क्रांतिया अपनी जगह पर चल रही थी बस एक कवि उसे छोड़ कर चला आया था. वैसे यह भी कहना मुश्किल है कि कवि क्रांति को छोड़कर चला आया. हो सकता है वह आदमी चला आया हो और कवि क्रांति में ही छूट गया हो. अब उसे कवि कहो या आदमी वह बाईपास पर था और यह बाई पास दो ऊचाईयों के बीच की जगह थी. सामने खेत था पर खेत की तरफ जाना कवि होना नहीं है, वह किसान होना है. यह एक सामान्य दृष्टि हो सकती है पर इन दिनों कवियों को बीच की जगह तलाशते ज्यादा पाया गया. सड़क पर वह कवि जब भी दिखता, लगता वह आया कहीं से नहीं बस किन्ही ऊचाईयों से गिर गया है. लोग उसकी कुबड़ी सम्हालते और बुरे वक्त में वह उन लोगों को सम्हाल लेता. ये परस्पर सहयोग का संबंध था जो दुनिया में बेहद प्रचलित हो चुका था. जो इस प्रचलन के खिलाफ होते अप्रासंगिक बन जाते. यह कवि का समय था, होता यह भी कि चिलचिलाती धूप में कवि कहता बारिस हो रही है और लोग छाता निकाल लेते. उधर से एक आदमी हंसते हुए आता और कहता आग लगी है, कवि लोगों को पानी डालने का इशारा कर देता. लोगों को पता था कि कवि को ठौर देना खुद के ठौर पाने का एक प्रयास हो सकता है. धीरे-धीरे यह लोगों की आदत में सुमार हो गया. इस ऊचाई वाली जगह पर अक्सर लोग झुक कर चला करते. पता नहीं यह कैसे हुआ पर ऊचाईयां चढ़ने के लिए झुककर चलना जरूरी हो गया. मानव सभ्यता के विकास में सीखी गयी यह एक क्रिया थी जिससे मुक्त होना दुस्वार सा लगने लगा. इतिहास में देखें तो पता चलेगा कि जो नहीं झुके वे समतल की तरफ पलायन कर गए. फिर यह नियम सा बन गया कि ऊचाई चढ़ने के लिए झुकना अनिवार्य है.
बाईपास के बारे में बात करते हुए इसके इर्द-गिर्द पर चुप रहना आपको जिंदा रहने की सहूलियत देता है. कवि अक्सर दुखी रहता, पेड़ों के पत्ते सूखते और वह दुखी हो जाता, कुत्ते उदास दिखते और वह दुखी हो जाता. जब यह सब न भी होता, तब भी कवि दुखी दिखता. लगता कहीं न कहीं कुछ सूख जरूर रहा है, अदृश्य सा. न दिखना भी सूखना होता है, हो सकता है कोई विचार ही हो जो उन ऊची पहाड़ियों पर सूख रहा हो. पहाड़ी वीरान थी और मौसम बेगाने. बारिस का कोई भरोसा नहीं था. वक्त-बेवक्त किसके ऊपर बरस जाए. लोग बारिस के लिए निकलते और बिजलियां भी गिर जाती. कवि बृद्ध हो चला था और विचार उसकी उम्र से आगे निकल चुके थे. जब भी विचार की बात आती वह एक पुरानी कविता का पाठ करता. लड़की जो एक रात भागी थी अपने घर से मुझे नहीं पता कविता में आने के बाद वह कहां गयी. हो सकता है उसने लड़ना सीखा हो, संभव यह भी है कि गांव के बाहर लटका दी गई हो पेड़ पर अपने प्रेमी के साथ, इसके लिए देश के सभी पुराने अखबार टटोलने पड़ेंगे. यद्यपि अखबार की खबरों से बेखबर भी लोग मर रहे हैं, मारे जा रहे हैं. पर एक आदमी अब भी मेज के उस तरह बैठा है. कवि को मैने उस समझदार और बेहतरीन दिमाग के साथ कई बार हंसते हुए देखा. मैं और मेरे जैसे बहुत से लोग सोचते हैं कि शक करना और सावधान रहना क्या कवि का काम नहीं है. रचना का एक बड़ा सवाल यहीं छूट जाता है जो लिखने और होने के फर्क को सालता रहता है. एक दिन मैने कवि से पूछना चाहा भागती हुई लड़कियों के बारे में पर कवि आखिर कवि होता है उसने मुझे देर तक बताया ‘भागी हुई लड़कियां’ के बारे में. शायद मुझे उन भागती हुई लड़कियों से पूछना चाहिए था कवि के बारे में, पर मैंने नहीं पूछा. कई बार अपने आग्रहों के साथ जिंदा रहना बेहतर होता है. जिन रचनाओं से हम खुद को रचते हैं और जिन स्वप्नों को पालते हैं कहीं वो ‘काठ का सपना’ तो नहीं. सपनों के बारे में हमें अपनी सोच बदल लेनी चाहिए थी.
कवि ने एक दिन डोलते हुए अचानक कहा था कि ये पहाड़ी मृत है और उस सुनसान में मुझे सैकड़ों मुर्दे दिखे जो अपने बिस्तरों पर पड़े हुए थे बस उनके पेट ऊपर-नीचे हो रहे थे. लोग कवि को पहले ही छोड़ चुके थे. अब बारिस की बातें कोई और करने लगा था, छाते कहीं और तन जाते थे. उस रात मैं कवि को अकेला छोड़कर चला आया था, उसके बाद कवि कभी नहीं दिखा. बाईपास अब भी वहीं है. वहां एक चाय की दुकान है जहां बैठ लोग कवि के बारे में बातें करते हैं. मुझे लगता है कि हो न हो यह बगल वाला बाईपास कवि को एक दिन खोजने जरूर जाएगा या हमे अपने प्रश्नों के उत्तर खुद ही तलाशने होंगे.