08 मार्च 2013

क्योंकि मृत्युदंड टी20 का मैच नहीं है


-युग मोहित चौधरी*
युग मोहित चौधरी ने 9 फरवरी 2013 को दूसरे शाहिद आज़मी स्मृति व्याख्यान में जो भाषण दिया उसका ये संपादित रूप है। मृत्युदंड की अवधारणा पर करारा चोट करता यह भाषण उन सबके लिए  हैं जो देश 
को कम हिंसक और कम प्रतिक्रियावादी जगह के तौर पर देखना चाहते हैं। लेख लंबा है लेकिन किस्तों की बजाए एक बार में इसलिए छाप रहे हैं ताकि लयात्मकता बरकरार रहे। मूल रूप से  अंग्रेज़ी में 
दिए गए भाषण का लिप्यांतरण  दीप्ती स्वामी, धीरज पांडेय और अनुराग सेठी ने किया।  
(महताब आलम के लगातार आग्रह पर हिंदी अनुवाद : दिलीप ख़ान)

अधिवक्ता युग मोहित चौधरी

फरमन वनाम जॉर्जिया (1972) केस में अमेरिका के उच्चतम न्यायालय ने मृत्युदंड की मुखालफत की। न्यायाधीश मार्शल ने कहा कि अगर नागरिकों को इस बात की पूरी जानकारी हो कि लोगों को किस तरह मृत्युदंड सुनाए जाते हैं तो उन्हें लगेगा कि मौत की सजा स्तब्धकारी, ग़लत और अस्वीकार्य है। हालांकि भारत में मृत्युदंड उन्मूलन अभियान में ऐसे शोध और लोगों के बीच जागरुकता अभियान जैसे काम को सर्वाधिक नज़रंदाज किया गया है। भारत में मृत्युदंड की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले अंतिम तीन बिंदुओं को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया, क्योंकि उन्मूलन के दावों को समर्थन देने के लिए कोई अनुभवजन्य आंकड़ें (empirical data) नहीं थे। अफ़सोसजनक ये है कि परिस्थिति में अब भी कोई बदलाव नहीं आया है। अब भी इस मामले पर शायद ही कोई शोध हुआ है। इसलिए मृत्युदंड के ऊपर अनुभवजन्य शोध करना उन्मूलन अभियान की प्राथमिकता में शीर्ष पर होना चाहिए। हरेक प्रस्तावित मृत्युदंड को रोकने की हरसंभव कोशिश में विफल रहने के बाद हमें कम-से-कम राज्य को उस स्थिति तक पहुंचाना चाहिए कि अगले मामले में मृत्युदंड देना उसके लिए मुश्किल भरा काम बन जाए। इसके लिए हरसंभव क़ानूनी, राजनीतिक और सामाजिक तौर-तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए। मृत्युदंड का उन्मूलन कभी भी एक झटके में नहीं हुआ है और न ही ऐसा होगा। इस दिशा में होने वाली प्रगति की रफ़्तार सुस्त होगी और ये हम पर निर्भर करता है कि हम सरकार, अदालत, संसद और लोगों को ये समझा सके कि इससे हमें कुछ भी हासिल नहीं होता, अलबत्ता हमारे मानवीय स्तर को ये नीचे ज़रूर गिराता है। 

आज मृत्युदंड का विरोध करने के अनेक कारण हैं। लोग यह आसानी से महसूस सकते हैं कि किसी को मारना नैतिक तौर पर ग़लत है, कि सजा के तौर पर एक हत्यारे की हत्या करना पाखंड है, कि आजीवन कारावास की बजाय मृत्युदंड देने से अपराध की मात्रा में कोई कमी नहीं आती। मृत्युदंड की मुख़ालफ़त के पीछे जो एक और कारण हैं वो ये कि इस सजा को वापस नहीं लिया जा सकता। ऐसे कई मामले हैं जब अदालती फ़ैसले ग़लत साबित हुए और जिन्हें दुरुस्त करने का कोई मौका नहीं बचा। एक बार जिसे मौत दे दी गई, उसे ठीक करने का कोई तरीका नहीं होता। मौत के घर से वापसी नहीं होती। चलिए हम तीन सामाजिक संस्थाओं के संदर्भ में मृत्युदंड की चर्चा करते हैं, ताकि इसके उन्मूलन के लिए तर्क निकल सके। ये तीन संस्थाएं हैं, पुलिस, जोकि सबूत इकट्ठा करने वाली इकाई है; अदालत, जोकि दोष तय करने और उपयुक्त सजा सुनाने वाली इकाई है और कार्यपालिका, जोकि क्षमा याचिका पर विचार करने वाली ईकाई है।  

इस बात को बहुत ज़ोर देकर उभारने की ज़रूरत नहीं है कि हमारे यहां, भारत में, पुलिस बल बदमाश, भ्रष्ट, बेईमान और आपराधिक है। अदालत में जो सबूत पेश होते हैं उसे यही पुलिस जमा करती है। हम इन्हीं सबूतों के बिनाह पर ये तय करते हैं कि किसी को मौत की सजा सुनाई जाए या नहीं। यह अपने-आप में सोचने वाली बात है कि जिस पुलिस के बारे में हम जानते हैं कि वो भ्रष्ट और बेईमान है, उसके द्वारा पेश किए गए सबूतों के आधार पर सजा तय होती है। इसके मुतल्लिक मैं कुछ उदाहरण पेश करता हूं :- मुंबई में कुछ साल पहले एक आदमी को एक बच्चे की हत्या और बलात्कार के मामले में दोषी पाते हुए सजा सुनाई गई। अर्जी उच्च न्यायालय में अटकी थी और इसी दरम्यान पुलिस अधिकारियों को जांच-पड़ताल के बाद ये पता चला कि वो मामला आत्महत्या का है और पुलिस ने आत्महत्या नोट बरामद करते हुए माना कि उस आदमी को उन लोगों ने ख़ामख़्वाह पकड़ लिया था। अब रिकॉर्ड में जो सबूत हैं उसके आधार पर उस आदमी को निर्दोष नहीं माना जा सकता क्योंकि सबूत काफी मज़बूत थे। सुसाइड नोट सबूत का हिस्सा नहीं था और उसके बग़ैर वो आदमी मौत के पार पहुंच सकता था। बंबई उच्च न्यायालय ने अपारंपरिक तौर पर उस सुसाइड नोट पर ग़ौर करते हुए उस आदमी को बरी कर दिया। अगर मामला इस तरह हल नहीं हुआ होता तो कल्पना कीजिए क्या घटित हो चुका होता? 

मैं आपको कुछ दूसरे उदाहरण दूंगा। जिन मामलों को शाहिद (शाहिद आज़मी**) देख रहे थे उन्हें आज-कल मैं देख रहा हूं। वो मामला है, 2006 का मालेगांव बम धमाका। शब-ए-बरात की पवित्र रात या बड़ी रात को मुस्लिम बाहुल्य शहर मालेगांव में मस्जिद के बाहर बम धमाके हुए। नौ लड़कों को इस मामले में पकड़ा गया और उनपर उन धमाकों के आरोप लगाए गए। नौ स्वीकृतियां (कनफेसन) रिकॉर्ड में दर्ज हैं। पुलिस का दावा है कि उसने उन लोगों के घर से आरडीएक्स सहित अन्य विस्फोटक सामग्रियां जब्त की। पुलिस ने ये भी दावा किया कि उन नौ में से एक लड़के का जमीर जाग गया और वो अपने सहयोगियों के ख़िलाफ़ राज्य के लिए गवाह बनने को तैयार हो गया। मामले में आरोप पत्र दायर किया गया। मुंबई में पूरे मामले पर गर्माहट के बाद केस सीबीआई को सौंप दिया गया। सीबीआई ने एक पूरक आरोप पत्र दायर किया जोकि मुंबई पुलिस द्वारा किए गए जांच-पड़ताल से संबंधित था। और फिर, एनआईए (राष्ट्रीय जांच एजेंसी), जोकि समझौता एक्सप्रेस धमाकों की जांच कर रही थी, उसने स्वामी असीमानंद को गिरफ़्तार किया। असीमानंद ने बाद में ये स्वीकारा कि उसने ही मालेगांव के तीन धमाकों को अंजाम दिया। उसने बताया कि उसके हिंदूवादी दक्षिणपंथी आतंकी समूह ने मालेगांव में धमाका किया है। तो, उन तमाम सबूतों का क्या हुआ, उन स्वीकृतियों का क्या हुआ और उस आरडीएक्स का? कहां से वो आरडीएक्स आया था और कहां ग़ायब हो गया?

अब आप खुद को वकील की जगह रखकर देखें, एक केस में पुलिस कोर्ट के सामने आरडीएक्स ये कहते हुए पेश कर रही है कि उसने आरोपियों के घर से उसे जब्त किया है। बचाव पक्ष का वकील कह रहा है कि सबूत गढ़ा गया है। जज पूछता है, "पुलिस ने इसे फिर कहां से बरामद किया?" आप इस सवाल का जवाब कैसे देंगे? जज अपने सामने पेश किए गए उस सबूत पर यकीन करेगा और ये मानेगा कि वाकई आरडीएक्स जब्त किया गया होगा क्योंकि लोगों के पास आखिरकार कहां से आरडीएक्स आएगा? सामान्य लोगों के पास आरडीएक्स नहीं होता। लेकिन स्वामी असीमानंद की स्वीकृति जाहिर होने से पहले इन नौ लोगों के सर पर तलवार लटकी थी। सबके ऊपर। ये कोई अलग-थलग मामला नहीं है। 

11 जुलाई 2006 को आधे घंटे के दरम्यान मुंबई की ट्रेन में सात धमाके हुए। पुलिस ने सिमी (स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया) के तेरह लड़कों को ये कहते हुए गिरफ़्तार किया कि उन्हीं लोगों ने इन धमाकों को अंजाम दिया है। गिरफ़्तारी के समय उनके मोबाइल फोन जब्त कर लिए गए। मजिस्ट्रेट के सामने रिमांड आवेदन पेश करते हुए पुलिस ने लिखित तौर पर कहा कि उनके मोबाइल फोन को फॉरेंसिक जांच के लिए भेजा गया है और मोबाइल सेवा प्रदाता से मिलकर उनकी कॉल का विवरण भी खंगाला जा रहा है। कॉल रिकॉर्ड के बिनाह पर पुलिस ने दावा किया कि षडयंत्र को तय करने की खातिर वो तेरहों लड़के आपस में संपर्क में थे। इसके अतिरिक्त पुलिस ने ये भी कहा कि उनका पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा से भी संपर्क था और वे लोग नौजवानों को आतंकवादी प्रशिक्षण के लिए सीमा पार पाकिस्तान भी भेजते थे। ये सब पुलिस ने महज रिमांड आवेदन में ही नहीं कहा बल्कि हफ़्तों तक बार-बार इस बात को दोहराते रहे ताकि उन लड़कों की बढ़ी हुई हिरासत अवधि को वैधता दे सके। 189 लोग उन धमाकों में मारे गए। कोई भी मजिस्ट्रेट या जज ऐसे मामलों में बेल नहीं देगा, ख़ासकर तब जब पुलिस इतने मज़बूत फॉरेंसिक सबूत पेश कर रही हो। लश्कर-ए-तैयबा के साथ संपर्क में रहना और आतंकवादी प्रशिक्षण के लिए लोगों को उनके पास भेजना बेहद गंभीर मामला है। 
  
बहरहाल, कुछ समय बाद, मुंबई पुलिस की दूसरी शाखा ने कुछ अन्य लोगों को पकड़ा जो यह मान रहे थे कि उन्होंने मुंबई की रेलों में धमाके किए। उनके पास आत्मस्वीकृति के रिकॉर्ड थे। जब सिमी वाले मामले में आरोपपत्र दाखिल किए गए थे तो उन लड़कों ने अपने मोबाइल रिकॉर्ड की प्रतियां मांगी क्योंकि पुलिस ने आरोपपत्र के साथ उसे नत्थी नहीं किया था। यह बहुत अचंभित करने वाला तथ्य है कि पुलिस ने उन्हीं फोन रिकॉर्ड के आधार पर ये दावा किया था कि उन लड़कों का लश्कर के साथ ताल्लुक है और बाद में उन्हीं मोबाइल फोन रिकॉर्ड को सार्वजनिक नहीं कर रही! पुलिस ने आरोपपत्र के साथ उन रिकॉर्ड को नत्थी क्यों नहीं किया?
मौत के घर से वापसी नहीं होती।
उन लड़कों ने हमेशा कहा कि अगर अदालत के सामने उन रिकॉर्ड को पेश किया जाता है तो घटना में उनकी निर्लिप्तता साबित हो जाएगी। लोग जान जाएंगे कि वे निर्दोष हैं। तथ्य ये है कि बम धमाकों के समय वे सब किसी दूसरी जगह पर मौजूद थे। (मोबाइल) टावर का लोकेशन ये साफ़ बता रहा था कि पुलिस के दावों के विपरीत वे चर्च गेट स्टेशन के पास नहीं थे। उनमें से एक तो मुंबई से बाहर बिहार में कहीं था। कुछ चर्च गेट स्टेशन से बिल्कुल उल्टे छोर पर उत्तरी मुंबई में थे। इसलिए उन लड़कों ने लगातार ये कहा कि उनके बचाव के लिए वो फोन रिकॉर्ड्स अहम दस्तावेज़ है। बचाव पक्ष के वकील द्वारा छह साल के भीतर उन रिकॉर्ड्स की प्रतिलिपि मांगने के लिए छह बार आवेदन दिया गया जिन्हें पुलिस ने (कथित तौर पर) अपने पास जमा रखा था। लेकिन पुलिस ये कहकर रिकॉर्ड्स देने से लगातार मना करती रही कि चूंकि आरोप पत्र में उन्होंने उन रिकॉर्ड्स को चस्पां नहीं किया है इसलिए आरोपित को दस्तावेज़ देने के लिए वो बाध्य नहीं है। लेकिन जैसा कि आतंकवाद से जुड़े मुक़दमें में ज़्यादातर होता है, चौतरफ़ा दबाव के चलते अभियोजन पक्ष द्वारा रखी गई दलीलों पर जज सिर्फ़ मुहर लगाता चलता है, उन फोन रिकॉर्ड्स के लिए छह साल में किए गए छह आवेदनों को जज ने खारिज कर दिया। 

पुलिस लगातार उन रिकॉर्ड्स को देने से इनकार करती रही, लेकिन उस मामले के मुतल्लिक और कुछ भी कहने से बचती रही। आख़िरकार हमने उच्च न्यायालय का रुख किया और वहां उन रिकॉर्ड्स को मांगने के लिए अपील की। उच्च न्यायलय ने उन रिकॉर्ड्स को प्रासंगिक और ज़रूरी माना और पुलिस को निर्देश दिया कि वो दस्तावेज़ हमें सौंपे। छह साल बाद और आख़िरी बार जब पुलिस ने हमें रिकॉर्ड्स देने से मना किया था उसके तीन महीने बाद उच्च न्यायालय में पहली बार पुलिस ने मुंह खोला और कहा कि उसने उन रिकॉर्ड्स को नष्ट कर दिया है! जबकि पुलिस बीच-बीच में ये दावा कर रही थी कि उन दस्तावेज़ों के आधार पर कुछ आरोपितों को अभी पकड़ा जाना बाकी है, वो कैसे उन रिकॉर्ड्स को नष्ट कर सकती है? 
सामान्य अपराध के मामलों में आत्म-स्वीकृति को बतौर सबूत मामूली भाव मिलता है, क्योंकि एक पुलिस अधिकारी की कही गई बातों पर कोई किस तरह भरोसा कर ले? न्यायिक सिद्धांत में इसी आधार पर आत्म-स्वीकृति को सबूत से अलग कर दिया गया। लेकिन, गंभीर अपराधों में आत्म-स्वीकृति को सबूत के तौर पर लिया जाता है। ये हैरतअंगेज़ व्यवस्था है। अगर आत्म-स्वीकृति को सामान्य अपराध में सबूत के तौर पर मान्य नहीं ठहराया जाता तो फिर गंभीर क़िस्म के अपराध में आरोपियों के ऊपर इसे क्यों लादा जाता है? लेकिन हमारे यहां क़ानूनन यह व्यवस्था है। आतंकवाद के मामले में यह विशेष व्यवस्था लागू होती है। इसलिए 2006 के मालेगांव मामले में पुलिस ने अदालत के सामने हमेशा नौ आत्म-स्वीकृतियों को सबूत के तौर पर पेश किया। हां, साथ में आरडीएक्स बरामदगी की मनगढंत कहानी ज़रूर चस्पां की। कोई भी वास्तविक सबूत नहीं पेश हुआ। एक आत्म-स्वीकृति को अपने मुताबिक ढालने में ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती जब उसका सत्यापन भी ख़ुद पुलिस अधिकारियों को ही करना हो!

इंदिरा गांधी हत्याकांड में उनके सुरक्षा दस्ते में से एक सुरक्षाकर्मी बलवंत सिंह को फौरन गिरफ़्तार कर लिया गया। हत्या के तुरंत बाद, ग़ैरक़ानूनी तरीके से। हालांकि उनकी गिरफ़्तारी को दिखाया नहीं गया लेकिन यमुना वेलोड्रम के छोर से ग़ैरक़ानूनी तरीके से उसको उठाकर कई दिनों तक रखा गया। उस दौरान हिरासत में उसको भीषण यातनाएं दी गईं और बाद में छोड़ दिया गया। उसके एक या दो दिन बाद जब वो आईएसबीटी में बस में चढ़ने जा रहा था तो उसकी गिरफ़्तारी गिखाई गई। पुलिस ने दावा किया कि उसकी जेब से चिट्ठी की शक्ल में पूरा का पूरा आत्म-स्वीकृति नोट बरामद हुआ है, जिसमें विस्तार से उसके बयान दर्ज़ थे। पुलिस के दावों पर यक़ीन करें तो वो अपनी जेब में आत्म-स्वीकृति नोट लेकर दिल्ली की सड़कों पर घूम रहा था! यह इंदिरा गांधी हत्याकांड का सच है! ट्रायल कोर्ट ने इस क़िस्से पर अपना भरोसा जताया और बलवंत सिंह को मौत की सजा सुना दी। हाई कोर्ट ने भी भरोसा का इजहार किया और बलवंत सिंह की मौत की सजा को बरकरार रखा। 
इसलिए मैं वापस उसी सवाल पर आना चाहता हूं: क्या ऐसे सबूत के आधार पर लोगों को मौत की सजा सुनाना जायज है? 
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मृत्युदंड में संलिप्त दूसरी संस्था है- न्यायपालिका, और न्यायपालिका की ग़लती करने की क्षमता उतनी ही है जितनी भारत में किसी दूसरी संस्था की। इसमें उसी तरह के लोग शामिल हैं जैसे समाज के अन्य दूसरी संस्थाओं में होते हैं। ग़लतियां लोगों से होनी अवश्यंभावी हैं। मृत्युदंड के संदर्भ में ख़ास तौर पर इसे परखा जाना चाहिए क्योंकि 'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' का समूचा मसला इतना व्यक्तिकेंद्रित होता है कि इसकी पड़ताल में नज़रियों का फर्क आसानी से पाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार ये माना है कि मृत्युदंड के उसके फैसले भी चुनिंदा होते हैं और इसके नियम में कोई स्थिरता या फिर सामान्यता नहीं है। इस आधार पर देखें तो न्याय हासिल करने में समानता के अधिकार का लगातार उल्लंघन होता रहा है। बच्चन सिंह (1982) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस भगवती ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट 'मनमौजी और सनकनपन' में मृत्युदंड सुनाता है। क्या वो ग़लत थे? 


फरमन बनाम जॉर्जिया मामले में जस्टिस स्टीवर्ट ने कहा था कि मृत्युदंड मनमाने और क्रूर तरीके से सुनाया जाता है। किसी को पता नहीं होता कि अगली बारी किसकी है। जिसको सजा सुनाई गई, उसे उसका दुर्भाग्य ही समझा जाना चाहिए! हरबन सिंह (1982) के मामले में इसे हम स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं। हत्या के एक ही तरह के तीन मामलों में तीन लोगों को मौत की सजा सुनाई गई और सुप्रीम कोर्ट की तीन अलग-अलग खंडपीठ ने उन मामलों पर नाटकीय तौर पर तीन अलग-अलग फैसले सुनाए। कश्मीरा के मृत्युदंड को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया गया, जीता की अपील ठुकरा दी गई और उसे फांसी हुई और हरबन को राष्ट्रपति के यहां से क्षमादान मिली, जबकि कोर्ट ने उसकी शुरुआती अपील और पुनर्विचार याचिका को खारिज कर दिया था। 

मृत्युदंड के फैसले में ये उदाहरण 'भ्रम, विचलन और विरोधाभास' की तस्वीर पेश करते हैं। एकसमान मामलों पर अलग-अलग फैसले पर्याप्त संख्या में मौजूद है और ये चिंता का विषय है। इन मामलों में जिनको मौत मिली और जिनको आजीवन कारावास मिली उनके बीच सिवाय अलग खंडपीठ के और कोई बड़ा अंतर नहीं था। जहां न्यायमूर्ति बालाकृष्णन और सिन्हा ने बच्चों के बलात्कार और हत्या के सारे मामलों में मिले मृत्युदंड को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया, वहीं जस्टिस पसायत ने लगभग हर मामले में मृत्युदंड को या तो बरकरार रखा या फिर नए सिरे से यह सजा सुनाई, यहां तक कि उन मामलों में भी जिनमें निचली अदालतों ने आरोपी को मुक्त कर रखा था। मृत्युदंड ऐसे में इस पर निर्भर हो जाता है कि आख़िरकार उसको सुनाने वाला जज कौन है। यह ऐसा जुआ बन जाता है जिसमें यह देखना सबसे ज़्यादा दिलचस्प होता है कि किसी ख़ास जज की मौजूदगी से मृत्युदंड की सांख्यिकी में कितना सकारात्मक और कितना नकारात्मक फ़र्क़ पैदा होता है। यानी जीने और मरने की संभावना सबूतों की बजाय जज पर निर्भर करता है! तीन जजों की तुलना से यह साफ़ हो जाएगा कि किस तरह मृत्युदंड को लेकर जजों का निजी नजरिया फैसलों में जाहिर होता है। 

क्रिकेट की छोटी शैली में इस्तेमाल होने वाली भाषा के सहारे कहें तो जस्टिस पसायत का "स्ट्राइक रेट" लगभग 73 फीसदी है, जोकि उनके कार्यकाल में रहने वाले बाकी सारे जजों के सम्मिलित स्ट्राइक रेट (19 फ़ीसदी) से काफ़ी ज़्यादा है। इस तरह जो मामला जस्टिस पसायत की खंडपीठ को नहीं सौंपा गया, उसमें मृत्युदंड से बचने की संभावना चौगुनी बढ़ जाती है। मृत्युदंड के एक मामले की सुनवाई जस्टिस पसायत और जस्टिस सिन्हा के पास होने की संभावना लगभग बराबर का है, लेकिन आरोपी के ज़िंदा रहने की संभावना 100 फ़ीसदी हो जाती है अगर वो केस जस्टिस सिन्हा के पास पहुंचा हो। एक कैदी के ज़िंदा रहने की संभावना 50 फ़ीसदी बढ़ जाती है अगर वो केस जस्टिस पसायत की खंडपीठ की बजाय जस्टिस बालाकृष्णन के पास पहुंचे। क्या मृत्युदंड की अपील करने वाले एक व्यक्ति को यह सवाल नहीं पूछना चाहिए, "मैं जिंदा रहूंगा या नहीं यह मेरे केस में मौजूद सबूत से तय होगा या फिर गठित होने वाली खंडपीठ से?" इससे भयावह नहीं तो कम से कम फैसलों में ऐसा ही अंतर ब्लैकशील्ड (1972-1976) के अध्ययन में भी जाहिर होता है। भगवती के इस बयान पर शक की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए कि "कोई व्यक्ति जिएगा या मरेगा यह बहुत कुछ खंडपीठ में शामिल जजों के समिश्रण पर निर्भर करता है और यही बात मृत्युदंड को मनमाना मामला बना देता है"। जीवन की पवित्रता, बदतर अपराधियों के भीतर ‘पापमुक्ति’ की हमेशा मौजूद रहने वाली संभावना और मृत्युदंड की बर्बरता पर जस्टिस कृष्णा अय्यर की टिप्पणी के बाद इस पर कोई प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं रह जाती। बच्चन सिंह के फैसले के बाद खेद जताते हुए कुछ जजों का ये सोचना था कि “दुर्भाग्य” से उस फैसले ने और अधिक मृत्युदंड देने से उन्हें रोक दिया!  
जस्टिस पसायत को फांसी की सजा सुनाने में
विशेषज्ञता हासिल है!

भारत में मृत्युदंड की नींव बच्चन सिंह (के फ़ैसले) से रखी गई और उसके बाद के फ़ैसले से ये उम्मीद रखी गई कि वो उसके अनुरूप ही रहे। बच्चन सिंह मामले में ये साफ़ हो गया कि जजों को अपराध के जुड़ी परिस्थितियां और अपराधियों से जुड़ी परिस्थितियां, दोनों तरफ देखनी चाहिए। हालांकि कुछ जघन्य अपराधों और आतंकवाद के मामलों में न्यायिक सतर्कता थोड़ी दूसरी तरफ़ डिग जाती है जोकि अपराध से पैदा हुई तब्दीली के कारण ज़्यादा होती है। एक व्यक्ति रावजी ने अपने परिवार का क़त्ल किया क्योंकि उसे शक था कि उसकी पत्नी उसके प्रति वफ़ादार नहीं है और उसके बच्चे नाजायज़ हैं। अब इस मामले में वो अगर अपराध की परिस्थितियों को देखें तो निश्चित तौर पर अपराधी को फांसी की सजा सुना देंगे, लेकिन अगर अपराधी की परिस्थिति पर वो ग़ौर करें तो वो उसे शायद मानसिक तौर पर विक्षिप्त करार दें और उसके बाद बहुत संभव है कि उसे क्षमादान मिल जाए या फिर फांसी का फंदा। लेकिन अपराध इतना भयानक और स्तब्धकारी है कि इसे आगे घटित नहीं होना चाहिए! इसलिए एक क़ानून बना कि ऐसे जघन्य मामलों में अपराधियों से जुड़ी परिस्थितियों पर हमें विचार करने की ज़रूरत ही नहीं है। इन मामलों में सिर्फ़ अपराध के इर्द-गिर्द की परिस्थितियों को परखा जाना चाहिए! और इस तरह रावजी को फांसी के तख़्त पर भेज दिया गया। 

बच्चन सिंह के मामले में तय किए गए सिद्धांत के मुताबिक़ क़ानून चलने लगा। इसी तरह सुरजा राम को फांसी हुई। और इसके अगले एक दशक में 12 लोगों को फांसी पर झुलाया गया। लगभग 15 लोगों को इस ग़लत सिद्धांत के आधार पर मौत की सजा मुकर्रर हुई। 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने रावजी के अलावा सात और मामलों को ग़लत बताया और कहा कि इसमें क़ानूनी चूक हुई थी। इसके बाद दो और खंडपीठों ने यही निष्कर्ष निकाले। लेकिन तब तक फांसी के फंदे पर झूल चुके रावजी सहित बाकी कैदियों के लिए बहुत देर हो चुकी थी। उसके बाद एक क़ैदी को किशोर घोषित किया गया और बाक़ी चार के मृत्युदंड को सरकार ने माफ़ कर दिया। सात क़ैदी मृत्युदंड की कतार में खड़े रहे, इसके बावज़ूद कि सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मामलों में ये माना कि उनके फ़ैसलों में चूक हुई है। 

जब उच्च और उच्चतम न्यायलय के 14 जजों ने राष्ट्रपति से लिखकर इन मृत्युदंडों को माफ़ करने की अपील की तो उसके बाद एक सघन अभियान चलाया गया। इनमें सायबाना का मामला भी शामिल था। गृह मंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति ने हाल ही में सायबाना की दया याचिका ख़ारिज कर दी है। सायबाना को अब कभी भी फांसी के तख़्ते पर भेजा जा सकता है। बाकी छह क़ैदियों की दया याचिका पर फैसले अभी लंबित हैं। 
सायबाना केस के बारे में मैं कुछ जानकारी देता हूं। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 303 में एक उपबंध हुआ करता था कि अगर आजीवन कारावास काट रहा कोई व्यक्ति उसी दौरान दूसरी हत्या करता है तो उसे निश्चित तौर पर मौत की सजा मिलेगी। यह अनिवार्य मृत्युदंड था। 1983 में क़ानून के इस खंड को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। क़ानून में इस संशोधन के 20 साल बाद सायबाना पर 303 के तहत आरोप लगाए गए। यानी जिस समय विधि संहिता से उस उपबंध को हटा दिया गया उसके बाद उस विलुप्त क़ानूनी धारा के तहत उसे 'अनिवार्य मृत्युदंड' सुनाया गया। उसके वकील ने ट्रायल कोर्ट में जज के सामने यह बात रखी कि उनके मुवक्किल को जिस सेक्शन के तहत मौत की सजा दी गई है वो क़ानून में मौजूद ही नहीं है। यहां अनिवार्य मृत्युदंड और विवेकाधीन मृत्युदंड में फर्क़ को समझना ज़रूरी हो जाता है। विवेकाधीन मृत्युदंड में आरोपी के पास ये अधिकार होता है कि वो कोर्ट के सामने उन परिस्थितियों को जाहिर करें जिनके तहत उसने घटना को अंजाम दिया। कोर्ट उस पर विचार करने के बाद ये तय करता है कि मामले में सही सजा क्या मुकर्रर की जाए, क्योंकि ग़ौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह कह रखा है कि सुनवाई के वक़्त अपराध और अपराधी दोनों की परिस्थितियों को संज्ञान में लिया जाना चाहिए। इसलिए ऐसे मौक़े पर यह सुनवाई निर्णायक हो जाती है। 

सायबाना केस में चूंकि जज ने धारा 303 के तहत कार्यवाही की, जहां अनिवार्य मृत्युदंड का प्रावधान है, इसलिए वहां सजा सुनाने के बीच किसी भी तरह की सुनवाई का या फिर परिस्थितिजन्य सबूत पेश करने का कोई मौका ही नहीं था। इस तरह सायबाना पर आरोप तय हुए। मामला जब उच्च न्यायालय में पहुंचा तो ग़लती की पड़ताल हुई कि आरोपित को धारा 303 के तहत दोषी ठहराया गया। धारा 303 को विधि संहिता से हटाने के 23 साल बाद की ये घटना है। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने ये पाया कि ट्रायल कोर्ट ने सायबाना पर धारा 303 के तहत आरोप तय किया है और उच्च न्यायालय ने धारा 302 के तहत फ़ैसले को बरक़रार रखा है। मामले में चूंकि रिकॉर्ड पर शमन परिस्थितियां दर्ज़ नहीं थी इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने धारा 302 के तहत मृत्युदंड को बरकार रखा। केस में धारा 302 कहीं से भी परिदृश्य में नहीं था और रिकॉर्ड भी उतना ही साफ़ था। जब मामले की कोई सुनवाई ही नहीं हुई तो शमन परिस्थितियां कैसे मौजूद हो सकती है? इसके बावज़ूद कि सुप्रीम कोर्ट ने बाद में मामले को PER INCURIAM (यानी जिस मामले का कोई वैधानिक प्रावधान न हो और नही किसी पुराने फैसले से उसके तार जुड़ते हो) बताया और 14 जजों ने राष्ट्रपति से लिखकर क्षमादान का समर्थन किया, राष्ट्रपति ने उसकी क्षमाचायना को अस्वीकार कर दिया। 

फांसी किसको मिलती है, ज़रा अमेरिका के आंकड़े देखिए।
भारत के मामले में ब्लैक को दलित-अल्पसंख्यक-
आदिवासी-ग़रीब पढ़िए
अब राजीव गांधी हत्याकांड पर आते हैं। ट्रायल कोर्ट में 26 लोगों पर राजीव गांधी की हत्या का मुकदमा चला। सभी 26 लोगों को दोषी पाया गया और सबको मौत की सजा सुनाई गई। उनपर टाडा के तहत आरोप तय किए गए, जहां से हाई कोर्ट में अपील का कोई प्रावधान नहीं था क्योंकि वो फास्ट ट्रैक कोर्ट की तरह काम कर रहा था। इसलिए मामला सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड की सजा पाए 26 में से 19 लोगों को बरी कर दिया। पहले सुनाए गए फैसले और बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बीच के विशाल अंतर को देखिए! न्यायव्यवस्था में कुछ तो भयानक गड़बड़ी है कि पहले यह 26 लोगों के नाम मौत की सजा का फरमान जारी करती है और पहली चुनौती में ही 19 को दोषमुक्त बताती है। बचे हुए सात लोगों में से चार को सुप्रीम कोर्ट ने मृत्युदंड सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक उनमें से एक लड़के का दोष महज इतना है कि उसने उन लोगों के लिए 14 वोल्ट की बैटरी लाने का काम किया जिन्होंने धानू में बम प्लांट किया था। 

मैंने पहले ही ये कहा है कि सामान्य क़ानून के तहत आत्म-स्वीकृति को सबूत के तौर पर नहीं स्वीकारा जाता लेकिन टाडा जैसे विशेष क़ानून के तहत आरोपी की स्वीकृति को सबूत समझा जाता है। राजीव गांधी हत्या मामले में इन सात लोगों की आत्म-स्वीकृति को रिकॉर्ड किया गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को माना कि वहां पर टाडा के तहत गिने जाने वाले अपराध को नहीं माना जाएगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें टाडा से मुक्त कर दिया। अब अगर टाडा उन पर लागू ही नहीं होता तो उनकी आत्म-स्वीकृतियों को भी बतौर सबूत ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा 'नहीं'। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि चूंकि उन्हें टाडा के तहत पकड़ा गया है और टाडा यह कहता है कि आत्म-स्वीकृति को दोष साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है इसलिए उसे पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता। तो कल को आप एक ऐसे चोर को टाडा के तहत दोषी मानते हुए पकड़ते हैं, जिनपर और कोई दूसरे आरोप न हो, तो टाडा के अलावा चोरी के तहत दोषी पाए जाने पर उनका क्या करेंगे? इस तरह के जजों की तर्क पद्धति यही है कि उन्हें आतंकवाद के मामलों से तो बरी कर दिया जाए लेकिन चोरी की सजा मिले!

मनमाना होने के अलावा मृत्युदंड भेदभाव से भी भरा हुआ है। जस्टिस कृष्णा ने राजेंद्र प्रसाद के मामले में ये महसूस किया कि मृत्युदंड में वर्गीय नज़रिया शामिल था। जिन 12 निर्दोष क़ैदियो को फांसी हुईं उनमें से 12 का मुकदमा सरकारी ख़र्चे पर लड़ा जा रहा था। आम तौर पर मृत्युदंड वाला मामला 6-9 महीनें तक खिंचता है। ज़्यादातर जगहों पर सरकारी वक़ीलों को एक मृत्युदंड के मामले में 500 से 2000 रुपए भुगतान किए जाते हैं, ट्रायल और हाई कोर्ट में यही दर है। सुप्रीम कोर्ट में अपील जाने पर उन्हें 4000 रुपए दिए जाते हैं। दशकों से यह फीस यहीं पर अटकी हुई है और इसमें आने-जाने और विविध मदों में होने वाले ख़र्चों को शामिल नहीं किया जाता। क़ानूनी सहायता के नियम के मुताबिक़ मृत्युदंड के हर मामले में किसी वरिष्ठ वकील को केस लड़ने का प्रावधान है, लेकिन विरले ही ऐसा हो पाता है। नए अनुभवहीन रण बांकुड़ों को केस की लगाम थमाकर अनुभवी अहाते से बाहर खड़े रहते हैं। इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि जिस कोर्ट में अपील होती है वो ज़्यादातर ऐसे मामलों को वापस ट्रायल कोर्ट में भेज देती है, क्योंकि वहां पर क़ैदी का ठीक तरीके से बचाव ही नहीं होकर आता। लेकिन इनमें से ज़्यादातर मामलों में जहां-तहां दरार पड़ी होती है। इसलिए ये चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि फैसलों में लापरवाही, ग़लत तरीके से आरोप तय करने से लेकर फ़ांसी तक की सजा को (सरकारी) क़ानूनी सहायता से नहीं लड़ा जा सकता। मृत्युदंड के ऐसे क़ैदी जो ग़रीबी की मार झेल रहे हो उन्हें मामूली सरकारी चंदे वाली क़ानूनी सहायता देकर फिर से उस चक्र में झोंक दिया जाता है।  

संविधान में हरेक नागरिक को क़ानून से सामने समानता का अधिकार हासिल है, जिसका मतलब है कि किसी की वित्तीय क्षमता को ध्यान में रखे बग़ैर मुकदमा में सबको समान फ़ैसला मिलेगा। अदालत को इस वायदे का निर्वाह करना चाहिए क्योंकि न्यायिक वैधानिकता की वो जड़ है। चूंकि मृत्युदंड में अब तक ऐसी समानता, स्थिरता और साफ़गोई देखने को नहीं मिली है, इसलिए इसका उन्मूलन होना चाहिए। नहीं तो, ईर्ष्या के एवज में हुई हत्या और न्यायिक हत्या में क्या फ़र्क रह जाएगा?   

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अब तीसरे भाग की तरफ़ चलते हैं। फांसी देने के तरीकों पर बात करते हैं। ऐतिहासिक तौर पर क्षमादान की शक्ति प्रभु वर्ग के हाथ में निहित है। इस शक्ति को बनाए रखने का यह बेहतर तरीका है। ये एक जरिया है ताकि न्यायिक प्रशासन की ग़लतियों को भी दुरुस्त किया जा सके। ग़ुस्सैल फ़ैसले पर ठंडा पानी छिड़कने के लिए यह प्रावधान है। न्याय के अर्थ का दायरा जिस हद तक व्यापक है वहां तक क़ानून नहीं पहुंच सकता। इसलिए इस शक्ति को बनाए रखना ज़रूरी भी है। यही वजह है कि लगभग सारे देशों के पास क्षमादान की व्यवस्था है। लेकिन अगर क्षमादान की शक्ति के इस्तेमाल के तौर-तरीकों पर नज़र दौड़ाएं तो आप पाएंगे कि सरकार के लिए अलग-अलग तात्कालिक मुद्दों से मुंह चुराने के लिए यह हथकंडे के तौर पर उभरी है। आप अजमल कसाब की फांसी के समय को देखिए। आप सिर्फ़ समय को देखते रहिए। अजमल, अफ़जल सबके समय को। 2001 में संसद पर हुआ, 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया, 2013 में अफ़जल को फांसी पर लटकाया गया। आठ साल बाद और संयोग से आज ही (9 फरवरी)। मैं यह कह सकता हूं कि संसद भवन पर हमले के जुर्म में उसे फांसी नहीं दी गई है। आठ साल से क्षमा चायिका को लंबित रखा गया और आज उस समय, जब यूपीए सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा, अपराध सहित कई मोर्चों पर बीजेपी पीछे धकेल रही है, अचानक उसे फांसी चढ़ा दी गई। संसद का सत्र इस बार भी जल्द ही शुरू होने वाला है, ठीक वैसे ही जैसे कसाब की फांसी के बाद हुआ था।  
मृत्युदंड-विरोधी आंदोलन दुनिया के कई देशों में लंबे समय से चल रहा है।

फांसी के तरीकों और निहितार्थ पर सवाल ज़रूर उठने चाहिए। संविधान की धारा 21 अपरिहार्य रूप से सारे मनुष्य पर लागू होती है, उन पर भी जो भारत का नागरिक नहीं है। अनुच्छेद 21 कहता है कि क़ानूनी रूप से स्थापित प्रक्रियाओं के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसकी ज़िंदगी और निजी आज़ादी से बेदख़ल नहीं किया जा सकता। और सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़ वो क़ानूनी प्रक्रिया निष्पक्ष, उचित और तर्कसंगत होनी चाहिए। अगर आप किसी व्यक्ति की ज़िंदगी लेने जा रहे हैं तो आप इन क़ानूनी प्रक्रियाओं के तहत ही ऐसा कर सकते हैं। क़ानूनी तौर पर ये प्रक्रिया क्या है? इस मुद्दे पर सरकारी नियम कहता है कि जब कोई क्षमा याचिका दायर की जाती है तो उस याचिका को ख़ारिज करने के बाद उस व्यक्ति को सूचित किया जाना चाहिए जिसने वो याचिका दायर की है। क़ैदी और परिवार के सदस्यो को याचिका ख़ारिज किए जाने और फांसी की तारीख़ के बारे में पहले से सूचित किया जाना चाहिए।  

कसाब के मामले में जब याचिका ख़ारिज की गई तो एक पत्रकार ने इस मामले पर आरटीआई किया और ख़ारिज किए जाने के एक दिन बाद उन्हें लिखित में जवाब आया कि वो मामला अभी भी लंबित है! ऐसे झूठ बोलने की ज़रूरत क्यों है? एक सरकार को झूठ नहीं बोलना चाहिए। ख़ुद सरकार द्वारा तय की गई प्रक्रिया का उल्लंघन करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ती है? सरकार के पास पहले से जब कसाब को फांसी देने के न्यायिक वारंट मौजूद है तो बिना उसके परिवार को इत्तला किए और दुनिया को अंधेरे में रखकर वो क्यों फांसी दे रही है? उसके पास उसके परिवार का पता मौजूद है। बड़ी तादाद में लोगों ने कसाब के लिए क्षमादान की याचिका लगाई। उन्हें इस बात की कोई भनक तक नहीं है कि उनकी याचिका ख़ारिज की जा चुकी है। नियम के मुताबिक़ याचिकाकर्ता को ये सूचना अनिवार्य तौर पर दी जानी चाहिए। नियम ऐसा क्यों कहता है? क्योंकि अंतिम सांस तक किसी व्यक्ति को न्यायिक उपचार का अधिकार हासिल है और सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़ अगर दया याचिका को ख़ारिज किए जाने में लंबा वक़्त लगता है तो वह फिर से सुप्रीम कोर्ट जाकर अपने मृत्युदंड को माफ़ करने के लिए अर्जी लगा सकता है। अगर अधिकार मौजूद है तो उसका इस्तेमाल होने देना चाहिए। इसलिए याचिका ख़ारिज किए जाने और फांसी की तारीख़ के बीच के खंड में आरोपी इस अधिकार का इस्तेमाल करता है। लेकिन अजमल कसाब और अफ़जल गुरु, दोनों को यह मौका नहीं दिया गया। कसाब की फांसी के बाद केंद्रीय गृह मंत्री और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने आधिकारिक तौर पर ये कहा कि उन्होंने कसाब को गुपचुप फांसी इसलिए दी क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि लोग कोर्ट का रुख करे।    
   
अफ़जल गुरु की फांसी के बाद गृह मंत्री ने इसे फिर दोहराया। लोकतंत्र के लिए यह एक हैरतअंगेज़ कथन है। देश के गृह मंत्री द्वारा विधि सम्मत नियम की यह बेशर्म उपेक्षा है। क्या हम पुलिस राज्य में नहीं तब्दील होते जा रहे हैं? अफ़जल गुरु के पास पत्नी थी, परिवार था और वो भी दिल्ली से बहुत दूर नहीं। विधि संहिता द्वारा एक क़ैदी को उनसे मिलने का जो अधिकार प्राप्त है उससे उनको वंचित नहीं किया जाना चाहिए। पहले कसाब के साथ उन्होंने ऐसा किया और अब अफज़ल गुरु के साथ।    

हाल ही में ये दिखाने के लिए कि वो महिला अधिकार को लेकर कितने सचेत और अपराध पर कितने अड़ियल है, भूतपूर्व सब इंस्पेक्टर और हमारे मौजूदा गृहमंत्री ने गौरवान्वित भाव से ये कहा कि वे किसी भी बलात्कारी के मृत्युदंड की क्षमा चायिका को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। जाहिर है, इससे महिलाओं के लिए सड़कें ज़्यादा महफ़ूज हो जाएंगी, ठीक वैसे ही जैसे कसाब को फांसी चढ़ाने से भारत पर आतंकवादी हमले बंद हो गए और जिस तरह सायबाना और दास को फांसी चढ़ाने से दोहरी हत्याकांड देश से विलुप्त हो जाएंगी! फांसी और इसके समर्थन में उठी आवाज़ें राजनेताओं के लिए रंगमंच की सामग्री का काम करती है और इस बिनाह पर वो दावा करते हैं कि अपराध पर वो बेहद सख़्त हैं। अपराध के कारणों की तह तक पहुंचने और भविष्य में किसी भी तरह के हमलों से बचने के लिए सुरक्षा के जो अनिवार्य, लेकिन मुश्किल और जटिल, तरीके हो सकते हैं उनपर तवज्जों देने और उसे सुलझाने के बजाए एक व्यक्ति के जीवन का दांव लगाकर बेहद आसान और सस्ते तरीके से लोगों के ग़ुस्से को ये कहकर शांत कर दिया जाता है कि इन समस्याओं से निजात दिलाने के लिए ऐसे कदम की सरकार को दरकार है! 

वास्तव में मृत्युदंड ध्यान भटकाव का एक ठोस तरीका है ताकि सरकार ऐसे मुद्दों से लोगों का ध्यान हटा सके जिनपर चर्चा सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। यह लोगों के भीतर अपनी सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए जो ख़ून की भूख उठती है उसे तुष्ट करने का जरिया है। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि एक व्यक्ति की मौत से मौजूदा समस्या शांत नहीं होती और न ही स्थाई तौर पर किसी भी मामले का निदान होता है, अलबत्ता इससे मामला ढंक-छिप ज़रूर जाता है। राज्य-समर्थित फांसी विपत्ति के समय ख़ून की हमारी प्यास को बुझाने के अलावा और कुछ नहीं करती। ख़ून के इस प्यास को बुझाने की कवायद और राज्य द्वारा किसी अपराधी को बधिया करने जैसे सजा के नए ख़यालात हमारे समाज से हिंसा ख़त्म करने की बजाए हमें और ज़्यादा हिंसक समाज में तब्दील कर देगा। अगर हमें नैतिक और करुणादायक समाज के रूप में ख़ुद को विकसित करना है और अपने बच्चों के सामने कम हिंस्र समाज का मॉडल ले जाना है तो हमें अपने भीतर से ऐसे ख़ूनी प्रतिकार के भाव को तजना होगा। 

एक फांसी के पीछे के सच हैं: न्यायिक चूक, मनगढ़ंत सबूत और कार्यान्वयन में हेरा-फेरी। इन्हीं तीन के मिश्रण से फांसी संपन्न होती है। मौत की सजा आम तौर पर रहस्यमयी क़ानूनी जिरह के बाद मटमैले कोर्टरूम में सुनाई जाती है जिन्हें समझना आम आदमी के लिए बेहद मुश्किल है। फिर ऊंची दीवारों से घिरे जेल परिसर में इसे अंजाम दिया जाता है। हालांकि व्यक्ति को मारकर सजा देने के राज्य के अधिकार पर ख़ूब चर्चा हुई हैं, लेकिन क़ैदी को जेल की खोली से फांसी के चबूतरे तक ले जाने की प्रक्रिया अभी भी गुप्त है। चूंकि हमारे नाम पर फांसी दी जाती है, इसलिए इसे जानने और अपनी पसंद तय करने का हमें पूरा हक़ है 
   
*युग मोहित चौधरी मुंबई उच्छ न्यायालय में अधिवक्ता हैं और भारत में मृत्युदंड के ख़िलाफ़ सक्रिय तौर पर अभियान चलाने वाले गिने-चुने लोगों में शुमार हैं।

**शाहिद आज़मी की 11 फरवरी 2010 को 32 साल की उम्र में उसके दफ़्तर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई। उस वक़्त शाहिद आतंकवाद से जुड़े मसलों का केस लड़ रहे थे, जिनमें मालेगांव धमाकों में झूठे आरोप लगाकर पकड़े गए और 26/11 मुंबई हमलों के आरोप में गिरफ़्तार किए गए लोगों के मामले शामिल थे।   

इस व्यवस्था को टूटना ही है: अरुंधति राय



हमारे इस दौर में अरुंधति राय एक ऐसी विरल लेखिका हैं जो सरकारी दमन, अन्याय और कॉरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ पूरी निडरता और मुखरता के साथ लगातार अपनी कलम चलाती रहती हैं। वह समाज के सबसे वंचित, शोषित और हाशिए पर खड़े लोगों के साथ पूरे दमखम के साथ खड़ी रहती हैं। प्रस्तुत है पूंजीवाद, मार्क्सवाद, भारतीय वामपंथ, भारतीय राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर उनसे  नरेन सिंह राव की बातचीत। समयांतर के फरवरी, 2013 के विशेषांक में प्रकाशित. 


आज के दौर में आप बराबरी पर आधारित समाज के विचार को कैसे देखती हैं?

मेरे ख्याल में बहुत कम लोग इसके बारे में सोचते हैं। 1968-69 में जब पहला नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था या बराबरी पर आधारित समाज के बारे में जो पूरी सोच थी, लोग कहते थे कि भूमि खेतिहर को मिलनी चाहिए यानी जिनके पास जमीन है उनसे छीनकर जिनके पास नहीं है उनको दे दो। वह पूरी सोच अब बंद हो गई है। अब केवल यह है कि जिसके पास थोड़ा बहुत बचा है उसे मत छीन लीजिए। इससे क्या हुआ है कि अल्ट्रा लेफ्ट, जिसे नक्सलवादी या माओवादी कहते हैं, वे भी इससे पीछे हट गए हैं। वे लोग उन लोगों के लिए लड़ रहे हैं जिनसे राज्य ने उनकी जमीन छीन ली है। दरअसल, ये वे लोग हैं जिनके पास जमीन है। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, जो शहरी गरीब हैं तथा दलित हैं और जो पूरी तरह से हाशिए पर खड़े मजदूर हैं, उनके बीच में अभी कौन-सा राजनीतिक आंदोलन चल रहा है? कोई भी नहीं चल रहा। जो रेडिकल मूवमेंट हैं वो ये वाले हैं जो गांववाले बोलते हैं - हमारी जमीन मत लो। जिनके पास जमीन नहीं है, जो अस्थायी मजदूर हैं या जो शहरी गरीब हैं, वे राजनीतिक विमर्श से बिल्कुल बाहर हैं। बराबरी पर आधारित समाज के मामले में हम सत्तर के दशक से बहुत पीछे जा चुके हैं, आगे नहीं। नवउदारवाद की पूरी भाषा, जिसे ट्रिकल डाउन कहते हैं (जो कुछ बचा खुचा है वह उनको ले लेने दो), उसको (भाषा) ही देख लीजिए। बराबरी पर आधारित समाज के विचार की जो भाषा है वह मुक्कमल है। अगर आप कम्युनिस्ट नहीं हैं और पूंजीवादी हैं, तो अभी जो हो रहा है वह पूंजीवादी लोग भी नहीं करते हैं। जहां प्रतिस्पर्धा के लिए एक-सा मैदान होता है, वह है ही नहीं अब। जो धंधे वाले (व्यापारी) लोग हैं उनको कॉरपोरेट ने किनारे लगा दिया है। छोटे व्यापारियों को मॉल्स ने किनारे कर दिया है। यह पूंजीवाद नहीं है। यह पता नहीं क्या है? यह कुछ और ही चीज (ऑर्गनिज्म) है।

लेखिका और एक्टिविस्ट के बतौर आप मार्क्सवाद को किस तरह देखती हैं?

पहली बात यह कि मैं अपने आप को लेखिका ही समझती हूं, न कि एक्टिविस्ट। ऐसा इसलिए कि इन दोनों से खास तरह की सीमाएं निर्धारित होती हैं। एक वक्त था जब लेखक हर बात पर अपनी राय रखते थे और समझते थे कि यही उनका फर्ज है। आजकल लिटरेरी फेस्टिवल में जाना उनका 'फर्ज' बन गया है। एक्टिविस्टों को लेकर वे समझते हैं कि उनका काम कुछ हटकर है, जिसमें गहराई नहीं है। काम का ऐसा बंटवारा मुझे पसंद नहीं है।

मैं मार्क्सवाद को एक विचारधारा के रूप में देखती हूं। एक अद्भुत विचारधारा जिसके मूल में समानता निहित है, न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर बल्कि प्रशासकीय तौर पर भी। अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में जीवन की जटिलताओं को मार्क्सवाद के नजरिए से देखा जाए तो कई सारी समस्याएं देखने को मिलती हैं। लेकिन मार्क्सवादी नजरिए से जाति से नहीं निपटा गया है। आमतौर पर वे (कम्युनिस्ट) कहते हैं कि जाति ही वर्ग है, लेकिन वास्तव में जाति हमेशा वर्ग नहीं है।

जाति वर्ग हो सकती है, क्योंकि मेरी राय में कई सारे रेडिकल दलित बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद का आलोचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया है, जो आंबेडकर की डांगे के साथ बहस के समय से ही शुरू हो चुका था। लेकिन मेरी राय में आज भी रेडिकल लेफ्ट ने इस मुद्दे को सुलझाने का रास्ता नहीं खोजा है। क्यों ऐसा है कि रेडिकल लेफ्ट, माओवाद और पूरा का पूरा नक्सलवादी आंदोलन (जिसके लिए मेरे मन में बहुत इज्जत है), सिर्फ जंगलों और आदिवासी इलाकों में ही सबसे मजबूत है, जहां लोगों के पास जमीनें हैं? उनकी रणनीति और कल्पनाशीलता शहरों तक क्यों नहीं पहुंच पाई है? इन सीमाओं के कारण दलित एक बार फिर से कट गए हैं। जब मैं दलितों की बात कर रही हूं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वहां सब कुछ साफ है। जो लोग अपने को दलित कह रहे हैं उनके अंदर भी बहुत भेदभाव है। तब इन मुद्दों से रू-ब-रू होने में, हमारी भाषा में- किस तरह का पैनापन होगा जिससे कि ये अस्मिताओं के संघर्ष में तब्दील होकर न रह जाए। हम कितने खुश थे जब वर्ल्ड सोशल फोरम में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि करोड़ों लोग कुंभ मेले में भी जाते हैं। अगर सिर्फ जन सैलाब को देखा जाए तो इस हिसाब से यह सबसे बड़ा आंदोलन है! या फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है! बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस, विहिप और शिवसेना जैसी दक्षिणपंथी ताकतों और आमजन के भीतर फासीवादी प्रवृत्ति पर हमने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। ये सिर्फ सरकार, आरएसएस और बीजेपी की बात नहीं है। हर रोज, हर जगह, हर गली-नुक्कड़ में, मीडिया में यही विमर्श चल रहा है। ऐसा क्यों है कि धर्म, जाति और अस्मिता के सवाल पर लोगों की चेतना को द्रुत गति से लामबंद किया जा सकता है (ऐसा गुर्जर आंदोलन में हमने देखा), लेकिन मुंबई में रहने वाले शहरी गरीब कभी लामबंद नहीं होते। वहां सब कुछ या तो बिहारी बनाम मराठी होता है या फिर यूपी बनाम ठाकरे। भारत एक ऐसा समाज या राष्ट्र है जो लगातार कॉरपोरेट पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, लेकिन प्रतिरोध के स्वर को धर्म, जाति, भाषा और अस्मिताओं के आधार पर आसानी से बांट दिया जा सकता है। जब तक हम साझा प्रतिरोध के विचार से रू-ब-रू नहीं होंगे, स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। मैं यह नहीं कह रही कि सब लोगों को हाथ पकड़े रहना होगा, क्योंकि ढेर सारे आंदोलन एक साथ नहीं आ सकते। लेकिन कुछ मुद्दों पर उनमें समानता होगी। भारत में जो सबसे एकजुट ताकत है, उसके बारे में मेरा मानना है कि वो उच्च हिंदू जाति का मध्यवर्ग है। ये लोग किसी भी वामपंथ या वामपंथी, (जिसकी विचारधारा ही एकता पर आधारित है) से कहीं ज्यादा एकजुट हैं।

जो लोग हाशिए पर हैं उनका राजनीति से लगातार मोहभंग होता जा रहा है। इसके मद्देनजर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के भविष्य को लेकर आपकी क्या राय है?

देखिए, मैं इतनी आसानी से नहीं मान सकती कि उन लोगों का मोहभंग हो गया है। हम चाहते हैं कि उनका मोहभंग हो जाए! लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। अभी भी वे बहुत बड़ी संख्या में वोट देने आते हैं। हम लोग कहते रहते हैं कि ये सभी एक ही हैं, ये पार्टी या वो पार्टी। लेकिन लोगों में अभी भी एक उत्साह है, यह मानना ही पड़ेगा। किसलिए है, उनकी उम्मीदें क्या हैं? उनकी उम्मीदें शायद ये नहीं हैं कि जिंदगी बदल जाएगी या देश बदल जाएगा या पूंजीवाद खत्म हो जाएगा। उनका सपना है कि यहां नल लग जाएगा, हॉस्पिटल खुल जाएगा आदि। हालांकि चुनावी प्रक्रिया से तो मैं उम्मीद नहीं रखती हूं, लेकिन जनता गहरी उम्मीद रखती है। वे वोट डालने आते हैं, हमको मानना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत (पॉलिटिकल फोर्स) को यूं ही खारिज नहीं कर सकते। आजकल की बहसें देखिए - भ्रष्टाचार के खिलाफ या आम आदमी पार्टी को लेकर है। मैं उनसे पूछती रहती हूं कि जो जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है वह अगर कोई रैली करेगा तो उसको सुनने के लिए लोग गाड़ी से उतरकर पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं। लोग अच्छे लोगों के लिए वोट नहीं देते हैं। वे वोट क्यों दे रहे हैं, किसको दे रहे हैं- सभी भ्रष्टाचार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। हम लोग वही सोचते हैं जो हम लोगों को सोचते हुए देखना चाहते हैं या जो हमें अच्छा लगता है! यह बहुत दूर की कल्पना है कि लोगों का मोहभंग हो गया है। बहुत अधिक भ्रष्टाचार के बावजूद लोग इस चुनावी प्रक्रिया में पूरी तरह शरीक होते हैं। लोग इसको अच्छी तरह से देख भी सकते हैं, फिर भी वे इसमें भागीदारी करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि ये लोग बेवकूफ हैं। ऐसा बहुत सारे जटिल कारणों की वजह से है। मैं मानती हूं कि हमें निश्चित तौर पर अपने आपको बेवकूफ बनाना छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हम कुछ चीजें जानते हैं, इन चीजों की लोगों के वोट डालने में या नहीं डालने में कोई भूमिका नहीं है। जो मैं सोचती हूं वह यह है कि हमारे सामने कोई खूबसूरत-सा विकल्प खड़ा नहीं होने वाला है। चलो इसको वोट देते हैं, वह व्यवस्था को बदलेगा। ऐसा नहीं होने वाला है। व्यवस्था इतनी जमी हुई है- कॉरपोरेट, राजनीतिक दल, मीडिया जैसे रिलायंस के पास 27 टेलीविजन चैनल हैं, किसी और के पास अखबार हैं। मुझे लगता है कि इससे क्या होगा? इससे यह होगा कि बहुत ज्यादा लंपटीकरण और अपराधीकरण बढ़ेगा। जैसे अभी जो छत्तीसगढ़ और झारखंड में चल रहा है। वहां राजनीति, विचारधाराओं, बहसों और संरचनाओं में एकरूपता दिखती है। लेकिन जैसे आप सबको शहर की ओर भगाएंगे, उनका आप अपराधीकरण करेंगे, जैसे इस बलात्कार की घटना के बाद मनमोहन सिंह ने साफ-साफ कहा कि हमें इन नए प्रवासियों से, जो शहरों में आते हैं, सावधान रहना पड़ेगा। पहले आप उन्हें शहरों की तरफ धकेलते हैं और फिर उनका अपराधीकरण करते हैं। इन स्थितियों में फिर आपके लोग ज्यादा पुलिस, सुरक्षा और ज्यादा कड़े कानून की बात करते हैं। एक बार अपराधीकरण होने के बाद फिर उनको अपराधियों की तरह व्यवहार करना ही पड़ता है। उनके पास कोई कानून और काम नहीं है। आप एक ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जहां लोगों के व्यापक हिस्से का अस्तित्व नहीं होना चाहिए। यह गलत है। अब ऐसे में वामपंथ क्या करने वाला है, क्योंकि जिसे हम अल्ट्रा लेफ्ट कहते हैं वो जंगलों में फंसा हुआ है, आदिवासी आर्मी के साथ। बुद्धिजीवी लोगों के लिए यह कहना बिल्कुल जायज और आसान है कि वे पेरिस कम्यून जैसा सपना देख रहे हैं। उनमें से बहुत सारे लोग तो जानते ही नहीं है कि जगदलपुर, भोपाल अस्तित्व में हैं। लेकिन नक्सली लड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं। यह हो सकता है पार्टियां, आप और मैं विचाराधारत्मक रूप से उनसे सहमत न हों। लेकिन जंगल के बाहर वामपंथ क्या कर रहा है? जब मार्क्स  सर्वहारा के बारे में बात करते हैं, तो उनका सर्वहारा से मतलब मजदूर वर्ग है। ज्यादातर जगहों पर मजदूरों की संख्या को कम करने की पूरी कोशिश की जा रही है। वहां पर रोबोट्स और उच्च तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। अब श्रमिकों की तादाद वह नहीं बची है जो हुआ करती थी - क्लासिक सेंस में। तो, इस नए दौर में बहुत ही विशेषाधिकर प्राप्त श्रम शक्ति (वर्कफोर्स) है, उदाहरण के लिए मारुति में काम करने वाले श्रमिकों को ले सकते हैं। लेकिन, उनके साथ क्या हुआ - वहां वाम क्या कर रहा है? वाम के पास उनको कहने के लिए कुछ नहीं है। नक्सल क्षेत्रों के बाहर ऐसा कोई लेफ्ट नहीं है जो इन चीजों के साथ लड़ रहा है। मैं नहीं जानती कि आप उनका राजनीतिकरण कैसे करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में शहरी गरीब हैं जिन्हें कोई विधिवत काम नहीं मिला है, जो श्रमिक (वर्कर्स) नहीं हैं। उन्हें सांप्रदायिक तत्त्वों के द्वारा कभी भी बरगलाया और भड़काया जा सकता है। उन्हें कभी भी एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है।

क्या आपको लगता है कि भारत फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है? 

मुझे लगता है कि यह सवाल आपने पांच साल पहले पूछा होता तो मैं कहती कि बढ़ रहा है। अब मैं यह नहीं कहूंगी कि यह बढ़ रहा है। उसके सामने यह पूरा कॉरपोरेट और मध्य वर्गीय अभिजात्य है। उनका नरेंद्र मोदी की तरफ जो यह रुझान (शिफ्ट) है, यह एक फासीवाद से दूसरे फासीवाद की तरफ जाना (शिफ्ट) है। वहां एक तरफ अनिल अंबानी और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी बैठकर यह कहते हैं कि यह (मोदी) राजाओं का राजा है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह बदल गया है। जबकि, हकीकत यह है कि वह एक तरह के फासिस्ट से दूसरी तरह का फासिस्ट बन गया है। मुझे लगता है कि आजकल यह हो गया है कि बहुत बड़ी संख्या में मध्य वर्ग को पैदा किया गया है। उनके मन में, उनके सपनों में एक पुच्छलतारे का मार्ग (ट्रेजेक्टरी) बनाया गया है, जिससे वे उधर से इधर आएं और अब बिल्कुल ठहर गए हैं। जहां आगे कोई रास्ता नहीं है। और अब यह गुस्सा अलग-अलग तरह से फूटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन मैं इससे बहुत आहत होती हूं।

हाल के दिनों में हुए आंदोलनों का क्या भविष्य है? जैसे अण्णा हजारे ... 

अण्णा हजारे तो दफ्तर बंद करके चले गए। जब ये लोग बिना कोई काम किए हुए टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में अपने मूवमेंट का निर्माण करते हैं तो उनका क्या भविष्य हो सकता है? जब टेलीविजन चैनल चाहेंगे तो उन्हें आगे बढ़ाएंगे! जब उन्हें कोई खतरा नजर आएगा तो इन आंदोलनों को बंद कर देंगे। उसमें क्या है? मसलन आम आदमी पार्टी को देखिए! जिसने एक बार रिलायंस का जिक्र किया और टांय-टांय फिस्स। जब मीडिया उनका (कॉरपोरेट) है तो आखिर आप वहां कैसे हो सकते हैं? मतलब थोड़ा तो आगे सोचना चाहिए ना! ऐसे तो होगा नहीं। यह जो बचपना है, यह कैसे चलेगा? मतलब, ये इतना हो-हल्ला मचा के रखते हैं कि अगर कोई इनके खिलाफ बोलेगा तो सिद्ध करेंगे कि वह या भ्रष्टाचार के समर्थन में है या फिर बलात्कार के समर्थन में है। क्या इनके पास जरा-सी भी समझ नहीं है राजनीतिक इतिहास की? इसमें कुछ लोग अच्छा काम करते हैं। वे कोशिश करते हैं इसको आगे अंजाम देने की। लेकिन मेरे ख्याल में जहां पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है वह हमें बहुत उत्तेजित करता है, लेकिन लोग उस नजरिए से चीजों को नहीं देख रहे। वे नहीं समझते कि हर विरोध प्रदर्शन यकीनन प्रगतिशील और क्रांतिकारी नहीं हो सकता। हर जन आंदोलन महान नहीं होता। जैसे मैं अक्सर कहती हूं कि इस देश में सबसे बड़ा आंदोलन बाबरी मस्जिद का विध्वंस है, जिसको वीएचपी और बजरंग दल ने चलाया। जैसे जब लड़की का बलात्कार हुआ था, उस हफ्ते दो-तीन दिन आगे-पीछे नरेंद्र मोदी चौथी बार चुनाव जीता। अब उन्हीं टीवी चैनलों में वही लोग, जो बलात्कार के खिलाफ इतना चिल्ला रहे थे, उस आदमी (मोदी) जिसके राज में महिलाओं के शरीर को चीरकर उनकी बच्चेदानी को निकाल दिया गया, जिनका बलात्कार करके जिंदा जला दिया गया, अब (टीवी चैनल) कह रहे हैं कि इन पुरानी बातों को भूल जाओ। आप अतीत में क्यों जा रहे हैं। यह किस तरह की राजनीति है मैं नहीं समझ पाती हूं। मुझे यह समझने में बहुत दिक्कत होती है। ये बहुत ही पेचीदा, बौद्धिक और भावुक पहेली है। क्योंकि, आप तब विरोध नहीं कर सकते, जब संस्थानिक तरीके से महिला का बलात्कार होता है। नारीवाद की राजनीति बहुत ही जटिल है। जब यथास्थितिवाद के लिए बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है - चाहे वह कश्मीर हो, चाहे मणिपुर हो, चाहे नगालैंड हो या ऊंची जाति का एक आदमी दलित महिला के साथ बलात्कार कर रहा हो या हरियाणा में ऑनर किलिंग हो। इन सभी मामलों में एक ही तरह की प्रतिक्रिया आती है। ... जो बच्चियां बड़ी हो रही हैं... जवान होती लड़कियों को सड़कों पर घूमते हुए देखना कितना खूबसूरत और मनमोहक होता है। और जो हुआ वह कितना भयानक है। हम कैसे कह सकते हैं लोग बलात्कार के मामले को लेकर परेशान थे, जबकि वे सिर्फ 'इस बलात्कार' के मामले को लेकर परेशान थे। यह ठीक है, लेकिन यह खास तरह की राजनीति है! यह बहुत ही कठिन पहेली है। लेकिन इसके बारे में सोचना बहुत जरूरी है और मैं सोचती हूं कि आप लोगों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि जो चीजें उन्हें परेशान नहीं करती हैं वह उन्हें झकझोर दे। लेकिन इस वजह से बहुत बड़ी राजनीति को आप वैसे ही नहीं छोड़ सकते हैं। आप यह समझना चाहते हैं कि वह क्या है?

क्या आप मानती हैं कि नव उदारवादी नीतियां भारतीय राज्य के मूल चरित्र को उजागर करती हैं? 

देखिए, भारतीय राज्य का नहीं, बल्कि समाज का। ये नवउदारवादी नीतियां सामंती और जाति आधारित समाज के बिल्कुल मनमाफिक है लेकिन यकीनी तौर पर यह किसी गांव में फंसे दलित के लिए ठीक चीज नहीं है। यह सभी असमानताओं को मजबूत करती है, क्योंकि यह निश्चित तौर पर ताकतवर को और ताकतवर बनाती है। यही तो कॉरपोरेट पूंजीवाद है। हो सकता है कि यह शास्त्रीय पूंजीवाद की तरह न हो, क्योंकि शास्त्रीय पूंजीवाद नियमों पर चलता हो और वहां 'चेक एंड बैलेंस' का सिस्टम होता हो। लेकिन हमारे यहां इसमें ऐसा कुछ नहीं होता। यकीकन इससे ताकतवर लगातार ताकतवर बनता जाता है। और यही लोग तो बनिया हैं। यह सबसे अहम बात है जिसके बारे में कभी कोई बात नहीं करता - भारतीय बनियों की राजनीति। इन्होंने पूरे देश में क्या कर दिया है? रिलायंस एक बनिया है। वे बनिया जाति के तौर पर दृश्य से पूरी तरह बाहर रहते हैं, लेकिन वे बहुत ही अहम भूमिका अदा करते हैं। यह इन्हें बहुत मजबूत बनाता है। यही कारण है कि रिटेल में एफडीआई के मामले में भाजपा सबसे ज्यादा गुस्से में आई क्योंकि 'उनके छोटे बनिये' दांव पर लग गए हैं क्योंकि वो जाति (बनिया) उनका (भाजपा) आधार है।

दूसरी तरफ आप ग्रामीणों, आदिवासियों और दलितों के साथ कुछ भी कर दीजिए किसी के उपर कोई फर्क नहीं पड़ता।

भारतीय वामपंथ का दायरा बहुत ही सीमित दिखाई देता है। आप इसका क्या कारण मानती हैं और इसके लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं?

मुझे लगता है कि इसमें जाति एक बहुत बड़ा कारण है। अगर आप सीपीएम को देखें तो उसमें ऊपर बैठे लोग सारे ब्राह्मण हैं। केरल में भी सारे नायर और ब्राह्मण हैं। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि मार्क्स वादी विचार का बेहतरीन इस्तेमाल कैसे करें, जहां पर लोगों के साथ व्यवस्थागत तरीके से भेदभाव किया जाता है। अक्सर जब आप ऊंची जाति से आते हैं तो समस्याओं को नहीं देख पाते हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि आप खराब आदमी हैं। बस बात यह है कि आप इसे देख ही नहीं पाते। मैं एक बार कांचा इल्लैया से बात कर रही थी, जो एक समय में पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े थे। वह अकेले ऐसे आदमी थे जो अपने समुदाय में पढ़े-लिखे थे। उनके भाई ने बहुत कोशिश की कि वह उनको पढ़ा-लिखा देंखे। जबकि उनकी पार्टी चाहती थी कि वह भूमिगत हो जाएं। यह उस तरह से नहीं है कि किसी ब्राह्मण को भूमिगत हो जाने के लिए कह दें, क्योंकि उनके (ब्राह्मण) परिवार में बाकी लोग पढ़-लिख सकते हैं। इस मामले को आपको बिल्कुल ही अलग तरीके से समझना पड़ेगा।

मेरी समझ से दूसरा कारण यह है कि आप इस मुगालते में रहें कि चुनाव लड़कर राज कर सकते हैं। और फिर आप एक ही समय में राजा भी बने रहें और क्रांतिकारी भी बने रहें! यह कैसे हो सकता है। यह तो एक तरह का फरेब है!

भारत में माओवादी आंदोलन की संभावनाओं और चुनौतियों को आप कैसे देखती हैं?

माओवादी आंदोलन के लिए वहां पर बहुत अवसर हैं जहां पर वे बहुत मजबूत हैं। लेकिन अब यहां पर बहुत बड़ा हमला होने वाला है। आर्मी, एयरफोर्स सभी पूरी तैयारी में लगे हैं। शायद यह हमला 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद होगा और ये माओवादी आंदोलन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी तरफ माओवादियों ने अभी सीआरपीएफ के जवान के साथ जो किया (मृत जवान के पेट में बम डाल दिया था) वह बहुत ही वाहियात काम है। हम लोग उनका इन कारणों की वजह से समर्थन नहीं करते। मुझे नहीं मालूम है कि इस तरह का काम कैसे होता है? मुझे लगता है कि या तो उनके कमांड सिस्टम (नेतृत्व) में प्रोब्लम आ गई है या उनके साथ लंपट (लुम्पैन) लोग शामिल हो गए हैं। मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं जानती, खास तौर से झारखंड के बारे में। लेकिन इस हमले में अगर उनका अनुशासन टूटता है तो उनके लिए बहुत ही मुश्किल आ जाएगी, क्योंकि एक समय ऐसा था जब उनके साथ बहुत ज्यादा बौद्धिक और नैतिक समर्थन था, जो अब भी है। अगर आप ऐसे काम करते रहेंगे तो आपका यह समर्थन बंद हो जाएगा। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे। अगर जंगल से बाहर नहीं जा सकते तो हम सोचेंगे कि ये सिर्फ एक क्षेत्रीय प्रतिरोध है, चाहे जिसका भी हम समर्थन करें। बात यह है कि जंगल से बाहर इतनी बड़ी जो गरीबी पैदा की गई (मैनुफैक्चर्ड पॉवर्टी) है, उसको आप राजनीतिक कैसे बनाएंगे। क्योंकि लोगों के पास समय नहीं है, जगह नहीं है और ये जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे, यह बहुत बड़ा प्रश्न है।

क्या यह हो सकता है कि वे हिंसा छोड़कर चुनावी राजनीति में आएं? 

हिंसा क्या होती है? अगर छत्तीसगढ़ के किसी गांव में एक हजार सीआरपीएफ के जवान आकर गांव को जलाते हैं, औरतों को मारते हैं और बलात्कार करते हैं, तो ऐसे हालात में आप क्या करेंगे? भूख हड़ताल पर तो नहीं बैठ सकते। मैं हमेशा से यही कहती आई हूं कि जिसे बुद्धिजीवी, अकादमिक लोग, पत्रकार और सिद्धांतकार आदि एक विचारधारात्मक तर्क कहते हैं,वह मुझे टैक्टिकल लगता है। यह सब कुछ लैंडस्केप (भौगोलिक स्थिति)पर निर्भर करता है। आप छत्तीसगढ़ में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप मुंबई या दिल्ली में लड़ते हैं और मुंबई-दिल्ली में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप छत्तीसगढ़ में लड़ते हैं। इसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आप सड़कों पर गांधीवादी बन सकते हैं और जंगलों में माओवादी बनकर काम सकते हैं। गांधीवादी होने के लिए तो आपके आसपास टेलीविजन कैमरा और रिपोर्टर होना जरूरी है, अगर ऐसा नहीं है तो ये सब बेकार है। प्रतिरोध की विविधता बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि हर काम करना माओवादियों की ही जिम्मेदारी नहीं है। दूसरी तरह के लोग दूसरी चीजें कर सकते हैं। जैसे लोग मुझे कहते हैं कि वहां बांध बन रहा है, यहां ये हो रहा है... मैं उनसे कहती हूं कि यार तुम भी तो कुछ करो। मैंने तो कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारी लीडर हूं। मैं वह कर रही हूं जो मैं कर सकती हूं। और आप वह करें जो आप कर सकते हैं।

मैग्लोमेनिएकल एप्रोच नहीं होनी चाहिए कि हर काम एक ही पार्टी या एक ही इंसान या एक बड़ा लीडर करेगा। बाकी लोग कुछ क्यों नहीं करते? एक ही पर क्यों निर्भर रहना चाहते हैं? माओवादी लोग गलतियां कर रहे हैं, लेकिन बहुत बहादुरी से लड़ रहे हैं और हम लोग सिर्फ बैठकर कहते हैं कि ये लोग ऐसे हैं, वैसे हैं। अरे यार, आप भी तो कुछ करो। अगर वाकई कुछ करना चाहते हो तो।

हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, फिल्मकारों, रंग निर्देशकों के काम क्या भारतीय सच्चाई को अभिव्यक्त करते हैं? 

मैं पूछती हूं कि इंडियन रियलिटी (भारतीय यथार्थ) होती क्या है। मैं हमेशा से सोचती आई हूं कि बॉलीवुड के इतिहास में सबसे बड़ी थीम क्या है? सबसे बड़ी थीम तो प्यार है। लड़का लड़की से मिलता है और वे भाग जाते हैं... लेकिन हमारे समाज में तो यह बिल्कुल नहीं होता। सिर्फ दहेज, जाति, ये-वो और सिर्फ गणित ही गणित (कैल्कुलेशन) है। तो जो चीज समाज में है नहीं उसे हम फिल्म में जाकर देखते हैं। कहने की बात ये है कि हमारा पूरा समाज जाति के आसपास घूमने वाला छोटे दिमाग (स्मॉल माइंडिड) का जोड़तोड़ करने वाला है। हम बस लोगों को सिनेमाई पर्दे पर नाचते-गाते देखकर खुश हो जाते हैं। हमारे साहित्य का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है। इस मामले में यह बिल्कुल निरर्थक है। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं 'क्लास पोर्नोग्राफी' कहूंगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं, गैंग वॉर करते हैं। मतलब, अपने आप को बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना नहीं हो। यह ऐसा ही है जैसे गरीबों का ग्लेडिएटर संघर्ष देखना और फिर यह कहना कि ये कितने हिंसक होते हैं ! यह एक तरह की एंथ्रोपोलॉजी (नृशास्त्र) है, जहां पर आप युद्ध को बाहर से एक तमाशे की तरह देखते हैं और मजा लेते हैं। फिर एक और तरह से चीजों को महत्त्वहीन (ट्रिवीयलाइज) बनाते हैं। ये इतना 'ट्रिवियल' होता है कि आपके कान पर जूं भी नहीं रेंगती।

विश्व स्तर पर पूंजीवाद ने कमजोर समुदायों को और भी हाशिए पर तरफ धकेल दिया है। इन हालात में किस तरह के राजनातिक विकल्प उभर सकते हैं?

देखिए, मुझे लगता है कि इसका कोई भी सभ्य विकल्प नहीं है। केवल यह बात नहीं है कि सत्ता के पास सिर्फ पुलिस, सेना और मीडिया ही है, बल्कि कोर्ट भी उन्हीं के हैं। अब इनके आपस में भी 'जन आंदोलन' होने लगे हैं। और उनका अपना एक शील्ड यूनीवर्स (सुरक्षित खोलवाला संसार) है। इस सबको किसी सभ्य तरीके से बिल्कुल भेदा नहीं जा सकता। कोई सभ्य तरीके से आकर बोले कि मैं बहुत अच्छा हूं मुझे वोट दे दो, तो ऐसा हो नहीं सकता। दरअसल उनका अपना एक तर्क है। यही तर्क खतरनाक हिंसा और निराशा पैदा कर देगा। और ये गुस्सा इतना ज्यादा होगा कि ये लोग बच नहीं पाएंगे। अपने इस विशेषाधिकार के खोल में ये ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। अब अच्छा बनने में कोई समझदारी नहीं है। इस संदर्भ में मैं अब सभ्य नहीं हूं। मैं हैंडलूम साड़ी पहनकर यह नहीं कहूंगी कि मैं भी गरीब हूं! मैं बिल्कुल नहीं हूं। मैं भी इसी पक्षपाती व्यवस्था का हिस्सा हूं। मैं वह करती हूं जो मैं कर सकती हूं, लेकिन मैं यह नहीं मानती कि बदलाव एक बहुत ही खूबसूरत और शांत ढंग से आने वाला है। जो कुछ चल रहा है उसकी अनदेखी कर अब ये लोग अपने लिए ही एक खतरनाक स्थिति पैदा करने वाले हैं। मैं नहीं मानती कि हम इस बदलाव के बारे में कोई भविष्यवाणी कर सकते कि यह कैसे होने वाला है या कहां से आने वाला है। यह तय है कि यह बदलाव बहुत ही खतरनाक होगा। इस व्यवस्था को टूटना ही है, जिसने बहुत बड़े पैमाने पर अन्याय, फासीवाद, हिंसा, पूर्वाग्रहों और सेक्सिज्म (यौनवाद) को संरचनात्मक तौर पर पैदा किया है।

जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय राजनीति में हैं उनके बारे में आप क्या सोचती हैं? खास तौर पर अगर सीपीआई (भाकपा), सीपीएम (माकपा) और सीपीआई-एमएल (भाकपा-माले)जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों के संदर्भ में बात करें। 

देखिए, जब पार्टियां बहुत छोटी होती हैं, जैसे कि सीपीआई (एमएल) और सीपीआई, तो आपके पास इंटिग्रिटी होती है। आप अच्छी पॉजिशंस और हाई मॉरल ग्राउंड (उच्च नैतिक आधार) ले सकते हैं। क्योंकि आप इतने छोटे होते हैं कि इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर आप सीपीएम जैसी बड़ी पार्टी हैं तो स्थिति दूसरी होती है। अगर हम केरल और बंगाल के संदर्भ में सीपीएम की बात करें तो दोनों जगह इसके अलग-अलग इतिहास रहे हैं। बंगाल में सीपीएम बिल्कुल दक्षिणपंथ की तरह हो गई थी। वे हिंसा करने में, गलियों के नुक्कड़ों को कब्जाने में, सिगरेट वालों के खोमचे को कब्जाने में बिल्कुल दक्षिणपंथ जैसे थे। यह बहुत अच्छा हुआ कि जनता ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। हालांकि मैं निश्चिंत हूं कि ममता बनर्जी की सत्ता का दौर जल्दी खत्म हो जाएगा। दूसरी तरफ केरल में स्थिति अलग थी, क्योंकि वे सत्ता से हटते रहे हैं जो कि एक अच्छी चीज है। वे वहां पर कुछ अच्छी चीजें भी कर पाए। लेकिन इसका श्रेय पार्टी को बिल्कुल नहीं दिया जा सकता, बल्कि यह इसलिए था क्योंकि वहां पर सत्ता का संतुलन बना रहा। अगर आप देखें तो उनकी हिंसा अक्षम्य है। दूसरी तरफ जिस तरह मलियाली समाज आप्रवासी मजदूरों का शोषण कर रहा है वह बहुत शर्मनाक है। ऐसे में आप बताएं, सीपीएम अपने आप को कम्युनिस्ट पार्टी कैसे कह सकती है? जिस पार्टी ने ट्रेड यूनियनों को बर्बाद कर दिया और पश्चिम बंगाल में नव उदारवाद के साथ कदमताल मिलाते रहे। वे अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर हम सत्ता में नहीं रहेंगे तो सांप्रदायिक लोग सत्ता हथिया लेंगे। लेकिन आप मुझे यह बताएं कि क्या सीपीएम के लोग हिम्मत जुटाकर गुजरात गए? जहां खुलेआम इतनी मारकाट चल रही थी वे दुबक कर बैठे रहे। जब नंदीग्राम में लोगों को बेघर कर उजाड़ दिया गया तो वे महाराष्ट्र में आदिवासियों के साथ जाकर बैठ गए। मतलब जनता इतनी भी बेवकूफ नहीं है कि इतनी छोटी बातों को भी न समझ पाए। यह वाकई बहुत दयनीय है कि वाम (लेफ्ट) ने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है। यहां तक कि ये संसदीय राजनीति में भी खुद को नहीं बचा पाए और जिन मुद्दों पर वामपंथी स्टैंड लेने चाहिए थे, ये वो तक नहीं ले पाए। इस सबके लिए ये खुद ही जिम्मेदार हैं और इनके साथ यही होना चाहिए था। इतने सालों में ये लोग कभी पार्टी को ऊंची जातियों के वर्चस्व से मुक्त नहीं करा पाए। और आज भी आप देखें कि पोलित ब्यूरो में यही लोग भरे पड़े हैं।

अगर लेफ्ट ने जाति के मुद्दे को सुलझाया होता, ईमानदारी से काम किया होता, इनके पास दलित नेता और बुद्धिजीवी होते और अगर ये पूंजीवाद की जगह लेफ्ट की भाषा बोलते तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस देश में लेफ्ट आज कितना मजबूत होता? ये लोग अपनी जातीय पहचान को कभी नहीं छोड़ पाए। और इनकी निजी जिंदगी के बारे में ही तो मेरा उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स है।

वर्तमान हालात में कम्युनिस्ट पार्टियों का क्या भविष्य है? 

देखिए, मैं सीपीआई-एमएल, आइसा से कभी-कभी सहमत होती हूं। ये लोग शहरी गरीबों के बीच काम करते हैं। बिहार में ये जाति के सवाल के हल करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये सफल नहीं हो रहे हैं क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि इनकी ताकत बहुत ही सीमित है और ये हाशिए पर हैं। लेकिन बहुत सारी चीजें जो ये कहते हैं, उनका मैं सम्मान करती हूं। मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती कि ये कैसे इतने हाशिये पर (मार्जिनलाइज्ड) रह गए और खुद को अप्रासंगिक बनाकर छोड़ दिया। मुझे माओवादियों और लिबरेशन के बीच विचारधारात्मक युद्धों को देखकर बहुत दुख होता है। इन लोगों ने टैक्टिक्स को विचारधारा के साथ जोड़कर भ्रम पैदा कर रखा है। सीपीआई (एमएल) के लोग जंगल के बाहर रहकर काम करते हैं और यह जरूरी नहीं कि वे हथियारों के साथ ही काम करें। लेकिन सीपीआई (एमएल) की राजनीति छत्तीसगढ़ में काम नहीं कर सकती। फिर आप देखिए कि अपने हाथों से इन्होंने खुद को हाशिए पर धकेल दिया है। ये छत्तीसगढ़ में माओवादियों के साथ गठजोड़ कर सकते थे। लेकिन ये राज्य से नफरत करने के बजाय एक दूसरे से ज्यादा नफरत करते हैं और अपना समय गंवाते हैं। जो कि कम्युनिस्टों की एक बड़ी खासियत है!

और सीपीएम किस तरफ बढ़ रही है...

सीपीएम बाकी संसदीय पार्टियों की तरह ही है। जिसे देखकर यह बिल्कुल नहीं लगता कि ये किसी भी तरीके से कम्युनिस्ट पार्टी है।

(नरेन सिंह राव मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं और सिनेमा तथा साहित्य में दखल रखते हैं।)

इस व्यवस्था को टूटना ही है: अरुंधति राय



हमारे इस दौर में अरुंधति राय एक ऐसी विरल लेखिका हैं जो सरकारी दमन, अन्याय और कॉरपोरेट घरानों की लूट के खिलाफ पूरी निडरता और मुखरता के साथ लगातार अपनी कलम चलाती रहती हैं। वह समाज के सबसे वंचित, शोषित और हाशिए पर खड़े लोगों के साथ पूरे दमखम के साथ खड़ी रहती हैं। प्रस्तुत है पूंजीवाद, मार्क्सवाद, भारतीय वामपंथ, भारतीय राजनीति और समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर उनसे  नरेन सिंह राव की बातचीत। समयांतर के फरवरी, 2013 के विशेषांक में प्रकाशित. 


आज के दौर में आप बराबरी पर आधारित समाज के विचार को कैसे देखती हैं?

मेरे ख्याल में बहुत कम लोग इसके बारे में सोचते हैं। 1968-69 में जब पहला नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ था या बराबरी पर आधारित समाज के बारे में जो पूरी सोच थी, लोग कहते थे कि भूमि खेतिहर को मिलनी चाहिए यानी जिनके पास जमीन है उनसे छीनकर जिनके पास नहीं है उनको दे दो। वह पूरी सोच अब बंद हो गई है। अब केवल यह है कि जिसके पास थोड़ा बहुत बचा है उसे मत छीन लीजिए। इससे क्या हुआ है कि अल्ट्रा लेफ्ट, जिसे नक्सलवादी या माओवादी कहते हैं, वे भी इससे पीछे हट गए हैं। वे लोग उन लोगों के लिए लड़ रहे हैं जिनसे राज्य ने उनकी जमीन छीन ली है। दरअसल, ये वे लोग हैं जिनके पास जमीन है। लेकिन जिनके पास कुछ भी नहीं है, जो शहरी गरीब हैं तथा दलित हैं और जो पूरी तरह से हाशिए पर खड़े मजदूर हैं, उनके बीच में अभी कौन-सा राजनीतिक आंदोलन चल रहा है? कोई भी नहीं चल रहा। जो रेडिकल मूवमेंट हैं वो ये वाले हैं जो गांववाले बोलते हैं - हमारी जमीन मत लो। जिनके पास जमीन नहीं है, जो अस्थायी मजदूर हैं या जो शहरी गरीब हैं, वे राजनीतिक विमर्श से बिल्कुल बाहर हैं। बराबरी पर आधारित समाज के मामले में हम सत्तर के दशक से बहुत पीछे जा चुके हैं, आगे नहीं। नवउदारवाद की पूरी भाषा, जिसे ट्रिकल डाउन कहते हैं (जो कुछ बचा खुचा है वह उनको ले लेने दो), उसको (भाषा) ही देख लीजिए। बराबरी पर आधारित समाज के विचार की जो भाषा है वह मुक्कमल है। अगर आप कम्युनिस्ट नहीं हैं और पूंजीवादी हैं, तो अभी जो हो रहा है वह पूंजीवादी लोग भी नहीं करते हैं। जहां प्रतिस्पर्धा के लिए एक-सा मैदान होता है, वह है ही नहीं अब। जो धंधे वाले (व्यापारी) लोग हैं उनको कॉरपोरेट ने किनारे लगा दिया है। छोटे व्यापारियों को मॉल्स ने किनारे कर दिया है। यह पूंजीवाद नहीं है। यह पता नहीं क्या है? यह कुछ और ही चीज (ऑर्गनिज्म) है।

लेखिका और एक्टिविस्ट के बतौर आप मार्क्सवाद को किस तरह देखती हैं?

पहली बात यह कि मैं अपने आप को लेखिका ही समझती हूं, न कि एक्टिविस्ट। ऐसा इसलिए कि इन दोनों से खास तरह की सीमाएं निर्धारित होती हैं। एक वक्त था जब लेखक हर बात पर अपनी राय रखते थे और समझते थे कि यही उनका फर्ज है। आजकल लिटरेरी फेस्टिवल में जाना उनका 'फर्ज' बन गया है। एक्टिविस्टों को लेकर वे समझते हैं कि उनका काम कुछ हटकर है, जिसमें गहराई नहीं है। काम का ऐसा बंटवारा मुझे पसंद नहीं है।

मैं मार्क्सवाद को एक विचारधारा के रूप में देखती हूं। एक अद्भुत विचारधारा जिसके मूल में समानता निहित है, न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर बल्कि प्रशासकीय तौर पर भी। अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में जीवन की जटिलताओं को मार्क्सवाद के नजरिए से देखा जाए तो कई सारी समस्याएं देखने को मिलती हैं। लेकिन मार्क्सवादी नजरिए से जाति से नहीं निपटा गया है। आमतौर पर वे (कम्युनिस्ट) कहते हैं कि जाति ही वर्ग है, लेकिन वास्तव में जाति हमेशा वर्ग नहीं है।

जाति वर्ग हो सकती है, क्योंकि मेरी राय में कई सारे रेडिकल दलित बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद का आलोचनात्मक चिंतन प्रस्तुत किया है, जो आंबेडकर की डांगे के साथ बहस के समय से ही शुरू हो चुका था। लेकिन मेरी राय में आज भी रेडिकल लेफ्ट ने इस मुद्दे को सुलझाने का रास्ता नहीं खोजा है। क्यों ऐसा है कि रेडिकल लेफ्ट, माओवाद और पूरा का पूरा नक्सलवादी आंदोलन (जिसके लिए मेरे मन में बहुत इज्जत है), सिर्फ जंगलों और आदिवासी इलाकों में ही सबसे मजबूत है, जहां लोगों के पास जमीनें हैं? उनकी रणनीति और कल्पनाशीलता शहरों तक क्यों नहीं पहुंच पाई है? इन सीमाओं के कारण दलित एक बार फिर से कट गए हैं। जब मैं दलितों की बात कर रही हूं तो इसका यह मतलब नहीं है कि वहां सब कुछ साफ है। जो लोग अपने को दलित कह रहे हैं उनके अंदर भी बहुत भेदभाव है। तब इन मुद्दों से रू-ब-रू होने में, हमारी भाषा में- किस तरह का पैनापन होगा जिससे कि ये अस्मिताओं के संघर्ष में तब्दील होकर न रह जाए। हम कितने खुश थे जब वर्ल्ड सोशल फोरम में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि करोड़ों लोग कुंभ मेले में भी जाते हैं। अगर सिर्फ जन सैलाब को देखा जाए तो इस हिसाब से यह सबसे बड़ा आंदोलन है! या फिर बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है! बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आरएसएस, विहिप और शिवसेना जैसी दक्षिणपंथी ताकतों और आमजन के भीतर फासीवादी प्रवृत्ति पर हमने कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया। ये सिर्फ सरकार, आरएसएस और बीजेपी की बात नहीं है। हर रोज, हर जगह, हर गली-नुक्कड़ में, मीडिया में यही विमर्श चल रहा है। ऐसा क्यों है कि धर्म, जाति और अस्मिता के सवाल पर लोगों की चेतना को द्रुत गति से लामबंद किया जा सकता है (ऐसा गुर्जर आंदोलन में हमने देखा), लेकिन मुंबई में रहने वाले शहरी गरीब कभी लामबंद नहीं होते। वहां सब कुछ या तो बिहारी बनाम मराठी होता है या फिर यूपी बनाम ठाकरे। भारत एक ऐसा समाज या राष्ट्र है जो लगातार कॉरपोरेट पूंजीवाद की ओर बढ़ रहा है, लेकिन प्रतिरोध के स्वर को धर्म, जाति, भाषा और अस्मिताओं के आधार पर आसानी से बांट दिया जा सकता है। जब तक हम साझा प्रतिरोध के विचार से रू-ब-रू नहीं होंगे, स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। मैं यह नहीं कह रही कि सब लोगों को हाथ पकड़े रहना होगा, क्योंकि ढेर सारे आंदोलन एक साथ नहीं आ सकते। लेकिन कुछ मुद्दों पर उनमें समानता होगी। भारत में जो सबसे एकजुट ताकत है, उसके बारे में मेरा मानना है कि वो उच्च हिंदू जाति का मध्यवर्ग है। ये लोग किसी भी वामपंथ या वामपंथी, (जिसकी विचारधारा ही एकता पर आधारित है) से कहीं ज्यादा एकजुट हैं।

जो लोग हाशिए पर हैं उनका राजनीति से लगातार मोहभंग होता जा रहा है। इसके मद्देनजर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के भविष्य को लेकर आपकी क्या राय है?

देखिए, मैं इतनी आसानी से नहीं मान सकती कि उन लोगों का मोहभंग हो गया है। हम चाहते हैं कि उनका मोहभंग हो जाए! लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। अभी भी वे बहुत बड़ी संख्या में वोट देने आते हैं। हम लोग कहते रहते हैं कि ये सभी एक ही हैं, ये पार्टी या वो पार्टी। लेकिन लोगों में अभी भी एक उत्साह है, यह मानना ही पड़ेगा। किसलिए है, उनकी उम्मीदें क्या हैं? उनकी उम्मीदें शायद ये नहीं हैं कि जिंदगी बदल जाएगी या देश बदल जाएगा या पूंजीवाद खत्म हो जाएगा। उनका सपना है कि यहां नल लग जाएगा, हॉस्पिटल खुल जाएगा आदि। हालांकि चुनावी प्रक्रिया से तो मैं उम्मीद नहीं रखती हूं, लेकिन जनता गहरी उम्मीद रखती है। वे वोट डालने आते हैं, हमको मानना ही पड़ेगा। इतनी बड़ी राजनीतिक ताकत (पॉलिटिकल फोर्स) को यूं ही खारिज नहीं कर सकते। आजकल की बहसें देखिए - भ्रष्टाचार के खिलाफ या आम आदमी पार्टी को लेकर है। मैं उनसे पूछती रहती हूं कि जो जगनमोहन रेड्डी भ्रष्टाचार के मामले में जेल में बंद है वह अगर कोई रैली करेगा तो उसको सुनने के लिए लोग गाड़ी से उतरकर पंद्रह किलोमीटर पैदल चलकर आते हैं। लोग अच्छे लोगों के लिए वोट नहीं देते हैं। वे वोट क्यों दे रहे हैं, किसको दे रहे हैं- सभी भ्रष्टाचार के बारे में अच्छी तरह जानते हैं। हम लोग वही सोचते हैं जो हम लोगों को सोचते हुए देखना चाहते हैं या जो हमें अच्छा लगता है! यह बहुत दूर की कल्पना है कि लोगों का मोहभंग हो गया है। बहुत अधिक भ्रष्टाचार के बावजूद लोग इस चुनावी प्रक्रिया में पूरी तरह शरीक होते हैं। लोग इसको अच्छी तरह से देख भी सकते हैं, फिर भी वे इसमें भागीदारी करते हैं। ऐसा इसलिए नहीं है कि ये लोग बेवकूफ हैं। ऐसा बहुत सारे जटिल कारणों की वजह से है। मैं मानती हूं कि हमें निश्चित तौर पर अपने आपको बेवकूफ बनाना छोड़ देना चाहिए, क्योंकि हम कुछ चीजें जानते हैं, इन चीजों की लोगों के वोट डालने में या नहीं डालने में कोई भूमिका नहीं है। जो मैं सोचती हूं वह यह है कि हमारे सामने कोई खूबसूरत-सा विकल्प खड़ा नहीं होने वाला है। चलो इसको वोट देते हैं, वह व्यवस्था को बदलेगा। ऐसा नहीं होने वाला है। व्यवस्था इतनी जमी हुई है- कॉरपोरेट, राजनीतिक दल, मीडिया जैसे रिलायंस के पास 27 टेलीविजन चैनल हैं, किसी और के पास अखबार हैं। मुझे लगता है कि इससे क्या होगा? इससे यह होगा कि बहुत ज्यादा लंपटीकरण और अपराधीकरण बढ़ेगा। जैसे अभी जो छत्तीसगढ़ और झारखंड में चल रहा है। वहां राजनीति, विचारधाराओं, बहसों और संरचनाओं में एकरूपता दिखती है। लेकिन जैसे आप सबको शहर की ओर भगाएंगे, उनका आप अपराधीकरण करेंगे, जैसे इस बलात्कार की घटना के बाद मनमोहन सिंह ने साफ-साफ कहा कि हमें इन नए प्रवासियों से, जो शहरों में आते हैं, सावधान रहना पड़ेगा। पहले आप उन्हें शहरों की तरफ धकेलते हैं और फिर उनका अपराधीकरण करते हैं। इन स्थितियों में फिर आपके लोग ज्यादा पुलिस, सुरक्षा और ज्यादा कड़े कानून की बात करते हैं। एक बार अपराधीकरण होने के बाद फिर उनको अपराधियों की तरह व्यवहार करना ही पड़ता है। उनके पास कोई कानून और काम नहीं है। आप एक ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं जहां लोगों के व्यापक हिस्से का अस्तित्व नहीं होना चाहिए। यह गलत है। अब ऐसे में वामपंथ क्या करने वाला है, क्योंकि जिसे हम अल्ट्रा लेफ्ट कहते हैं वो जंगलों में फंसा हुआ है, आदिवासी आर्मी के साथ। बुद्धिजीवी लोगों के लिए यह कहना बिल्कुल जायज और आसान है कि वे पेरिस कम्यून जैसा सपना देख रहे हैं। उनमें से बहुत सारे लोग तो जानते ही नहीं है कि जगदलपुर, भोपाल अस्तित्व में हैं। लेकिन नक्सली लड़ रहे हैं। उन्हें पता है कि वे किसके लिए लड़ रहे हैं। यह हो सकता है पार्टियां, आप और मैं विचाराधारत्मक रूप से उनसे सहमत न हों। लेकिन जंगल के बाहर वामपंथ क्या कर रहा है? जब मार्क्स  सर्वहारा के बारे में बात करते हैं, तो उनका सर्वहारा से मतलब मजदूर वर्ग है। ज्यादातर जगहों पर मजदूरों की संख्या को कम करने की पूरी कोशिश की जा रही है। वहां पर रोबोट्स और उच्च तकनीक इस्तेमाल की जा रही है। अब श्रमिकों की तादाद वह नहीं बची है जो हुआ करती थी - क्लासिक सेंस में। तो, इस नए दौर में बहुत ही विशेषाधिकर प्राप्त श्रम शक्ति (वर्कफोर्स) है, उदाहरण के लिए मारुति में काम करने वाले श्रमिकों को ले सकते हैं। लेकिन, उनके साथ क्या हुआ - वहां वाम क्या कर रहा है? वाम के पास उनको कहने के लिए कुछ नहीं है। नक्सल क्षेत्रों के बाहर ऐसा कोई लेफ्ट नहीं है जो इन चीजों के साथ लड़ रहा है। मैं नहीं जानती कि आप उनका राजनीतिकरण कैसे करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में शहरी गरीब हैं जिन्हें कोई विधिवत काम नहीं मिला है, जो श्रमिक (वर्कर्स) नहीं हैं। उन्हें सांप्रदायिक तत्त्वों के द्वारा कभी भी बरगलाया और भड़काया जा सकता है। उन्हें कभी भी एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है।

क्या आपको लगता है कि भारत फासीवाद की तरफ बढ़ रहा है? 

मुझे लगता है कि यह सवाल आपने पांच साल पहले पूछा होता तो मैं कहती कि बढ़ रहा है। अब मैं यह नहीं कहूंगी कि यह बढ़ रहा है। उसके सामने यह पूरा कॉरपोरेट और मध्य वर्गीय अभिजात्य है। उनका नरेंद्र मोदी की तरफ जो यह रुझान (शिफ्ट) है, यह एक फासीवाद से दूसरे फासीवाद की तरफ जाना (शिफ्ट) है। वहां एक तरफ अनिल अंबानी और दूसरी तरफ मुकेश अंबानी बैठकर यह कहते हैं कि यह (मोदी) राजाओं का राजा है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह बदल गया है। जबकि, हकीकत यह है कि वह एक तरह के फासिस्ट से दूसरी तरह का फासिस्ट बन गया है। मुझे लगता है कि आजकल यह हो गया है कि बहुत बड़ी संख्या में मध्य वर्ग को पैदा किया गया है। उनके मन में, उनके सपनों में एक पुच्छलतारे का मार्ग (ट्रेजेक्टरी) बनाया गया है, जिससे वे उधर से इधर आएं और अब बिल्कुल ठहर गए हैं। जहां आगे कोई रास्ता नहीं है। और अब यह गुस्सा अलग-अलग तरह से फूटता हुआ दिखाई दे रहा है। लेकिन मैं इससे बहुत आहत होती हूं।

हाल के दिनों में हुए आंदोलनों का क्या भविष्य है? जैसे अण्णा हजारे ... 

अण्णा हजारे तो दफ्तर बंद करके चले गए। जब ये लोग बिना कोई काम किए हुए टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में अपने मूवमेंट का निर्माण करते हैं तो उनका क्या भविष्य हो सकता है? जब टेलीविजन चैनल चाहेंगे तो उन्हें आगे बढ़ाएंगे! जब उन्हें कोई खतरा नजर आएगा तो इन आंदोलनों को बंद कर देंगे। उसमें क्या है? मसलन आम आदमी पार्टी को देखिए! जिसने एक बार रिलायंस का जिक्र किया और टांय-टांय फिस्स। जब मीडिया उनका (कॉरपोरेट) है तो आखिर आप वहां कैसे हो सकते हैं? मतलब थोड़ा तो आगे सोचना चाहिए ना! ऐसे तो होगा नहीं। यह जो बचपना है, यह कैसे चलेगा? मतलब, ये इतना हो-हल्ला मचा के रखते हैं कि अगर कोई इनके खिलाफ बोलेगा तो सिद्ध करेंगे कि वह या भ्रष्टाचार के समर्थन में है या फिर बलात्कार के समर्थन में है। क्या इनके पास जरा-सी भी समझ नहीं है राजनीतिक इतिहास की? इसमें कुछ लोग अच्छा काम करते हैं। वे कोशिश करते हैं इसको आगे अंजाम देने की। लेकिन मेरे ख्याल में जहां पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है वह हमें बहुत उत्तेजित करता है, लेकिन लोग उस नजरिए से चीजों को नहीं देख रहे। वे नहीं समझते कि हर विरोध प्रदर्शन यकीनन प्रगतिशील और क्रांतिकारी नहीं हो सकता। हर जन आंदोलन महान नहीं होता। जैसे मैं अक्सर कहती हूं कि इस देश में सबसे बड़ा आंदोलन बाबरी मस्जिद का विध्वंस है, जिसको वीएचपी और बजरंग दल ने चलाया। जैसे जब लड़की का बलात्कार हुआ था, उस हफ्ते दो-तीन दिन आगे-पीछे नरेंद्र मोदी चौथी बार चुनाव जीता। अब उन्हीं टीवी चैनलों में वही लोग, जो बलात्कार के खिलाफ इतना चिल्ला रहे थे, उस आदमी (मोदी) जिसके राज में महिलाओं के शरीर को चीरकर उनकी बच्चेदानी को निकाल दिया गया, जिनका बलात्कार करके जिंदा जला दिया गया, अब (टीवी चैनल) कह रहे हैं कि इन पुरानी बातों को भूल जाओ। आप अतीत में क्यों जा रहे हैं। यह किस तरह की राजनीति है मैं नहीं समझ पाती हूं। मुझे यह समझने में बहुत दिक्कत होती है। ये बहुत ही पेचीदा, बौद्धिक और भावुक पहेली है। क्योंकि, आप तब विरोध नहीं कर सकते, जब संस्थानिक तरीके से महिला का बलात्कार होता है। नारीवाद की राजनीति बहुत ही जटिल है। जब यथास्थितिवाद के लिए बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है - चाहे वह कश्मीर हो, चाहे मणिपुर हो, चाहे नगालैंड हो या ऊंची जाति का एक आदमी दलित महिला के साथ बलात्कार कर रहा हो या हरियाणा में ऑनर किलिंग हो। इन सभी मामलों में एक ही तरह की प्रतिक्रिया आती है। ... जो बच्चियां बड़ी हो रही हैं... जवान होती लड़कियों को सड़कों पर घूमते हुए देखना कितना खूबसूरत और मनमोहक होता है। और जो हुआ वह कितना भयानक है। हम कैसे कह सकते हैं लोग बलात्कार के मामले को लेकर परेशान थे, जबकि वे सिर्फ 'इस बलात्कार' के मामले को लेकर परेशान थे। यह ठीक है, लेकिन यह खास तरह की राजनीति है! यह बहुत ही कठिन पहेली है। लेकिन इसके बारे में सोचना बहुत जरूरी है और मैं सोचती हूं कि आप लोगों से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि जो चीजें उन्हें परेशान नहीं करती हैं वह उन्हें झकझोर दे। लेकिन इस वजह से बहुत बड़ी राजनीति को आप वैसे ही नहीं छोड़ सकते हैं। आप यह समझना चाहते हैं कि वह क्या है?

क्या आप मानती हैं कि नव उदारवादी नीतियां भारतीय राज्य के मूल चरित्र को उजागर करती हैं? 

देखिए, भारतीय राज्य का नहीं, बल्कि समाज का। ये नवउदारवादी नीतियां सामंती और जाति आधारित समाज के बिल्कुल मनमाफिक है लेकिन यकीनी तौर पर यह किसी गांव में फंसे दलित के लिए ठीक चीज नहीं है। यह सभी असमानताओं को मजबूत करती है, क्योंकि यह निश्चित तौर पर ताकतवर को और ताकतवर बनाती है। यही तो कॉरपोरेट पूंजीवाद है। हो सकता है कि यह शास्त्रीय पूंजीवाद की तरह न हो, क्योंकि शास्त्रीय पूंजीवाद नियमों पर चलता हो और वहां 'चेक एंड बैलेंस' का सिस्टम होता हो। लेकिन हमारे यहां इसमें ऐसा कुछ नहीं होता। यकीकन इससे ताकतवर लगातार ताकतवर बनता जाता है। और यही लोग तो बनिया हैं। यह सबसे अहम बात है जिसके बारे में कभी कोई बात नहीं करता - भारतीय बनियों की राजनीति। इन्होंने पूरे देश में क्या कर दिया है? रिलायंस एक बनिया है। वे बनिया जाति के तौर पर दृश्य से पूरी तरह बाहर रहते हैं, लेकिन वे बहुत ही अहम भूमिका अदा करते हैं। यह इन्हें बहुत मजबूत बनाता है। यही कारण है कि रिटेल में एफडीआई के मामले में भाजपा सबसे ज्यादा गुस्से में आई क्योंकि 'उनके छोटे बनिये' दांव पर लग गए हैं क्योंकि वो जाति (बनिया) उनका (भाजपा) आधार है।

दूसरी तरफ आप ग्रामीणों, आदिवासियों और दलितों के साथ कुछ भी कर दीजिए किसी के उपर कोई फर्क नहीं पड़ता।

भारतीय वामपंथ का दायरा बहुत ही सीमित दिखाई देता है। आप इसका क्या कारण मानती हैं और इसके लिए किसे जिम्मेदार मानती हैं?

मुझे लगता है कि इसमें जाति एक बहुत बड़ा कारण है। अगर आप सीपीएम को देखें तो उसमें ऊपर बैठे लोग सारे ब्राह्मण हैं। केरल में भी सारे नायर और ब्राह्मण हैं। उन्होंने कभी यह समझने की कोशिश नहीं की कि मार्क्स वादी विचार का बेहतरीन इस्तेमाल कैसे करें, जहां पर लोगों के साथ व्यवस्थागत तरीके से भेदभाव किया जाता है। अक्सर जब आप ऊंची जाति से आते हैं तो समस्याओं को नहीं देख पाते हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि आप खराब आदमी हैं। बस बात यह है कि आप इसे देख ही नहीं पाते। मैं एक बार कांचा इल्लैया से बात कर रही थी, जो एक समय में पीपुल्स वार ग्रुप से जुड़े थे। वह अकेले ऐसे आदमी थे जो अपने समुदाय में पढ़े-लिखे थे। उनके भाई ने बहुत कोशिश की कि वह उनको पढ़ा-लिखा देंखे। जबकि उनकी पार्टी चाहती थी कि वह भूमिगत हो जाएं। यह उस तरह से नहीं है कि किसी ब्राह्मण को भूमिगत हो जाने के लिए कह दें, क्योंकि उनके (ब्राह्मण) परिवार में बाकी लोग पढ़-लिख सकते हैं। इस मामले को आपको बिल्कुल ही अलग तरीके से समझना पड़ेगा।

मेरी समझ से दूसरा कारण यह है कि आप इस मुगालते में रहें कि चुनाव लड़कर राज कर सकते हैं। और फिर आप एक ही समय में राजा भी बने रहें और क्रांतिकारी भी बने रहें! यह कैसे हो सकता है। यह तो एक तरह का फरेब है!

भारत में माओवादी आंदोलन की संभावनाओं और चुनौतियों को आप कैसे देखती हैं?

माओवादी आंदोलन के लिए वहां पर बहुत अवसर हैं जहां पर वे बहुत मजबूत हैं। लेकिन अब यहां पर बहुत बड़ा हमला होने वाला है। आर्मी, एयरफोर्स सभी पूरी तैयारी में लगे हैं। शायद यह हमला 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद होगा और ये माओवादी आंदोलन के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन दूसरी तरफ माओवादियों ने अभी सीआरपीएफ के जवान के साथ जो किया (मृत जवान के पेट में बम डाल दिया था) वह बहुत ही वाहियात काम है। हम लोग उनका इन कारणों की वजह से समर्थन नहीं करते। मुझे नहीं मालूम है कि इस तरह का काम कैसे होता है? मुझे लगता है कि या तो उनके कमांड सिस्टम (नेतृत्व) में प्रोब्लम आ गई है या उनके साथ लंपट (लुम्पैन) लोग शामिल हो गए हैं। मैं इसके बारे में ज्यादा नहीं जानती, खास तौर से झारखंड के बारे में। लेकिन इस हमले में अगर उनका अनुशासन टूटता है तो उनके लिए बहुत ही मुश्किल आ जाएगी, क्योंकि एक समय ऐसा था जब उनके साथ बहुत ज्यादा बौद्धिक और नैतिक समर्थन था, जो अब भी है। अगर आप ऐसे काम करते रहेंगे तो आपका यह समर्थन बंद हो जाएगा। उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे। अगर जंगल से बाहर नहीं जा सकते तो हम सोचेंगे कि ये सिर्फ एक क्षेत्रीय प्रतिरोध है, चाहे जिसका भी हम समर्थन करें। बात यह है कि जंगल से बाहर इतनी बड़ी जो गरीबी पैदा की गई (मैनुफैक्चर्ड पॉवर्टी) है, उसको आप राजनीतिक कैसे बनाएंगे। क्योंकि लोगों के पास समय नहीं है, जगह नहीं है और ये जंगल से बाहर कैसे काम करेंगे, यह बहुत बड़ा प्रश्न है।

क्या यह हो सकता है कि वे हिंसा छोड़कर चुनावी राजनीति में आएं? 

हिंसा क्या होती है? अगर छत्तीसगढ़ के किसी गांव में एक हजार सीआरपीएफ के जवान आकर गांव को जलाते हैं, औरतों को मारते हैं और बलात्कार करते हैं, तो ऐसे हालात में आप क्या करेंगे? भूख हड़ताल पर तो नहीं बैठ सकते। मैं हमेशा से यही कहती आई हूं कि जिसे बुद्धिजीवी, अकादमिक लोग, पत्रकार और सिद्धांतकार आदि एक विचारधारात्मक तर्क कहते हैं,वह मुझे टैक्टिकल लगता है। यह सब कुछ लैंडस्केप (भौगोलिक स्थिति)पर निर्भर करता है। आप छत्तीसगढ़ में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप मुंबई या दिल्ली में लड़ते हैं और मुंबई-दिल्ली में बिल्कुल वैसे नहीं लड़ सकते जैसे आप छत्तीसगढ़ में लड़ते हैं। इसमें कोई द्वंद्व नहीं है। आप सड़कों पर गांधीवादी बन सकते हैं और जंगलों में माओवादी बनकर काम सकते हैं। गांधीवादी होने के लिए तो आपके आसपास टेलीविजन कैमरा और रिपोर्टर होना जरूरी है, अगर ऐसा नहीं है तो ये सब बेकार है। प्रतिरोध की विविधता बहुत जरूरी है। यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि हर काम करना माओवादियों की ही जिम्मेदारी नहीं है। दूसरी तरह के लोग दूसरी चीजें कर सकते हैं। जैसे लोग मुझे कहते हैं कि वहां बांध बन रहा है, यहां ये हो रहा है... मैं उनसे कहती हूं कि यार तुम भी तो कुछ करो। मैंने तो कभी नहीं कहा कि मैं तुम्हारी लीडर हूं। मैं वह कर रही हूं जो मैं कर सकती हूं। और आप वह करें जो आप कर सकते हैं।

मैग्लोमेनिएकल एप्रोच नहीं होनी चाहिए कि हर काम एक ही पार्टी या एक ही इंसान या एक बड़ा लीडर करेगा। बाकी लोग कुछ क्यों नहीं करते? एक ही पर क्यों निर्भर रहना चाहते हैं? माओवादी लोग गलतियां कर रहे हैं, लेकिन बहुत बहादुरी से लड़ रहे हैं और हम लोग सिर्फ बैठकर कहते हैं कि ये लोग ऐसे हैं, वैसे हैं। अरे यार, आप भी तो कुछ करो। अगर वाकई कुछ करना चाहते हो तो।

हमारे लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, फिल्मकारों, रंग निर्देशकों के काम क्या भारतीय सच्चाई को अभिव्यक्त करते हैं? 

मैं पूछती हूं कि इंडियन रियलिटी (भारतीय यथार्थ) होती क्या है। मैं हमेशा से सोचती आई हूं कि बॉलीवुड के इतिहास में सबसे बड़ी थीम क्या है? सबसे बड़ी थीम तो प्यार है। लड़का लड़की से मिलता है और वे भाग जाते हैं... लेकिन हमारे समाज में तो यह बिल्कुल नहीं होता। सिर्फ दहेज, जाति, ये-वो और सिर्फ गणित ही गणित (कैल्कुलेशन) है। तो जो चीज समाज में है नहीं उसे हम फिल्म में जाकर देखते हैं। कहने की बात ये है कि हमारा पूरा समाज जाति के आसपास घूमने वाला छोटे दिमाग (स्मॉल माइंडिड) का जोड़तोड़ करने वाला है। हम बस लोगों को सिनेमाई पर्दे पर नाचते-गाते देखकर खुश हो जाते हैं। हमारे साहित्य का यथार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है। इस मामले में यह बिल्कुल निरर्थक है। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद जरूर हो सकते हैं। आजकल साहित्य और सिनेमा में जो हो रहा है उसे मैं 'क्लास पोर्नोग्राफी' कहूंगी। जिसमें लोग गरीबी की तरफ देखते हैं और कहते हैं कि ये लोग तो ऐसे होते हैं, वैसे होते हैं, गाली देते हैं, गैंग वॉर करते हैं। मतलब, अपने आप को बाहर रखकर ये चीजों को ऐसे देखते हैं जैसे उनका इनसे कुछ लेना-देना नहीं हो। यह ऐसा ही है जैसे गरीबों का ग्लेडिएटर संघर्ष देखना और फिर यह कहना कि ये कितने हिंसक होते हैं ! यह एक तरह की एंथ्रोपोलॉजी (नृशास्त्र) है, जहां पर आप युद्ध को बाहर से एक तमाशे की तरह देखते हैं और मजा लेते हैं। फिर एक और तरह से चीजों को महत्त्वहीन (ट्रिवीयलाइज) बनाते हैं। ये इतना 'ट्रिवियल' होता है कि आपके कान पर जूं भी नहीं रेंगती।

विश्व स्तर पर पूंजीवाद ने कमजोर समुदायों को और भी हाशिए पर तरफ धकेल दिया है। इन हालात में किस तरह के राजनातिक विकल्प उभर सकते हैं?

देखिए, मुझे लगता है कि इसका कोई भी सभ्य विकल्प नहीं है। केवल यह बात नहीं है कि सत्ता के पास सिर्फ पुलिस, सेना और मीडिया ही है, बल्कि कोर्ट भी उन्हीं के हैं। अब इनके आपस में भी 'जन आंदोलन' होने लगे हैं। और उनका अपना एक शील्ड यूनीवर्स (सुरक्षित खोलवाला संसार) है। इस सबको किसी सभ्य तरीके से बिल्कुल भेदा नहीं जा सकता। कोई सभ्य तरीके से आकर बोले कि मैं बहुत अच्छा हूं मुझे वोट दे दो, तो ऐसा हो नहीं सकता। दरअसल उनका अपना एक तर्क है। यही तर्क खतरनाक हिंसा और निराशा पैदा कर देगा। और ये गुस्सा इतना ज्यादा होगा कि ये लोग बच नहीं पाएंगे। अपने इस विशेषाधिकार के खोल में ये ज्यादा दिन सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। अब अच्छा बनने में कोई समझदारी नहीं है। इस संदर्भ में मैं अब सभ्य नहीं हूं। मैं हैंडलूम साड़ी पहनकर यह नहीं कहूंगी कि मैं भी गरीब हूं! मैं बिल्कुल नहीं हूं। मैं भी इसी पक्षपाती व्यवस्था का हिस्सा हूं। मैं वह करती हूं जो मैं कर सकती हूं, लेकिन मैं यह नहीं मानती कि बदलाव एक बहुत ही खूबसूरत और शांत ढंग से आने वाला है। जो कुछ चल रहा है उसकी अनदेखी कर अब ये लोग अपने लिए ही एक खतरनाक स्थिति पैदा करने वाले हैं। मैं नहीं मानती कि हम इस बदलाव के बारे में कोई भविष्यवाणी कर सकते कि यह कैसे होने वाला है या कहां से आने वाला है। यह तय है कि यह बदलाव बहुत ही खतरनाक होगा। इस व्यवस्था को टूटना ही है, जिसने बहुत बड़े पैमाने पर अन्याय, फासीवाद, हिंसा, पूर्वाग्रहों और सेक्सिज्म (यौनवाद) को संरचनात्मक तौर पर पैदा किया है।

जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय राजनीति में हैं उनके बारे में आप क्या सोचती हैं? खास तौर पर अगर सीपीआई (भाकपा), सीपीएम (माकपा) और सीपीआई-एमएल (भाकपा-माले)जैसी कम्युनिस्ट पार्टियों के संदर्भ में बात करें। 

देखिए, जब पार्टियां बहुत छोटी होती हैं, जैसे कि सीपीआई (एमएल) और सीपीआई, तो आपके पास इंटिग्रिटी होती है। आप अच्छी पॉजिशंस और हाई मॉरल ग्राउंड (उच्च नैतिक आधार) ले सकते हैं। क्योंकि आप इतने छोटे होते हैं कि इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अगर आप सीपीएम जैसी बड़ी पार्टी हैं तो स्थिति दूसरी होती है। अगर हम केरल और बंगाल के संदर्भ में सीपीएम की बात करें तो दोनों जगह इसके अलग-अलग इतिहास रहे हैं। बंगाल में सीपीएम बिल्कुल दक्षिणपंथ की तरह हो गई थी। वे हिंसा करने में, गलियों के नुक्कड़ों को कब्जाने में, सिगरेट वालों के खोमचे को कब्जाने में बिल्कुल दक्षिणपंथ जैसे थे। यह बहुत अच्छा हुआ कि जनता ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। हालांकि मैं निश्चिंत हूं कि ममता बनर्जी की सत्ता का दौर जल्दी खत्म हो जाएगा। दूसरी तरफ केरल में स्थिति अलग थी, क्योंकि वे सत्ता से हटते रहे हैं जो कि एक अच्छी चीज है। वे वहां पर कुछ अच्छी चीजें भी कर पाए। लेकिन इसका श्रेय पार्टी को बिल्कुल नहीं दिया जा सकता, बल्कि यह इसलिए था क्योंकि वहां पर सत्ता का संतुलन बना रहा। अगर आप देखें तो उनकी हिंसा अक्षम्य है। दूसरी तरफ जिस तरह मलियाली समाज आप्रवासी मजदूरों का शोषण कर रहा है वह बहुत शर्मनाक है। ऐसे में आप बताएं, सीपीएम अपने आप को कम्युनिस्ट पार्टी कैसे कह सकती है? जिस पार्टी ने ट्रेड यूनियनों को बर्बाद कर दिया और पश्चिम बंगाल में नव उदारवाद के साथ कदमताल मिलाते रहे। वे अक्सर यह तर्क देते हैं कि अगर हम सत्ता में नहीं रहेंगे तो सांप्रदायिक लोग सत्ता हथिया लेंगे। लेकिन आप मुझे यह बताएं कि क्या सीपीएम के लोग हिम्मत जुटाकर गुजरात गए? जहां खुलेआम इतनी मारकाट चल रही थी वे दुबक कर बैठे रहे। जब नंदीग्राम में लोगों को बेघर कर उजाड़ दिया गया तो वे महाराष्ट्र में आदिवासियों के साथ जाकर बैठ गए। मतलब जनता इतनी भी बेवकूफ नहीं है कि इतनी छोटी बातों को भी न समझ पाए। यह वाकई बहुत दयनीय है कि वाम (लेफ्ट) ने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है। यहां तक कि ये संसदीय राजनीति में भी खुद को नहीं बचा पाए और जिन मुद्दों पर वामपंथी स्टैंड लेने चाहिए थे, ये वो तक नहीं ले पाए। इस सबके लिए ये खुद ही जिम्मेदार हैं और इनके साथ यही होना चाहिए था। इतने सालों में ये लोग कभी पार्टी को ऊंची जातियों के वर्चस्व से मुक्त नहीं करा पाए। और आज भी आप देखें कि पोलित ब्यूरो में यही लोग भरे पड़े हैं।

अगर लेफ्ट ने जाति के मुद्दे को सुलझाया होता, ईमानदारी से काम किया होता, इनके पास दलित नेता और बुद्धिजीवी होते और अगर ये पूंजीवाद की जगह लेफ्ट की भाषा बोलते तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इस देश में लेफ्ट आज कितना मजबूत होता? ये लोग अपनी जातीय पहचान को कभी नहीं छोड़ पाए। और इनकी निजी जिंदगी के बारे में ही तो मेरा उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स है।

वर्तमान हालात में कम्युनिस्ट पार्टियों का क्या भविष्य है? 

देखिए, मैं सीपीआई-एमएल, आइसा से कभी-कभी सहमत होती हूं। ये लोग शहरी गरीबों के बीच काम करते हैं। बिहार में ये जाति के सवाल के हल करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन ये सफल नहीं हो रहे हैं क्योंकि जैसा कि मैंने कहा कि इनकी ताकत बहुत ही सीमित है और ये हाशिए पर हैं। लेकिन बहुत सारी चीजें जो ये कहते हैं, उनका मैं सम्मान करती हूं। मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती कि ये कैसे इतने हाशिये पर (मार्जिनलाइज्ड) रह गए और खुद को अप्रासंगिक बनाकर छोड़ दिया। मुझे माओवादियों और लिबरेशन के बीच विचारधारात्मक युद्धों को देखकर बहुत दुख होता है। इन लोगों ने टैक्टिक्स को विचारधारा के साथ जोड़कर भ्रम पैदा कर रखा है। सीपीआई (एमएल) के लोग जंगल के बाहर रहकर काम करते हैं और यह जरूरी नहीं कि वे हथियारों के साथ ही काम करें। लेकिन सीपीआई (एमएल) की राजनीति छत्तीसगढ़ में काम नहीं कर सकती। फिर आप देखिए कि अपने हाथों से इन्होंने खुद को हाशिए पर धकेल दिया है। ये छत्तीसगढ़ में माओवादियों के साथ गठजोड़ कर सकते थे। लेकिन ये राज्य से नफरत करने के बजाय एक दूसरे से ज्यादा नफरत करते हैं और अपना समय गंवाते हैं। जो कि कम्युनिस्टों की एक बड़ी खासियत है!

और सीपीएम किस तरफ बढ़ रही है...

सीपीएम बाकी संसदीय पार्टियों की तरह ही है। जिसे देखकर यह बिल्कुल नहीं लगता कि ये किसी भी तरीके से कम्युनिस्ट पार्टी है।

(नरेन सिंह राव मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं और सिनेमा तथा साहित्य में दखल रखते हैं।)

21 फ़रवरी 2013

क्या आपके बमरोधी बेसमेंट में अटैच बाथरूम है? : अरुंधति राय


अफजल गुरु की फांसी के निहितार्थों और भारत की युद्धोन्मादी सांप्रदायिक राजनीति पर अरुंधति राय. मूल अंग्रेजी: आउटलुक. अनुवाद: रेयाज उल हक.

2001 के संसद हमले के मुख्य आरोपी मोहम्मद अफजल गुरु की खुफिया और अचानक दी गई फांसी के क्या नतीजे क्या होने जा रहे हैं? क्या कोई जानता है? सेंट्रल जेल जेल नं. 3, तिहाड़, नई दिल्ली के सुपरिंटेंडेंट द्वारा ‘मिसेज तबस्सुम, पत्नी श्री अफजल गुरु’ को भेजे गए मेमो में, जिसमें संवेदनहीन नौकरशाहाना तरीके से हरेक नाम को अपमानजनक तरीके से लिखा गया है, लिखा है:
‘श्री मो. अफजल गुरु, पुत्र- हबीबिल्लाह की माफी की याचिका को भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा खारिज कर दिया गया है. इसलिए मो. अफजल, पुत्र-हबीबिल्लाह को 09/02/2013 को सुबह आठ बजे सेंट्रल जेल नं. 3 में फांसी देना तय किया गया है.
आपको सूचना देने और आगे की जरूरी कार्रवाई के लिए भेजा गया.’
मेमो भेजने का वक्त जानबूझ कर ऐसा रखा गया कि वह तबस्सुम को फांसी के बाद ही मिले, और इस तरह उन्हें उनके आखिरी कानूनी मौके – यानी क्षमा याचिका के खारिज किए जाने को चुनौती देने के अधिकार -  से महरूम कर दिया गया. अफजल और  उनके परिवार, दोनों को अलग-अलग ये अधिकार हासिल था. दोनों को ही इस अधिकार का उपयोग करने से रोक दिया गया. यहां तक कि कानून में अनिवार्य होने के बावजूद तबस्सुम को भेजे गए मेमों में राष्ट्रपति द्वारा क्षमा याचिका खारिज किए जाने की कोई वजह नहीं बताई गई. अगर कोई वजह नहीं बताई गई है, तो आप किस आधार पर अपील करेंगे? भारत में फांसी की सजा प्राप्त सभी कैदियों को यह आखिरी मौका दिया जाता रहा है.
चूंकि फांसी दिए जाने से पहले तबस्सुम को अपने पति से मिलने की इजाजत नहीं दी गई, चूंकि उनके बेटे को अपने पिता से सलाह के आखिरी दो बोल सुनने की इजाजात नहीं दी गई, चूंकि उन्हें दफनाने के लिए अफजल का शरीर नहीं दिया गया, और चूंकि कोई जनाजा नहीं हुआ, तो जेल मैनुअल के मुताबिक ‘आगे की जरूरी कार्रवाई’ क्या है? गुस्सा? अपार, अपूरणीय दुख? बिना किसी सवाल के, जो हुआ उसे कबूल कर लिया जाना? संपूर्ण अखंडता?
फांसी के बाद एक अपार जश्न मनाया गया. संसद हमले में मारे गए लोगों की गमजदा बीवियां टीवी पर दिखाई गईं, अपनी उत्तेजित मूंछों के साथ ऑल इंडिया एंटी-टेररिस्ट फ्रंट के अध्यक्ष एम.एस. बिट्टा थे उनकी छोटी सी उदास कंपनी के सीईओ की भूमिका अदा कर रहे थे. क्या कोई उन्हें बताएगा कि जिस इंसान ने उनके पतियों को मारा वो भी उसी वक्त, उसी जगह पर मारा गया था? और जिन लोगों ने हमले की योजना बनाई उनको कभी सजा नहीं होगी, क्योंकि हम अब तक नहीं जानते कि वे कौन हैं.
इस बीच कश्मीर पर एक बार फिर कर्फ्यू लागू है. एक बार फिर इसके लोगों को बाड़े में जानवरों की तरह बंद कर दिया गया है. एक बार फिर उन्होंने कर्फ्यू को मानने से इन्कार कर दिया है. तीन दिनों में तीन लोग मारे जा चुके थे और पंद्रह गंभीर रूप से जख्मी थे. अखबार बंद करा दिए गए हैं, लेकिन जो भी इंटरनेट पर छानबीन करना जानता है, वो पाएगा कि नौजवान कश्मीरियों का गुस्सा उतना अवज्ञाकारी और साफ जाहिर नहीं है, जितना यह 2008, 2009 और 2010 की गर्मियों के जन उभार के दौरान था – यहां तक कि उन मौकों पर 180 लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. इस बार गुस्सा सर्द और तीखा है. निर्मम. क्या ऐसी कोई वजह है कि इसे ऐसा नहीं होना चाहिए था?
20 वर्षों से भी अधिक समय से, कश्मीरी एक फौजी कब्जे को भुगत रहे हैं. जिन दसियों हजार लोगों ने अपनी जानें गवाईं, वे जेलों में, यातना शिविरों में और असली और फर्जी ‘मुठभेड़ों’ में मारे गए. अफजल गुरु की फांसी को जो बात इन सबसे अलग बनाती है, वो यह है कि इस फांसी ने उन नौजवानों को, जिन्हें कभी भी लोकतंत्र का सीधा अनुभव नहीं रहा है, सबसे आगे की कुर्सियों पर बैठ कर भारतीय लोकतंत्र को पूरी महिमा के साथ काम करते हुए देखने का मौका मुहैया कराया है. उन्होंने पहियों को घूमते हुए देखा है, उन्होंने एक इंसान को, एक कश्मीरी को फांसी देने के लिए इसके सारे पुराने संस्थानों, सरकार, पुलिस, अदालतों, राजनीतिक दलों और हां, मीडिया को एकजुट होते हुए देखा है, जिसके बारे में उऩका मानना है कि उसे निष्पक्ष सुनवाई नहीं हासिल हुई थी. और उनके यह मानने की खासी वजहें हैं.
निचली अदालत में सुनवाई के सबसे अहम हिस्से में अफजल का पक्ष पेश करने वाला लगभग कोई नहीं था. अदालत द्वारा नियुक्त वकील कभी उनसे जेल में नहीं मिला, और असल में उसने अपने खुद के मुवक्किल के खिलाफ इल्जाम लगाने वाले सबूत पेश किए. (सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले पर विचार किया और फिर फैसला किया कि यह ठीक है.) संक्षेप में, किसी भी तरह से तर्कसंगत संदेहों के परे जाकर उनका अपराध साबित नहीं हुआ. उन्होंने देखा कि सरकार ने उन्हें फांसी की सजा का इंतजार कर रहे लोगों में से चुन कर, बेवक्त फांसी दे दी. यह नया सर्द, तीखा गुस्सा किस दिशा में जाएगा और कौन सी शक्ल अख्तियार करेगा? क्या यह उन्हें वह मुक्ति (आजादी) दिलाएगा, जिसकी उन्हें इतनी चाहत है और जिसके लिए उन्होंने एक पूरी पीढ़ी कुरबान कर दी है. या इसका अंजाम तबाही से भरी हुई हिंसा का एक और सिलसिले में, कुचल दिए जाने और फौजी बूटों द्वारा थोपी गई ‘सामान्य हालात’ वाली जिंदगी में होगा?
हममें से जो भी इलाके में रहते हैं, वे जानते हैं 2014 एक ऐतिहासिक साल होने जा रहा है. पाकिस्तान, भारत और जम्मू और कश्मीर में चुनाव होंगे. हम जानते हैं कि जब अमेरिका अफगानिस्तान से अपने फौजियों को निकाल लेगा तो पहले से ही गंभीर रूप से अस्थिर पाकिस्तान की अव्यवस्था कश्मीर तक फैल जाएगी, जैसा कि पहले हो चुका है. जिस तरह से अफजल को फांसी दी गई है, उससे भारत सरकार ने इस अस्थिरता की प्रक्रिया को बढ़ाने का फैसला किया है, असल में उसने इसकी दावत दी है. (जैसा कि इसने पहले भी, 1987 में कश्मीर चुनावों में धांधली करके किया था.) घाटी में लगातार तीन सालों तक चले जनांदोलन के 2010 में खत्म होने के बाद सरकार ने ‘सामान्य हालात’ का अपना वर्जन लागू करने की काफी कोशिश की है (खुशहाल सैलानी, वोट डाल रहे कश्मीरी). सवाल है कि क्यों यह अपनी ही कोशिशों को पलटना चाहती है? जिस तरह अफजल गुरु को फांसी दी गई, उसके कानूनी, नैतिक और उसके अमानवीय पहलुओं को परे कर दें और इसे एक महज राजनीतिक, कार्यनीतिक रूप में देखें तो यह एक खतरनाक और गैरजिम्मेदार काम है. लेकिन यह किया गया है. साफ साफ और जान बूझ कर. क्यों?
मैंने ‘गैरजिम्मेदार’ शब्द सोच-समझ कर ही इस्तेमाल किया है. पिछले कुछ समय में जो हुआ है, उस पर नजर डालते हैं. 
2001 में, संसद पर हमलों के हफ्ते भर के भीतर (अफजल गुरु की गिरफ्तारी के कुछ दिनों के बाद) सरकार ने पाकिस्तान से अपने राजदूत को बुला लिया और अपनी पांच लाख फौज सरहद पर भेज दी. ऐसा किस आधार पर किया गया? जनता को सिर्फ यही बताया गया कि दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल की हिरासत में अफजल गुरु ने पाकिस्तान स्थित एक चरमपंथी समूह जैश-ए-मुहम्मद का सदस्य होना कबूल किया है. सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस हिरासत में दिए गए कबूलनामे को कानून की नजर में अमान्य करार दिया. लेकिन कानून की नजर में जो अमान्य है वो क्या जंग में मान्य हो जाता है?
मामले के अपने अंतिम फैसले में, ‘सामूहिक अंतरात्मा की संतुष्टि’ वाले अब मशहूर हो गए बयान और किसी सबूत के न होने के अलावा, सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि इसका ‘कोई सबूत नहीं था कि मोहम्मद अफजल गुरु का संबंध किसी आतंकवादी समूह या संगठन से है.’ तो फिर कौन सी बाद उस फौजी चढ़ाई, फौजियों के जान के उस नुकसान, जनता के पैसे को पानी के तरह बहाए जाने और परमाणु युद्ध के वास्तविक जोखिम को जायज ठहराती है? (विदेशी दूतावासों द्वारा यात्रा सुझाव जारी किया जाना और अपने कर्मचारियों को वापस बुलाया जाना याद है?) संसद हमले और अफजल गुरु की गिरफ्तारी के पहले क्या कोई खुफिया सूचना आई थी, जिसके बारे में हमें नहीं बताया गया? अगर ऐसा था, तो हमले को होने कैसे दिया गया? और अगर खुफिया सूचना सटीक थी, और इतनी सटीक थी कि उससे ऐसी खतरनाक फौजी तैनाती को जायज ठहराया जा सकता था, तो क्या भारत, पाकिस्तान और कश्मीर की जनता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि वह क्या थी? अफजल गुरु का अपराध साबित करने के लिए वह सबूत अदालत में क्यों नहीं पेश किया गया?
संसद पर हमले के मामले की सारी अंतहीन बहसों में से इस मुद्दे पर, जो कि सबसे अहम मुद्दा है, वामपंथी, दक्षिणपंथी, हिंदुत्वपंथी, धर्मनिरपेक्षतावादी, राष्ट्रवादी, देशद्रोही, सनकी, आलोचक - सभी हल्कों में मुर्दा खामोशी है. क्यों?
हो सकता है कि हमले के पीछे जैश-ए-मुहम्मद का दिमाग हो. भारतीय मीडिया के जाने-माने ‘आतंकवाद’ विशेषज्ञ प्रवीण स्वामी ने, जिनके भारतीय पुलिस और खुफिया एजेंसियों में ऐसे सूत्र हैं कि जलन होती है, हाल ही में एक पूर्व आईएसआई प्रमुख ले. जन. जावेद अशरफ काजी के 2003 के एक बयान का और एक पाकिस्तानी विद्वान मुहम्मद आमिर राणा की 2004 की एक किताब का हवाला दिया है, जिसमें संसद हमले में जैश-ए-मुहम्मद को जिम्मेदार ठहराया गया है. (एक ऐसे संगठन के मुखिया के बयान की सच्चाई पर यकीन करना दिल को छू गया, जिसका काम भारत को अस्थिर करना है.) लेकिन तब भी यह नहीं बताता कि 2001 में जब फौजी तैनाती हो रही थी, तो कौन से सबूत पास में थे.
चलिए बहस की खातिर मान लेते हैं कि जैश-ए-मुहम्मद ने हमला कराया था. हो सकता है कि आईएसआई भी इसमें शामिल हो. हमें यह दिखावा करने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान सरकार कश्मीर में छुपी हुई गतिविधियां करने से पाक-साफ है. (जैसे कि भारत सरकार बलूचिस्तान और पाकिस्तान के दूसरे इलाकों में करता है. याद करें कि भारतीय सेना ने 1970 के दशक में पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी को और 1980 के दशक में लिट्टे सहित छह विभिन्न श्रीलंकाई तमिल चरमपंथी समूहों को प्रशिक्षण दिया था.)
यह एक गंदा नजारा है. पाकिस्तान से जंग से क्या हासिल होने वाला था और अभी इससे क्या हासिल होगा? (जानों के भारी नुकसान के अलावा. और हथियारों के कुछ डीलरों के बैंक खातों के फूलते जाने के अलावा.) भारतीय युद्धोन्मादी लगातार यह सुझाव देते हैं कि ‘समस्या को जड़ से खत्म करने’ का अकेला तरीका ‘सख्ती से पीछा करते हुए’ पाकिस्तान में स्थित ‘आतंकवादी शिविरों’ को ‘खत्म करना’ है. सचमुच? यह देखना दिलचस्प होगा कि हमारे टीवी के पर्दों पर दिखने वाले कितने आक्रामक रणनीतिक विशेषज्ञों और रक्षा विश्लेषकों के हित रक्षा और हथियार उद्योग में हैं. उन्हें तो युद्ध की जरूरत तक नही है. उन्हें एक युद्ध-जैसी स्थिति की जरूरत है, जिसमें फौजी खर्च का ग्राफ ऊपर चढ़ता रहे. सख्ती से पीछा करने का खयाल बेवकूफी भरा है और जितना लगता है उससे कहीं अधिक दयनीय है. वे किन पर बम गिराएंगे? कुछ व्यक्तियों पर? उनके बैरकों और भोजन की आपूर्ति पर? या उनकी विचारधारा पर? देखिए कि अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा ‘सख्ती से पीछा किया जाना’ किस अंजाम को पहुंचा है. और देखिए कि कैसे पांच लाख फौजियों का ‘सुरक्षा जाल’ कश्मीर की निहत्थी, नागरिक आबादी को काबू में नहीं कर पाया है. और भारत सरहद पार करके एक ऐसे देश पर बम गिराने जा रहा है जिसके पास परमाणु बम है और जो अव्यवस्था में धंसता जा रहा है. भारत में युद्ध चाहनेवाले पेशेवरों को पाकिस्तान के बिखराव को देख कर काफी तसल्ली मिलती है. जिसे भी इतिहास और भूगोल की थोड़ी बहुत, कामचलाऊ भी जानकारी होगी, वो जान सकता है कि पाकिस्तान का टूटना  (उन्मादी, नकारवादी, धार्मिक हिमायतियों के गैंगलैंड के रूप में बिखर जाना) किसी के लिए भी खुशी मनाने की वजह नहीं है.
अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी मौजूदगी और आतंक के खिलाफ युद्ध में अमेरिकी मातहत के रूप में पाकिस्तान की भूमिका ने इस इलाके को सबसे ज्यादा खबरों में बने रहने वाला क्षेत्र बना दिया है. वहां जो खतरनाक चीजें हो रही हैं, कम से कम बाकी की दुनिया उनके बारे में जानती है. लेकिन उस खतरनाक तूफान के बारे में बहुत कम जाना-समझा जाता है और उससे भी कम पढ़ा जाता है, जो दुनिया की पसंदीदा नई महाशक्ति की दुनिया में तेजी अख्तियार कर रहा है. भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर रूप से मुश्किलों में है. आर्थिक उदारीकरण ने नए-नए बने मध्य वर्ग में जो आक्रामक, लालची महत्वाकांक्षा पैदा की है वो तेजी से उतनी ही आक्रामक हताशा में बदल रही है. जिस हवाई जहाज में वे बैठे थे, वो उड़ान भरने के फौरन बाद बंद हो गया है. खुशी का दौरा आतंक में बदल रहा है.
आम चुनाव 2014 में होने वाले हैं. एक्जिट पोल के बिना भी मैं आपको बता सकती हूं कि नतीजे क्या रहेंगे. हालांकि हो सकता है कि यह खुली आंखों से न दिखे, हमारे पास एक बार फिर कांग्रेस-भाजपा गठबंधन होगा. (दोनों में से हरेक दल के दामन पर अल्पसंख्यक समुदायों के हजारों लोगों के जनसंहारों के दाग हैं.) सीपीआई (एम) बाहर से समर्थन देगी, हालांकि उससे यह मांगा नहीं जाएगा. ओह, और यह एक मजबूत राज्य होगा. (फांसी के मोर्चे पर, फंदे तैयार हैं. क्या अगली बारी पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के लिए फांसी का इंतजार कर रहे बलवंत सिंह रजोआना की होगी? उनकी फांसी पंजाब में खालिस्तानी भावनाओं को भड़का देगी और अकाली दल को फायदा पहुंचाएगी. यह कांग्रेसी राजनीति का वही पुराना तरीका है.)
लेकिन पुराने तरीके की वह राजनीति कुछ मुश्किलों में है. पिछले कुछ उथल-पुथल भरे महीनों में, केवल मुख्य राजनीतिक दलों की छवि को ही नहीं, बल्कि खुद राजनीति को, राजनीति के विचार को जैसा कि हम इसे जानते हैं, धक्का लगा है. फिर और फिर से, चाहे वो भ्रष्टाचार हो, कीमतों का बढ़ना हो या बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही हिंसा हो, नया मध्य वर्ग बैरिकेडों पर है. उन पर पानी की बौछारें छोड़ी जा सकती हैं या लाठी चलाई जा सकती है, लेकिन गोली चला कर उनको हजारों की संख्या में मारा नहीं जा सकता, जिस तरह गरीबों को मारा जा सकता है, जिस तरह दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, कश्मीरियों, नागाओं और मणिपुरियों को मारा जा सकता है - और मारा जाता रहा है. पुराने राजनीतिक दल जानते हैं कि अगर पूरी तबाही नहीं लानी है, तो इस आक्रामकता को आगे बढ़ कर खत्म करना है, इसकी दिशा बदलनी है. वे जानते हैं कि राजनीति पहले जो हुआ करती थी, उसे वापस वही बनाने के लिए उनका मिल कर काम करना जरूरी है. तब एक सांप्रदायिक आग से बेहतर रास्ता क्या हो सकता है? (वरना और किस तरीके से एक धर्मनिरपेक्ष एक धर्मनिरपेक्ष बना रह सकता है और एक सांप्रदायिक एक सांप्रदायिक?) मुमकिन है कि एक छोटा सा युद्ध भी हो, ताकि हम फिर से नूराकुश्ती का खेल खेल सकें.
तब उस आजमाए हुए और भरोसेमंद पुराने राजनीतिक फुटबाल कश्मीर को उछालने से बेहतर समाधान और क्या हो सकता है? अफजल गुरु की फांसी, इसकी बेशर्मी और इसका वक्त, दोनों जानबूझ कर चुने गए हैं. इसने कश्मीर की सड़कों पर राजनीति और गुस्से को ला दिया है.
भारत इनको हमेशा की तरह क्रूर ताकत और जहरबुझी, मैकियावेलियाई चालबाजियों के साथ इसे काबू में कर लेने की उम्मीद करता है, जिन्हें लोगों को एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने के लिए बनाया गया है. कश्मीर में युद्ध को दुनिया के सामने एक सबको समेटने वाले, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र और उग्र इस्लामवादियों के बीच लड़ाई के रूप में पेश किया जाता है. तब हमें इस तथ्य का क्या करना चाहिए कि कश्मीर के तथाकथित ग्रांड मुफ्ती (जो एक पूरा कठपुतली पद है) मुफ्ती बशीरुद्दीन असल में एक सरकार द्वारा नियुक्त मुफ्ती हैं, जिन्होंने सबसे ज्यादा नफरत से भरे हुए भाषण दिए और एक के बाद एक फतवे जारी किए और जो मौजूदा कश्मीर को एक डरावना, अखंड वहाबी समाज बनाने का इरादा रखते हैं? फेसबुक के बच्चे गिरफ्तार किए जा सकते हैं, लेकिन वे कभी नहीं. हम इस तथ्य का क्या करें कि जब सऊदी अरब (अमेरिका का मजबूत दोस्त) कश्मीरी मदरसों में पैसे झोंकता है तो भारत सरकार दूसरी तरफ देख रही होती है? सीआईए ने अफगानिस्तान में उन सारे वर्षों में जो किया, यह उससे अलग कैसे है? उन करतूतों ने ही ओसामा बिन लादेन, अल कायदा और तालिबान को जन्म दिया. उन करतूतों ने ही अफगानिस्तान और पाकिस्तान को बर्बाद कर दिया. अब यह किस तरह के बुरे सपनों को जगाएगा?
समस्या यह है कि हो सकता है कि अब पुराने राजनीतिक फुटबॉल को काबू में करना पूरी तरह आसान नहीं रहे. और यह रेडियोएक्टिव भी है. हो सकता है कि यह महज एक इत्तेफाक न हो कि कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान ने ‘सामने आते परदृश्य’ से पैदा होने वाले खतरों के खिलाफ अपनी रक्षा की खातिर छोटी दूरी का जमीन से जमीन पर वार कर सकने वाले परमाणु मिसाइल का परीक्षण किया है. दो हफ्तों पहले, कश्मीर पुलिस ने परमाणु युद्ध में ‘बचाव की तरकीबें’ प्रकाशित की हैं. इसमें शौचालय-युक्त बमरोधी बेसमेंट बनाने के साथ साथ, जो इतना बड़ा हो कि पूरा परिवार इसके भीतर दो हफ्तों तक रह सके, कहा गया है: ‘एक परमाणु हमले के दौरान, गाड़ीचालकों को जल्दी ही पलट जाने वाली अपनी गाड़ियों के नीचे कुचलने से बचने के लिए उनसे निकल कर धमाके की तरफ छलांग लगानी चाहिए.’ और ‘उन्हें शुरुआती मतिभ्रम के लिए तैयार रहना चाहिए, जब धमाके की तरंगें गिरेंगी और अनेक महत्वपूर्ण और जानी-पहचानी विशिष्टताओं को हटा देंगी.’
मुमकिन है कि महत्वपूर्ण और जानी-पहचानी विशिष्टताएं पहले से ही गिर चुकी हों. शायद हम सबको अपनी जल्दी ही पलट जाने वाली गाड़ियों से कूद जाना चाहिए.

(अनुवादकीय नोट: नीचे से पांचवें पैराग्राफ की आखिरी पंक्ति में जहां ‘नूराकुश्ती’ का इस्तेमाल किया गया है, वहां अरुंधति ने Hawks & Doves का इस्तेमाल किया है. ये एक अंग्रेजी कॉमिक्स के अपराध से लड़ने वाले सुपरहीरो हैं. हालांकि इन दोनों का चरित्र अलग-अलग है, हॉक गरममिजाज और सख्त है तो डोव नरममिजाज है, लेकिन अपराध से दोनों मिल कर लड़ते हैं. यहां इनको क्रमश: भाजपा और कांग्रेस के साथ जोड़ कर दिखाया गया है. हिंदी में ऐसे पात्रों का अभी ध्यान नहीं आने की वजह से इसे 'नूराकुश्ती' में समेटने की कोशिश की गई है, फिर भी इसे इस टिप्पणी के साथ ही पढ़ा जाए.)