31 दिसंबर 2013

गोरखः प्रेम, करूणा और तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर

लेखक: उर्मिलेश
(नामवर सिंह पर लिखे संस्मरण के बाद जेएनयू के दिनों को याद करते हुए उर्मिलेश का ये दूसरा संस्मरण है। पिछले संस्मरण की तरह आकार में यह भी ब्लॉग के लिहाज से लंबा है, लेकिन हम यहां असंपादित रूप से प्रकाशित कर रहे हैं: मॉडरेटर)

तारीख और महीना ठीक से याद नहीं, पर यह जेएनयू में सन 1978 की एम.फिल.-पीएच.डी. प्रवेश-परीक्षासे पहले की बात है, जब गोरख पांडे से मेरी मुलाकात विश्वविद्यालय के झेलम होस्टल के उनके कमरे में हुई। जेएनयू की अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा देने मैं इलाहाबाद से दिल्ली आया था। उनसे मिलने का भले ही पहला मौका था पर मित्रों और शुभचिंतकों के जरिए हम दोनों एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचित थे। इलाहाबाद में कृष्ण प्रताप, रामजी राय और बनारस में अवधेश प्रधान से पांडे जी के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। वह एक चर्चित कवि और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। अपने आने की उन्हें पहले ही चिट्ठी भेज चुका था क्योंकि उनके कमरे के अलावा दिल्ली में कोई और ठौर-ठिकाना नहीं था। बेहद मुफलिसी का दौर था। दिल्ली के किसी साधारण होटल में भी रूकने की बात सोच नहीं सकता था। स्टेशन से सीधे जेएनयू गया और झेलम होस्टल पहुंचकर उनका कमरा खोजने लगा। 

नीचे से ही किसी ने पांडे जी का कमरा दिखाते हुए कहा, ‘सीढ़ियों से चले जाइए, वो ऊपर जो कमरा खुला हुआ है, वही है पांडे जी का कमरा।अपनी दो उंगलियों को टेढ़ा कर मैंने कमरे के दरवाजे पर आवाज की, अंदर बेड के एक कोने में बैठे पांडे जी ने कहा, ‘आ जाइए।कमरे के एक कोने में मैंने अपना पुराना सा ट्रैवेल-बैग रखा और उनसे हाथ मिलाया। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘कैसी रही यात्रा, कष्ट तो नहीं हुआ।थोड़ी देर की गपशप के बाद वह मुझे गंगा-झेलम लॉन के सामने वाले ढाबे पर ले गए, जहां हम दोनों ने ब्रेड पकौड़े के साथ चाय पी। लगा ही नहीं कि मैं गोरख पांडे से पहली बार मिल रहा हूं। दुनिया भर की बातें होती रहीं। वहीं कुछेक लोगों से परिचय भी हुआ। फिर हम लोग कमरे में लौट आए।

तकरीबन आठ-साढ़े आठ बजे रात को पांडे जी के साथ झेलम होस्टल मेस में खाने के लिए गया। उन दिनों झेलम को-होस्टलहुआ करता था, उसके एक हिस्से में लड़के रहते थे और दूसरे में लड़कियां। बीच में होस्टल के साझा भोजनालय (कॉमन-मेस) का बड़ा सा हॉल था। दोनों विंग के बीच कोई दीवार नहीं थी पर लड़के कभी भी लड़कियों वाले विंग में नहीं जाते थे, यदाकदा लड़कियां आ जाती थीं। पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाहाबादी-माहौल से निकले मेरे जैसे गंवई-छात्र के लिए यह सब अनोखा था। पांडे जी जब पहली बार आए होंगे तो उनके लिए भी यह अनोखा रहा होगा। मेरी तरह वह भी पूर्वी उत्तर प्रदेश के बनारस से वहां गए थे। इतनी सारी लड़कियों के साथ एक ही कतार में बैठकर भोजन करने का यह मेरा पहला मौका था। लड़कियों में ज्यादातर स्मार्ट और सुंदर थीं। लेकिन उनमें इलाहाबाद की लड़कियों की तरह कस्बाई-शर्मीलापन नहीं था। कइयों को तो खाने के तत्काल बाद सिगरेट सुलगाते देखकर चकित रह गया। 

उस दिन कम खाया। वैसे तो देख रहा था कि पुराने छात्र काउंटर पर जाकर थाली में बार-बार कोई न कोई आइटम भर रहे हैं। पर अपन को वाकई संकोच हो रहा था। पहली बार थाली में जितना निकाला था, उतना ही खाकर उठ गया। पांडे जी तो वैसे भी अल्पाहारी थे। उन्होंने भी मेरे साथ ही खाना खत्म किया। मैंने कहा, ‘पान खाने की इच्छा हो रही है। उन दिनो मैं जमकर पान खाता था। पांडे जी काशी राम ढाबे के पास की एक पान दुकान पर ले गए। उन्होंने उस रात सिगरेट ली और मैंने 120 नंबर जर्दे वाला पान लिया। साथ में दो पान बंधवा भी लिया। पांडे जी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘पान के मामले में आप भी पूरे बनारसी हैं

कमरे में लौटने पर थोड़ी-बहुत गपशप हुई। फिर पांडे जी ने बेड के नीचे से एक फटी-पुरानी सी रजाई निकाल कर नीचे बिछाना शुरू किया और मुझे आदेश दिया, ‘ आप बेड पर सोएंगे। मैं नीचे सोता हूं। पांडे जी उन दिनों पीएच.डी. स्कॉलर थे, इसलिए सिंगल बेड कमरा मिला था। नए छात्रों, भाषा संकाय (स्नात्तक-स्नातकोत्तर संयुक्त कोर्स) वालों या अन्य सभी संकायों के एम.ए. वाले छात्रों को डबल-बेड वाले कमरे मिलते थे और एक ही कमरे में दो-दो छात्र रहते थे। पांडे जी का आदेश सुनकर मैं परेशानी में पड़ गया। वह मुझसे उम्र, पढ़ाई-समझदारी हर स्तर पर बड़े थे। उनका यह आदेश मानना मेरे लिए कष्टप्रद था। मैंने हिम्मत जुटाई, ‘यह नहीं हो सकता। नीचे मैं ही सोऊंगा।फिर उन्होंने समझाना शुरू किया, ‘आपको परीक्षा की तैयारी करनी है, पढ़िए और फिर ठीक से सोइए, मुझे नीचे सोने की पुरानी आदत है। अंत में मेरी जीत हुई। बड़े भाई को छोटे की जिद्द के आगे झुकना पड़ा। सुबह मैं परीक्षा देने चला गया। वहां से लौटा तो उन्होंने पर्चे वगैरह के बारे में पूछा। मैंने कहा, ‘पेपर तो बहुत आसान सा था। अच्छा हुआ है।उन्होंने कहा, ‘चलिए अच्छी बात है, लिस्ट में नाम ऊपर रहा, तो यूजीसी की फेलोशिप तुरंत मिल जाएगी। आर्थिक समस्या नहीं रहेगी।

गोरख
कुछेक दिन वहां रहने के बाद मैं इलाहाबाद लौट गया। एम.फिल.-पीएच.डी.(हिन्दी) की प्रवेश परीक्षा का परिणाम आया तो पता चला, मैंने एडमिशन लिस्ट में टॉप किया है। वहां पांडे जी को भी पता चल गया। कुछ समय बाद मैं फिर जेएनयू पहुंचा और फिर पांडे जी का कमरा ही मेरा बसेरा बना। वहां तब तक रहा, जब तक ब्रह्मपुत्र होस्टल (पूर्वांचल) में मुझे अपना कमरा अलॉट नहीं हो गया। अपने कमरे में शिफ्ट होने के बाद भी आए दिन पांडे जी से मिलने-जुलने का सिलसिला जारी रहा। शुरू में इस कैम्पस में वह मेरे लिए एक बड़े भाई की तरह थे। लेकिन धीरे-धीरे हम दोनों का रिश्ता ज्यादा प्रगाढ़ होता गया। उन दिनों मैं एसएफआई से अलग हो रहा था या कि अलग हो चुका था। हम लोगों ने इलाहाबाद में पहले पीएसए नामक स्वतंत्र किस्म के वामपंथी छात्र संगठन का गठन किया। इसमें तीन तरह के छात्र थे। एक वे जो सीपीआई (एम-एल)-लिबरेशन के समर्थक या उससे प्रेरित थे, दूसरे वे जो एम-एल के ही एसएन सिंह-चंद्रपुल्ला रेड्डी ग्रुप से प्रेरित थे और तीसरे वे जो मेरी तरह माकपा-एसएफआई की लाइन से क्षुब्ध होकर उससे अलग, स्वतंत्र-वाम छात्र संगठन बनाने के नाम पर इसमें शामिल हुए थे। 

पहले वाले समूह में रामजी राय प्रमुख थे। दूसरे में रवि श्रीवास्तव और निशा आनंद आदि। बीच का मैं था, शायद इसीलिए मुझे दोनों गुटों के छात्र-सदस्यों का भरोसा और सद्भाव प्राप्त था। बातचीत से लगा कि गोरख जी को इलाहाबाद के राजनैतिक घटनाक्रम और उसमें मेरी भूमिका के बारे में पूरी जानकारी है। उन दिनों जेएनयू में भाकपा-माकपा से अलग वामपंथी समूह के नाम पर दो ढीले-ढाले छात्र-समूह थे-आरएससी यानी रेडिकल स्टूडेन्ट्स सेंटर और जेसीएम यानी जनवादी छात्र मोर्चा। आरएससी में गोरख के अलावा निशात कैसर, गुमड़ी राव, ए चंद्रशेखर, जे मनोहर राव जैसे जेएनयू के कुछ छात्र शामिल थे, जबकि जेसीएम में त्रिनेत्र जोशी आदि सक्रिय थे। सन 1978 में दोनों संगठनों ने मिलकर छात्र संघ का चुनाव भी लड़ा। उन्होंने सिर्फ कुछ कौंसिलर सीटों पर अपने उम्मीदवार लड़ाए थे। जहां तक मुझे याद आ रहा है, वे सभी हार गए। इस वक्त मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है कि कैम्पस में पीएसओ की स्थापना जेएनयू में मेरे दुबारा दाखिले के बाद हुई या पहले ही हो गई थी। दुबारा दाखिला इसलिए कह रहा हूं कि सन 78 में मेरा प्रोविजनल एडमिशनहुआ था और वह एमए फाइनल का रिजल्ट अक्तूबर, 78 तक न आ पाने के कारण रद्द हो गया। थोड़ी-बहुत सहूलियत मिल सकती थी, जो भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष डॉ. नामवर सिंह और उनके समर्थकों के प्रतिकूल या असहयोगी रवैयेके चलते नहीं मिली।

एडमिशन रद्द होने के बाद अगले साल यानी 79 में मुझे फिर से प्रवेश-परीक्षा में बैठना पड़ा और इस बार तीसरी पोजिशन आई, अंततः फेलोशिप के साथ दाखिला मिला। नया होस्टल मिलने तक फिर गोरख जी के कमरे में ही रहा। उनसे बहुत कुछ सीखने और समझने का मौका मिला। इमर्जेन्सी के बाद माकपा के पास उभरने का बड़ा मौका था। पर धीरे-धीरे उसके राजनीतिक चिंतन और लाइन की समस्याएं सामने आने लगीं। यूपी में माकपा और उसके छात्र संगठन के सामने ढेर सारी मुश्किलें थीं। सच पूछिए तो एसएफआई से पीएसओ की तरफ मेरा झुकाव ज्ञान से ज्यादा अपने सांगठनिक अनुभव के आधार पर हुआ। माकपा-एसएफआई से निराशा मुख्य कारण बनी। साथ में पढ़ना-लिखना भी होता रहा। जेएनयू में एसएफआई-एआईएसएफ गठबंधन के नेतृत्व के रवैये को देखकर मेरा मोहभंग कुछ ज्यादा तेजी से हुआ। माकपा की राजनीतिक लाइन के कई बिंदुओं पर मेरी असहमति पहले से ही उभर रही थी। अंतरराष्ट्रीय हालात भी भारत के पारंपरिक वामपंथियों के लिए प्रतिकूल साबित हो रहे थे। अफगानिस्तान में रूसी सैन्य घुसपैठ को भाकपा की तरह माकपा के लोग भी जायज बताने लगे। इससे इलाहाबाद एसएफआई में हम जैसों ने असहमति जताई। छात्र-संगठन में बड़ा जबर्दस्त विवाद चला। संगठन के साथी और मेरे प्रिय मित्र व्यासजी से तो बोलचाल भी बंद हो गई थी। कुछ महीने बाद फिर से संवाद शुरू हुआ और तब राजनीतिक मतभेद के बावजूद दोस्ती पुख्ता होती गई, जो आज तक कायम है। 

हालांकि छात्र जीवन के बाद हम दोनों पूरी तरह प्रोफेशनल हैं-वह एक नौकरशाह और मैं एक पत्रकार। एसएफआई से मेरे अलगाव के कुछ समय बाद ही इलाहाबाद में पीएसए का गठन  हुआ। पहली बैठक नवनिर्मित ताराचंद होस्टल के एक कमरे में हुई थी। संभवतः वह अरविन्द या शरद श्रीवास्तव का कमरा था। जहां तक मुझे याद आ रहा है, बैठक में रवि श्रीवास्तव और रामजी राय सहित आठ-दस संस्थापक सदस्य मौजूद थे। इनमें शरद, मंगज, अरविन्द, राकेश और कमलकृष्ण राय जैसे लोग प्रमुख थे, जिनका नाम इस वक्त मुझे याद आ रहा है। अखिलेंद्र प्रताप सिंह और लाल बहादुर कुछ समय बाद इस संगठन से जुड़े। उन दिनों कैम्पस में छात्र-कार्यकर्ता के रूप में मैं खूब सक्रिय था। पर अपने बारे में मुझे कोई भ्रम नहीं था। विचारधारा, अर्थतंत्र, दर्शन , खासतौर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों की मेरी समझ बहुत प्रारंभिक किस्म की थी। उतनी ही थी, जितना हिन्दी में छपी बुकलेट्स या अन्य पुस्तकों से मिल सकती थी। आज भी कुछ ज्यादा नहीं है। हम जैसे हिन्दी पत्रकारों को उच्च और गंभीर अध्ययन का मौका भी कहां मिलता है! हमारे जैसी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के पत्रकार-लेखक का ज्यादा वक्त रोजी-रोटी और रोजमर्रे के संघर्ष में ही बीत जाता है।

लेकिन छात्र-जीवन में, खासकर जेएनयू में गोरख पांडे से विचार-विमर्श के दौरान मुझे राजनीतिक विचारधारा, दार्शनिक परंपराओं, खासकर मार्क्सवाद के बारे में काफी कुछ समझने को मिला। इलाहाबाद की स्टडी सर्किल में रवि और अन्य वरिष्ठ मित्र भी विचारधारा और अर्थतंत्र जैसे विषय पर काफी असरदार रहते थे। इस स्टडी सर्किल में कभी-कभी जाने-माने वकील, साहित्यकार, कवि-लेखक और कलाकार भी शामिल होते थे। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में कृष्णप्रताप और रामजी राय काफी जानकार थे। कृष्णप्रताप मीठे स्वभाव के थे, जरूरत के हिसाब से वह विमर्श में कभी-कभी व्यंग्यात्मक तेवर अपनाते थे। रामजी राय में स्पष्टता दिखती थी लेकिन तेवर अक्सर आक्रामक रहता था। उन दिनों वह कन्वीन्सकरने के बजाय कन्फ्रंटकरने के अपने खास अंदाज के लिए जाने जाते थे। मेरे मित्र व्यास जी कभी-कभी उनके अंदाज का मजा ले-लेकर वर्णन करते थे। लेकिन जेएनयू में गोरख बिल्कुल अलग ढंग की शख्सियत नजर आए। राजनीति, दर्शन और विचारधारा के अन्य प्रश्नों को समझाने का उनका अंदाज निराला था। बहुत सहज और सजीव। विचारधारा और दर्शन के मामले में मुझ जैसे नवसाक्षर को यह आभास दिए बगैर कि वह सचमुच कितने बड़े विद्वान हैं, मेरे टेढ़े-मेढ़े सवालों का वह बहुत सहजता से जवाब देते रहते थे। बीए में दर्शन मेरा एक विषय रह चुका था। उसमें नंबर भी अव्वल मिले थे। पर सच पूछिए तो जेएनयू के स्तर के हिसाब से उसमें भी मैं नवसाक्षर ही था। 

जहां तक मुझे याद आ रहा है, गोरख जी उन दिनों प्रोफेसर सुमन गुप्ता के निर्देशन में ज्यां पाल सार्त्र के दर्शन में अलगाववाद के तंतुओं जैसे किसी गूढ़ विषय पर शोध कर रहे थे। वह दर्शन के अलावा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक मसलों पर भी ज्ञान के सागर थे। लेकिन अर्थशास्त्र पर उतनी पकड़ नहीं थी। जेएनयू में उनसे भी बड़े कई विद्वान और ज्ञानी थे, जो अपने-अपने क्षेत्र के ज्ञान-स्तम्भ कहे जा सकते हैं। लेकिन गोरख में जो एक खास बात थी, वह औरों में मुझे नहीं दिखी। मैंने जितना गोरख को जाना, उसके आधार पर कह सकता हूं कि अपनी अब तक की जिन्दगी में उन जैसा फकीर वामपंथी हिन्दी रचनाकार-दार्शनिक मैंने नहीं देखा, जिसके राजनीतिक सोच में फौलाद जैसी दृढ़ता हो पर जिसके व्यक्तित्व के अंदरूनी आंगन में करुणा, प्रेम और कोमलता का समंदर लहराता हो। (मैंने मुक्तिबोध या पाश को नहीं देखा था)। गोरख के व्यक्तित्व में कहीं कोई पेंच नहीं दिखता था। उन दिनों वह छत्तीस-सैंतीस के रहे होंगे, पर छल-प्रपंच और झूठ-मक्कारी के दांवपेंच से वह वैसे ही दूर थे, जैसे छोटे बच्चे होते हैं, जैसे फूल होते हैं, जैसे हरी-भरी वनस्पतियां, पानी से लबालब नदी या झरने होते हैं। एक पत्रकार के रूप में मैंने बड़े-बड़े धुरंधरों और बौद्धिक-महाबलियों, भूतपूर्व-अभूतपूर्व वामपंथी लेखक-बुद्धिजीवी भी इसमें शामिल हैं, को महत्वपूर्ण एसाइनमेंट, पद-शोहरत, धन-दौलत, बंगला या सुविधा के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचते देखा है। पर जुलाई, सन 79 से मार्च, सन 1986 तक जैसा मैने देखा, गोरख की पूरी निजी सम्पत्ति उनके बेड पर बिछे एक साधारण पुराने से गद्दे के नीचे बिखरी रहती थी। 

कहीं निकलना होता, कुछ खरीदना होता या किसी दोस्त या परिचित की जरूरत होती तो वह गद्दे के नीचे के अपने एटीएमसे कुछ हिस्सा निकाल लेते। उन्हें यूजीसी की फेलोशिप मिला करती थी। कल्पना कीजिए, वह कमरे से बाहर हैं और उनके किसी दोस्त-परिचित ने उनसे मदद मांगी तो वह फौरन उसे अपने कमरे में जाकर गद्दे के नीचे से मांगी गई राशि ले लेने को कहते। मुझे याद नहीं, उन्होंने किसी भी मित्र या परिचित से कभी दिए हुए रूपयों की मांग की हो। कभी-कभी उनकी अपनी एटीएम मशीनभी खाली हो जाती थी, ऐसी स्थिति में वह अपने मित्रों से जरूरत के हिसाब से कुछ मुद्रा मांगने में कोई संकोच नहीं करते। उनका पूछने का अपना ही अंदाज होता, ‘मित्रवर, कुछ मुद्रा है क्या?’ इस तरह, वह सही अर्थों में निजी सम्पत्ति और रक्त-सम्बन्ध आधारित निजी परिवार के व्यामोह से मुक्त हो चुके थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के अपने गांव से उनका रिश्ता बहुत पहले खत्म हो चुका था। जहां तक मुझे लगता है, अपने पिता या घर के अन्य सदस्यों के मुकाबले वह अपनी एक बुआ से ज्यादा प्रभावित रहे होंगे। परिवार की बात हो तो उनका जिक्र वह जरूर करते थे। हालांकि परिवार का जिक्र वह यदाकदा ही करते थे, वह भी सिर्फ बहुत नजदीकी मित्रों के पूछने पर। बचपन में घर वालों ने उनकी शादी कर दी थी। पर वह रिश्ते में नहीं तब्दील हो पाई। जहां तक मुझे याद आ रहा है और जैसा पांडे जी से सुना था, उक्त महिला का बाद के दिनों में किसी बीमारी से निधन हो गया। निशात कैसर ने भी मुझे इसी आशय की जानकारी दी थी।

लेकिन दिल्ली, खासकर जेएनयू में प्रलेस-जलेस या सीपीआई-सीपीएम के छात्र-शिक्षक संगठनों से जुड़े कुछ लोग, पता नहीं क्यों गोरख जैसे निर्दोष किस्म के इंसान से भी बेवजह चिढ़ा करते थे। कुछेक तो उनके खिलाफ दुष्प्रचार-अभियान में जुटे रहते थे। कहा जाता है कि एक ने तो उनका उपहास उड़ाने के लिए कहानी तक लिख मारी। पर मैं इतना जरूर कह सकता हूं कि ऐसे लोग गोरख को बिल्कुल नहीं जान सके। इसलिए ऐसे साहित्यकारों की कहानियों के काल्पनिक पात्रों में गोरख को खोजना फिजूल है। उन दिनों कई समकालीन लेखक, यहां तक कि जनवादी खेमे के भी, अक्सर उन्हें या उनकी रचनाओं को खारिज करते पाए जाते। वे मानते कि उनमें गुणवत्ता नहीं है। कभी कहते कि उनकी कविताओं-गीतों में स्वाभाविकता नहीं है, ‘अधकचरी या कल्पित क्रांति का बनावटी वर्णनहै। इनमें कुछ लोग उनकी निजी जिन्दगी की कतिपय समस्याओं और उनके रहन-सहन का मजाक उड़ाते पाए जाते। कुल मिलाकर वे नहीं चाहते थे कि गोरख को किसी तरह की रचनात्मक या बौद्धिक प्रतिष्ठा मिले। लेकिन ऐसे साहित्यकारों को क्या मालूम था कि जेएनयू के होस्टल में रहने वाले उस फकीर-वामपंथी रचनाकार की रचनाएं बनारस से बरौनी, अररिया से आरा और कलकत्ता से कानपुर, लगभग संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र के आम जनजीवन मे जगह बना रही हैं।
आज का जेएनयू

गोरख अपनी रचनाओं या अपनी साहित्यिक शख्सियत के प्रचार या शोहरत के लिए किसी तरह का तिकड़म या फॉर्मूला नहीं खोजते थे। वह आलोचकों को पटाने या प्रभावित करने की बात तो दूर रही, उनसे मिलने-जुलने जैसी सामान्य व्यावहारिकता से भी बहुत दूर रहने वाले इंसान थे। उनका होस्टल डा. नामवर सिंह के फ्लैट के बिल्कुल पास था पर मुझे नहीं मालूम, उनके यहां वह कभी गए होंगे या नहीं, गए होंगे तो कितनी बार गए होंगे! हां, आते-जाते नामवर जी आमने-सामने होते तो गोरख जी का उनसे दुआ-सलाम जरूर होता था। गोरख जी की दुनिया में उनके अपने लोग ही शामिल थे, वह जनता, जिसके लिए वह लिखते थे और उनके समानधर्मा राजनीतिक-साहित्यिक सोच के लोग। यहां गोरख जी के बारे में एक और बात बताना बहुत जरूरी है। वह कई मामलो में सचमुच अप्रतिम थे। आज के भारतीय समाज में जातिवादी-वर्णवादी या दक्षिणपंथी-प्रतिक्रियावादी तत्वों की बात कौन करे, महाबली-मार्क्सवादी आलोचकों, प्रगतिकामी-जनवादी लोगों के बीच भी जात-पात जैसी विकृति नीचे से ऊपर तक पसरी दिखती है, लेकिन गोरख के लिए सिर्फ एक ही जाति थी-मनुष्यता। 

इसमें सिर्फ वर्ग-विभाजन की स्थिति को वह मंजूर करते थे। भारत की खास वस्तुस्थिति में दलित-आदिवासियों और अन्य उत्पीड़ितों के खिलाफ सदियों से जारी शोषण-उत्पीड़न को भी वह एक असलियत मानते थे। इसीलिए वह समता और सामाजिक न्याय के पक्षधर थे। दिल्ली के मंगोलपुरी, सुल्तानपुरी, नरेला और कंझावला जैसे पास के गावों में भी वह आंदोलन, सभा या रैली के वक्त अपने राजनीतिक मित्रों के साथ आते-जाते रहते। मंच से अपनी कविताओं, खासकर भोजपुरी गीतों का पाठ करते और फिर आम गरीब लोगों के बीच घुल-मिलकर बातें करते। उनके साथ खाते-पीते और कार्यक्रम खत्म होने के बाद डीटीसी की भीड़ भरी बस में सवार होकर देर रात जेएनयू पहुंचते। बस में वह हमेशा इस बात को लेकर सतर्क रहते कि कोई उनका पैर न कुचले। गोरख की एक और खास बात, जो उन्हें अपने अन्य समकालीन रचनाकारों से अलग करती है। उन्हें अपनी किसी रचना पर मूर्धन्य आलोचकों या टिप्पणीकारों के लेखों या शाबासियों का कभी इंतजार नहीं रहता था। शहर के काफी हाउस या मंडी हाउस की तरफ, कोई जाना-माना आलोचक या बुद्धिजीवी अगर कभी उनकी प्रशंसा करता भी तो इसका उन पर बहुत ज्यादा असर मैंने कभी नहीं देखा। 

लेकिन मंगोलपुरी, सुल्तानपुरी, नरेला या दिल्ली के आसपास की किसी दलित, मजदूर बस्ती या ऐसी ही किसी जगह आयोजित किसान-सभा, रैली या किसी राजनीतिक कार्यक्रम में उन्हें कविता सुनाने या गीत गाने का मौका मिलता या उनकी अनुपस्थिति में उनके गीत गाये जाते तो उसकी सूचना मात्र पाकर वह चहक उठते थे। एक बार मैं पटना मे आयोजित एक बड़ी रैली में भाग लेकर दिल्ली लौटा था। उन्हें पहले ही मालूम हो चुका था कि वहां उनके और विजेंद्र अनिल के दो-तीन गीत सभा मंच से गाए गए। उन्होंने मिलते ही इस बारे में मुझसे पूछा और रैली का पूरा ब्योरा सुनकर अपनी खुशी जाहिर की।

कुछ समय साथ रहने की वजह से गोरख की अनेक कविताओं और भोजपुरी गीतों का पहला श्रोता होने का मुझे गौरव मिला। सिर्फ सुनने का ही नहीं, कई सार्वजनिक मौकों पर उनके भोजपुरी गीतों को गाने का भी। उनके भोजपुरी गीत दिल्ली, बिहार, बंगाल, यूपी, राजस्थान, पंजाब-हरियाणा आदि के दोस्तों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों को तो पसंद थे ही, दक्षिण के हमारे कई छात्र-साथी भी बार-बार सुनने की मांग करते थे। कई बार हमलोग पीएसओ की बैठकों के बाद होस्टल के कमरे में ही उनके गीतों का समवेत गायन करने लगते। जेएनयू की गोष्ठियों से लेकर ट्रेडयूनियन के सभा मंचों से भी हमने गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो, अजदिया हमरा के भावेलेया समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आईके अनगिनत सस्वर पाठ किए होंगे। गोरख के भोजपुरी गीतों का पहला संकलन हिरावलके संपादक-संचालक शिवमंगल सिद्धांतकर ने छापा। शिवमंगल जी दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में हिन्दी पढ़ाते थे और जनवादी विचारधारा और आंदोलनों के प्रखर प्रवक्ता थे। सत्तर-पार बाद भी वह आज उसी तरह सक्रिय हैं। 

संभवतः वह पुस्तिका 78-79 में आई थी। दिल्ली ही नहीं, पूरे हिन्दी क्षेत्र में वह लोकप्रिय हुई। दूर-दूर से लोग इसकी मांग करते। हिन्दी के कई मठाधीशों, खासकर नकली-प्रगतिकामियों को गोरख के गीतों-कविताओं की बढ़ती लोकप्रियता कत्तई पाच्य नहीं थी। कइयों ने तो यहां तक कहना शुरू किया कि गोरख भोजपुरी में गाने लिखें, वह हिन्दी कविता में बेवजह टांग अड़ाते हैं। उनके पास आधुनिक प्रगतिशील कविता की न तो भाषा है, न संस्कार है। लेकिन गोरख जमे रहे। बाद में उनका पहला कविता संकलन भी आ गया-जागते रहो। हिन्दी में उनकी कई कविताएं संपूर्ण हिन्दी क्षेत्र में पोस्टरों पर उतर आईं। जनता ने कवि और उसकी कविता को पहचाना। अभी कुछ ही दिनों पहले, मुजफ्फरनगर दंगे पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए जब मैने फेसबुक पर और गुलेल डॉट कॉमके अपने कॉलम में गोरख की इस कविता को उद्धृत किया तो द हिन्दूके (पूर्व) यशस्वी संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ने दंगों के राजनीतिक-खेलपर उसे बेहतरीन अभिव्यक्ति बताया। उन्होंने स्वयं अपने फेसबुक टाइमलाइन पर भी उसे दर्ज किया। कविता यहां फिर प्रस्तुत है-
इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
खून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल मतदान की।

गोरख की एक छोटी सी कविता मैं जब कभी उद्धृत करता हूं, कम शब्दों में बड़ी बात कहने की उनकी रचनात्मक-क्षमता पर लोग चकित होते हैं-

वे डरते हैं
किस चीज से डरते हैं वे
तमाम धन-दौलत
गोला-बारूद, पुलिस-फौज के बावजूद
वे डरते हैं
कि एक दिन
निहत्थे और गरीब लोग
उनसे डरना बंद कर देंगे।

महत्वपूर्ण कथ्य को किस तरह बेहद सहज भाषा और अंदाज में पेश किया गया है! पांडे जी की यह अपनी खास शैली है। मुझे गोरख की रचना प्रक्रिया को भी नजदीक से देखने-समझने का मौका मिला। कई बार वह एक झटके में कोई कविता या गीत पूरा कर लेते थे। कई बार लंबे समय तक किसी एक कविता या गीत पर काम करते। बार-बार सुनाते और सुधारते भी। सुनने-सुनाने के नाम पर एक बार मैंने उनके साथ शरारत भी की थी। उन दिनों मैं यदा-कदा कविताएं भी लिखता था (उन दिनों हमारी उम्र और पृष्ठभूमि के ज्यादा युवक ऐसा करते थे)। पांडे जी को जब कभी अपनी कविताएं सुनाता, वह बहुत उत्साह नहीं दिखाते। एक बार तो उन्होंने बड़े निष्ठुर ढंग से कहा, ‘उर्मिलेश जी, बुनियादी तौर पर आप में राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर लिखने-पढ़ने की क्षमता-संभावना ज्यादा प्रबल है। कविता की नहीं।उन दिनों मेरी कुछ कविताएं लघु पत्रिकाओं में छपी भी थीं। यदाकदा कविता लिखता रहता था। 

एक बार शरारत सूझी। एक दिन, तीन-चार छोटी-छोटी कविताएं उनके सामने पेश कीं। मैंने बताया कि बर्तोल्त ब्रेख्त की कुछ छोटी कविताओं का पिछले दिनों मैंने अनुवाद किया है। कविताएं कैसी हैं और अनुवाद कैसा हैब्रेख्त और नेरूदा पांडे जी के प्रिय कवि थे। उन्होंने कहा, पढ़कर सुनाइए। मैंने सुनाया। उन्होंने छूटते ही कहा, ‘मजा आ गया। आप अनुवाद अच्छा करते हैं।। कमरे में एक-दो और मित्र थे, जिन्हें मालूम था कि उर्मिलेश आज पांडे जी के साथ कुछ मजाक करने वाला है। थोड़ी देर के बाद मैंने खुलासा किया, ‘पांडे जी, यह कविताएं मेरी हैं।पांडे जी थोड़ी देर के लिए झेंपे फिर मुस्कराते हुए बोले- कॉमरेड, आप कभी-कभी अच्छी शरारत कर लेते हैं।पांडे जी ने बुरा नहीं माना। इसे छोटे भाई की शरारत के तौर पर लिया। जबकि कई बार वह कुछेक क्षण के लिए बात-बात में दुर्वासाभी हो जाया करते थे। मुझे नहीं लगता कि उनकी यह मनोदशा बहुत पहले से ऐसी रही होगी। संभवतः यह जेएनयू में बाद के दिनों में उभरी। इसके कुछ खास तरह के लक्षण थे। मसलनकहीं चलते हुए उनके पैर से अगर आपका पैर छू गया, तो वह अचानक आग-बबूला हो जाया करते थे। डीटीसी की बसों में कई बार किसी अनजान व्यक्ति को भी वह कड़ाई से टोक देते थे। लेकिन हमेशा ही ऐसा करेंगे, ऐसा भी नहीं था। 

कई बार अनजाने में कोई छोटा बच्चा भी उनके पैर को हल्के से छू दे तो वह तिलमिला उठते थे। ऐसे हालात में कई बार मैंने उन्हें बेहद आक्रामक प्रतिक्रिया करते देखा। विकासपुरी इलाके में भोजन के बाद टहलते वक्त उन्होंने एक बार ऐसा कर दिया कि हम सब हतप्रभ रह गए। लेकिन हर समय वह ऐसा नहीं करते थे। निशात कैसर और मैं, कई बार उनकी इस समस्या पर आपस में बातचीत करते रहते थे। आईपीएफ (उन दिनों बना एक मोर्चा नुमा संगठन) और भाकपा (माले) के दिल्ली स्थित सदस्यों को भी गोरख जी की इन समस्याओं की थोड़ी-बहुत जानकारी जरूर थी। ऐसे भी बहुत मौके आए, जब वह बाद के दिनों में अपने नजदीकी मित्रों से कहा करते थे, ‘ दिस रीगन (उन दिनों के अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन) वांटेंड टू गेट मी किल्ड’, या सीआईए मुझे खत्म कराना चाहती है। केजीबी भी लगी है--वो लोग कभी भी आ सकते हैं।कभी वह किसी भारतीय सत्ताधारी नेता या किसी अन्य विदेशी ताकत के बारे में भी इसी तरह की बातें किया करते थे। 

कैम्पस या मंडी हाउस या किसी अन्य स्थान पर भी वह अचानक सड़क चलते किसी हृष्ट-पुष्ट अनजान व्यक्ति की तरफ इशारा करके अपने किसी मित्र से कहते थे, ‘कॉमरेड, उसे आप देख रहे हैं न, ये लोग उसीके भेजे हुए हैं। मुझ पर नजर रखी जा रही है।उन दिनों हम लोग छात्र थे और अपन जैसों के पास बहुत संपर्क या संसाधन भी नहीं थे। पर जहां तक मुझे याद आ रहा है कि मैंने, निशात कैसर ने या पीएसओ के अन्य कई मित्रों ने गोरख पांडे को अनेक बार समझाने की कोशिश की कि उन्हें यह सब नहीं सोचना चाहिए, यह सब उनकी परिकल्पना है, जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है। पर वह मुस्करा कर रह जाते। बाद के दिनो में हममे कइयों ने भाकपा (माले)के नेताओं को इन सारी बातों की जानकारी दी और इसका सही ढंग से इलाज कराने का सुझाव दिया। शायद, उनमें कुछेक लोगों ने इस दिशा में कोशिश की होगी। मई, 1983 के बाद मैं कैम्पस से बाहर रहने लगा था। पांडे जी संभवतः 1984 में विकासपुरी के एक घर में, जहां संदीप पहले से रहते थे, कुछ दिनों के लिए रहने आए तो वहां फिर से हमारी नियमित मुलाकातें होने लगीं। उन दिनों उसी मुहल्ले में मैं सपरिवार रहने लगा था। 

अलग फ्लैट में रहने वाले संदीप भाकपा (माले) के युवा कार्यकर्ता थे। इससे पहले वह मेरे साथ पीएसओ की दिल्ली इकाई में काम कर चुके थे। मुझे नहीं मालूम कि पार्टी में वह किस स्तर के कार्यकर्ता थे। पर वह पूर्णकालिक हो चुके थे। पार्टी के तीन प्रमुख नेताओं प्रकाश, स्वपन मुखर्जी और बाद के दिनों में बृज बिहारी पांडे से उनकी अक्सर मुलाकात होती रहती थी। सभी उनका सम्मान करते थे। बृजबिहारी जी का रुख उन्हें लेकर काफी सहयोगपूर्ण और संवेदनशील था। जब भी मौका मिलता, वह गोरख के साथ  बैठते थे। उनकी रचनाओं से लेकर उनकी निजी समस्य़ाओं पर भी गौर करते थे। मुझे लगता है कि पार्टी की तरफ से ही गोरख जी के लिए कुछ दिनों विकासपुरी में व्यवस्था की गई होगी। पर उन दिनों भी उनकी मनोदशा में कोई बड़ा सुधार नहीं था। सात-आठ दिनों में एकाध बार शाम को वह मेरे कमरे पर जरूर आते थे और खीर खाने की फरमाइश करते। उन्हें मेरी पत्नी का बनाया भोजन, खासकर खीर बेहद पसंद था।

यह सही है कि गोरख की कुछ निजी समस्याएं और परेशानियां थीं, जो काफी समय से उनका पीछा कर रही थीं। जेएनयू में बाद के दिनों में वे बेहद जटिल और खतरनाक हो गईं। लेकिन निजी समस्याओं के बावजूद राजनीतिक-वैचारिक सोच के स्तर पर उनमें कोई उलझाव नहीं था। विचारों के क्षेत्र में उनका परिवार बहुत बड़ा था। साम्राज्यवादियों की साजिशों के चलते लैटिन अमेरिका, फिलीपीन्स या फिलीस्तीन में किसी जनयोद्धा या आम निर्दोष नागरिकों की जान जाती तो सचमुच वह अंदर से विलाप करते नजर आते, मानो उनके अपने परिवार, उनके अपने समाज पर हमला हुआ है। लेकिन संयोगवश गोरख के पास अपना कोई निजी परिवार नहीं था। एक निर्दयी समाज-व्यवस्था में निजी तौर पर वह परिवार-विहीन थे। मुझे बार-बार लगता था कि वह किसी मनपसंद स्त्री का प्रेम चाहते थे, जिसे वह जी भरकर प्रेम कर सकें। पर ऐसा अवसर उन्हें कभी नहीं मिला। यहां एक और सच का बयां करना जरूरी है। यह बात सही है कि एक समय गोरख जी जेएनयू की एक छात्रा को प्रेम करते थे, एकतरफा प्रेम। 

संभवतः वह पंजाब के किसी शहर से आई थी और समृद्ध परिवार से थी। जहां तक मुझे याद आ रहा है, वह झेलम होस्टल में ही रहती थी। शुरू में शायद उन्हें भ्रम था कि वह लड़की उन्हें पसंद करती है और एक न एक दिन उनके प्रेम का जवाब सकारात्मक प्रतिक्रिया के साथ देगी। पर ऐसा नहीं हुआ और न होना था। बाद के दिनों में उसे मालूम हो गया कि दर्शनशास्त्र में पीएच.डी. करने वाले पांडे जी उसे चाहने लगे हैं। पर वह इससे बिल्कुल प्रभावित नहीं थी। दिलचस्प बात है कि गोरख जी की उससे शायद ही कभी बात हुई हो। पर देखा-देखी अक्सर हो जाया करती थी। मेरा अनुमान है, पांडे जी या उसने एक दूसरे को कभी हैलोभी नहीं किया होगा। एक दिलचस्प वाकया बताऊं। इससे पांडे जी के मासूम मानस को समझने मे मदद मिल सकती है। उन दिनों जेएनयू में छात्रसंघ के चुनाव के लिए प्रचार-अभियान जोरशोर से चल रहा था। पदाधिकारियों के पैनल में पीएसओ की तरफ से मैं इकलौता उम्मीदवार था। पीएसओ, जिसके पांडे जी भी एक सदस्य थे, ने आरएसएफआई (एसएफआई का विद्रोही गुट) और कुछ स्वतंत्र वामपंथी छात्र-समूहों के साथ मिलकर डीएसएफ नामक एक मोर्चा बनाया था। 

इस मोर्चे की तरफ से मैं छात्र-संघ के महासचिव पद के लिए चुनाव लड़ रहा था। अध्यक्ष पद के लिए राजन जी जेम्स और उपाध्यक्ष के लिए सीताराम सिंह (आरएसएफआई नेता) प्रत्याशी थे। डीएसएफ के दो संयोजक थे-हमारे संगठन पीएसओ की तरफ से निशात कैसर और स्वतंत्र वाम छात्र-समूह की तरफ से आर. दिवाकरन। निशात उन दिनों सेंटर फॉर सोशल सिस्टम में पीएच.डी. कर रहे थे, जबकि दिवाकरन सेंटर फॉर साइंस पॉलिसी में पीएच.डी. कर रहे थे। वह भी गुमड़ी राव और जैकब की तरह गोरख पांडे के मित्रों में थे। संभवतः यह सन 80 या 81 की बात है। गंगा-झेलम की लॉन में एक दिन पांडे जी ने मुझे अन्य प्रत्याशियों के साथ कुछ छात्र-छात्राओं से मिलते-जुलते देखा। वह शायद ढाबे पर चाय पी रहे थे। जब अगले दिन की सुबह उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने छूटते ही पूछा, ‘ बंधु, आप तो बड़े स्मार्ट हैं। लड़कियों से खूब बतियाते हैं। गुरु, आपको वोट ठीक-ठाक मिलेंगे।मैंने पूछा, ‘क्यों ऐसा कैसे लगा आपको’?  जवाब दिए बगैर उन्होंने अगला सवाल पूछा, ‘अच्छा, ये बताइए, ‘उन्होंनेक्या कहा आपको’? यह उन्होंनेसंबोधन उसी लड़की के लिए था, जिसे वह (एकतरफा) प्रेम करते थे। सचमुच, उस दिन हम लोगों की उस लड़की और उसके साथ की कई अन्य लड़कियों से झेलम-गंगा लान में मुलाकात हुई थी। 


हमारे साथ जेम्स, सीता और श्याम आदि भी थे। हम लोगों ने उन लड़कियों को समझाने की कोशिश की कि हमारा पैनल अतिवादी नहीं है, जैसा कि एसएफआई-एआईएसएफ वाले प्रचारित कर रहे हैं। लेकिन इसके अलावा किसी से कोई निजी बातचीत नहीं हुई। मैंने पांडे जी को साफ-साफ बता दिया कि हां, मेरी उनसे’(उस लड़की से) बातचीत हुई। पर मुझे नहीं लगता कि वह हम लोगों को वोट देगी। शायद लड़कियों का वह ग्रुप फ्रीथिंकर्स’(उन दिनों जेएनयू में सक्रिय एक छात्र-समूह, जो अराजनीतिक या स्वतंत्र विचारोंका होने का दावा करता था) को वोट देगा। फिर पांडे जी ने धीरे से पूछा, ‘उन्होंने आपसे मेरे बारे में तो कुछ नहीं पूछा’? उन दिनों हम बच्चे ही तो थे, ज्यादा समझ नहीं थी। पांडे जी के इस सवाल पर हम हंस भी सकते थे, उनका मजाक उड़ा सकते थे लेकिन उस वक्त पांडे जी को देखकर मैं रूआंसा हो गया। लगा मैं रो पड़ूंगा। पांडे जी के अंदर उस लड़की के लिए प्रेम का यह कितना कोमल और पवित्र भाव था! 

उसे लेकर कितनी धैर्यभरी उत्सुकता थी! पर यह सब बिल्कुल एकतरफा! वह बार-बार उस लड़की को उन्होंनेया उसके नाम में जीजोड़कर संबोधित कर रहे थे। सम्मान से भरपूर थे उनके भाव। वैसे भी महिलाओं के प्रति मैंने उनमें हमेशा बहुत सम्मान भाव देखा। उक्त घटना के बाद मैंने उन्हें दो-तीन बार समझाने की कोशिश की कि उस लड़की की दुनिया अलग है। यह बात सही है कि वह बेहद संजीदा और समझदार लड़की लगती है। पर समृद्ध परिवार से आती है। उसके सोच और सपने अलग हैं। आपको कोई गलतफहमी नहीं पालनी चाहिए। पर वह मानने को कहां तैयार थे! मेरी तरह कुछ अन्य मित्रों, खासकर निशात ने भी उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की। पर बात नहीं बनी। वह अपने प्रेम के प्रति विश्वास से भरे हुए थे।

मैंने एक बार उनसे एक गंभीर बात, मजाकिया लहजे में कही, ‘पांडे जी, आपको अब अरेंज मैरिजया आपसी सहमति से किसी समझदार लड़की से शादी कर लेनी चाहिए। अगर आप इजाजत दें तो मैं अपने इलाके के एक ऐसे परिवार से बात कर सकता हूं, जिसके घर की एक बेटी तीस-बत्तीस की उम्र की है। वह कुंवारी है और शायद किसी पढ़े-लिखे योग्य वर की तलाश में है। शायद, वह आप जैसे पढ़े-लिखे व्यक्ति के साथ शादी करना मंजूर कर ले। पर वह साधारण कस्बाई लड़की है, जिसे राजेश खन्ना की फिल्में देखना और कैरम खेलना बहुत पसंद है। वह मार्क्सवादी क्या राजनीतिक भी नहीं है।मेरी बात सुनकर पांडे जी मुस्कराए। उन्होंने फिर गंभीरतापूर्वक कहा, ‘क्या बात करते हैं उर्मिलेश जी। ऐसे थोड़े होता है। प्रेम बहुत व्यक्तिगत मामला है।उनकी बात सही थी। मैंने तो समझौते का एक रास्ता भर सुझाया था। निशात भी कहा करते थे, ‘पंडित, अब हम तुम्हारी शादी रचा देंगे।उन दिनों निशात स्वयं भी अपेक्षाकृत अधिक उम्र में अपने से कुछ कम उम्र की एक पढ़ी-लिखी लड़की से मुहब्बत कर रहे थे। शायद, शादी की योजना थी। पर वह अपनी हर बात बहुत गोपनीय रखते थे। उस लड़की से हम लोगों का परिचय भी बहुत बाद में कराया।

मुझे लगता है, बहुत बुरे समय में जिन लोगों को पांडे जी के निजी परिवार का विकल्प बनना था या उनकी समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक संबोधित करना था, कहीं न कहीं उनसे कुछ चूक हुई या लगातार जटिलता की तरफ बढ़ती समस्याओं की अनदेखी हुई। अंततः ऐसी ही कुछ समस्याओं से जूझने में निजी तौर पर असमर्थ होते जाने और मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य की परेशानियों के चलते उन्होंने अपने जीवन का अंत किया होगा। इस बारे में मैं ठोस तौर पर कुछ नहीं कह सकता। मैं तो सिर्फ अपने जेएनयू और दिल्ली के दिनों (जुलाई, 1979--मार्च 1986) तक ही गोरख के बारे में थोड़ी-बहुत बातें बता सकता हूं। अप्रैल, 1986 के पहले सप्ताह में ही मैं पटना चला गया था। नवभारत टाइम्स में पत्रकार बनकर। उसके बाद पांडे जी से संपर्क कट गया। ऐसा नहीं कि गोरख की निजी समस्याएं या स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ खास किस्म की मुश्किलें 78-86 के दौर में नहीं थीं।

तब भी वे थीं। पर उन दिनों जेएनयू में उनके इर्दगिर्द बहुत सारे समान सोच या पृष्ठभूमि के छात्र थे। उनमें निशात कैसर, जैकब, गुमड़ी राव, राजू, जे मनोहर राव, अशोक टंकशाला, ए चंद्रशेखर, कोदंड रामारेड्डी और मेरे अलावा तुलसी राम, राजेश राहुल, शशिभूषण उपाध्याय, मदन, उज्जवल आदि प्रमुख हैं। ऐसे लोगों के साथ राजनीतिक-सांस्कृतिक और निजी मसलों पर अक्सर चर्चाएं होती रहती थीं। पीएसओ के बाहर के भी कई छात्रों से उनकी खूब पटती थी। कैम्पस में उनके अनेक प्रशंसक और चाहने वाले थे। भाई-बहन संजय और सुजाता प्रसाद उनके भोजपुरी गीतों के भारी प्रशंसक थे। तुलसी राम उन दिनों पीएच.डी. कर रहे थे और भाकपा-लाइन के साथ थे, जबकि अजय कुमार समाजवादी सोच के। यह लोग भी उनकी रचनाओं के बड़े प्रशंसक थे। गोदावरी के पास वाले ढाबे के सामने की सीढ़ियों पर वह पीएसओ के साथियों के अलावा जिन अन्य लोगों के साथ बैठते थे, उनमें इस वक्त मुझे तुलसी राम, जैकब, गुमड़ी राव, नागेंद्र प्रताप, अजय कुमार और दिवाकरन आदि के नाम याद आ रहे हैं। लगातार संवाद, गंभीर विचार-मंथन, गपशप, हंसी-मजाक और सैर-सपाटे का सिलसिला चलता रहता था। 

मुझे नहीं मालूम, सन 85-86 के बाद पांडे जी को जेएनयू या बाद के दिनों में जहां भी वह रहे, कैसा माहौल मिला। उनके नजदीक कौन और कैसे लोग थे! मुझे गलत न समझा जाय, मैं किसी पर गैर-जिम्मेदार होने का आरोप नहीं लगा रहा हूं। इस संसार में हर इंसान को अपनी जिन्दगी का बचाव स्वयं भी करना होता है। लेकिन मन में उभरते कुछ प्रश्नों का जवाब खोजने की कोशिश कर रहा हूं। क्यों नहीं, उन्हें बचाया जा सका? जिस समय उन्हें ज्यादा देखरेख, बेहतर चिकित्सा, प्रेम, करुणा और सकारात्मक माहौल की जरूरत थी, शायद वह उन्हें नहीं मिला? इनमें कुछ चीजें, मसलन, चिकित्सा उन्हें उपलब्ध कराई गई। पर शायद काफी देर हो गई थी। उनकी मनोदशा नहीं बदली जा सकी। मुझे बताया गया कि पांडे जी जब डाउन कैम्पस वाले अपने कक्ष में रहते थे और उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती तो देखरेख के लिए उनके कुछ साथी समय-समय पर उनके साथ भी रहे।
 
लंबे अंतराल के बाद, एक दिन वह बुरी खबर मिली। पांडे जी चले गए। बाद के दिनों में जब मैंने निशात से पूछा तो उन्होंने बताया कि डाऊन कैम्पस स्थित अपने कक्ष में उस दिन वह अकेले थे। पता नहीं, क्या मनोदशा रही होगी, जब उन्होंने अपने जीवन का अंत किया। इस आत्महत्या के कुछ दिनों बाद जेएनयू स्थित गंगा होस्टल में एक गोरख जी की स्मृति में एक सभा का आयोजन किया गया। जन संस्कृति मंच के उत्तरी क्षेत्र के तत्कालीन सचिव निशात कैसर ने अपने अनुभवों की रोशनी में वहां एक बड़ी बात कही, ‘हमें जरूर सोचना चाहिए कि एक समान वैचारिकता के बावजूद हम लोगों के बीच सामुदायिकता क्यों नहीं विकसित हो सकी है? इस तरह की सामुदायिकता होती तो क्या गोरख का अकेलापन इस कदर बढ़ा होताबीते एक-डेढ़ साल से वह जिस तरह लगातार अकेलेपन और भयानक त्रासदी की तरफ बढ़ते गए। ऐसे में यह सवाल बना रहेगा कि हमारी वैचारिकता आगे सामुदायिकता की तरफ क्यों नहीं बढ़ती!निशात की यह टिप्पणी गोरख की आत्महत्या की पृष्ठभूमि और परिस्थितियों पर रोशनी डालती है।

आत्महत्या की खबर मिलते ही पटना में भी उनके पाठकों-श्रोताओं, राजनीति और विचार के स्तर पर उनसे जुड़े दोस्तों, प्रशंसकों और शुभचिंतकों में मातम सा छा गया। उस दिन पटना स्थित मेरे घर में खाना नहीं बना। बच्चों को कुछ भी नहीं बताया। वे रात में केला-दूध लेकर सो गए। हम दोनों देर तक गोरख जी के बारे में सोचते और बतियाते रहे-अगर ऐसा हुआ होता तो ऐसा नहीं होताया उन्होंने वह बात मान ली होती तो ऐसा क्यों होता।अब बेमतलब हो चुकीं ऐसी बहुत सी बातें मेरे और मेरी पत्नी के दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती रहीं। इस घटना के बाद कई पत्र-पत्रिकाओं की तरफ से मुझे उन पर कुछ लिखने को कहा गया। कइयों ने बार-बार जोर डाला। पर पता नहीं क्यों, मैं नहीं लिख सका। जैसे ही लिखने के वास्ते पुरानी चीजें याद करने की कोशिश करता, पांडे जी सामने आकर खड़े हो जाते, मुस्कराते हुए, ‘कॉमरेड, चलिए चाय पीते हैं।मैं कहता, ‘पान भी खिलाएंगे न।वह हांमें सिर हिलाते और हम दोनों कभी गंगा ढाबे, कभी गोदावरी के सामने वाले ढाबे या कभी कमल काम्प्लेक्स की तरफ चल पड़ते। ऐसे में संस्मरण क्या लिखता! अंत में उनकी छोटी सी एक कविता के साथ अपनी बात खत्म कर रहा हूः

ये आंख हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुंदर
इस दुनिया को
जितना जल्दी हो सके
बदल देना चाहिए।

(इस आलेख में कुछ खास अवसर, वर्ष और घटनाओं का उल्लेख याददाश्त के आधार पर किया गया है, उनमें कुछ मामूली हेरफेर हो सकता है। पर इससे संस्मरण के मूल अंतर्वस्तु पर असर नहीं पड़ता: लेखक)

30 नवंबर 2013

ग़ैर-ज़िम्मेदारी के खोल में समाया ओपनियन पोल : पाबंदी क्यों न हो!

                                                   -दिलीप ख़ान
 
                                         (मूलत: समयांतर में प्रकाशित)

ओपिनियन पोल यानी जनमत सर्वेक्षण का मामला मीडिया और इसे जारी करने वाली संस्थाओं से ज़्यादा हाल के दिनों में राजनीतिक गलियारों में चर्चा के केंद्र में रहा। चुनाव आयोग ने जनमत सर्वेक्षण की वैधता पर सवाल उठाते हुए केंद्र सरकार को एक बार फिर यह प्रस्ताव भेजा कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद से इस पर पाबंदी लगा दी जाए। आयोग का मानना है कि जनमत सर्वेक्षण के चलते निष्पक्ष चुनाव की संकल्पना प्रभावित हो रही है और कई बार ऐसे सर्वेक्षण किन्हीं ख़ास हितों को साधने का जरिया बन जा रहे हैं। सरकार की तरफ़ से क़ानून मंत्रालय ने प्रस्ताव को एटॉर्नी जनरल जी ई वाहनवती के पास सलाह-मशविरा की खातिर भेज दिया और वाहनवती ने जब इस पर सहमति जता दी तो केंद्र सरकार के लिए चुनाव की इस घड़ी में फ़ैसला लेना मुश्किल हो गया।
पांच राज्यों में मिज़ोरम हालांकि नहीं दिखता!!

सरकार में शामिल सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ने बरास्ते केंद्र सरकार ऐसे किसी भी फ़ैसले को टालने के लिहाज से प्रस्ताव वापस चुनाव आयोग के पास भेज दिया कि जब तक पूरे मसले पर सर्वदलीय राय नहीं ली जाती तब तक सरकार किसी ठोस फ़ैसले तक पहुंचने की जल्दबाज़ी में नहीं पड़ना चाहती। चुनाव आयोग ने इसके बाद 21 अक्टूबर को देश की 60 से ज़्यादा मान्यता प्राप्त सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों से इस पर राय मांगने के लिए ख़त लिखा।  इसके बाद राजनीतिक पार्टियों में सुगबुगाहट तेज हो गई और वाहनवती की सहमति के बाद पार्टियों के भीतर जो गुफ़्तगू की शक्ल में बातचीत होती थी वो अब प्रेस कांफ्रेंस में तब्दील हो गईं। ज़्यादातर पार्टियों का ये सुर है कि जनमत सर्वेक्षण की वैधता को या तो साबित करने की ज़िम्मेदारी संबंधित एजेंसियां/टीवी चैनल लें या फिर एक ख़ास अंतराल के लिए इस पर सचमुच पाबंदी लगा दी जाए।

केंद्र सरकार जिस फ़ैसले में हिचकिचाहट दिखा रही थी, उसी बात को राय के तौर पर सत्तारूढ़ कांग्रेस ने खुलकर सार्वजनिक किया। कांग्रेस ने चुनाव आयोग के प्रस्ताव का समर्थन किया और पार्टी के कई नेताओं ने ओपिनियन पोल की वैधता पर सवाल उठाए। ख़ासकर दिग्विजय सिंह और कपिल सिब्बल ने ये कहा कि जनमत सर्वेक्षण की पद्धति वैज्ञानिक नहीं होती और कई दफ़ा पैसे के बल पर ऐसे सर्वेक्षण जारी कर दिए जाते हैं। कांग्रेस के इस बयान के बाद राजनीतिक पारा तेजी से ऊपर चढ़ा और भाजपा के कई नेताओं ने ये बयान देना शुरू कर दिया कि अगले साल होने वाले लोक सभा चुनाव और फ़िलहाल पांच राज्यों (छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, मिज़ोरम, राजस्थान और दिल्ली) में हो रहे विधान सभा चुनावों में चूंकि कांग्रेस को पिछड़ते हुए दिखाया गया है इसलिए कांग्रेस इससे नाराज है और जनमत सर्वेक्षण पर पाबंदी चाहती है। राज्य सभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेटली सहित कई नेताओं ने इसे संविधान की धारा 19(1) में प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन क़रार देते हुए कहा कि जनमत सर्वेक्षण लोकतंत्र की नब्ज टटोलने का जरिया है, लिहाजा किसी भी सूरत में इस पर पाबंदी उचित नहीं है।
 
बसपा और माकपा सहित जद(यू) ने जनमत सर्वेक्षण पर या तो ज़िम्मेदारी तय करने की बात कही या फिर सीमित समय के लिए पाबंदी लगाने के पक्ष में सहमति जाहिर की। भाजपा इकलौती प्रमुख पार्टी है जिसने खुलकर चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव का विरोध किया। पूरे प्रसंग पर तीन-चार सवाल हैं। पहला, क्या भाजपा सचमुच अभिव्यक्ति की आज़ादी की पैरोकार है? दूसरा, क्या जनमत सर्वेक्षण आगामी चुनाव परिणाम की सटीक भविष्यवाणी कर पाने में अब तक सक्षम रहे हैं? तीसरा, क्या जनमत सर्वेक्षण पर पाबंदी लगा देने से चुनाव प्रक्रिया वाकई ज़्यादा निष्पक्ष बन जाएगी? और चौथा, क्या कांग्रेस सर्वेक्षण में पिछड़ने से उपजी हताशा के चलते चुनाव आयोग के साथ समान राय के मंच पर खड़ी हो गई?

ओपिनियन पोल और एक्ज़िट पोल पर मौजूदा व्यवस्था के तहत मतदान ख़त्म होने से 48 घंटे पहले से ओपिनियन पोल प्रसारित करने पर पाबंदी है। जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 126(1)(बी) के तहत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सिनेमैटोग्राफ़ या ऐसे ही किसी भी माध्यम द्वारा किसी उम्मीदवार की सार्वजनिक सभा और रैली इत्यादि दिखाया जाना प्रतिबंधित है। जीत-हार के बारे में बताने पर भी पाबंदी है, लेकिन प्रिंट मीडिया को इससे अब तक मुक्त रखा गया है। ये सारे नियम-क़ायदे टीवी चैनलों पर प्रसारित ओपिनियन पोल पर लगाम कसने के लिहाज से चुनाव आयोग ने बनाए। इसी तरह एक चरण में हो रहे चुनाव में एक्ज़िट पोल पर कोई पाबंदी नहीं है लेकिन अगर एक से अधिक चरण में किसी राज्य में चुनाव हो रहे हों या फिर एक साथ कई राज्यों में चुनाव हो रहे हों तो अंतिम मतदान होने तक एक्ज़िट पोल नहीं दिखाया जा सकता। चुनाव आयोग का मानना है कि इससे आगे के नतीजे प्रभावित होते हैं। मसलन, अगर एक राज्य में 1 तारीख़ को चुनाव हो रहे हों और दूसरे राज्य में 10 तारीख़ को, तो 10 तारीख़ को होने वाले मतदान के बाद ही कोई टीवी चैनल दोनों राज्यों का एक्ज़िट पोल दिखा सकता है।

लेकिन ओपिनियन पोल पर छिड़ी नई बहस में पहल के स्तर पर कुछ भी नया नहीं है। आयोग ने इस बारे में कोई पहली मर्तबा कदम नहीं उठाया है बल्कि निजी टीवी चैनलों के प्रभावशाली बनने के बाद से ही इस पर आयोग सतर्कता दिखाता रहा है। चुनाव आयोग ने 1998 में ओपनियन पोल पर दिशा-निर्देश जारी किया था, जिसको उच्चतम न्यायलय ने अनुचित करार दिया और कहा कि आयोग के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है कि वो इन नियमों को लागू करा सके। इसके बाद बड़े स्तर पर पहली बार साल 2004 में जनमत सर्वेक्षण के मसले पर सर्वदलीय बैठक हुई और उस बैठक में भाजपा सहित तकरीबन सारी पार्टियों ने इस पर सहमति जताई थी कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद से ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए। 4 अप्रैल 2004 को तत्कालीन क़ानून मंत्री अरुण जेटली ने जनमत सर्वेक्षण को बंद करने की बात सार्वजनिक तौर पर कही थी। लेकिन 9 साल बाद 2013 में अरुण जेटली 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' का हवाला देने के साथ-साथ ये भी कह रहे हैं कि यह संदेशवाहक पर चाबुक मारने जैसा कदम होगा! इस चाबुक मारने के तर्क को बेहद मामूली विस्तार देते हुए देखे तो साफ़ पता चलता है कि जनमत सर्वेक्षणों के झुकाव और उससे पड़ने वाले प्रभाव के आयतन के मुताबिक़ राजनीतिक पार्टियां अपनी राय बना-बिगाड़ या बदल रही हैं।

दस साल पहले भाजपा की अगुवाई वाला गठबंधन राजग सत्ता में था और देश के ज़्यादातर जनमत सर्वेक्षणों में ऐसी भविष्यवाणी की जा रही थी कि राजग वापस सत्ता संभालेगा। कांग्रेस के लिए स्थिति प्रतिकूल थी, लेकिन नतीजा उलट हुआ। कांग्रेस बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और संप्रग सरकार बनी। उस वक़्त भाजपा के लिए जनमत सर्वेक्षण को रोकना, न रोकना बहुत मायने नहीं रखता था क्योंकि वह आश्वस्त थी कि सत्ता वापस मिलनी है, लिहाजा चुनाव आयोग के आग्रह और बाकी राजनीतिक पार्टियों के रुझान को देखते हुए भाजपा ने भी उस वक़्त पाबंदी के पक्ष में सहमति जाहिर कर दी थी। लेकिन, 9-10 साल में मंजर काफी बदर चुके हैं और फ़िलवक़्त भाजपा अपने प्रचार तंत्र को मज़बूत बनाने को लेकर बेहद संजीदा है। पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रचारित कई चीज़ें झूठी भी साबित हो चुकी है, लेकिन भाजपा न सिर्फ़ प्रचार बल्कि जनता के बीच अपनी छवि को बेहद आक्रामकता के साथ इस बार पेश करने की तैयारी में है। ऐसे में, अगर जनमत सर्वेक्षण उसके पक्ष में आ रहे हैं तो उसकी हवा रोकने के पक्ष में ख़ुद कैसे खड़ा हो सकती है?

कांग्रेस की स्थिति जनमत सर्वेक्षण के बाज़ार में उतरी कंपनियों के बीच बेहतर नहीं है। लिहाजा कांग्रेस अगर चुनाव आयोग के पक्ष में खड़ी होती है तो उसके लिए कतई घाटे का सौदा नहीं है। संक्षेप में अगर देश में ओपिनियन पोल के चलन पर नज़र दौड़ाए तो पहली बार संभवत: 1957 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपिनियन (आईआईपीओ) ने चुनाव के लिए जनमत सर्वेक्षण किया था और 1963 से सीएसडीएस ये काम कर रहा है। लेकिन, पिछले डेढ़ दशक में इस क्षेत्र में कई एजेंसियां दाख़िल हुई हैं जो टीवी चैनलों के साथ मिलकर काफ़ी बड़े जनमानस को प्रभावित करने में सक्षम हैं। इनमें से कुछ एजेंसियों से जुड़े लोगों का किसी ख़ास राजनीतिक पार्टियों के साथ बेहद क़रीबी संबंध हैं। सर्वे एजेंसी सी-वोटर के संस्थापक यशवंत देशमुख के लिए भाजपा घर की पार्टी है। वो चंडिकादास अमृतराव देशमुख उर्फ़ नानाजी देशमुख के बेटे हैं। नानाजी देशमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनसंघ और भाजपा के तेजतर्रार नेता रहे हैं।
 
सी-वोटर अलग-अलग टीवी चैनलों के साथ गठजोड़ करके ओपिनियन और एक्ज़िट पोल प्रसारित करती है। अभी पांच राज्यों में हो रहे चुनाव में से चार के लिए सी-वोटर ने जो आंकड़े जाहिर किए हैं उनमें चारों राज्यों में बीजेपी (मध्यप्रदेश-130, छत्तीसगढ़-47, राजस्थान-97, दिल्ली-28) सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर हमारे सामने है। विपक्षी पार्टियां ये बात जानती हैं, लेकिन उनके पास कोई रास्ता नहीं है कि सी-वोटर को अपनी राय जाहिर करने से रोक ले। एक बार आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने यशवंत देशमुख को 'संघ का आदमी' बताया था।

सर्वे जाहिर करने वाली बड़ी कंपनी ए सी नील्सन पर छेड़छाड़ के कई आरोप लग चुके हैं। टेलीविज़न रेटिंग्स प्वाइंट यानी टीआरपी को ख़ास हित के लिए छेड़-छाड़ करने के आरोप के साथ एनडीटीवी ने न्यूयॉर्क की अदालत में इस कंपनी पर मुक़दमा दायर किया था। पूरे मामले को अभी लगभग साल भर हुए हैं। ऐसे में इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि नील्सन के भीतर टीआरपी वाले अंदाज में चुनाव सर्वेक्षण भी हमारे बीच पेश करे की कोशिश की जाती रही हो। ए सी नील्सन अमूमन स्टार न्यूज़ (अब एबीपी न्यूज़) के लिए सर्वेक्षण करती है और ऐसे कई चुनाव हैं जब नील्सन के आंकड़े सिरे से धराशाई हो गए। ताज़ा उदाहरण पिछले साल हुए विधान सभा चुनावों के हैं। उत्तराखंड से लेकर कई जगह इस कंपनी के नतीजे और वास्तविक नतीजे में साफ़ अंतर देखा गया।
 
उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव तो ख़ैर पिछले दो-तीन बार से सभी सर्वे कंपनियों के लिए पाठशाला का काम कर रहा है जिसमें पांच साल बाद होने वाली परीक्षा में ज़्यादातर एजेंसियां अनुतीर्ण हो जाया करती हैं। 2007 में मायावती की भारी जीत सर्वे एजेंसियों के मुंह पर तमाचा की माफ़िक थी। लेकिन, 2012 के चुनाव में जबकि समाजवादी पार्टी के पक्ष में एक माहौल रिपोर्टिंग में भी झलक रहा था फिर भी ज़मीन पर सर्वे करने के बावज़ूद एजेंसियों ने सीट के आकलन में बड़े अंतर से मात खाईं। मिसाल के लिए सर्वे के बाद न्यूज 24 ने समाजवादी पार्टी को 127 और स्टार (एबीपी) न्यूज़ ने 135 सीटें दी थीं जोकि वास्तविक 224 से बहुत कम थीं। अगर हम उदारहण में जाएं तो ऐसे बीसों मामले पिछले 4-5 साल में ही मिल जाएंगे।

कई लोगों ने ये सवाल उठाया है कि कंपनियां ज़मीन पर उतरकर सर्वे नहीं करती और कई दफ़ा सैंपल (नमूना) चुनने में भी वैज्ञानिक तरीके अख़्तियार नहीं करती। जाहिर है ऐसे में हासिल होने वाले नतीजे सच्चाई से दूर होंगे। सर्वे की वैधानिकता, हासिल की गई जानकारियों में वस्तुनिष्ठता को सुनिश्चित करने वाली कोई एजेंसी देश में नहीं है। ऐसे में सर्वे के नाम पर कोई भी व्यक्ति या एजेंसी कुछ भी दिखाने के लिए स्वतंत्र है क्योंकि संविधान ने धारा 19(1) के तहत उसे मौलिक अधिकार दे रखा है। चर्चित चुनाव विश्लेषक और सीएसडीएस से जुड़े योगेन्द्र यादव का आम आदमी पार्टी के साथ जुड़ जाना कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले जी वी एल नरसिम्हा राव भी चुनाव विश्लेषक (सेफोलॉजिस्ट) होते-होते भाजपा में शामिल हो गए। तटस्थ विश्लेषकों के नाम पर कांग्रेस का पास भी वक्ताओं, पत्रकारों और विश्लेषकों की पूरी फ़ौज हैं जो दरअसल पार्टी के पक्ष में किसी प्रवक्ता के माफ़िक ही उतर आते हैं।
योगेन्द्र यादव अब तक की विश्वसनीयता को चुनाव में इस्तेमाल कर रहे हैं। 
 
'आप' में शामिल होने के बाद दिल्ली के लिए जाहिर किए गए जनमत सर्वेक्षण में योगेन्द्र यादव ने जिस तरह पार्टी को स्पष्ट बहुमत का ऐलान किया उसकी सच्चाई तो 8 दिसंबर को परिणाम घोषित होने के साथ ही खुलेगी, लेकिन एफ़एम रेडियो से लेकर ऑटो रिक्शा के पीछे छपे बैनर तक में जिस तरह आम आदमी पार्टी ने उस सर्वे को आधार बनाते हुए चुनाव प्रचार किया वो साफ दर्शाता है कि ओपिनियन पोल को किस तरह राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए इस्तेमाल कर रही है। बाद के दिनों में तो योगेन्द्र यादव खुद ही अपने चुनाव सर्वेक्षण का हवाला देते हुए एफ़एम पर जनता से वोट मांगने लगे।

ओपिनियन पोल के ग़लत साबित होने के बाद सबसे आसान तर्क एजेंसियों और इनसे जुड़े लोगों के पास ये होता है कि दरअसल ये चुनाव से पहले उस ख़ास वक्त (एक महीना या दो महीने पहले) में लोगों के रुझान को दिखाता है, इसलिए चुनाव आते-आते इसमें बदलाव हो गया! जाहिर है बचने के नाम पर ऐसे हज़ार तर्क विकसित किए जा सकते हैं, लेकिन ये साफ़ है कि पिछले कुछ वर्षों में जनमत सर्वेक्षण सटीक होने के मुक़बाले ज़्यादातर मौकों पर ग़लत साबित हुए हैं, लिहाजा चुनाव आयोग द्वारा इस पर चिंता जाहिर करना स्वाभाविक है। आयोग के प्रस्ताव को एक तबके ने इस तरह प्रचारित किया गोया वो हमेशा के लिए जनमत सर्वेक्षण पर पाबंदी लगाने की बात कहता हो और अगर प्रस्ताव मान लिया गया तो टीवी चैनलों पर हार-जीत की भविष्यवाणियों का रोचक खेल ही बंद हो जाएगा! हालांकि सच्चाई ऐसी है नहीं। चुनाव आयोग के पास ये शक्ति न तो है और न ही होनी चाहिए कि वो टीवी चैनलों पर पूरे साल चलने वाली सामग्रियों पर चाबुक चलाए। आयोग सिर्फ़ ये चाहता है कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद ओपनियन पोल पर पाबंदी लगे।
 
जाहिर है आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद राजनीतिक पार्टियों पर भी कई अंकुश लग जाते हैं। ऐसे में अगर टीवी चैनलों तक चुनाव आयोग की भूमिका पसर रही है तो इसके लिए राजनीतिक पार्टियां और मीडिया का बड़ा हिस्सा ख़ुद ज़िम्मेदार हैं क्योंकि पेड न्यूज़ के तौर पर मीडिया और पार्टियों के बीच जिस तरह का गठजोड़ विकसित हुआ है उसके बाद आयोग अगर कुछ न करें तो चुनाव प्रचार का आधा हिस्सा ज़मीन से उठकर मीडिया के रास्ते लोगों तक पहुंचेगा। फ़िलहाल, पांच राज्यों में हो रहे चुनाव के ख़त्म होने के बाद अगर आगामी लोकसभा चुनाव से पहले तक कोई सहमति ओपिनियन पोल को लेकर बन पाई तो आयोग के लिए यह बड़ी सफ़लता होगी।