दिलीप ख़ान
15वीं लोकसभा में 40 साल से कम उम्र के 79 सांसद चुनाव जीतकर संसद पहुंचे, पिछली लोकसभा से यह संख्या दोगुनी से भी अधिक थी। इसके बाद एकबारगी यह फुसफुसाहट सुनाई दी कि युवा राजनेताओं की यह बढी हुई संख्या राजनीति को नई दिशा देगी और कुछ नई किस्म के सवालों को एड्रेस करेगी या फिर अपनी पार्टी के भीतर ही मतदाताओं को गोलबंद करने की पुरानी जाति-धर्म आधारित गणित को तजने की कोशिश करेगी। युवाओं को राजनीति की तरफ़ आकर्षित करेगी। वगैरह, वगैरह। लेकिन अब तक स्थिति में कोई फर्क़ महसूस नहीं हो रहा है। युवाओं के चुने जाने से पहले और चुने जाने के बाद युवाओं की वजह से सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में ऐसा कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दे रहा जिसको नोटिस किया जाना चाहिए। युवा नेताओं से इस बात की बहुत उम्मीद नहीं लगाई गई थी कि वो सामाजिक-आर्थिक रूप से दबाए गए वर्गों के प्रश्नों को उन वर्गों की मांग के अनुरूप देखेंगे और युवा नेताओं ने साबित किया कि यही अनुमान एकमात्र सही अनुमान था।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के हवाले से जब यह बयान आया था कि मेहनत करने वाले युवा सांसदों को मंत्रालय दिया जाएगा तो इसके निहितार्थों को समझा जाना चाहिए। पहला यह कि भारत में दुनिया की सर्वाधिक युवा आबादी निवास करती है और कम से कम बीते दो-ढाई दशकों से राजनीति को लेकर इन युवाओं के जेहन में जो तस्वीर बनी और बनाई गई है वह नकारात्मक ही है। ये राजनीतिक गतिविधियों से तो खुद को काटकर रखना पसंद करते हैं लेकिन चाहते हैं कि कोई बांका युवा संसद में पहुंचे। इस उपस्थिति को फिर ये लोग युवा शक्ति के नए उभार को तौर पर देखते और प्रचारित करते हैं। ऐसे में किसी कम उम्र के सांसद को संसद भवन में देखकर युवा मतदाताओं की उम्मीदें इस रूप में जगती है कि उनकी उम्र के आस-पास वाले इन नेताओं को आज के समय-समय की वही जानकारी है जो उनके (मतदाताओं) पास है। इसके अलावा युवाओं में यह धारणा तेजी से विकसित हुई है कि भारत में चेहरे पर झुर्रिया पड़ने के बाद राजनीति की शुरुआत करने वाले बुजुर्ग आज के समय (युवाओं की चाहत) को ठीक से भांप पाने में अक्षम है। दूसरा यह कि मेहनत करके मंत्रालय हासिल करने की स्थिति तक पहुंचने वाले नेता कौन हैं? पीए संगमा की बेटी अगाथा संगमा (भाई मणिपुर में विधायक), सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि। यानि अतीत में जिनके पास मंत्रालय था उनसे छिटककर अगर बेटों-भतीजों-पोतों के पास आ गया तो शक्ति के जो चुनिंदा केंद्र अब तक रहे हैं उसमें फ़र्क़ क्या आया? क्षैतिज (होरिजोंटल) प्रतिनिधित्व के बदले ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) प्रतिनिधित्व के जरिए अगर यह आभास कराने की कोशिश की जा रही है कि यह युवा प्रतिनिधित्व को बढावा देने वाला कदम है तो यह शातिराना राजनीतिक चाल के साथ-साथ असल सवाल को ढंकने का बड़ा हथियार भी बन जाता है। संसदीय लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी से संबंधित सवालों के शक्ल को नई-नई संरचनाओं से ओवरलैप करके बदल दिया जाता है। यह स्थिति दुनिया भर में एक साथ मौजूद है। अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में पहली बार किसी महिला (हिलेरी क्लिंटन) या अश्वेत (बराक ओबामा) में से किसी एक को चुना जाना था और इस तरह चुनाव में पीछे छूटे महिला प्रतिनिधित्व का सवाल अश्वेत की जीत के जश्न के साथ ही दब-सा गया। यह क्रम उल्टा भी हो सकता था। सवाल के केंद्र में ये होना चाहिए कि अब तक ऐसी स्थिति क्यों बनी रही कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र में 21वीं सदी में आकर अश्वेत और महिला के साथ ‘पहली बार’ वाला संघर्ष चल रहा था।
भारत के संदर्भ में युवा राजनीति की पड़ताल इस रूप में सबसे ज़्यादा होनी चाहिए कि देश के राजनीतिक संकट को ये युवा किस तरह भर रहे हैं। संसद और सड़क के बीच जो खाई बढी है उसको किस तरह ये युवा चेहरे पाट पा रहे हैं? ज़मीन, विस्थापन और आर्थिक नीतियों से जुड़े प्रश्नों को किस नए नज़रिए से ये देखते हैं? उत्तर प्रदेश में बीते एक साल से लगातार यात्रा कर रहे राहुल गांधी जब ये कहते हैं कि गांव के लोगों का दर्द देखकर उनका कलेजा निकल आता है तो देश की बड़ी आबादी को ये चुनावी स्टंट लगता है। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि गांव के जिन लोगों के साथ खुद को जोड़कर राहुल गांधी जुलूस और यात्रा के दौरान देखते हैं खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का मुद्दा आते ही वह जुड़ाव बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ हो जाता है। और फिर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रति अपनी पक्षधरता दिखाने के बाद जब गांव जाते हैं तो विरोध कर रहे किसानों को मनाने के लिए यह तर्क रखते हैं कि यह निवेश उनके पक्ष में होगा। बीज पर संसद में जब ऐसा विधेयक पेश किया जाता है जिसका देश के लगभग सारे किसान संगठनों ने विरोध किया हो तो सत्ता के बुजुर्ग नेताओं की तरह ही युवा भी अपनी पार्टी के बचाव में उतर आते हैं और किसानों को बहलाने की कोशिश में लग जाते हैं। नियम क़ायदे ऊपर से नीचे की ओर तय किए जा रहे हैं और युवा नेताओं की ऐसी कोई मिसाल दूर-दूर तक नज़र नहीं आती जिसमें इन्होंने अलग स्टैंड लिया हो और ये कोशिश की हो कि जनता की मांग के अनुसार संसद में विधेयक बने।
जब यूरोप के किसी विश्वविद्यालय से पढ़कर लौटा राजनेता आर्थिक व्यवस्था पर आधिकारिक टिप्पणी करता है और देश के विकास के लिए पश्चिमी और विदेशी निवेश की महत्ता का बखान करता है तो नवउदारवादी युग में पैदा हुए उन तमाम युवाओं को जो अब मतदाता में तब्दील हो चुके हैं, उसमें एक वैचारिक साम्यता दिखाई देती है। ये युवा राजनेता देश के अधिसंख्य मध्यवर्गीय युवाओं की फैशनपरस्ती को वैचारिक सान देते हैं। इन नेताओं के भीतर देशज सामाजिक-राजनीतिक समझदारी पूर्वजों और घर के चौपाल में आने वाले लोगों के बरास्ते आती हैं। पूर्वजों की परंपरा को वहन करना इनके लिए ज़िम्मेदारीबोध बन जाता है। इस तरह ये युवा नेता एक तरह से यथास्थितिवाद का ही पोषक बने रहते हैं। मिसाल के तौर पर विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने और कई सालों तक रहने के बाद अब मध्यप्रदेश में राजनीति का ककहरा सीख रहे दिग्विजय सिंह के बेटे जयवर्धन सिंह अपनी पदयात्रा के दौरान एक अघोरी चंपादास महाराज के पैरों में लोटकर चुनावी सफलता का आशीर्वाद लेने पहुंचे। जयवर्धन सिंह ऐसे अकेले नेता या युवा नहीं है जो लैपटॉप और इंटरनेट के साथ उठते-बैठते हैं लेकिन सामाजिक अंधविश्वास और रूढ़ियों को भी उतनी ही मज़बूती से थामे रखते हैं, बल्कि बह तकनीक को विकास का पर्याय समझने वाली एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
मौजूदा लोकसभा में चुने गए युवाओं की प्रोफाइल पर एक नज़र मारने से ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि असल में वंशवादी राजनीति से इतर कितने लोग संसद की चहारदीवारी में पहुंचे है और उनकी राजनीतिक शक्ति का स्तर क्या है? मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा, राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट, मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव, माधव राव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया, वसुंधरा राजे सिधिंया के बेटे दुष्यंत सिंह, राजीव-सोनिया गांधी के बेटे राहुल गांधी इनमे से कुछे चुनिंदा युवा चेहरे हैं। एक टीवी चैनल पर दिए गए साक्षात्कार में शीला दीक्षित ने बेटे संदीप दीक्षित के बचाव में कहा कि यदि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर हो सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं हो सकता! ऐसे कई परिवार हैं जिनके एक से ज़्यादा सदस्य चुनकर मौजूदा लोकसभा में पहुंचे। शरद पवार और बेटी सुप्रिया सुले, मेनका गांधी और बेटा वरुण गांधी, अजीत सिंह और बेटा जयंत चौधरी, एच जी देवेगौड़ा और बेटा एच डी कुमारस्वामी, मुलायम सिंह यादव और बेटा अखिलेश यादव, शिशिर अधिकारी और बेटा सुवेंदु अधिकारी। ऐसी स्थिति में बेहद परस्परविरोधी आंकड़े निकलकर सामने आते हैं। एक तरफ इस लोकसभा को युवाओं की बढी हुई संख्या के लिए प्रचारित किया गया वहीं दूसरी तरफ़ ये तथ्य छुपा लिया गया कि इन संख्याओं के बावज़ूद यह लोकसभा अब तक की तीसरी सबसे बूढ़ी लोकसभा है। इसकी औसत उम्र 53.03 साल है। युवाओं की बड़ी संख्या के बावज़ूद औसत उम्र क्यों बढ़ गई? इसकी वजह ये है कि बूढ़े लोग संसद के खंभे को थामे रहे और परिवार के नए सदस्यों के लिए खंभे जुगाड़ते रहे। युवा प्रतिनिधित्व का मौजूदा स्वरूप एक तरह से वंशवादी राजनीति को मज़बूत करने वाला साबित हुआ है। 46.5 साल की औसत उम्र के साथ पहली लोकसभा सबसे युवा लोकसभाओं में से एक थी।
पारिवारिक रस्सी थामें संसद पहुंचने के बाद बची हुई उम्र किस तरह संसद के भीतर ही गुजर जाए, यह चिंता के केंद्र में होती है। क्या ये नजीर बनकर युवाओं के सामने उपस्थित हैं? विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले और अपने कस्बों में रहने वाले युवाओं के भीतर क्या ये नेता किसी हद तक ये पैबस्त करा पाते हैं कि राजनीतिक जीवन गरिमापूर्ण हो सकता है? छात्र राजनीति को उदारवादी अर्थव्यवस्था की राह में रोड़ा बताने वाली बिड़ला-अंबानी समिति की रिपोर्ट के बाद लिंगदोह समिति द्वारा कसी गई लगाम पर क्या युवा राजनेता संसद में किसी तरह का विरोध जता सके? जाहिर है समाज के बड़े हिस्से का राजनीतिकरण करने में ये बुरी तरह नाकाम रहे हैं। सवाल यह है कि पार्टी के भीतर इन नेताओं की स्थिति क्या है? वंशवादी युवा भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन ऐसे मुद्दों पर ही करते हैं जहां पार्टी का हित ठोस हो और बाप-दादा की शक्ति को अपनी शक्ति में तब्दील करने का कदमताल पूरी हो जाए। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तैयारी में जब दागी डीपी यादव को बसपा से निकाला गया तो मोहन सिंह सहित समाजवादी पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने यह इच्छा जाहिर की कि डीपी यादव को सपा में शामिल किया जाए लेकिन प्रदेश इकाई के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने न सिर्फ आपत्ति जताई बल्कि मोहन सिंह को राष्ट्रीय प्रवक्ता पद से भी बर्खास्त कर दिया। यह न तो युवा वर्चस्व का नमूना है और न ही इसका संकेत कि समाजवादी पार्टी अपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को पार्टी में शामिल नहीं करना चाहती, बल्कि अखिलेश यादव द्वारा यह मुलायम के उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी ठोस उपस्थिति को साबित करने का एक मंच साबित हुआ। समाजवादी पार्टी ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कई नेताओं को टिकट दिया है। इनमें पार्टी के पुराने नेताओं से लेकर दूसरी पार्टी से भागकर आए नेता भी शामिल हैं। मसलन फ़ैजाबाद के गोसाईगंज से सपा ने अभय सिंह को, बीकापुर से मित्रसेन यादव को, सीतापुर से अनूप गुप्ता को टिकट दिया है। इसके अलावा मधुमिता शुक्ला हत्याकांड में सजा काट रहे पूर्व मंत्री अमरमणी त्रिपाठी ने भी अपने बेटे के लिए टिकट की व्यवस्था पक्की कर ली। अब अमरमणि के बटे को जनता का युवा प्रतिनिधि किस आधार पर कहा जाना चाहिए? बसपा से सपा में आए भगवान शर्मा उर्फ़ गुड्डू पंडित को बुलंदशहर के डिबाई से सपा ने टिकट दिया। राजनीति में बुजुर्ग के बदले युवा चेहरे की बढती संख्या तब तक महत्वपूर्ण फर्क पैदा नहीं करेगी जब तक आर्थिक और सामाजिक ढांचे को लेकर इनकी सोच में ताजगी नहीं होगी और जब तक हाशिया पर खड़ी आबादी को वाजिब हक़ देने के लिए ये सामने नहीं आएंगे। हालांकि मौजूदा स्थिति को देखते हुए यह बेहद मुश्किल लग रहा है।