18 मई 2017

वैकल्पिक मीडिया की भ्रामक अवधारणा


सोशल मीडिया का प्रचलन बढ़ने के बाद इसे वैकल्पिक मीडिया करार देने की बहस भी तेज़ी से बढ़ी है। जब भी वैकल्पिक मीडिया की बात होती है तो समान्य तौर पर लोग इसे सोशल मीडिया से जोड़ देते हैं। कुछ वर्ष पहले तक वैकल्पिक मीडिया का पर्याय लघु पत्रिकाओं या फिर छोटे-मझोले अख़बारों को माना जाता था। वक़्त बदला, तकनीक बदली तो फेसबुक, ब्लॉग्स और वेबसाइट्स ने इस अवधारणा को बदल डाला, लेकिन इससे बुनियादी नहीं बदल जाते। वो सवाल आज भी यही है कि असल में वैकल्पिक मीडिया कहा किसे जाए?

 18 मई 2017 के दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित
वैकल्पिक शब्द आते ही ये साफ़ हो जाता है कि किसी संरचना/विचार या फिर किसी ईकाई के बरअक्स कोई ऐसा ढांचा, जो उससे अलग और कई अर्थों में उलट तौर पर हमारे बीच पेश आएं। जब वैक्लपिक मीडिया नाम का शब्द सामने आता है तो इसे कथित मुख्यधारा मीडिया के समानांतर पेश किया जाता है। लेकिन क्या कोई मीडिया अपने-आप में वैकल्पिक या समानांतर होता है? मीडिया अपने-आप में कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो हमारी ‘वैकल्पिकता’ की मंशा के मुताबिक़ व्यवहार करे। 

मीडिया किसी विचार/ख़बर या मुद्दे को पेश करने का ज़रिया भर है। यह एक माध्यम है। विचार और ख़बर किसी भी मीडिया के ज़रिए हम तक पहुंच सकते हैं। मिसाल के लिए जिसे लोग मुख्यधारा का मीडिया कहते हैं उसमें प्रिंट भी शामिल है और टीवी भी। यानी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के दो अलग-अलग खांचों में बंटे होने के बावजूद वो “मुख्यधारा” बना रहता है। लेकिन, उसी के बरअक्स लघु पत्रिकाओं और छोटे अख़बारों को जब वैकल्पिक मीडिया के तौर पर हम चिह्नित करते हैं तो हम किस बिंदु पर उसे अलग कह रहे होते हैं? क्या माध्यम के बिंदु पर? माध्यम के लिहाज से देखें तो लघु पत्रिका और छोटे अख़बार प्रिंट की श्रेणी में गिने जाएंगे। ज़ाहिर है फर्क मीडियम का नहीं है, फर्क है विषयवस्तु का।

विषय-वस्तु से ही लोग तय करते हैं कि समानांतर या फिर वैकल्पिक किसे कहा जाए। यानी नैरेटिव ही वैकल्पिक होने का मूल है, मीडिया नहीं। इसलिए वैकल्पिक मीडिया की अवधारणा बुनियादी तौर पर भ्रामक है। बढ़ते ऑनलाइन यूजर्स के बाद ऐसा ज़रूर हुआ है कि कई ख़बरों और मुद्दों को सोशल मीडिया में उछलने के बाद ही बड़े मीडिया घरानों में जगह मिल पाई। इसे सोशल मीडिया की सफ़लता के तौर पर भी पेश किया गया। लेकिन, ‘बड़े मीडिया घरानों’ में जगह दिलाने को उपलब्धि के तौर पर क्यों पेश किया जाए? 


क्या सोशल मीडिया सच में वैकल्पिक मीडिया है?
ऐसी कई घटनाओँ की दर्जन भर से ज़्यादा लोकप्रिय मिसालें पिछले दो-तीन वर्षों के दरम्यान ही गिनाईं जा सकती हैं। यही नहीं, सोशल मीडिया मोबलाइज़ेशन इतना कारगर रहा कि कई मुल्कों में सियासत की तस्वीर तक बदल गई। कई जगहों पर सोशल मीडिया के ज़रिए ही लोग साझे मुद्दे और साझे संघर्ष में एकजुट हुए। इसे सोशल मीडिया की बड़ी ताक़त के तौर पर पेश किया जाता रहा है। लेकिन ये विमर्श का दूसरा मुद्दा है। सोशल मीडिया मोबलाइजेशन का बड़ा टूल बनकर उभरा है, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन क्या जिन मुद्दों को एक पक्ष अपनी ताक़त के तौर पर पेश करता है वो संपूर्णता में ताक़तवर है? क्या सोशल मीडिया की ये ताक़त सच में उन्हीं विचारों को हासिल है, जिन्हें ‘मुख्यधारा के मीडिया’ में जगह नहीं मिल पाती?

अगर बड़े मीडिया घरानों में ‘जगह दिलाने में क़ामयाब होने’ को हम ताक़त मान लें, तो इसकी एकमात्र वजह उस ख़ास मुद्दे को ज़्यादा लोगों तक पहुंचाए जाने के भाव से जुड़ा है। अब अगर किसी स्थापित मीडिया से ज़्यादा पहुंच किसी निजी वेबसाइट या फिर निजी सोशल मीडिया एकाउंट की हो तो क्या उसे ‘मुख्यधारा’ कहा जाएगा? ये कुछ ऐसे बुनियादी सवाल हैं, जिनपर वैक्लपिक बनाम ‘मुख्यधारा’ की बहस के दरम्यांन फिर से सोचा-देखा जाना चाहिए।

मीडियम से ज़्यादा महत्वपूर्ण है मीडियम पर पकड़ और स्वामित्व। यही नैरेटिव को भी तय करता है और कंटेंट को भी। फ़ेसबुक अगर किसी सामाजिक बदलाव का मंच साबित हो रहा है तो इसी फेसबुक पर भड़काऊ, झूठे और आधारहीन ख़बरें भी चलाई जा रही हैं। बंगलुरू में पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के ख़िलाफ़ जिस तरह ऑनलाइन अभियान चला, वो ज़मीन पर उतरकर और भी ज़्यादा हिंसक हो गया था। फेसबुक और व्हाट्सऐप जैसे मंचों ने तथ्य को कई चेहरों में बांट दिया है। जिसके हाथ में जो ‘तथ्य’ है, वो उसी को ‘असली’ तथ्य मान रहा है। अफ़वाह/झूठ की भी फ़सल यहां लहलहा रही है। पूरा मामला इस पर निर्भर करता है कि फ़ेसबुक या किसी भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल किस लिहाज से कौन कर रहा है। अगर वो वर्चस्वशाली विचारधारा के समानांतर कोई नैरेटिव खड़ा कर रहा है तो वो वैकल्पिक पत्रकारिता का मंच हो सकता है, लेकिन वो महज मंच ही है, वैकल्पिक मीडिया नहीं।

फ़ेसबुक एक कंपनी है, जिसपर सारा नियंत्रण मार्क ज़करबर्ग है। यूजर के पास सिर्फ़ अपना कंटेंट तय करने का अधिकार है। मीडियम के गणित और सॉफ्टवेयर को अपने मुताबिक़ ढालने का नहीं। पिछले कुछ वर्षों में इसमें भी कई बदलाव देखने को मिले हैं। फ़ेसबुक के एल्गोरिद्म को इस तरह बदल दिया गया है कि एक यूजर जिन यूजर्स के साथ जितना परस्पर संवाद करेगा, उनकी न्यूज़ फीड में उतनी ही ज़्यादा उन व्यक्तियों का लिखा हुआ कंटेंट दिखेगा। अगर परस्पर संवाद कम हुआ, तो दिखना भी कम। ऐसे में ‘वैकल्पिक मीडिया’ के तौर पर इसे अगर पेश किया जाए और फॉलो करने वाले यूजर्स की संख्या को एक मानक मान लें, तो भी इस एल्गोरिद्म के चलते एक ख़ास विचारधारा वालों के बीच ही वो बातें अटककर रह जाती हैं, या फिर उस विचारधारा से इतर उन लोगों के बीच, जो सच में उस कंटेंट में रुचि रखते हों।

वैक्लपिक नैरेटिव के बिना वैक्लपिक मीडिया कुछ नहीं है
फ़ेसबुक अपने-आप में कंपनी के बतौर किसी भी कंटेंट का उत्पादन नहीं करता। ये यूजर्स जेनेरेटेड कंटेंट का एक मंच है। लेकिन, वो मुनाफ़ा कमाने में दुनिया के बड़े अख़बारों को बहुत पीछे छोड़ चुका है। 2016 के आख़िरी चौथाई में फ़ेसबुक ने 3600 करोड़ रुपए का मुनाफ़ा कमाया, तो वहीं न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसी दौरान पिछली चौथाई के मुक़ाबले तीन करोड़ का नुकसान सहा। अब अगर न्यूयॉर्क टाइम्स को ‘मुख्यधारा का मीडिया’ मान लें और फ़ेसबुक को ‘वैकल्पिक मीडिया’ तो किसी भी पैमाने पर ये मुफ़ीद नहीं बैठता। 

जिस तरह कोई आम यूजर अपनी बात दूसरे तक पहुंचाने के लिए फ़ेसबुक का इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स भी फ़ेसबुक के ज़रिए अपनी बात और ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश में जुटा है। यानी ये सबके लिए खुला मंच है। वैकल्पिक मीडिया के बदले इसलिए वैकल्पिक पत्रकारिता की अवधारणा पर ज़ोर दिया जाना चाहिए क्योंकि ‘मीडिया और तकनीक’ पर नियंत्रण किसी भी आम व्यक्ति से ज़्यादा आसानी से कोई स्थापित ‘मुख्यधारा मीडिया घराना’ कर सकता है। वैकल्पिक मीडिया की अवधारणा तकनीकी तौर पर भ्रामक है, वैकल्पिक अगर कुछ है तो सिर्फ़ नैरेटिव, राजनीति और विचारधारा।

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