लेखक: उर्मिलेश |
(नामवर सिंह पर लिखे संस्मरण के बाद जेएनयू के दिनों को याद करते हुए उर्मिलेश का ये दूसरा संस्मरण है। पिछले संस्मरण की तरह आकार में यह भी ब्लॉग के लिहाज से लंबा है, लेकिन हम यहां असंपादित रूप से प्रकाशित कर रहे हैं: मॉडरेटर)
तारीख
और महीना ठीक से याद नहीं, पर
यह जेएनयू में सन 1978 की ‘एम.फिल.-पीएच.डी.
प्रवेश-परीक्षा’
से पहले की बात है, जब गोरख पांडे से मेरी मुलाकात
विश्वविद्यालय के झेलम होस्टल के उनके कमरे में हुई। जेएनयू की अखिल भारतीय प्रवेश
परीक्षा देने मैं इलाहाबाद से दिल्ली आया था। उनसे मिलने का भले ही पहला मौका था
पर मित्रों और शुभचिंतकों के जरिए हम दोनों एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे।
इलाहाबाद में कृष्ण प्रताप, रामजी
राय और बनारस में अवधेश प्रधान से पांडे जी के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। वह
एक चर्चित कवि और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। अपने आने की उन्हें पहले ही चिट्ठी
भेज चुका था क्योंकि उनके कमरे के अलावा दिल्ली में कोई और ठौर-ठिकाना नहीं था।
बेहद मुफलिसी का दौर था। दिल्ली के किसी साधारण होटल में भी रूकने की बात सोच नहीं
सकता था। स्टेशन से सीधे जेएनयू गया और झेलम होस्टल पहुंचकर उनका कमरा खोजने लगा।
नीचे से ही किसी ने पांडे जी का कमरा दिखाते हुए कहा, ‘सीढ़ियों से चले जाइए, वो ऊपर जो कमरा खुला हुआ है, वही है पांडे जी का कमरा।’ अपनी दो उंगलियों को टेढ़ा कर मैंने कमरे
के दरवाजे पर आवाज की, अंदर
बेड के एक कोने में बैठे पांडे जी ने कहा, ‘आ जाइए।’ कमरे के एक कोने में मैंने अपना पुराना
सा ट्रैवेल-बैग रखा और उनसे हाथ मिलाया। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘कैसी रही यात्रा, कष्ट तो नहीं हुआ।’ थोड़ी देर की गपशप के बाद वह मुझे गंगा-झेलम
लॉन के सामने वाले ढाबे पर ले गए, जहां
हम दोनों ने ब्रेड पकौड़े के साथ चाय पी। लगा ही नहीं कि मैं गोरख पांडे से पहली
बार मिल रहा हूं। दुनिया भर की बातें होती रहीं। वहीं कुछेक लोगों से परिचय भी
हुआ। फिर हम लोग कमरे में लौट आए।
तकरीबन
आठ-साढ़े आठ बजे रात को पांडे जी के साथ झेलम होस्टल मेस में खाने के लिए गया। उन
दिनों झेलम ‘को-होस्टल’ हुआ करता था, उसके एक हिस्से में लड़के रहते थे और
दूसरे में लड़कियां। बीच में होस्टल के साझा भोजनालय (कॉमन-मेस) का बड़ा सा हॉल
था। दोनों विंग के बीच कोई दीवार नहीं थी पर लड़के कभी भी लड़कियों वाले विंग में
नहीं जाते थे,
यदाकदा लड़कियां आ जाती थीं। पूर्वी
उत्तर प्रदेश के इलाहाबादी-माहौल से निकले मेरे जैसे गंवई-छात्र के लिए यह सब
अनोखा था। पांडे जी जब पहली बार आए होंगे तो उनके लिए भी यह अनोखा रहा होगा। मेरी
तरह वह भी पूर्वी उत्तर प्रदेश के बनारस से वहां गए थे। इतनी सारी लड़कियों के साथ
एक ही कतार में बैठकर भोजन करने का यह मेरा पहला मौका था। लड़कियों में ज्यादातर
स्मार्ट और सुंदर थीं। लेकिन उनमें इलाहाबाद की लड़कियों की तरह कस्बाई-शर्मीलापन
नहीं था। कइयों को तो खाने के तत्काल बाद सिगरेट सुलगाते देखकर चकित रह गया।
उस
दिन कम खाया। वैसे तो देख रहा था कि पुराने छात्र काउंटर पर जाकर थाली में बार-बार
कोई न कोई आइटम भर रहे हैं। पर अपन को वाकई संकोच हो रहा था। पहली बार थाली में
जितना निकाला था, उतना
ही खाकर उठ गया। पांडे जी तो वैसे भी अल्पाहारी थे। उन्होंने भी मेरे साथ ही खाना
खत्म किया। मैंने कहा, ‘पान
खाने की इच्छा हो रही है’।
उन दिनो मैं जमकर पान खाता था। पांडे जी काशी राम ढाबे के पास की एक पान दुकान पर
ले गए। उन्होंने उस रात सिगरेट ली और मैंने 120 नंबर जर्दे वाला पान लिया। साथ में
दो पान बंधवा भी लिया। पांडे जी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘पान के मामले में आप भी पूरे बनारसी
हैं’।
कमरे
में लौटने पर थोड़ी-बहुत गपशप हुई। फिर पांडे जी ने बेड के नीचे से एक फटी-पुरानी
सी रजाई निकाल कर नीचे बिछाना शुरू किया और मुझे आदेश दिया, ‘ आप बेड पर सोएंगे। मैं नीचे सोता हूं’। पांडे जी उन दिनों पीएच.डी. स्कॉलर
थे, इसलिए सिंगल बेड कमरा मिला था। नए
छात्रों, भाषा संकाय (स्नात्तक-स्नातकोत्तर
संयुक्त कोर्स) वालों या अन्य सभी संकायों के एम.ए. वाले छात्रों को डबल-बेड वाले
कमरे मिलते थे और एक ही कमरे में दो-दो छात्र रहते थे। पांडे जी का आदेश सुनकर मैं
परेशानी में पड़ गया। वह मुझसे उम्र, पढ़ाई-समझदारी हर स्तर पर बड़े थे। उनका यह आदेश मानना मेरे लिए
कष्टप्रद था। मैंने हिम्मत जुटाई, ‘यह
नहीं हो सकता। नीचे मैं ही सोऊंगा।’ फिर
उन्होंने समझाना शुरू किया, ‘आपको
परीक्षा की तैयारी करनी है, पढ़िए
और फिर ठीक से सोइए, मुझे
नीचे सोने की पुरानी आदत है’।
अंत में मेरी जीत हुई। बड़े भाई को छोटे की जिद्द के आगे झुकना पड़ा। सुबह मैं
परीक्षा देने चला गया। वहां से लौटा तो उन्होंने पर्चे वगैरह के बारे में पूछा।
मैंने कहा, ‘पेपर तो बहुत आसान सा था। अच्छा हुआ
है।‘ उन्होंने कहा, ‘चलिए अच्छी बात है, लिस्ट में नाम ऊपर रहा, तो यूजीसी की फेलोशिप तुरंत मिल जाएगी।
आर्थिक समस्या नहीं रहेगी।’
गोरख |
कुछेक
दिन वहां रहने के बाद मैं इलाहाबाद लौट गया। एम.फिल.-पीएच.डी.(हिन्दी) की प्रवेश
परीक्षा का परिणाम आया तो पता चला, मैंने
एडमिशन लिस्ट में टॉप किया है। वहां पांडे जी को भी पता चल गया। कुछ समय बाद मैं
फिर जेएनयू पहुंचा और फिर पांडे जी का कमरा ही मेरा बसेरा बना। वहां तब तक रहा, जब तक ब्रह्मपुत्र होस्टल (पूर्वांचल)
में मुझे अपना कमरा अलॉट नहीं हो गया। अपने कमरे में शिफ्ट होने के बाद भी आए दिन
पांडे जी से मिलने-जुलने का सिलसिला जारी रहा। शुरू में इस कैम्पस में वह मेरे लिए
एक बड़े भाई की तरह थे। लेकिन धीरे-धीरे हम दोनों का रिश्ता ज्यादा प्रगाढ़ होता
गया। उन दिनों मैं एसएफआई से अलग हो रहा था या कि अलग हो चुका था। हम लोगों ने
इलाहाबाद में पहले पीएसए नामक स्वतंत्र किस्म के वामपंथी छात्र संगठन का गठन किया।
इसमें तीन तरह के छात्र थे। एक वे जो सीपीआई (एम-एल)-लिबरेशन के समर्थक या उससे
प्रेरित थे, दूसरे वे जो एम-एल के ही एसएन
सिंह-चंद्रपुल्ला रेड्डी ग्रुप से प्रेरित थे और तीसरे वे जो मेरी तरह
माकपा-एसएफआई की लाइन से क्षुब्ध होकर उससे अलग, स्वतंत्र-वाम छात्र संगठन बनाने के नाम
पर इसमें शामिल हुए थे।
पहले वाले समूह में रामजी राय प्रमुख थे। दूसरे में रवि
श्रीवास्तव और निशा आनंद आदि। बीच का मैं था, शायद इसीलिए मुझे दोनों गुटों के
छात्र-सदस्यों का भरोसा और सद्भाव प्राप्त था। बातचीत से लगा कि गोरख जी को
इलाहाबाद के राजनैतिक घटनाक्रम और उसमें मेरी भूमिका के बारे में पूरी जानकारी है।
उन दिनों जेएनयू में भाकपा-माकपा से अलग वामपंथी समूह के नाम पर दो ढीले-ढाले
छात्र-समूह थे-आरएससी यानी रेडिकल स्टूडेन्ट्स सेंटर और जेसीएम यानी जनवादी छात्र
मोर्चा। आरएससी में गोरख के अलावा निशात कैसर, गुमड़ी राव, ए चंद्रशेखर, जे मनोहर राव जैसे जेएनयू के कुछ छात्र
शामिल थे, जबकि जेसीएम में त्रिनेत्र जोशी आदि
सक्रिय थे। सन 1978 में दोनों संगठनों ने मिलकर छात्र संघ का चुनाव भी लड़ा।
उन्होंने सिर्फ कुछ कौंसिलर सीटों पर अपने उम्मीदवार लड़ाए थे। जहां तक मुझे याद आ
रहा है, वे सभी हार गए। इस वक्त मुझे ठीक से
याद नहीं आ रहा है कि कैम्पस में पीएसओ की स्थापना जेएनयू में मेरे दुबारा दाखिले
के बाद हुई या पहले ही हो गई थी। दुबारा दाखिला इसलिए कह रहा हूं कि सन 78 में
मेरा ‘प्रोविजनल एडमिशन’ हुआ था और वह एमए फाइनल का रिजल्ट
अक्तूबर, 78 तक न आ पाने के कारण रद्द हो गया।
थोड़ी-बहुत सहूलियत मिल सकती थी, जो
भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष डॉ. नामवर सिंह और उनके समर्थकों के ‘प्रतिकूल या असहयोगी रवैये’ के चलते नहीं मिली।
एडमिशन रद्द होने
के बाद अगले साल यानी 79 में मुझे फिर से प्रवेश-परीक्षा में बैठना पड़ा और इस बार
तीसरी पोजिशन आई, अंततः
फेलोशिप के साथ दाखिला मिला। नया होस्टल मिलने तक फिर गोरख जी के कमरे में ही रहा।
उनसे बहुत कुछ सीखने और समझने का मौका मिला। इमर्जेन्सी के बाद माकपा के पास उभरने
का बड़ा मौका था। पर धीरे-धीरे उसके राजनीतिक चिंतन और लाइन की समस्याएं सामने आने
लगीं। यूपी में माकपा और उसके छात्र संगठन के सामने ढेर सारी मुश्किलें थीं। सच
पूछिए तो एसएफआई से पीएसओ की तरफ मेरा झुकाव ज्ञान से ज्यादा अपने सांगठनिक अनुभव
के आधार पर हुआ। माकपा-एसएफआई से निराशा मुख्य कारण बनी। साथ में पढ़ना-लिखना भी
होता रहा। जेएनयू में एसएफआई-एआईएसएफ गठबंधन के नेतृत्व के रवैये को देखकर मेरा
मोहभंग कुछ ज्यादा तेजी से हुआ। माकपा की राजनीतिक लाइन के कई बिंदुओं पर मेरी
असहमति पहले से ही उभर रही थी। अंतरराष्ट्रीय हालात भी भारत के पारंपरिक
वामपंथियों के लिए प्रतिकूल साबित हो रहे थे। अफगानिस्तान में रूसी सैन्य घुसपैठ
को भाकपा की तरह माकपा के लोग भी जायज बताने लगे। इससे इलाहाबाद एसएफआई में हम
जैसों ने असहमति जताई। छात्र-संगठन में बड़ा जबर्दस्त विवाद चला। संगठन के साथी और
मेरे प्रिय मित्र व्यासजी से तो बोलचाल भी बंद हो गई थी। कुछ महीने बाद फिर से
संवाद शुरू हुआ और तब राजनीतिक मतभेद के बावजूद दोस्ती पुख्ता होती गई, जो आज तक कायम है।
हालांकि छात्र जीवन
के बाद हम दोनों पूरी तरह प्रोफेशनल हैं-वह एक नौकरशाह और मैं एक पत्रकार। एसएफआई
से मेरे अलगाव के कुछ समय बाद ही इलाहाबाद में पीएसए का गठन हुआ। पहली बैठक नवनिर्मित ताराचंद होस्टल के एक
कमरे में हुई थी। संभवतः वह अरविन्द या शरद श्रीवास्तव का कमरा था। जहां तक मुझे
याद आ रहा है,
बैठक में रवि श्रीवास्तव और रामजी राय
सहित आठ-दस संस्थापक सदस्य मौजूद थे। इनमें शरद, मंगज, अरविन्द, राकेश और कमलकृष्ण राय जैसे लोग प्रमुख
थे, जिनका नाम इस वक्त मुझे याद आ रहा है।
अखिलेंद्र प्रताप सिंह और लाल बहादुर कुछ समय बाद इस संगठन से जुड़े। उन दिनों
कैम्पस में छात्र-कार्यकर्ता के रूप में मैं खूब सक्रिय था। पर अपने बारे में मुझे
कोई भ्रम नहीं था। विचारधारा, अर्थतंत्र, दर्शन , खासतौर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद और
राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों की मेरी समझ बहुत प्रारंभिक किस्म की थी। उतनी ही
थी, जितना हिन्दी में छपी बुकलेट्स या अन्य
पुस्तकों से मिल सकती थी। आज भी कुछ ज्यादा नहीं है। हम जैसे हिन्दी पत्रकारों को
उच्च और गंभीर अध्ययन का मौका भी कहां मिलता है! हमारे जैसी सामाजिक-आर्थिक
पृष्ठभूमि के पत्रकार-लेखक का ज्यादा वक्त रोजी-रोटी और रोजमर्रे के संघर्ष में ही
बीत जाता है।
लेकिन छात्र-जीवन में, खासकर
जेएनयू में गोरख पांडे से विचार-विमर्श के दौरान मुझे राजनीतिक विचारधारा, दार्शनिक परंपराओं, खासकर मार्क्सवाद के बारे में काफी कुछ
समझने को मिला। इलाहाबाद की स्टडी सर्किल में रवि और अन्य वरिष्ठ मित्र भी विचारधारा
और अर्थतंत्र जैसे विषय पर काफी असरदार रहते थे। इस स्टडी सर्किल में कभी-कभी
जाने-माने वकील,
साहित्यकार, कवि-लेखक और कलाकार भी शामिल होते थे।
साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में कृष्णप्रताप और रामजी राय काफी जानकार थे।
कृष्णप्रताप मीठे स्वभाव के थे, जरूरत
के हिसाब से वह विमर्श में कभी-कभी व्यंग्यात्मक तेवर अपनाते थे। रामजी राय में
स्पष्टता दिखती थी लेकिन तेवर अक्सर आक्रामक रहता था। उन दिनों वह ‘कन्वीन्स’ करने के बजाय ‘कन्फ्रंट’ करने के अपने खास अंदाज के लिए जाने
जाते थे। मेरे मित्र व्यास जी कभी-कभी उनके अंदाज का मजा ले-लेकर वर्णन करते थे।
लेकिन जेएनयू में गोरख बिल्कुल अलग ढंग की शख्सियत नजर आए। राजनीति, दर्शन और विचारधारा के अन्य प्रश्नों
को समझाने का उनका अंदाज निराला था। बहुत सहज और सजीव। विचारधारा और दर्शन के
मामले में मुझ जैसे नवसाक्षर को यह आभास दिए बगैर कि वह सचमुच कितने बड़े विद्वान
हैं, मेरे टेढ़े-मेढ़े सवालों का वह बहुत
सहजता से जवाब देते रहते थे। बीए में दर्शन मेरा एक विषय रह चुका था। उसमें नंबर
भी अव्वल मिले थे। पर सच पूछिए तो जेएनयू के स्तर के हिसाब से उसमें भी मैं
नवसाक्षर ही था।
जहां तक मुझे याद आ रहा है, गोरख जी उन दिनों प्रोफेसर सुमन गुप्ता
के निर्देशन में ज्यां पाल सार्त्र के दर्शन में अलगाववाद के तंतुओं जैसे किसी
गूढ़ विषय पर शोध कर रहे थे। वह दर्शन के अलावा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक
मसलों पर भी ज्ञान के सागर थे। लेकिन अर्थशास्त्र पर उतनी पकड़ नहीं थी। जेएनयू
में उनसे भी बड़े कई विद्वान और ज्ञानी थे, जो अपने-अपने क्षेत्र के ज्ञान-स्तम्भ
कहे जा सकते हैं। लेकिन गोरख में जो एक खास बात थी, वह औरों में मुझे नहीं दिखी। मैंने
जितना गोरख को जाना, उसके
आधार पर कह सकता हूं कि अपनी अब तक की जिन्दगी में उन जैसा फकीर वामपंथी हिन्दी
रचनाकार-दार्शनिक मैंने नहीं देखा, जिसके
राजनीतिक सोच में फौलाद जैसी दृढ़ता हो पर जिसके व्यक्तित्व के अंदरूनी आंगन में
करुणा, प्रेम और कोमलता का समंदर लहराता हो। (मैंने
मुक्तिबोध या पाश को नहीं देखा था)। गोरख के व्यक्तित्व में कहीं कोई पेंच नहीं
दिखता था। उन दिनों वह छत्तीस-सैंतीस के रहे होंगे, पर छल-प्रपंच और झूठ-मक्कारी के
दांवपेंच से वह वैसे ही दूर थे, जैसे
छोटे बच्चे होते हैं, जैसे
फूल होते हैं,
जैसे हरी-भरी वनस्पतियां, पानी से लबालब नदी या झरने होते हैं।
एक पत्रकार के रूप में मैंने बड़े-बड़े धुरंधरों और बौद्धिक-महाबलियों, भूतपूर्व-अभूतपूर्व वामपंथी
लेखक-बुद्धिजीवी भी इसमें शामिल हैं, को महत्वपूर्ण एसाइनमेंट, पद-शोहरत, धन-दौलत, बंगला या सुविधा के लिए तरह-तरह के
प्रपंच रचते देखा है। पर जुलाई, सन
79 से मार्च, सन 1986 तक जैसा मैने देखा, गोरख की पूरी निजी सम्पत्ति उनके बेड
पर बिछे एक साधारण पुराने से गद्दे के नीचे बिखरी रहती थी।
कहीं निकलना होता, कुछ खरीदना होता या किसी दोस्त या
परिचित की जरूरत होती तो वह गद्दे के नीचे के अपने ‘एटीएम’ से कुछ हिस्सा निकाल लेते। उन्हें
यूजीसी की फेलोशिप मिला करती थी। कल्पना कीजिए, वह कमरे से बाहर हैं और उनके किसी
दोस्त-परिचित ने उनसे मदद मांगी तो वह फौरन उसे अपने कमरे में जाकर गद्दे के नीचे
से मांगी गई राशि ले लेने को कहते। मुझे याद नहीं, उन्होंने किसी भी मित्र या परिचित से
कभी दिए हुए रूपयों की मांग की हो। कभी-कभी उनकी अपनी ‘एटीएम मशीन’ भी खाली हो जाती थी, ऐसी स्थिति में वह अपने मित्रों से
जरूरत के हिसाब से कुछ मुद्रा मांगने में कोई संकोच नहीं करते। उनका पूछने का अपना
ही अंदाज होता,
‘मित्रवर, कुछ मुद्रा है क्या?’ इस तरह, वह सही अर्थों में निजी सम्पत्ति और
रक्त-सम्बन्ध आधारित निजी परिवार के व्यामोह से मुक्त हो चुके थे। पूर्वी उत्तर
प्रदेश के देवरिया जिले के अपने गांव से उनका रिश्ता बहुत पहले खत्म हो चुका था।
जहां तक मुझे लगता है, अपने
पिता या घर के अन्य सदस्यों के मुकाबले वह अपनी एक बुआ से ज्यादा प्रभावित रहे
होंगे। परिवार की बात हो तो उनका जिक्र वह जरूर करते थे। हालांकि परिवार का जिक्र
वह यदाकदा ही करते थे, वह
भी सिर्फ बहुत नजदीकी मित्रों के पूछने पर। बचपन में घर वालों ने उनकी शादी कर दी
थी। पर वह रिश्ते में नहीं तब्दील हो पाई। जहां तक मुझे याद आ रहा है और जैसा
पांडे जी से सुना था, उक्त
महिला का बाद के दिनों में किसी बीमारी से निधन हो गया। निशात कैसर ने भी मुझे इसी
आशय की जानकारी दी थी।
लेकिन
दिल्ली, खासकर जेएनयू में प्रलेस-जलेस या
सीपीआई-सीपीएम के छात्र-शिक्षक संगठनों से जुड़े कुछ लोग, पता नहीं क्यों गोरख जैसे निर्दोष
किस्म के इंसान से भी बेवजह चिढ़ा करते थे। कुछेक तो उनके खिलाफ दुष्प्रचार-अभियान
में जुटे रहते थे। कहा जाता है कि एक ने तो उनका उपहास उड़ाने के लिए कहानी तक लिख
मारी। पर मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि ऐसे लोग गोरख को बिल्कुल नहीं जान सके।
इसलिए ऐसे साहित्यकारों की कहानियों के काल्पनिक पात्रों में गोरख को खोजना फिजूल
है। उन दिनों कई समकालीन लेखक, यहां
तक कि जनवादी खेमे के भी, अक्सर
उन्हें या उनकी रचनाओं को खारिज करते पाए जाते। वे मानते कि उनमें गुणवत्ता नहीं
है। कभी कहते कि उनकी कविताओं-गीतों में स्वाभाविकता नहीं है, ‘अधकचरी या कल्पित क्रांति का बनावटी
वर्णन’ है। इनमें कुछ लोग उनकी निजी जिन्दगी
की कतिपय समस्याओं और उनके रहन-सहन का मजाक उड़ाते पाए जाते। कुल मिलाकर वे नहीं
चाहते थे कि गोरख को किसी तरह की रचनात्मक या बौद्धिक प्रतिष्ठा मिले। लेकिन ऐसे
साहित्यकारों को क्या मालूम था कि जेएनयू के होस्टल में रहने वाले उस फकीर-वामपंथी
रचनाकार की रचनाएं बनारस से बरौनी, अररिया
से आरा और कलकत्ता से कानपुर, लगभग
संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र के आम जनजीवन मे जगह बना रही हैं।
आज का जेएनयू |
गोरख
अपनी रचनाओं या अपनी साहित्यिक शख्सियत के प्रचार या शोहरत के लिए किसी तरह का
तिकड़म या फॉर्मूला नहीं खोजते थे। वह आलोचकों को पटाने या प्रभावित करने की बात
तो दूर रही, उनसे मिलने-जुलने जैसी सामान्य
व्यावहारिकता से भी बहुत दूर रहने वाले इंसान थे। उनका होस्टल डा. नामवर सिंह के
फ्लैट के बिल्कुल पास था पर मुझे नहीं मालूम, उनके यहां वह कभी गए होंगे या नहीं, गए होंगे तो कितनी बार गए होंगे! हां, आते-जाते नामवर जी आमने-सामने होते तो
गोरख जी का उनसे दुआ-सलाम जरूर होता था। गोरख जी की दुनिया में उनके अपने लोग ही
शामिल थे, वह जनता, जिसके लिए वह लिखते थे और उनके
समानधर्मा राजनीतिक-साहित्यिक सोच के लोग। यहां गोरख जी के बारे में एक और बात
बताना बहुत जरूरी है। वह कई मामलो में सचमुच अप्रतिम थे। आज के भारतीय समाज में
जातिवादी-वर्णवादी या दक्षिणपंथी-प्रतिक्रियावादी तत्वों की बात कौन करे, महाबली-मार्क्सवादी आलोचकों, प्रगतिकामी-जनवादी लोगों के बीच भी
जात-पात जैसी विकृति नीचे से ऊपर तक पसरी दिखती है, लेकिन गोरख के लिए सिर्फ एक ही जाति
थी-मनुष्यता।
इसमें सिर्फ वर्ग-विभाजन की स्थिति को वह मंजूर करते थे। भारत की खास
वस्तुस्थिति में दलित-आदिवासियों और अन्य उत्पीड़ितों के खिलाफ सदियों से जारी
शोषण-उत्पीड़न को भी वह एक असलियत मानते थे। इसीलिए वह समता और सामाजिक न्याय के
पक्षधर थे। दिल्ली के मंगोलपुरी, सुल्तानपुरी, नरेला और कंझावला जैसे पास के गावों
में भी वह आंदोलन, सभा
या रैली के वक्त अपने राजनीतिक मित्रों के साथ आते-जाते रहते। मंच से अपनी कविताओं, खासकर भोजपुरी गीतों का पाठ करते और
फिर आम गरीब लोगों के बीच घुल-मिलकर बातें करते। उनके साथ खाते-पीते और कार्यक्रम
खत्म होने के बाद डीटीसी की भीड़ भरी बस में सवार होकर देर रात जेएनयू पहुंचते। बस
में वह हमेशा इस बात को लेकर सतर्क रहते कि कोई उनका पैर न कुचले। गोरख की एक और
खास बात, जो उन्हें अपने अन्य समकालीन रचनाकारों
से अलग करती है। उन्हें अपनी किसी रचना पर मूर्धन्य आलोचकों या टिप्पणीकारों के
लेखों या शाबासियों का कभी इंतजार नहीं रहता था। शहर के काफी हाउस या मंडी हाउस की
तरफ, कोई जाना-माना आलोचक या बुद्धिजीवी अगर
कभी उनकी प्रशंसा करता भी तो इसका उन पर बहुत ज्यादा असर मैंने कभी नहीं देखा।
लेकिन मंगोलपुरी, सुल्तानपुरी, नरेला या दिल्ली के आसपास की किसी दलित, मजदूर बस्ती या ऐसी ही किसी जगह आयोजित
किसान-सभा, रैली या किसी राजनीतिक कार्यक्रम में
उन्हें कविता सुनाने या गीत गाने का मौका मिलता या उनकी अनुपस्थिति में उनके गीत
गाये जाते तो उसकी सूचना मात्र पाकर वह चहक उठते थे। एक बार मैं पटना मे आयोजित एक
बड़ी रैली में भाग लेकर दिल्ली लौटा था। उन्हें पहले ही मालूम हो चुका था कि वहां
उनके और विजेंद्र अनिल के दो-तीन गीत सभा मंच से गाए गए। उन्होंने मिलते ही इस
बारे में मुझसे पूछा और रैली का पूरा ब्योरा सुनकर अपनी खुशी जाहिर की।
कुछ
समय साथ रहने की वजह से गोरख की अनेक कविताओं और भोजपुरी गीतों का पहला श्रोता
होने का मुझे गौरव मिला। सिर्फ सुनने का ही नहीं, कई सार्वजनिक मौकों पर उनके भोजपुरी
गीतों को गाने का भी। उनके भोजपुरी गीत दिल्ली, बिहार, बंगाल, यूपी, राजस्थान, पंजाब-हरियाणा आदि के दोस्तों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों को
तो पसंद थे ही,
दक्षिण के हमारे कई छात्र-साथी भी
बार-बार सुनने की मांग करते थे। कई बार हमलोग पीएसओ की बैठकों के बाद होस्टल के
कमरे में ही उनके गीतों का समवेत गायन करने लगते। जेएनयू की गोष्ठियों से लेकर
ट्रेडयूनियन के सभा मंचों से भी हमने ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेले’ या ‘समाजवाद
बबुआ धीरे-धीरे आई’ के
अनगिनत सस्वर पाठ किए होंगे। गोरख के भोजपुरी गीतों का पहला संकलन ‘हिरावल’ के संपादक-संचालक शिवमंगल सिद्धांतकर
ने छापा। शिवमंगल जी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में हिन्दी पढ़ाते थे और
जनवादी विचारधारा और आंदोलनों के प्रखर प्रवक्ता थे। सत्तर-पार बाद भी वह आज उसी
तरह सक्रिय हैं।
संभवतः वह पुस्तिका 78-79 में आई थी। दिल्ली ही नहीं, पूरे हिन्दी क्षेत्र में वह लोकप्रिय
हुई। दूर-दूर से लोग इसकी मांग करते। हिन्दी के कई मठाधीशों, खासकर नकली-प्रगतिकामियों को गोरख के
गीतों-कविताओं की बढ़ती लोकप्रियता कत्तई पाच्य नहीं थी। कइयों ने तो यहां तक कहना
शुरू किया कि गोरख भोजपुरी में गाने लिखें, वह हिन्दी कविता में बेवजह टांग अड़ाते
हैं। उनके पास आधुनिक प्रगतिशील कविता की न तो भाषा है, न संस्कार है। लेकिन गोरख जमे रहे। बाद
में उनका पहला कविता संकलन भी आ गया-‘जागते रहो’।
हिन्दी में उनकी कई कविताएं संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र में पोस्टरों पर उतर आईं। जनता
ने कवि और उसकी कविता को पहचाना। अभी कुछ ही दिनों पहले, मुजफ्फरनगर दंगे पर अपनी प्रतिक्रिया
व्यक्त करने के लिए जब मैने फेसबुक पर और ‘गुलेल डॉट कॉम’ के अपने कॉलम में गोरख की इस कविता को
उद्धृत किया तो ‘द
हिन्दू’ के (पूर्व) यशस्वी संपादक सिद्धार्थ
वरदराजन ने दंगों के ‘राजनीतिक-खेल’ पर उसे बेहतरीन अभिव्यक्ति बताया।
उन्होंने स्वयं अपने फेसबुक टाइमलाइन पर भी उसे दर्ज किया। कविता यहां फिर
प्रस्तुत है-
‘
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब
हुई थी
खून
की बारिश
अगले
साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की।‘
गोरख
की एक छोटी सी कविता मैं जब कभी उद्धृत करता हूं, कम शब्दों में बड़ी बात कहने की उनकी
रचनात्मक-क्षमता पर लोग चकित होते हैं-
‘
वे डरते हैं
किस
चीज से डरते हैं वे
तमाम
धन-दौलत
गोला-बारूद, पुलिस-फौज के बावजूद
वे
डरते हैं
कि
एक दिन
निहत्थे
और गरीब लोग
उनसे
डरना बंद कर देंगे।’
महत्वपूर्ण
कथ्य को किस तरह बेहद सहज भाषा और अंदाज में पेश किया गया है! पांडे जी की यह अपनी
खास शैली है। मुझे
गोरख की रचना प्रक्रिया को भी नजदीक से देखने-समझने का मौका मिला। कई बार वह एक
झटके में कोई कविता या गीत पूरा कर लेते थे। कई बार लंबे समय तक किसी एक कविता या
गीत पर काम करते। बार-बार सुनाते और सुधारते भी। सुनने-सुनाने के नाम पर एक बार
मैंने उनके साथ शरारत भी की थी। उन दिनों मैं यदा-कदा कविताएं भी लिखता था (उन
दिनों हमारी उम्र और पृष्ठभूमि के ज्यादा युवक ऐसा करते थे)। पांडे जी को जब कभी
अपनी कविताएं सुनाता, वह
बहुत उत्साह नहीं दिखाते। एक बार तो उन्होंने बड़े निष्ठुर ढंग से कहा, ‘उर्मिलेश जी, बुनियादी तौर पर आप में
राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर लिखने-पढ़ने की क्षमता-संभावना ज्यादा
प्रबल है। कविता की नहीं।’ उन
दिनों मेरी कुछ कविताएं लघु पत्रिकाओं में छपी भी थीं। यदाकदा कविता लिखता रहता
था।
एक बार शरारत सूझी। एक दिन, तीन-चार
छोटी-छोटी कविताएं उनके सामने पेश कीं। मैंने बताया कि बर्तोल्त ब्रेख्त की कुछ
छोटी कविताओं का पिछले दिनों मैंने अनुवाद किया है। कविताएं कैसी हैं और अनुवाद
कैसा है? ब्रेख्त और नेरूदा पांडे जी के प्रिय कवि थे। उन्होंने कहा, पढ़कर सुनाइए। मैंने सुनाया। उन्होंने
छूटते ही कहा,
‘मजा आ गया। आप
अनुवाद अच्छा करते हैं।’।
कमरे में एक-दो और मित्र थे, जिन्हें
मालूम था कि उर्मिलेश आज पांडे जी के साथ कुछ मजाक करने वाला है। थोड़ी देर के बाद
मैंने खुलासा किया, ‘पांडे
जी, यह कविताएं मेरी हैं।’ पांडे जी थोड़ी देर के लिए झेंपे फिर
मुस्कराते हुए बोले- ‘कॉमरेड, आप कभी-कभी अच्छी शरारत कर लेते हैं।‘ पांडे जी ने बुरा नहीं माना। इसे छोटे
भाई की शरारत के तौर पर लिया। जबकि कई बार वह कुछेक क्षण के लिए बात-बात में ‘दुर्वासा’ भी हो जाया करते थे। मुझे नहीं लगता कि
उनकी यह मनोदशा बहुत पहले से ऐसी रही होगी। संभवतः यह जेएनयू में बाद के दिनों में
उभरी। इसके कुछ खास तरह के लक्षण थे। मसलन—कहीं चलते हुए उनके पैर से अगर आपका
पैर छू गया, तो वह अचानक आग-बबूला हो जाया करते थे।
डीटीसी की बसों में कई बार किसी अनजान व्यक्ति को भी वह कड़ाई से टोक देते थे।
लेकिन हमेशा ही ऐसा करेंगे, ऐसा
भी नहीं था।
कई बार अनजाने में कोई छोटा बच्चा भी उनके पैर को हल्के से छू दे तो
वह तिलमिला उठते थे। ऐसे हालात में कई बार मैंने उन्हें बेहद आक्रामक प्रतिक्रिया
करते देखा। विकासपुरी इलाके में भोजन के बाद टहलते वक्त उन्होंने एक बार ऐसा कर
दिया कि हम सब हतप्रभ रह गए। लेकिन हर समय वह ऐसा नहीं करते थे। निशात कैसर और मैं, कई बार उनकी इस समस्या पर आपस में
बातचीत करते रहते थे। आईपीएफ (उन दिनों बना एक मोर्चा नुमा संगठन) और भाकपा (माले)
के दिल्ली स्थित सदस्यों को भी गोरख जी की इन समस्याओं की थोड़ी-बहुत जानकारी जरूर
थी। ऐसे भी बहुत मौके आए, जब
वह बाद के दिनों में अपने नजदीकी मित्रों से कहा करते थे, ‘ दिस रीगन (उन दिनों के अमेरिकी
राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन) वांटेंड टू गेट मी किल्ड’, या ‘सीआईए मुझे खत्म कराना चाहती है।
केजीबी भी लगी है--वो लोग कभी भी आ सकते हैं।’ कभी वह किसी भारतीय सत्ताधारी नेता या
किसी अन्य विदेशी ताकत के बारे में भी इसी तरह की बातें किया करते थे।
कैम्पस या
मंडी हाउस या किसी अन्य स्थान पर भी वह अचानक सड़क चलते किसी हृष्ट-पुष्ट अनजान
व्यक्ति की तरफ इशारा करके अपने किसी मित्र से कहते थे, ‘कॉमरेड, उसे आप देख रहे हैं न, ये लोग ‘उसी’ के भेजे हुए हैं। मुझ पर नजर रखी जा
रही है।’ उन दिनों हम लोग छात्र थे और अपन जैसों
के पास बहुत संपर्क या संसाधन भी नहीं थे। पर जहां तक मुझे याद आ रहा है कि मैंने, निशात कैसर ने या पीएसओ के अन्य कई
मित्रों ने गोरख पांडे को अनेक बार समझाने की कोशिश की कि उन्हें यह सब नहीं सोचना
चाहिए, यह सब उनकी परिकल्पना है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना
नहीं है। पर वह मुस्करा कर रह जाते। बाद के दिनो में हममे कइयों ने भाकपा (माले)के
नेताओं को इन सारी बातों की जानकारी दी और इसका सही ढंग से इलाज कराने का सुझाव
दिया। शायद, उनमें कुछेक लोगों ने इस दिशा में
कोशिश की होगी। मई, 1983
के बाद मैं कैम्पस से बाहर रहने लगा था। पांडे जी संभवतः 1984 में विकासपुरी के एक
घर में, जहां संदीप पहले से रहते थे, कुछ दिनों के लिए रहने आए तो वहां फिर
से हमारी नियमित मुलाकातें होने लगीं। उन दिनों उसी मुहल्ले में मैं सपरिवार रहने
लगा था।
अलग फ्लैट में रहने वाले संदीप भाकपा (माले) के युवा कार्यकर्ता थे। इससे
पहले वह मेरे साथ पीएसओ की दिल्ली इकाई में काम कर चुके थे। मुझे नहीं मालूम कि
पार्टी में वह किस स्तर के कार्यकर्ता थे। पर वह पूर्णकालिक हो चुके थे। पार्टी के
तीन प्रमुख नेताओं प्रकाश, स्वपन
मुखर्जी और बाद के दिनों में बृज बिहारी पांडे से उनकी अक्सर मुलाकात होती रहती
थी। सभी उनका सम्मान करते थे। बृजबिहारी जी का रुख उन्हें लेकर काफी सहयोगपूर्ण और
संवेदनशील था। जब भी मौका मिलता, वह
गोरख के साथ बैठते थे। उनकी रचनाओं से
लेकर उनकी निजी समस्य़ाओं पर भी गौर करते थे। मुझे लगता है कि पार्टी की तरफ से ही
गोरख जी के लिए कुछ दिनों विकासपुरी में व्यवस्था की गई होगी। पर उन दिनों भी उनकी
मनोदशा में कोई बड़ा सुधार नहीं था। सात-आठ दिनों में एकाध बार शाम को वह मेरे
कमरे पर जरूर आते थे और खीर खाने की फरमाइश करते। उन्हें मेरी पत्नी का बनाया भोजन, खासकर खीर बेहद पसंद था।
यह
सही है कि गोरख की कुछ निजी समस्याएं और परेशानियां थीं, जो काफी समय से उनका पीछा कर रही थीं।
जेएनयू में बाद के दिनों में वे बेहद जटिल और खतरनाक हो गईं। लेकिन निजी समस्याओं
के बावजूद राजनीतिक-वैचारिक सोच के स्तर पर उनमें कोई उलझाव नहीं था। विचारों के
क्षेत्र में उनका परिवार बहुत बड़ा था। साम्राज्यवादियों की साजिशों के चलते लैटिन
अमेरिका, फिलीपीन्स या फिलीस्तीन में किसी
जनयोद्धा या आम निर्दोष नागरिकों की जान जाती तो सचमुच वह अंदर से विलाप करते नजर
आते, मानो उनके अपने परिवार, उनके अपने समाज पर हमला हुआ है। लेकिन
संयोगवश गोरख के पास अपना कोई निजी परिवार नहीं था। एक निर्दयी समाज-व्यवस्था में
निजी तौर पर वह परिवार-विहीन थे। मुझे बार-बार लगता था कि वह किसी मनपसंद स्त्री
का प्रेम चाहते थे, जिसे
वह जी भरकर प्रेम कर सकें। पर ऐसा अवसर उन्हें कभी नहीं मिला। यहां एक और सच का
बयां करना जरूरी है। यह बात सही है कि एक समय गोरख जी जेएनयू की एक छात्रा को
प्रेम करते थे,
एकतरफा प्रेम।
संभवतः वह पंजाब के किसी
शहर से आई थी और समृद्ध परिवार से थी। जहां तक मुझे याद आ रहा है, वह झेलम होस्टल में ही रहती थी। शुरू
में शायद उन्हें भ्रम था कि वह लड़की उन्हें पसंद करती है और एक न एक दिन उनके
प्रेम का जवाब सकारात्मक प्रतिक्रिया के साथ देगी। पर ऐसा नहीं हुआ और न होना था।
बाद के दिनों में उसे मालूम हो गया कि दर्शनशास्त्र में पीएच.डी. करने वाले पांडे
जी उसे चाहने लगे हैं। पर वह इससे बिल्कुल प्रभावित नहीं थी। दिलचस्प बात है कि
गोरख जी की उससे शायद ही कभी बात हुई हो। पर देखा-देखी अक्सर हो जाया करती थी।
मेरा अनुमान है,
पांडे जी या उसने एक दूसरे को कभी ‘हैलो’ भी नहीं किया होगा। एक दिलचस्प वाकया
बताऊं। इससे पांडे जी के मासूम मानस को समझने मे मदद मिल सकती है। उन दिनों जेएनयू
में छात्रसंघ के चुनाव के लिए प्रचार-अभियान जोरशोर से चल रहा था। पदाधिकारियों के
पैनल में पीएसओ की तरफ से मैं इकलौता उम्मीदवार था। पीएसओ, जिसके पांडे जी भी एक सदस्य थे, ने आरएसएफआई (एसएफआई का विद्रोही गुट)
और कुछ स्वतंत्र वामपंथी छात्र-समूहों के साथ मिलकर डीएसएफ नामक एक मोर्चा बनाया
था।
इस मोर्चे की तरफ से मैं छात्र-संघ के महासचिव पद के लिए चुनाव लड़ रहा था।
अध्यक्ष पद के लिए राजन जी जेम्स और उपाध्यक्ष के लिए सीताराम सिंह (आरएसएफआई
नेता) प्रत्याशी थे। डीएसएफ के दो संयोजक थे-हमारे संगठन पीएसओ की तरफ से निशात
कैसर और स्वतंत्र वाम छात्र-समूह की तरफ से आर. दिवाकरन। निशात उन दिनों सेंटर फॉर
सोशल सिस्टम में पीएच.डी. कर रहे थे, जबकि दिवाकरन सेंटर फॉर साइंस पॉलिसी में पीएच.डी. कर रहे थे। वह भी
गुमड़ी राव और जैकब की तरह गोरख पांडे के मित्रों में थे। संभवतः यह सन 80 या 81
की बात है। गंगा-झेलम की लॉन में एक दिन पांडे जी ने मुझे अन्य प्रत्याशियों के
साथ कुछ छात्र-छात्राओं से मिलते-जुलते देखा। वह शायद ढाबे पर चाय पी रहे थे। जब
अगले दिन की सुबह उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने छूटते ही पूछा, ‘ बंधु, आप तो बड़े स्मार्ट हैं। लड़कियों से
खूब बतियाते हैं। गुरु, आपको
वोट ठीक-ठाक मिलेंगे।’ मैंने
पूछा, ‘क्यों ऐसा कैसे लगा आपको’? जवाब दिए बगैर उन्होंने अगला सवाल पूछा, ‘अच्छा, ये बताइए, ‘उन्होंने’ क्या कहा आपको’? यह ‘उन्होंने’ संबोधन उसी लड़की के लिए था, जिसे वह (एकतरफा) प्रेम करते थे। सचमुच, उस दिन हम लोगों की उस लड़की और उसके
साथ की कई अन्य लड़कियों से झेलम-गंगा लान में मुलाकात हुई थी।
हमारे साथ जेम्स, सीता और श्याम आदि भी थे। हम लोगों ने
उन लड़कियों को समझाने की कोशिश की कि हमारा पैनल अतिवादी नहीं है, जैसा कि एसएफआई-एआईएसएफ वाले प्रचारित
कर रहे हैं। लेकिन इसके अलावा किसी से कोई निजी बातचीत नहीं हुई। मैंने पांडे जी
को साफ-साफ बता दिया कि हां, मेरी
‘उनसे’(उस लड़की से) बातचीत हुई। पर मुझे नहीं
लगता कि वह हम लोगों को वोट देगी। शायद लड़कियों का वह ग्रुप ‘फ्रीथिंकर्स’(उन दिनों जेएनयू में सक्रिय एक
छात्र-समूह, जो ‘अराजनीतिक या स्वतंत्र विचारों’ का होने का दावा करता था) को वोट देगा।
फिर पांडे जी ने धीरे से पूछा, ‘उन्होंने
आपसे मेरे बारे में तो कुछ नहीं पूछा’? उन दिनों हम बच्चे ही तो थे, ज्यादा समझ नहीं थी। पांडे जी के इस
सवाल पर हम हंस भी सकते थे, उनका
मजाक उड़ा सकते थे लेकिन उस वक्त पांडे जी को देखकर मैं रूआंसा हो गया। लगा मैं रो
पड़ूंगा। पांडे जी के अंदर उस लड़की के लिए प्रेम का यह कितना कोमल और पवित्र भाव
था!
उसे लेकर कितनी धैर्यभरी उत्सुकता थी! पर यह सब बिल्कुल एकतरफा! वह बार-बार उस
लड़की को ‘उन्होंने’ या उसके नाम में ‘जी’ जोड़कर संबोधित कर रहे थे। सम्मान से
भरपूर थे उनके भाव। वैसे भी महिलाओं के प्रति मैंने उनमें हमेशा बहुत सम्मान भाव
देखा। उक्त घटना के बाद मैंने उन्हें दो-तीन बार समझाने की कोशिश की कि उस लड़की
की दुनिया अलग है। यह बात सही है कि वह बेहद संजीदा और समझदार लड़की लगती है। पर
समृद्ध परिवार से आती है। उसके सोच और सपने अलग हैं। आपको कोई गलतफहमी नहीं पालनी
चाहिए। पर वह मानने को कहां तैयार थे! मेरी तरह कुछ अन्य मित्रों, खासकर निशात ने भी उन्हें कई बार
समझाने की कोशिश की। पर बात नहीं बनी। वह अपने प्रेम के प्रति विश्वास से भरे हुए
थे।
मैंने
एक बार उनसे एक गंभीर बात, मजाकिया
लहजे में कही,
‘पांडे जी, आपको अब ‘अरेंज मैरिज’ या आपसी सहमति से किसी समझदार लड़की से
शादी कर लेनी चाहिए। अगर आप इजाजत दें तो मैं अपने इलाके के एक ऐसे परिवार से बात
कर सकता हूं, जिसके घर की एक बेटी तीस-बत्तीस की
उम्र की है। वह कुंवारी है और शायद किसी पढ़े-लिखे योग्य वर की तलाश में है। शायद, वह आप जैसे पढ़े-लिखे व्यक्ति के साथ
शादी करना मंजूर कर ले। पर वह साधारण कस्बाई लड़की है, जिसे राजेश खन्ना की फिल्में देखना और
कैरम खेलना बहुत पसंद है। वह मार्क्सवादी क्या राजनीतिक भी नहीं है।‘ मेरी बात सुनकर पांडे जी मुस्कराए।
उन्होंने फिर गंभीरतापूर्वक कहा, ‘क्या
बात करते हैं उर्मिलेश जी। ऐसे थोड़े होता है। प्रेम बहुत व्यक्तिगत मामला है।’ उनकी बात सही थी। मैंने तो समझौते का
एक रास्ता भर सुझाया था। निशात भी कहा करते थे, ‘पंडित, अब हम तुम्हारी शादी रचा देंगे।’ उन दिनों निशात स्वयं भी अपेक्षाकृत
अधिक उम्र में अपने से कुछ कम उम्र की एक पढ़ी-लिखी लड़की से मुहब्बत कर रहे थे।
शायद, शादी की योजना थी। पर वह अपनी हर बात
बहुत गोपनीय रखते थे। उस लड़की से हम लोगों का परिचय भी बहुत बाद में कराया।
मुझे
लगता है, बहुत बुरे समय में जिन लोगों को पांडे
जी के निजी परिवार का विकल्प बनना था या उनकी समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक संबोधित
करना था, कहीं न कहीं उनसे कुछ चूक हुई या
लगातार जटिलता की तरफ बढ़ती समस्याओं की अनदेखी हुई। अंततः ऐसी ही कुछ समस्याओं से
जूझने में निजी तौर पर असमर्थ होते जाने और मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य की
परेशानियों के चलते उन्होंने अपने जीवन का अंत किया होगा। इस बारे में मैं ठोस तौर
पर कुछ नहीं कह सकता। मैं तो सिर्फ अपने जेएनयू और दिल्ली के दिनों (जुलाई, 1979--मार्च 1986) तक ही गोरख के बारे
में थोड़ी-बहुत बातें बता सकता हूं। अप्रैल, 1986 के पहले सप्ताह में ही मैं पटना
चला गया था। नवभारत टाइम्स में पत्रकार बनकर। उसके बाद पांडे जी से संपर्क कट गया।
ऐसा नहीं कि गोरख की निजी समस्याएं या स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ खास किस्म की
मुश्किलें 78-86 के दौर में नहीं थीं।
तब भी वे थीं। पर उन दिनों जेएनयू में उनके
इर्दगिर्द बहुत सारे समान सोच या पृष्ठभूमि के छात्र थे। उनमें निशात कैसर, जैकब, गुमड़ी राव, राजू, जे मनोहर राव, अशोक टंकशाला, ए चंद्रशेखर, कोदंड रामारेड्डी और मेरे अलावा तुलसी
राम, राजेश राहुल, शशिभूषण उपाध्याय, मदन, उज्जवल आदि प्रमुख हैं। ऐसे लोगों के
साथ राजनीतिक-सांस्कृतिक और निजी मसलों पर अक्सर चर्चाएं होती रहती थीं। पीएसओ के
बाहर के भी कई छात्रों से उनकी खूब पटती थी। कैम्पस में उनके अनेक प्रशंसक और
चाहने वाले थे। भाई-बहन संजय और सुजाता प्रसाद उनके भोजपुरी गीतों के भारी प्रशंसक
थे। तुलसी राम उन दिनों पीएच.डी. कर रहे थे और भाकपा-लाइन के साथ थे, जबकि अजय कुमार समाजवादी सोच के। यह
लोग भी उनकी रचनाओं के बड़े प्रशंसक थे। गोदावरी के पास वाले ढाबे के सामने की
सीढ़ियों पर वह पीएसओ के साथियों के अलावा जिन अन्य लोगों के साथ बैठते थे, उनमें इस वक्त मुझे तुलसी राम, जैकब, गुमड़ी राव, नागेंद्र प्रताप, अजय कुमार और दिवाकरन आदि के नाम याद आ
रहे हैं। लगातार संवाद, गंभीर
विचार-मंथन, गपशप, हंसी-मजाक और सैर-सपाटे का सिलसिला
चलता रहता था।
मुझे नहीं मालूम, सन
85-86 के बाद पांडे जी को जेएनयू या बाद के दिनों में जहां भी वह रहे, कैसा माहौल मिला। उनके नजदीक कौन और
कैसे लोग थे! मुझे गलत न समझा जाय, मैं
किसी पर गैर-जिम्मेदार होने का आरोप नहीं लगा रहा हूं। इस संसार में हर इंसान को
अपनी जिन्दगी का बचाव स्वयं भी करना होता है। लेकिन मन में उभरते कुछ प्रश्नों का
जवाब खोजने की कोशिश कर रहा हूं। क्यों नहीं, उन्हें बचाया जा सका? जिस समय उन्हें ज्यादा देखरेख, बेहतर चिकित्सा, प्रेम, करुणा और सकारात्मक माहौल की जरूरत थी, शायद वह उन्हें नहीं मिला? इनमें कुछ चीजें, मसलन, चिकित्सा उन्हें उपलब्ध कराई गई। पर
शायद काफी देर हो गई थी। उनकी मनोदशा नहीं बदली जा सकी। मुझे बताया गया कि पांडे
जी जब डाउन कैम्पस वाले अपने कक्ष में रहते थे और उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती तो
देखरेख के लिए उनके कुछ साथी समय-समय पर उनके साथ भी रहे।
लंबे
अंतराल के बाद,
एक दिन वह बुरी खबर मिली। पांडे जी चले
गए। बाद के दिनों में जब मैंने निशात से पूछा तो उन्होंने बताया कि डाऊन कैम्पस
स्थित अपने कक्ष में उस दिन वह अकेले थे। पता नहीं, क्या मनोदशा रही होगी, जब उन्होंने अपने जीवन का अंत किया। इस
आत्महत्या के कुछ दिनों बाद जेएनयू स्थित गंगा होस्टल में एक गोरख जी की स्मृति
में एक सभा का आयोजन किया गया। जन संस्कृति मंच के उत्तरी क्षेत्र के तत्कालीन
सचिव निशात कैसर ने अपने अनुभवों की रोशनी में वहां एक बड़ी बात कही, ‘हमें जरूर सोचना चाहिए कि एक समान
वैचारिकता के बावजूद हम लोगों के बीच सामुदायिकता क्यों नहीं विकसित हो सकी है? इस तरह की सामुदायिकता होती तो क्या
गोरख का अकेलापन इस कदर बढ़ा होता? बीते एक-डेढ़ साल से वह जिस तरह लगातार
अकेलेपन और भयानक त्रासदी की तरफ बढ़ते गए। ऐसे में यह सवाल बना रहेगा कि हमारी
वैचारिकता आगे सामुदायिकता की तरफ क्यों नहीं बढ़ती!’ निशात की यह टिप्पणी गोरख की आत्महत्या
की पृष्ठभूमि और परिस्थितियों पर रोशनी डालती है।
आत्महत्या
की खबर मिलते ही पटना में भी उनके पाठकों-श्रोताओं, राजनीति और विचार के स्तर पर उनसे
जुड़े दोस्तों,
प्रशंसकों और शुभचिंतकों में मातम सा
छा गया। उस दिन पटना स्थित मेरे घर में खाना नहीं बना। बच्चों को कुछ भी नहीं
बताया। वे रात में केला-दूध लेकर सो गए। हम दोनों देर तक गोरख जी के बारे में
सोचते और बतियाते रहे-‘अगर
ऐसा हुआ होता तो ऐसा नहीं होता’ या ‘उन्होंने वह बात मान ली होती तो ऐसा
क्यों होता।’ अब बेमतलब हो चुकीं ऐसी बहुत सी बातें
मेरे और मेरी पत्नी के दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती रहीं। इस घटना के बाद कई
पत्र-पत्रिकाओं की तरफ से मुझे उन पर कुछ लिखने को कहा गया। कइयों ने बार-बार जोर
डाला। पर पता नहीं क्यों, मैं
नहीं लिख सका। जैसे ही लिखने के वास्ते पुरानी चीजें याद करने की कोशिश करता, पांडे जी सामने आकर खड़े हो जाते, मुस्कराते हुए, ‘कॉमरेड, चलिए चाय पीते हैं।’ मैं कहता, ‘पान भी खिलाएंगे न।’ वह ‘हां’ में सिर हिलाते और हम दोनों कभी गंगा
ढाबे, कभी गोदावरी के सामने वाले ढाबे या कभी
कमल काम्प्लेक्स की तरफ चल पड़ते। ऐसे में संस्मरण क्या लिखता! अंत में उनकी छोटी
सी एक कविता के साथ अपनी बात खत्म कर रहा हूः
‘ये आंख हैं तुम्हारी
तकलीफ
का उमड़ता हुआ समुंदर
इस
दुनिया को
जितना
जल्दी हो सके
बदल
देना चाहिए।‘
(इस
आलेख में कुछ खास अवसर, वर्ष
और घटनाओं का उल्लेख याददाश्त के आधार पर किया गया है, उनमें कुछ मामूली हेरफेर हो सकता है।
पर इससे संस्मरण के मूल अंतर्वस्तु पर असर नहीं पड़ता: लेखक)