23 जुलाई 2013

चमचमाती दिल्ली की असलियत

सुनील
गांवों की लगातार उपेक्षा के कारण रोजगार के जो भी अवसर थे खत्म होते जा रहे हैं। खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। किसानों की जमीन विभिन्न योजनाओं की तहत छीना जा रहा है। शासक वर्गों द्वारा यह सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है जिससे शहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पी.चिदम्बरम जैसे लोग चाहते हैं कि भारत की जनसंख्या का 80 प्रतिशत हिस्सा शहरों में आ जाये (गांव की उपजाऊ जमीन पूंजीपतियों के हो जायें)। जब गांव का किसान उजड़कर बेहतर जिन्दगी की तलाश में शहर को आता है तो शहर में आकर वह अपने को ठगा सा पाता है और उसके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता है। अगर उसके जीवन में कुछ बदलाव आता है तो यह कि जहां वो गांव के खुली स्वच्छ हवा में सांस लेते थे शहरों में आकर कबूतरखाने जैसे दरबे में बदहाल जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं।  गांव वापस टीबी, जोंडीस (पीलिया), चर्मरोग जैसी बीमारियों को लेकर जाते हैं और असमय काल के मुंह में समा जाते हैं। शहरों में इनका निवास स्थान झुग्गी-झोपड़ी या फूट-पाथ होता है। इन स्थानों पर रहने वाले लोगों को अपमानजनक जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं उनको चोर, पॉकेटमार, बलात्कारी, मूर्ख इत्यादि की उपाधि दी जाती है।
2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की जनसंख्या 16,753,235 है। दिल्ली की 25 प्रतिशत जनसंख्या झुग्गियों में रहती है जो कि दिल्ली के क्षेत्रफल का मात्र आधे प्रतिशत में स्थित हैं। दिल्ली शहर 1,48,400 हेक्टेअर क्षेत्र में फैला हुआ है। दिल्ली शहरी विकास बोर्ड के अनुसार दिल्ली में 700 हेक्टेअर जमीन पर 685 बस्तियां बनी हुई हैं। इन 685 बस्तियों में 4,18,282 झुग्गियां हैं। सरकारी आंकड़े के अनुसार भारत में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की जनसंख्या 4,25,78,150 है जिसमें दिल्ली में झुग्गी-बस्तियों की जनसंख्या 20,29,755 (सही आंकड़े 40 लाख से अधिक है) है। यूएनडीपी के ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2009 में कहा गया है कि मुम्बई में 54.1 प्रतिशत लोग 6 प्रतिशत जमीन पर रहते हैं। दिल्ली में 18.9 प्रतिशत, कोलकता में 11.72 प्रतिशत तथा चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं।
अम्बेडकर बस्ती
डॉ. अम्बेडकर कैम्प झिलमिल इंडस्ट्रीयल ए और बी ब्लॉक के बीच में बसा हुआ है। सरकारी आंकड़ों में इस बस्ती में 850 झुग्गियां हैं और यह 8175 वर्ग मीटर में बसा हुआ है, यानी एक झुग्गी 10 वर्ग मीटर से भी कम जगह में। यह कैम्प सन् 1975 में बसा था लेकिन इस बस्ती का विस्तार 1990 तक हुआ।
पटना के रहने वाले सहाजानन्द यादव (55 वर्ष) कॉपर की फैक्टीª में काम करते हैं। उनकी 6 ग् 6 फीट की झुग्गी है जिसकी उंचाई 7-8 फीट है। उनके कमरे में के एक कोने में 5 लीटर गैस का चुल्हा और दो-चार बर्तन है। गर्मी से राहत पाने के लिए एक छोटा सा पंखा है और मनोरंजन का कोई साधन नहीं। उनके घर में 3 ग् 6 फीट की एक तख्त (चौकी) रखा हुआ है जो कई जगह जला हुआ है। तख्त जलने के कारण पूछने पर बताये कि पहले यहां गड्ढा होता था और बारिश होने पर पानी झुग्गियों के अन्दर आ जाता था तो लोग तख्त पर रख कर खाना बनाते थे खाना बनाते समय उनकी तख्त जल गई है। उन्होंने बताया कि शुरू में चटाई से घेर कर झुग्गियां बनाये थे। जब वो ईंट की झुग्गी बनाने लगे तो एक सिपाही आकर पैसा मांगने लगा। सिपाही को पैसे का झूठा आश्वासन देकर उन्होंने अपनी झुग्गी बना ली। धीरे-धीरे मिट्टी भर कर जगह को ऊंचा किया और अब पानी नहीं लगता है। उन्होंने बताया कि 1975 में नेपाली मूल के लोगों द्वारा सबसे पहले झुग्गी डाला गया और उनकी झुग्गी 1990 से वहां पर है।
संजित कुमार (32 वर्ष) बिहार के जहानाबाद जिले के रहने वाले हैं। वे दस वर्ष से अम्बेडकर बस्ती में रहते हैं। पहले वे कॉपर की फैक्ट्री में काम करते थे, अब वे बस्ती में ही दुकान चलाते हैं। दुकान तो उनकी अपनी झुग्गी में है और रहने के लिए दूसरी झुग्गी किराये पर ले रखी है। 10 वर्ष में कई बार राशन कॉर्ड बनवाने की कोशिश की लेकिन दिल्ली सरकार ने आज तक उनका राशन कॉर्ड नहीं बनाया। जबकि उनके पास मतदान पहचान पत्र हैं और वे वोट भी डालते हैं। शौचालय के लिए ज्यादातर लोग बाहर रेलवे पटरी पर जाते हैं। बस्ती में एक शौचालय है जिसमें 2 रु. देकर शौच के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है।
भोला प्रसाद (42 वर्ष) बिहार के जहानाबाद के रहने वाले हैं। 1992 में इन्होंने झुग्गी खरीदी थी। इनकी भी झुग्गी 6 ग् 7 फीट की है। अभी इन्होंने अपनी झुग्गी के उपर एक और झुग्गी बना ली है जिसमें दोनों भाई रहते हैं। इनका परिवार गांव पर रहकर मजदूरी करता है। भोला कॉपर फैक्ट्री में काम करते हैं जहां पर इनकी मजदूरी 6000 रु. मासिक है। शौचालय के लिए बाहर रेलवे लाईन पर जाते हैं। घर में कोई मनोरंजन के साधन नहीं है। पानी के लिए दो बाल्टी हैं जिन्हें कि सुबह ही भर कर रख देते हैं ताकि रात में आने के बाद खाना बना सकें और पानी पी सकें।
अधिकांश झुग्यिां 6 ग् 6 फीट की हैं लेकिन कुछ बड़ी झुग्गियां 8 ग् 6 फीट की हो सकती है। ज्यादातर घरों में परिवार है। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी है और किसी-किसी घर में कलर टीवी भी होती है। महिलाएं सुबह जल्दी उठ कर शौच के लिए बाहर जाती हैं दिन के समय वे शौचालय का इस्तेमाल करती हैं। बाहर शौच की हालत है कि तेज बारिश होने से ही उसकी सफाई होती है, नहीं तो शौच के ऊपर बैठ कर ही शौच करना पड़ता है। बस्तियों में रोजमर्रा के कामों में शौचालय जाना और पानी भरना एक बड़ी समस्या है। महिलाओं को अंधेरे में इसलिए जागना पड़ता है कि वो पुरुषों के जागने से पहले शौचालय से लौट कर आ जायें। उसके बाद पानी की समस्या आती है। अगर किसी दिन पानी नहीं आये तो नहाना नहीं हो पाता है। ज्यादातर पुरुष कॉपर की फैक्ट्रियों में काम करते हैं। वहीं कुछ महिलाएं फैक्ट्रियों में जाती हैं। ज्यादातर महिलाएं घर पर ही पीन लगाने, स्टीकर लगाने जैसे काम करती हैं जो पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी 40-50 रु. ही कमा पाती हैं। बस्ती से कुछ लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाती हैं तो कुछ परिवार के कामों में हांथ बंटाती हैं। बस्ती की जिन्दगी सुबह 4-5 शुरू होती है और रात के 12-1 बजे तक चलती रहती है।
दिल्ली के बस्तियों (झुग्गियों) में आधे प्रतिशत जमीन पर 25 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती हैं। अगर अनाधिकृत कालोनियों (कच्ची कालोनियो) को मिला दिया जाये तो जनसंख्या करीब 65 प्रतिशत पहुंचती है। दिल्ली नगर निगम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिये गये हलफनामे के अनुसार 49 प्रतिशत लोग अनाधिकृत कालोनियों व बस्तियों में रहते हैं जबकि 25 प्रतिशत लोग ही योजनाबद्ध तरीके से बसाये कालोनियों में रहते हैं।
मुम्बई का धारावी हो, कोलकता का नोनाडांगा या दिल्ली के अम्बेडकर बस्ती जैसी अन्य बस्तियां; इन बस्तियों मे रहने वालों ने शहर को बनाया है और उन्हीं के बदौलत ये साफ-सफाई के काम, कल-कारखानें, मोटर-गाड़ियां चलते हैं। जब इनके द्वारा एक हिस्से का विकास हो जाता है तो इनको उठा कर नरेला, बावना और भलस्वा जैसे कुड़ेदान में फेंक दिया जाता है कि अब वहां का कूड़ा साफ करो। मानो इनकी नियति ही यही है कि कूड़े की जगह को साफ-सुथरा करो फिर दूसरी जगह जाओ, जैसा कि भलस्वा में पुर्नवास बस्तियों को मात्र 10 साल का ही पट्टा दिया गया है। इन इलाकों में इनको पीने के लिए पानी, बच्चों के लिए स्कूल तथा कोई रोजगार तक नहीं है। इनको रोजगार के लिए अपने पुराने क्षेत्र में ही जाना पड़ता है जहां पर इनको आने-जाने में ही 4 घंटे का समय लगता है और इनकी मजदूरी का आधा पैसा किराये में चला जाता है। जब ये घर में ताला लगाकर चले जाते हैं तो इनके घरों के बर्तन तक ‘चोर’ उठा ले जाते हैं। बाल श्रम मुक्त दिल्ली का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार बाल श्रम करने के लिए मजबूर कर रही है। पुनर्वास बस्तियों के बच्चे कबाड़ चुनने, मंडी, चाय की दुकान, फैक्ट्रियों में काम करते हुए मिल जायेंगे- आप चाहें तो आजादपुर, जहांगीरपुरी जैसे क्षेत्रोेें में जाकर देख सकते हैं।
इनकी बस्तियों के ऊपर कभी भी बुलडोजर चला दिया जाता है। चाहे बच्चों की परीक्षा हो, बारिश हो या कड़कड़ाती ठंड, इनको उठा कर फेंक दिया जाता है जैसे कि इनके शरीर में हाड़-मांस न हो। इन बस्तियों को तोड़कर अक्षरधाम मंदिर, शापिंग काम्प्लेक्स बनाये जा रहे हैं। जिन लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाया जाता है उनसे बहुत कम लोगों (शासक वर्ग की जरूरत के हिसाब से) को ही पुनर्वास की सुविधा मुहैय्या कराई जाती है। जिन लोगों को पुनर्वासित किया भी जाता है तो कम जमीन का रोना रो कर 12 गज का प्लाट (इससे बड़ा तो ‘लोकतंत्र के चलाने वालों का बाथरूम होता है) दिया जाता है, जबकि मास्टर प्लान 2021 में कहा गया है कि 40-45 प्रतिशत जमीन पर रिहाईशी आवास होंगे। अगर इन 25 प्रतिशत अबादी को 2 प्रतिशत भी जमीन दे दिया जाये तो ये कबूतरखाने से बाहर आकर थोड़ा खुश हो सकते हैं।

इतनी बड़ी आबादी को आधे प्रतिशत जमीन पर रहना भी शासक वर्ग को नागवार गुजरता है। उनकी अनुचित कार्रवाई का जनपक्षीय संगठनों द्वारा जब विरोध किया जाता है तो  दिल्ली हाईकोर्ट अपमानजनक टिप्पणी करते हुए कहता है- ‘‘इनको प्लॉट देना जेबकतरों को ईनाम देना जैसा है।’’ कुछ तथाकथित सभ्य समाज के लोग कहते हैं कि इन बस्ती वालों के पास फ्रीज, कूलर, टीवी, अलमारियां हैं- जैसा की बस्ती में रहने वाले इन्सान नहीं हैं; उनको इन सब वस्तुओं की जरूरत नहीं है। बस्ती में इस्तेमाल की जाने वाली ज्यादातर वस्तुएं सेकेण्ड हैंड (पुरानी) होती हैं। पुरानी वस्तुओं का इस्तेमाल कर ये लोग पर्यावरण को ही बचाते हैं। अगर आधे प्रतिशत जमीन का इस्तेमाल करने वाले पॉकेटमार है तो कई एकड़ में फैले फार्म हाउस के मालिक क्या हैं? क्या दिल्ली हाई कोर्ट को उनके लिए भी कोई उपनाम है? जिस बस्ती में दो पीढ़ियां समय गुजार चुकीं बस्ती में ही बच्चे पैदा हुए, पले-बढ़े और उनकी शादी तक हो रही है तो क्या हम उनको वहां का निवासी नहीं मानते? कागज के टुकड़े (नोट) जिसके पास हैं चाहे वे विदेशी भी हों तो उनके लिए यह देश है! जिस विकास को लेकर रात-दिन सरकार चिल्लाती है, जिसे सरकारी भाषा में जीडीपी कहते हैं वह मुख्यतः इन्हीं मेहनतकश जनता के बल पर होता है। इनके परिवार का एक सदस्य गांव में खेती-मजदूरी करता है तो दूसरा शहर में आकर मजदूरी का काम करता है। जब देश की आधी आबादी दो जून की रोटी की मोहताज है तो यह कैसा विकास है? मेहनतकश जनता, जो हमें रोटी से लेकर हर सुविधायें देती है, को हम इन्सान कब समझेंगे? क्या उनको सम्मानपूर्वक, इन्सान की जिन्दगी जीने को कोई अधिकार नहीं है?

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