30 जून 2009

आतंकित होकर आतंकवाद का ठप्पा

हम देशद्रोही हैं और अब आतंकवादी भी, ऎसा कुछ देशप्रेमियों का कहना है. लालगढ़ पर लिखे पिछले दो टिप्पणियों पर कई लोगों की प्रतिक्रियायें मेल व फोन पर आयी, जिनमे कुछ लोगों ने अभद्र शब्दों के साथ हमे यह सर्टिफिकेट दे डाला। इन देश प्रेमियों के देश प्रेम के बारे में हमे नहीं पता कि इनका देश प्रेम क्या है और देश का ये क्या मायने लगाते हैं, जिससे उन्हें प्रेम है और जिसके हम खिलाफ हैं। मसलन देश का अर्थ क्या देश की वह पुलिस है जो लालगढ़ के गाँवों बेलासोल, कुलदहा, कोरमा, अमचोर, महतोपुर, बिमटोला, जम्बोनी आदि में लूट रही है, वहाँ के बुजुर्गों, बच्चों, महिलाओं पर अत्याचार कर रही है या देश वह जमीन का टुकडा़ है जिसे जिंदल को दिया जा रहा है या देश वहाँ के राज्य सरकार की इच्छा है या देश चिदम्बरम मनमोहन के हाँथ का डंडा है या फिर देश वहाँ के वे आदिवासी लोग जिन्हें बेदख़ल किया जा रहा है. देश के इतने सारे खाँचों में हम उस देश के साथ हैं जो वहाँ के लोगों की इच्छा से निर्मित हो शायद एक लोकतांत्रिक देश के मायने यही होंगे. ऎसे में इनकी स्थितियों को लिखना यदि देशद्रोही होना है तो जनलोकतंत्र की व्यवस्था ही देशद्रोही हो जायेगी. इस आधार पर किसी को देशद्रोही या आतंकी साबित करना महज़ चिदम्बरम व मनमोहन सिंह की जुबान होना भर है. दरअसल मीडिया उद्योग ने हमारी मानसिकता का ऎसा निर्माण कर दिया है कि हम सरकारी सोच के हो गये हैं, मसलन सरकार की सभी क्रियायें हमारे लिये लोकतांत्रिक हो गयी हैं. सरकार जिसे आतंकवादी कहती है वह आतंकवादी है, और जिसे देशद्रोही, वह देशद्रोही. हम लोकतंत्र की अवधारणा में रखकर घटनाओं को देखना भी भूल चुके हैं. क्योंकि लोकतंत्र के चौथे खंभे का ढोल पीटती मीडिया सत्ता का चौथा खम्भा बन चुकी है जिस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है कारण कि देश दुनिया की घटनाओं पर हमारी राय मीडिया से ही निर्मित होती है और हम घटनाओं को प्रत्यक्ष तौर पर न देख पाने में मजबूर हैं. पर हमें मीडिया को समझने के तरीके इज़ाद करने होंगे.
जय हो के नारे के साथ केन्द्र में आयी सरकार ने २२ जून को भारतीय राज्य में माओवादी संगठन को आतंकवादी घोषित कर उन पर प्रतिबंध लगा दिया और लालगढ़ में पुलिस ने कब्जा कर लिया. इस पुलिस कब्ज़ेदारी के साथ गाँवों की तलाशी जारी है. सुरक्षाबल अपने कैम्प जमाकर देश की सुरक्षा में तैनात हैं, यानि देश के एक छोटे से हिस्से की सुरक्षा. जहाँ के अधिकांश लोग असुरक्षित होकर गाँवों से भाग गये हैं पर सुरक्षा जारी है, जंगलों के उन पेडो़ की जो भाग नहीं सकते, जमीन की जो खिसक नहीं सकती, बाकी जितने लोग बचे हैं उनके लिये उतनी बंदूकें सरकार ने भेज दी हैं, पर वे या तो बूढे़ हैं या बच्चे इनके लिये लात, घूंसे और डंडे ही काफी हैं. अब ऎसे में लोकतंत्र की परिभाषा जिसे हम रटा करते हैं वह बदल चुकी है. जिसे हम सबको वर्तमान लोकतंत्र के लिये सुधार लेना चाहिये. यानि जनता पर, पुलिस द्वारा, बंदूकों का शासन लोकतंत्र है. यह महज़ पश्चिम बंगाल की स्थिति नहीं है बल्कि कश्मीर, मणिपुर, अरूणाचल, नागालैंड, आंध्र, छत्तीसगढ़......बाकी के नाम आप खुद याद करें. क्या देश में फासीवाद तभी आता है जब मुसोलिनी नाम का कोई व्यक्ति पैदा हो या फिर यह बुद्धदेव, मनमोहन, रमन, चिदम्बरम नाम के साथ भी आ सकता है. २२ जून को लालगढ़ की स्थिति जानने के लिये कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों की एक टीम जिसमें अभिनेत्री अपर्णा सेन, सोनाली मित्रा, कौशिक सेन, कवि जय गोस्वामी, बोलन गंगोपाद्याय गये. उन लोगों ने वहाँ की स्थितियों को देखा और वहाँ के लोगों से बातचीत की, लौटने के बाद सरकार द्वारा जारी प्रताड़ना की निंदा करते हुए इसे रोकने की मांग की तो उन पर केस लगा दिये गये. मेल्दा गाँव में संवाद प्रतिदिन पत्र के फोटोग्राफर ने पुलिस द्वारा पीटे जा रहे महिलाओं, बच्चों के फोटो लेने का प्रयास किया तो पुलिस द्वारा उन्हें पीटा गया. २७ जून को 'नेशनल फैक्ट फाइंडिंग' टीम जिसमे फिल्मकार के.एन.पंडित, पद्मा, दामोदर, टिंकू, एम. श्रीनिवास, राजकोशोर व सुसन्तो जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं व लेखकों को जाने से पहले मिदिनापुर पुलिस स्टेशन में गिरफ्तार कर लिया गया. यानि अब खबर वही मिलेगी जो पुलिस बतायेगी. बाकी सब पर प्रतिबंध, इसे हम क्या कहें? महाश्वेता देवी ने कहा है कि यदि ग्राम रक्षा समिति के मुखिया चक्रधर महतो को गिरफ्तार किया गया तो वे मुख्यमंत्री आवास के सामने घरना देंगी. निश्चित तौर पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लालगढ़ के आंदोलन में माओवादी पार्टी भी सम्मलित थी. जिसे माओवादी नेता ''विकास'' ने स्वीकार भी किया, पर वे किस भूमिका में काम कर रहे थे इसे हमे देखने की जरूरत है. जब आदिवासियों से जमीने छीनी जाने लगी, उन्हें प्रताड़ित किया जाने लगा और सालबोनी प्रोजेक्ट को एक नये आधुनिक राष्ट्र की संज्ञा दी जाने लगी. यानि लालगढ़ में एक ऎसा वाशिंगटन उन आदिवासियों की जमीन पर बन रहा था (ये सारी संज्ञायें मीडिया व नेताओं की हैं ) जिन्हें दो जून की रोटी तक नहीं मिलती. ऎसे में देश की एक मात्र पार्टी चाहे उसे आतंकवादी कहा जायें या कुछ और ने वहाँ के लोगों को संगठित करने का कार्य किया. आधुनिक विकास के ढांचे को नकारते हुए लोगों की मूलभूत जरूरतों को मुखरित किया और उन्हें सम्बल पहुचाया. क्या यह उनका देशद्रोह था? माओवादी पार्टी को लेकर तमाम तरह के भ्रामक प्रचार किये गये मसलन विकास विरोधी होना. वे निजीकरण से चल रहे विकास के खिलाफ़ जरूर हैं पर शिक्षा, स्वास्थ, जैसी सुविधाओं के खिलाफ़ नहीं. भले ही शिक्षा प्रणालियां व नीतियाँ अपने आप में समाज विरोधी हों. ऎसा माओवादी नेताओं से रूचिर गर्ग की हुई बातचीत से पता चलता है. माओवादीयों ने आदिवासियों की मूलभूत जरूरतों को लेकर लड़ने में उन्हें सम्बल दिया है व शिक्षा, स्वास्थ को लेकर अपने आधार इलाकों में जमीनी स्तर से विकास का एक ढांचा भी निर्मित किया है. जिससे उनकी पैठ वाकई सागर में मछली की तरह है. ऎसी स्थितियों में महेन्द्र कर्मा के बयान को सभी राज्य अमल करने पर तुले हैं कि वे सागर को ही सोख जायेंगे. ज़ाहिर है सागर को सोखने के बाद मछलियाँ वहाँ नहीं रह सकती तो क्या हम एक ऎसे आधुनिक राष्ट्र के निर्माण में जुटे हैं जहाँ आदिवासियों की प्रजाति को खत्म कर दिया जाय. माओवादियों ने अपने कई वक्तव्यों में इस बात को दोहराया है कि आइ.एस.आई., सिमी, जैसे संगठनों के साथ उनके रिश्ते नहीं हैं और वैचारिक आधार पर होना सम्भव भी नहीं है व सरकार का भी कोई बयान इस बात को लेकर नहीं आया है. इसके बावजूद मीडिया समय-समय पर यह प्रोपोगेंडा चलाती रहती है तो क्या सरकार को मीडिया संस्थानों में रा की जिम्मेदारी दे देनी चाहिये? क्योंकि सरकारी इंटेलीजेंस इसे साबित करने में विफल रहा है. दूसरी बात यह कि सरकार की तरफ से माओवाद को एक आर्थिक, सामाजिक समस्या के रूप में चिन्हित किया जाता रहा है पर आज जब इसे आतंकवादी संगठन घोषित किया गया है तो इसके क्या मायने लगाये जाने चाहिये? कि आतंकवाद सामाजिक, आर्थिक कारणों की उपज है. फिर देश में उपजे सामाजिक आर्थिक कारणों के आंदोलन यदि आतंकवादी हैं तो असहमति के लिये वह कौन सी जगह है जहाँ हम आप बोल सकते हैं? अब हमें छोड़ना होगामरने के बाद मौन की परम्पराबटोरनी होगी मरने वाले की आख़िरी चीख़इतने सारे लोगों के रोज़ मरने का मौनहमारी उम्र भर की चुप्पी के लिये काफ़ी हैअपने मरने के पहले की आवाज़हमें अभी से ही निकालनी होगी॥ चन्द्रिका

22 जून 2009

लालगढ़: एक छोटे लोकतंत्र का बडे़ लोकतंत्र के लिये खतरा


वे शांति स्थापना के लिये निकले हैं ज़ाहिर है कब्रिस्तान में शोर नहीं होता....
लालगढ़ को अशांत घोषित कर दिया गया है. इस अशांति के मायने क्या हैं? क्या यह कि तकरीबन १८७ गाँवों में संथाली आदिवासी लोगों ने अपनी कमेटियाँ बना ली हैं, वे अपने सुख-दुख का आपस में निपटारा करने का प्रयास कर रहे हैं, गाँव की किसी समस्या का समाधान गाँव में ही कर लेना चाहते हैं. यानि गाँव के लोगों का गाँव के लोगों पर शासन, एक छोटा सा लोकतंत्र आदिवासी समाज का लोकतंत्र. क्योंकि बडा़ लोकतंत्र बडों का हो चुका है इसलिये उन पर नज़र ही नहीं जाती. बडे़ लोकतंत्र का ढांचा बडा़ है, पुलिस है, फौज़ है, कानून की एक मोटी सी किताब भी है जिसमे पूरी अरब भर जनता को नियंत्रित करने के फार्मूले हैं पर फार्मूले वही लगा सकते हैं जो पढे़ लिखे हों. संथाली आदिवासी की स्थिति तो ये है कि रात के थोडे़ से अंधेरे को अपने भूख के साथ सान कर खा जाता है और सो जाता है. ऎसे में एक छोटा लोकतंत्र बडे़ लोकतंत्र के लिये खतरा बन जाता है. क्या मैं इस बडे़ लोकतंत्र को लोकतंत्र कहूँ? दरअसल वहाँ अशांति यही है कि वहाँ पुलिस और सेना नहीं है. और बिना पुलिस और सेना के कहीं शांति कैसे रह सकती है? क्या आप कल्पना करना चाहेंगे उस स्थान की जहाँ पुलिस हो और लोग अपनी समस्यायें खुद हल कर लेते हों. यानि पुलिस के होने का अर्थ है उन सारी चीजों का होना जो पुलिस के होने के साथ मौजूद होती हैं. लालगढ़ में आज की स्थिति पर कुछ भी कहने से पहले हमे उसकी ऎतिहासिकता में उसे देखना होगा, नवम्बर से अब तक दो बातें स्पष्ट रूप से उभर कर आयेंगी एक तो यह कि आदिवासी अपने जंगल की जमीन को किसी भी स्टील प्लांट के लिये देना नहीं चाहते वे नहीं चाहते कि अपनी जमीनों पर बुलोडोजर चलता हुआ वे देखें, पर सरकार ५००० एकड़, सज्जन जिंदल को देने पर तुली है. दूसरी यह कि वे सेना और पुलिस की सुरक्षा भी नहीं चाहते क्योंकि सुरक्षा के मायने अब वे जान चुके हैं और सुरक्षा से उन्हें खतरा है जिसके बाबत उन्होंने सड़कें काट डाली, आने-जाने के रास्ते बंद कर दिये. कई बार अपनी मांगों के साथ धरने पर बैठे जो कुल छोटी-बडी़ मिलाकर १३ मांगे थी, आस-पास के गाँवों को एकता बद्ध कर रैली निकाली. रैली पर गोली चलायी गयी और युवाओं को मार दिया गया जो सभा की या एकता की अगुवाई कर रहे थे. मानों गोलियों से तीन मांगे पूरी की गयी हों. उनकी जायज़ मांगों को देखते हुए सी.पी.एम. के कई कार्यकर्ता उनके साथ जुड़ गये. यह सब कुछ ऎसा चल रहा था मानों राज्य में एक नया राज्य कायम हो गया हो. फरवरी में आदिवासी--गैरआदिवासी एकता समिति बनायी गयी. इसके बनाये जाने के क्या मायने लगाये जायें? कि अब तक आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच कोई एकता ही नहीं थी. शायद हां, शायद नहीं. यह एक शांति अभियान था ठीक वैसा ही जैसा सलवा-जुडुम. आदिवासी युवकों को जान से मारा जाने लगा और आदिवासियों द्वारा इन्हें भी इन्हीं के छीने हथियार से. यानि यह अपने स्वरूप में एक दूसरे को मारने की एकता की समिति बनी. मुर्दों की एकता, मरने के बाद चुप रहने की एकता, प्रतिरोध में खून की एकता. आदिवासियों के भूख और वंचना से उठे आक्रोश की एकता को तोड़ने के लिये उनके साथ हमेशा इसी तरह की एकता बनायी गयी.
लालगढ़ अब अशांत हो चुका था उसे शांत करने की जरूरत थी जिसका अर्थ था पुलिस और फौज को दुबारा तैनात किया जाना. क्योंकि हमारे देश में अशांत को शांत करने का एक मात्र यही तरीका है. यहाँ तक की भूख की आग भी पुलिस की तैनाती से शांत होती है. बूट की आवाज़ों से लोगों के कान सहम जायें और आवाज़ें चुप हो जायें. देश के २८ राज्यों में से २४ राज्य ऎसे ही हैं. लालगढ़ में फौज बुलायी गयी अर्ध सैनिक बल आये, पर घुसने में नाकामयाब रहे लोगों ने प्रतिरोध किया उन पर आंसू गैस छोडी़ गयी. लाठियां बरसायी गयी. पुलिस अंदर पहुंच कर घरों की तलाशी की, औरतों को नंगा करके उनकी तलाशी ली जा रही है. पर वह नहीं मिल रहा है जिसे पुलिस ढूढ़ रही है और जो मिल रहा है उसे देख भी नहीं रही. यह है उनकी भूख जो उनके नंगे होने के बाद भी उनके बदन पर चिपकी रह जाती है. अपनी ज़मीन के छीने जाने के प्रतिरोध का हल है अस्मत का लूटा जाना या मौत के घाट उतार दिये जाना. एक तथाकथित अति सभ्य समाज अपने निर्माण के लिये एक पिछ्डे़ कहे जाने वाले समाज के साथ यह सलूक उस समय होता देख रहा है जब दुनिया के सबसे बडे़ लोकतंत्र का चुनाव हुए दो माह भी नहीं बीते हैं. २० जून को लालगढ़ में पुलिस कब्जा जमाने के सिलसिले में और आदिवासियों को मारा गया, यह ठीक उस समय हुआ होगा जब आप चाय पी रहे होंगे, किसी दफ्तर की .सी. में बैठे रहे होंगे या जहाँ भी रह कर खबर सुनी हो. क्या थोडी़ सी भी कम्पन शरीर में नहीं हुई. शायद सभ्य समाज का निर्माण यही है संवेदनाओं का मर जाना.
ठीक उसी दिन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य जी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से मिलकर यह बताया कि लालगढ़ के लोगों को ममता बनर्जी उनकी पार्टी का सहयोग मिल रहा है जिसमे माओवादी भी शामिल हैं,यह पहली बार नहीं कहा गया था बल्कि नंदीग्राम से सिंगूर तक कई बार कहा गया पर आश्चर्य कि इसी सहयोग करने के या सम्बन्ध होने के आधार पर बिनायक सेन को जेल होती है और तब तक कैद रखे जाते हैं जब तक वे कुछ नहीं करने लायक बचते यानि हृदय रोग की अवस्था में उन्हें छोडा़ जाता है पर ममता बनर्जी को बुद्धदेव जी जेल नहीं भेज सकते क्योंकि ममता बनर्जी बडे़ लोकतंत्र की बडी़ स्तम्भ हैं.
उनके हाथ में बंदूक है, तो यह उनकी वीरता है.
लोगों के हाथ में बंदूक है तो यह उनका जुर्म क्यों?

21 जून 2009

लालगढ़ आरपेशन या आदिवासी आपरेशन

लालगढ़ में संघर्ष चल रहा है बचे रहने का और उजाड़ दिये जाने का. पर लाल गढ़ के संथाली आदिवासियों का उजड़ना महज़ देश के सबसे बडे़ आदिवासी समाज के एक हिस्से का उजड़ना भर नहीं है.बल्कि यह संथाली समाज का अपने उस प्राचीन भूमि से उजाडा़ जाना है जहाँ वह पहली बार आकर बसा था और यहीं से पूरे देश में फैला था. देश में आज भी सबसे बडी़ संख्या संथाली आदिवासियों की है. तथाकथित सभ्य समाज के निर्माण व सालबोनी सेज परियोजना के निर्माण की प्रक्रिया में जुटे लोग जब आज इन्हें इनकी जमीन से विस्थापित करने पर आतुर हैं तो उसके खिलाफ इन आदिवासी महिला पुरूषों का लामबंद होकर विद्रोह करना लाज़मी है.
अपने जंगल और जमीन को छीने जाने के खिलाफ आदिवासियों का यह पहला विद्रोह नहीं है. इसके पहले अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिरसा मुंडा , तेभागा, तेलंगाना आदिवासी विद्रोह की एक लंबी सूची है पर ये विद्रोह आदिवासियों द्वारा राज्य सत्ता हथियाने को लेकर कभी नहीं किये गये बल्कि इनका स्वरूप अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने को लेकर ही रहा. पूरे देश में जंगल का एक लम्बा क्षेत्र है जहाँ आदिवासी समाज बिना किसी स्वास्थ, शिक्षा, बिजली के जी या मर रहा है. बारिस के दिनों में बाढ़ व मलेरिया से कितने आदिवासी मर जाते हैं
हर साल लोग भुखमरी का शिकार होते हैं. ऎसे में वह अपने जरूरत की पूर्ति जंगल से ही बिना नुकसान पहुंचाये करता है. इनके सीधेपन का फायदा उठाकर इन्हे खरीदा बेंचा जाता है पर विकास की इस अंधी दौड़ में सरकार को इस बात की कोई परवाह नहीं है बल्कि जंगल इनके लिये उपनिवेश बन चुके हैं जहाँ किसी भी तरह का फरमान जारी करके आदिवासियों को उसे मानने के लिये बाध्य किया जाता है. तथाकथित सभ्य समाज की जरूरतें बढ़ रही हैं और वह जंगलों पर कब्जेदारी कर इन्हें बेदख़ल करना चाहता है. लालगढ़ का सालबोनी प्रोजेक्ट इसी का एक हिस्सा है. जिसमें जंगल की ५००० एकड़ जमीन को लिया जा रहा है जबकि वन प्राधिकरण नियम के तहत भी यह गैर कानूनी है . ५०० एकड़ जमीन जिंदल स्टील कम्पनी के मालिक द्वारा वहाँ के लोगों से औने-पौने दाम पर खरीदी जा चुकी है पर लोगों को इसकी आधी ही कीमत चुकायी जा रही है और आधी कीमत कम्पनी शेयर के रूप में देने की बात कहकर टाल दी गयी है. जबकि ४५०० एकड़ जमीन जिसे सरकार लेने पर तुली है लोग छोड़ना नहीं चाहते जिसको लेकर वहाँ के आदिवासी एक जुट हो गये हैं .अपने जंगल और जमीन को लेकर हुई एक जुटता व प्रतिरोध को ही माओवाद के रूप में या किसी आतंक के रूप में प्रचारित किया जा रहा है. क्योंकि सरकार की दमन नीति व सेना के सशस्त्र कार्यवाहियों से लड़ने के लिये वहाँ के आदिवासी भी हथियार उठा चुके हैं.
दरअसल सरकार द्वारा जंगल के संसाधनों को पूंजीपतियों के हाँथों में सौंपे जाने पर हो रहे किसी भी प्रतिरोध के दमन का यह नायाब तरीका पिछले कई वर्षों से अपनाया जा रहा है कि वह जल, जंगल, जमीन से जुडे़ आदिवासी प्रतिरोध में माओवादियों का हाथ बताकर आदिवासियों या नागरिकों की हत्यायें व प्रताड़ना का लाइसेंस प्राप्त कर लेती है. ऎसी स्थिति में जंगल का एक बडा़ आदिवासी समाज माओवादी बनाया जा रहा है ताकि सरकार जंगल अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले प्रतिरोध का दमन माओवाद के नाम पर आसानी से कर सके. 22 नवम्बर2008को बुद्धदेव भट्टाचार्य ने २४ परगना में भाषण देते हुए लालगढ़ में माओवादियों के होने की बात इसीलिये ही कही थी ताकि वे केन्द्र से ज्यादा अर्धसैनिक बल व विशेष रकम मांग सकें.
आज जब इस बात का शोर मचाया जा रहा है कि लालगढ़ में माओवादियों का कब्जा हो चुका है तो लालगढ़ में लोगों द्वारा शस्त्र उठाने की पूरी प्रक्रिया पर हमे गौर करना होगा. आदिवासी जंगल की जमीन दिये जाने के खिलाफ थे इसके बावजूद रामविलास पासवान और बुद्धदेव भट्टाचार्य ने 2 नवम्बर 2008 को सालबोनी स्टील प्लांट का उद्घाटन किया जिसके पश्चात इनके काफिले पर हमला हुआ. इस हमले के फलस्वरूप लालगढ़ के आस-पास के तकरीबन ३५ गाँवों में पुलिस द्वारा लोगों को प्रताडि़त किया गया, उन्हें मारा पीटा गया व महिलाओं की आँख तक फोड़ दी गयी,परियोजना के खिलाफ गाँवों को एक जुट करने वाले युवाओं की हत्या तक कर दी गयी और यह सब माओवादियों का ठप्पा लगाकर किया गया. यदि अपने जमीन और जंगल को बचाने के लिये प्रतिरोध करना माओवाद है तो इतिहास का हर आदिवासी विद्रोह ऐसे ही अपने अस्तित्व की सुरक्षा के साथ हुआ है . जिन बिरसा मुंडा और दूसरे लड़ाकों को वर्तमान सरकार नायक के रूप में स्थापित करती है पर फर्क इतना जरूर है कि वह अंग्रेजी व सामंती सत्ता के खिलाफ था और यह वर्तमान लोकतांत्रिक कही जाने वाली व्यवस्था के खिलाफ है .
इतने दमन के बावजूद आदिवासियों ने जो मांग रखी वे बहुत ही सामान्य थी. उनका कहना था कि पुलिस दमन को खत्म किया जाये, लोगों पर जो आरोप लगाये गये हैं वे वापस लिये जायें, जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है उन्हे रिहा किया जाय. साथ में उन स्कूल, हास्पिटल व पंचायतों को मुक्त किया जाए जिनमे अर्ध सैनिक बलों ने डेरा डाला हुआ है जो कि कलकत्ता हाई कोर्ट का भी आदेश था. जनदबावो के तहत सरकार ने यह बात मंजूर भी कर ली पर यह लोगों के लिये एक छलावा साबित हुआ. सरकार महज़ उनकी लामबंदी को कम करना चाहती थी. अंततः लोगों ने ७ जनवरी 2009 को सरकार के सामाजिक बहिष्कार यानि क्षेत्र में सरकार की किसी भी संस्था के प्रवेश को वर्जित करने का फैसला लिया, लोगों ने किसी भी तरह के कर व मालगुजारी देने से भी मना कर दिया है. यह सरकार के लिये एक भयावहस्थिति थी जिससे निपटने के लिये सरकार ने छ्त्तीसगढ़ में चल रहे सलवा-जुडुम के तर्ज पर जन प्रतिरोध कमेटी व आदिवासी ओ गैर आदिवासी एकता कमेटी का निर्माण किया गया जिसमें सी.पी.एम. व झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के लोगों को शामिल किया गया है. ये सैकडो़ की संख्या में जाकर गाँवों को लूटते है व लोगों को मारते पीटते हैं .कारणवश लोगों का आक्रोश और भी उभर कर सामने आया है.यद्यपि सी.पी.एम. सरकार इस समस्या का राजनीतिक हल निकालने की बात कहती रही है पर राजनीतिक हल के तौर पर उसने सिर्फ दमन ही किया है ताकि वह लालगढ़ को भेद सके.
लालगढ़ में जारी असंतोष संथाली समाज के वंचना की पीडा़ है जिसमे विकास के नाम पर हर बार उनका उजाडा़ जाना, उनकी जमीनों को पूजीपतियों के हाथ में बेचा जाना, जिसके बाद नदियों का नालों में बदल जाना तय है. क्योंकि जिस स्टील प्लांट को जिंदल यहाँ स्थापित करना चाहते हैं वह एक बडी़ परियोजना है जिसके शुरूआती दौर में ही ३५,००० करोड़ रूपये लगाये जा रहे हैं व २०२० तक एक करॊड़ मैट्रीक टन के उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है जिससे आस-पास के तीन जिले व सुवर्ण रेखा नदी जो वहाँ के लोगों की जीवन रेखा भी है का प्रदूषित होना तय है. अतः यहाँके लोगों के पास सिवाय विरोध के कोई रास्ता नहीं बचता क्योकि सरकार इनकी उन मांगों को भी लागू नहीं कर पा रही है जो मूलभूत अधिकारों के तहत मिलनी चाहिये जिसमे रोजगार, संथाली भाषा और संस्कृति को बढा़वा दिया जाना, व बेहतर स्वास्थ, शिक्षा, व कृषि की सुविधा जैसी १३ मांगे शामिल हैं . पर इनकी मांगे लाठियों से पूरी की जा रही हैं. ऎसे में एक बडे़ क्षेत्र में विस्तृत संथाली आदिवासियों का एक जुट होकर प्रतिरोध करना दमित की एकता है.