमाण्डर इन चीफ बलराज

गाँधीजी के नाम खुली चिट्ठी:-


परम कृपालु महात्मा जी,

आजकल की ताजा खबरों से मालूम होता है कि समझौते की बातचीत की सफलता के बाद आपने क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को फिलहाल अपना आन्दोलन बन्द कर देने और आपको अपने अहिंसावाद को आजमा देखने का आखिरी मौका देने के लिए कई प्रकट प्रार्थनाए की हैं। वस्तुत: किसी आन्दोलन को बन्द करना केवल आदर्श या भावना से होने वाला काम नहीं है। भिन्न-भिन्न अवसरों की आवश्यकताओं का विचार ही अगुआओं को उनकी युद्धनीति बदलने के लिए विवश करता है।
माना कि सुलह की बातचीत के दरम्यान, आपने इस ओर एक क्षण के लिए भी न तो दुर्लक्ष्य किया, न इसे छिपा ही रखा कि यह समझौता अन्तिम समझौता न होगा। मैं मानता हू¡ कि सब बुद्धिमान लोग बिल्कुल आसानी के साथ यह समझ गए होंगे कि आपके द्वारा प्राप्त तमाम सुधारों का अमल होने लगने पर कोई यह न मानेगा कि हम मंजिल-मकसूद पर पहु¡च गये हैं। सम्पूर्ण स्वतन्त्रता जब तक न मिले, तब तक बिना विराम के लड़ते रहने के लिए महासभा लाहौर के प्रस्ताव से बधी हुई है। उस प्रस्ताव को देखते हुए मौजूदा सुलह और समझौते और युद्ध-विराम की शक्यता की कल्पना की जा सकती और उसका औचित्य सिद्ध हो सकता है।
किसी भी प्रकार का युद्ध-विराम करने का उचित अवसर और उसकी शर्तें ठहराने का काम तो उस आन्दोलन के अगुआओं का है। लाहौरवाले प्रस्ताव के रहते हुए भी आपने फिलहाल सक्रिय आन्दोलन बन्द रखना उचित समझा है, तो भी वह प्रस्ताव तो कायम ही है। इसी तरह `हिन्दुस्तानी सोिशयालिस्ट रिपब्लिकन पार्टी´ के नाम से ही साफ पता चलता है कि क्रान्तिवादियों का आदर्श समाज-सत्तावादी प्रजातन्त्र की स्थापना करना है। यह प्रजातन्त्र मध्य का विश्राम नहीं है। उनका ध्येय प्राप्त न हो और आदर्श सिद्ध न हो, तब तक वे लड़ाई जारी रखने के लिए ब¡धे हुए हैं। परन्तु बदलती हुई परिस्थितियों और वातावरण के अनुसार वे अपनी युद्ध-नीति बदलने को तैयार अवश्य होंगे। क्रान्तिकारी युद्ध जुदा-जुदा रूप धारण करता है। कभी वह प्रकट होता है, कभी गुप्त, कभी केवल आन्दोलन-रूप होता है, और कभी जीवन-मरण का भयानक संग्राम बन जाता है। ऐसी दशा में क्रान्तिवादियों के सामने अपना आन्दोलन बन्द करने के लिए विशेष कारण होना चाहिए। परन्तु आपने ऐसा कोई नििश्चत विचार प्रकट नहीं किया। निरी भावपूर्ण अपीलों का क्रान्तिवादी युद्ध में कोई विशेष महत्व नहीं होता, न हो नहीं सकता।
आपके समझौते के बाद आपने अपना आन्दोलन बन्द किया है, और फलस्वरूप आपके सब कैदी रिहा हुए है। पर क्रान्तिकारी कैदियों का क्या? 1915 ई‐ से जेलों में पड़े हुए गदर-पक्ष के बीसों कैदी सजा की मियाद पूरी हो जाने पर भी अब तक जेलों में सड़ रहे है। मार्शल लॉ के बीसों कैदी आज भी जिन्दा कब्रों में दफनाये पड़े हैं। यही हाल बब्बर अकाली कैंदियों का हैं। देवगढ़, काकोरी, मछुआ-बाजार और लाहौर सड़यंत्र के कैदी अब तक जेल की चहारदीवारी में बन्द पड़े हुए बहुतेरे कैदियों में से कुछ हैं। लाहौर, दिल्ली, चटगा¡व, बम्बई, कलकत्ता और अन्य जगहों में कोई आधी दर्जन से ज्यादा सड़यंत्र के मामले चल रहे हैं। बहुसंख्यक क्रान्तिवादी भागते फिरते हैं, और उनमें कई तो स्त्रिया¡ हैं। सचमुच आधी दर्जन से अधिक कैदी फा¡सी पर लटकने की राह देख रहे हैं। इन सबका क्या? लाहौर ‘सड़यंत्र के सज़ायाता तीन कैदी, जो सौभाग्य से मशहूर हो गए हैं और जिन्होंने जनता की बहुत अधिक सहानुभूति प्राप्त की है, वे कुछ क्रान्तिवादी दल के बड़ा हिस्सा नहीं है। उनका भविष्य ही उस दल के सामने एक मात्र प्रश्न नहीं है। सच पूछा जाये तो उनकी सजा घटाने की अपेक्षा उनके फा¡सी पर चढ़ जाने से ही अधिक लाभ होने की आशा है।
यह सब होते हुए भी आप उन्हें अपना आन्दोलन बन्द करने की सलाह देते हैं। वे ऐसा क्यों करें? आप ने कोई नििश्चत वस्तु की ओर निर्देश नहीं किया है।
ऐसी दशा में आपकी प्रार्थनाओं का यही मतलब होता है कि आप इस आन्दोलन को कुचल देने में नौकरशाही की मदद कर रहे हैं, और आपकी विनती का अर्थ उनके दल को द्रोह, पलायन और विश्वासघात का उपदेश करना है। यदि ऐसी बात नहीं है, तो आपके लिए उत्तम तो यह था कि आप कुछ अग्रगण्य क्रान्तिकारियों के पास जाकर उनसे सारे मामले के बारे में बातचीत कर लेते। अपना आन्दोलन बन्द करने के बारे में पहले अपको उनकी बुिद्ध की प्रतीति करा लेने का प्रयत्न करना चाहिए था। मैं नहीं मानता कि आप भी इस प्रचलित पुरानी कल्पना में विश्वास रखते हैं कि क्रन्तिकारी बुिद्धहीन हैं, विनाश और संहार में आनन्द मानने वाले हैं। मैं आपको कहता हू¡ कि वस्तुस्थिति ठीक इसकी उल्टी है, वे सदैव कोई भी काम करने से पहले उसका खूब सूक्ष्म विचार कर लेते हैं, और इस प्रकार जो जिम्मेदारी वे अपने माथे लेते हैं, उसका उन्हें पूरा-पूरा ख्याल रहता है। क्रान्ति के कार्य में दूसरे किसी भी अंग की अपेक्षा वे रचनात्मक अंग को अत्यंत महत्व का मानते हैं, हाला¡कि मौजूदा हालत में अपने कार्यक्रम के संहारक अंग पर डटे रहने के सिवा कोई चारा उनके लिए नहीं है। उनके प्रति सरकार की मौजूदा नीति यह है कि लोगों की ओर से उन्हें अपने आन्दोलन के लिए जो सहानुभूति और सहायता मिली है, उससे वंचित करके उन्हें कुचल डाला जाए। अकेले पड़ जाने पर उनका िशकार आसानी से किया जा सकता है। ऐसी दशा में उनके दल में बुिद्ध-भेद और िशथिलता पैदा करने वाली कोई भी भाव पूर्ण अपील एकदम बुिद्धमानी से रहित और क्रान्तिकारियों को कुचल डालने में सरकार की सीधी मदद करने वाली होगी।
इसलिए हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि या तो आप कुछ क्रान्तिकारी नेताओं से बातचीत कीजिए-उनमें से कई जेलों में हैं- और उनके साथ सुलह कीजिए या ये सब प्रार्थनाए¡ बन्द रखिए। कृपा कर हित की दृिष्ट से इन दो में से कोई एक रास्ता चुन लीजिए और सच्चे दिल से उस पर चलिए। अगर आप उनकी मदद न कर सकें, तो मेहरबानी कर के उन पर रहम करें। उन्हें अलग रहने दें। वे अपनी हिफाजत अपने आप अच्छी तरह कर सकते हैं। वे जानते हैं कि भावी राजनैतिक युद्ध में सर्वोपरि स्थान क्रान्तिकारी पक्ष को ही मिलने वाला है। लोक समूह उनके आस-पास इकट्ठा हो रहे हैं, और वह दिन दूर नहीं है, जब ये जन समूह को अपने झंडे तले, समाज सत्ता प्रजातंत्र के उम्दा और भव्य आदशZ की ओर ले जाते होंगे।
अथवा अगर आप सचमुच ही उनकी सहायता करना चाहते हों, तो उनका समझ लेने के लिए उनके साथ बातचीत करके इस सवाल की पूरी तफसीलवार चर्चा कर लीजिए।
आशा है, आप कृपा करके उक्त प्रार्थना पर विचार करेंगे और अपने विचार सर्वसाधारण के सामने प्रकट करेंगे।
आपका
अनेकों में से एक

विद्यार्थी और राजनीति:-


भगत सिंह के द्वारा यह लेख यद्यपि पंजाब के युवाओं के नाम लिखा गया है परन्तु आज पूरे देश के शिक्षा संस्थानों में विद्यार्थियों का गैर राजनीतिकरण किया जा रहा है। ऐसे में इस लेख के मायने और बढ़ जाते हैं।

इस बात का बड़ा भारी शोर सुना जा रहा है कि पढ़ने वाले नौजवान(विद्यार्थी) राजनीतिक या पोलिटिकल कामों में हिस्सा न लें।
पंजाब सरकार की राय बिल्कुल ही न्यारी है। विद्यार्थी से कालेज में दाखिल होने से पहले इस आशय की शर्त पर हस्ताक्षर करवाये जाते हैं कि वे पोलिटिकल कामों में हिस्सा नहीं लेंगे। आगे हमारा दुर्भाग्य कि लोगों की ओर से चुना हुआ मनोहर, जो अब शिक्षा-मन्त्री हैं, स्कूलों-कालेजों के नाम एक सर्कुलर या परिपत्र भेजता है कि कोई पढ़ने या पढ़ानेवाला पालिटिक्स में हिस्सा न ले। कुछ दिन हुए जब लाहौर में स्टूडेंट्स यूनियन या विद्यार्थी सभा की ओर से विद्यार्थी-सप्ताह मनाया जा रहा था। वहा¡ भी सर अब्दुल कादर और प्रोफसर ईश्वरचन्द्र नन्दा ने इस बात पर जोर दिया कि विद्यार्थियों को पोलटिक्स में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।
पंजाब को राजनीतिक जीवन में सबसे पिछड़ा हुआ कहा जाता है। इसका क्या कारण है? क्या पंजाब ने बलिदान कम किये हैं? क्या पंजाब ने मुसीबतें कम झेली है? फिर क्या कारण है कि हम इस मैदान में सबसे पीछे है? इसका कारण स्पष्ट है कि हमारे शिक्षा विभाग के अधिकारी लोग बिल्कुल ही बुद्धू हैं। आज पंजाब कौंसिल की कार्यवाई पढ़कर इस बात का अच्छी तरह पता चलता है कि इसका कारण यह है कि हमारी शिक्षा निकम्मी होती है और फिजूल होती है, और विद्यार्थी-युवा जगत अपने देश की बातों में कोई हिस्सा नहीं लेता। उन्हें इस सम्बन्ध में कोई भी ज्ञान नहीं होता। जब वे पढ़कर निकलते है तब उनमें से कुछ ही आगे पढ़ते हैं, लेकिन वे ऐसी कच्ची-कच्ची बातें करते हैं कि सुनकर स्वयं ही अफसोस कर बैठ जाने के सिवाय कोई चारा नहीं होता। जिन नौजवानों को कल देश की बागडोर हाथ में लेनी है, उन्हें आज अक्ल के अन्धे बनाने की कोिशश की जा रही है। इससे जो परिणाम निकलेगा वह हमें खुद ही समझ लेना चाहिए। यह हम मानते हैं कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नही तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं, जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाये। ऐसी शिक्षा की जरूरत ही क्या है? कुछ ज्यादा चालाक आदमी यह कहते हैं- ``काका तुम पोलिटिक्स के अनुसार पढ़ो और सोचो जरूर, लेकिन कोई व्यावहारिक हिस्सा न लो। तुम अधिक योग्य होकर देश के लिए फायदेमन्द साबित होगे।´´
बात बड़ी सुन्दर लगती है, लेकिन हम इसे भी रद्द करते हैं, क्योंकि यह भी सिर्फ ऊपरी बात है। इस बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक दिन विद्यार्थी एक पुस्तक `(`नौजवानों के नाम अपील´, प्रिंस क्रोपोटकिन) पढ़ रहा था। एक प्रोफेसर साहब कहने लगे, यह कौन-सी पुस्तक है? और यह तो किसी बंगाली का नाम जान पड़ता है! लड़का बोल पड़ा- प्रिंस क्रोपोटकिन का नाम बड़ा प्रसिद्ध है। वे अर्थशास्त्र के विद्वान थे। इस नाम से परिचित होना प्रत्येक प्रोफेसर के लिए बड़ा जरूरी था। प्रोफेसर की `योग्यता´ पर लड़का हस भी पड़ा। और उसने फिर कहा- ये रूसी सज्जन थे। बस! `रूसी!´ कहर टूट पड़ा! प्रोफेसर ने कहा कि ``तुम बोल्शेविक हो, क्योंकि तुम पोलिटिकल पुस्तकें पढ़ते हो।´´
देखिए आप प्रोफेसर की योग्यता! तब उन बेचारे विद्यार्थियों को उनसे क्या सीखना है? ऐसी स्थिति में वे नौजवान क्या सीख सकते है?
दूसरी बात यह है कि व्यावहारिक राजनीति क्या होती है? महात्मा गा¡धी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस का स्वागत करना और भाषण सुनना तो हुई व्यावहारिक राजनीति, पर कमीशन या वाइसराय का स्वागत करना क्या हुआ? क्या वो पलिटिक्स का दूसरा पहलू नहीं? सरकारों और देशों के प्रबन्ध से सम्बन्धित कोई भी बात पोलिटिक्स के मैदान में ही गिनी जायेगी, तो फिर यह भी पोलिटिक्स हुई कि नहीं? कहा जायेगा कि इससे सरकार खुश होती है और दूसरी से नाराज? फिर सवाल तो सरकार की खुशी या नाराजगी का हुआ। क्या विद्यार्थियों को जन्मते ही खुशामद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए? हम तो समझते हैं कि जब तक हिन्दुस्तान में विदेशी डाकू शासन कर रहे हैं तब तक वफादारी करनेवाले वफादार नहीं, बल्कि गद्दार हैं, इन्सान नहीं, पशु हैं, पेट के गुलाम हैं। तो हम किस तरह कहें कि विद्यार्थी वफादारी का पाठ पढ़ें।
सभी मानते हैं कि हिन्दुस्तान को इस समय ऐसे देश-सेवकों की जरूरत हैं, जो तन-मन-धन देश पर अर्पित कर दें और पागलों की तरह सारी उम्र देश की आजादी के लिए न्योछावर कर दें। लेकिन क्या बुड्ढों में ऐसे आदमी मिल सकेंगे? क्या परिवार और दुनिया¡दारी के झंझटों में फ¡से सयाने लोगों में से ऐसे लोग निकल सकेंगे? यह तो वही नौजवान निकल सकते हैं जो किन्हीं जंजालों में न फ¡से हों और जंजालों में पड़ने से पहले विद्यार्थी या नौजवान तभी सोच सकते हैं यदि उन्होंने कुछ व्यावहारिक ज्ञान भी हासिल किया हो। सिर्फ गणित और ज्योग्राफी का ही परीक्षा के पर्चों के लिए घोंटा न लगाया हो।
क्या इंग्लैण्ड के सभी विद्यार्थियों का कालेज छोड़कर जर्मनी के खिलाफ लड़ने के लिए निकल पड़ना पोलिटिक्स नहीं थी? तब हमारे उपदेशक कहा¡ थे जो उनसे कहते-जाओ, जाकर शिक्षा हासिल करो। आज नेशनल कालेज, अहमदाबाद के जो लड़के सत्याग्रह के बारदोली वालों की सहायता कर रहे हैं, क्या वे ऐसे ही मूर्ख रह जायेंगे? देखते हैं उनकी तुलना में पंजाब का विश्वविद्यालय कितने योग्य आदमी पैदा करता है? सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहा¡ के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिन्दुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और अपने देश का अस्तित्व बचा पायेगा? नवजवानों को 1919 में विद्यार्थियों पर किये गए अत्याचार भूल नहीं सकते। वे यह भी समझते हैं कि उन्हें क्रान्ति की जरूरत है। वे पढ़ें। जरूर पढ़े! साथ ही पोलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपने जीवन को इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों को इसी में उत्सर्ग कर दें। वरना बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता।

01 नवंबर 2007

भगत सिंह के आइने में भारत


भगत सिंह के विचारों की बढ़ती प्रासंगिकता और आम आदमी का आज के समय में अलग-अलग मुद्दे पर संघर्ष आज उनके विचारों को और ज्यादा प्रासंगिक बना देता है ऐसी स्थिति मे हम दख़ल में भगत सिंह के दस्तावेजों की श्रिंखला की पहली कड़ी मे ये आलेख प्रस्तुत कर रहे है

दुनिया के सामने भगत सिंह का जो चेहरा जाने-अनजाने में रखा गया है वह किसी जुनूनी व मतवाले देश भक्त का है। भगत सिंह के विचार, उनके दर्शन को लोगों से दूर रखा गया पर वक्त ने देश को उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहॉ भगत सिंह के विचार और प्रासंगिक होते दिख रहे है। जिस आम जन की बात भगत सिंह करते थे वह मंहगाई, गरीबी, भूख से पीड़ीत होकर अपने को हाशिये पर महसूस कर रहा है। वह देश में बनाये गये कानूनों , नियमों, की पक्षधरता को देखते हुए उनके प्रतिरोध में खड़ा हो रहा है।
देश को अग्रेजी सत्ता से मुक्त होनें के साठ साल बाद भी देश का आम जन उस आजादी को नहीं महसूस कर पर रहा है। जो भगत सिंह, पेरियार, अम्बेडकर का सपना था। आज वे स्थितियां जिनका भगत सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय आंकलन किया था लोगों के सामने हैं। आंदोलन के चरित्र को देखते हुए भगत सिंह ने कहा था कि काग्रेस के नेतृत्व में जो आजादी लड़ी जा रही है उसका लक्ष्य व्यापक जन का इस्तेमाल करके देशी धनिक वर्ग के लिये सत्ता हासिल करना है। यही कारण था कि देश का धनिक वर्ग गांधी के साथ था। उसे पता था कि जब तक देश को अंग्रजी सत्ता से मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक बाजार में उनके सिक्के जम नहीं सकेगें। आखिरकार हुआ भी वही जिसे भगत सिंह गोरे अंग्रजों से मुक्ति व काले अंग्रजों के शासन की बात करते थे। आज आम आदमी इस शासन तल में अपनी भागीदादी महसूस नहीं कर रहा है। उसके लिये आज भी अंग्रजों के द्वारा दमन के लिये बनें नियम-कानून नाम बदलकर या उसी स्थिति में लागू किये जा रहे हैं। आजादी के साठ वर्ष बाद सरकारे आफ्सा, पोटा, राज्य जन सुरक्षा अधिनियम जैसे दमन कानूनों की जरूरत पड़ रही है क्योंकि जन प्रतिरोध का उभार लगातार बढ़ रहा है।
आजादी के बाद कई मामलों में स्थितियां ओर भी विद्रूप हुई है। जहॉ सन् 42 में केरल के वायनाड जिले में इक्का-दुक्का किसानों की मौतें होती थी वहॉ आज स्थिति ये है कि देश के विभिन्न राज्यों में हजारों हजार की संख्या में किसान आत्महत्यायें कर रहे है। आज भी देश में काला हांडी जैसी जगह है बल्कि काला हांडी से एक कदम ऊपर देश की एक बड़ी आबादी है। जो जीवन की मूलभूत जरूरतों से जुझ रही है। जो इसलिये भी जिन्दा रखी गयी है ताकि अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिये वह सस्ते में श्रम को बेंच सके। इसके बावजूद भी आज एक बड़े युवा वर्ग के लिये करने को काम नहीं है। कारणवस वह किसी भी तरह का अपराध करनें को तैयार है। भारत एक बड़ी युवा संख्या की विकल्पहीन दुनियां है। ऐसी स्थिति में यह बात सच साबित होती है कि भगत सिंह जिस आजादी की तीमारदारी करते थे वह आजादी देश को नही मिल पायी है।
भगत सिंह देश, दुनिया को लेकर एक मुकम्मल समाज बनानें का सपना देखते थे जिसमें वे अन्तिम आदमी को आगे नहीं लाना चाहते थे बल्कि सबको बराबरी पर लाना चाहते थे। जहॉ जाति, धर्म भाषा के आधार पर समाज का विभाजन न हों। वे शोषण व लूट खसोट पर टिके समाज को खत्म करना चाहते थे, वे किसी प्रकार के भेदभाव को खारिज करते थे। उनका मानना था कि दुनियां में अधिकांश बुराइयों की जड़ निजी सम्पत्ति है। इस सम्पत्ति को शोषण व भ्रष्टाचार के जरिये जुटाया जाता है जिसके सुरक्षा के लिये शासन की जरूरत पड़ती है यानि निजी संम्पत्ति के ही कारण समाज में शासन की जरूरत पड़ती है।
एक लम्बे अर्से तक भगत सिंह को आतंकी की नजर से देखा जाता रहा जिसको भगत सिंह ने अपने साथियों के साथ विचार-विर्मश करते हुए कहा कि मैं आतंकी नहीं हूं। आंतकी वे होते है जिनके पास समस्या के समाधान की क्रांतिकारी चेतना नही होती। हमारे भीतर क्रांतिकारी चिंतन के पकड़ के आभाव की अभिव्यक्ति ही आतंकवाद है पर क्रांतिकारी चेतना को हिंसा से कतई नही जोड़ा जाना चाहिये, हिंसा का प्रयोग विशेष परिस्थिति में ही करना जायज है वर्ना किसी जन आंदोलन का मुख्य-हथियार अहिंसा ही होनी चाहिये। हिंसा-अहिंसा से किसी व्यक्ति को आंतकी नही माना जा सकता। हमें उसकी नीयति को पहचानना होगा क्योंकि यदि रावण का सीता हरण आतंक था तो क्या राम का रावण वध भी आतंक माना जाय। अपने अल्प कालिक जीवन के दौरान भगत सिंह ने कई विषयों पर लिखा, पढ़ा व सोचा समझा, और यह कहते गये कि-
हवा में रहेगी, मेरे ख्याल की बिजली।
ये मुस्ते खाक है फानी रहे, रहे न रहे।।