18 फ़रवरी 2016

तीन रंग वाली आज़ादी

-हिमांशु पंड्या
मैं सबसे संवेदनशील मुद्दे नारे-पोस्टर-सभा पर ही बात करूंगा. उसके बहाने कई बातें आयेंगी.

पहली बात, मैं अब यह दावे से कह सकता हूँ कि 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का नारा वहां लगाया ही नहीं गया था.यह जी टीवी था जिसने 'भारतीय कोर्ट जिंदाबाद' को बड़ी कुशलता से वॉइस ओवर के जरिये 'पाकिस्तान जिंदाबाद' में बदला और फिर जब उसमें एबीवीपी के लोग ही फंसने लगे तो मूल वीडियो प्रस्तुत कर दिया लेकिन तब तक वह 'पाकिस्तान जिंदाबाद' का हौव्वा खडा कर चुका था जो लोगों की स्मृति में बस गया. वैसे यह सबसे कम आपत्तिजनक नारा है मेरी निगाह में, पर आपकी में है तो ये आपकी जानकारी के लिए है.

जो जीटीवी एक बार धोखा कर सकता है, उसके बाकी वीडियोज को भी शक की निगाह से देखिये. वॉइस ओवर से कुछ का कुछ बनाया जा सकता है. दूसरा वीडियो जो काफी अँधेरे में था, जिसमें 'भारत की बर्बादी' वाला नारा दिया गया, मैं उसके सन्दर्भ में खास तौर पर ये बात कह रहा हूँ. बहरहाल, यह नारा सर्वाधिक आपत्तिजनक है. इसका बचाव कोई भी नहीं कर सकता, सबको इसकी निंदा करनी चाहिए. सबने की भी, सभी दलों ने की, लिखित में भी पर्चे जारी कर की, फ़ौरन की. पर उसे किस किसने दिखाया ? 

जेएनयू में छात्र-छात्राओं की एकजुटता
'इंशा अल्लाह' का नारा कोई वामपंथी लगा ही नहीं सकता. डीएसयू ( -वह संगठन, जिससे कभी जुड़े रहे विद्यार्थियों ने यह कार्यक्रम रखा था) में तो सबसे 'कड़े' वामपंथी होते हैं, चौबीस कैरेट वाले ! ( मजाक कर रहा हूँ, हालांकि उस संगठन में भी मेरे अच्छे दोस्त रहे हैं. लडाइयां बहसें भी हुईं पर जब मेरे राज्य राजस्थान में 'सूचना के अधिकार' के तहत स्टैच्यू सर्किल, जयपुर पर चल रहे धरने में भागीदारी के लिए जेएनयू के साथियों से मैंने कहा तो जो छ दोस्त मेरे साथ जयपुर चले, उसमें तीन डीएसयू वाले ही थे.और वह कोई वामपंथी आन्दोलन नहीं था.) उसी तरह ( कन्हैया कुमार के संगठन ) एआईएसऍफ़ वाले राष्ट्रवाद को प्रश्नचिह्नित करने वाला कोई नारा नहीं लगा सकते. सबके नारे और उनकी राजनीति स्पष्ट है. 'न हिन्दू राष्ट्र न नक्सलवाद/ एक रहेगा हिन्दुस्तान' यह एसएफआई का नारा है, इसे आइसा कभी नहीं लगाएगी. दूसरी ओर यह भी स्पष्ट है कि संयुक्त मोर्चे/जुलूस में यह नारा एसएफआई भी नहीं लगाएगी. आप शायद समझ रहे होंगे.




बहरहाल, अब वो नारे जिनसे मुझे कोई दिक्कत नहीं है. और जो इस घटाटोप में बुरे मान लिए गए हैं. सबसे पहले 'आज़ादी' का नारा. आपने देखा होगा, उसमें एक के बाद एक कई आजादियों की मांग की जाती है. यह एक बहुत सुन्दर नारा है और यह अनेक मौकों पर दिया जाता है. यह हमारी आज़ादी को व्यापक अर्थों में ले जाने की मांग करता है.खुद बाबा साहब आंबेडकर ने राजनीतिक आज़ादी को नाकाफी कहते हुए सामाजिक आज़ादी के लिए लम्बी लड़ाई की जरूरत बतायी थी.हमारे दोस्त पंकज श्रीवास्तव ने इसका एक रूप प्रस्तुत किया है, मैं उसे साभार ले रहा हूँ : 

मैं भी माँगूँ आज़ादी
तुम भी माँगो आज़ादी
सामंतवाद से आज़ादी,
पूँजीवाद से आज़ादी,
साम्राज्यवाद से आज़ादी
कारपोरेट से आज़ादी,
जातिवाद से आज़ादी,
ब्राह्मणवाद से आज़ादी
मर्दवाद से आज़ादी..
राम भी माँगे आज़ादी
रहमान भी माँगे आज़ादी
सांप्रदायिकता से आज़ादी
दंगाइयों से आज़ादी
फ़ासीवाद से आज़ादी
लूटपाट से आज़ादी
लड़ के लेंगे आज़ादी
छीन के लेंगे आज़ादी..
आज़ादी भाई आज़ादी
हमें चाहिए आज़ादी...


तस्वीर-1. कश्मीर की अर्ध-विधवाएं
इस नारे ने निर्भया/ज्योति के आन्दोलन के समय एक नया आयाम और लोकप्रियता पायी. जिस समय निर्भया के निर्मम बलात्कार-हत्या के बाद पितृसत्ता द्वारा लड़कियों पर पाबंदियां बढ़ने और उनके कपड़ों-आचरण-घूमने-दोस्ती वगैरह को दोष देने का खतरा मंडरा रहा था, उस समय बहुत जागरूक ढंग से प्रमुख स्त्री संगठनों और जेएनयू के विद्यार्थियों ने इसे पितृसत्ता से लड़ाई पर फोकस करने में काम में लिया. उन मूल्यों से लड़ाई में काम लिया जो स्त्री को कमजोर और संरक्षणीय मानते थे,उनकी हिफाजत का जिम्मा मर्दों को देते थे और इस नाते स्त्री के हितैषी होने की छवि प्रस्तुत करते थे लेकिन दरअसल उसकी गुलामी की जंजीरें तैयार करते थे. ( कोई चैनल उन् नारों को न समझ पाने के कारण 'अनऑडिबल' कह रहा था, मुझे हंसी आ गयी.मुझसे पूछ लेते, पर नहीं , वह आपको नहीं समझ आयेगा, आपको सिर्फ 'कश्मीर मांगे आज़ादी' सुनाई देगा.) 'बाप से मांगे आज़ादी/ खाप से मांगे आज़ादी/ सुनसान सड़क पर आज़ादी/रात में घूमने की आज़ादी ...' इस तरह यह नारा बढ़ता जाता है, इसमें कई आयाम लोगों ने अपनी समझ और सूझ से जोड़े. इसी क्रम में यह समझना जरूरी है कि जब निर्भया आन्दोलन चल रहा था, तब इसकी मध्यवर्गीय सीमाओं को लांघने की कोशिश की गयी. इसमें सोनी सोरी ( एक आदिवासी बहन, जिसे बिना सबूतों के नक्सलवादी कहकर जेल में डाला गया, जिनकी योनि में दंतेवाडा एस पी अंकित गर्ग ने पत्थर भर दिए थे और इस वीर एस पी को भारत सरकार ने गैलेंट्री अवार्ड से सम्मानित किया.) या मनोरमा ( मणिपुर की बहन, जिसे आसाम राइफल्स के जवानों ने 10 जुलाई, 2004 को उठा लिया और अगले दिन उसका बलात्कृत क्षत विक्षत शव सड़क पर मिला और जिसके पांच दिन बाद मणिपुर की कुछ स्त्रियों ने भारत का सर्वाधिक मार्मिक झकझोर देनेवाला प्रतिरोध करते हुए नग्न होकर इस भारतीय राष्ट्र के सामने एक पोस्टर दिखाया जिस पर लिखा था - "इंडियन आर्मी, रेप अस". ) या कुनन पोश्पोरा की महिलाओं( कश्मीर के कुपवाड़ा का एक गाँव जहां 23 फरवारी ,1991 की रात फोर्थ राज राइफल्स के जवानों ने वहां की अनगिनत महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया,पूरी रात.) के सवाल क्यों नहीं शामिल होंगे. इसमें खैरलांजी के दलित परिवार की सुरेखा और प्रियंका भोटमांगे क्यों नहीं आयेंगी. 

29 सितम्बर,2006 को भोटमांगे परिवार के चार लोगों की नृशंस हत्या की गयी. दोनों मां-बेटी को गाँव भर में नग्न परेड और बलात्कार के बाद मारा गया. महिला आन्दोलन का मानना था कि जाति,धर्म,राष्ट्र के भाले सबसे पहले महिलाओं के ही शरीर में घोंपे जाते हैं और इसलिए कोई भी महिला मुद्दा इन सब पर हमला किये बिना,इकलौता नहीं लड़ा जा सकता.इस तरह इस लड़ाई में जातिगत शोषण से लेकर AFSPA जैसे कानूनों के विरोध ने भी जगह ली. छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को भी आज़ादी चाहिए, कॉर्पोरेट लूट से. कश्मीर को आज़ादी चाहिए आफ्सपा जैसे घोर मानव विरोधी क़ानून से. पूरे मुल्क को आज़ादी चाहिए हमारी नसों में घुस चुके जातिवाद के जहर से.

कश्मीर में फौज
यह सिर्फ एक लंबा उदाहरण था यह समझाने के लिए कि अधिकारों के लिए चल रही सारी लडाइयां आज़ादी की ही लडाइयां हैं. और ये आपस में जुडी हुई भी हैं. ‘आज़ादी’ – यह दुनिया का सबसे खूबसूरत लफ्ज़ है. बराबरी और भाईचारा इसका हाथ पकडे बिना नहीं आ सकते. आपको इससे डर क्यों लगता है ? आप नहीं चाहते कि इस मुल्क के सभी भाई बहन आज़ाद हों ? आपकी बेटियाँ देर रात घर आयें तो आपको चिंता न हो. यदि किसी के साथ उसके रंग या जन्म या लिंग या भाषा या क्षेत्र किसी भी आधार पर भेदभाव होता है तो सबसे पहले उसकी आज़ादी का हनन होता है, उन अधिकारों का हनन होता है, जो इस आज़ाद मुल्क ने अपने आज़ाद नागरिकों को देने का वादा किया था. क्यों यह मुल्क डेढ़ दशक से आमरण अनशन पर बैठी एक महिला की आवाज़ नहीं सुनना चाहता ? ( और जानकारी के लिए, यह पूरी दुनिया में सबसे लंबा आमरण अनशन बन चुका है. हैट्स ऑफ़ टू नेशन व्हिच डू नॉट वांट टू नो!)

और आपकी जानकारी के लिए, मैं हर साल जब साहित्य की अपनी कक्षा में आधुनिक काल पर आता हूँ तो सबसे पहले ‘आधुनिकता’ क्या है, इसी पर बात करता हूँ और आधुनिकता के सबसे जरूरी तत्त्व के रूप में इसी आज़ादी का मोल और अर्थ समझाता हूँ. ( दूसरा तत्त्व है – तर्क ) अब क्या आप मेरी कक्षा को भी देशद्रोही साबित करेंगे ? क्या उन किताबों को भी जला देंगे, जिनसे मैंने यह सीखा है ? 

अब रहा आख़िरी नारा – ‘तुम कितने अफज़ल मारोगे / हर घर से अफज़ल निकलेगा’. यदि मेरी अब तक की बातों का सिरा पकडके आप यहाँ तक पहुंचे तो इसे समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि इसका सीधा मतलब यही है कि राज्य की हिंसा सिर्फ प्रतिहिंसा को जन्म देती है. वैसे चर्चा तो इसकी भी की जा सकती है कि जब सामने से नारा लग रहा हो ‘जो अफज़ल की बात करेगा / वो अफज़ल की मौत मरेगा’ तो वो कौनसा यार्डस्टिक या पैमाना है, जो एक को राष्ट्र समर्थक और दूसरे को राष्ट्रद्रोही घोषित करता हो. दूसरी ओर का दूसरा नारा तो जगत्प्रसिद्ध है ही जिसमें दूध मांगने पर खीर देने की बात कही गयी है और खीर मुझे बचपन से ही बहुत पसंद है इसलिए मैं इस नारे का अर्धांश बचा लेना चाहता हूँ सभी खीर प्रेमियों की ओर से. मैं ‘दूसरी ओर’ यह भाषा काम में नहीं लेना चाहता था पर जब दो छोर हैं ही और आप एक छोर की बात सुन चुके हैं तो मेरा फ़र्ज़ है कि अनसुने छोर की ही बात बताऊँ. इसमें लगे हाथ यह भी जोड़ लीजिये कि अफज़ल को कश्मीर में लाखों लोग शहीद मानते हैं. भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने अपने निर्णय में उसके खिलाफ षड्यंत्र में प्रत्यक्ष भागीदारी के ठोस सबूत न होने की बात को स्वीकारा है और लिखा है कि उसे इस देश के ‘सामूहिक अंतःकरण की संतुष्टि’ के लिए फांसी दी जाए. इसका क्या मतलब होता है ? क्या इसे कोई न्यायिक हत्या कहे तो वह दोषी है इस मुल्क का ? इस आयोजन के आयोजकों ने अपने पर्चे में यही कहा था. इस कार्यक्रम का नाम था –‘द कंट्री विदाउट अ पोस्ट ऑफिस’. यह आगा शाहिद अली के 1997 में आये कविता संग्रह का नाम है. 

1990 में कश्मीर में सात महीनों तक डाक नहीं बंटी थी, यह इसका सन्दर्भ है. क्या उनकी तकलीफ को बाकी मुल्क को जानने का अधिकार नहीं है ? अपने को इस पूरे राष्ट्र का ठेकेदार मानने वाले पत्रकार का वह क्लिप आपने देखा होगा जिसमें उसने उमर खालिद को हनुमंथप्पा का नाम लेकर चुप करवा दिया था. चुप क्या करवा दिया था, माइक निकाल दिया था. आपको लगा ऐसा करके उसने भारतीय राष्ट्र की तरफ से उमर को चुप करवा दिया था. लांसनायक हनुमंथप्पा ने इस मुल्क के लिए जान दी थी तो इस मुल्क के लोगों की बात को, उन लोगों की बात को – जिसे यह मुल्क नहीं सुन पा रहा, पहुंचाने की कोशिश करने वाला उनकी विरासत का उत्तराधिकारी है या उस आवाज़ को चुप कराने वाला ? और क्या उसका अपने मुल्क के अभागे भाइयों से प्यार , देशद्रोह है ? ठीक से सोचिये, कहीं हमारी राष्ट्रवाद की अवधारणा में कोई बुनियादी कमी तो नहीं है ? 

इस चित्र को फिर ध्यान से देखिये, जिसे देखकर आपका खून खौल रहा था. इसमें एक चित्र कश्मीर की अर्धविधवाओं का है, वे मजलूम औरतें जिनके शौहर लापता हैं, जो बरसों से इस उम्मीद में जी रही हैं कि किसी दिन वे वापिस आ जाएंगे, वे उन कहानियों के सहारे जीवित हैं कि फलां का शौहर-बेटा-बाप तेरह साल बाद अचानक मिल गया था.दूसरा चित्र उनके यहाँ बरसों से स्थायी रूप से रह रही फ़ौज का है और तीसरा अफज़ल गुरु का है, जिसे वे अपने साथ हुए अन्याय का प्रतीक मानते हैं. ये तस्वीरें बर्बादी की कामना नहीं बल्कि जो बर्बाद हो रहा है, उसकी ओर आपका ध्यान दिलाने के लिए हैं.

अफ़ज़ल गुरु
वापिस नारों पे आईये. ‘बर्बादी’ वाला वह नारा कितनी देर का है ? बीस सैकंड ? तीस सैकंड ? जो मुल्क पंद्रह साल से गूँज रही अपनी बेटी की पुकार नहीं सुन रहा, उसने तीस सेकंड्स के नारे इतनी फुर्ती से कैसे सुन लिए ? इस सारी बहस को तो खैर जाने ही दीजिये कि उस केऑस में कोई नारा कितनी जल्दी रुकवाया जा सकता था, पर यह जान लीजिये कि इस मुल्क ने फिलहाल इतनी ‘सहिष्णुता’ दिखा रखी है कि वह इन इलाकों में उठने वाले आक्रोश के स्वरों की आसानी से ‘उपेक्षा’ कर देता है. यहाँ तक कि ऐसी आवाजों के साथ केंद्र , राज्य संचालन के दायित्त्व भी बाँट लेता है. जेएनयू इस देश का , कम से कम मानविकी, सामाजिक विज्ञान और गैर तकनीकी अनुसंधान में अकेला विश्वविद्यालय है जो अखिल भारतीय चरित्र का है. इसकी प्रवेश परीक्षा आनेवाली 16-19 मई को देश के बावन शहरों में होगी. यह विश्वविद्यालय एक छोटा भारत है. बड़ा भारत जब अपने दूरदराज के कोनों की आवाज़ दूरी के कारन सुन नहीं पा रहा होता, तब इस छोटे भारत में ये आवाजें पास पास आती हैं, कई बार केरल का लड़का, बिहार के लड़के का रूम पार्टनर बनता है. इस छोटे भारत में एक वे एक दूसरे की बातें सुनना-समझना-लड़ना-झगड़ना सब सीखते हैं. तब थोड़ा हौसला आता है, दूरियां मिटती हैं और यह छोटा भारत उस सपने को पाने की कोशिश करता है, जिसे दरअसल बड़े भारत को एक न एक दिन पाना ही है.

आपने जिन नौ दस बच्चों के चित्र टीवी पर देखे हैं ना, वे सब अलग अलग प्रान्तों के हैं, उनका साथ आना इस मुल्क को कमजोर नहीं, मजबूत बनाता है, शब्द के वास्तविक अर्थ में मजबूत. दबाव की एकता नहीं, साथ की एकता, प्यार की एकजूटता. कम से कम इस छोटे भारत में तो यह प्रयोग होना चाहिए. किसी दिन बड़े भारत में भी हम इस सपने को पा लेंगे.

और अब आखिर में मैं यह बता ही दूं – यह आज़ादी का नारा मूलतः कश्मीर का ही है और अब अगर मैं हिचकते हुए यह भी बता दूं कि यह नारा सबसे पहले कश्मीर की आज़ादी के लिए लड़नेवालों ने ही लगाया था तो अब तो आप मेरे मुंह से ‘आज़ादी’ इस लफ्ज़ का उच्चारण सुनकर मुझे देशद्रोही तो नहीं कहेंगे ना ? मैं इस मुल्क से बहुत प्यार करता हूँ , अपने अल्मा मैटर से प्यार करता हूँ जिसने मुझे पूरे मुल्क से प्यार करना सिखाया.

इसलिए लिखता हूँ – “असली नारे लगानेवाले को ढूंढो !” यह नारा भी दरअसल जेएनयू को बचा नहीं रहा है. एक नौजवान – जिसका नाम उमर खालिद है, उसे आपने बिना सबूत के आतंकवादी बनाकर पूरे मुल्क को उसकी तस्वीर दिखा दी है. दिल्ली की सड़कों पर उसके चित्र वाले पोस्टर लगा दिए हैं. बजरंग दल नामक सांस्कृतिक दल के कार्यकर्ता उसके खून से तिलक करके अपना अनुष्ठान पूर्ण करना चाहते हैं. यदि आज उसे कुछ हो गया ना, तो इस छोटे भारत में तो सम्वाद के सारे रास्ते बंद हो ही जायेंगे , पर आपकी कमीज़ पर जो खून के दाग लगेंगे,उनका क्या होगा ? माना,अखलाक का मारा जाना हम नहीं रोक सकते थे पर रोहित का मारा जाना एक क्रमबद्ध हत्या थी. उसका निष्कासन, उसका बहिष्कार, उसकी प्रताड़ना सब धीरे धीरे घटित हुआ था. उसे भी ‘राष्ट्र विरोधी’ ही घोषित किया गया था. ठीक है, आपको तब पता नहीं चला, पर इस बार तो आपकी आँखों के सामने सब हो रहा है.कन्हैया कुमार, उमर खालिद, रामा नागा, श्वेता राज,आशुतोष कुमार,अनंत प्रकाश नारायण ये सब नाम नहीं हैं,आपके विवेक की कसौटी हैं. अभी हम एक रोहित की हत्या का पश्चाताप भी नहीं कर पाए हैं, दूसरे रोहित को खुदसे बिछड़ने देंगे ? 







03 फ़रवरी 2016

एक लेखक को मारने के हज़ार तरीके

पंकज मिश्रा 

पंकज मिश्रा अंग्रेज़ी के प्रतिष्ठित लेखक हैं और राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर टिप्‍पणी लिखते हैं। उनकी यह टिप्‍पणी 2 फरवरी, 2016 को दि गार्डियन में प्रकाशित हुई है। हम इसे वहीं से साभार ले रहे हैं। सारी तस्‍वीरें भी वहीं से साभार हैं। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव का है। 

अरुंधति रॉय के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। ज़ाहिर है, मोदी की सरकार ने कला और विचार के खिलाफ़ इस अपराध के मौका-ए-वारदात पर अपनी उंगलियों के कोई निशान नहीं छोड़े हैं।
मिस्र और तुर्की की सरकारें इस समय लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों पर चौतरफा हमले की अगुवाई में पूरी ढिठाई से जुटी हुई हैं। तुर्की के राष्‍ट्रपति रेसेप तयिप एर्दोगन ने पिछले महीने तुर्की के अकादमिकों द्वारा अपनी आलोचना को खारिज करते हुए उन्‍हें विदेशी ताकतों की देशद्रोही कठपुतलियों की संज्ञा दे डाली थी, जिसके बाद से कई को निलंबित और बरखास्‍त किया जा चुका है। तुर्की और मिस्र दोनों ने ही अपने यहां पत्रकारों को कैद किया है जिसका विरोध अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर के प्रदर्शनों में देखने को मिल चुका है। भारत, जिसे औपचारिक तौर पर मुक्‍त लोकतांत्रिक संस्‍थानों के देश के रूप में अब तक जाना जाता रहा है, वहां बौद्धिक और रचनात्‍मक आज़ादी का दमन हालांकि कहीं ज्‍यादा कुटिल तरीके अख्तियार करता जा रहा है।

उच्‍च जाति के हिंदू राष्‍ट्रवादियों द्वारा नियंत्रित भारतीय विश्‍वविद्यालय बीते कुछ महीनों से अपने पाठ्यक्रम और परिसरों से ''राष्‍ट्र-विरोधियों'' को साफ़ करने में जुटे हुए हैं। पिछले महीने एक चौंकाने वाले घटनाक्रम में हैदराबाद के एक शोध छात्र रोहित वेमुला ने अपनी हत्‍या कर ली। भारत की एक परंपरागत रूप से वंचित जाति से आने वाले इस गरीब शोध छात्र पर ''राष्‍ट्र-विरोधी विचारों'' का आरोप मढ़कर पहले इसे निलंबित किया गया और बाद में उसका वजीफा बंद कर के छात्रावास से बाहर निकाल दिया गया। दिल्‍ली में बैठी मोदी सरकार द्वारा विश्‍वविद्यालय प्रशासन को भेजे एक पत्र में इस तथ्‍य का उद्घाटन हुआ कि प्रशासन पर परिसर में मौजूद ''अतिवादी और राष्‍ट्र-विरोधी राजनीति'' पर कार्रवाई करने का भारी दबाव था। वेमुला का हृदयविदारक सुसाइड नोट एक प्रतिभाशाली लेखक और विचारक के क्षोभ और अलगाव की गवाही देता है।

उच्‍च जाति के राष्‍ट्रवादियों का विस्‍तारित कुनबा अब सार्वजनिक दायरे में अपना प्रभुत्‍व स्‍थापित करने को अपना स्‍पष्‍ट लक्ष्‍य बना चुका है, लेकिन अपने आभासी दुश्‍मनों को कुचलने के लिए वे इस विशालकाय राज्‍य की ताकत को ही अकेले अपना औज़ार नहीं बना रहे, जैसा कि स्‍थानीय और विदेशी आलोचक पहली नज़र में समझ बैठते हैं। यह काम व्‍यक्तिगत स्‍तर पर पुलिस के पास दर्ज शिकायतों और निजी कानूनी याचिकाओं के रास्‍ते भी अंजाम दिया जा रहा है- भारत में लेखकों और कलाकारों के खिलाफ तमाम आपराधिक शिकायतें दर्ज की जा चुकी हैं। यह सब मिलकर एक ऐसा माहौल कायम कर देते हैं जहां दुस्‍साहसी गिरोह अखबारों के दफ्तरों से लेकर कला दीर्घाओं और सिनेमाघरों तक पर हमला करने की खुली छूट हासिल कर लेते हैं।

अपने संदेश को प्रसारित करने के लिए वे तमाम तरीकों से माध्‍यमों का इस्‍तेमाल करते हैं और इस तरह से वे माध्यमों को संदेश में रूपांतरित कर डालते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के करीबी बड़े कारोबारी आज भारतीय टेलीविज़न पर बर्लुस्‍कोनी की शैली में तकरीबन कब्‍ज़ा जमा चुके हैं। हिंदू राष्‍ट्रवादियों ने अब नए मीडिया को अपने हक़ में इस्‍तेमाल करने और जनधारणा को प्रभावित करने की तरकीब भी सीख ली है: एर्दोगन के शब्‍दों में कहें, तो वे अपने लक्षित श्रोताओं को गलत सूचनाओं के सागर में डुबोने के लिए सोशल मीडिया पर एक ''रोबोट लॉबी'' को तैनात करते हैं, तब तक, जब तक कि दो और दो मिलकर पांच न दिखने लगे।  

कारोबार, शिक्षण तंत्र और मीडिया के भीतर ऐसे संस्‍थानों और व्‍यक्तियों की पहचान करना बिलकुल संभव है जो सत्‍ताधारी दल की पहरेदारी करने में जुटे हुए हैं और उसी के आदेश पर कुत्‍ते की तरह हमला करने को दौड़ पड़ते हैं। चापलूस संपादकों से लेकर पीछा करने वाले हुड़दंगी गिरोहों तक फैला राजनीतिक, सामाजिक और सांस्‍कृतिक सत्‍ता का यह जकड़तंत्र साथ मिलकर प्रवृत्तियों का निर्माण करता है और धारणाओं को नियंत्रित करता है। इनकी सामूहिक ताकत इतनी ज्‍यादा है कि रोहित वेमुला के मुकाबले किसी कमज़ोर व्‍यक्ति के ऊपर तो वे तमाम रास्‍तों से चौतरफा दबाव बना सकते हैं।

पिछले हफ्ते जब उपन्‍यासकार अरुंधति रॉय को ''न्यायालय की अवमानना'' के मामले में अचानक आपराधिक सुनवाई झेलनी पड़ी जिसके चलते उन्‍हें जेल भी हो सकती है, उसी दौरान एक संदेश प्रसारित किया गया कि यह लेखिका रोहित वेमुला की हत्‍या में लिप्‍त उन ईसाई मिशनरियों के षडयंत्र का हिस्‍सा है जो भारत को तोड़ना चाहते हैं। इस घटिया और मनगढ़ंत बकवास को इतनी आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता था। इसके बाद भारत के मुख्‍यधारा के मीडिया में उदासीनता के साथ ही सही जो खबर चली, वह किसी को भी यह मानने को बाध्‍य कर देती कि रॉय की जवाबदेही तो बनती ही है।

वास्‍तविकता यह है कि जिसे रॉय की अदालती ''अवमानना'' बताया जा रहा है, वह पिछले साल मई में प्रकाशित उनका एक लेख है जिसमें उन्‍होंने दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में अंग्रेज़ी के लेक्‍चरार साईबाबा के उत्‍पीड़न की ओर ध्‍यान दिलाया था, जो गंभीर रूप से विकलांग हैं और जिन्‍हें पुलिस ने अगवा कर के ''राष्‍ट्र-विरोधी गतिविधियों'' के आरोप में जेल में कैद किया हुआ है। लेख में रॉय की दलील थी कि दर्जनों हत्‍याओं में दोषी मोदी के सहयोगियों को यदि ज़मानत मिल सकती है तो वीलचेयर पर चलने वाले उस शख्‍स को भी मिल सकती है जिसकी सेहत वैसे भी लगातार गिरती जा रही है।

सात महीने बाद नागपुर के एक जज ने ज़मानत को खारिज करते हुए रॉय को ''अश्‍लील'', ''असभ्‍य'', ''अशिष्‍ट'' और ''बेअदब'' व्‍यक्ति करार देते हुए कहा कि यह लेख साईबाबा को ज़मानत पर बाहर निकालने के एक जघन्‍य ''गेमप्‍लान'' का हिस्‍सा है जिसे अदालत अपनी अवमानना के तौर पर लेती है (जबकि सचाई यह है कि रॉय का लेख जब प्रकाशित हुआ था उस वक्‍त साईबाबा की ज़मानत की अर्जी लंबित नहीं थी, न ही किसी लंबित कानूनी प्रक्रिया की मांग करते हुए रॉय ने अदालत के किसी फैसले या जज की कोई आलोचना ही की थी)। जज ने आरोप लगाया कि रॉय ''भारत जैसे अतिसहिष्‍णु देश'' के खिलाफ प्रचार करने के लिए ''प्रतिष्ठित पुरस्‍कारों'' का इस्‍तेमाल कर रही हैं जो ''उन्‍हें मिले बताए जाते हैं''। रॉय इधर बीच अपने दूसरे उपन्‍यास पर काम कर रही हैं। इस अदालती फैसले से वे अचानक उन लोगों की दुश्‍मन बना दी गई हैं ''जो देश में गैरकानूनी और आतंकी गतिविधियों को रोकने की लड़ाई लड़ रहे हैं''।
आपको भी ऐसा विश्वास करने में कोई दिक्‍कत नहीं होती यदि आपने हाल ही में रॉय पर बनाई गई एक लघु फिल्‍म भारत के सवाधिक लोकप्रिय टीवी चैनलों में से एक पर देख ली होती, जिसे ज़ी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइज़ेज़ चलाता है जो भारत की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियों में एक है और मोदी का सबसे जोशीला चीयरलीडर भी है। नवंबर में प्रसारित इस फिल्‍म का दावा है कि एक राष्‍ट्र-विरोधी तत्‍व का 'सच्‍चा'' और पूरी तरह कलंकित चेहरा अपने दर्शकों को दिखाना ही उसका उद्देश्‍य है।

इस तरह कानून की अदालत समेत जनमानस में भी रॉय के संभावित दुश्‍मन तैयार कर दिए गए हैं और उन्‍हें सबसे निपटना है; इन सबकी उलाहनाएं और झूठे आरोप न केवल रॉय की अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं, बल्कि दुनियावी कोलाहल और बाधाओं से उस तुलनात्‍मक राहत को भी नष्‍ट कर रहे हैं जिसके आसरे एक लेखक अपने कमरे में महफ़ूज़ होकर लिखता-पढ़ता है। ज़ाहिर है, मोदी की सरकार ने कला और विचार के खिलाफ़ इस अपराध के मौका-ए-वारदात पर अपनी उंगलियों के कोई निशान नहीं छोड़े हैं। इसी तरह भारत जैसे एक औपचारिक लोकतंत्र में कलाकारों और बुद्धिजीवियों का दमन कई जटिल स्‍वरूपों में हमारे सामने आता है।
इसमें न सिर्फ एक बर्बर सत्‍ता की ओर से बंदिशें तारी की जाती हैं, बल्कि उसके शिकार कमज़ोर व्‍यक्तियों की ओर से खुद पर ही बंदिशें लगा ली जाती हैं। बात इससे भी ज्‍यादा व्‍यापक इसलिए है क्‍योंकि यह सब कुछ दरअसल सार्वजनिक व निजी नैतिकता के धीरे-धीरे होते जा रहे पतन पर टिका हुआ है, जहां घेर कर आखेट करने वाली भीड़ की सनक बढ़ती जाती है तो नागरिक समाज का लहजा भी मोटे तौर पर तल्‍ख़ होता जाता है। इस स्थिति के बनने में पंचों से लेकर मसखरों तक की बराबर हिस्‍सेदारी होती है।

जिस दिन नागपुर में रॉय आपराधिक सुनवाई का सामना कर रही थीं, संयोग से उसी दिन जयपुर लिटररी फेस्टिवल में अभिव्‍यक्ति की आज़ादी पर एक परिचर्चा रखी गई थी, जिसका प्रायोजक ज़ी है। ''क्‍या अभिव्‍यक्ति की आज़ादी निरपेक्ष होनी चाहिए''? इस विषय के खिलाफ़ सबसे उज्‍जड्ड तर्क रखने वाले और कोई नहीं बल्कि अनुपम खेर थे, जो बॉलीवुड में अपने नाटकीय मसखरेपन के लिए जाने जाते हैं। पिछले नवंबर में खेर ने उन भारतीय लेखकों के खिलाफ एक प्रदर्शन आयोजित किया था जिन्‍होंने तीन लेखकों की हत्‍या और मुस्लिमों व दलितों के क़त्‍ल के खिलाफ विरोध में अपने-अपने साहित्यिक पुरस्‍कार लौटा दिए थे। ''लेखकों को जूते मारो'' जैसे नारे लगाने के बाद उन्‍होंने दिल्‍ली में प्रधानमंत्री के सरकारी आवास पर मोदी के साथ तस्‍वीरें खिंचवाई थीं।

परदे पर एक विक्षुब्‍ध मसखरे से राजनीति में एक खतरनाक भांड़ में कायांतरित हो चुके अनुपम खेर की एक साहित्यिक समारोह में मौजूदगी तब भी उतनी ही बुरी होती अगर उन्‍होंने वहां ''मोदी, मोदी'' चिल्‍ला रहे श्रोताओं के बीच अपनी मुट्ठी नहीं लहरायी होती या फिर उन्‍होंने या दूसरे वक्‍ताओं ने अरुंधति रॉय का जि़क्र ही कर दिया होता। लेकिन तब, कम से कम एक जीवंत मेधा और वैयक्तिक चेतना की बढ़ती जा रही उपेक्षा- और उसके बढते अनुकूलन- के बारे में कुछ बात आ जाती। आदम मीत्‍सकेविच से लेकर रबींद्रनाथ टैगोर तक तमाम लेखकों ने कभी राष्‍ट्रीय चेतना को अपने लेखन से जीवंत किया था। आज हिंदू राष्‍ट्रवादी राष्‍ट्रीय चेतना के समक्ष इस बात का प्रदर्शन कर रहे हैं कि एक लेखक की हत्‍या कितने तरीकों से की जा सकती है।
साभार: जनपथ