24 फ़रवरी 2010
हर जगह नहीं हैं तिरुपति राव, छात्र अपनी लड़ाई खुद लड़ें!
तिरुपति राव का नाम शायद आपमें से बहुत कम लोग जानते हों। दक्षिण के श्रेष्ठ विद्वानों में गिने जाने वाले तिरुपति राव हैदराबाद स्थित उस्मानिया विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। ये वही राव हैं, जिनकी कार पर अभी कुछ ही दिनों पूर्व अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे तीन सौ छात्रों की भीड़ ने हमला कर दिया था। वो बाल बाल बचे थे। हालांकि इस हमले के महज छह घंटे के बाद उपद्रवी छात्रों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के बजाय उन्होंने छात्रों के साथ बैठक की और कहा कि अपने आंदोलन को अहिंसक तरीके से चलाओ। कल जब गृह विभाग ने अपनी रिपोर्ट में विश्वविद्यालय को माओवादियों का केंद्र बताया, तो राव बुरी तरह से भड़क गये। उन्होंने कहा कि “यहां कोई नक्सली नहीं है। सब छात्र हैं। हो सकता है कुछ ऐसे छात्र रह रहे हों जो यहां नहीं पढ़ते। लेकिन ये सामान्य बात है। कुछ गरीब बच्चे यहां टिक जाते हैं। इसका मतलब क्या है, विश्वविद्यालय पर सेना चढाओगे।” ये बयान ठीक उसी वक्त आया, जब जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में माओवादियों की तथाकथित घुसपैठ की हवा उड़ाकर माहौल को गरम करने की कोशिश की जा रही थी। हालांकि इन दोनों विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने इस बेहद आपतिजनक आरोप पर अपने होंठ सी रखे थे। मानो कल को अगर पुलिस कोई मनमानी कार्यवाही करती है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी।
पिछले दिनों जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय के स्कॉलर चिंतन और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र विश्वविजय और सीमा आजाद की गिरफ्तारी और उधर आंध्रप्रदेश और पश्चिम बंगाल में हिंसक आंदोलनों के बीच विश्वविद्यालय परिसरों को जिस प्रकार संदेह की नजर से देखा जा रहा है, वो अपने आप में बेहद भयावह और चिंताजनक है। राव राजनीति की समझ रखते हैं। राजनीति की साजिशों को समझते हैं। वो जानते हैं कि आंदोलनों के अंकगणित का उत्तर परिसर में ही मौजूद है और ये लोकतंत्र की जरूरत है। मगर वहां क्या होगा जहां कुलपति की कुर्सी सत्ता की चरण वंदना से हासिल की गयी हो और शर्त ये हो कि विरोध का कोई भी स्वर बेदखली की वजह बनेगा? निस्संदेह ऐसे में परिसर में असहमति को पनपने नहीं दिया जाएगा। वैचारिक स्वतंत्रता पर निरंतर प्रहार होंगे। वर्धा का उदाहरण हमारे सामने है, भले ही दृश्य अलग हैं।
लोकतंत्र में जब कभी सत्ता से असहमति प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देती है, उस समय सबसे पहले उन संस्थाओं पर हमले होते हैं, जिनमें युवाओं का प्रतिनिधित्व होता है। तेलंगाना को लेकर आंध्र प्रदेश में उठा बवाल हो, उत्तर प्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ अंदरखाने चल रही लहर हो या फिर उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में माओवादियों द्वारा अपनी पुरजोर उपस्थिति को लेकर की जा रही कवायद हो, इन सबका प्रतिकार शुरू हो चुका है। सीधे शब्दों में कहें तो आपरेशन ग्रीन हंट और विश्वविद्यालयों को नक्सलखाना साबित करने की साजिश में कोई बुनियादी फर्क नहीं है क्योंकि सरकार जानती है कि विरोध के स्वर या तो छात्रों की ओर से उठेंगे या फिर उनकी ओर से जिन्हें सिर्फ भूख, उपेक्षा और त्रासदी मिली है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों पर प्रतिबंध लगाकर सत्ता ने अपनी साजिशों का पहला फेज बेहद कुशलता से पूरा कर लिया था। रही-सही कसर विश्वविद्यालय परिसरों को माओवादियों और अपराधियों का ठिकाना घोषित करके पूरी की जा रही है।
आइसा की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता कृष्णन कहती हैं, “छात्रसंघ चुनावों पर प्रतिबंध कैंपस में शांति और लोकतंत्र स्थापित करने के मकसद से नहीं बल्कि सत्ता द्वारा छात्र आंदोलन के दमन के उद्देश्य से लायी गयी थी। मौजूदा परिदृश्य इसका प्रमाण है।” ये स्थिति आपातकाल से भी अधिक लोकतंत्र विरोधी है। ये बेहद खतरनाक है कि सरकार अपनी इस साजिश में विश्वविद्यालय के प्रबंधन और उन शिक्षकों को भी शामिल किये हुए है, जिनके लिए छात्र सिर्फ भेड़-बकरियां हैं। इलाहाबाद विश्विद्यालय के वर्तमान कुलपति राजन हर्षे एक शिक्षाविद कम ब्यूरोक्रेट अधिक नजर आते हैं, तो जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के कुलपति बीबी भट्टाचार्य के लिए जैसे-तैसे अपनी कुर्सी बचाये रखना ही इस वक्त का सबसे बड़ा काम है। आप इनसे क्या उम्मीद करेंगे?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ तिरुपति राव ही देश के एकमात्र कुलपति हैं, जिन्होंने सत्ता की साजिशों पर आपति और छात्रों की लोकतांत्रिक लड़ाई पर अपनी सहमति जतायी है। हां ये जरूर है कि ऐसा आजाद इतिहास में बहुत कम हुआ है। 1985 के दौरान जब बिहार में जगन्नाथ मिश्र की सरकार थी, एनएन मिश्रा युनिवर्सिटी, दरभंगा और तिलकामांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर में तत्कालीन कुलपतियों ने सरकार के व्यापक विरोध के बावजूद परिसर में छात्रसंघ चुनाव कराये और छात्रों को लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन करने की खुली छूट दे दी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 70 के दशक में अध्ययनरत छात्र अपने कुलपति कालू लाल श्रीमाली को नहीं भूले होंगे, जो छात्रसंघ अध्यक्ष कपूरिया की हत्या पर रो पड़े थे। जिनके काल में बीएचयू ने न सिर्फ सर्वाधिक प्रतिभाशाली छात्र देश को दिये बल्कि देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण छात्र आंदोलनों का भी गढ़ बना।
कहीं पढ़ा था, जहां शास्त्र और विश्वविद्यालय अपना काम नहीं करते वहां राजनीति अधिक स्वेच्छाचारी होती है। हमारे देश में दुखद ये है कि हमारे यहां के विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं लेकिन स्वाधीन नहीं हैं। जबकि अन्य लोकतांत्रिक देशों में विश्वविद्यालय स्वाधीन और स्वायत्त दोनों होते हैं। निश्चित तौर पर ऐसी स्थिति में कुलपति से निरपेक्षता और सिर्फ छात्र हितों की उम्मीद नहीं की जा सकती। हमें विचार करना होगा कि देश के परिसरों को सत्ता की पराधीनता से कैसे मुक्त कराया जाए? सोशलिस्ट नेता किशन पटनायक कहते थे, अखबार या प्रचार माध्यम व्यापारिक संस्थाएं हैं। उनकी निगाहें सतही और तात्कालिक हो सकती हैं। व्यवस्था में सुधार का काम छात्रों और बौद्धिक वर्ग का है और ये काम उन्हें करना होगा। हो सकता है कि अगले कुछ दिनों में परिसरों के भीतर सेनाएं तैनात कर दी जाएं। शांत सड़कों, गलियों और घने जंगलों के बजाय छात्रावासों में पुलिस मुठभेड़ की कहानियां लिखी जाएं। ये भी हो सकता है कि विश्वविद्यालय का कुलपति छात्रों की सूची पुलिस को सौंप कर कहे, ये हैं माओवादी, इन्हें ले जाइए। ये भी संभव है कि गैरबराबरी का विरोध करने वाले देश के सारे लोग नक्सलवादी घोषित कर दिये जाएं। मगर इन तमाम संभावनों के बावजूद ये बेहद जरूरी है कि पूरे देश के छात्र इस साजिश के खिलाफ एकजुट हों और हल्ला बोलें। हाल की घटनाओं से ये स्पष्ट हो गया है कि छात्रों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। तिरुपति राव जैसे लोग देश में कम हैं।
22 फ़रवरी 2010
आजमगढ़ की आबोहवा में फिर सरगर्मी
आधे हिंदुओं और आधे मुसलमानों को मिलाकर एक पूरा गांव है खालिसपुर। पहले भी क्षेत्र में इस गांव की चर्चा हुआ करती थी लेकिन अब उसने नई जमीन तलाश ली है। पहले लोग कहा करते थे कि इस गांव का नियाज अहमद एक नेक और ईमानदार आदमी था जो पंद्रह साल ग्राम प्रधान और पंद्रह साल निर्विरोध ब्लाक प्रमुख चुना गया। मगर अब पूछने पर 82 वर्षीय नियाज के घर का पता बताने से पहले चौराहे पर खड़े ग्रामीण, आतंकवादी होने के आरोप में खालिसपुर से पकड़े गये शहजाद का नाम जोड़ते हैं और कहते हैं 'अगवां जा पूछ लिहा केकरे इहां के लइकवा पकड़ाई रहे'।
पुलिस डायरी में १८ वर्षीय शहजाद ईनामी आतंकवादी था, जिसपर दिल्ली पुलिस ने पांच लाख ईनाम रखा था। मगर आश्चर्यजनक है कि घोषित ईनाम की जानकारी गिरफ्तारी के बाद हुई। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि शहजाद पिछले आठ महीनों से अपने घर खालिसपुर में रह रहा था। फिर पुलिस ने यह गिरफ्तारी दिग्विजय सिंह की यात्रा के ठीक पहले क्यों की. शहजाद अहमद नियाज अहमद का पोता है और सितंबर 2008में हुए बाटला हाउस इनकाउंटर से पहले दिल्ली के श्रृंखलाबद्ध धमाकों के आरोपियों में प्रमुख है.
पुलिस के मुताबिक यह आरोपी भी बाकियों की तरह इंडियन मुजाहिद्दीन से जुडा हुआ था। खुफिया एजेंसियों और पुलिस दावा है कि धमाकों की साजिश में शहजाद की प्रमुख भूमिका रही है और उसने बाटला हाउस इनकाउंटर में मारे गये दिल्ली पुलिस के इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा को गोली मारी थी। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद शहजाद और आरिज फरार चल रहे थे जिनमें से आरिज का कुछ पता नहीं है। जबकि दो आरोपी आतिफ और साजिद मौके पर मारे गये थे और सैफ को दिल्ली में एक टीवी चैनल के दफ्तर के बाहर पुलिस ने गिरफ्तार किया गया था। बाटला हाउस इनकाउंटर के कुछ दिनों के भीतर ही सैफ की गिरफ्तारी हो गयी थी।
आजमगढ़ के मुसलमानों को झकझोर देने वाली इस घटना में गिरफ्तारियों की अगली कड़ी दो फरवरी को तब जुड़ी जब शहजाद की खालिसपुर गांव से गिरफ्तारी हुई। उत्तर प्रदेश के डीजी बृजलाल के अनुसार 'शहजाद आस्ट्रेलिया जाकर पॉयलट ट्रेनिंग कि लेने के बाद अमेरिका में हुए आतंकवादी हमले 9/11 जैसा धमाका भारत पर करना चाहता था।' लेकिन पुलिस की इस कहानी पर खलिशपुर के ग्रामीण लड्डन का सवाल है 'हाईस्कूल पास शहजाद को पायलट की ट्रेनिंग कैसे मिल सकती थी, जबकि इसके लिए न्यूनतम योग्यता तो १०+२ की होनी चाहिए जो उसके पास थी ही नहीं.'इस बारे में भारतीय वायुसेना के पूर्व अधिकारी विंग कमांडर प्रफुल्ल बख्शी से हुई बातचीत में पता चला कि 'पायलेट ट्रेनिंग कोर्स में प्रवेश के लिए १०+२ पास होना अनिवार्य है.' गिरफ़्तारी के अगले ही दिन उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने शहजाद को दिल्ली पुलिस की विशेष जांच शाखा को सौंप दिया है और उसे तीसहजारी अदालत ने दुबारा रिमांड पर भेज दिया है।
खालिसपुर के लोग मानते हैं कि आठ महीने से गांव में रह रहा शहजाद अगर कोर्ट में पेश हो गया तो हमें राजनीतिक दलों के दोमुहेंपन का शिकार इस बार नहीं होना पड़ता। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ के जवाब में, प्रदेश के प्रसिद्दध सिबली कॉलेज के प्रिंसिपल इफ्तिखार आलम कहते हैं 'पुलिस ने हमेशा 18 बाटला हाउस में शहजाद उर्फ पप्पू को भगोड़ा बताया। शायद शहजाद को ये लगता रहा होगा कि मेरा नाम जब पप्पू है ही नहीं तो मैं क्यों हाजिर होउं।' शहजाद और उसके परिवारजनों के इसी आत्मविश्वास में एक बार फिर आजमगढ़ को चर्चित कर दिया है। इतना तो साफ है कि शहजाद के गांव में होने की जानकारी एटीएफ को पहले से थी, लेकिन कार्यवाही राजनीतिक जरूरत के हिसाब से हुई। सितंबर 2008 में हुए 18 बाटला हाउस मुठभेड़ के दौरान शहजाद का पासपोर्ट बरामद हुआ था जिसे पुलिस सबूत के तौर पर पेश करती रही है।
बहरहाल यह सब दिल्ली में हो रहा है लेकिन इस मसले पर सरगर्मियां आजमगढ़ में कहीं ज्यादा तेज हैं। कारण कि आजमगढ़ के अब तक 29 मुस्लिम नौजवानों को खुफिया और पुलिस एजेंसियों ने आतंकवादी घोषित कर रखा है. जिसमें से नौ भगे हुए हैं, 18 गिरफ्तार व 2 मारे गये हैं। लेकिन जिस तरह से बाटला हाउस इनकाउंटर ने ढेर सारे लूप होल छोड़े थे, जिसकी वजह से आज भी वह मुठभेड़ सवालों का सामना कर रहा है, उसी तरह शहजाद की गिरफ्तारी के आसपास जो घटनाक्रम हुए उससे जाहिर हो गया कि शहजाद की गिरफ्तारी राजनीतिक वर्चस्व में शह-मात देने के लिए की गयी है।
उत्तर प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दिग्विजय सिंह के संजरपुर और आतंकवादी होने के आरोप में गिरफ्तारों के घर जाने के कार्यक्रम की घोषणा 30 जनवरी तक सार्वजनिक हो चुकी थी कि वह तीन तारीख को आजमगढ़ पहुंचेंगे। सवाल है कि क्या दिग्विजय सिंह के संजरपुर पहुंचने से पहले कांग्रेस के दवाब में शहजाद की गिरफ्तारी हुई या फिर वजह कहीं और है। संजरपुर मसले को उठाने में खासे सक्रिय रहे तारिक कहते हैं,' दिग्विजय सिंह के आने से एक दिन पहले शहजाद की गिरफ्तारी, फिर उनका संजरपुर जाना, लेकिन किसी पीड़ित के घर जाने या सभा को संबोधित करने की बजाय सिर्फ मीडिया से मुखातिब होना और आजमगढ़ में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में सरेआम एक पार्टी कार्यकर्ता को थप्पड़ मारना जैसी कई घटनाएं एक-दूसरे से ऐसे जुड़ती हैं जो जाहिर कर देती हैं कि कांग्रेस हमें न्याय दिलाने नहीं, बल्कि मुसलमानों को भरमाने के बहाने तलाशने आयी थी। इस मसले पर सिमी के पूर्व अध्यक्ष शाहिद बदर फलाही राय रखते हैं कि 'मुसलमानों को कांग्रेस मुर्गियों से अधिक की औकात में नहीं रखती। अब उसे फिर अहसास होने लगा है कि उत्तर प्रदेश की सत्ता पर अगर काबिज होना है तो दड़बे से बाहर हो चुकीं मुर्गियों को घेरकर फिर कांग्रेसी दड़बे में घुसाओ'। कांग्रेस की मुसलमानों को लेकर ऐतिहासिक रणनीति देखें तो शाहिद बदर की बात जंचती है।
दूसरी तरफ प्रदेश सरकार के अंतर्गत काम करने वाली एटीएफ द्वारा शहजाद की गिरफ्तारी से इतना तो हुआ कि लोकसभा चुनावों में प्रदेश के मुसलमानों का कांग्रेस की ओर बढ़ा रूझान को एक झटका जरूर लगा है। ऐसा होने से मुसलमान वोटों में कम ही हकदार बसपा सुप्रीमो मायावती को जरूर राहत मिली है और उन्होंने कांग्रेसी 'खेल' बिगाड़ दिया है। कांग्रेस नेतृत्व पूर्नजन्म का यह खेल प्रदेश कांग्रेस प्रभारी दिग्विजय के कंधे पर रख खेल रही है और पार्टी महासचिव राहुल गांधी के एजेंडे को दिग्गी राजा आगे बढ़ा रहे हैं,यह मुसलमान बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद अच्छी तरह समझ चुके हैं, लेकिन दिग्गी राजा का संभवत:अपनी समझदारी पर अधिक भरोसा हो गया था इसलिए उन्होंने संजरपुर गांव से यह बयान दे दिया कि 'बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गये इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के सिर पर लगी गोली किसी इनकाउंटर में संभव नहीं है।' दिग्गी के इस बयान के मद्देनजर सरकार कोई कार्यवाही करती और आतंकवादी होने के आरोप में फंसे युवकों और परिजनों को कोई भरोसा बनता इससे पहले ही दिग्गी राजा कांग्रेस आलाकमान सोनिया गांधी से मिलने के बाद ही संजरपुर में दिये बयान से मुकर गये।
शहजाद के बाबा नियाज अहमद से पूछने पर कि 'क्या किसी पार्टी के नेता आपके पोते की गिरफ्तारी के बाद दरवाजे पर आये थे', उनका जवाब था- 'नहीं।' वह पुराने दिनों को याद कर बताते हैं कि 'एक दौर था जब हमारे दरवाजे पर इंदिरा गांधी, मोहसिना किदवई, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव, चौधरी चरण सिंह जैसे तमाम लोग आया करते थे। लेकिन फिलहाल तो सिवाय नातेदारों-रिश्तेदारों के झूठे मुंह भी कोई नहीं आया।' जबकि आतंकवादी होने के शक में मारे और पकड़े गये नौजवानों के गांव संजरपुर में 2008 सितंबर के बाद आनेवालों को तांता लगा रहा। एक के बाद वहां पहुंचे तोपची नेताओं की आगलगाऊ बयानबाजियों और समस्या को छू से दूर कर देने वाले आश्श्वसनो की बाढ़ आ गयी थी। जिसमें सबसे आगे थे 'बाटला हाउस' कांड के बाद पैदा हुए संगठन उलेमा काउंसिल के नेता आमिर रशादी।
आमिर रशादी के बारे में यह ख्यात है कि वह देश के इकलौते मौलवी हैं जो मंचों से विरोधियों को सरेआम गाली देते हैं। बाटला हाउस कांड के बाद अपने को निरीह मान चुकी आजमगढ़ी जनता को आमिर रशदी का यह अंदाज उत्साहित किया और मात्र छ: महीने में यह संगठन इतना व्यापक असर वाला हो गया कि लोकसभा की पांच सीटों पर उलेमा काउंसिल के प्रतिनिधि खड़े हुए। प्रतिनिधियों में से एक भी संसद तक नहीं पहुंच सका लेकिन उसने बसपा और सपा के गढ़ रहे इस क्षेत्र में ऐसी सेंध लगायी की लालगंज से उलेमा काउंसिल की वजह से लालगंज से भाजपा जीत गयी। यह संसदीय चुनाव के इतिहास में पहली बार हुआ।
रामराज्य का नारा लगाने वाले हिंदुवादी संगठनों की तरह 'नारे तकबीर-अल्लाह हो अकबर'लगाने वाली उलेमा काउंसिल चुनाव के वक्त भाजपा के बारे में वही सांप्रदायिक बयान दिये जो षिवसेना या बजरंगदलियों की भाशा होती है। जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिला। मानवाधिकार कार्यकर्मा मुसद्दीन कहते हैं कि 'जब उलेमा काउंसिल बनी तो हमलोगों को पता चला
कि इसको पुलिस प्रषासन का संरक्षण प्राप्त है। लेकिन राजनीतिक निराशा की शिकार जनता किसी भी तरह के सेकुलर बातों पर गौर करने के लिए तैयार नहीं थी। हां आज साफ हो गया है कि किस तरह आमिर रशादी के कट्टरपंथी बयानों ने हमें व्यापक समाज से काट दिया और सांप्रदायिकता और आतंकवाद के खिलाफ व्यापक लड़ाई में समुदाय कमजोर पड़ा।' प्रसिध्द हड्डी रोग विषेशज्ञ और उलेमा काउंसिल के आजमगढ़ से संसद उम्मीदवार रह चुके डाक्टर जावेद कहते हैं कि 'पहले लोग मुझसे कहते थे लेकिन अब मैंने मान लिया है कि उलेमा काउंसिल और उसके नेताओं का तौर-तरीका एक लोकतांत्रिक देश में काम करने जैसा नहीं है। कहने के लिए मुझे काउंसिल से निकाल दिया गया है लेकिन सच है कि मैंने छह महीने पहले ही निश्क्रीय हो गया था।' उल्लेखनीय है कि डाक्टर जावेद का बेटा भी बम विस्फोट में आरोपी है और भगोड़ा घोषित है।
शहजाद की गिरफ्तारी के बाद कार्यवाही चाहे जो हो स्थानीय लोग इसे एक राजनीतिक खेल मानते हैं। साथ ही उलेमा काउंसिल की चुप्पी और बिखराव ने साफ कर दिया है कि बाटला हाउस के बाद एकाएक पैदा हुए इस मंच ने मुसलमानों की व्यापक लड़ाई को कमजोर ही किया है.
'द पब्लिक एजेंडा' से साभार
14 फ़रवरी 2010
नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों से एक अपील
हमें दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हाल ही में इलाहाबाद में पत्रकार सीमा आजाद व कुछ अन्य लोगों की गिरफ़्तारी के बाद भी मीडिया व पत्रकारों का यही रूख देखने को मिला। सीमा आजाद इलाहाबाद में करीब 12 सालों से एक पत्रकार, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता के बतौर सक्रिय रही हैं। इलाहाबाद में कोई भी सामाजिक व्यक्ति या पत्रकार उन्हें आसानी से पहचानता होगा। कुछ नहीं तो वैचारिक-साहित्यिक सेमिनार/गोष्ठियां कवर करने वाले पत्रकार उन्हें बखूबी जानते होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि जब पुलिस ने उन्हीं सीमा आजाद को माओवादी बताया तो किसी पत्रकार ने आगे बढ़कर इस पर सवाल नहीं उठाया। आखिर क्यो? क्यों अपने ही बीच के एक व्यक्ति या महिला को पुलिस के नक्सली/माओवादी बताए जाने पर हम मौन रहे? पत्रकार के तौर पर हम एक स्वाभाविक सा सवाल क्यों नहीं पूछ सके कि किस आधार पर एक पत्रकार को नक्सली/माओवादी बताया जा रहा है? क्या कुछ किताबें या किसी के बयान के आधार पर किसी को राष्ट्रद्रोही करार दिया जा सकता है? और अगर पुलिस ऐसा करती है तो एक सजग पत्रकार के बतौर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती?
पत्रकार साथियों को ध्यान हो, तो यह अक्सर देखा जाता है कि किसी गैर नक्सली/माओवादी की गिरफ्तारी दिखाते समय पुलिस एक रटा-रटाया सा आरोप उन पर लगाती है। मसलन यह फलां क्षेत्र में फलां संगठन की जमीन तैयार कर रहा था/रही थी, या कि वह इस संगठन का वैचारिक लीडर था/थी, या कि उसके पास से बड़ी मात्रा में नक्सली/माओवादी साहित्य (मानो वह कोई गोला बारूद हो) बरामद हुआ है। आखिर पुलिस को इस भाषा में बात करने की जरूरत क्यों महसूस होती है? क्या पुलिस के ऐसे आरोप किसी गंभीर अपराध की श्रेणी में आते हैं? किसी राजनैतिक विचारधारा का प्रचार-प्रसार करना या किसी खास राजनैतिक विचारधारा (भले ही वो नक्सली/माओवादी ही क्यों न हो) से प्रेरित साहित्य पढ़ना कोई अपराध है? अगर नहीं तो पुलिस द्वारा ऐसे आरोप लगाते समय हम चुप क्यों रहते हैं? क्यों हम वही लिखते हैं,जो पुलिस या उसके प्रतिनिधि बताते हैं। यहां तक की पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताती है और हम उसके आगे ‘कथित’ लगाने की जरूरत भी महसूस नहीं करते। क्यों ?
हम जानते हैं कि हमारे वो पत्रकार साथी जो किसी खास दुराग्रह या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं होते, वह भी खबरें लिखते समय ऐसी ‘भूल’ कर जाते हैं। शायद उन्हें ऐसी ‘भूल’ के परिणाम का अंदाजा न हो। उन्हें नहीं मालूम की ऐसी 'भूल' किसी की जिंदगी और सत्ता-पुलिसतंत्र की क्रूरता की गति को तय करते हैं।जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) सभी पत्रकार बंधुओं से अपील करती हैं कि नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग करते समय कुछ मूलभूत बातों का ध्यान अवश्य रखें.
* साथियों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद तीनों अलग-अलग विचार हैं। नक्सलवाद/माओवाद राजनैतिक विचारधाराएं हैं तो आतंकवाद किसी खास समय, काल व परिस्थियों से उपजे असंतोष का परिणाम है। यह कई बार हिंसक व विवेकहीन कार्रवाई होती है जो जन समुदाय को भयाक्रांत करती है. इन सभी घटनाओं को एक ही तराजू में नहीं तौला जा सकता। नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक होना कहीं से भी अपराध नहीं है। इस विचारधारा को मानने वाले कुछ संगठन खुले रूप में आंदोलन चलाते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो कुछ भूमिगत रूप से संघर्ष में विश्वाश करते हैं। कुछ भूमिगत नक्सलवादी/माओवादी संगठनों को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है। लेकिन यहीं यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इन संगठनों की विचारधारा को मानने पर कोई मनाही नहीं है। इसीलिए पुलिस किसी को नक्सलवादी/माओवादी विचारधारा का समर्थक बताकर गिरफ्तार नहीं कर सकती है, जैसा की पुलिस अक्सर करती है.। हमें विचारधारा व संगठन के अंतर को समझना होगा।
* इसी प्रकार पुलिस जब यह कहती है कि उसने नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य (कई बार धार्मिक साहित्य को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है) पकड़ा है तो उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिये कि आखिर कौन-कौन सी किताबें इसमें शामिल हैं। मित्रों, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी खास तरह की विचारधारा से प्रेरित होकर लिखी गई किताबें रखना/पढ़ना कोई अपराध नहीं है। पुलिस द्वारा अक्सर ऐसी बरामदगियों में कार्ल मार्क्स/लेनिन/माओत्से तुंग/स्टेलिन/भगत सिंह/चेग्वेरा/फिदेल कास्त्रो/चारू मजूमदार/किसी संगठन के राजनैतिक कार्यक्रम या धार्मिक पुस्तकें शामिल होती हैं। ऐसे समय में पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि कालेजों/विश्वविद्यलयों में पढ़ाई जा रही इन राजनैतिक विचारकों की किताबें भी नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य हैं? क्या उसको पढ़ाने वाला शिक्षक/प्रोफेसर या पढ़ने वाले बच्चे भी नक्सली/माओवादी/आतंकी हैं? पुलिस से यह भी पूछा जाना चाहिए कि प्रतिबंधित साहित्य का क्राइटेरिया क्या है, या कौन सा वह मीटर/मापक है जिससे पुलिस यह तय करती है कि यह नक्सली/माओवादी/आतंकी साहित्य है।
यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है की अक्सर देखा जाता है की पुलिस जब कोई हथियार, गोला-बारूद बरामद करती है तो मीडिया के सामने खुले रूप में (कई बार बड़े करीने से सजा कर) पेश की जाती है, लेकिन वही पुलिस जब नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य बरामद करती है तो उसे सीलबंद लिफाफों में पेश करती है. इन लिफाफों में क्या है हमें नहीं पता होता है लेकिन हमारे सामने इसके लिए कुछ 'अपराधी' हमारे सामने होते हैं. आप पुलिस से यह भी मांग करे कीबरामद नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी साहित्य को खुले रूप में सार्वजनिक किया जाए.
* मित्रों, नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों के पीछे किसी खास क्षेत्र में चल रहे राजनैतिक/सामाजिक व लोकतांत्रिक आन्दोलनों को तोड़ने/दबाने या किसी खास समुदाय को आतंकित करने जैसे राजनैतिक लोभ छिपे होते हैं। ऐसे समय में यह हमें तय करना होता है कि हम किसके साथ खड़े होंगे। सत्ता की क्रूर राजनीति का सहभागी बनेंगे या न्यूनतम जरूरतों के लिए चल रहे जनआंदोलनों के साथ चलेंगे।
* हम उन तमाम संपादकों/स्थानीय संपादकों/मुख्य संवाददातों से भी अपील करते हैं , की वह अपने क्षेत्र में नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी घटनाओं की रिपोर्टिंग की जिम्मेदारी अपराध संवाददाता (क्राइम रिपोर्टर) को न दें. यहाँ ऐसा सुझाव देने के पीछे इन संवाददाताओं की भूमिका को कमतर करके आंकना हमारा कत्तई उद्देश्य नहीं है. हम केवल इतना कहना चाहते हैं की यह संवाददाता रोजाना चोर, उच्चकों, डकैतों और अपराधों की रिपोर्टिंग करते-करते अपने दिमाग में खबरों को लिखने का एक खांचा तैयार कर लेते हैं और सारी घटनाओं की रिपोर्ट तयशुदा खांचे में रहकर लिखते है. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद की रिपोर्टिंग हम तभी सही कर सकते हैं जब हम इस तयशुदा खांचे से बहार आयेगे. नक्सलवाद/माओवाद/आतंकवाद कोई महज आपराधिक घटनाएँ नहीं है, यह शुद्ध रूप से राजनैतिक मामला है.
* हमे पुलिस द्वारा किसी पर भी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी होने के लगाए जा रहे आरोपों के सत्यता की पुख्ता जांच करनी चाहिये। पुलिस से उन आरोपों के संबंध में ठोस सबूत मांगे जाने चाहिये। पुलिस से ऐसे कथित नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी के पकड़े जाने के आधार की जानकारी जरूर लें।
* हमें पुलिस के सुबूत के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी सत्यता की जांच करने की कोशिश करना चाहिये। मसलन अभियुक्त के परिजनों से बातचीत करना चाहिये। परिजनों से बातचीत करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतने की जरूरत होती है। अक्सर देखा जाता है कि पुलिस के आरोपों के बाद ही हम उस व्यक्ति को अपराधी मान बैठते हैं और उसके बाद उसके परिजनों से भी ऐसे सवाल पूछते हैं जो हमारी स्टोरी व पुलिस के दावों को सत्य सिद्ध करने के लिए जरूरी हों। ऐसे समय में हमें अपने पूर्वाग्रह को कुछ समय के लिए किनारे रखकर, परिजनों के दर्द को सुनने/समझने की कोशिश करनी चाहिए। शायद वहां से कोई नयी जानकारी निकल कर आए जो पुलिस के आरोपों को फर्जी सिद्ध करे।
* मित्रों, कोई भी अभियुक्त तब तक अपराधी नहीं है, जब तक कि उस पर लगे आरोप किसी सक्षम न्यायालय में सिद्ध नहीं हो जाते या न्यायालय उसे दोषी नहीं करार देती। हमें केवल पुलिस के नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी बताने के आधार पर ही इन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ऐसे शब्द लिखते समय ‘कथित’ या ‘पुलिस के अनुसार’ जरूर लिखना चाहिये। अपनी तरफ से कोई जस्टिफिकेशन नहीं देना चाहिये।
पत्रकार बंधुओं,
यहां इस तरह के सुझाव देने के पीछे हमारा यह कत्तई उद्देश्य नहीं है कि आप किसी नक्सलवादी/माओवादी/आतंकवादी का साथ दें। हम यहां कोई ज्ञान भी नहीं देना चाहते। हमारा उद्देश्य केवल इतना सा है कि ऐसे मसलों की रिपोर्टिंग करते समय हम जाने/अनजाने में सरकारी प्रवक्ता या उनका हथियार न बन जाए। ऐसे में जब हम खुद को लोकतंत्र का चौथा-खम्भा या वाच डाग कहते हैं तो जिम्मेदारी व सजगता की मांग और ज्यादा बढ़ जाती है। जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) आपको केवल इसी जिम्मेदारी का एहसास करना चाहती है।
उम्मीद है कि आपकी लेखनी शोषित/उत्पीड़ित समाज की मुखर अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकेगी !!
- जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी
10 फ़रवरी 2010
श्री विभूति नारायण राय, कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के नाम एक पत्र
दिल्ली 9 फरवरी 2010
प्रिय विभूतिजी
अभिवादन !
उम्मीद है, स्वस्थ होंगे .
लम्बे समय से इस उधेड़बुन में था कि चन्द बातें आप तक किस तरह संप्रेषित करूं ? व्यक्तिगत मुलाकात संभव नहीं दिख रही थी, सोचा पत्र के जरिए ही अपनी बात लिख दूं. और यह एक ऐसा पत्र हो, जो सिर्फ हमारे आप के बीच न रहे बल्कि जिसे बाकी लोग भी पढ़ सकें, जान सकें. इसकी वजह यही है कि पत्र में जिन सरोकारों को मैं रखना चाहता हूं, उनका ताल्लुक हमारे आपसी संबंधों से जुड़े किसी मसले से नहीं है.
आप को याद होगा कि महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर आप की नियुक्ति होने पर मेरे बधाई सन्देश का आपने उसी आत्मीय अन्दाज़ में जवाब दिया था. उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश की पुलिस द्वारा एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की अनुचित गिरफ्तारी के मसले को जब मैंने आप के साथ सांझा किया तब आपने अपने स्तर पर उस मामले की खोज-ख़बर लेने की कोशिश की थी. हमारे आपसी संबंधों की इसी सांर्द्रता का नतीजा था कि आप के संपादन के अंतर्गत सांप्रदायिकता के ज्वलंत मसले पर केन्द्रित एक किताब में भी अपने आलेख को भेजना मैंने जरूरी समझा. इतना ही नहीं कुछ माह पहले जब मुझे बात रखने के लिए आप के विश्वविद्यालय का निमंत्रण मिला तब मैंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया.
यह अलग बात है कि वर्धा की अपनी दो दिनी यात्रा में मेरी आप से मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी. संभवतः आप प्रशासनिक कामों में अत्यधिक व्यस्त थे. आज लगता है कि अगर मुलाक़ात हो पाती तो मैं उन संकेतों को आप के साथ शेअर करता -जो विश्वविद्यालय समुदाय के तमाम सदस्यों से औपचारिक एवं अनौपचारिक चर्चा के दौरान मुझे मिल रहे थे- और फिर इस किस्म के पत्र की आवश्यकता निश्चित ही नहीं पड़ती.
मैं यह जानकर आश्चर्यचकित था कि विश्वविद्यालय में अपने पदभार ग्रहण करने के बाद अध्यापकों एवं विद्यार्थियों की किसी सभा में आप ने छात्रों के छात्रसंघ बनाने के मसले के प्रति अपनी असहमति जाहिर की थी और यह साफ कर दिया था कि आप इसकी अनुमति नहीं देंगे.
विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी परिषद की आकस्मिक बैठक करके अनिल चमड़िया को पद से मुक्त करने का फैसला लिया गया और उन्हें जो पत्र थमा दिया गया, उसमें उनकी नियुक्ति को ‘कैन्सिल’ करने की घोषणा की गयी. |
यह बात भी मेरे आकलन से परे थी कि सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबके से आने वाले एक छात्र- सन्तोष बघेल को विभाग में सीट की उपलब्धता के बावजूद शोध में प्रवेश लेने के लिए भी आंदोलन का सहारा लेना पड़ा था और अंततः प्रशासन ने उसे प्रवेश दे दिया था. विश्वविद्यालय की आयोजित एक गोष्ठी में जिसमें मुझे बीज वक्तव्य देना था, उसकी सदारत कर रहे महानुभाव की ‘लेखकीय प्रतिभा’ के बारे में भी लोगों ने मुझे सूचना दी, जिसका लुब्बेलुआब यही था कि अपने विभाग के पाठयक्रम के लिए कई जरूरी किताबों के ‘रचयिता’ उपरोक्त सज्जन पर वाड्मयचैर्य अर्थात प्लेगिएरिजम के आरोप लगे हैं. कुछ चैनलों ने भी उनके इस ‘हुनर’ पर स्टोरी दिखायी थी.
बहरहाल, विगत तीन माह के कालखण्ड में पीड़ित छात्रों द्वारा प्रसारित सूचनाओं के माध्यम से तथा राष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से में विश्वविद्यालय के बारे में प्रकाशित रिपोर्टों से कई सारी बातें सार्वजनिक हो चुकी हैं. अनुसूचित जाति-जनजाति से संबंधित छात्रों के साथ कथित तौर पर जारी भेदभाव एवं उत्पीड़न सम्बन्धी ख़बरें भी प्रकाशित हो चुकी हैं.
6 दिसम्बर 2009 को डॉ. अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित रैली में शामिल दलित प्रोफेसर लेल्ला कारूण्यकारा को मिले कारण बताओ नोटिस पर टाईम्स आफ इण्डिया भी लिख चुका है. उन तमाम बातों को मैं यहां दोहराना नहीं चाहता.
जनवरी माह की शुरूआत में मुझे यह भी पता चला कि हिन्दी जगत में प्रतिबद्ध पत्रकारिता के एक अहम हस्ताक्षर श्री अनिल चमड़िया- जिन्हें आप के विश्वविद्यालय में स्थायी प्रोफेसर के तौर पर कुछ माह पहले ही नियुक्त किया गया था- को अपने पद से हटाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन आमादा है.
फिर चंद दिनों के बाद यह भी सूचना सार्वजनिक हुई कि विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी परिषद की आकस्मिक बैठक करके उन्हें पद से मुक्त करने का फैसला लिया गया और उन्हें जो पत्र थमा दिया गया, उसमें उनकी नियुक्ति को ‘कैन्सिल’ करने की घोषणा की गयी.
मैं समझता हूं कि विश्वविद्यालय स्तर पर की जाने वाली नियुक्तियां बच्चों की गुड्डी-गुड्डा का खेल नहीं होता कि जब चाहें हम उसे समेट लें. निश्चित तौर पर उसके पहले पर्याप्त छानबीन की जाती होगी, मापदण्ड निर्धारित होते होंगे, योग्यता को परखा जाता होगा. यह बात समझ से परे है कि कुछ माह पहले आप ने जिस व्यक्ति को प्रोफेसर जैसे अहम पद पर नियुक्त किया, उन्हें सबसे सुयोग्य प्रत्याशी माना, वह रातों रात अयोग्य घोषित किया गया और उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया गया ?
कानून की सामान्य जानकारी रखनेवाला व्यक्ति भी बता सकता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कदम प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है. और ऐसा मामला नज़ीर बना तो किसी भी व्यक्ति के स्थायी रोजगार की संकल्पना भी हवा हो जाएगी क्योंकि किसी भी दिन उपरोक्त व्यक्ति का नियोक्ता उसे पत्र थमा देगा कि उसकी नियुक्ति –‘कैन्सिल’.
यह जानी हुई बात है कि हिन्दी प्रदेश में ही नहीं बल्कि शेष हिन्दोस्तां में लोगों के बीच आप की शोहरत एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की रही है, जिसने अपने आप को जोखिम में डाल कर भी साम्प्रदायिकता जैसे ज्वलंत मसले पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की कोशिश की. ‘शहर में कर्फ्यू’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से या ‘वर्तमान साहित्य’ जैसी पत्रिका की नींव डालने के आप की कोशिशों से भी लोग भलीभांति वाकीफ हैं. संभवतः यही वजह है कि कई सारे लोग, जो कुलपति के तौर पर आप की कार्यप्रणाली से खिन्न हैं, वे मौन ओढ़े हुए हैं.
इसे इत्तेफाक ही समझें कि महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के समय से ही विवादों के घेरे में रहा है. चाहे जनाब अशोक वाजपेयी का कुलपति का दौर रहा हों या उसके बाद पदासीन हुए जनाब गोपीनाथन का कालखण्ड रहा हो, विवादों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा है. मेरी दिली ख्वाहिश है कि साढ़े तीन साल बाद जब आप पद भार से मुक्त हों तो आप का भी नाम इस फेहरिस्त में न जुड़े.
मैं पुरयकीं हूं कि आप मेरी इन चिंताओं पर गौर करेंगे और उचित कदम उठाएंगे.
आपका
सुभाष गाताडे
08 फ़रवरी 2010
सत्ता , साजिश और सीमा -आवेश तिवारी
ऐसा नहीं है कि सरकार समर्थित अवैध खनन के गोरखधंधे को अमली जामा पहनाने के लिए सीमा से पहले फर्जी गिरफ्तारी नहीं की गयी है ,कैमूर क्षेत्र मजदूर ,महिला किसान संघर्ष समिति की रोमा और शांता पर भी इसी तरह से पूर्व में रासुका लगा दिया गया था,क्यूंकि वो दोनों भी आदिवासियों की जमीन पर माफियाओं के कब्जे और पुलिस एवं वन विभाग के उत्पीडन के खिलाफ आवाज उठा रही थी हालाँकि काफी हो हल्ला मचने के बाद सरकार ने सारे मुक़दमे उठा लिए गए ,इन गिरफ्तारियों के बाद पुलिस ने सोनभद्र जनपद से ही गोडवाना संघर्ष समिति की शांति किन्नर को भी आदिवासियों को भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया ,शांति एक वर्ष बीतने के बाद जैसे तैसे जमानत पर रिहा हुई ,मायावती सरकार का जब कभी दलित आदिवासी विरोधी चेहरे पर से नकाब उठता है इस तरह की घटनाएँ सामने आती हैं हो सकता है कि सीमा की गिरफ्तारी पर भी मीडिया अपने चरित्र के अनुरूप अपने होठों को सिये रखे ,आज विभिन्न चैनलों पर चल रहे न्यूज फ्लैश जिसमे नक्सलियों की गिरफ्तारी की बात कही गयी थी को देखकर हमें लग गया था कि टी।आर.पी और नंबर की होड़ में पहलवानी कर रहे मीडिया के पास सच कहने का साहस नहीं है ,लेकिन मै व्यक्तिगत तौर पर मीडिया और मीडिया के लोगों को अलग करके देखता हूँ ,सीमा ,विश्व विजय और आशा की गिरफ्तारी का विरोध हम सबको व्यक्तिगत तौर पर करना ही होगा ,माध्यमों की नपुंसकता का रोना अब और नहीं सहा जायेगा वर्ना आइना भी हमें पहचानने से इनकार कर देगा
प्रति,अध्यक्ष,राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग,नयी दिल्ली।
महोदय,
महोदय, संगठन आपको इस गिरफ़्तारी की पृष्ठभूमि से अवगत करना चाहता है। पिछले दिनों इलाहाबाद व कौशांबी के कछारी इलाकों में बालू खनन मजदूरों पर पुलिस-बाहुबलियों के दमन के खिलाफ पीयूसीएल ने लगातार आवाज उठाया। इलाहाबाद के डीआईजी ने बाहुबलियों व राजनेताओं के दबाव में मजदूर आंदोलन के नेताओं पर कई फर्जी मुकदमे लादे हैं। डीआईजी ने यहां मजदूरों के ‘लाल सलाम’ संबोधन को राष्ट्रविरोधी मानते हुए ‘लाल सलाम’ को प्रतिबंधित करार दिया था। पीयूसीएल ने लाल सलाम को कम्युनिस्ट पार्टियों का स्वाभाविक संबोधन बताते हुए इसे प्रतिबंधित करने की मांग की निंदा की थी। पीयूसीएल का मानना है कि ‘लाल सलाम’ पूरी दुनिया में मजदूरों का एक आम नारा है और ऐसे संबोधन पर किसी तरह का प्रतिबंध अनुचित है। इलाहाबाद-कौशांबी के कछारी क्षेत्र में अवैध वसूली व बालू खनन के खिलाफ संघर्षरत मजदूरों के दमन पर सवाल उठाते हुए, पिछले दिनों पीयूसीएल की संगठन मंत्री सीमा आजाद व केके राय ने कौशांबी के नंदा का पुरा गांव में वहां मानवाधिकार हनन पर एक रिपोर्ट जारी किया था। नंदा का पूरा गांव में पिछले एक माह में दो बार पुलिस व पीएसी के जवानों ने ग्रामीणों पर बर्बर लाठीचार्ज किया। इसमें सैकड़ों मजदूर घायल हुए। पुलिस ने नंदा का पुरा गांव में भाकपा माले न्यू डेमोक्रेसी के स्थानीय कार्यालय को आग लगा दिया। उनके नेताओं को फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार कर कई दिनों तक जेल में रखा।
इस सबके खिलाफ आवाज उठाना इलाहाबाद के डीआईजी व पुलिस को नागवार गुजर रहा था। पुलिस कत्तई नहीं चाहती कि उसके क्रियाकलापों पर कोई संगठन आवाज उठाये। सीमा आजाद, उनके पति विश्वविजय व एक अन्य साथी आशा की गिरफ्तारी पुलिस ने बदले की कार्रवाई के रूप में किया है। सीमा आजाद का नक्सलियों से कोई संबंध नहीं है और वह मानवाधिकारों के क्षेत्र में पिछले कई वर्षों से कार्यरत हैं। सीमा आजाद ‘दस्तक’ नाम की मासिक पत्रिका की संपादक भी हैं। उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश में मानवाधिकारों की स्थिति, मजदूर आंदोलन, सेज, मुसहर जाति की स्थिति व इंसेफेलाइटिस बीमारी जैसे कई मसलों पर गंभीर रिपोर्टें बनायी हैं। सीमा आजाद के पति विश्वविजय व उनकी साथी आशा भी पिछले लंबे समय तक इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में छात्र नेता के रूप में सक्रिय रहे हैं। इन्होंने ‘इंकलाबी छात्र मोर्चा’ के बनैर तले छात्र-छात्राओं की आम समस्याओं को प्रमुखता से उठाया है। पुलिस जिन्हें नक्सली बता रही है, वो पिछले काफी समय से छात्र और मजदूरों के बीच काम कर रहे है।
महोदय उत्तर प्रदेश पुलिस पहले भी पीयूसीएल के नेताओं को मानवाधिकारों की आवाज उठाने पर धमकी दे चुकी है। 9 नवंबर को चंदौली में कमलेश चौधरी के पुलिस मुठभेड़ में हत्या के बाद पीयूसीएल ने इस पर सवाल उठाये थे। जिसके बाद 11 नवंबर, 09 को खुद डीजीपी बृजलाल ने एक प्रेस कॉनफ्रेंस में कहा था कि “पीयूसीएल के नेताओं पर भी कार्रवाई की जाएगी।” (देखें 12 नवंबर, 09 का दैनिक हिंदुस्तान )
इलाहाबाद से सीमा आजाद की गिरफ्तारी पुलिस की उसी बदले की कार्रवाई की एक कड़ी है।
अतः हम आप से अपील करते हैं कि इस मामले में त्वरित कार्रवाई करते हुए पुलिसिया उत्पीड़न पर रोक लगाएं और मानवाधिकारों की रक्षा के दायित्व को पूरा करें। हम यह भी मांग करते हैं कि सीमा आजाद व उनके साथियों को तुरंत मुक्त किया जाए।
भवदीय चितरंजन सिंह, राष्ट्रीय सचिव, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज (पीयूसीएल)केके राय, अधिवक्ता, राज्य कार्यकारिणी सदस्य, पीयूसीएलसंदीप पांडेय, मैग्सेसे पुरस्कार विजेता व राज्य कार्यकारिणी सदस्य, पीयूसीएलएसआर दारापुरी, पूर्व पुलिस महानिदेशक, राज्य कार्यकारिणी सदस्य, पीयूसीएलशाहनवाज आलम, संगठन मंत्री, पीयूसीएलराजीव यादव, संगठन मंत्री, पीयूसीएलविजय प्रताप, स्वतंत्र पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता
01 फ़रवरी 2010
“न किसी से जाति पूछता हूं, न किसी को जाति बताता हूं -अनिल चमड़िया
विश्वविद्यालय से आपकी सेवा खत्म किये जाने की क्या वजह है?
अनिल चमड़िया : मेरी सेवा समाप्त करने की ये कोई पहली कोशिश नहीं है। 12 अगस्त 2009 को कुलपति वीएन राय ने देर शाम मुझे अपने घर पर बुलाकर कहा था कि आप इस्तीफा दे दीजिए। आप अपने इस्तीफे में ये लिख दीजिए कि आप ये सोचकर यहां आए थे कि यहां अपनी सेवा जारी रखते हुए दिल्ली में पंद्रह-बीस दिनों तक रह सकते है। मैंने कहा कि लगभग एक महीने पहले मैंने ये पद संभाला है और ये झूठ लिखकर इस्तीफा क्यूं दूं। फिर आप मुझे ये झूठ लिखने के लिए क्यों दबाव बना रहे हैं। मैं दिल्ली और अपने परिवार को छोड़कर वर्धा इसीलिए आया था कि यहां की चुनौतियां मुझे अच्छी लगती हैं। मरुस्थल जैसी जगह पर पौधे लगाने और उसे विकसित करने की चुनौती मुझे ताक़तवर बनाती है। बहरहाल सेवा समाप्त करने की कोशिश की एक लंबी पृष्ठभूमि हैं। मेरी डायरी के कई पन्ने इससे भरे हैं। मैं इतना कह सकता हूं कि मैं लगातार प्रताड़ित किया जा रहा था। मैं निजी तौर पर भी और विभाग के प्रोफेसर के तौर पर भी। जो लोग सेवा समाप्त करने की वजहों को नहीं समझना चाहते हैं, उन्हें मैं नहीं समझा सकता। लेकिन जो समझना चाहते हैं, उन्हें प्रचार सामग्री की घेरेबंदी से निकल कर तथ्यों की तरफ लौटना चाहिए। मेरी नियुक्ति एक लंबी प्रक्रिया के बाद हुई। विज्ञापन निकला। मैंने आवेदन किया। आवेदन पत्रों की छंटनी की गयी। छंटनी समिति में विश्वविद्यालय प्रशासन, विभाग और विषय के विशेषज्ञ थे। इस समिति ने चयन समिति से कहा कि मैं साक्षात्कार के लिए आमंत्रित करने के योग्य हूं। चयन समिति में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि, कुलपति, प्रति कुलपति, डीन, रजिस्ट्रार, विषय के तीन विशेषज्ञ कुल नौ लोग थे। उन्होने एकमत से मेरी नियुक्ति का फैसला किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने प्रोफेसर पद के लिए जो योग्यताएं निर्धारित की हैं, उसमें डिग्रीधारियों को भी योग्य बताया गया है और गैर डिग्रीधारियों को भी योग्य माना है। जाहिल लोग नहीं जानते हैं कि जिनके पास डिग्रियां नहीं हैं, उन्हें संस्थानों में प्रोफेसर बनाया जाता रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय में अचिन विनायक भी ऐसे ही लोगों में हैं और वे देश के सबसे बड़े केंद्रीय विश्वविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) में डीन हैं। मेरी नियुक्ति के सात महीने के बाद ये कहा जा रहा है कि विश्वविद्यालय ने जो विज्ञापन निकाला था, वो गलत था। यह विज्ञापन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा 1998 में निर्धारित मानदंड़ों के अनुसार निकाला गया था। लेकिन ये विज्ञापन केवल मेरे पद भर के लिए नहीं था। विभिन्न विभागों में सत्रह शैक्षणिक पदों के लिए था। मास मीडिया में ही उस विज्ञापन के आधार पर चार नियुक्तियां हुई हैं। लेकिन केवल मेरे मामले में ये दोहराया जा रहा है कि विज्ञापन गलत निकला था। जबकि 1998 में जो प्रावधान थे, वो 2009 में भी हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने 2000 में जो प्रोफेसर के लिए मानदंड तय किये थे, उन पर भी मैं तकनीकी तौर पर खरा उतरता हूं। वजह ये है कि कुलपति मेरी सेवा समाप्त करना चाहते थे। वे कई महीने पहले से ही कई जगहों पर ये कह चुके हैं। एक ब्लॉग ने तो दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार के हवाले से लिखा है कि कुलपति ने मुझे हटाने के लिए उनसे कहा था। दूसरी बात कि मेरी जगह पर उन्हें लाने का न्यौता भी दिया था। किसी भी प्रशासक की एक कार्य संस्कृति होती है। वो अपनी कार्य संस्कृति के ढांचे में सबको ढालना चाहता है। मैं ऐसे किसी ढांचे के लिए खुद को कच्चा माल बनाने की स्थिति कभी नहीं रहा। मैं यहां विद्यार्थियों को पढ़ाने आया था और इस संस्थान के साथ जो अंतरराष्ट्रीय शब्द जुड़ा है, उसे सार्थक बनाने की कोशिश करना चाहता था। ये बात मैंने अपने चयन के लिए हुए साक्षात्कार के दौरान भी कहा था। मैंने अपनी योजनाएं भी बतायी थी। मैं चाहता था कि हिंदी में मौलिक काम किये जा सकते हैं और उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया जा सकता है। दरअसल हिंदी में इतनी ज़डता है कि उसे किसी भी तरह की आधुनिक पहल तत्काल खटकने लगती है। वहां की सत्ता खुद विस्थापित होने की असुरक्षा से घिरा महसूस करने लगती है। मेरे निकाले जाने की वजह में कार्य संस्कृति का सवाल प्रमुख है।
क्या आपको कभी कारण बताओ नोटिस जारी किया गया?
अनिल चमड़िया : नहीं, कोई कारण बताओ नोटिस नहीं दिया गया। 27 जनवरी 2010 को मेरे घर पर शाम को सात बजे चिट्ठी भिजवा दी गयी कि मेरी नियुक्ति को कार्य परिषद के आठ सदस्यों ने 13 जनवरी 2010 को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक बैठक कर स्वीकृति प्रदान नहीं की है।
क्या आपको ये बताया गया है कि आपकी सेवा क्यों खत्म की जा रही है?
अनिल चमड़िया : जो मुझे पत्र मिला है, उसमें केवल इतना ही कहा गया है कि कार्यपरिषद ने मेरी नियुक्ति को स्वीकार नहीं किया है। उसमें स्वीकार नहीं किये जाने का कोई कारण नहीं बताया गया है।
वीसी वीएन राय ने कहा कि लोग अनिल चमड़िया के दलित होने के चलते हटाये जाने की बात मुझे बता रहे हैं पर मुझे तो पता भी नहीं है कि अनिल चमड़िया दलित हैं – ये पहली बार पता चल रहा है। वास्तविक स्थिति क्या है?
अनिल चमड़िया : वीएन राय सारी बातें लोगों के हवाले से करते हैं। ये उनकी कार्य संस्कृति का हिस्सा है। कौन लोग कह रहे हैं कि दलित होने के कारण मुझे हटाया गया है। दरअसल प्रचार की इस रणनीति को समझना चाहिए। किसी भी समस्या के केंद्र में क्यों नहीं ऐसी बात ला दी जाए, जिससे की पूरी बहस उल्टे सिर खड़ी हो जाए। मेरी नियुक्ति में कहीं से भी दलित शब्द शामिल नहीं है। फिर इस दलित की बहस को यहां क्यों खड़ा किया जा रहा है। कुलपति को मुझमें इतनी दिलचस्पी रही है कि मैं कितने लोगों के लिए अपने कमरे में खाना बनाता रहा हूं। वे मेरे बारे में इस तरह की सूचनाएं प्राप्त करते रहे कि मैं किस किससे सब्जी मंगवाता हूं। फिर कुलपति की तो वर्ण व्यवस्था के विषय में काफी दिलचस्पी दिखाई देती है। यह विषय उनका एक ब्रांड है। मैं अपने स्तर पर न तो किसी को अपनी जाति बताना जरूरी समझता हूं और ना ही किसी से उसकी जाति पूछता हूं। क्योंकि मैं दो तरह की भाषा नहीं जानता। एक ही भाषा में सभी लोगों से बात करने की योग्यता ही मेरे पास है।
वीसी के दलित विरोधी आचरण और अपनी बर्खास्तगी को आप कैसे जोड़कर देख रहे हैं?
अनिल चमड़िया : वीसी को आप दलित विरोधी कह रहे हैं, मैं नहीं कह रहा हूं। मेरे पास उन्हें देने के लिए कई विशेषण हैं। मैं अपनी बर्खास्तगी भी नहीं मानता हूं। लेकिन आपके इस सवाल की जो मूल भावना है, उसे मैं अपने तरीके से समझ कर जवाब देना चाहता हूं। मैं अपने लेखन, कर्म और व्यवहार के लिए अलग-अलग आईना लेकर नहीं घूमता हूं। हिंदी समाज का सत्ताधारी वर्ग इस मायने में दुनिया में सबसे ज्यादा योग्य है कि वो लिखने और व्यवहार के लिए अलग-अलग भाषा को बरतना जानता है। लिखता कुछ है और व्यवहार उसके विपरीत करता है। अपनी सारी पक्षधरता, व्यभिचार, भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए एक मुखौटा तैयार कर लेता है। वह मुखौटा वामपंथी होने का हो सकता है। धर्मनिरपेक्ष होने का हो सकता है। विश्वविद्यालय में दलित और महिलाएं अपने अनुकूल स्थितियां नहीं महसूस करती हैं। विश्वविद्यालय के दलित छात्र संगठन द्वारा जारी दलित चार्जशीट में अब तक के दलित उत्पीड़न की घटनाएं जगजाहिर हैं। दलित प्रोफेसर प्रो कारुण्यकारा को दी गयी नोटिस की खबर समाचार पत्रों में छपी है। लिहाजा दलित विरोधी आचारण के बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है। मेरी सेवा समाप्त करने की कोशिश का संबंध पूरी कार्यसंस्कृति से है। उसमें कई तरह के आचरण शामिल हैं। मैंने जब से यहां अपनी सेवा शुरू की, तब से कुलपति को ये लगता रहा है कि विश्वविद्यालय में मास मीडिया के प्रमुख को जिस तरह से चोर गुरू के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, उसमें मेरी भूमिका है। ये बात उन्होंने कई लोगों से कही भी है। जब भी विद्यार्थियों के बीच किसी तरह का असंतोष पनपा और वे संगठित होकर विरोध करने के लिए तैयार हुए, उन्हें लगता रहा कि उसमें मेरी भूमिका है। वे विरोध के कारणों या जो बातें प्रकाशित होती हैं, उन्हें संज्ञान में नहीं लेना चाहते हैं। ये उनकी कार्यसंस्कृति है। पुलिस का काम किसी घटना को अपराध के रूप में स्थापित करना और उसका किसी अपराधी से संबंध जोड़ने का होता है। वह घटना के कारणों को दूर नहीं करना जानती है। उन्होंने एक बार मुझसे फोन पर कहा कि मैं चाहूंगा तो विश्वविद्यालय के विद्यार्थी अपना विरोध आंदोलन समाप्त कर सकते हैं। दरअसल विश्वविद्यालय में कदम रखने के पहले घंटे में ही कुलपति ने मुझे विद्यार्थियों से दूर रहने का निर्देश दे दिया था। मैं छात्रावासों में नहीं जा सकता और न विद्यार्थियों से हाथ मिला सकता था।
वीसी का कहना है कि आपको हटाने का फैसला ईसी का है और इस फैसले से उनका कोई लेना देना नहीं है। आपकी इस पर क्या प्रतिक्रिया है?
अनिल चमड़िया :प्रचार के लिए आप अपनी सामग्री को किसी भी तरह प्रस्तुत कर सकते हैं। विश्वविद्यालयों की संस्कृति के बारे में जो जानते हैं, उन्हें पता है कि कुलपति के चाहने और नहीं चाहने का क्या अर्थ होता है। मुझे पता है कि ईसी की मीटिंग में कुलपति ने ईसी के माननीय सदस्यों से क्या कहा। ईसी की अध्यक्षता कुलपति ही करते हैं। दरअसल किसी तरह की कार्रवाई के बाद सबसे ज्यादा सावधानी इस बात को लेकर बरतनी पड़ती है कि उस कार्रवाई के साथ किस तरह के संदेश को लोगों के बीच भेजा जाए। संदेश की ऊपरी सतह पर मूल बात नहीं होती है। जो ये कहता रहा हो कि उसने एक महान काम किया है और फिर जब उसके सामने ये संकट खड़ा हो कि उसे इस महानता को पचाना मुश्किल है, तो वह क्या कर सकता है। किसी की आड़ लेकर बात कहने की अपनी एक विशेष संस्कृति होती है। ईसी न तो मेरी नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया को जानती रही है न ही उसकी दिलचस्पी बारह नियुक्तियों में किसी एक पर खासतौर से हो सकती है जब तक कि उसे खास नहीं बना कर पेश किया जाए। ईसी के कुलाध्यक्ष द्वारा मनोनीत सदस्य कुलाध्यक्ष के मनोनीत प्रतिनिधि द्वारा चयनित किसी व्यक्ति की नियुक्ति को क्या इतनी आसानी से अस्वीकार कर सकते हैं? दरअसल इस मामले में जो बारीकी नहीं जानना चाहता है और मुझे गालियां निकालने के मौके के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है, तो मैं उसमें क्या कर सकता हूं। मैं धैर्यवान व्यक्ति हूं। हमलों से मजबूत होता हूं।
मोहल्ला से साभार
ताक़तवर जुगाड़ियों को परास्त करने का समय है यह- चंदन पांडेय (चर्चित युवा कथाकार)
इस कुकर्म को चाहे जो नाम दिया जाए, इसके पक्ष में जो तर्क रखे जाए, मैं यही समझ पाया कि अनिल चमड़िया की नौकरी छीन ली गयी। कुछ बड़े नामों की एक मीटिंग बुलायी गयी और कुछ नियमों का आड़ ले सब के सब उनकी नौकरी खा गये।
हमारे समाज से विरोध का स्वर तो गायब हो ही रहा है, विरोध में उठने वाली आवाजों के समर्थक भी कम हो रहे हैं। यह सरासर गलत हुआ। मेरे पास एक सटीक उदाहरण है। बचपन की बात है, गांव में जब हम नंग-धड़ंग बच्चों के बीच कोई साफ-सुथरा कपड़ा पहन कर आ जाता था, विशेष कर चरवाही में, तो बड़ी उम्र के लड़के उन बच्चों का मजाक उड़ाते थे और कभी-कभी पीट भी देते थे। किसी न किसी बहाने से, उन बच्चों को जान-बूझकर मिट्टी में लथेड़ देते थे। आप समझ गये होंगे, मैं कहना क्या चाहता हूं?
वजहें जो भी हों, सच यह है कि अनिल चमड़िया के विशद पत्रकारिता अनुभव से सीखने-समझने के लिए विश्वविद्यालय तैयार नहीं था। वरना जिस कुलपति ने नियुक्ति की, उसी कुलपति को छह महीने में ऐसा क्या बोध हुआ कि अपने द्वारा की गयी एकमात्र सही नियुक्ति को खा गया। (मैं चाहता हूं कि पिछली पंक्ति मेरे मित्रों को बुरी लगे)। मृणाल पांडेय, कृष्ण कुमार, गोकर्ण शर्मा, गंगा प्रसाद विमल और ‘कुछ’ राय साहबों ने अनिल की नियुक्ति का विरोध किया तो इसका निष्कर्ष यही निकलेगा कि पत्रकारिता जगत की उनकी समझ कितनी थोथी है? यह समय की विडंबना है कि पत्रकारिता जगत में सिर्फ और सिर्फ संबंधों का बोलबाला रह गया है। कितने पत्रकार मित्र ऐसे हैं, जो नींद में भी किसी पहुंच वाली हस्ती से बात करते हुए पाये जाते हैं।
आश्चर्य इसका कि कई लोग यह कहते हुए पाये गये : अनिल को विश्वविद्यालय के विपक्ष में बोलने की क्या जरूरत थी? इन गये गुजरे लोगों को यह समझाने की सारी कोशिशें व्यर्थ हैं कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाना कोई ऐसा अपराध नहीं है, जिसकी सजा में किसी की नौकरी छिन जाए। वर्धा में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है, जिसके खिलाफ सख्त आवाज उठनी चाहिए।
ये हर कोई जानता है कि पात्रता के बजाय संबंधों और ताकत के सहारे चल रही इस दुनिया में विभूति नारायण राय को कोई दोषी नहीं ठहराएगा। जिस एक्ज्यूटिव काउंसिल के लोगों ने इस धत-कर्म में कुलपति का साथ दिया है, उन्हें भी उनका हिस्सा दिया जाएगा। वैसे भी 1995 से अखबार देखता पढ़ता रहा हूं, पर आज तक मृणाल का कोई ऐसा आलेख या कोई ऐसी रिपोर्टिंग नहीं देखी, जिससे लगता हो कि ये पत्रकार हैं या कभी रही हैं। हां, उदय प्रकाश की एक कहानी में किसी मृणाल का जिक्र आता है, जो दिनमान या सारिका में “अचार कैसे डालें” जैसे लेख लिखती हैं। कुल बात यह कि मृणाल या दूसरे ऐसी पात्रता नहीं रखते कि वो किसी की नौकरी खा जाएं।
अनिल जी, हमलोग कथादेश में तथा अन्य जगहों पर आपके लेख पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। आपसे बहुत कुछ सीखा है। आप एक दफा भी यह बात अपने मन में न लाना कि आपसे कोई चूक हो गयी। आप इस तुगलकी फरमान के खिलाफ लड़ाई जारी रखिए। अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप इस लड़ाई में चापलूसों की फौज के सारे तर्क ध्वस्त कर देंगे और ताकतवर जुगाड़ियों को परास्त करेंगे, इस बात का भरोसा है।