02 दिसंबर 2012

विभूति नारायण राय लाल सलाम, यानी हिंदी के तीन युग हैं

प्रसंग: हिंदी का दूसरा समय-2013 का वर्धा में आयोजन

-दिलीप खान
हिंदी साहित्य के इतिहास में पता नहीं हिंदी के समय को किन आधारों पर बांटा गया है, लेकिन इसके कालखंड बंटवारे के ताजा मुहिम में आपको आधार भी पता चलेगा, शक्ति की नुमाइश भी और वजह भी। विवाद-विरोध-आलोचना-हिच-हिच-खिच-खिच की गुंजाइश अगर तलाशेंगे तो समझ लीजिए इस गौरवपूर्ण इतिहास के साक्षी बनने का एक महत्वपूर्ण अवसर आप खो देंगे! भविष्य की पीढ़ियां आपको सिर्फ़ इसी बिनाह पर गरिया सकती है कि अपने दौर में हिंदी के समय के साथ आप नहीं थे और अगर आप अपने वर्तमान में हस्तक्षेप नहीं करते थे तो जाहिर तौर पर समाज निर्माण की प्रक्रिया से कहीं दूर बैठे बांसुरी बजा रहे थे और इसलिए भविष्य तक पहुंचने वाली सड़क साफ़-सुथरी नहीं रह सकी!

हिंदी के राजमार्ग के किनारे बसे वर्धा नामक मुल्क में हिंदी यात्रियों के ठहरने के भरपूर इंतजाम हैं। हिंदी के नाम पर देश का एकमात्र अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय पांच टापुओं पर यहीं बना हुआ है। हिंदी शक्ति के विकेंद्रीकरण में दिल्ली से जो पावर-शिफ़्ट हुआ, उसका एक टुकड़ा वर्धा की झोली में भी गिरा है। लिहाजा समय-समय पर यहां मजमा लगता है जिनमें हिंदी को लेकर चिंतित लोग दूर-दराज़ से आकर शरीक होते हैं और हिंदी का पूरा कलेवर बदल डालते हैं। तो ये मुख़्तसर-सा परिचय था वर्धा का। लेकिन हम बात कर रहे थे हिंदी के कालखंड को परिभाषित करने की, तो सीधी बात ये है कि हिंदी का समूचा इतिहास दो भागों में बंटा हुआ है। इतिहास के पहले खंड को ‘हिंदी समय पूर्व’ नाम से जाना जाता है और दूसरे खंड को ‘हिंदी समय से हिंदी के दूसरे समय तक’ के नाम से। तीसरा, एक भविष्य का भी काल है जिसे ‘हिंदी के दूसरे समय से आगे का समय’ कहा जाएगा। इतना जानने के बाद अब इस सवाल का जवाब दीजिए कि कालजयी नहीं बल्कि काल के रचयिता महापुरुष कौन है? पूरे चार नंबर के इस प्रश्न का जवाब है उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक विभूति नारायण राय।

अक्टूबर 2008 में कुलपति बनकर वर्धा पहुंचने के बाद 2009 के शुरुआती दिनों में उन्होंने हिंदी पट्टी को आमंत्रण कार्ड बांटा और उस उजड़े से परिसर में छात्रों से ज़्यादा हिंदी के मेहमान वहां पहुंचे थे। ‘हिंदी समय’ का आग़ाज़ हो चुका था। विभूति नारायण राय ने अपने वर्धा आगमन का जो ढोल पीटा उसमें काफ़ी धमक थी और काफ़ी आवाज़। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पुराने कुलपति श्रीमान अशोक वाजपेयी से लेकर कुलाधिपति श्रीमान नामवर सिंह से लेकर जाने कितने हिंदी के कसरती शरीर वहां नमूदार हुए थे। हफ़्ते भर काफ़ी गहमा-गहमी का माहौल रहा, विद्यार्थी भी खुश थे कि कुछ आयोजन-सा हुआ और कुछ ‘बड़े लोगों’ से पता-परिचय भी। फिर शादी के टैंट की तरह वहां के टैंट भी उखड़ गए और अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का परिसर अपनी रूटीन पर लौट गया। तब से लेकर अब तक हिंदी, हिंदी से जुड़े लोगों, हिंदी के सवालों और विभूति नारायण राय के ऊपर काफ़ी पानी बह चुका है।

लगभग चार साल गुजर गए और राय साहब को अब महसूस हो गया कि उस कार्यक्रम की पुनरावृत्ति होनी चाहिए। तो साहिबान, 2013 पेश करता है आपके सामने ‘हिंदी का दूसरा समय’। चलिए मान लेते हैं कि हिंदी की सेहत के लिए ऐसे आयोजन बेहद ज़रूरी है, ये भी मान लेते हैं कि रचनाकारों का आपस में समय-समय पर संवाद करने के लिए माकूल जगह मुहैया कराई जानी चाहिए और खींच-तान कर ये भी मान लेते हैं कि ऐसे कार्यक्रमों से विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को लाभ मिलता है। बावज़ूद इसके मामले की हल्की तफ़्तीश तो ज़रूर की जानी चाहिए। मैं निजी तौर पर जानता हूं कि राय साहब को अदबी ज़ुबान बेहद रास आती है इसलिए दरख़्वास्त है राय साहब कि मुझे ऐसा करने की इजाज़त बख़्सी जाए!

इससे पहले कि मंच से आप ये बात दोहराएं मैं ख़ुद ही कह देता हूं कि 2009 वाले उस उजड़े परिसर में अब भवन बन गए हैं। मैं इन इमारतों में पड़े दरारों और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा उत्तर प्रदेश (आपका गृह राज्य) के कुछ लोगों को ग़लत तरीके से लाभ पहुंचाने के आरोपों को झुठलाते हुए सीधे कहता हूं कि आपने शानदार काम किया है। पूरे विश्वविद्यालय को नीचे से उठाकर टीले पर पहुंचा दिया, नीचे वाले हिस्से में शिक्षकों का घर बना दिया, भाड़े के हॉस्टल को ख़त्म कर पहले लड़कियों के और फिर ‘उत्तरी परिसर’ में लड़कों के न सिर्फ़ हॉस्टल बनाए बल्कि पुलिसिया पृष्ठभूमि से आए सरकारी आदमी होने के बावज़ूद जिस हद तक संभव था आपने प्रगतिशीलों, क्रांतिकारियों के नाम पर इन इमारतों के नाम रखे। दलित छात्र-छात्राओं की भूख हड़ताल चलती रही, हर साल प्रवेश परीक्षा में आंतरिक आरक्षण और संवैधानिक आरक्षण के गणित में आप गड़बड़ी करते रहे लेकिन हॉस्टल का नाम जब रखना हुआ तो आपने बिरसा-मुंडा छात्रावास और सावित्रीबाई फुले छात्रावास रखा!

प्रगतिशीलता इसी का तो नाम है! हिंदी लेखिका को छिनाल कहे जाने को कितने महीनों तक कोई याद रखेगा, आरक्षण में भेद-भाव को, विद्यार्थियों पर लाठी भांजने को कितने समय तक कोई याद रखेगा, मनमर्जी से किसी को निकालने और किसी को वर्धा में बनाए रखने को कितने समय तक कोई याद रखेगा, अगर लंबे समय तक याद रखा जाएगा तो सिर्फ़ आपके द्वारा रखे गए इन हॉस्टल के नामों को। गोरख पांडेय छात्रावास, राहुल सांकृत्यायन पुस्तकालय, फादर कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास, कबीर हिल्स, गांधी हिल्स वगैरह। अब तो भगत सिंह हॉस्टल भी बन रहा है न? आपके ऊपर किताब लिखने वाले लोग रीडर बने फिर साल भर में प्रोफ़ेसर बन गए। आपके सामने चुप रहने वाले लोग परिसर से बाहर नौकरी की तलाश में नहीं भटकते, मुझे मालूम है। रिसर्च एसिस्टेंट, एसोसिएट, हिंदी समय डॉट कॉम, अनुवाद प्रोजेक्ट, फलाना प्रोजेक्ट, ढिमकाना प्रोजेक्ट, लेक्चरार आदि, आदि बहुत पद है वहां। पद के मुताबिक़ लोग ही कम हैं। आपको साधने का मतलब है दुनिया कुछ भी कहे लेकिन जिसने आपको साधा है वो इन्सान वहां निश्चिंत रह सकता है। दुनिया की परवाह आप भी कहां करते हैं। इसलिए तो किसी भी आलोचना को तवज्जो नहीं दी और आलोचकों को वर्धा बुला-बुलाकर उनके मुंह में सही शब्द ठूंस दिए। कहिए कि औकात बता दी!

अगर आप हुनरमंद और क़ाबिल नहीं होते तो इतने पुरस्कार और सम्मान फिर आपको क्यों मिलते? इतने सेमिनारों में आपको क्यों बुलाया जाता? दिल्ली की हंस वाली गोष्ठी में कश्मीर पर और वर्धा में उत्तर-पूर्व पर राजधर्म को निभाने वाली नैसर्गिक बात कहने के बावज़ूद पीयूसीएल आपको बलिया में क्यों ऐसे ही विषय पर बुलाता? राजकिशोर वर्धा को आपका हरम बताने के बाद वहां नौकरी क्यों करने जाते? ‘नक्सलबाड़ी कवि’ आलोकधन्वा वहां से पटना जाने के बाद ही आपकी आलोचना क्यों करते? छिनाल प्रकरण के बाद जेंडर समानता के लिए पौधा लगाने का विरोध वहां क्यों नहीं हुआ? मुंहफट विद्यार्थियों को ठिकाना लगाने के बाद वहां आप कितनी शांति से प्रशासन चला रहे हैं? हैं न?  बहुत सारे गुण हैं आपमें लेकिन भूमिहारों की योग्यता को पहचानने की आपकी क्षमता की मिसाल दी जानी चाहिए। भूमिहार भी तो इसी देश के लोग हैं जाहिर है कि उनकी बेहतरी एक तरह से देश की ही बेहतरी है। इस मामले में जो आपका विरोध करेगा, मैं उनका विरोध करूंगा। मैं आपके साथ हूं।

छिनाल प्रकरण को लोग अब भूल गए लेकिन भ्रष्टाचार तो आज-कल देश का बड़ा मुद्दा है और सीएजी (कैग) देश में न्यूज़ तय करने वाली संस्था। फिर भी आप पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद बहुत से लोगों को इसके मुतल्लिक कुछ भी मालूम नहीं, तो इससे साबित होता है कि आप एक कुशल प्रबंधक भी हैं। आपका भविष्य उज्जवल है। मुझे बेहद दुख है कि आप सितंबर-अक्टूबर 2013 में वर्धा से अलग हो जाएंगे। सचमुच बेहद दुख है। लेकिन ज़्यादा दुख तब होता जब लगता कि आप साहित्य का मजमा लगाए बिना ही जा रहे हैं। आप 2013 के शुरुआत में ‘हिंदी का दूसरा समय’ कर रहे हैं, मैं खुश हूं। मैं देखना चाहता हूं कि आपके बहिष्कार की बात करने वाले कितने लोग अपनी बात पर टिके रहते हैं। दो साल में दुनिया काफ़ी बदली है। कई लोग समय बीतने के साथ बातों को भूल जाते हैं या फिर भूलने की जिद करने लगते हैं या फिर भूलने का फ़ायदा उठाना चाहते हैं। आपका क्या है, हिंदी का एक समय आने के नाम और एक समय जाने के नाम। वित्त वर्ष ख़त्म होने से पहले-पहले संस्थान के पैसे भी ख़र्च करने हैं, लिहाजा 2013 की गरमा-गरम शुरुआत कीजिए। अकेले आप कितनों की कलई उतार देते हैं, आप जैसे दो-चार लोगों का हिंदी में बने रहना बेहद ज़रूरी है। लोग आपको फ़र्जी कॉमरेड बोलते हैं, मैं दुनिया की नहीं मानता। इसलिए जाते-जाते आपको लाल सलाम!

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