पूरे शहर में नए वर्ष की शुभकामनाओं के होर्डिंग लगा दिए गए हैं. अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों के बड़े और छोटे होर्डिंग. होर्डिंग में लिखा है कि नया साल शुभ हो. यह शहर मुज़फ्फर नगर है. पिछले बरस के सितम्बर माह में हुई साम्प्रदायिक हमले की सारी घटनाएं बीत चुकी हैं जो दुर्घटनाएं भी ती और शुभ-अशुभ की भाषा में ‘अशुभ भी. तब यह नए साल में संसद की राजनैतिक पार्टियों की तरफ से शुभकामनाएं आस्वाशन सी लगती हैं. जैसे यह सबकुछ उनके चाहने और न चाहने पर निर्भर रहा हो. फ्लाईओवर के ऊपर बड़ा सा बोर्ड लगा है. भगवा रंग के बोर्ड पर मोदी का हंसता हुआ चेहरा, जिस पर लिखा है ‘सुरक्षा नहीं सम्मान देंगें, दंगा नही विकास देंगे. मानो दंगा तो पिछले बरस की योजना में था. जबकि यह इस बरस के लोकसभा चुनाव की उद्घोषणा और तैयारी है. जब भी किसी राजनैतिक पार्टी के द्वारा विकास की बात की जाती है तो यह एक ऐसी अवधारणा है जिसका कोई स्वरूप नहीं दिखता. मुज़फ्फर नगर में साम्प्रदायिक हमले के जो पीड़ित हैं उनके विकास की कहानी सच्चर कमेटी के किसी दस्तावेज में कई वर्षों से दबी पड़ी है. जिसमे देश में उनके हालात क्या हैं यह भी दर्ज है और इसे ठीक किए जाने के कुछ सुझाव भी दर्ज हैं. मुज़फ्फर नगर में चार महीने पहले हुए साम्प्रदायिक हमले में हजारों घर उजड़ चुके हैं और मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी आबादी बेघर हो चुकी है. राज्य का मुख्यमंत्री हमले में मारे गए लोगों को मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी निभा चुका है. इसके बावजूद हजारों की संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने सड़कों के किनारे झुग्गियां बना रखी हैं. वे साम्प्रदायिकों और उन्मादियों की असुरक्षा और भय के कारण अपने गांव और घर नहीं लौटना चाहते. मुख्यमंत्री उन लोगों को भाजपा और कांग्रेस के समर्थक लोग कहते हुए उन पर गांव लौटने का लगातार दबाव बना रहा है. झुग्गियों के लोग कहते हैं कि कोई इस ठंड के मौसम में क्यों खुले आसमान के नीचे रहना चाहेगा. उनके घर, जिसे वे छोड़कर चले आए इन झुग्गियों से बड़े थे. उनके गांव जहां वे वर्षों से, कई पीढ़ियों से रहते आए वहां रहने की यादें बहुत बड़ी हैं. जब वे झुग्गियों में रहने आए हैं, जब उन्होंने वहां न लौटने का फैसला किया है तो यह सब उन्हें अपनी पुरानी स्मृति का हिस्सा बनाना है. उन्हें यह सब अपने जीवन के इतिहास में बीती एक दुर्घटना की तरह याद रखना है. इस इलाके में मुस्लिम समुदाय के पास जमीन उतनी ही बड़ी है जितना बड़ा उनका घर था. पर घर एक स्थायित्व था एक आस्वाशन की तरह जहां वे दिन भर की दिहाड़ी या किन्ही और कामों के बाद बेफिक्री से रहने के लिए लौट आते थे. अब उनके लिए घर का न होना जानवर होना हो गया है. हजारों झुग्गियों के बीच गंदगी पसर सी गई है और उसी के बीच अपने दिनचर्या के लिए उन सबको थोड़ी सी सुरक्षित जगह ढूंढ़ लेनी होती है. राज्य द्वारा पुलिस दबाव के चलते कई लोगों को इस ठंड में अपनी झुग्गियां हटानी पड़ी हैं. वे संझाक के कब्रिस्तान में आ गए हैं. कब्रिस्तान में उन्होंने झुग्गियां बना ली हैं. जिले के अधिकारी उन्हें वहां से भी हटाने की तैयारी कर रहे हैं. ऐसे में वे ऐसी जगह ढूढ़ रहे हैं जहां वे सरकार और हमलावरों दोनों को न दिखाई दें. पर ऐसा करना एक समुदाय के लिए संभव नहीं है.
मलकपुर, नूरपुर खुरगान, मदरसा कैम्प सड़कों के किनारे बसे हुए हैं. ४ जनवरी वह आखिरी तारीख थी जिस दिन लोगों को यह कैम्प छोड़ देना था पर लोगों ने तय कर लिया कि गांव जाकर साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों मरने से बेहतर है कि यहीं मरे. अपने लोगों के बीच ही मरें. लोगों को भय इसलिए बना हुआ था कि कुछ लोग सितम्बर हमले के बाद गांव की तरफ अपना घर देखने गए और वे आज तक नहीं लौटे. लोगों को पता है कि उनके न लौटने का कारण क्या है. उन्हें यह भी पता है कि वे कभी नहीं लौटेंगे. मलकपुर कैम्प में रहने वाले अनवर के भाई कासिम भी इनमे से एक हैं. वे बूढ़े जो हमले के वक्त नहीं भाग पाए उनकी लाश बाद में घर के किसी कोने मं टंगी हुई मिली. यही वह वजह है जो लोगों के अपने गांव न लौटने का भय बना रही है. कैम्पों में कुल ८० से अधिक बच्चे ठंड में मर चुके हैं. इनमे से ज्यादातर बच्चियां हैं. कई नवजात अभी निमोनिया से ग्रसित हैं पर यह सब कैम्पों में रह रहे लोग सहन कर ले रहे हैं क्योंकि उन्हें एक हद तक सुरक्षा है. एकजुट रहने की सुरक्षा. यह पीड़ितों की एकजुटता है जो सरकार तक से लड़ने के लिए तैयार है. वहां के लोग सवाल करते हैं कि जब एक मुल्क दूसरे मुल्क के लोगों को पनाह दे देता है तो हमारे ही राज्य की सरकार हमे कैम्पों तक में क्यों नही रहने दे रही है. वे हर रोज सुबह आने वाली पार्टियों के नेताओं, एन.जी.ओ. के फोटोग्राफरों और उनके दुख व सदमे की गर्मी पर रोटियां सेंकने वालों से रू-ब-रू होते हैं. उन्होंने सब कुछ अस्थायी बना रखा है. अस्थायी मदरसे खोले गए हैं, अस्थाई मस्ज़िदें बनाई गई हैं और अस्थाई चौकियां जिस पर कपड़े धुले जा रहे हैं. मुश्किल हालातों में जिंदगियां विकल्प की तलाश कर ही लेती हैं. पालीथीन की चौकी और घर और बिस्तर. सरकार की तरफ से शुरुआती दौर में राहत शिविरों में कम्बल बांटे गए थे बस वही हैं. आसपास और पड़ोस के अलावा समुदाय के लोगों ने दूर-दूर से राहत भेजी है जो आधी-अधूरी ही उन तक पहुच पा रही है. मुस्लिम समुदाय के ये लोग बेहद गरीब लोग हैं जिनका सच्चर कमेटी ने कई साल पहले एक व्यापक स्थिति का आंकड़ा जुटाया था. तब से अब तक सरकार और सरोकार दोनों बदले. साल और बरस के बाद सरकार के वायदे भी बदले पर उनकी स्थिति एकदम न बदली. अब जबकि एक बड़ा बदलाव आया है तो वह उजाड़ और विस्थापन के रूप में. मुज़फ्फर नगर के इस हमले में अन्य साम्प्रदायिक हमलों से एक बड़ी भिन्नता इसी आधार पर देखी जा सकती है कि इसके पहले हुए लगभग सभी हमलों में लोगों की जाने ज्यादा गई. ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारा और जला दिया गया था. मुज़फ्फर नगर में एक संरचनात्मक हिंसा है जो सरकार की तरफ से जारी है और हमले में बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ है. विस्थापन एक ऐसी घटना है जिससे उबरने में किसी परिवार को पीढ़ियां लग जाती हैं. इस लिहाज से मुज़फ्फर नगर का हमला एक समुदाय पर तात्कालिक ही नहीं एक लंबे समय तक फर्क डालने वाला हमला है. जबकि किसानी रूप से समृद्ध यह क्षेत्र अपने लिए सस्ते मजदूर बना पाएगा. यह ऐसा क्षेत्र है जहां ज्यादातर बड़े किसान जाट हैं जिन्हें अपने खेतों के लिए सस्ते मजदूरों की जरूरत है. हमला करने वाला समुदाय भी यही है. जब विस्थापित मुस्लिम समुदाय फिर से अपने को बसाने की कोशिशें करेगा तो उसे वह सबकुछ इकट्ठा करना होगा जो अपने पुस्तैनी जमीन पर उसे मिली हुई थी. इसे इकट्टा करने के लिए वह सस्ता मजदूर भी बनने को तैयार हो जाएगा. इस तरह से यह लंबे समय के लिए एक आर्थिक आधार वहां के समृद्धशाली और वर्चस्व बनाए हुए लोगों के लिए मुहैया कराएगा. जबकि हमले में पीड़ित लोगों को फिर से अपना एक घर बनाने में पीढ़ियां लग जाएंगी. संभव यह भी है कि वे कई पीढ़ियों तक उजड़ कर ही रह जाएं.
चन्द्रिका
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें