उर्मिलेश
(18 जुलाई को उर्मिलेश ने यह लेख जनसत्ता में लिखा। हाल में रॉयटर्स वाले साक्षात्कार के बाद हिंदी-अंग्रेज़ी में मोदी पर कई लेख लिए गए..लेकिन उर्मिलेश का यह लेख हिंदी मीडिया में दब-छुपकर लिखने की परंपरा में मिसफिट है। अंग्रेज़ी में जो बातें कही जाती हैं, हिंदी आते ही वो पिलपिली हो जाती है। यह लेख इससे अलग है और इसी लिहाज से इसे पढ़ा जाना चाहिए। कायदे से इसे पहले ही साझा करना चाहिए था, लेकिन हफ़्ते भर बाद भी इसमें कुछ बासी नहीं है। अलबत्ता, मोदी को समझने के लिए महीनों बाद भी यह ताजा ही रहेगा:मॉडरेटर)
(18 जुलाई को उर्मिलेश ने यह लेख जनसत्ता में लिखा। हाल में रॉयटर्स वाले साक्षात्कार के बाद हिंदी-अंग्रेज़ी में मोदी पर कई लेख लिए गए..लेकिन उर्मिलेश का यह लेख हिंदी मीडिया में दब-छुपकर लिखने की परंपरा में मिसफिट है। अंग्रेज़ी में जो बातें कही जाती हैं, हिंदी आते ही वो पिलपिली हो जाती है। यह लेख इससे अलग है और इसी लिहाज से इसे पढ़ा जाना चाहिए। कायदे से इसे पहले ही साझा करना चाहिए था, लेकिन हफ़्ते भर बाद भी इसमें कुछ बासी नहीं है। अलबत्ता, मोदी को समझने के लिए महीनों बाद भी यह ताजा ही रहेगा:मॉडरेटर)
एक यशवंत सिन्हा को छोड़ कर पूरी भाजपा जिस तरह नरेंद्र मोदी के हाल के विवादास्पद और बेतुके बयानों के बचाव में उतर पड़ी है, उससे बिल्कुल साफ है कि औपचारिक घोषणा अभी भले न हुई हो, अगले संसदीय चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार वही हैं। बुजुर्ग भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को ‘नागपुर’ की तरफ से उनकी हैसियत बता दी गई है, इसलिए नेतृत्व के सवाल पर अब वे खामोश हैं। आखिर मोदी भी तो उन्हीं के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं! पर जनसंघ-भाजपा में अपने पूर्ववर्ती शीर्ष नेताओं के मुकाबले मोदी के विचारों और भाषा में एक खास तरह की आक्रामकता और निरंकुशता के तत्त्व प्रभावी दिखते हैं।
शायद इसलिए कि सन 2001 के बाद मोदी के राजनीतिक व्यक्तित्व का निर्माण कॉरपोरेट और कट्टर हिंदुत्व के मिश्रित रसायन से हुआ। ऐसा रसायन, जिसे नवउदारवादी सुधारों के दौर की संघ परिवारी-प्रयोगशाला में विकसित किया गया। वे जिस तरह ‘कुत्ते का बच्चा’, ‘हिंदू-राष्ट्रवादी’, ‘सेक्युलरिज्म का बुर्का’, या ‘आबादी बढ़ाने वाली मशीन’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते आ रहे हैं, वे उनके राजनीतिक व्यक्तित्व के खास पहलू की तरफ इंगित करते हैं।
इसके साथ वे यह भी कहते हैं कि देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है तो सरकार को उद्योग-व्यापार से हटना होगा। यह काम उद्योग और व्यापार में लगे लोगों का है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के कार्यकाल में देश को विनिवेश के नाम पर नए मंत्रालय की सौगात देने वाली भारतीय जनता पार्टी को मोदी के रूप में अर्थनीति के स्तर पर भी एक ‘आदर्श नेता’ मिला है। दक्षिणपंथी धारा में वे अपने ढंग के बिल्कुल नए नेता हैं। कॉरपोरेट क्रूरता और सांप्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से बनी है उनकी शख्सियत!
भाजपा की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष चुने जाने के बाद नरेंद्र मोदी जिस आक्रामकता के साथ अपना अभियान चला रहे हैं, उसका पर्दाफाश भी उसी तेजी से हो रहा है। शुरू में उनके ‘विकास मॉडल’ का जोर-शोर से प्रचार किया गया और मोदी को विकास-पुरुष बताया गया। पर गुजरात के विकास मॉडल की पोल खुलते देर नहीं लगी। मानव विकास सूचकांक के कई जरूरी मानदंडों पर ‘मोदी का गुजरात’ देश के औसत सूचकांक से भी पीछे है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मिजोरम और मणिपुर जैसे राज्य उससे बहुत आगे हैं। उसकी कथित विकास-दर की कहानी की असलियत भी सामने आ चुकी है कि किस तरह सन 80-99 के दौर में भी गुजरात अन्य कई राज्यों से आगे था। पर आज देश के कई राज्यों की विकास-दर की उछाल उससे बहुत ज्यादा है।
इन ठोस तथ्यों के उजागर होने के बाद मोदी ने विकास की नारेबाजी को पीछे छोड़ फिर से ‘उग्र हिंदुत्व’ को सबसे भरोसेमंद अस्त्र के रूप में आगे किया है। ऐसा लगता है कि अगले चुनाव में संघ और मोदी का ज्यादा जोर कट्टर हिंदुत्व और खास तरह की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के मिले-जुले एजेंडे पर होगा। यह महज संयोग नहीं कि बिहार और उत्तर प्रदेश में मोदी को ‘सामाजिक न्याय आंदोलन’ से जोड़ने की कोशिश की गई है।
इस भोंडे अभियान में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी और पूर्व मंत्री नंदकिशोर यादव को खासतौर पर लगाया गया है। बिहार के गांवों में, खासकर पिछड़ी जातियों के बीच सभाओं-रैलियों के जरिए प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी पिछड़ी जाति के पहले ऐसे नेता होंगे, जो प्रधानमंत्री बनेंगे। भाजपा के अलावा मोदी के कट्टर समर्थकों की खास टोलियां भी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के देहात और कस्बों में घूम-घूम कर उनकी ओबीसी पृष्ठभूमि और कुछ खास खूबियों के पक्ष में अभियान चला रही हैं।
जाहिर है, संघ परिवार के शीर्ष नेतृत्व की इजाजत के बगैर इस तरह का अभियान नहीं चलाया जा सकता। जहां मोदी को पिछड़ा (ओबीसी) बना कर वोट मिलेंगे, वहां भाजपा पिछड़े वर्ग की राजनीति करेगी, जहां अगड़ों को गोलबंद करना होगा, वहां वह आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बवाल कराने से भी गुरेज नहीं करेगी। इलाहाबाद और आसपास के इलाकों में हाल में हुआ हिंसक हंगामा उसका सबूत है।
एक विदेशी समाचार एजेंसी को दिए साक्षात्कार में पिछले दिनों नरेंद्र मोदी ने अपना राजनीतिक परिचय पूछे जाने पर बताया कि वे ‘हिंदू-राष्ट्रवादी’ हैं। उन्होंने अपना परिचय एक ‘भारतीय’ बता कर नहीं दिया। ‘भारतीय हिंदू’ या ‘राष्ट्रवादी हिंदू’ भी नहीं कहा, ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ कहा। राष्ट्रवादी हिंदू और हिंदू राष्ट्रवादी का फर्क समझा जा सकता है। श्रीमान मोदी और उनकी पार्टी अक्सर अमेरिका और अन्य पूंजीवादी देशों के विकास मॉडल की तारीफ करते नहीं थकते।
उनसे पूछा जाना चाहिए कि दुनिया के किस पूंजीवादी मुल्क या किस समृद्ध-खुशहाल जनतांत्रिक देश का बड़ा नेता अपनी राष्ट्रीयता से पहले अपने धर्म का उल्लेख करता है! लेकिन मोदी एक खतरनाक विरासत के संवाहक हैं। उन्होंने अपनी पार्टी के ‘आदर्श राष्ट्र’ अमेरिका के राष्ट्रपतियों की तरह अपनी राष्ट्रीयता को सर्वोपरि नहीं माना, सबसे पहले अपने धार्मिक विश्वास को चिह्नित करते हुए अपना परिचय दिया।
इसके कुछ ही दिनों बाद, नरेंद्र मोदी ने चौदह जुलाई को पुणे के मशहूर फर्ग्युसन कॉलेज में छात्र-युवाओं को बीच कांग्रेस और यूपीए सरकार को जमकर कोसा। उनके भाषण के एक खास वाक्य को ज्यादातर अखबारों और चैनलों ने अपनी सुर्खी के तौर पर पेश किया। वह वाक्य था- ‘संकट में फंसने पर कांग्रेस पार्टी सेक्युलरिज्म का बुर्का ओढ़ लेती है।’ वे चाहते तो अपनी बात को ज्यादा संयत-शालीन और सीधे ढंग से भी कह सकते थे। पर कांग्रेस और सेक्युलरिज्म के साथ उन्होंने बुर्का शब्द जोड़ा ताकि दोनों को एक खास प्रतीकात्मक ढंग से जोड़ा जा सके।
मोदी चाहते तो कह सकते थे कि कांग्रेस ‘सेक्युलरिज्म की चादर’ ओढ़ लेती है। चादर ज्यादा व्यवहार में लाई जाती है; इसका प्रयोग हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और नास्तिक, सभी करते हैं। पर उन्होंने बुर्का शब्द का इस्तेमाल जान-बूझ कर किया। यही नहीं, उन्होंने कांग्रेस और बुर्के के साथ ‘बंकर’ का भी उल्लेख किया। उन्होंने गलतफहमी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। एक समुदाय विशेष के पहनावे को प्रतीक बना कर उन्होंने उसका रिश्ता एक सामरिक प्रतीक से जोड़ने की कोशिश की, आतंक की तरफ इंगित करने के लिए। समाज के कुछ हिस्सों में उत्तेजना और विवाद पैदा करने के लिए यह उन्हें जरूरी लगा होगा।
ठीक इसी तरह, कुछ दिनों पहले मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों में मारे गए अल्पसंख्यक समुदाय के हजारों लोगों के बारे में पूछे एक सवाल के जवाब में कहा था कि वे गाड़ी में पीछे बैठें हों और चलती गाड़ी के नीचे कुत्ते का बच्चा आ जाए, तो भी उन्हें दुख होगा। कुछ मोदी-भक्तों को गुजरात के मुख्यमंत्री के इस वाक्य में स्वाभाविक मानवीय करुणा नजर आई। पर कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति जब मोदी के जवाब को पत्रकार द्वारा पूछे सवाल के संदर्भ में देखेगा तो अल्पसंख्यकों के प्रति उनके खास रवैये का आसानी से अहसास हो जाएगा।
इस तरह की अभिव्यक्तियां जुगुप्सा भरी हैं और इनसे निरंकुशता की बू आती है। कोई भी पूछ सकता है कि गुजरात के दंगों में हजारों लोगों के मारे जाने के लिए सूबे के मुखिया के तौर पर मोदी साहब ने आज तक देश की जनता से माफी क्यों नहीं मांगी?
माफी की बात दूर रही, उन्होंने ईमानदार ढंग से आज तक अफसोस भी नहीं जताया। गुजरात का दंगा कोई दुर्घटना नहीं था। वह एक योजना के तहत हुआ था। पर सवाल का सीधा जवाब देने के बजाय सूबे के मुख्यमंत्री कुत्ते के बच्चे के दुर्घटनावश गाड़ी के पहिए से कुचलने का जिक्र कर रहे हैं!
आश्चर्य है, यह एक निर्वाचित मुख्यमंत्री की भाषा है, जो भारतीय जनता पार्टी की तरफ से देश के प्रधानमंत्री पद का सबसे प्रबल दावेदार बन कर उभरा है। मोदी के लिए यह कोई नई बात नहीं है। वे जान-बूझ कर राजनीतिक शिष्टता, प्रोटोकॉल और सभ्य सामाजिक मूल्यों की अवहेलना करते रहते हैं। मियां मुशर्रफ (पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के लिए), अहमद मियां (कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के लिए) जैसे ढेर सारे उनके जुमले यह साबित करने के लिए काफी हैं कि राजनीतिक विमर्श में वे हमेशा असहज रहते हैं और आए दिन सामाजिक शिष्टाचार की मर्यादा खोते रहते हैं।
नरेंद्र मोदी अपनी ही दक्षिणपंथी राजनीतिक धारा के दिवंगत श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दिवंगत दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, यहां तक कि लालकृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी जैसे व्यवस्थित मन:स्थिति के नेता नहीं हैं। भाषा में सांप्रदायिक विद्वेष भरी चुटकलेबाजी करते हुए वे हमेशा सहज मानवीय मूल्यों के भी खिलाफ खड़े दिखते हैं। इसे वे अपना ‘यूएसपी’ समझते हैं। पर दक्षिणपंथी धारा के नेताओं की कतार में वे एक नेता और वक्ता के तौर पर भी पिद्दी दिखते हैं। न तो उनके चिंतन में गंभीरता दिखाई देती है, न आचरण में मानवीयता। एक अजीब तरह की गुस्सैल खुर्राहट से वे भरे दिखते हैं। क्या ऐसी शख्सियत आज के जटिल वैश्विक परिदृश्य में भारत जैसे महादेश की अगुआई कर सकती है?
उनकी एक-एक गतिविधि और हरेक भाषण से महसूस किया जा सकता है कि राजनीतिक चिंतन के स्तर पर वे बेहद अनुदार और एकपक्षीय हैं। समाज में ‘सौ फूलों को खिलने दो’ की जनतांत्रिक धारणा के वे हर समय सख्त खिलाफ दिखते हैं। वामपंथियों को वे राजनीतिक विरोधी के रूप में नहीं लेते, राष्ट्रद्रोही बताते हैं। इसी तरह वे कांग्रेस को हराने या जनता में उसका पूरी तरह से पर्दाफाश करने की बात नहीं कहते, वे कहते हैं कि वे भारत को ‘कांग्रेस-मुक्त देश’ बनाना चाहते हैं।
यह सही है कि आज देश की जनता का बड़ा हिस्सा कांग्रेसी कुशासन से बेहद क्षुब्ध है, पर ‘कांग्रेस-मुक्त देश’ जैसे जुमले में मुझे जनतांत्रिकता की नहीं, निरंकुशता की गंध आती है। ऐसी निरंकुशता को एक समय कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने अपने कार्यक्रम का हिस्सा बनाया था। वे विपक्ष-रहित राष्ट्रीय राजनीति चाहती थीं। पर उनकी ‘इमरजेंसी’ का देश की जनता ने सन 77 में माकूल जवाब दे दिया। विविधता से भरे इस महादेश में मोदी का संकीर्ण राजनीतिक सोच क्या हमारे विकासशील जनतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा नहीं है?