(संदर्भ: इस्लामी झंडा=पाकिस्तानी झंडा)
दिलीप ख़ान
2010 में अमेरिका में गैलप वर्ल्ड रेलिजन सर्वे में दिलचस्प नतीजे सामने आए। सर्वे में अमेरिका के अलग-अलग प्रांतों के लोगों से धर्म और उनके अनुयाइयों के बारे में सवाल पूछे गए। 63 फ़ीसदी अमेरिकियों ने माना इस्लाम के बारे में उन्हें या तो 'ज़रा भी जानकारी' नहीं है या फिर 'बिल्कुल कम' जानकारी है। सर्वे के 43 फ़ीसदी हिस्सेदारों ने कहा कि मुस्लिमों के बारे में उनके भीतर पूर्वाग्रह है। (1) तो, इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानने वाले तबके का बड़ा हिस्सा मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित था। ये पूर्वाग्रह फिर आया कहां से? आम तौर पर जिस चीज़ के बारे में लोगों को जानकारी नहीं होती, उसके बारे में राय बनानी मुश्किल होती है। लेकिन, जानकारी के बगैर किसी धार्मिक समूह के लोगों के प्रति मन में बैर-भाव पालने का मतलब है कि भले ही उस समुदाय के 'धार्मिक तौर-तरीकों' के बारे में लोगों को नहीं पता, लेकिन समाज में उस समुदाय की जो छवि बनी है उस आधार पर लोगों ने अपने मन में एक धारणा बना ली। अब सवाल ये है कि ये छवि बनी कैसे? पश्चिमी मीडिया में 2001 में 9/11 की घटना के बाद इस्लाम को 'चरमपंथ' और 'कट्टरता' के पर्याय के तौर पर परोसने की कवायद तेज़ हुई। (2) मुस्लिमों के बारे में राजनीतिक स्तर पर जो प्रचार हुआ, मीडिया ने उसे ज़्यादा मसाला देकर उछालना शुरू किया।
मीडिया पूर्वाग्रह पर कई शोध हो चुके हैं
एफ़ हैलीडे ने इस प्रचार को दो भागों में बांटा है। पहला 'रणनीतिक' और दूसरा 'लोकलुभावन'। उन्होंने कहा कि अमेरिका ने तेल, नाभिकीय हथियार और आतंकवाद के मुद्दे पर रणनीतिक तरीके से मुस्लिमों की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ख़ास रंग में रंगा। ये सिलसिला ओपेक जैसे संगठनों के बनने और ईरानी क्रांति के दौर में ही शुरू हो गया था। हैलीडे के मुताबिक़ लोकलुभावन तौर-तरीकों की जड़ यूरोप में जमी, जब मुस्लिम प्रवासियों के ख़िलाफ़ सांस्कृतिक अलगाव के मुद्दे पर कई ऐसे सवाल उठाए गए जिससे पूरे क़ौम को ऐसा साबित किया जा सके कि वो यूरोपीय लोगों के साथ तालमेल नहीं बैठा सकते। मसलन बुर्क़े, हिज़ाब और मस्ज़िद जैसे सवाल को सांस्कृतिक अलगाव का मुद्दा बनाया गया। (3) ) एफ़ ए नूर ने मुस्लिमों के ख़िलाफ़ इन सारे पूर्वाग्रहों को बीते कुछ दशकों की सोची-समझी साजिश करार दिया है और उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि इसमें मीडिया का बड़ा हाथ है। वो कहते हैं कि "मुस्लिम अस्मिता को पूरी दुनिया में लगातार विरोधी पहचान के तौर पर स्थापित किया गया" (पेज-261) और इस्लामोफोबिया मुख्यधारा के मीडिया में बड़ा विमर्श बनकर उभरा है। नूर के मुताबिक़ न्यूज़ मीडिया, फ़िल्मों और वीडियो गेम में अमूमन "मुस्लिमों की छवि हत्यारे, क्रूर आतंकवादियों की बनाई गई है"। (पेज-267) (4) एडवर्ड हरमन और नोम चोम्स्की ने अपने चर्चित अध्ययन में पाया कि 'मीडिया सहमति का निर्माण करता है'। (5) उन्होंने प्रोपेगैंडा मॉडल के ज़रिए इस बात को विस्तार से बताया और उसके बाद इस आधार पर मीडिया स्टडीज़ में कई शोध हुए।
दैनिक भास्कर में छपी ख़बर; जो पूर्वाग्रह को दर्शाता है
मीडिया के बारे में हुए इन तमाम अध्ययनों को अगर भारतीय मीडिया जगत की दैनंदिन की राजनीति के साथ नत्थी करें तो एक ऐसा कोलाज उभरेगा जो इन तमाम अवधारणाओं को समेटे है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जब मीडिया में मुस्लिमों के बारे में या तो भ्रामक ख़बरें छापी गईं या फिर तथ्यात्मक तौर पर ग़लत या फिर शब्दों, बिंबों, तस्वीरों और कैरीकैचर के ज़रिए एक ख़ास अर्थ भरने की कोशिश हुई। (6) इससे पहले कि इसके सैद्धांतिक पहलुओं पर बात की जाए, दैनिक भास्कर में छपी एक ख़बर के ज़रिए इस पूर्वाग्रह को समझने की कोशिश करते हैं। 17 दिसंबर 2015 को दैनिक भास्कर में ख़बर छपी: “हलवाई बाज़ार में घर की छत पर लहराया पाक झंडा”। ये ख़बर राजस्थान के दौसा ज़िले की है और पूरी रिपोर्ट में ये बताने की कोशिश की गई है कि “मुख्यमंत्री के संभावित दौरे के बावज़ूद पुलिस प्रशासन की ये बड़ी नाकामी है और सीआईडी के साथ साथ सीबी के लोगों को इस बारे में कोई ख़बर नहीं लगी”, साथ ही इस रिपोर्ट में झंडे में बने ‘चांद-तारे’ का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया गया है और जिस व्यक्ति का मकान है उसका नाम भी रिपोर्ट में सार्वजनिक किया गया। (7) ये पूरी रिपोर्ट ‘डिसइनफॉरमेशन’ (मिसइनफॉरमेशन नहीं) (8) का बड़ा नमूना है जिसमें मीडिया का बुनियादी तथ्य ही ग़लत है और इस तरह पूरी ख़बर ना सिर्फ़ झूठी है बल्कि सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने वाली है।
असल में वो झंडा पाकिस्तानी नहीं बल्कि इस्लामी था, जोकि 24 दिसंबर को पैगम्बर मोहम्मद की जयंति के लिए घर के ऊपर फहराया गया। (9) ख़बर छपने के बाद जब इस पर स्थानीय लोगों ने आक्रोश जताया और पूरे मामले ने सोशल पर ज़ोर पकड़ा तो दैनिक भास्कर ने माफीनामा छापने के बजाए ज़िला प्रशासन के हवाले से ख़बर छापी जिसको पढ़ने से ऐसा लग रहा था कि रिपोर्टर को पूरी ख़बर ज़िला प्रशासन ने दी हो और ग़लत तथ्य का प्रसारण प्रशानस की तरफ़ से हुआ। दौसा संस्करण में ख़बर छपी: “पाकिस्तानी झंडा नहीं लहराया, पहचानने में हुई चूक: एसपी।” (10) हालांकि जो मूल ख़बर 17 तारीख को छपी थी उसमें इसी ज़िला प्रशासन पर सवाल उठाए गए थे और दावा किया गया था कि ‘ज़िला प्रशासन को कानों-कान कोई ख़बर नहीं लगी’ जबकि खंडन के नाम पर उसी प्रशासन का हवाला दिया गया जिस पर रिपोर्ट में सवाल उठाए गए थे। यानी अपनी ग़लती को प्रशासन की ग़लती बताकर दैनिक भास्कर ने बचाव का रास्ता ढूंढा। लेकिन इस बीच स्थानीय लोगों ने जब पुलिस में एफ़आईआर दर्ज किया तो प्रशासन ने रिपोर्टर को गिरफ़्तार कर लिया। एफ़आईआर में फोटोग्राफर सहित दो वरिष्ठ संपादकों को भी नामज़द किया गया। इसके बाद राजस्थान में दैनिक भास्कर के प्रतिस्पर्धी अख़बार राजस्थान पत्रिका ने पूरे मामले की ख़बर छापी: “उन्माद फैलाने के मामले में पत्रकार गिरफ़्तार।” (11) लेकिन दैनिक भास्कर ने इस गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ अपना आक्रोश जताते हुए लिखा: “एसपी का गुंडाराज, 4 बजे एफआईआर, डेढ़ घंटे बाद ही पत्रकार गिरफ़्तार”। (12) बाद में इंडियन एक्सप्रेस ने पूरे मामले को प्रमुखता से पहले पेज पर जगह दी और ख़बर छापी: “Journalist held after ‘Pak flag on Dausa house’ report”. (13)
भास्कर ने ग़लती मानने के बदले एसपी के माथे पर ठीकरा फोड़ दिया
इस ख़बर को देखें तो मीडिया के भीतर मुस्लिमों के बारे में पूर्वाग्रह और इस्लाम के प्रति ‘कम जानकारी’ का मामला सीधे तौर पर स्पष्ट होता है। लेख की शुरुआत में जिस सर्वे का ज़िक्र किया गया वो अमेरिकी समाज की तरह ही दैनिक भास्कर नाम की संस्था पर भी उसी रूप में लागू होता है। ख़बर लिखने वाले रिपोर्टर भुवनेश यादव ने इस्लामी झंडे को पाकिस्तानी झंडा बताकर जो ख़बर छापी वो ये दर्शाता है कि मोटे तौर पर इस्लाम को पाकिस्तान के साथ पर्याय के तौर पर मीडिया सहित देश के बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय का बड़ा हिस्सा देखता है।
दैनिक भास्कर के इस उदाहरण के ज़रिए भारत के संदर्भ में पूरे मामले को देखें तो चार बिंदुओं पर बात करनी ज़रूरी है। पहला, भारत में मुस्लिमों के प्रति बहुसंख्यक आबादी का क्या रुझान है? दूसरा, पश्चिमी मीडिया में मुस्लिमों की जो छवि बनी, भारत उससे कितना प्रभावित है? तीसरा, भारत में निजी टीवी न्यूज़ चैनलों की शुरुआत कैसे हुई और इसमें अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों और मीडिया ने क्या भूमिका निभाई और टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग के साथ प्रिंट का क्या तादात्म्य है? चौथा, भारत के मीडिया में समाज के किस तबके का दबदबा है और सामाजिक स्तर पर ये तबका धार्मिक अल्पसंख्यकों को किस नज़रिए से देखता है?
1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद मुस्लिमों के प्रति भारतीय बहुसंख्यकों के भीतर सांस्कृतिक तौर पर विलगाव का बोध लगातार गहराया है। इसकी चरम परिणति सांप्रदायिक हिंसा के रूप में हमारे चारों तरफ़ देखी जा रही है। (14) देश में बीते साढ़े छह दशकों में हर साल सैंकड़ों की तादाद में सांप्रदायिक झड़पों के मामले लगातार देखे जा रहे हैं। इन सारी घटनाओं का सामाजिक और सांस्कृतिक असर इतना गाढ़ा होता है कि एक-दूसरे समुदाय के प्रति अविश्वास का भाव घनीभूत होता जाता है। इसके बाद मामूली अफ़वाहों या फिर छोटी-मोटी घटनाओं के आधार पर किसी एक व्यक्ति से शुरू हुआ पूरा मामला समूची धार्मिक पहचान को एक रंग से रंग देता है। उत्तर प्रदेश के दादरी के एक गांव में 28 सितंबर 2015 को बीफ़ की अफ़वाहों के आधार पर जिस तरह दक्षिणपंथी विचारधारा के एक समूह ने मोहम्मद अख़लाक की हत्या की, वो इस बात को और ज़्यादा पुष्ट करता है कि किस तरह सैंकड़ों साल की मिली-जुली बसावट पल भर में अफ़वाहों का शिकार होकर नेस्तनाबूद हो जाता है। (15) पूरे मामले में अमर उजाला और पंजाब केसरी के स्थानीय संस्करणों में बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से गोकशी से जुड़ी ख़बरें सीरीज में छपी, जिसने उस उग्र मानसिकता को और ज़्यादा बढ़ावा देने का काम किया।
बाद में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब मीडिया ने इसे उठाया और रिपोर्टिंग में कुछ संजीदगी देखने को मिली तो स्थानीय अख़बारों के भी सुर बदले। दादरी के बाद एक महीने के भीतर इस तरह की कई घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में घटीं। (16) भारत में मुस्लिमों को लेकर बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में अमेरिकियों की तरह पूर्वाग्रह के वही भाव है जिसकी चर्चा लेख की शुरुआत में की गई है। सांस्कृतिक विविधताओं से भरे मुंबई और दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में मुस्लिमों को मकान मिलने में भारी मुश्क़िलें आती है। (17) यानी आस-पड़ोस या फिर एक मकान में छत साझा करने में दो समुदायों के बीच असहजता का मामला धीरे-धीरे सुरक्षा और असुरक्षा के स्तर तक जा पहुंचा है और कई इलाक़ों में मुस्लिम किराएदारों को सिर्फ़ इसलिए मकान देने से मना करने के मामले देखे गए कि मकान मालिकों के मन में मुस्लिमों की छवि आतंकवादियों जैसी थी!
गिरफ़्तारी के बाद अख़बार की तरफ़ से दबाव बनाने की कोशिश
ऐसा नहीं है कि मुस्लिमों के प्रति समूची बहुसंख्यक आबादी ऐसा ही पूर्वाग्रह रखता है। धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को बचाने की कोशिश भी लगतार जारी है, लेकिन मीडिया की असंवेदनशील भूमिका कई बार इसी ताने-बाने को चोट पहुंचाती नज़र आती है। सैद्धांतिक तौर पर मीडिया की ज़िम्मेदारी सामाजिक एकता और लोकतांत्रिक मूल्यों को मज़बूत करने की है, लेकिन अल्पसंख्यकों की छवि को ख़ास रंग में पोतने की कोशिश में वो अपने इन्हीं मूल्यों के उलट काम करता नज़र आता है। ऐसा सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में देखा जा रहा है। मीडिया में छपने/दिखने वाली ख़बरें सिर्फ़ ख़बर के रूप में हमारे बीच नहीं आती, बल्कि वो हमारी सांस्कृतिक चेतना को बनाती-बिगाड़ती है। थियोडोर एडर्नो और मैक्स होर्खाइमर ने अपने प्रसिद्ध सिद्धांत 'संस्कृति उद्योग' में इस बात को विस्तार से बताया है। (18) मीडिया असल में हमारे ज्ञान का सांस्कृतिक उत्पादन करता है। लिहाजा अगर दो अलग-अलग मिज़ाज के मीडिया में से दर्शक/पाठक की पहुंच किसी एक मीडिया तक ही हो और वो मीडिया किसी ख़ास विचारधारा के तहत सचेतन या अवचेतन तरीके से एक ख़ास समुदाय के बारे में विद्वेषपूर्ण रिपोर्टिंग करे, तो उसका सांस्कृतिक उत्पादन समाज को भी सांप्रदायिक चेतना से लैस करने वाला होगा। (19)
ये एक बड़ा सवाल है कि भारतीय मीडिया का इस मामले में अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ क्या संबंध है? मध्य-पूर्व की राजनीति और पश्चिमी मीडिया में मुस्लिमों की गढ़ी गई छवि किस तरह भारतीय मीडिया में भी उसी रूप में उभकर सामने आती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीय मीडिया में मध्य-पूर्व के मुल्कों की ख़बरों का बड़ा स्रोत रॉयटर्स, एएफ़पी जैसी पश्चिमी न्यूज़ एजेंसी है, लिहाजा पश्चिमी मीडिया की विचारधाराओं के साथ भारतीय मीडिया का वैचारिक तालमेल साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए भारतीय मीडिया 'लगभग पूरी तरह' पश्चिमी न्यूज़ एजेंसियों पर निर्भर है। (20) पश्चिमी न्यूज़ एजेंसियों के इस प्रभाव को तोड़ने की कोशिश कई बार अंतरराष्ट्रीय राजनीति का बड़ा एजेंडा रहा, लेकिन आख़िरकार इसमें जीत हासिल नहीं हो पाई। यूनेस्को में आज भी इसके विकल्प को लेकर चर्चा की जा रही है, लेकिन भारतीय मीडिया उद्योग के लिए ये अबतक बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है। (21) लिहाजा पश्चिमी मीडिया में मुस्लिमों की गढ़ी गई छवि से भारत का मीडिया या तो सीधे तौर पर प्रभावित है या फिर भारतीय सांस्कृति बुनावट के चलते यहां के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम) को लेकर उससे भी ज़्यादा पूर्वाग्रह से ग्रसित है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मीडिया ने जिस तरह मुस्लिमों की छवि गढ़ी है उसे कई जानकारों ने इस्लामोफोबिया का नाम दिया है। (22) भारतीय मीडिया में इस्लामोफोबिया के उदाहरण साफ़ तौर पर देखें जा सकते हैं। दैनिक भास्कर की ऊपर उद्धृत रिपोर्ट इसकी एक बानगी भर है।टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों में भी ऐसी रिपोर्टिंग की सैद्धांतिक जड़ें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों की तैयार हुई छवि के साथ मिली हुई है। असल में भारत में निजी टीवी चैनलों और केबल टीवी चैनलों की शुरुआत ही खाड़ी युद्ध के प्रसारण से हुई। उस युद्ध को सीएनएन ने भारत के पंचसितारा होटलों में दिखाना शुरू किया। लिहाजा टीवी चैनलों की बुनियाद ही पश्चिमी मीडिया का मध्य-पूर्व के मुस्लिम बाहुल्य देशों के प्रति अपने नज़रिए के विस्तारीकरण की प्रक्रिया में पड़ी।
स्वाधीनता की लड़ाई के बाद जब भारत और पाकिस्तान नाम से दो अलग-अलग देश बने तो दोनों तरफ़ धार्मिक बहुसंख्यकों ने सांस्कृतिक तौर पर ख़ुद की पहचान को राष्ट्रीय पहचान के साथ नत्थी कर देखने की शुरुआत की। बहुसंख्यक पहचान के आधार पर राजनीति करने वाले कुछ संगठनों ने इसे दोनों मुल्कों में लोगों के ज़ेहन में और गहराई से पैबस्त कराया। (23) भारत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संगठन के अलावा ऐसे कई दक्षिणपंथी बहुसंख्यक संगठन है जो इसी राजनीति के आधार पर समाज से लगातार मुखातिब हो रहे हैं। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक महादेव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी दो किताबों (We or our Nationhood Defined और Bunch of Thoughts) में देश में धार्मिक बहुलता को दरकिनार करते हुए हिंदुत्व की अवधारणा को राष्ट्रीयता की अवधारणा करार दिया। संघ की राजनीति का ये मूल आधार है जिसमें हिंदुत्व ही भारतीय राष्ट्रवाद है। (24) इस आधार पर मुस्लिमों की पहचान को पाकिस्तान के साथ जोड़कर देखने की कवायद भी तेज़ हुई। देश के कई इलाक़ों में मुस्लिम बस्ती को “पाकिस्तान’ बुलाने का मामला बेहद आम है। यहां तक कि पुलिस रिकॉर्ड में भी कुछ बस्तियों को ‘पाकिस्तान’ के तौर पर दर्ज़ किया गया। (25)
इस्लाम=आतंकवाद को दर्शाने वाले ऐसे कैरीकैचर अख़बारों में आम है
राजनीतिक संचार के लिहाज से देखें तो दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी राजनीति की सबसे बड़ी पार्टी, बीजेपी, के अध्यक्ष ने खुले तौर पर हिंदूवादी गोलबंदी के लिए बिहार विधान सभा चुनाव 2015 में ‘पाकिस्तान में पटाखा छूटने’ वाला बयान दिया। (26) पाकिस्तान के ज़िक्र का राजनीतिक संप्रेषण बिहार की जनता के लिए ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तहत हिंदुत्व को राष्ट्रीयता का पर्याय’ मानने के चलते ‘मुस्लिमों के बीच पटाखा छूटने’ के रूप में हो रहा था। असल में राष्ट्रवाद का भाव गहराने के लिए सामने कोई ‘दूसरी पहचान’ की मौजूदगी बेहद अहम है। आज़ादी से पहले भारतीय राष्ट्रवाद के सामने ये पहचान अंग्रेज़ थे। आज़ादी के बाद ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की अवधारणा के चलते बहुसंख्यकों के बीच ये पाकिस्तान और मुस्लिम बनकर उभरे हैं। इन दोनों को आपस में फेंटकर इस्तेमाल करने का चलन भी लगातार बढ़ा है। इस वक़्त अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान को भारत सबसे बड़े दुश्मन मुल्क के तौर पर देख रहा है। (27) लिहाजा पाकिस्तान के प्रति लगाव का मतलब भारत से दुश्मनी माना जाता है। दक्षिणपंथी विचारधारा का अगर राजनीतिक संचार के नज़रिए से विश्लेषण करें तो ऐसे दर्ज़नों वाक़ये सामने आ जाएंगे जब हिंदुत्व की आलोचना को सैद्धांतिक तौर पर राष्ट्र-राज्य ने प्रतिबंधित किया (28) या फिर बहुसंख्यक दक्षिणपंथी विचारधारा को पाकिस्तान के पर्याय के तौर पर पेश किया और हिंदुत्ववादी रहन-सहन और संस्कृति के साथ ताल-मेल नहीं बैठाने के चलते पाकिस्तान जाने की हिदायतें दी गईं। (29)
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट में ‘राष्ट्रवाद’ और ‘दूसरी पहचान’ के बारे में कम जानकारी का मामला आक्रामक तरीके से सामने आया, जिसमें रिपोर्टर और संस्था की तरफ़ से मुस्लिम=पाकिस्तानी की अवचेतन समझ पन्नों में छपकर सार्वजनिक हो गई। (30) एफ़ हैलीडे ने मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह को जिन दो खांचों में बांटा है वो दोनों (‘रणनीतिक’ और “लोकलुभावन’) इस रिपोर्ट में साफ़ देखने को मिल जाती है। यानी सांस्कृतिक विलगाव के चलते दूसरे धार्मिक समुदाय के बारे में ‘कम जानकारी’ और पूर्वाग्रह के चलते उस समुदाय को ‘दुश्मन मुल्क’ के साथ नत्थी कर देने की छटपटाहट के साथ ये रिपोर्ट हमारे बीच छपकर आई।
न्यूज़रूम में सामाजिक विविधता का अभाव पूर्वाग्रह का बड़ा कारण
जातीय और धार्मिक पूर्वाग्रह के मामले का बड़ा कारण ये भी माना जाता है कि देश के मीडिया संस्थानों में सामाजिक बहुलता बेहद कम है। राष्ट्रीय मीडिया और बिहार के मीडिया को लेकर हुए दो अहम सर्वेक्षणों में ये पाया गया कि ज़्यादातर निर्णयकारी पदों पर सवर्ण हिंदुओं की कब्ज़ेदारी है। (31) न्यूज़रूम में जब एक ख़ास तबके का दबदबा रहता है तो दूसरे समुदाय के बारे में छपने वाली ख़बर का नज़रिया एकरैखीय हो जाता है। लिहाजा इसमें कई बार पूर्वाग्रह और कई बार सचेतन गड़बड़ियां देखी जाती है। आरक्षण, सांप्रदायिक तनाव और आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग में ऐसे मामले ख़ाकर मीडिया के तमाम हलकों में देखे जा सकते हैं। दैनिक भास्कर की रिपोर्ट असल में भारत में मुस्लिमों के प्रति मीडिया की संस्थागत पूर्वाग्रह और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस समुदाय की तैयार हुई छवि के ही अनुरूप है।
(मूल रूप से 'जन मीडिया' के जनवरी 2016 अंक में प्रकाशित)
संदर्भ
1. Muslims Face More Bias In United States Compared To Other
Religions, By RACHEL ZOLL, huffington post, http://www.huffingtonpost.com/2010/01/21/muslims-face-more-bias-in_n_431004.html?ir=India&adsSiteOverride=in
2. The Perception of Islam and Muslims in the Media and the
Responsibility of European Muslims Towards the Media, Mirza MEŠIĆ, Imam,
Professor of Islamic History at the Zagreb Madrasah, Zagreb Mosque, Zagreb,
Croatia, (http://www.culturelink.org/conf/dialogue/mesic.pdf)
3. The Negative Image of Islam and Muslims in the West: Causes
and Solutions, W. Shadid& P.S. van Koningsveld, (http://www.interculturelecommunicatie.com/download/image.pdf) में उद्धृत Halliday, F. (1995): Islam and the
myth of confrontation. Religion and politics in the Middle East. I.B. Tauris
Publishers, New York
4. Noor, F. A. (2007). Mediating the mediated image of Islam:
Multiple audiences, differentiated constituencies in the global age, in Abdul
Rashid Moten and Noraini M.
5. Manufacturing
Consent: The Political Economy of the
Mass Media, Edward S.
Herman and Noam Chomsky, Pantheon Books, New York, Edition- 2002
6. भाषिक,
निर्भाषिक संप्रेषण, चंद्रिका, एमए प्रोजेक्ट
7. हलवाई बाजार में
घर की छत पर लहराया पाक झंडा, दैनिक भास्कर, दौसा संस्करण, 17 दिसंबर 2015
8. मिसइनफॉरमेशन का
मतलब होता है कि जब संप्रेषक के पास ग़लत जानकारी हो और वो उसे संप्रेषित करे,
जबकि डिसइनफॉरमेशन का मतलब होता है जानबूझकर ग़लत जानकारी संप्रेषित करना
9. Journalist held after ‘Pak flag on Dausa house’ report,
Indian express, 20 December 2015
10. पाकिस्तानी झंडा
नहीं लहराया, पहचानने में हुई चूक: एसपी, दैनिक
भास्कर, दौसा संस्करण, 18 दिसंबर 2015 (वेब लिंक- http://m.bhaskar.com/news/RAJ-DAU-MAT-latest-dausa-news-030545-3231355-NOR.html?pg=0&referrer_url=)
11. उन्माद फैलाने
के मामले में पत्रकार गिरफ़्तार, राजस्थान पत्रिका, 19 दिसंबर 2015 (वेब लिंक- http://rajasthanpatrika.patrika.com/story/rajasthan/journalist-arrested-in-dausa-1507563.html)
12. एसपी का
गुंडाराज, 4 बजे एफआईआर, डेढ़ घंटे बाद ही
पत्रकार गिरफ़्तार, दैनिक भास्कर, दौसा संस्करण, 20 दिसंबर 2012
13. Indian express, वही
14. Hindu-muslim communal riots in
india, Violette Graff and Juliette Galonnier, http://www.massviolence.org/IMG/article_PDF/Hindu-Muslim-Communal-Riots-in,738.pdf
15. Indian man lynched over beef rumours, BBC, 30
September 2015 (http://www.bbc.com/news/world-asia-india-34398433)
16. Manipur Lynching: Personal Enmity
& Bias Against Muslims to Blame? SunzuBachaspatimayum, November 6, 2015
17. Muslim woman denied flat in Mumbai,
AnahitaMukherji | TNN | May 27, 2015, 01.13 PM IST
18. The Culture Industry: Enlightenment as Mass Deception,
Theodor Adorno and Max Horkheimer, 1944, https://www.marxists.org/reference/archive/adorno/1944/culture-industry.htm
19. The Representation of Islam and Muslims in the Media (The
Age and Herald Sun Newspapers) DrShahramAkbarzadeh and Dr Bianca Smith School
of Political and Social Inquiry November 2005, http://asiainstitute.unimelb.edu.au/__data/assets/pdf_file/0017/571112/Islam-in-the-Media.pdf
20. Many voices, one world, Sean MacBride commission report
21. Final Report of the Workshop on News
Agencies in the Era of the Internet, Amman Jordan 28-31 January 2001, UNESCO
22. Islamophobia and the “Negative Media
Portrayal of Muslims”
An Exposition of Sufism, A Critique of the Alleged
"Clash of Civilizations"
23. भारत में राष्ट्रीय स्वयं
सेवक संगठन ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की। इस संगठन का बुनियादी एजेंडा हिंदुत्व को
राष्ट्रीयता का पर्याय बनाना है।
24.. M.S. Golwalkar: Conceptualizing Hindutva Fascism, Ram Puniyani, countercurrents,
http://www.countercurrents.org/comm-puniyani100306.htm
25. Ahmedabad’s
Muslim area branded as Pakistan by Gujarat Police in FIR, DNA, 19Septmber 2015
26. If BJP loses
Bihar by mistake, crackers will be burst in Pakistan: Amit Shah,Dec 25, 2015,Indian
Express
27. ‘Modi critics should go to Pakistan’ remark: BJP leader Giriraj Singh files
application for bail, Apr 24, 2014, PTI
28. Hindu nationalists are gaining power in India - and silencing enemies along the way, Sunny Hundal, 27 February 2014, The Independent http://www.independent.co.uk/news/world/asia/hindu-nationalists-are-gaining-power-in-india-and-silencing-enemies-along-the-way-9155591.html
29. Those who cannot live without
eating beef should go to Pakistan, says Naqvi; ArunJaitley disapproves, May 23, 2015, INDIAN
EXPRESS, http://indianexpress.com/article/india/india-others/arun-jaitley-snubs-mukhtar-abbas-naqvi-for-beef-remark/ )
30. हलवाई बाजार में
घर की छत पर लहराया पाक झंडा, दैनिक भास्कर, दौसा संस्करण, 17 दिसंबर 2015
31. चौथा पन्ना,
मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन, मीडिया स्टडीज़ ग्रुप, दिल्ली
(इसमें राष्ट्रीय मीडिया में निर्णयकारी पदों पर बैठे लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि
का सर्वे किया गया) और मीडिया में हिस्सेदारी, प्रज्ञा सामाजिक शोध संस्थान, पटना
(इसमें बिहार के मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि का अध्ययन है)
(संदर्भ: इस्लामी झंडा=पाकिस्तानी झंडा)
मीडिया पूर्वाग्रह पर कई शोध हो चुके हैं |
दैनिक भास्कर में छपी ख़बर; जो पूर्वाग्रह को दर्शाता है |
मीडिया के बारे में हुए इन तमाम अध्ययनों को अगर भारतीय मीडिया जगत की दैनंदिन की राजनीति के साथ नत्थी करें तो एक ऐसा कोलाज उभरेगा जो इन तमाम अवधारणाओं को समेटे है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जब मीडिया में मुस्लिमों के बारे में या तो भ्रामक ख़बरें छापी गईं या फिर तथ्यात्मक तौर पर ग़लत या फिर शब्दों, बिंबों, तस्वीरों और कैरीकैचर के ज़रिए एक ख़ास अर्थ भरने की कोशिश हुई। (6) इससे पहले कि इसके सैद्धांतिक पहलुओं पर बात की जाए, दैनिक भास्कर में छपी एक ख़बर के ज़रिए इस पूर्वाग्रह को समझने की कोशिश करते हैं। 17 दिसंबर 2015 को दैनिक भास्कर में ख़बर छपी: “हलवाई बाज़ार में घर की छत पर लहराया पाक झंडा”। ये ख़बर राजस्थान के दौसा ज़िले की है और पूरी रिपोर्ट में ये बताने की कोशिश की गई है कि “मुख्यमंत्री के संभावित दौरे के बावज़ूद पुलिस प्रशासन की ये बड़ी नाकामी है और सीआईडी के साथ साथ सीबी के लोगों को इस बारे में कोई ख़बर नहीं लगी”, साथ ही इस रिपोर्ट में झंडे में बने ‘चांद-तारे’ का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया गया है और जिस व्यक्ति का मकान है उसका नाम भी रिपोर्ट में सार्वजनिक किया गया। (7) ये पूरी रिपोर्ट ‘डिसइनफॉरमेशन’ (मिसइनफॉरमेशन नहीं) (8) का बड़ा नमूना है जिसमें मीडिया का बुनियादी तथ्य ही ग़लत है और इस तरह पूरी ख़बर ना सिर्फ़ झूठी है बल्कि सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने वाली है।
असल में वो झंडा पाकिस्तानी नहीं बल्कि इस्लामी था, जोकि 24 दिसंबर को पैगम्बर मोहम्मद की जयंति के लिए घर के ऊपर फहराया गया। (9) ख़बर छपने के बाद जब इस पर स्थानीय लोगों ने आक्रोश जताया और पूरे मामले ने सोशल पर ज़ोर पकड़ा तो दैनिक भास्कर ने माफीनामा छापने के बजाए ज़िला प्रशासन के हवाले से ख़बर छापी जिसको पढ़ने से ऐसा लग रहा था कि रिपोर्टर को पूरी ख़बर ज़िला प्रशासन ने दी हो और ग़लत तथ्य का प्रसारण प्रशानस की तरफ़ से हुआ। दौसा संस्करण में ख़बर छपी: “पाकिस्तानी झंडा नहीं लहराया, पहचानने में हुई चूक: एसपी।” (10) हालांकि जो मूल ख़बर 17 तारीख को छपी थी उसमें इसी ज़िला प्रशासन पर सवाल उठाए गए थे और दावा किया गया था कि ‘ज़िला प्रशासन को कानों-कान कोई ख़बर नहीं लगी’ जबकि खंडन के नाम पर उसी प्रशासन का हवाला दिया गया जिस पर रिपोर्ट में सवाल उठाए गए थे। यानी अपनी ग़लती को प्रशासन की ग़लती बताकर दैनिक भास्कर ने बचाव का रास्ता ढूंढा। लेकिन इस बीच स्थानीय लोगों ने जब पुलिस में एफ़आईआर दर्ज किया तो प्रशासन ने रिपोर्टर को गिरफ़्तार कर लिया। एफ़आईआर में फोटोग्राफर सहित दो वरिष्ठ संपादकों को भी नामज़द किया गया। इसके बाद राजस्थान में दैनिक भास्कर के प्रतिस्पर्धी अख़बार राजस्थान पत्रिका ने पूरे मामले की ख़बर छापी: “उन्माद फैलाने के मामले में पत्रकार गिरफ़्तार।” (11) लेकिन दैनिक भास्कर ने इस गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ अपना आक्रोश जताते हुए लिखा: “एसपी का गुंडाराज, 4 बजे एफआईआर, डेढ़ घंटे बाद ही पत्रकार गिरफ़्तार”। (12) बाद में इंडियन एक्सप्रेस ने पूरे मामले को प्रमुखता से पहले पेज पर जगह दी और ख़बर छापी: “Journalist held after ‘Pak flag on Dausa house’ report”. (13)
भास्कर ने ग़लती मानने के बदले एसपी के माथे पर ठीकरा फोड़ दिया |
दैनिक भास्कर के इस उदाहरण के ज़रिए भारत के संदर्भ में पूरे मामले को देखें तो चार बिंदुओं पर बात करनी ज़रूरी है। पहला, भारत में मुस्लिमों के प्रति बहुसंख्यक आबादी का क्या रुझान है? दूसरा, पश्चिमी मीडिया में मुस्लिमों की जो छवि बनी, भारत उससे कितना प्रभावित है? तीसरा, भारत में निजी टीवी न्यूज़ चैनलों की शुरुआत कैसे हुई और इसमें अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसियों और मीडिया ने क्या भूमिका निभाई और टीवी चैनलों की रिपोर्टिंग के साथ प्रिंट का क्या तादात्म्य है? चौथा, भारत के मीडिया में समाज के किस तबके का दबदबा है और सामाजिक स्तर पर ये तबका धार्मिक अल्पसंख्यकों को किस नज़रिए से देखता है?
1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद मुस्लिमों के प्रति भारतीय बहुसंख्यकों के भीतर सांस्कृतिक तौर पर विलगाव का बोध लगातार गहराया है। इसकी चरम परिणति सांप्रदायिक हिंसा के रूप में हमारे चारों तरफ़ देखी जा रही है। (14) देश में बीते साढ़े छह दशकों में हर साल सैंकड़ों की तादाद में सांप्रदायिक झड़पों के मामले लगातार देखे जा रहे हैं। इन सारी घटनाओं का सामाजिक और सांस्कृतिक असर इतना गाढ़ा होता है कि एक-दूसरे समुदाय के प्रति अविश्वास का भाव घनीभूत होता जाता है। इसके बाद मामूली अफ़वाहों या फिर छोटी-मोटी घटनाओं के आधार पर किसी एक व्यक्ति से शुरू हुआ पूरा मामला समूची धार्मिक पहचान को एक रंग से रंग देता है। उत्तर प्रदेश के दादरी के एक गांव में 28 सितंबर 2015 को बीफ़ की अफ़वाहों के आधार पर जिस तरह दक्षिणपंथी विचारधारा के एक समूह ने मोहम्मद अख़लाक की हत्या की, वो इस बात को और ज़्यादा पुष्ट करता है कि किस तरह सैंकड़ों साल की मिली-जुली बसावट पल भर में अफ़वाहों का शिकार होकर नेस्तनाबूद हो जाता है। (15) पूरे मामले में अमर उजाला और पंजाब केसरी के स्थानीय संस्करणों में बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से गोकशी से जुड़ी ख़बरें सीरीज में छपी, जिसने उस उग्र मानसिकता को और ज़्यादा बढ़ावा देने का काम किया।
बाद में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब मीडिया ने इसे उठाया और रिपोर्टिंग में कुछ संजीदगी देखने को मिली तो स्थानीय अख़बारों के भी सुर बदले। दादरी के बाद एक महीने के भीतर इस तरह की कई घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में घटीं। (16) भारत में मुस्लिमों को लेकर बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में अमेरिकियों की तरह पूर्वाग्रह के वही भाव है जिसकी चर्चा लेख की शुरुआत में की गई है। सांस्कृतिक विविधताओं से भरे मुंबई और दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में मुस्लिमों को मकान मिलने में भारी मुश्क़िलें आती है। (17) यानी आस-पड़ोस या फिर एक मकान में छत साझा करने में दो समुदायों के बीच असहजता का मामला धीरे-धीरे सुरक्षा और असुरक्षा के स्तर तक जा पहुंचा है और कई इलाक़ों में मुस्लिम किराएदारों को सिर्फ़ इसलिए मकान देने से मना करने के मामले देखे गए कि मकान मालिकों के मन में मुस्लिमों की छवि आतंकवादियों जैसी थी!
गिरफ़्तारी के बाद अख़बार की तरफ़ से दबाव बनाने की कोशिश |
ये एक बड़ा सवाल है कि भारतीय मीडिया का इस मामले में अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ क्या संबंध है? मध्य-पूर्व की राजनीति और पश्चिमी मीडिया में मुस्लिमों की गढ़ी गई छवि किस तरह भारतीय मीडिया में भी उसी रूप में उभकर सामने आती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि भारतीय मीडिया में मध्य-पूर्व के मुल्कों की ख़बरों का बड़ा स्रोत रॉयटर्स, एएफ़पी जैसी पश्चिमी न्यूज़ एजेंसी है, लिहाजा पश्चिमी मीडिया की विचारधाराओं के साथ भारतीय मीडिया का वैचारिक तालमेल साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की रिपोर्टिंग के लिए भारतीय मीडिया 'लगभग पूरी तरह' पश्चिमी न्यूज़ एजेंसियों पर निर्भर है। (20) पश्चिमी न्यूज़ एजेंसियों के इस प्रभाव को तोड़ने की कोशिश कई बार अंतरराष्ट्रीय राजनीति का बड़ा एजेंडा रहा, लेकिन आख़िरकार इसमें जीत हासिल नहीं हो पाई। यूनेस्को में आज भी इसके विकल्प को लेकर चर्चा की जा रही है, लेकिन भारतीय मीडिया उद्योग के लिए ये अबतक बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है। (21) लिहाजा पश्चिमी मीडिया में मुस्लिमों की गढ़ी गई छवि से भारत का मीडिया या तो सीधे तौर पर प्रभावित है या फिर भारतीय सांस्कृति बुनावट के चलते यहां के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम) को लेकर उससे भी ज़्यादा पूर्वाग्रह से ग्रसित है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मीडिया ने जिस तरह मुस्लिमों की छवि गढ़ी है उसे कई जानकारों ने इस्लामोफोबिया का नाम दिया है। (22) भारतीय मीडिया में इस्लामोफोबिया के उदाहरण साफ़ तौर पर देखें जा सकते हैं। दैनिक भास्कर की ऊपर उद्धृत रिपोर्ट इसकी एक बानगी भर है।टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों में भी ऐसी रिपोर्टिंग की सैद्धांतिक जड़ें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों की तैयार हुई छवि के साथ मिली हुई है। असल में भारत में निजी टीवी चैनलों और केबल टीवी चैनलों की शुरुआत ही खाड़ी युद्ध के प्रसारण से हुई। उस युद्ध को सीएनएन ने भारत के पंचसितारा होटलों में दिखाना शुरू किया। लिहाजा टीवी चैनलों की बुनियाद ही पश्चिमी मीडिया का मध्य-पूर्व के मुस्लिम बाहुल्य देशों के प्रति अपने नज़रिए के विस्तारीकरण की प्रक्रिया में पड़ी।
स्वाधीनता की लड़ाई के बाद जब भारत और पाकिस्तान नाम से दो अलग-अलग देश बने तो दोनों तरफ़ धार्मिक बहुसंख्यकों ने सांस्कृतिक तौर पर ख़ुद की पहचान को राष्ट्रीय पहचान के साथ नत्थी कर देखने की शुरुआत की। बहुसंख्यक पहचान के आधार पर राजनीति करने वाले कुछ संगठनों ने इसे दोनों मुल्कों में लोगों के ज़ेहन में और गहराई से पैबस्त कराया। (23) भारत में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संगठन के अलावा ऐसे कई दक्षिणपंथी बहुसंख्यक संगठन है जो इसी राजनीति के आधार पर समाज से लगातार मुखातिब हो रहे हैं। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक महादेव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी दो किताबों (We or our Nationhood Defined और Bunch of Thoughts) में देश में धार्मिक बहुलता को दरकिनार करते हुए हिंदुत्व की अवधारणा को राष्ट्रीयता की अवधारणा करार दिया। संघ की राजनीति का ये मूल आधार है जिसमें हिंदुत्व ही भारतीय राष्ट्रवाद है। (24) इस आधार पर मुस्लिमों की पहचान को पाकिस्तान के साथ जोड़कर देखने की कवायद भी तेज़ हुई। देश के कई इलाक़ों में मुस्लिम बस्ती को “पाकिस्तान’ बुलाने का मामला बेहद आम है। यहां तक कि पुलिस रिकॉर्ड में भी कुछ बस्तियों को ‘पाकिस्तान’ के तौर पर दर्ज़ किया गया। (25)
इस्लाम=आतंकवाद को दर्शाने वाले ऐसे कैरीकैचर अख़बारों में आम है |
राजनीतिक संचार के लिहाज से देखें तो दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी राजनीति की सबसे बड़ी पार्टी, बीजेपी, के अध्यक्ष ने खुले तौर पर हिंदूवादी गोलबंदी के लिए बिहार विधान सभा चुनाव 2015 में ‘पाकिस्तान में पटाखा छूटने’ वाला बयान दिया। (26) पाकिस्तान के ज़िक्र का राजनीतिक संप्रेषण बिहार की जनता के लिए ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तहत हिंदुत्व को राष्ट्रीयता का पर्याय’ मानने के चलते ‘मुस्लिमों के बीच पटाखा छूटने’ के रूप में हो रहा था। असल में राष्ट्रवाद का भाव गहराने के लिए सामने कोई ‘दूसरी पहचान’ की मौजूदगी बेहद अहम है। आज़ादी से पहले भारतीय राष्ट्रवाद के सामने ये पहचान अंग्रेज़ थे। आज़ादी के बाद ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की अवधारणा के चलते बहुसंख्यकों के बीच ये पाकिस्तान और मुस्लिम बनकर उभरे हैं। इन दोनों को आपस में फेंटकर इस्तेमाल करने का चलन भी लगातार बढ़ा है। इस वक़्त अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पाकिस्तान को भारत सबसे बड़े दुश्मन मुल्क के तौर पर देख रहा है। (27) लिहाजा पाकिस्तान के प्रति लगाव का मतलब भारत से दुश्मनी माना जाता है। दक्षिणपंथी विचारधारा का अगर राजनीतिक संचार के नज़रिए से विश्लेषण करें तो ऐसे दर्ज़नों वाक़ये सामने आ जाएंगे जब हिंदुत्व की आलोचना को सैद्धांतिक तौर पर राष्ट्र-राज्य ने प्रतिबंधित किया (28) या फिर बहुसंख्यक दक्षिणपंथी विचारधारा को पाकिस्तान के पर्याय के तौर पर पेश किया और हिंदुत्ववादी रहन-सहन और संस्कृति के साथ ताल-मेल नहीं बैठाने के चलते पाकिस्तान जाने की हिदायतें दी गईं। (29)
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट में ‘राष्ट्रवाद’ और ‘दूसरी पहचान’ के बारे में कम जानकारी का मामला आक्रामक तरीके से सामने आया, जिसमें रिपोर्टर और संस्था की तरफ़ से मुस्लिम=पाकिस्तानी की अवचेतन समझ पन्नों में छपकर सार्वजनिक हो गई। (30) एफ़ हैलीडे ने मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह को जिन दो खांचों में बांटा है वो दोनों (‘रणनीतिक’ और “लोकलुभावन’) इस रिपोर्ट में साफ़ देखने को मिल जाती है। यानी सांस्कृतिक विलगाव के चलते दूसरे धार्मिक समुदाय के बारे में ‘कम जानकारी’ और पूर्वाग्रह के चलते उस समुदाय को ‘दुश्मन मुल्क’ के साथ नत्थी कर देने की छटपटाहट के साथ ये रिपोर्ट हमारे बीच छपकर आई।
न्यूज़रूम में सामाजिक विविधता का अभाव पूर्वाग्रह का बड़ा कारण |
(मूल रूप से 'जन मीडिया' के जनवरी 2016 अंक में प्रकाशित)
बहुत खूब। सटीक और तार्किक विश्लेषण दिलीप भाई।
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। सटीक और तार्किक विश्लेषण दिलीप भाई।
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