जेल ऊँची दीवारों के भीतर की सिर्फ एक जगह का नाम नहीं है. उसके कई संस्करण हैं. दीवारों के बाहर और भीतर होना एक अलग अहसास से भर देता है. आज़ादी के विलोम में यहाँ सबकुछ मौजूद है. अथाह झूठ के पुलिंदो से ग्रसित ज़ेहन की अनसुनी और अनकही कहानियों वाली कई रातें और कई दिन. अरुण फरेरा कों मई 2007 में माओवादी होने के आरोप में नागपुर से गिरफ्तार किया गया था. अखबारों में उनके गिरफ्तारी, नार्को टेस्ट के दौरान दिए गए बयान की सच्ची-झूठी कहानियां पिछले 4 वर्षों तक आती रही. अदालती फैसलों के तहत जेल से उनका छूटना और फिर जेल की सलाखों में धकेल दिया जाना. इस माह ओपन पत्रिका में उनकी लम्बी जेल डायरी प्रकाशित हुई. जिसका हिन्दी अनुवाद अनिल ने किया है. इसे हम तीन किस्तों में यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं. डायरी के साथ प्रकाशित जेल की स्थिति दर्शाते चित्र भी अरुण फरेरा ने खुद बनाए हैं.
नागपुर जेल की उच्च-सुरक्षित परिसीमा में स्थित अंडा बैरक बग़ैर खिड़कियों वाली कोठरियों का एक समूह है। अंडा के प्रवेश-द्वार से दूसरी अधिकतर अन्य कोठरियों में जाने के लिए लोहे के पाँच दरवाज़ों, [और पैदल] एक संकरा गलियारा पार करना होता है। अंडा के भीतर कई अलग अहाते हैं। हरेक अहाते में कुछ कोठरियाँ हैं, और हर पहली कोठरी दूसरी से सावधानीपूर्वक अलगाई गई है। कोठरियों में बहुत कम रोशनी होती है और आप यहाँ कोई पेड़ नहीं देख सकते। आप यहाँ से आसमान तक नहीं देख सकते हैं। मुख्य निगरानी टॉवर के ठीक ऊपर से अहाते में एक बड़ा भारी, ठोस अंडा हवा में लटकता रहता है। लेकिन इसमें (और अन्य अडों में) एक बड़ा फ़र्क़ है। इसे तोड़कर खोलना असंभव है। बल्कि, यह क़ैदियों (के हौसलों) को तोड़ने के लिए बनाया गया है।
अंडा वो जगह है जहाँ सबसे ज़्यादा बेलगाम क़ैदियों को, अनुशासनात्मक क़ायदों के उल्लंघन करने की सज़ा के लिए क़ैद किया जाता है। नागपुर जेल के अन्य हिस्से इतने ज़्यादा सख़्त नहीं है। अधिकतर क़ैदी पंखे और टीवी वाली बैरकों में रखे जाते हैं। बैरकों में, दिन के पहर काफ़ी इत्मिनान वाले, यहाँ तक कि आरामतलब भी हो सकते हैं। लेकिन अंडा में, कोठरी के दरवाज़े ही हवा के आने जाने का एकमात्र ज़रिया है, और ये भी कुछ ख़ास आरामदायक नहीं, क्योंकि ये किसी खुले प्रांगण में नहीं, एक ढंके-मुंदे गलियारे में खुलता है।
लेकिन अंडा के निर्मम, दमघोंटू माहौल से ज़्यादा मानव संपर्क की ग़ैरहाज़िरी सांस घोंटने वाली होती है। अंडा में, 15 घंटे या इससे ज़्यादा समय अपनी कोठरी में तन्हा गुज़ारना होता है। दिखाई देने वाले लोग सिर्फ़ सुरक्षाकर्मी और कभी कभार उस हिस्से में रह रहे अन्य क़ैदी होते हैं। अंडा में कुछेक हफ़्ते ही हौसलों की किरचें बिखेरने वाले हो सकते हैं। नागपुर जेल में क़ैदियों के बीच अंडा का ख़ौफ़ बख़ूबी ज्ञात है, और वे अंडा में निर्वासित होने की बजाय कठोर से कठोर पिटाई बर्दाश्त कर जाते हैं।
जबकि अधिकतर क़ैदी अंडा या इसके हमजोली, फांसी यार्ड (मौत की सज़ा पाए क़ैदियों के घर) में सिर्फ़ कुछ हफ़्ते रहते हैं, इन हिस्सों में मैंने चार साल आठ महीने बिताए। ऐसा इसलिए क्योंकि मैं कोई साधारण क़ैदी नहीं था। पुलिस के दावे के अनुसार, मैं एक ‘ख़ूखार नक्सलवादी’, ‘माओवादी नेता’ था। 8 मई 2007 को मुझे गिरफ़्तार करने के बाद, सुबह-सुबह अख़बारों में यही विवरण प्रकाशित कराए गए थे।
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गर्मियों की एक चिलचिलाती दोपहरी में मुझे नागपुर रेलवे स्टेशन से गिरफ़्तार किया गया था। मैं कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलने का इंतज़ार कर रहा था, जब तक़रीबन 15 आदमियों ने मुझे जकड़ लिया, कार में धकेला और रास्ते भर मुझे मारते-पीटते तेज़ी से कार कहीं दूर भगा ले गए। वे मुझे एक इमारत के एक कमरे में ले गए, मेरे अपहरणकर्ताओं ने बाद में बताया कि यह नागपुर जिमख़ाना था। मेरे हाथ बांधने के लिए उन्होंने मेरे बेल्ट का इस्तेमाल किया और मेरी आँखों पर पट्टी बांध दी गई, ताकि इस प्रक्रिया में शामिल पुलिस अधिकारी अनचीन्हे ही बने रहें। उनकी बातचीत से मालूम हो रहा था कि नागपुर पुलिस के नक्सल-विरोधी दस्ते ने मुझे हिरासत में लिया है। हमले कभी नहीं थमे। पूरे दिन मुझे बेल्ट, घूंसों और जूते से पीटा जाता रहा। आगे की पूछताछ मेरा इंतज़ार जो कर रही थी।
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नब्बे के दशक की शुरुआत में मुंबई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज में पढ़ाई के दौरान सामाजिक सक्रियता से मेरा पहला वास्ता पड़ा। जहाँ मैंने अधिकारविहीन लोगों के लिए गाँवों में शिविर और कुछ कल्याणकारी परियोजनाओं का आयोजन किया था। 1992-93 के धार्मिक दंगों ने मुझे झकझोर कर रख दिया। हज़ारों मुसलमान ख़ुद अपने शहर से बेदख़ल कर दिए गए थे। हमने कुछ सहायता शिविर संचालित की थी। राज्य की क्रूर उपेक्षा ने शिवसेना द्वारा सामूहिक हत्याकांडों को बग़ैर किसी रोक-टोक के अंजाम होने दिया था। मैं जल्द ही, लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज बनाने के उद्देश्य में लगे एक छात्र संगठन, विद्यार्थी प्रगति संगठन से जुड़ गया था। ग्रामीण इलाक़ों में हमने बेदख़ल कर दिए गए लोगों को उनके हक़-अधिकारों को वापस दिलाने में मदद के लिए कई अभियान संगठित किए। नाशिक में, वन विभाग की ज़्यादतियों के ख़िलाफ़ आदिवासी ख़ुद को संगठित कर रहे थे। दाभोल में, ग्रामीण एनरॉन उर्जा परियोजना का प्रतिरोध कर रहे थे। गुजरात के उमरगाँव में, मछलियाँ पालने वाले लोग एक दैत्याकार पत्तन से अपने भयानक विस्थापन के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे थे। इन संघर्षों को काफ़ी क़रीब से देखने समझने से मुझे भान हुआ कि ग़रीबों को राहत दिलाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उन्हें सत्ता और न्याय के तोड़े-मरोड़े संबंधों के बारे में सवाल करने और उनके अधिकारों की दावेदारी में संगठित करने में मदद करना है।
हालाँकि, 9/11 के पश्चात, जन-आंदोलनों को ग्रहण करने के तौर-तरीक़ों में एक तब्दीली आई। तथाकथित आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध ने राज्य की नीतियों का बुनियादी अभिप्राय सुरक्षा को बना दिया था। भारत में, असुविधाजनक सवालों को दबाने के लिए विशेष क़ानून अपनाए जाने लगे। संगठनों पर पाबंदियाँ लगा दी गईं, मतों का अपराधीकरण कर दिया गया और सामाजिक आंदोलनों पर ‘आतंकी’ का ठप्पा लगाया जाने लगा। हममें से जो लोग ग्रामीण इलाक़ों में आदिवासियों या शोषितों को संगठित करने के लिए काम करते रहे उन्हें ‘माओवादी’ ठहराया जाने लगा था।
2005 में, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषित किया कि माओवादी “भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा” हैं। कईयों को ‘मुठभेड़’ में मार या ‘ग़ायब’ कर दिया गया, जबकि अन्य लोगों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। छत्तीसगढ़, झारखंड या महाराष्ट्र के विदर्भ जैसे इलाक़ों में सभी ग़ैर-पार्टी (नॉन पार्टीज़न) राजनीतिक गतिविधियों पर ‘माओवाद’ का ठप्पा लगाया गया, और तदनुसार निपटा जाने लगा। मेरी हिरासत के पहले, अंबेडकरवादी आंदोलन को नक्सलवादी राजनीति के ज़रिए भड़काने के आरोप में नागपुर में कई दलित कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार किया गया था। इन सबका मतलब यह था कि मैं अपनी गिरफ़्तारी के लिए पूरी तरह से बिना किसी तैयारी के नहीं था।
इस परिकल्पनात्मक स्थिति के अवलोकन के बावजूद, मैं [राज्य] के हमले का निशाना बन जाने—गिरफ़्तारी, यातनाओं, गढ़े सबूतों के आधार पर झूठे मामलों में फंसाए जाने, और कई सालों के लिए जेल में बंद कर दिए जाने के लिए सचमुच तैयार नहीं था।
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आधी रात को, हिरासत में लिए जाने के 11 घंटों बाद, मुझे पुलिस थाने ले जाया गया और बताया गया कि ग़ैरक़ानूनी गतिविधि निवारक अधिनियम, 2004 के मुझे अंतर्गत गिरफ़्तार किया गया है, जो कि उन लोगों पर लगाया जाता है जिनके बारे में राज्य मानता है कि वे आतंकवादी हैं। वह रात मैंने पुलिस थाने की एक गीली, अंधेरी कोठरी में गुज़ारी। एक गंध मारता काला कंबल मेरा बिस्तर था। इसका रंग बमुश्किल ही बता पाता था कि यह कितना गंदा है। ज़मीन पर एक छेद था, जो चारों तरफ़ पान की पीकों और अपनी तीखी बदबू से पहचाना जा सकता था कि यह मूत्रालय है। अंततः मुझे भोजन परोसा गया: दाल, रोटी और गालियाँ। [दिन के] मुक्कों से दुखते जबड़े से प्लास्टिक थैली में खाना खाना आसान नहीं था। लेकिन दिन के ख़ौफ़ों के बाद ये तक़लीफ़ें अपेक्षाकृत महत्वहीन थीं, और इन्होंने मुझे ख़ुद को अपने क़रीब खींचने का छोटा सा मौक़ा दिया। मैंने सड़े बिस्तर और गीली बदबू को नज़रअंदाज़ करने का प्रबंध किया और झपकी लेने लगा।
कुछ ही घंटों के भीतर, मैं अन्य पाली के पूछताछ के लिए जग गया। वह अधिकारी पहले-पहल तो कुछ नरमाई से पेश आया लेकिन वे जो चाहते थे उसके जवाब लेने की कोशिश में जल्दी ही लात-घूंसों की बौछार शुरू कर दी। वे मुझसे हथियारों और विस्फोटकों के ठिकानों और माओवादियों के साथ मेरे संबंधों की जानकारियाँ चाह रहे थे। अपनी मांगों के लिए मुझे और भेद्य बनाने के लिए उन्होंने [कुचलने वाली] मध्ययुगीन यातना तकनीकी के एक नवीनतम संस्करण का इस्तेमाल करते हुए मेरे समूचे शरीर को पूरी तरह मरोड़ दिया। मेरे हाथ बहुत ऊँचाई पर एक खिड़की से बाँध दिए गए, और मुझे ज़मीन से सटाने के लिए दो पुलिसवाले मेरे ऐंठे हुए तलवों पर चढ़ गए। इसका हिसाब-किताब दिखाई दे जाने वाले किन्हीं घावों के बग़ैर अधिकतम दर्द पहुँचाना था। उनके सावधानियाँ बरतने के बावजूद, मेरे कान से ख़ून रिसने लगा और मेरे जबड़े फूलने लगे।
शाम में, मुझे काले नक़ाब पहनाकर ज़मीन पर उकड़ूँ बैठाकर मेरे पीछे कई अधिकारियों ने खड़े होकर प्रेस के लिए तस्वीरे खिंचाई। अगले दिन, बाद में मुझे मालूम हुआ कि, ये तस्वीरें देश के विभिन्न अख़बारों के पहले पन्ने की सुर्खियाँ बनीं। प्रेस से कहा गया कि मैं नक्सलवादियों के एक अति-वामपंथी धड़े का प्रचार और संचार प्रमुख था।
फिर मुझे मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। जैसा कि क़ानून के सारे विद्यार्थी जानते हैं कि [क़ानूनी प्रक्रिया में] यह चरण क़ैदी को हिरासत में दी गई यातनाओं की शिकायत का एक मौक़ा देने के लिए होता है—जिसे कि मैं बड़ी आसानी से स्थापित कर सकता था क्योंकि मेरा चेहरा सूजा हुआ था, कान से ख़ून रिस रहा था और तलवों में ऐसे घाव हो गए थे कि चलना असंभव लग रहा था। लेकिन अदालत में, मुझे अपने वकील से पता चला कि, पुलिस ने पहले ही मेरी गिरफ़्तारी की गढ़ी गई कहानी में उन ज़ख़्मों के बारे में झूठ गढ़ लिए थे। उनके संस्करण के मुताबिक़, मैं एक ख़तरनाक आतंकवादी था और गिरफ़्तारी से बचने की कोशिश में पुलिस से काफ़ी लड़ाई लड़ी। उन्होंने दावा किया कि मुझे दबोचने के लिए उनके पास ताक़त के इस्तेमाल के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। अजीब था कि मुझे बंदी बनाने वालों में से किसी को हाथापाई के दौरान कोई नुक़सान नहीं हुआ था।
हैरानी की एक मात्र यही बात नहीं थी। अदालत में, पुलिस ने कहा कि मुझे तीन अन्य लोगों—एक स्थानीय पत्रकार धनेन्द्र भुरले, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के गोंदिया जिला-अध्यक्ष नरेश बंसोड़; और आंध्रप्रदेश के निवासी अशोक रेड्डी के साथ गिरफ़्तार किया है। पुलिस का दावा था कि उन्होंने हमारे पास से एक पिस्टल और ज़िंदा कारतूर बरामद किए हैं। उन्होंने कहा कि हम नागपुर के दीक्षाभूमि के स्मारक को उड़ाने की योजना की साज़िश रच रहे थे। पुलिस अगर लोगों को इस बात से सहमत कर लेती थी कि हमारी योजना इस पवित्र स्थल पर हमले की थी तो वह दलितों को वामपंथियों से कोई ताल्लुक नहीं रखने के लिए सहमत कर लेगी।
लेकिन महज आरोप काफ़ी नहीं थे। उन्हें अपने दावों के समर्थन में सबूत की ज़रूरत थी। पुलिस ने अदालत से कहा कि पूछताछ के लिए उन्हें 12 दिनों के लिए हमारी हिरासत की ज़रूरत है। उस पत्रकार को और मुझे नागपुर के सीताबर्डी पुलिस थाने में रखा गया था, जबकि दो अन्य लोगों को धंतोली थाने ले जाया गया। हर सुबह, हमें लगातार चलने वाली पूछताछ के लिए पुलिस जिमख़ाने ले जाया जाता था, जो देर रात तक चलती थी। पहले, वे अपने तैयार किए हुए एक इक़बालिए बयान पर दस्तख़त करने के लिए हम पर दबाव डालते रहे। जब वे इसमें नाकाम हो गए तो उन्होंने अदालत को वैज्ञानिक तौर पर संदेहास्पद पद्धति नार्को एनालिसिस, लाई डिटेक्टर, और ब्रेन मैपिंग की अनुमति के लिए राजी कर लिया, जिसके बारे में उन्हें उम्मीद थी कि यह उनके आरोपों के लिए सुरक्षा-कवच का काम करेगा। तो, हलांकि, मैं क़ानूनन उनकी हिरासत में नहीं था लेकिन पुलिस इन फ़ोरेंसिक परीक्षणों के बहाने मुझसे अभी भी यातनादेह पूछताछ कर रही थी। हमें मुंबई स्थित राज्य फ़ोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला ले जाने की तैयारियाँ की जाने लगीं।
उसके पहले, नागपुर केंद्रीय कारागार में हमें औपचारिक तौर से दाख़िल किया गया। मुझे अहाते के एक छोटे संकरे दरवाज़े पर रोका गया जिसे 54 महीनों के लिए मेरा घर होना था। प्रक्रिया के अनुसार, पहली बार प्रवेश कर रहे क़ैदियों को दरवाज़े पर तैनात अफ़सर (गेट ऑफ़िसर) के सामने पेश किया जाता है। परंपरा, और संभवतः प्रशिक्षण, की अपेक्षा होती है कि यहाँ तक कि सबसे मृदुल-स्वभाव के अफ़सर को भी नए प्रवेशकों, जिन्हें जेल की बोली में ‘नया अहमद’ कहते हैं, से निपटने में जितना ज़्यादा हो सके उतना ज़्यादा हमलावर होना चाहिए। यह दरवाज़े पर तैनात अफ़सर का काम होता है कि वह नए आने वाले लोगों को दब्बूपने, बुद्धिहीनता और चापलूसी के संक्षिप्त गुर सिखाए।
अफ़सर को यह पूछताछ भी करनी होती है कि पुलिस हिरासत में यातनाओं के कारण नए क़ैदी कहीं चोटों से तो नहीं पीड़ित हैं, और अगर ऐसा है तो उसके बयान दर्ज़ करना होता है। मेरे मामले में, मेरे कानों से ख़ून रिस रहा था, थोबड़े सूजे हुए थे और पाँव ज़ख़्मी थे। लेकिन हक़ीक़त में, जिस किसी ने शिकायत करने की कोशिश की, अफ़सर ने उसे धमकाया। रिवाज़ के मुताबिक़, सारे ज़ख़्मों को यह कहकर दर्ज़ किया जाता है कि वे क़ैदी के गिरफ़्तार होने से पहले उसके शरीर में मौजूद थे। जेल में नए प्रवेशकों की तलाशी का एक स्टैंडर्ड प्रोटोकॉल होता है। मुझसे मेरे भीतरी कपड़े तक उतरवा लिए गए और जड़ती अमलदार (तलाशी का प्रभारी आदमी) को तलाशी देने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करने के लिए अन्य नए प्रवेशकों के साथ बैठने का आदेश दिया गया। हमारे सारे सामान की छानबीन की गई और फिर हमारे द्वारा उन्हें विनम्रता पूर्वक दुबारा उठाने के लिए गंदे रास्ते पर फेंक दिया गया। बिस्किट और बीड़ी जैसी ख़तरनाक चीज़ों से कर्मचारियों ने ख़ुद अपनी जेबें गरम कर लीं।