24 जुलाई 2013

नरेंद्र मोदी: कॉरपोरेट क्रूरता और सांप्रदायिक कट्टरता के रसायन से बनी शख्सियत!

उर्मिलेश 
(18 जुलाई को उर्मिलेश ने यह लेख जनसत्ता में लिखा। हाल में रॉयटर्स वाले साक्षात्कार के बाद हिंदी-अंग्रेज़ी में मोदी पर कई लेख लिए गए..लेकिन उर्मिलेश का यह लेख हिंदी मीडिया में दब-छुपकर लिखने की परंपरा में मिसफिट है। अंग्रेज़ी में जो बातें कही जाती हैं, हिंदी आते ही वो पिलपिली हो जाती है। यह लेख इससे अलग है और इसी लिहाज से इसे पढ़ा जाना चाहिए। कायदे से इसे पहले ही साझा करना चाहिए था, लेकिन हफ़्ते भर बाद भी इसमें कुछ बासी नहीं है। अलबत्ता, मोदी को समझने के लिए महीनों बाद भी यह ताजा ही रहेगा:मॉडरेटर)

एक यशवंत सिन्हा को छोड़ कर पूरी भाजपा जिस तरह नरेंद्र मोदी के हाल के विवादास्पद और बेतुके बयानों के बचाव में उतर पड़ी है, उससे बिल्कुल साफ है कि औपचारिक घोषणा अभी भले न हुई हो, अगले संसदीय चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार वही हैं। बुजुर्ग भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को ‘नागपुर’ की तरफ से उनकी हैसियत बता दी गई है, इसलिए नेतृत्व के सवाल पर अब वे खामोश हैं। आखिर मोदी भी तो उन्हीं के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं! पर जनसंघ-भाजपा में अपने पूर्ववर्ती शीर्ष नेताओं के मुकाबले मोदी के विचारों और भाषा में एक खास तरह की आक्रामकता और निरंकुशता के तत्त्व प्रभावी दिखते हैं।

शायद इसलिए कि सन 2001 के बाद मोदी के राजनीतिक व्यक्तित्व का निर्माण कॉरपोरेट और कट्टर हिंदुत्व के मिश्रित रसायन से हुआ। ऐसा रसायन, जिसे नवउदारवादी सुधारों के दौर की संघ परिवारी-प्रयोगशाला में विकसित किया गया। वे जिस तरह ‘कुत्ते का बच्चा’, ‘हिंदू-राष्ट्रवादी’, ‘सेक्युलरिज्म का बुर्का’, या ‘आबादी बढ़ाने वाली मशीन’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं, वे उनके राजनीतिक व्यक्तित्व के खास पहलू की तरफ इंगित करते हैं।

इसके साथ वे यह भी कहते हैं कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है तो सरकार को उद्योग-व्यापार से हटना होगा। यह काम उद्योग और व्यापार में लगे लोगों का है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल में देश को विनिवेश के नाम पर नए मंत्रालय की सौगात देने वाली भारतीय जनता पार्टी को मोदी के रूप में अर्थनीति के स्तर पर भी एक ‘आदर्श नेता’ मिला है। दक्षिणपंथी धारा में वे अपने ढंग के बिल्कुल नए नेता हैं। कॉरपोरेट क्रूरता और सांप्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से बनी है उनकी शख्सियत!

भाजपा की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष चुने जाने के बाद नरेंद्र मोदी जिस आक्रामकता के साथ अपना अभियान चला रहे हैं, उसका पर्दाफाश भी उसी तेजी से हो रहा है। शुरू में उनके ‘विकास मॉडल’ का जोर-शोर से प्रचार किया गया और मोदी को विकास-पुरुष बताया गया। पर गुजरात के विकास मॉडल की पोल खुलते देर नहीं लगी। मानव विकास सूचकांक के कई जरूरी मानदंडों पर ‘मोदी का गुजरात’ देश के औसत सूचकांक से भी पीछे है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मिजोरम और मणिपुर जैसे राज्य उससे बहुत आगे हैं। उसकी कथित विकास-दर की कहानी की असलियत भी सामने आ चुकी है कि किस तरह सन 80-99 के दौर में भी गुजरात अन्य कई राज्यों से आगे था। पर आज देश के कई राज्यों की विकास-दर की उछाल उससे बहुत ज्यादा है।

इन ठोस तथ्यों के उजागर होने के बाद मोदी ने विकास की नारेबाजी को पीछे छोड़ फिर से ‘उग्र हिंदुत्व’ को सबसे भरोसेमंद अस्त्र के रूप में आगे किया है। ऐसा लगता है कि अगले चुनाव में संघ और मोदी का ज्यादा जोर कट्टर हिंदुत्व और खास तरह की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के मिले-जुले एजेंडे पर होगा। यह महज संयोग नहीं कि बिहार और उत्तर प्रदेश में मोदी को ‘सामाजिक न्याय आंदोलन’ से जोड़ने की कोशिश की गई है।

इस भोंडे अभियान में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी और पूर्व मंत्री नंदकिशोर यादव को खासतौर पर लगाया गया है। बिहार के गांवों में, खासकर पिछड़ी जातियों के बीच सभाओं-रैलियों के जरिए प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी पिछड़ी जाति के पहले ऐसे नेता होंगे, जो प्रधानमंत्री बनेंगे। भाजपा के अलावा मोदी के कट्टर समर्थकों की खास टोलियां भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के देहात और कस्बों में घूम-घूम कर उनकी ओबीसी पृष्ठभूमि और कुछ खास खूबियों के पक्ष में अभियान चला रही हैं।

जाहिर है, संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व की इजाजत के बगैर इस तरह का अभियान नहीं चलाया जा सकता। जहां मोदी को पिछड़ा (ओबीसी) बना कर वोट मिलेंगे, वहां भाजपा पिछड़े वर्ग की राजनीति करेगी, जहां अगड़ों को गोलबंद करना होगा, वहां वह आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बवाल कराने से भी गुरेज नहीं करेगी। इलाहाबाद और आसपास के इलाकों में हाल में हुआ हिंसक हंगामा उसका सबूत है।

एक विदेशी समाचार एजेंसी को दिए साक्षात्कार में पिछले दिनों नरेंद्र मोदी ने अपना राजनीतिक परिचय पूछे जाने पर बताया कि वे ‘हिंदू-राष्ट्रवादी’ हैं। उन्होंने अपना परिचय एक ‘भारतीय’ बता कर नहीं दिया। ‘भारतीय हिंदू’ या ‘राष्ट्रवादी हिंदू’ भी नहीं कहा, ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ कहा। राष्ट्रवादी हिंदू और हिंदू राष्ट्रवादी का फर्क समझा जा सकता है। श्रीमान मोदी और उनकी पार्टी अक्सर अमेरिका और अन्य पूंजीवादी देशों के विकास मॉडल की तारीफ करते नहीं थकते।

उनसे पूछा जाना चाहिए कि दुनिया के किस पूंजीवादी मुल्क या किस समृद्ध-खुशहाल जनतांत्रिक देश का बड़ा नेता अपनी राष्ट्रीयता से पहले अपने धर्म का उल्लेख करता है! लेकिन मोदी एक खतरनाक विरासत के संवाहक हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के ‘आदर्श राष्ट्र’ अमेरिका के राष्ट्रपतियों की तरह अपनी राष्ट्रीयता को सर्वोपरि नहीं माना, सबसे पहले अपने धार्मिक विश्वास को चिह्नित करते हुए अपना परिचय दिया।

इसके कुछ ही दिनों बाद, नरेंद्र मोदी ने चौदह जुलाई को पुणे के मशहूर फर्ग्युसन कॉलेज में छात्र-युवाओं को बीच कांग्रेस और यूपीए सरकार को जमकर कोसा। उनके भाषण के एक खास वाक्य को ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने अपनी सुर्खी के तौर पर पेश किया। वह वाक्य था- ‘संकट में फंसने पर कांग्रेस पार्टी सेक्युलरिज्म का बुर्का   ओढ़ लेती है।’ वे चाहते तो अपनी बात को ज्यादा संयत-शालीन और सीधे ढंग से भी कह सकते थे। पर कांग्रेस और सेक्युलरिज्म के साथ उन्होंने बुर्का शब्द जोड़ा ताकि दोनों को एक खास प्रतीकात्मक ढंग से जोड़ा जा सके।

मोदी चाहते तो कह सकते थे कि कांग्रेस ‘सेक्युलरिज्म की चादर’ ओढ़ लेती है। चादर ज्यादा व्यवहार में लाई जाती है; इसका प्रयोग हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और नास्तिक, सभी करते हैं। पर उन्होंने बुर्का शब्द का इस्तेमाल जान-बूझ कर किया। यही नहीं, उन्होंने कांग्रेस और बुर्के के साथ ‘बंकर’ का भी उल्लेख किया। उन्होंने गलतफहमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। एक समुदाय विशेष के पहनावे को प्रतीक बना कर उन्होंने उसका रिश्ता एक सामरिक प्रतीक से जोड़ने की कोशिश की, आतंक की तरफ इंगित करने के लिए। समाज के कुछ हिस्सों में उत्तेजना और विवाद पैदा करने के लिए यह उन्हें जरूरी लगा होगा।

ठीक इसी तरह, कुछ दिनों पहले मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों में मारे गए अल्पसंख्यक समुदाय के हजारों लोगों के बारे में पूछे एक सवाल के जवाब में कहा था कि वे गाड़ी में पीछे बैठें हों और चलती गाड़ी के नीचे कुत्ते का बच्चा आ जाए, तो भी उन्हें दुख होगा। कुछ मोदी-भक्तों को गुजरात के मुख्यमंत्री के इस वाक्य में स्वाभाविक मानवीय करुणा नजर आई। पर कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति जब मोदी के जवाब को पत्रकार द्वारा पूछे सवाल के संदर्भ में देखेगा तो अल्पसंख्यकों के प्रति उनके खास रवैये का आसानी से अहसास हो जाएगा। 
इस तरह की अभिव्यक्तियां जुगुप्सा भरी हैं और इनसे निरंकुशता की बू आती है। कोई भी पूछ सकता है कि गुजरात के दंगों में हजारों लोगों के मारे जाने के लिए सूबे के मुखिया के तौर पर मोदी साहब ने आज तक देश की जनता से माफी क्यों नहीं मांगी?

माफी की बात दूर रही, उन्होंने ईमानदार ढंग से आज तक अफसोस भी नहीं जताया। गुजरात का दंगा कोई दुर्घटना नहीं था। वह एक योजना के तहत हुआ था। पर सवाल का सीधा जवाब देने के बजाय सूबे के मुख्यमंत्री कुत्ते के बच्चे के दुर्घटनावश गाड़ी के पहिए से कुचलने का जिक्र कर रहे हैं!

आश्चर्य है, यह एक निर्वाचित मुख्यमंत्री की भाषा है, जो भारतीय जनता पार्टी की तरफ से देश के प्रधानमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार बन कर उभरा है। मोदी के लिए यह कोई नई बात नहीं है। वे जान-बूझ कर राजनीतिक शिष्टता, प्रोटोकॉल और सभ्य सामाजिक मूल्यों की अवहेलना करते रहते हैं। मियां मुशर्रफ (पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के लिए), अहमद मियां (कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के लिए) जैसे ढेर सारे उनके जुमले यह साबित करने के लिए काफी हैं कि राजनीतिक विमर्श में वे हमेशा असहज रहते हैं और आए दिन सामाजिक शिष्टाचार की मर्यादा खोते रहते हैं।

नरेंद्र मोदी अपनी ही दक्षिणपंथी राजनीतिक धारा के दिवंगत श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दिवंगत दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी जैसे व्यवस्थित मन:स्थिति के नेता नहीं हैं। भाषा में सांप्रदायिक विद्वेष भरी चुटकलेबाजी करते हुए वे हमेशा सहज मानवीय मूल्यों के भी खिलाफ खड़े दिखते हैं। इसे वे अपना ‘यूएसपी’ समझते हैं। पर दक्षिणपंथी धारा के नेताओं की कतार में वे एक नेता और वक्ता के तौर पर भी पिद्दी दिखते हैं। न तो उनके चिंतन में गंभीरता दिखाई देती है, न आचरण में मानवीयता। एक अजीब तरह की गुस्सैल खुर्राहट से वे भरे दिखते हैं। क्या ऐसी शख्सियत आज के जटिल वैश्विक परिदृश्य में भारत जैसे महादेश की अगुआई कर सकती है?

उनकी एक-एक गतिविधि और हरेक भाषण से महसूस किया जा सकता है कि राजनीतिक चिंतन के स्तर पर वे बेहद अनुदार और एकपक्षीय हैं। समाज में ‘सौ फूलों को खिलने दो’ की जनतांत्रिक धारणा के वे हर समय सख्त खिलाफ दिखते हैं। वामपंथियों को वे राजनीतिक विरोधी के रूप में नहीं लेते, राष्ट्रद्रोही बताते हैं। इसी तरह वे कांग्रेस को हराने या जनता में उसका पूरी तरह से पर्दाफाश करने की बात नहीं कहते, वे कहते हैं कि वे भारत को ‘कांग्रेस-मुक्त देश’ बनाना चाहते हैं।

यह सही है कि आज देश की जनता का बड़ा हिस्सा कांग्रेसी कुशासन से बेहद क्षुब्ध है, पर ‘कांग्रेस-मुक्त देश’ जैसे जुमले में मुझे जनतांत्रिकता की नहीं, निरंकुशता की गंध आती है। ऐसी निरंकुशता को एक समय कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाया था। वे विपक्ष-रहित राष्ट्रीय राजनीति चाहती थीं। पर उनकी ‘इमरजेंसी’ का देश की जनता ने सन 77 में माकूल जवाब दे दिया। विविधता से भरे इस महादेश में मोदी का संकीर्ण राजनीतिक सोच क्या हमारे विकासशील जनतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा नहीं है? 

23 जुलाई 2013

चमचमाती दिल्ली की असलियत

सुनील
गांवों की लगातार उपेक्षा के कारण रोजगार के जो भी अवसर थे खत्म होते जा रहे हैं। खेती की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। किसानों की जमीन विभिन्न योजनाओं की तहत छीना जा रहा है। शासक वर्गों द्वारा यह सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है जिससे शहरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पी.चिदम्बरम जैसे लोग चाहते हैं कि भारत की जनसंख्या का 80 प्रतिशत हिस्सा शहरों में आ जाये (गांव की उपजाऊ जमीन पूंजीपतियों के हो जायें)। जब गांव का किसान उजड़कर बेहतर जिन्दगी की तलाश में शहर को आता है तो शहर में आकर वह अपने को ठगा सा पाता है और उसके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता है। अगर उसके जीवन में कुछ बदलाव आता है तो यह कि जहां वो गांव के खुली स्वच्छ हवा में सांस लेते थे शहरों में आकर कबूतरखाने जैसे दरबे में बदहाल जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं।  गांव वापस टीबी, जोंडीस (पीलिया), चर्मरोग जैसी बीमारियों को लेकर जाते हैं और असमय काल के मुंह में समा जाते हैं। शहरों में इनका निवास स्थान झुग्गी-झोपड़ी या फूट-पाथ होता है। इन स्थानों पर रहने वाले लोगों को अपमानजनक जिन्दगी जीने को मजबूर होते हैं उनको चोर, पॉकेटमार, बलात्कारी, मूर्ख इत्यादि की उपाधि दी जाती है।
2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली की जनसंख्या 16,753,235 है। दिल्ली की 25 प्रतिशत जनसंख्या झुग्गियों में रहती है जो कि दिल्ली के क्षेत्रफल का मात्र आधे प्रतिशत में स्थित हैं। दिल्ली शहर 1,48,400 हेक्टेअर क्षेत्र में फैला हुआ है। दिल्ली शहरी विकास बोर्ड के अनुसार दिल्ली में 700 हेक्टेअर जमीन पर 685 बस्तियां बनी हुई हैं। इन 685 बस्तियों में 4,18,282 झुग्गियां हैं। सरकारी आंकड़े के अनुसार भारत में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की जनसंख्या 4,25,78,150 है जिसमें दिल्ली में झुग्गी-बस्तियों की जनसंख्या 20,29,755 (सही आंकड़े 40 लाख से अधिक है) है। यूएनडीपी के ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 2009 में कहा गया है कि मुम्बई में 54.1 प्रतिशत लोग 6 प्रतिशत जमीन पर रहते हैं। दिल्ली में 18.9 प्रतिशत, कोलकता में 11.72 प्रतिशत तथा चेन्नई में 25.6 प्रतिशत लोग झुग्गियों में रहते हैं।
अम्बेडकर बस्ती
डॉ. अम्बेडकर कैम्प झिलमिल इंडस्ट्रीयल ए और बी ब्लॉक के बीच में बसा हुआ है। सरकारी आंकड़ों में इस बस्ती में 850 झुग्गियां हैं और यह 8175 वर्ग मीटर में बसा हुआ है, यानी एक झुग्गी 10 वर्ग मीटर से भी कम जगह में। यह कैम्प सन् 1975 में बसा था लेकिन इस बस्ती का विस्तार 1990 तक हुआ।
पटना के रहने वाले सहाजानन्द यादव (55 वर्ष) कॉपर की फैक्टीª में काम करते हैं। उनकी 6 ग् 6 फीट की झुग्गी है जिसकी उंचाई 7-8 फीट है। उनके कमरे में के एक कोने में 5 लीटर गैस का चुल्हा और दो-चार बर्तन है। गर्मी से राहत पाने के लिए एक छोटा सा पंखा है और मनोरंजन का कोई साधन नहीं। उनके घर में 3 ग् 6 फीट की एक तख्त (चौकी) रखा हुआ है जो कई जगह जला हुआ है। तख्त जलने के कारण पूछने पर बताये कि पहले यहां गड्ढा होता था और बारिश होने पर पानी झुग्गियों के अन्दर आ जाता था तो लोग तख्त पर रख कर खाना बनाते थे खाना बनाते समय उनकी तख्त जल गई है। उन्होंने बताया कि शुरू में चटाई से घेर कर झुग्गियां बनाये थे। जब वो ईंट की झुग्गी बनाने लगे तो एक सिपाही आकर पैसा मांगने लगा। सिपाही को पैसे का झूठा आश्वासन देकर उन्होंने अपनी झुग्गी बना ली। धीरे-धीरे मिट्टी भर कर जगह को ऊंचा किया और अब पानी नहीं लगता है। उन्होंने बताया कि 1975 में नेपाली मूल के लोगों द्वारा सबसे पहले झुग्गी डाला गया और उनकी झुग्गी 1990 से वहां पर है।
संजित कुमार (32 वर्ष) बिहार के जहानाबाद जिले के रहने वाले हैं। वे दस वर्ष से अम्बेडकर बस्ती में रहते हैं। पहले वे कॉपर की फैक्ट्री में काम करते थे, अब वे बस्ती में ही दुकान चलाते हैं। दुकान तो उनकी अपनी झुग्गी में है और रहने के लिए दूसरी झुग्गी किराये पर ले रखी है। 10 वर्ष में कई बार राशन कॉर्ड बनवाने की कोशिश की लेकिन दिल्ली सरकार ने आज तक उनका राशन कॉर्ड नहीं बनाया। जबकि उनके पास मतदान पहचान पत्र हैं और वे वोट भी डालते हैं। शौचालय के लिए ज्यादातर लोग बाहर रेलवे पटरी पर जाते हैं। बस्ती में एक शौचालय है जिसमें 2 रु. देकर शौच के लिए अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है।
भोला प्रसाद (42 वर्ष) बिहार के जहानाबाद के रहने वाले हैं। 1992 में इन्होंने झुग्गी खरीदी थी। इनकी भी झुग्गी 6 ग् 7 फीट की है। अभी इन्होंने अपनी झुग्गी के उपर एक और झुग्गी बना ली है जिसमें दोनों भाई रहते हैं। इनका परिवार गांव पर रहकर मजदूरी करता है। भोला कॉपर फैक्ट्री में काम करते हैं जहां पर इनकी मजदूरी 6000 रु. मासिक है। शौचालय के लिए बाहर रेलवे लाईन पर जाते हैं। घर में कोई मनोरंजन के साधन नहीं है। पानी के लिए दो बाल्टी हैं जिन्हें कि सुबह ही भर कर रख देते हैं ताकि रात में आने के बाद खाना बना सकें और पानी पी सकें।
अधिकांश झुग्यिां 6 ग् 6 फीट की हैं लेकिन कुछ बड़ी झुग्गियां 8 ग् 6 फीट की हो सकती है। ज्यादातर घरों में परिवार है। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड ह्वाइट टीवी है और किसी-किसी घर में कलर टीवी भी होती है। महिलाएं सुबह जल्दी उठ कर शौच के लिए बाहर जाती हैं दिन के समय वे शौचालय का इस्तेमाल करती हैं। बाहर शौच की हालत है कि तेज बारिश होने से ही उसकी सफाई होती है, नहीं तो शौच के ऊपर बैठ कर ही शौच करना पड़ता है। बस्तियों में रोजमर्रा के कामों में शौचालय जाना और पानी भरना एक बड़ी समस्या है। महिलाओं को अंधेरे में इसलिए जागना पड़ता है कि वो पुरुषों के जागने से पहले शौचालय से लौट कर आ जायें। उसके बाद पानी की समस्या आती है। अगर किसी दिन पानी नहीं आये तो नहाना नहीं हो पाता है। ज्यादातर पुरुष कॉपर की फैक्ट्रियों में काम करते हैं। वहीं कुछ महिलाएं फैक्ट्रियों में जाती हैं। ज्यादातर महिलाएं घर पर ही पीन लगाने, स्टीकर लगाने जैसे काम करती हैं जो पूरे दिन मेहनत करने के बाद भी 40-50 रु. ही कमा पाती हैं। बस्ती से कुछ लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाती हैं तो कुछ परिवार के कामों में हांथ बंटाती हैं। बस्ती की जिन्दगी सुबह 4-5 शुरू होती है और रात के 12-1 बजे तक चलती रहती है।
दिल्ली के बस्तियों (झुग्गियों) में आधे प्रतिशत जमीन पर 25 प्रतिशत जनसंख्या निवास करती हैं। अगर अनाधिकृत कालोनियों (कच्ची कालोनियो) को मिला दिया जाये तो जनसंख्या करीब 65 प्रतिशत पहुंचती है। दिल्ली नगर निगम द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिये गये हलफनामे के अनुसार 49 प्रतिशत लोग अनाधिकृत कालोनियों व बस्तियों में रहते हैं जबकि 25 प्रतिशत लोग ही योजनाबद्ध तरीके से बसाये कालोनियों में रहते हैं।
मुम्बई का धारावी हो, कोलकता का नोनाडांगा या दिल्ली के अम्बेडकर बस्ती जैसी अन्य बस्तियां; इन बस्तियों मे रहने वालों ने शहर को बनाया है और उन्हीं के बदौलत ये साफ-सफाई के काम, कल-कारखानें, मोटर-गाड़ियां चलते हैं। जब इनके द्वारा एक हिस्से का विकास हो जाता है तो इनको उठा कर नरेला, बावना और भलस्वा जैसे कुड़ेदान में फेंक दिया जाता है कि अब वहां का कूड़ा साफ करो। मानो इनकी नियति ही यही है कि कूड़े की जगह को साफ-सुथरा करो फिर दूसरी जगह जाओ, जैसा कि भलस्वा में पुर्नवास बस्तियों को मात्र 10 साल का ही पट्टा दिया गया है। इन इलाकों में इनको पीने के लिए पानी, बच्चों के लिए स्कूल तथा कोई रोजगार तक नहीं है। इनको रोजगार के लिए अपने पुराने क्षेत्र में ही जाना पड़ता है जहां पर इनको आने-जाने में ही 4 घंटे का समय लगता है और इनकी मजदूरी का आधा पैसा किराये में चला जाता है। जब ये घर में ताला लगाकर चले जाते हैं तो इनके घरों के बर्तन तक ‘चोर’ उठा ले जाते हैं। बाल श्रम मुक्त दिल्ली का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार बाल श्रम करने के लिए मजबूर कर रही है। पुनर्वास बस्तियों के बच्चे कबाड़ चुनने, मंडी, चाय की दुकान, फैक्ट्रियों में काम करते हुए मिल जायेंगे- आप चाहें तो आजादपुर, जहांगीरपुरी जैसे क्षेत्रोेें में जाकर देख सकते हैं।
इनकी बस्तियों के ऊपर कभी भी बुलडोजर चला दिया जाता है। चाहे बच्चों की परीक्षा हो, बारिश हो या कड़कड़ाती ठंड, इनको उठा कर फेंक दिया जाता है जैसे कि इनके शरीर में हाड़-मांस न हो। इन बस्तियों को तोड़कर अक्षरधाम मंदिर, शापिंग काम्प्लेक्स बनाये जा रहे हैं। जिन लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाया जाता है उनसे बहुत कम लोगों (शासक वर्ग की जरूरत के हिसाब से) को ही पुनर्वास की सुविधा मुहैय्या कराई जाती है। जिन लोगों को पुनर्वासित किया भी जाता है तो कम जमीन का रोना रो कर 12 गज का प्लाट (इससे बड़ा तो ‘लोकतंत्र के चलाने वालों का बाथरूम होता है) दिया जाता है, जबकि मास्टर प्लान 2021 में कहा गया है कि 40-45 प्रतिशत जमीन पर रिहाईशी आवास होंगे। अगर इन 25 प्रतिशत अबादी को 2 प्रतिशत भी जमीन दे दिया जाये तो ये कबूतरखाने से बाहर आकर थोड़ा खुश हो सकते हैं।

इतनी बड़ी आबादी को आधे प्रतिशत जमीन पर रहना भी शासक वर्ग को नागवार गुजरता है। उनकी अनुचित कार्रवाई का जनपक्षीय संगठनों द्वारा जब विरोध किया जाता है तो  दिल्ली हाईकोर्ट अपमानजनक टिप्पणी करते हुए कहता है- ‘‘इनको प्लॉट देना जेबकतरों को ईनाम देना जैसा है।’’ कुछ तथाकथित सभ्य समाज के लोग कहते हैं कि इन बस्ती वालों के पास फ्रीज, कूलर, टीवी, अलमारियां हैं- जैसा की बस्ती में रहने वाले इन्सान नहीं हैं; उनको इन सब वस्तुओं की जरूरत नहीं है। बस्ती में इस्तेमाल की जाने वाली ज्यादातर वस्तुएं सेकेण्ड हैंड (पुरानी) होती हैं। पुरानी वस्तुओं का इस्तेमाल कर ये लोग पर्यावरण को ही बचाते हैं। अगर आधे प्रतिशत जमीन का इस्तेमाल करने वाले पॉकेटमार है तो कई एकड़ में फैले फार्म हाउस के मालिक क्या हैं? क्या दिल्ली हाई कोर्ट को उनके लिए भी कोई उपनाम है? जिस बस्ती में दो पीढ़ियां समय गुजार चुकीं बस्ती में ही बच्चे पैदा हुए, पले-बढ़े और उनकी शादी तक हो रही है तो क्या हम उनको वहां का निवासी नहीं मानते? कागज के टुकड़े (नोट) जिसके पास हैं चाहे वे विदेशी भी हों तो उनके लिए यह देश है! जिस विकास को लेकर रात-दिन सरकार चिल्लाती है, जिसे सरकारी भाषा में जीडीपी कहते हैं वह मुख्यतः इन्हीं मेहनतकश जनता के बल पर होता है। इनके परिवार का एक सदस्य गांव में खेती-मजदूरी करता है तो दूसरा शहर में आकर मजदूरी का काम करता है। जब देश की आधी आबादी दो जून की रोटी की मोहताज है तो यह कैसा विकास है? मेहनतकश जनता, जो हमें रोटी से लेकर हर सुविधायें देती है, को हम इन्सान कब समझेंगे? क्या उनको सम्मानपूर्वक, इन्सान की जिन्दगी जीने को कोई अधिकार नहीं है?

06 जुलाई 2013

गंटी प्रसादम जिंदा रहेंगे

रेयाज उल हक

वे जिंदा रहेंगे.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कल दोपहर में उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा. इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि हत्यारों के तलवारों और गोलियों ने उनकी गर्दन और सीने को इतना नुकसान पहुंचाया कि कम से कम तीन घंटों के ऑपरेशन के बावजूद उनकी जान बचाई नहीं जा सकी. इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि शहीदों, उनके परिजनों और जख्मी साथियों की फिक्र करने के लिए वे हमारे आसपास अब और नहीं होंगे. और न ही वे दिल्ली के जंतर मंतर पर अपनी गूंजती हुई आवाज से, अपने गुस्से और अपनी समझ से हमें मजबूत बना सकेंगे. इनसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता. शहीदों की जिंदगी उनकी हत्याओं के साथ खत्म नहीं होती. वह जारी रहती है. अपने लोगों के संघर्षों में. जुल्म और नाइंसाफी के खिलाफ, जनता की लड़ाइयों में फतह हासिल होने तक उनकी जिंदगियां सांस लेती हैं. जनता उन्हें प्यार करती है, हत्यारे उनसे नफरत करते हैं और शासक वर्ग उनसे डरता है.

यह वो डर ही है, जो राज्य और शासक वर्ग को जनता के प्यारे साथियों और नेताओं को जनता से छीन लेने की कोशिश करने पर मजबूर करता है. शासक वर्ग सपने देखता है कि नेताओं से महरूम अवाम भटक जाएगी, हाथ पर हाथ धरे बैठ जाएगी. फासीवादी शासक वर्ग की कोख से इसीलिए हत्यारे गिरोह पैदा होते हैं.

रिवॉल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट के उपाध्यक्ष, कमेटी फॉर द रिलेटिव्स एंड फ्रेंड्स ऑफ मार्टियर्स के कार्यकारी सदस्य और विप्लवी रचयितलु संघम (विरसम या रिवॉल्यूशनरी राइटर्स एसोसिएशन) से जुड़े गंटी प्रसादम पर चलाई गई गोलियां और तलवार के वार इसके सबूत हैं कि शासक वर्ग हमेशा इतिहास को भुला देता है.

वह भुला देता है कि अपने औपनिवेशिक कब्जे के लगभग 400 वर्षों के दौरान स्पेनी हत्यारों ने लातिन अमेरिका में दसियों लाख मूल निवासी इंडियनों की हत्याएं कीं, लेकिन जब 01 जनवरी 1899 को क्यूबा की आजादी के साथ लातिनी अमेरिका से आखिरी स्पेनी सैनिक स्पेन के लिए रवाना हुआ, तब 6 करोड़ से ज्यादा लोग आजादी का जश्न मनाने के लिए जिंदा थे. 

वह भुला देता है कि समाजवाद को उसकी पैदाइश के वक्त ही दम घोंट कर मार देने के मकसद के साथ 1918 की गर्मियों में सोवियत संघ में उतरे 13 हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिकों को दो साल के बाद हजारों मौतों और नुकसानों को अपनी झोली में डाले, नाकामी की शर्मिंदगी लेकर लौट जाना पड़ा था.

1945 से लेकर अब तक अमेरिका ने 40 विदेशी सरकारों का तख्तापलट करने की कोशिश की है, 30 से ज्यादा लोकप्रिय और चुनी हुई सरकारों को गिराया है और 25 से ज्यादा देशों पर बम गिराए हैं. इस सारी कोशिश में उसने बीसियों लाख लोगों और हजारों राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं की हैं. लेकिन वह भुला देता है कि इतना कुछ करने के बावजूद स्थिरता के लिहाज से और भविष्य के लिहाज से वह दुनिया के इतिहास का सबसे कमजोर साम्राज्य है. जिन देशों को उसने भारी फौजी बूटों के नीचे दबा रखा है, वह उनके बारे में भी पूरे भरोसे के साथ कुछ नहीं कह सकता. इस वक्त, जिस तेजी से आप इन अक्षरों को पढ़ रहे हैं, उससे दोगुनी तेजी से, अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ दुनिया भर में चल रही अवामी जंग के हिस्से के बतौर साम्राज्यवाद के किलों पर गोलियां दागी जा रही हैं.

ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को सूरज उगने से भी पहले तीन नौजवानों को फांसी पर चढ़ा दिया था. इस जुर्म में दुनिया भर में मशहूर कर दिए गए अहिंसा के कथित पैगंबर की भी सहमति थी. लेकिन आज, आठ दशक बीतने के बाद भी वे तीनों नौजवान इतने खतरनाक हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को उनके लेखों, बयानों और चिट्ठियों वाली किताबें खरीदने और बेचने वालों पर देशद्रोह के मुकदमे लागू करने पड़ते हैं. उनमें से एक नौजवान का चेहरा इस देश में विरोध में तनी हुई हर मुट्ठी में से झांकता है: भगत सिंह का चेहरा.

28 जुलाई 1972 को जिस देश के एक अदना से थाने में पुलिस हिरासत में चारू मजुमदार को मार डाला गया, उसी देश के प्रधान मंत्री को चार दशकों के बाद यह ऐलान करना पड़ा कि चारू के सपनों और मकसद को अपने कंधों पर ढोने वाला, दुनिया के सबसे निर्धनतम और सबसे उत्पीड़ित तबका संपत्ति और लूट की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गया है.

शासक वर्ग इतिहास को भूल जाए तो भूल जाए, इतिहास उसे कभी भूलता.

कल जिस जिंदगी को खत्म कर दिया गया, क्या उसकी ताकत को कोई खत्म कर पाएगा? उसकी जला दी गई आखिरी हड्डी के साथ, सड़क से लेकर अस्पताल के बिस्तर तक बहे खून की आखिरी बूंद के साथ, गुजरते हुए पल के साथ बुझ रही आखिरी सांस के साथ, कितने नारे, कितने संघर्ष, कितनी कहानियां, कितनी यातनाएं, कितने मोर्चे और कितने सपने होंगे, जिन्हें खत्म किया जा सकेगा? क्या सचमुच? क्या सचमुच कोई गोली ऐसी बनी है, जो कहानियों का कत्ल कर सके? कविताओं का? सपनों का? नारों का? विचारों का?

उनके आखिरी कदम एक शहीद के परिजन को अस्पताल में देखने जाने के लिए उठे थे. आज हम उनकी शहादत को सलाम करने जा रहे हैं.

संघर्ष और इंसाफ की उस आवाज को सलाम. आने वाले दिनों में, जब खेतों में पसीना बहाते किसानों और कारखानों में पिसते मजदूरों, मुसलमानों और दलितों, पिछड़ों, औरतों तथा उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं-उत्पीड़ित जनता-का कारवां लड़ाई के मोर्चे से जीत के नारों के साथ लौटेगा और अपने फौलादी सपनों और अपनी जीत के झंडों के साथ सड़कों और गलियों को, खेतों और कारखानों और वादियों और जंगलों को भर देगा, और जिन शहादतों को सबसे पहले याद किया जाएगा और सलामी दी जाएगी, तब किसी को गंटी प्रसादम के नाम की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

और उसके बाद भी, सारे जमाने के सभी शहीदों की तरह, वे जिंदा रहेंगे.

कॉमरेड गंटी प्रसादम.

लाल सलाम साथी.