दख़ल पत्रिका का महिला विशेषांक:-
8 मार्च को महिला दिवस था|आधी आबादी की वर्तमान स्थितियां और उनके संघर्ष को याद करते हुये दख़ल पत्रिका का मुद्रित अंक महिलाओं पर केन्द्रित है जिसे हम यहाँ प्रकाशित कर रहे है|
अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस क्यों? :-
यदि स्त्री और पुरूश के बीच की असमानता हमारे रोजमर्रा के जीवन का निèाZारक व प्रमुख कारक है और इसलिए इसे खत्म करने का प्रयास भी रोजमर्रा के स्तर पर ही होना चाहिए (ऐसा हो भी रहा है ) तो किसी खास दिवस पर ही इस तरह के आयोजन का क्या औचित्य है? सीधे व साफ लजों में कहें तो अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस क्यों? क्या इसलिए कि 8 मार्च के दिन स्त्रियों ने सड़कों पर उतरकर, विरोध प्रदषZन करके दमनकारी व्यवस्था के स्त्री विरोधी पक्ष पर प्रहार किया ओैर अपने हक हासिल किए? क्या इसलिए कि यह दिन उनकी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उपलब्धियों का दिन रहा है? लेकिन ऐसे तो कई दिवस मनाए जाते हेैं। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, इत्यादिण्ण्ण्ण्ण्ण् लंबी सूची है। ये तो रिचुअल मात्र बनकर रह गए हैं। तो क्या हम रिचुअल्स की फेहरिस्त में महिला दिवस के रूप में एक और रिचुअल जोड़ने भर जा रहे हैं?
ऐसी बात नहीं। हम महिला दिवस इसलिए मनाते हैं कि उन असंख्य कुबाZनियों की सार्थकता सिद्ध हो सके, उनका विस्तार हो सके और सबसे बड़ी बात हम आत्मावलोकन कर सकें। आज हम उन लोगों में भी जागृति लाते हैं जो स्त्री, संघशZ की परिधि के बाहर हैं। कि स्त्री की मुक्ति के क्या मायने हैं? इसके साथ ही, जिन लोगों में यह बोध होता है लेकिन जो नििश्क्रय से हो जाते हैं अथवा भटकाव के षिकार हो जाते हैं उनके बोध को जगाने के लिए अथवा उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए भी यह दिवस उचित अवसर प्रदान करता है। तो आईए, आज के दिन हम संकल्प लें कि स्त्री-चेतना के बीज हम जन-जन तक बोएंगे और इस दुनियां से सभी प्रकार के ‘ाोशणों व दमनों का नामोनिषान मिटाकर एक समतावादी समाज बनाएंगे।
हमें प्राय: सुनने को मिला है कि थ्योरी के लिए हम पिष्चम की ओर ताकते हैं। वहा¡ की थ्योरी के माध्यम से हम अपने यहा¡ की सामाजिक संरचनाओं को समझने की कोषिष करते हैं। खासकर मुक्तिकामी परियोजनाओं के आलोचक इन तकोZं के आधार पर पूरे-के-पूरे चिंतन को खारिज करते हैं।
गौरतलब है, विचारों को इस भा¡ति `पिष्चमी´ और `पूरबी´ या `प्राच्य´ के अलग अलग चौखटों में देखने की यह सोच वास्तव में पिष्चमी सोच है। इसे हम प्राच्यवाद या ओरियन्टलिज्म के नाम से जानते हेैं। प्राचीन काल से मानव-समुदायों का एक जगह से दूसरे जगह आना-जाना और इस क्रम में विचारों व संस्कृतियों का आदान-प्रदान होता रहा है। कुछ भी ‘ाुध्द `पिष्चमी´ या ‘ाुध्द `पुरबी´ नहीं। सब कुछ संकर (भ्लइतपक ) है, जैसा कि भाभा ने कहा हैं।
खासकर, मनुश्य की मुक्ति से ताल्लुक रखने वाली कोई भी परियोजना किसी चौखटे में नही कैद की जा सकती। नारीवाद भी एक मुक्तिकामी परियोजना है। यदि हमारे यहा¡ विद्यमान पितृसत्ता की संरचनाओं को समझने में कोई नारीवादी थ्योरी मददगार साबित होती है तो हम उसे गले लगाने से नहीं हिचकेंगे। हम यह नहीं देखने में लग जाए¡गे कि वह थ्योरी पिष्चमी है या पूरबी। मामला प्रासंगिकता और अर्थसत्ता का है। जो लोग आ¡ख मू¡दकर ऐसा करते हैं दरअसल वे यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि सामाजिक संरचनाओं की कार्य पद्धति पर से अज्ञान रूपी धुंध छ¡टे।
जहा¡ तक भारत में उसमें भी खासकर हिंदी में नारीवादी िंचंतन की बात है तो हमे साहित्यकारों द्वारा अनुभव किए गए सतही उच्छावासों के ढे़रों गप्प-षप्प देखने को मिलते हैं और नारीवादी चिंतन की इसी प्राक-अवस्था को स्त्री-विमषZ या चिंतन मानकर आत्मतुश्ट नारीवादियों की लंबी फेहरिस्त बनायी जा सकती है। मैनेजर पांडेय जैसे आलोचक महादेवी वर्मा की `श्रृंखला की किड़या¡´ को सिमोन द बोउआर के दि सेकेंड सेक्स के बरअक्स रखकर देखते है। जबकि `श्रृंखला की किड़या¡´ एक संवेदनषील साहित्यकार व्दारा व्यक्त की गई सहज हृदयोद्गार है। कोई लेखन या कार्य चिंतन थ्योरी का स्तर तभी प्राप्त कर पाता है जब उसकी संरचना दाषZनिक हो यानी जिसमें तत्वमीमंासा, ज्ञानमीमांसा और मूल्यमीमांसा का व्यवस्थित उपयोग हुआ है। यही वजह है कि सिमोन का `दि सेकेंड सेक्स´ एक डंहीनउ वचमे हेै और मजबूत थ्योरिरिकल ट्रीटाईज भी।
अंतरराश्ट्रीय महिला दिवस इतिहास :-
अनुवाद : सुधीर अनुवाद विभाग महत्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय
हमें जो चीज आसानी से मिल जाती है उसे हम उतने ही हल्के लेते हैं। जनतंत्र व मताधिकार इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। ब्रिटिष उपनिवेषवाद से मुक्ति के साथ ही हमें जनतंत्र, इससे जुड़े मूल्य और सार्वभौम मताधिकार अपने-आप मिल गए यानी इनके लिए हमें राजषाही या निरंकुष सत्ता से वैसा संघशZ नहीं करना पड़ा जैसा यूरोप या अन्य जगहों पर। इसका मतलब यह नहीं कि हमारा समाज ज्यादा उदार रहा है। दरअसल अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ की लड़ाई जिस धरातल पर लड़ी गयी उस धरातल के अवयव ही जनतंत्र व उसके मूल्यों से निर्मित थे। और इन्हें हासिल करने के लिए यूरोप में असंख्य कुबाZनिया¡ दी गयीं। आज भी दुनिया भर में इसके लिए संघशZ जारी है।
इस संघशZ में महिलाओं की भागेदारी अत्यंत महत्वपूर्ण, बल्कि निर्णायक रही। अंतर्राश्ट्रीय महिला दिवस महिलाओं की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक उपलब्धियों का दिवस है। 8 मार्च 1908 के दिन 15000 स्त्रिया¡ न्यूयार्क की सड़को पर उतर पड़ी। उनकी मा¡गे थीं-काम के घंटे कम करो, मजदूरी बढ़ाओ और बोट का अधिकार दो। 28 फरवरी 1909 के दिन संयुक्त राज्य अमेरिका की स्त्री समाजवादियों ने कामगार स्त्रियों के इन्हीं हकों के लिए देष भर में मीटिंग, धरने और प्रदषZन आयोजित किए। यह पहला महिला दिवस था। `महिला दिवस´ मनाया जाता रहा। 1931 तक फरवरी के अंतिम रविवार के दिन 1910 में कोपेनहेगेन (डेनमार्क) में समाजवादियों के सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसमें जर्मनी की समाजवादी चितंक और क्लारा जेटकिन नें अंतरराश्ट्रीय श्रमिक महिला दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा। 19 मार्च का दिन यू¡ ही नहीं चुना गया था, दरअसल यही वह दिन था जब जनोन्मुखी घोशाणायें हुइ, उनमें से एक था स्त्रियों के मताधिकार यह बात अलग है कि उसने इन घोशनाओं का खुद पालन नही किया। रूस में स्त्रियों ने प्रथम विष्वयुध्द के खिलाफ ‘ाांन्ति के मोर्चे के रूप में पहला अंतराश्ट्रीय महिला दिवस 1913 के फरवरी महिने के अंतिम रविवार को मनाया।
इसी केे एक साल बाद यूरोप में अन्य जगहों पर भी युध्द के खिलाफ आठ मार्च को महिलायें सड़को पर उतर पड़ी। लगभग दो लाख रूसी सैनियों की बलि के विरोध में अपना विरोध दर्ज कराने के लिए पुन: 1917 में फरवरी के अंतिम रविवार के दिन प्रदषZन किया। दरअसल भूख, ठंड और युध्द की विभीिशका से त्रस्त श्रमिक और कृशक महिलाओं का ध्ौर्य जवाब दे गया और वे `रोटी और ‘ाान्ति´ का नारा लगाती हुई हड़ताल पर उतर आयी। हाला¡कि उस वक्त सक्रिय राजनीतिक नेताओं ने इसे समयोचित नहीं माना लेेकिन स्त्रियों ने अपना पैर पीछे नहीं किया। जूलीयन कैलैंडर के अनुसार वह दिन 28 फरवरी था लेकिन गि्रगोरियन कैलेैंडर के अनुसार अन्य जगहों के लिए 8 मार्च था। 1917 का यह महिला दिवस इतिहास का वह क्षण था, जो पूरी दुनिया को दस दिनों तक हिला देनी वाली क्रांति के लिए निर्णायक साबित हुआ। तब से 8 मार्च का दिन अंतरराश्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा और प्रत्येक 8 मार्च महिलाओं के समाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक आधिकारों के संघशZ तथा स्त्री मुक्ति के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धियों का दिवस बन गया। कुछ उल्लेखनीय महिला दिवस तिथिया¡ निम्न हैं।
1) आठ मार्च 1935 : स्पेनिष औरतों ने फासिज्म के विरोध में प्रदषZन किया क्योंकि जर्मनी में उस समय हिटलर स्त्रियों को युध्द के लिए अधिक बच्चे पैदा करने के लिए उकसा रहा था। 1936 में स्पेन की महिलाओं ने जनरल फ्रेंको के अत्याचारी दमनकारी ‘ाासन के विरोध में जबरदस्त प्रदषZन किया।
2) आठ मार्च 1943 : इटली में मुसोलिनी के तानाषाही ‘ाासन के खिलाफ महिलाओं ने आवाज उठाई।
3) आठ मार्च 1945 : पेरिस में वीमेंस इंटरनेषनल डेमोक्रेटिक फेडरेषन की स्थापना पर सभी देषों की स्त्रियों व्दारा महिला आंदोलन को विष्व स्तर पर संगठित रूप में चलाने का निष्चय किया गया।
4) आठ मार्च 1974 : वियतनाम में अमेरिकन साम्राज्यवाद के खूनी आक्रमणकारी हमलों के विरोध का औरतों ने जमकर विरोध किया।
5) आठ मार्च 1975 : संयुक्त राश्ट्र महासभा ने अंतरराश्ट्र्रीय महिला वशZ घोिशत किया।
6) इरान में चादोर (गुलामी व्यवस्था की निषानी) के विरोध में महिलाओं ने मोर्चा निकाला।
7) आठ मार्च 1980 : भारत की खेतिहर महिलाओं तक ने 16 वशीZय मथुरा नाम की लड़की के साथ बलत्कार की दोशी पुलिस को माफ करने के विरोध में सुप्रीम कोर्ट तक आवाज उठाई। इसके कारण भारत में पहली बार बलत्कार संबंधी कानून में बदलाव लाना पड़ा।
8) आठ मार्च 1987 : महाराश्ट्र में गर्भजल परीक्षण के विरोध में आंदोलन किया गया। परिणामत: महाराश्ट्रª में इस परिक्षण पर पाबंदी लगा दी।
9) आठ मार्च 1988 : भारत भर की महिला संगठनों ने सती प्रथा के विरोध में जोरदार आंदोलन किया परिणामत: सती प्रथा के लिए नये व कड़े कानून बनाने पड़े।
सीमोन द बुवा :-
दुनिया की आधी आबादी को उनके अधिकरों, उनके हकों के बारे में सजग करने वाली, सेकन्ड सेक्स की रचयिता सीमोन द बुवा की जन्म सदी पर हम उनकी पुस्तक सेकन्ड सेक्स के अनुवाद स्त्री उपेक्षिता के कुछ अंस प्रस्तुत कर रहे हैं।
1:- आत्ममुग्धा स्त्री इतना अधिक अपने को देखती है कि वह दूसरों का कुछ भी देख नहीं सकती। वह दूसरों में केवल उतना ही देखती है जितना कि वह उनमें अपने जैसा पाती है।
2:- स्त्री स्वभावत: आत्ममुग्धा होती है। पुरूशों की दृिश्ट में स्वीकृत होने के लिए वह सुंदर दिखता चाहती है। उसकी मां और बड़ी बहनों ने षुरू से ही उसके मन में एक सुंदर घोंसले की जरूरत पैदा कर दी है। किन्हीं दूसरे रास्तों से स्वतंत्रता मिल जाने पर भी वह अपनी इन इच्छाओं को छोड़ना नहीं चाहती। जिस हद तक वह पुरूश की दुनिया में असुरक्षित महसूस करती है, उसी हद तक वह इन जरूरतों को, जिनका प्रतीकात्मक अर्थ हुआ आंतरिक संरक्षण, अपने आपमें बनाए रखती है।
3:- एक स्त्री, जो जीना चाहती है और जिसने अपनी हर इच्छा तथा कामना को दफन नहीं कर दिया है, नििस्क्रय उदासीनता के बदले जोखिम लेना अधिक पसंद करेगी। उसे एक पुरूश की तुलना में अधिक प्र्रतिकूल और चुनौतीपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है। समाज स्त्री की स्वतंत्रता की इच्छा को सहजता से स्वीकार नहीं करता।
4:- स्त्री जब खुले रूप से प्रस्ताव रखती है तो पुरूश खिसक जाता है, क्योंकि वह जीतने की हवस रखता है। स्त्री अपने आपको षिकार बनाकर ही कुछ पा सकती है। उसे नििस्क्रय वस्तु बनना पड़ता है। जैसे वह केवल एक समर्पित प्रत्याषा-भर हो। इसलिए जब पुरूश उसकी पहल को ठुकराता है तो वह बड़ी अपमानित होती है। पुरूश जब हारता है तो वह यही समझता है कि अपनी एक कोषिष में वह नाकामयाब हुआ।
5:- कुछ सुविधाएं ऐसी भी हैं जो औरत को अपनी हीन अवस्था के ही कारण मिल जाती हैं। चूंकि षुरू से ही पुरूश की अपेक्षा उसकी स्थिति कमजोर है, इसलिए वह किसी भी घटना के लिए अपने आपको जिम्मेदार नहीं ठहराती। अपने कृत्यों के सामाजिक औचित्य का प्रतिपादन वह नहीं करती। एक सभ्य पुरूश स्त्री से कोमल और उचित व्यवहार करना अपना फर्ज समझता है और औरत की स्थितिग्रस्तता स्वीकार करता है। वह मूल्य-बोध, दायित्व और करूणा का बंधन अनिवार्यत: स्वीकार कर लेता है। अपनी इस स्वाभाविक कमजोरी के कारण प्राय: पुरूश उन औरतों का षिकार हो जाते हैं जो अपनी षोषक ओैर पराजीवी प्रवृत्ति के कारण उनकी कमजोरियों का पूरा फायदा उठाती हैं।
6:- स्त्रियां पांडित्य के बोझ और अधिकाधिक सत्ता के प्रति सम्मान भाव से प्राय: आक्रांत रहती हैं। उनके विचार केवल किताबी होेने के कारण संकुचित होते हैं, इसीलिए एक ईमानदार छात्रा की भी आलोचनात्मक क्षमता ओैर बुिध्द का-हास होता है। अधिकारियों को प्रसन्न करने की अत्याधिक चाह उसके मनोभावों को तनावग्रस्त बनाए रखती है।
7:- स्त्री-स्वाधीनता का अर्थ हुआ कि स्त्री पुरूश से जिस पारम्परिक सम्बंध को निभा रही है, उससे मुक्त हो । हम स्त्री-पुरूश के बीच घटने वाले सम्बंध को नहीं नकार रहे। उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होगा और वह पुरूष की होकर भी जिएगी। दोनों अपनी-अपनी स्वायत्तता में दूसरे का अनन्न रूप भी देखेंगे। सम्बंधों की पारस्परिकता और अन्योन्याश्रितता से, चाह, अधिकार, प्रेम ओैर आमोद-प्रमोद के अर्थ समाप्त नहीं हो जाएंगे और नहीं समाप्त होंगे दो संवगोZं के बीच के षब्द देना, प्राप्त करना, मिलन होना, बल्कि दासत्व जब समाप्त होगा ओैर वह भी आधी मानवता का, तब व्यवस्था का यह सारा ढोंग समाप्त हो जाएगा। स्त्री-पुरूश के बीच का विभेद वास्तव में एक महत्वपूर्ण नई सार्थकता को अभिव्यक्त करेगा। माक्र्स कहते हैं: ``स्त्री और पुरूश का आपसी सम्बंध सबसे अधिक प्राकृतिक है। विकास के दौरान हमें यह देखना है कि किस हद तक मानव सही मामले में मानव बना, यानी प्राकृतिक अवस्था से बढ़ते हुए मानवीय स्वभाव को उसने पाया?´´
दासी पुन्ना एक जातक कथा :-
( स्त्री और पुरूश के बीच विद्यमान असमानता का तर्क के आधार पर प्रतिकार करते हुए तो हम बुध्द के षिश्य आनंद को भी पाते हैं। जातक कथाओं में जाति-व्यवस्था ओैर स्त्री-पुरूश असमानता की बुनियाद पर ताकिZक प्रहार के कई उदाहरण मौजूद हैं। यहा¡ जातक कथाओं में से एक ऐसी ही कहानी का प्रकाषन किया जा रहा है। )
पुन्ना एक दासी थी। केैसा भी मौसम हो, वह हर सुबह नदी से अपने मालिक के घर के लिए पानी लाने जाती। उसने पाया कि एक बा्रम्हण भी रोज सुबह नदी में स्नान करने आता हैं, भले ही ठंड का मौसम क्यों न हो । ठंड से थरथराते स्नान करने वाले उस ब्राम्हण से उसने कहा:
जाडे़ के मौसम में ठंड के बावजूद
मुझे यहा¡ सुबह-सुबह पानी लाने आना पड़ता है,
मैं तो मालकिन की गाली और उसके ताने की डर से ऐसा करती
हू¡ लेकिन हे ब्राम्हण, तुम्हें किस का डर है? तुम
क्यों इतनी ठंड में का¡पते हुए स्नान के लिए विवष हो?
ब्राम्हण ने पुन्ना को जवाब दिया कि वह ऐसा अपना पाप धोने और पवित्र होने (पुण्य बटोरने) के लिए करता है। इस पर पुन्ना ने जवाब दिया:
तुम्हे किसने कह दिया कि जल से तुम्हारे बुरे कर्म या पाप धुल जाए¡गे? तब तो मछलिया¡, कछुए और जल में रहने, तैरने वाले सभी जीवों को सीधे स्वर्ग ही मिल जाना चाहिए! (लेकिन) यदि धुलना ही होगा तो तुम्हारे पुण्य भी धुल जाएंगे।
गार्गी के प्रष्न :-
याज्ञवल्क्य अपने समय के प्रसिद्ध दाषZनिक थे । उन्होंने एक दिन अन्य विद्वानों को ‘ाास्त्रार्थ के लिए चुनौती दिया। उद्वेष्य यह पता करना था कि उस समय सबसे बड़ा विद्वान कौन है? इसमें ‘ाामिल होने के लिए छह लोग तैयार हुए। इनमें गार्गी को छोड़ सभी पुरूश थे। ‘ाास्त्रार्थ ‘ाुरू होने के बाद धीरे धीरे सब विद्वान चुप होते गए । याज्ञवल्क्य की विद्वता के समक्ष वे सभी झुक गए। अंत में गार्गी की बारी आई। गार्गी एक बड़े दाषZनिक की पुत्री थी वह अच्छी कुषलता का परिचय देते हुए याज्ञवल्क्य से बहस करने लगी। धीरे-धीरे उसके प्रष्न कठिन होते गए ‘ाास्त्रार्थ ने महत्वपूर्ण मोड़ ले लिया और जब गार्गी ने तीर के सामन दो प्रष्नों से याज्ञवल्क्य पर प्रहार किया तो याज्ञवल्क्य जबाब देने के बजाए ब्रह्माणवादी पुरूश की भूमिका में आ गए। उन्होंने गार्गी को धमकी दी : गार्गी बहस को इतना न खीचों कि तुम्हारा सर फट जाए। इसके बाद गार्गी को चुप हो जाना पड़ा। गौरमतलब है कि सभी पुरूश प्रतिभागी अपने आप चुप हो गए थे, कारण वो याज्ञवल्क्य की विद्वता का सामना नही कर पाए थे। जबकि गार्गी ने याज्ञवल्क्य को निरूत्तर सा कर दिया था। इसलिए उसे चुप करने के लिए याज्ञवल्क्य को धमकी देनी पड़ी। यहॉ यह बात गौर करने लायक है कि निचले दर्जे के पुरूशों के अवाज को दबाने के लिए जहॉ हिंसा के सहारे की जरूरत होती थी, वही स्त्रियों को चुप करने में हिंसा की धमकी काफी थी।
इस कहानी में बाद में जोड़े गए अंष में इस बात का जिक्र है कि गार्गी पहले तो चुप हो गई। लेकिन याज्ञव्ल्क्य की सर्वश्रेश्ठता को स्वीकार करने के लिए गार्गी ने पुन: बातचीत में हिस्सा लिया और वह अब याज्ञवल्क्य के उत्तरों से संतुश्ठ थी। इस तरह गार्गी ने याज्ञवल्क्य को सर्वश्रेश्ठ दाषZनिक मान लिया। कहानी जिस तरह समाप्त होती है वह अत्यंत दिलचस्प है। वर्चस्व प्राप्त विचार धारा को प्रभावी या पुनरोत्पादित होने के लिए स्त्री की सहमति आवष्यक हो जाती है।
दलित नारीवादी लेखिका कुमुद पावड़े का कहना है कि गाार्गी के चुनौतिपूर्ण प्रष्नों की प्रतिक्रिया ने ही सभी स्त्रीयों को ‘ाास्त्रीय ज्ञान के दायरे से बाहर रखा। परिणाम यह हुआ कि उनके अपने प्रष्न उनके पुरूशों की धारणाअों में गुम हो गये।
बहलोन के लिए
शशिभूषण सिंह
जैसे अभी अभी पड़ी हो मार
या किसी ने लगाई हो कड़ी फटकार
सूख कर ऑसुअों की बूंदे गालों पर
जर्द हो आयी हो जैसे
किसी मासूम का षिषु मुख
बहलोन ,
कुछ ऐसा ही लगता रहा है मुझे
जब जब करती हो अपना
हाले दिल बयॉ ।
बदलता है क्रम बातों का
जैसे कोई बाल-सखा
मिल गया हो बरसों बाद
तुम साथ बैठी बतियाने लगती हो
करती हो चर्चा उपलब्धियोंं की
एक मासूम खिल-खिल हंसी
छलक आया हो जैसे
किसी षिषुमुख पर अनायास
बहालोन,
कुछ ऐसा ही लगता रहा है मुझे
जब-जब रखती हो अपने
सपनों के सामने ।
क्या हुआ जो जीती हो
अनाथों से जीवन
कुदाहतु के निपट गंवार माहौल में
झारखंड के वन-ग्राम में
क्या हुआ जो कुछ और नहीं है
तुम्हारे पास
सिवाय चंद किताबों
और सपनोंें के
तुम्हारे होठों की कंपन
कंपा देती है क्षण भर को
किंतु दूसरे ही क्षण
करवट लेते
तुम्हारे सीने में सोये सपने
यकीन दिला जाते हैं -
``सत्य की बेदी बड़ी सख्त है
किंतु सक्षम नहीं
कि तुम्हारा सीना चाक कर सके
जहॉ चलते हैं तुम्हारे सपने
मजबूत इरादों के बीच। ´´
चाईबासा (झारखंड) के समीप एक छोटे से गॉव
(कुदाहत) की ग्यारह वशीZया अनाथ आदिवासी बच्ची।
स्वतंत्रता :-
अज्ञात
तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो ,
तुममे कुछ ऐसा है
जो मेरे मन के गहराइयों को छू लेता है
तुम सृजनषील हो, संवेदनषील हो
तुममें एक सुंदर भविश्य की
जमीन दिखाई पड़ती है,
तुम्हारी कलम तुम्हारी रचनायें
जीवन्त हैं तुम्हारी ऑखों की तरह
तुम जो सोचते हो, रचते हो
जैसे सपने देखा करते हो तुम
वैसे ही मैं भी सोचा, रचा
और देखा करती हूं।
जीवन के प्रति तुम्हारा दृिश्टकोण
मेरे बहुत करीब है
करीब-करीब मेरे भी वही लक्ष्य हैें
जो तुम्हारे हैं
और कुछ अनुचित न होगा
अगर मैं कहूं कि इन तमाम बातों के कारण
मैं तुमसे प्रेम भी करती हूं।
फिर भी मेरे दोस्त
तुमसे भी ज्यादा
एक चीज प्यारी है मुझे
मेरी स्त्रतंत्रता,
मेरा स्वतंत्र चिंतन
जो तुमसे प्रभावित तो है
पर संचालित नहीं
जो तुम्हारा साहचर्य चाहती है
पर प्रभ्ुत्व नहीं।
तुम्हें और अपनी आजादी को
एक साथ चाहती हूं मैं
दोंनों में से किसी एक का भी खोना
असहय है मेरे लिए
लेकिन फिर भी
अगर तुम अड़ ही गए
अपने प्रभुता की खातिर
तो मैं चुन लूंगी
स्वतंत्रता।।
सीलमपुर की लड़कियां
चेतन क्रांति
सीलमपुर की लड़किया `विटी´ हो गयीं
लेकिन इससे पहले वे बूढ़ी हुई थीं
जन्म से लेकर पंद्रह साल की उम्र तक
उन्होंने सारा परिश्रम बूढ़ा होने के लिए किया
पद्रह साला बुढ़ापा
जिसके सामने साठ साला बुढ़ापे की वासना
विनम्र होकर झुक जाती थी
और जुग-जुग जियो का जाप करने लगती थी
खुर्राट बुढ़िया
पचपन साल की उम्र में आकर लेिस्बयन हुई!
यह डाक्टर मनमोहन सिंह और एम टीवी के उदय से पहले की बात है
तब उन लड़कियों के लिए न देष देष था
न काल-काल
ये दोनों
दो कूल्हे थे
दो गाल
और छातियां
बदन और वक्त की हर हरकत
यहां आकर मांस के
एक लोथडे़ में बदल जाती थी
और बंदर के बच्चे की तरह
एक तरफ लटक जाती थी
यह तब की बात है जब हौजखास से दिलषाद
गार्डन जाने वाली
बस का कंडक्टर
सीलमपुर में आकर रेजगारी गिनने लगता था।
फिर वक्त ने करवट बदली
सुिस्मता सेन मिस वल्र्ड बनी
और ऐश्वर्य राय मिस यूनीवर्स
और अंजलि कपूर जो पेषे से वकील थी
किसी पत्रिका में अपने अध्र्दनग्न चित्र छपने को दे आई
और सीलमपुर
‘ाहादरा की बेटियों के गालों
कूल्हों और छातियों पर लटके मांस के लोथडे़
सप्राण हो उठे वे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे
पंद्रह साला इन लड़कियों की
हजार साला पोपली आत्माएं
अनजाने कंपनों
अनजानी आवाजों और अनजानी तस्वीरों से भर उठीं
और मेरी ये बेडोैल पीठवाली बहनें
बुजुर्ग वासना की विनम्रता से
घर की दीवारों से और गलियों-चोैबारों से
एक साथ तटस्थ हो गई
जहां उनसे मुस्कुराने की उम्मीद थी
वहां वे स्तब्ध होने लगी
जहां उनसे मेहनत की उम्मीद थी
वहां वे यातना कमाने लगी
जहां उनसे बोलने की उम्मीद थी
वहां से सिर्फ आकुलाने लगी।
उनके मन के भीतर दरअसल
एक कुतुबमीनार निर्माणाधीन थी
उनके और उनके माहौल के बीच
एक सममतल मैदान निकल रहा था
जहां चौबीसो घंटे खटखट हुआ करती थी।
यह उन दिनों की बात है
जब अनिवासी भारतीयों ने
अपनी गोरी प्रेमिकाओं के उपर
हिंदुस्तानी दुलहिनों को तरजीह देना ‘ाुरू किया था।
और बड़े-बड़े नौकरषाहों और नेताओं की बेटियों ने
अंग्रेजी पत्रकारोें को चुपके से बताया था
कि एक दिन वे किसी अनिवासी के साथ उड़ जाएंगी
क्योंकि कैरियर के लिए यह जरूरी था
कैरियर जो आजादी था
उन्हीं दिनोंं यह हुआ कि
सीलमपुर के जो लड़के
प्रिया सिनेमा पर खडे़
युध्द की प्रतिक्षा कर रह थे
वहां की सौन्दर्यातीत उदासीनता से
बिना लड़े ही पस्त हो गए
चौराहों पर लगी मूर्तियों की तरह
समय उन्हें भीतर से चाट गया
और वे वापसी की बसों में चढ़ लिये
उनके चेहरे एक खूंखार तेज से तप रहे थे
वे साकार चाकू थे वे साकार षिष्न थे
सीलमपुर उन्हें जज्ब नहींं कर पाएगा
वे सोचते आ रहे थे।
उन्हें उन मीनारों के बारे में पता नहीं था
जो लड़कियों की टांगों में
तराष दी गयी थी
ओैर उन मैदान के बारे में
जो उन लड़कियों
और उनके समय के बीच
जाने कहां से निकल आया था
इसलिए जब उनका पांव
उस जमीन पर पड़़ा
जिसे उनका स्पशZ पाते ही
धसक जाना चाहिए था
वे ठगे से रह गए
और लड़कियां हंस रही थी
वे जाने कहां की बस का इंतजार कर रही थी
और पता नहीं लगने दे रही थी
कि वे इंतजार कर रही हैं।
वाजपेयी `जी´ की बानगी :-
वाजपेयी की कविता की बानगी देखनी हो तो नसबंदी पर लिखी उनकी कविता ´ आओ मर्दों, नामर्द बनो´, पढ़नी चाहिए। आपातकाल में इिन्दरा गांधी ने नसबंदी का अभियान चलाया। इससे वाजपेयी जी का पुरूषार्थ जाग उठा। मर्दानगी पर इस हमले के विरोध में और चूल्हे-चौके से स्त्रियों को छुटकारा दिलाये जाने की निन्दा करते हुए उन्होंने लिखा -
मर्दों ने काम बिगाड़ा है,
मर्दों को गया पछाड़ा है
झगड़े-फसाद की जड़ सारे
जड़ से ही गया उखाड़ा है
मर्दों की तूती बन्द हुई
औरत का बजा नगाड़ा है
गमीZ छोड़ो अब सर्द बनो।
आओ मर्दों, नामर्द बनों।
नसबंदी से `पौरूश विहीनता´ हो जाती है ? पौरूश की रक्षा में व्यंग्य की छींटाकषी स्त्री समाज पर की गयी नसबंदी पर दी गयी। अत: पुरूश को तो अब चूल्हा-चक्की संभालना पड़ेगा। अटल जी इससे बडे़ आहत होते हैं- `चौकड़ी भूल, चौका देखो, चूल्हा फूकों मोैका देखो´।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के लेख `संस्कृति के सवाल´ से
नारी मुक्ति आंदोलन में दलित महिलाएं :- अंजली देशपांडे
भारत में यद्यपि लम्बे समय से महिलाओं पर छोटे छोटे आंदोलन और अभियान चलते रहे हैं पर 1980 के दषक में इसमें जो प्रखरता देखने को मिली वह कम ही दिखायी देती है। उस समय अमेरिका और यूरोप में नारीवादी आंदोलन कुछ निढाल हो चुका था मगर भारत में मानवाधिकारों और मजदूर संघों से जुड़ी अनेकानेक महिलाआंें ने बलात्कार से संबंधित कानूनों के खिलाफ साफ साफ और उंची आवाज़ मेें जो विरोध प्रकट किया वह कभी भी पहले देखने को नहीं मिला था। कुछ मायनों में 1980 में हुए इस आंदोलन को हम आधुनिक नारीवादी आंदोलन की षुरूवात कह सकते हैं।
नारीवादी, बलात्कार को राजनैतिक हथियार मानते हैं और मानते हैं कि पुरूष स्त्री पर अपनी सत्ता जताने के लिए स्त्री से, और ताकतवर पुरूश अपने से कमजोर तबके के पुरूश पर अपनी सत्ता जताने के लिए उसके परिवार की स्त्रियों से बलात्कार करते हैं। कुल मिलाकर पुरूश स्त्री को अपनी जायदाद समझते हैं और `दूसरे पुरूश´ की `जायदाद´ छीनने का यह रास्ता वे अिख्तयार करते हैं। भारतीय समाज का सच यह है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों का छुआ तो सवर्ण खा नहीं सकते मगर ``अछूत´´ स्त्रियों के साथ बलात्कार को वे अपना अधिकार समझते हैं। इस सच के बावजूद बलात्कार कानून के खिलाफ विरोध प्रदषZन से षुरू हुए नारी मुक्ति आंदोलन के इस नये दौर में न दलित महिलाओं को और न ही उनकी िंचंताओं को विषेश स्थान मिला। फिर भी उस चर्चा कें कथित निचली जातियों की स्त्रियों से सवणेंा व्दारा बलात्कार की बात उठी तो थी मगर बाद में अन्य किसी भी मुद्दे पर दलितों की चिंताएं और अपेक्षाएं अमूमन नारी मुक्ति आंदोलन के एजेंडा से गा़यब ही रहीं ।
जन मुद्दों पर नारीवादियों ने बडे़-बडे़ अभियान छेड़े उनकी पड़ताल भी जातिवाद की उनकी खोखली समझ, बल्कि उनके पूरे अज्ञान का पर्दा फाष कर देती है। एक था 1980 के दषक के अन्त में सती विरोधी अभियान। नारीवादियेां ने इस परिप्रेक्ष्य में इस सच को पूरी तरह अनदेखा कर दिया कि दलितों में कोई सती नहीं करायी जाती, उनमें विधवा विवाह की छूट और परंपरा है (वह औरत को कितने अधिकार देता है यह बहस अलग है) और सती प्रथा को पूरे भारत की विधवाओं की स्थिति का प्रतीक करार नहीं दिया जा सकता।
फिर भी सती प्रथा का विरोध आवष्यक था। उस समय हिंदुत्व के पुनरूत्थान की कोषिषें जो़रों पर थी। ऐसे में जनवादी महिला समिति ने भी साफ षब्दों में दलित संगठनों को साथ लेने से इंकार कर दिया था। जबकि हिंदुत्व के पुनरूत्थान की कोषिष का सीधा और सबसे गहरा असर दलितों पर ही पड़ना था और इसके विरोध से दलितों के हित जुड़े थे। उल्लेखनीय है कि पार्टी समर्थित महिला संगठनों में माकपा समर्थित जनवादी महिला समिति और भाकपा समर्थित भारतीय महिला महासंघ दोनों ने दलितों को साथ लेने से इन्कार कर दिया था मगर पार्टी के दायरे से बाहर स्वायत्त महिला संगठनों ने दलितों को साथ लेने के प्रस्ताव का समर्थन किया था।
इसके बावजूद गैर-पार्टी स्वायत्त महिला संगठनों में दलित मुद्दों को जगह कभी नहीं मिली । न ही दलित महिला नेताओं को वह स्थान मिला जो उनका हक है। आज संसद में महिला आरक्षण बिल अधर में लटका पड़ा है मगर कोई नारीवादी यह कहती सुनायी नहीं देती कि विधायिका में महिला आरक्षण की मांग 1942 में एक दलित, सुलोचना डोंगरे ने उठायी थी। नारीवादी षायद यह तथ्य जानते ही नहीं। एक और ताज़ा मिसाल है। पिछले साल कलकत्ता में हुआ स्वायत्त महिला संगठनों का राश्ट्रीय सम्मेलन। उस समय मुम्बई में बार में नाचने वाली लड़कियों के पेषे को अवैध घोिशत कर दिया था और मदिरालयों में लड़कियोंं को नाचने दिया जाये या नहीं इस पर मीडिया में भी खूब बहस चल रही थी।
नारी मुक्ति आंदोलन को कई कारणों से इस बहस में भागीदारी करने की ज़रूरत थी। एक, यह सीधे सीधे महिलाओं के एक ऐसे पेषे का सवाल था जिसपर समाज की कथित सभ्य भृकुटियां हमेषा तनी रहती हैं। यह सवाल भी महत्वपूर्ण था कि बार-बलाएं स्वेच्छा से यह काम कर रही थी या नहीं। दलित महिलाओं के लिए यह एक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा था। वजह यह थी कि कुछ दलित जातियां और आदिवासी महिलाएं यही काम करती हैं। महाराश्ट्र में सांगली की कोलाटी जाति (दलित) की महिलाएं बड़ी संख्या में बार-बालाएं थी। वे जब उक्त सम्मेलन में अपनी बात कहने पहुंची तो उनकी सुनी ही नहीं गयी। उन्हें मंच पर नचाया गया ओैर कुछ औरतों ने बड़े मर्दाना अन्दाज़ में उन पर पैसे भी फेंके। ऐसी असंवेदनषीलता नारी मुक्ति आंदोलन में देखने को मिले तो उसके बुनियादी फलसफे पर ही सवालिया निषान लग जाता है।
मंडाल आरक्षण के लागू होने के बाद ‘ाुरू हुए दलित-विरोधी अभियान में भी बहुत-सी महिला संगठनों, जिनमें आधुनिक नारीवाद का मार्ग प्रसस्त करने वाली `सहेली´ जैसे संगठन भी हैं, ने कोई स्टैन्ड ही नहीं लिया । यह स्पश्ट ही नहीं किया कि इस लड़ाई में वे किस तरफ हैं।
नारी मुक्ति आंदोलन के यह रूख लम्बी बहस की मांग करते हैं। जिस तरह पुरूश प्रधान समाज में अन्याय के खिलाफ हर तरह के आंदोलनों (मज़दूर, मानवाधिकार, आदि आंदोलनों) के भीतर महिलाओं को अलग से अपनी आवाज़ उठानी पड़ी हेै ‘ाायद उसी तरह दलित महिलाओं को भी अपने सारोकारों पर महिला आंदोलन के भीतर अलग से आवाज़ उठानी होगी। क्योंकि दलित महिला केवल सवर्ण और दलित पुरूषों की ही सतायी हुई नहीं है वे तो सजग और प्रबुध्द महिलाओं की भी सतायी हुई हैं।
सावित्री बाई फुले :-
वेद प्रकाश
उन्नीसवीं सदी विष्व इतिहास के महान लोगोंं, आंदोलनों और परिवर्तनों की जननी है। भारत में भी इसी दोैरान अनेकानेक ऐसे आंदोलनों और महान व्यक्तियों ने जन्म लिया जिन्होंने विदेशी सत्ता, जड़वत आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था को चुनौती दी। ‘ाूद्र समाज से प्रतिक्रियावादी, यथास्थितिवादी ताकतों को चुनोैती देने वालों में क्रांति सूर्य ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का नाम अग्रणी है, विशेष रूप से स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने के कायोZं को ज़मीनी लड़ाई बनाने में इनका योगदान अनुकरणीय है।
3 जनवरी 1831 को जन्मी बालिका सावित्री का ब्याह नौ वशZ की उम्र में 13 वशीZय ज्योतिबा फुले से कर दिया गया। ज्योतिबा फुले ने स्त्री षिक्षा को अमली जामा पहनाने के लिए सावित्री बाई को षिक्षित किया।
1 जनवरी 1848 में बुधवार पेठ, पुणे में दलित स्त्रियों के लिए पहला स्वैच्छिक प्रयास स्कूल खोला गया जिसमें 8 बालिकाएं आईं। इनमें से दो मुस्लिम, दो ब्राम्हण लड़कियां भी थीं। इसी तरह उन्होंने गांव-गांव में युवतियों और अस्पृष्यों के स्कूल खोले।
हम आज उस स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकते जिस स्थिति में उन्होंने ‘ाूद्रों और अछूतों के बीच षिक्षा की मषाल जलाई थी। धर्म और समाज के ठेकेदारों ने इन्हें जाति बाहर कर दिया। ब्राम्हणों ने इन पर गोबर फेंका, पत्थर बरसाए। पर यह विरोध समाज सुधार का रथचक्र न रोक सका। समाज, विषेश कर ‘ाूद्र और अछूत समाज में जागृति लानेे के लिए इन्होंने अथक प्रयास किया।
तत्कालीन समाज में बाल विधवाओं के साथ परिवार के मदोंZं व्दारा यौन संबंध बनाने के उपरांत गर्भवती हुई युवतियों को लोक लाज से बचने के लिए आत्महत्या करनी पड़ती थी। उन्हें सामाजिक जीवन से निर्वासित करके उनका मुंडन करके समाज से कट कर जीने को विवष किया जाता था।
सावित्री बाई फुले ने अपने घर में तथाकथित अवैध प्रसव के लिए सेन्टर खोल कर विधवा एवं बाल विधवाओें को जीवन जीने की राह दिखाई। वे सत्यषोधक समाज की सक्रिय कार्यकर्ता थी। उन्होंने पहला महिला मंडल बनाया, दलित-गैर दलित स्त्रियों को एक साथ बैठाया। विधवा मुंडन का विरोध किया और धर्म के पाखंड और कर्मकांड का विरोध किया। ज्योतिबा फुले के महापरिनिर्वाण के बाद उन्होंने अपने पति की चिता को मुखाग्नि दी। सावित्री बाई फुले ओजस्वी, तेजस्वी, निभीZंक, बहादुर नेता थीं। वे भारतीय महिला, समाज के महिला आंदोलन की प्रमुख रीढ़ ओैर आदषZ हैं।
आज का स्त्री मुक्ति आंदोलन अंतरराश्ट्रीय सीमाओं को पार करके विष्व बहनापे का दावा कर रहा है। परंतु भारत मेें दलित महिलाओं के साथ जातिगत हिंसा व मजदूर औरतों पर आर्थिक दबाव, आदिवासी, अल्पसंख्यक समुदायों की स्त्रियों के साथ घोर अत्याचार और सामाजिक भेदभाव बदस्तूर जारी है। उनका सामाजिक आर्थिक ‘ाोशण लगातार बढ़ रहा है। औरतों के साथ होने वाले पितृसत्तात्मक अन्याय के साथ-साथ वे जातीय व वर्गीय पूर्वाग्रहों की मार भी झेलती हैं। स्त्री मुक्ति आंदोलन और आम औरतों के बीच समझ, जानकारी, जाति और वर्ग की गहरी खाई है। इस कारण दलित पिछड़ी औरतें 10 मार्च को अपना दिन यानी भारतीय महिला दिवस मानती व मनाती हैं। महाराश्ट्र, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेष, हरियाणा में यह दिन अपना स्थान बना चुका है। 8 मार्च की ही भांति 10 मार्च भी समानांतर भारतीय महिला दिवस के रूप में ख्याति पा चुका है। सावित्री बाई फुले नििष्चत रूप से भारतीय महिला आंदोलन की प्रेरणा स्रोत हेैं।
25 मार्च 2008
17 मार्च 2008
कार्टून:-2
कार्टून की समाज में एक भूमिका है| कुछ रेखाचित्र आपको तस्वीर दिखाते है, आपके देश की, आपके समाज कि| बयां करते है सच्चाई की एक छवि, जो भले ही किसी अखबार में कम जगह घेरते हो पर लोगों के दिलो दिमाग में अपनी जगह जरूर बनाते है, उतनी जितनी कोई कविता, जितनी कोई कहानी| महत्मागांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र ओमप्रकाश कुशवाहा के कुछ कार्टून हम प्रकाशित कर रहे हैं|
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कार्टून की समाज में एक भूमिका है| कुछ रेखाचित्र आपको तस्वीर दिखाते है, आपके देश की, आपके समाज कि| बयां करते है सच्चाई की एक छवि, जो भले ही किसी अखबार में कम जगह घेरते हो पर लोगों के दिलो दिमाग में अपनी जगह जरूर बनाते है, उतनी जितनी कोई कविता, जितनी कोई कहानी| महत्मागांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र ओमप्रकाश कुशवाहा के कुछ कार्टून हम प्रकाशित कर रहे हैं|
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10 मार्च 2008
क्रांति की चेतना :-
सभी क्रांतिकारियों को निश्चित तौर पर मार्क्सवादी होना चाहिए, क्योंकि माक्सर्वाद मजदूर वर्ग की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है.
-जॉर्ज हब्बाश
फलस्तीनियों के बेवतन होने के 50 वें साल में उनके हकीम ने उन्हें अलविदा कह दिया. यह पूरी दुनिया के जनसंघर्षों, छापामार योद्धाओं और मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रांतिकारियों के लिए एक उदास कर देनेवाली खबर थी. यह हर तरह के शोषण के खात्मे और बराबरी का सपना देखनेवाले लोगों के लिए आंसुओं से भरी हुई खबर थी-आंसुओं, खून और पसीने से भरी हुई, जो जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम के जीवन का हिस्सा रहे. जॉर्ज हब्बाश नहीं रहे. 82 साल की उम्र में जब उन्होंने अपनी आंखें बंद कीं, उनके वतन के 40 लाख लोग-एक पूरा का पूरा देश-अपनी अनेक पीढियों के शोक, पीडा और अपराजेय लडाइयों के साथ अब भी निर्वासित, बेघरबार और बेजमीन बने हुए हैं. वे एक ऐसे देश के बाशिंदे हैं, जिसकी अपनी कोई जमीन नहीं रही. उनकी जमीन उनसे छीन कर एक दूसरे देश को दे दी गयी और वह दूसरा्व देश लगातार अपनी घेराबंदी उनके चारों ओर कसता जा रहा है.
हब्बाश 2 अगस्त, 1926 को लिड्डा में जन्मे थे. उनका परिवार एक यूनानी ऑर्थोडॉक्स ईसाई परिवार था. उनका परिवार व्यापार करता था और काफी संपन्न था. जब हब्बाश 10 वर्ष के थे, 1936 में विद्रोह और क्रांतिकारी संघर्ष से उनका पहला परिचय हुआ. यह महान फलस्तीनी विद्रोह के फूट पडने का दौर था. बाद में, अभी से लगभग 10 साल पहले एक इंटरव्यू के दौरान हब्बाश ने उन दिनों को याद किया. उन्होंने याद किया कि किस तरह फलस्तीनी राष्ट्रवादी आंदोलनकारी ब्रिटेन के खिलाफ बडे विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया करते थे. उन्होंने उन शिक्षकों को याद किया, जिन्होंने उन सबमें संघर्ष की भावना भरी थी और अपने छात्रों को अपनी मातृभूमि के लिए संघर्ष को प्रोत्साहित किया था. हब्बाश ने उन्हें भी याद किया था, जिन्होंने दुनिया के इस सबसे लंबे युद्ध में अपनी जमीन और अपने लोगों के लिए महान शहादतें दीं.
जॉर्ज हब्बाश उन्हीं शहादतों, उन्हीं संघर्षों, उन्हीं लडाइयों और मुक्ति के उन्हीं सपनों की उपज थे. 1948 में हब्बाश अपने परिवार के साथ एक शरणार्थी बन गये, जब इस्राइल की स्थापना की गयी और फलस्तीन में जायनिस्ट हमलावर घुस आये. लाखों फलस्तीनी अपने घरों से जबरन खदेड दिये गये. फलस्तीनियों के जेहन में यह घटना अल नकबा के नाम से याद है।
हब्बाश के परिवार को लेबनान में शरण लेनी पडी. वहां रहते हुए हब्बाश का नामांकन बेरूत स्थित अमेरिका विश्वविद्यालय में हो गया, जहां उन्होंने मेडिकल की पढाई की. एक बातचीत में हब्बाश ने तबके लेबनानी राष्ट्रपति डॉ बायर्ड डोडगे की बातों को याद किया है-वे हमसे कहते कि हमें अमेरिका के बारे में बताओ जो कि इंसाफ, आजादी और मानवतावादी उसूलों के लिए खडा है. लेकिन हम उनकी बातों में, जो वे अमेरिका के बारे में कह रहे होते और अमेरिका जो कर रहा होता-इस्राइल और यहूदीवाद का समर्थन-में विरोधाभास देखते.
हब्बाश ने 1951 में मेडिकल की अपनी पढाई पूरी की. उन्होंने कुछ समय तक प्रैक्टिस भी की. उन्होंने उन दिनों अपनी जन्मभूमि लिड्डा की यात्रा की, जब वह एक जायनिस्ट हत्यारे गिरोह के कब्जे में थी. शहर पर इस्राइली सुरक्षा बलों द्वारा चलाये जा रहे हगाना नामक गिरोह की मदद से शासन कर रहे उक्त जायनिस्ट गिरोह ने शहर को लगभग श्मशान में तबदील कर दिया था. शहर के 20 हजार बाशिंदों का सफाया कर दिया गया. अब हम इस घटना को लिड्डा डेथ मार्च्व के नाम से जानते हैं. इस्राइली इतिहासकारों के अनुसार इसमें सिर्फ 335 आदमी, औरतें और बच्चे मारे गये, जबकि अन्य स्रोत इससे कहीं अधिक की संख्या बताते हैं. इस घटना के पहले 426 लोगों की हत्या जायनिस्ट बलों ने कर दी थी. विस्थापित फलस्तीनी जॉर्डन में शरण ले रहे थे. हब्बाश जॉर्डन स्थित इन शरणार्थी शिविरों में डॉक्टर के रूप में काम कर रहे थे. यहां रोज उनका सामना निर्वासन के कठोर जीवन और इस्राइली क्रूरता से होता. धीरे-धीरे वे मिस्र के राष्ट्रपति कमाल अब्दुल नासिर के अखिल अरब राष्ट्रवाद्व के करीब आये.
1957 में उन्हें जॉर्डन छोडने पर मजबूर होना पडा, क्योंकि तत्कालीन सरकार ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी. इसके लगभग एक साल बाद, 1958 में अमेरिका विवि, बेरूत के पूर्व छात्रों को लेकर हब्बाश ने अरब नेशनलिस्ट मूवमेंट शुरू किया. जो कि अम्मान और जॉर्डन में सक्रिय था. उनकी कोशिश थी कि इस्राइल के विरुद्ध सारा अरब जगत एक हो जाये.
1967 में इस्राइल-अरब के बीच छह दिवसीय युद्ध हुआ, जिसने मध्यपूर्व के भावी इतिहास की दिशा तय की. इस युद्ध में अरबों की पराजय हुई और इस्राइल ने पूर्वी येरुशेलम, पश्चिमी तट और गाजा पट्टी पर कब्जा कर लिया.
इलाके में बढते इस्राइली प्रभाव, मध्यपूर्व में अमेरिकी हस्तक्षेप, इस्राइल को खुली अमेरिकी मदद और अरब जगत पर विभिन्न रूपों में जायनिस्ट हमलों ने हब्बाश के लिए यह साफ कर दिया कि शांतिपूर्ण और समझौतावादी संघर्षों से कुछ नहीं होनेवाला. उन्होंने फलस्तीन की मुक्ति के लिए नये तरह के युद्ध की जरूरत समझी और पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ पैलेस्टाइन्व (पीएफएलपी) नामक मशहूर संगठन की बुनियाद रखी।
हब्बाश के लिए अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की समझ और घटनाओं के आपसी अंतर्संबंध इतने साफ थे कि वे मध्यपूर्व में साम्राज्यवाद के अस्तित्व, उसके स्वरूपों, उसके उत्पीडन और उसके खिलाफ निर्णायक युद्ध की जरूरत को मध्यपूर्व के किसी भी नेता से अधिक समझ रहे थे. इसलिए उन्होंने सिर्फ फलस्तीन की मुक्ति तक ही अपने को सीमित नहीं रखा. वे यह जानते थे कि उनका देश साम्राज्यवाद के मंसूबों के तहत उत्पीडन का शिकार है और इसके पतन के बगैर फलस्तीन आजाद नहीं हो सकता. इसके लिए पूरे अरब जगत और पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ संघर्षों की जरूरत और उनसे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष की एकता के महत्व को उन्होंने समझा. यही वजह रही कि हब्बाश के पीएफएलपी ने पीएलओ के एक और घटक फतह से बिल्कुल भिन्न रास्ता अपनाया. फतह ने अपने को फलस्तीनी चरित्र दिया और उसने अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही सशस्त्र संघर्ष का सहारा लिया और इसके साथ-साथ कूटनीतिक कार्रवाइयां जारी रखीं. इसके उलट पीएफएलपी ने आरंभ से ही क्रांतिकारी कार्रवाइयों को अपनाया.
हब्बाश ने अपने को वैचारिक तौर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद से समृद्ध किया. उन्होंने अपने उेश्यों के लिए क्रांतिकारी हिंसा का रास्ता चुना, जिसके बारे में उन्होंने 1967 में पीएफएलपी के उद्धाटन वक्तव्य में कहा-क्रांतिकारी हिंसा एकमात्र भाषा है, जिसे दुश्मन समझता है. पीएफएलपी ने जायनिस्ट दुश्मन के खिलाफ संघर्ष को ऐतिहासिक कार्यभार घोषित किया और उनके द्वारा कब्जा की हुई भूमि को नरक में बदल देने का आह्वान किया. 1969 में पीएफएलपी ने खुद को एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन घोषित किया और यह एलान किया कि वह साम्राज्यवाद और अरब प्रतिक्रियावाद के खिलाफ लडेगा. पीएफएलपी ने फलस्तीन को मुक्त करने के संघर्ष को व्यापक राजनीतिक-सामाजिक क्रांति के एक हिस्से के तौर पर देखा.
हब्बाश का कहना था कि फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष सिर्फ फलस्तीन को यहूदीवादियों से मुक्त कराने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उेश्य अरब जगत को पश्चिमी औपनिवेशिक ताकतों से मुक्त कराना भी है. इसके अलावा उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि इस्राइल पर विजय तभी हासिल हो सकती है जब पारंपरिक अरब सरकारें क्रांतिकारी शासन द्वारा हटा दी जायें.
60 का दशक दुनिया की उत्पीडित जनता के लिए सबसे सौभाग्यशाली दशकों में से था. यह वह दौर था जब दुनिया के अनेक देशों में उत्पीडित जनता साम्राज्यवादी, सामंती और उत्पीडक शासकों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्षों के नये-नये रूप तलाश रही थी और नये मोरचों पर अपने दुश्मनों को मात दे रही थी. भारत में नक्सलबाडी के रूप में एक सुव्यवस्थित क्रांतिकारी आंदोलन जन्म ले रहा था, चीन माओ के नेतृत्व में सांस्कृतिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था और वियतनाम में उसकी बहादुर जनता के अपराजेय प्रतिरोध के कारण अमेरिका अपने इतिहास के सबसे अपमानजनक पराजय की ओर बढ रहा था. पेरिस में भी छात्रों का आंदोलन उभर रहा था. जॉर्ज हब्बाश के नेतृत्व में पीएफएलपी इन संघर्षों की उत्तेजना और तकनीक से कटा हुआ नहीं था. वह उनसे सीख रहा था और समृद्ध हो रहा था. इसी दौर में पीएफएलपी ने चीन और वियतनाम के गुरिल्ला युद्ध से गुरिल्ला तकनीक अपनायी और फलस्तीन-अरब मुक्ति संघर्ष में एक नये दौर की शुरुआत हुई.
हब्बाश का मानना था कि फलस्तीन की मुक्ति के लिए चीन और वियतनाम के रास्ते उपयुक्त हैं. हालांकि एक समय हब्बाश फिदायीन हमलों के बडे विरोधी रहे थे. लेकिन नयी परिस्थितियों में उन्होंने पाया कि गुरिल्ला युद्ध एक अनिवार्यता हो गया है. इस कारण से हो रही हिंसा के बारे में पूछने पर वे कहते-हमें दोष मत दो, दोष इस्राइलियों को दो जो हमारे युद्ध के स्वरूप को बिगाडने की कोशिश करते हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ सहित दुनिया की बडी ताकतों ने इस्राइल की स्थापना करने के बाद फलस्तीनियों को भुला दिया था. उनके लिए मानो फलस्तीनियों की व्यथा और उनका नारकीय-गुलामीभरा जीवन था ही नहीं. उनके संघर्षों की ओर और उनकी पीडा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता था. 1970 में पीएफएलपी ने दुनिया का ध्यान फलस्तीन संघर्ष की ओर आकर्षित करने के लिए उग्र रणनीति अपनायी. उसके योद्धाओं ने दो वायुयानों को हाइजैक किया और नष्ट कर दिया.
हब्बाश का कहना था कि जब हम एक हवाई जहाज हाइजैक करते हैं तो यह सौ इस्राइलियों को युद्ध में मारने से ज्यादा प्रभावकारी होता है...दशकों से विश्व जनमत न तो फलस्तीन के पक्ष में और न इसके खिलाफ रहा है. उन्होंने सामान्यतः हमें नजरअंदाज किया है. कम से कम अब दुनिया हमारे बारे में बात तो करती है. वे कहते-इस्राइली बिना अमेरिकी समर्थन के कुछ भी नहीं कर सकते हैं. वे उस सबके जिम्मेवार हैं, जो हमारे शिविरों में हो रहा है. फलस्तीनी शरणार्थी शिविर यहूदियों के लिए बने नाजी यातना शिविरों से थोडे बेहतर हैं. हालांकि बाद में पीएफएलपी ने पश्चिमी सरकारों पर हमलों की रणनीति को त्याग दिया लेकिन उसने इस्राइली आक्रमणकारियों पर ऐसे हमले जारी रखे.फलस्तीननियों1980 में हब्बाश को दिल का एक दौरा पडा और उन्हें मजबूरी में कामकाज से अलग होना पडा. 1990 में वे सीरिया और जॉर्डन में रहे. 1993 में जब यासर अराफात ने ओस्लो समझौता किया तो पीएफएलपी ने अराफात पर आरोप लगाया कि वे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष को बेच आये हैं. इस समझौते के तहत पीएलओ ने उन इलाकों में जिन पर इस्राइल ने 1967 के बाद से अधिकार कर लिया था, फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के साथ सीमित शासन को स्वीकार कर लिया. यह फलस्तीनी मुक्E0��ि आंदोलन के पारंपरिक उेश्य-फलस्तीन से एक इस्राइली यहूदी राज्य की जगह एक लोकतांत्रिक, धर्मनरिपेक्ष राज्य के गठन जिसमें सभी धर्मों-मूलों को लोग समानता के साथ रह सकें-से पीछे हटना था. इस समझौते में उन फलस्तीनियों को लिए कोई चिंता नहीं दिखती थी, जो दूसरे देशों में निर्वासित जीवन जी रहे थे. उनके लौटने का कोई प्रावधान इसमें नहीं था और न ही यह इस्राइल पर किसी भी तरह बाध्यकारी था कि वह फलस्तीनियों को उनके अधिकार सौंपे. वे इस बात को समझते थे कि ओस्लो समझौते के बाद पीएलओ अरबों का समर्थन खो देगा, क्योंकि इस समझौते में अरब-इस्राइल विवाद के केंद्र में नहीं रखा गया है और मामले के केवल फलस्तीन तक सीमति रखा गया है. वे इससे चिंतित थे कि यह समझौता फलस्तीनी एकता को खत्म कर देगा. ओस्लो समझौते के विरोध के लिए पीएफएलपी ने ब्लॉक-10 नामक समूह बनाया, जिसमें इसके अलावा हमास और इस्लामिक जेहाद समेत नौ और संगठन थे. फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के बाद भी हब्बाश ने कभी भी उसे मान्यता नहीं दी और न उसके अधिकार क्षेत्र में आनेवाली भूमि पर कदम रखे.
1998 में एक साक्षात्कार में हब्बाश ने कहा था- इस्राइलियों के साथ काम करने की कूटनीति के लिए कोई जगह नहीं है.हब्बाश यासर अराफात से कभी भी सहमत नहीं रहे. उन्होंने अराफात पर आरोप लगाया कि अराफात ने यहूदीवाद के असली चरित्र को भुला दिया है और ओस्लो समझौते के परिणाम फलस्तीनी लोगों के लिए त्रासद रहेंगे. हब्बाश उन संगठनों के नजदीक थे जो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखते थे. उनका कहना था- हम हमास से जुडे हुए हैं. हरेक फलस्तीनी को अपने घर, अपनी जमीन, अपने परिवार और अपने सम्मान के लिए लडने का अधिकार है-ये उसके अधिकार हैं. अंत-अंत तक उन्होंने इसके कोई संकेत नहीं दिये कि उनका फ्रंट सैन्य कार्रवाइयों को स्थगित करने का इरादा रखता है. वे कहते-सशस्त्र संघर्ष विवाद की प्रकृति पर निर्भर करता है-जो कि दुश्मन की प्रकृति द्वारा तय होता है.
अपने अंतिम दिनों में हब्बाश ने युद्धरत फलस्तीनी धडों की एकता और गाजा की दीवारबंदी के खिलाफ युद्ध के लिए आह्वान किया. हब्बाश कहते थे-अरब राष्ट्रवाद और स्थानीय सक्रियता के बीच जुडाव जरूरी है.
आज हब्बाश अम्मान के एक कब्रिस्तान में गहरी नींद सो रहे हैं. उनके सम्मान में फलस्तीनी राष्ट्रीय झंडा झुका रहा और फलस्तीनियों ने शोक मनाया. वे जीवनपर्यंत फलस्तीन की क्रांति के नायक रहे. यहां तक कि वे लोग भी, जो हब्बाश से असहमत थे, वे हब्बाश को फलस्तीनी क्रांति की चेतना कहते थे. वे एक ईसाई थे और उनका संघर्ष फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को रेखांकित करता है.
जॉर्ज हब्बाश अपने फलस्तीन को कभी मुक्त हुआ नहीं देख सके, लेकिन उन्होंने फलस्तीनी जनता में और उसकी संघर्षचेतना में कभी यकीन भी नहीं खोया. फलस्तीन कासपना, आजादी और बराबरी का सपना, प्रतिरोध और संघर्ष की परंपरा जब तक जिंदा रहेगी, जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम जिंदा रहेंगे...और दुनिया उस तरह मुक्त होगी, जिस तरह उन्होंने चाहा था-मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर, मजदूरों, किसानों और व्यापक जनता के निर्णायक संघर्षों के जरिये।
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सभी क्रांतिकारियों को निश्चित तौर पर मार्क्सवादी होना चाहिए, क्योंकि माक्सर्वाद मजदूर वर्ग की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति है.
-जॉर्ज हब्बाश
फलस्तीनियों के बेवतन होने के 50 वें साल में उनके हकीम ने उन्हें अलविदा कह दिया. यह पूरी दुनिया के जनसंघर्षों, छापामार योद्धाओं और मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रांतिकारियों के लिए एक उदास कर देनेवाली खबर थी. यह हर तरह के शोषण के खात्मे और बराबरी का सपना देखनेवाले लोगों के लिए आंसुओं से भरी हुई खबर थी-आंसुओं, खून और पसीने से भरी हुई, जो जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम के जीवन का हिस्सा रहे. जॉर्ज हब्बाश नहीं रहे. 82 साल की उम्र में जब उन्होंने अपनी आंखें बंद कीं, उनके वतन के 40 लाख लोग-एक पूरा का पूरा देश-अपनी अनेक पीढियों के शोक, पीडा और अपराजेय लडाइयों के साथ अब भी निर्वासित, बेघरबार और बेजमीन बने हुए हैं. वे एक ऐसे देश के बाशिंदे हैं, जिसकी अपनी कोई जमीन नहीं रही. उनकी जमीन उनसे छीन कर एक दूसरे देश को दे दी गयी और वह दूसरा्व देश लगातार अपनी घेराबंदी उनके चारों ओर कसता जा रहा है.
हब्बाश 2 अगस्त, 1926 को लिड्डा में जन्मे थे. उनका परिवार एक यूनानी ऑर्थोडॉक्स ईसाई परिवार था. उनका परिवार व्यापार करता था और काफी संपन्न था. जब हब्बाश 10 वर्ष के थे, 1936 में विद्रोह और क्रांतिकारी संघर्ष से उनका पहला परिचय हुआ. यह महान फलस्तीनी विद्रोह के फूट पडने का दौर था. बाद में, अभी से लगभग 10 साल पहले एक इंटरव्यू के दौरान हब्बाश ने उन दिनों को याद किया. उन्होंने याद किया कि किस तरह फलस्तीनी राष्ट्रवादी आंदोलनकारी ब्रिटेन के खिलाफ बडे विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया करते थे. उन्होंने उन शिक्षकों को याद किया, जिन्होंने उन सबमें संघर्ष की भावना भरी थी और अपने छात्रों को अपनी मातृभूमि के लिए संघर्ष को प्रोत्साहित किया था. हब्बाश ने उन्हें भी याद किया था, जिन्होंने दुनिया के इस सबसे लंबे युद्ध में अपनी जमीन और अपने लोगों के लिए महान शहादतें दीं.
जॉर्ज हब्बाश उन्हीं शहादतों, उन्हीं संघर्षों, उन्हीं लडाइयों और मुक्ति के उन्हीं सपनों की उपज थे. 1948 में हब्बाश अपने परिवार के साथ एक शरणार्थी बन गये, जब इस्राइल की स्थापना की गयी और फलस्तीन में जायनिस्ट हमलावर घुस आये. लाखों फलस्तीनी अपने घरों से जबरन खदेड दिये गये. फलस्तीनियों के जेहन में यह घटना अल नकबा के नाम से याद है।
हब्बाश के परिवार को लेबनान में शरण लेनी पडी. वहां रहते हुए हब्बाश का नामांकन बेरूत स्थित अमेरिका विश्वविद्यालय में हो गया, जहां उन्होंने मेडिकल की पढाई की. एक बातचीत में हब्बाश ने तबके लेबनानी राष्ट्रपति डॉ बायर्ड डोडगे की बातों को याद किया है-वे हमसे कहते कि हमें अमेरिका के बारे में बताओ जो कि इंसाफ, आजादी और मानवतावादी उसूलों के लिए खडा है. लेकिन हम उनकी बातों में, जो वे अमेरिका के बारे में कह रहे होते और अमेरिका जो कर रहा होता-इस्राइल और यहूदीवाद का समर्थन-में विरोधाभास देखते.
हब्बाश ने 1951 में मेडिकल की अपनी पढाई पूरी की. उन्होंने कुछ समय तक प्रैक्टिस भी की. उन्होंने उन दिनों अपनी जन्मभूमि लिड्डा की यात्रा की, जब वह एक जायनिस्ट हत्यारे गिरोह के कब्जे में थी. शहर पर इस्राइली सुरक्षा बलों द्वारा चलाये जा रहे हगाना नामक गिरोह की मदद से शासन कर रहे उक्त जायनिस्ट गिरोह ने शहर को लगभग श्मशान में तबदील कर दिया था. शहर के 20 हजार बाशिंदों का सफाया कर दिया गया. अब हम इस घटना को लिड्डा डेथ मार्च्व के नाम से जानते हैं. इस्राइली इतिहासकारों के अनुसार इसमें सिर्फ 335 आदमी, औरतें और बच्चे मारे गये, जबकि अन्य स्रोत इससे कहीं अधिक की संख्या बताते हैं. इस घटना के पहले 426 लोगों की हत्या जायनिस्ट बलों ने कर दी थी. विस्थापित फलस्तीनी जॉर्डन में शरण ले रहे थे. हब्बाश जॉर्डन स्थित इन शरणार्थी शिविरों में डॉक्टर के रूप में काम कर रहे थे. यहां रोज उनका सामना निर्वासन के कठोर जीवन और इस्राइली क्रूरता से होता. धीरे-धीरे वे मिस्र के राष्ट्रपति कमाल अब्दुल नासिर के अखिल अरब राष्ट्रवाद्व के करीब आये.
1957 में उन्हें जॉर्डन छोडने पर मजबूर होना पडा, क्योंकि तत्कालीन सरकार ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी. इसके लगभग एक साल बाद, 1958 में अमेरिका विवि, बेरूत के पूर्व छात्रों को लेकर हब्बाश ने अरब नेशनलिस्ट मूवमेंट शुरू किया. जो कि अम्मान और जॉर्डन में सक्रिय था. उनकी कोशिश थी कि इस्राइल के विरुद्ध सारा अरब जगत एक हो जाये.
1967 में इस्राइल-अरब के बीच छह दिवसीय युद्ध हुआ, जिसने मध्यपूर्व के भावी इतिहास की दिशा तय की. इस युद्ध में अरबों की पराजय हुई और इस्राइल ने पूर्वी येरुशेलम, पश्चिमी तट और गाजा पट्टी पर कब्जा कर लिया.
इलाके में बढते इस्राइली प्रभाव, मध्यपूर्व में अमेरिकी हस्तक्षेप, इस्राइल को खुली अमेरिकी मदद और अरब जगत पर विभिन्न रूपों में जायनिस्ट हमलों ने हब्बाश के लिए यह साफ कर दिया कि शांतिपूर्ण और समझौतावादी संघर्षों से कुछ नहीं होनेवाला. उन्होंने फलस्तीन की मुक्ति के लिए नये तरह के युद्ध की जरूरत समझी और पॉपुलर फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ पैलेस्टाइन्व (पीएफएलपी) नामक मशहूर संगठन की बुनियाद रखी।
हब्बाश के लिए अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों की समझ और घटनाओं के आपसी अंतर्संबंध इतने साफ थे कि वे मध्यपूर्व में साम्राज्यवाद के अस्तित्व, उसके स्वरूपों, उसके उत्पीडन और उसके खिलाफ निर्णायक युद्ध की जरूरत को मध्यपूर्व के किसी भी नेता से अधिक समझ रहे थे. इसलिए उन्होंने सिर्फ फलस्तीन की मुक्ति तक ही अपने को सीमित नहीं रखा. वे यह जानते थे कि उनका देश साम्राज्यवाद के मंसूबों के तहत उत्पीडन का शिकार है और इसके पतन के बगैर फलस्तीन आजाद नहीं हो सकता. इसके लिए पूरे अरब जगत और पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ संघर्षों की जरूरत और उनसे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष की एकता के महत्व को उन्होंने समझा. यही वजह रही कि हब्बाश के पीएफएलपी ने पीएलओ के एक और घटक फतह से बिल्कुल भिन्न रास्ता अपनाया. फतह ने अपने को फलस्तीनी चरित्र दिया और उसने अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही सशस्त्र संघर्ष का सहारा लिया और इसके साथ-साथ कूटनीतिक कार्रवाइयां जारी रखीं. इसके उलट पीएफएलपी ने आरंभ से ही क्रांतिकारी कार्रवाइयों को अपनाया.
हब्बाश ने अपने को वैचारिक तौर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद से समृद्ध किया. उन्होंने अपने उेश्यों के लिए क्रांतिकारी हिंसा का रास्ता चुना, जिसके बारे में उन्होंने 1967 में पीएफएलपी के उद्धाटन वक्तव्य में कहा-क्रांतिकारी हिंसा एकमात्र भाषा है, जिसे दुश्मन समझता है. पीएफएलपी ने जायनिस्ट दुश्मन के खिलाफ संघर्ष को ऐतिहासिक कार्यभार घोषित किया और उनके द्वारा कब्जा की हुई भूमि को नरक में बदल देने का आह्वान किया. 1969 में पीएफएलपी ने खुद को एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी आंदोलन घोषित किया और यह एलान किया कि वह साम्राज्यवाद और अरब प्रतिक्रियावाद के खिलाफ लडेगा. पीएफएलपी ने फलस्तीन को मुक्त करने के संघर्ष को व्यापक राजनीतिक-सामाजिक क्रांति के एक हिस्से के तौर पर देखा.
हब्बाश का कहना था कि फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष सिर्फ फलस्तीन को यहूदीवादियों से मुक्त कराने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका उेश्य अरब जगत को पश्चिमी औपनिवेशिक ताकतों से मुक्त कराना भी है. इसके अलावा उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि इस्राइल पर विजय तभी हासिल हो सकती है जब पारंपरिक अरब सरकारें क्रांतिकारी शासन द्वारा हटा दी जायें.
60 का दशक दुनिया की उत्पीडित जनता के लिए सबसे सौभाग्यशाली दशकों में से था. यह वह दौर था जब दुनिया के अनेक देशों में उत्पीडित जनता साम्राज्यवादी, सामंती और उत्पीडक शासकों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्षों के नये-नये रूप तलाश रही थी और नये मोरचों पर अपने दुश्मनों को मात दे रही थी. भारत में नक्सलबाडी के रूप में एक सुव्यवस्थित क्रांतिकारी आंदोलन जन्म ले रहा था, चीन माओ के नेतृत्व में सांस्कृतिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था और वियतनाम में उसकी बहादुर जनता के अपराजेय प्रतिरोध के कारण अमेरिका अपने इतिहास के सबसे अपमानजनक पराजय की ओर बढ रहा था. पेरिस में भी छात्रों का आंदोलन उभर रहा था. जॉर्ज हब्बाश के नेतृत्व में पीएफएलपी इन संघर्षों की उत्तेजना और तकनीक से कटा हुआ नहीं था. वह उनसे सीख रहा था और समृद्ध हो रहा था. इसी दौर में पीएफएलपी ने चीन और वियतनाम के गुरिल्ला युद्ध से गुरिल्ला तकनीक अपनायी और फलस्तीन-अरब मुक्ति संघर्ष में एक नये दौर की शुरुआत हुई.
हब्बाश का मानना था कि फलस्तीन की मुक्ति के लिए चीन और वियतनाम के रास्ते उपयुक्त हैं. हालांकि एक समय हब्बाश फिदायीन हमलों के बडे विरोधी रहे थे. लेकिन नयी परिस्थितियों में उन्होंने पाया कि गुरिल्ला युद्ध एक अनिवार्यता हो गया है. इस कारण से हो रही हिंसा के बारे में पूछने पर वे कहते-हमें दोष मत दो, दोष इस्राइलियों को दो जो हमारे युद्ध के स्वरूप को बिगाडने की कोशिश करते हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ सहित दुनिया की बडी ताकतों ने इस्राइल की स्थापना करने के बाद फलस्तीनियों को भुला दिया था. उनके लिए मानो फलस्तीनियों की व्यथा और उनका नारकीय-गुलामीभरा जीवन था ही नहीं. उनके संघर्षों की ओर और उनकी पीडा की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता था. 1970 में पीएफएलपी ने दुनिया का ध्यान फलस्तीन संघर्ष की ओर आकर्षित करने के लिए उग्र रणनीति अपनायी. उसके योद्धाओं ने दो वायुयानों को हाइजैक किया और नष्ट कर दिया.
हब्बाश का कहना था कि जब हम एक हवाई जहाज हाइजैक करते हैं तो यह सौ इस्राइलियों को युद्ध में मारने से ज्यादा प्रभावकारी होता है...दशकों से विश्व जनमत न तो फलस्तीन के पक्ष में और न इसके खिलाफ रहा है. उन्होंने सामान्यतः हमें नजरअंदाज किया है. कम से कम अब दुनिया हमारे बारे में बात तो करती है. वे कहते-इस्राइली बिना अमेरिकी समर्थन के कुछ भी नहीं कर सकते हैं. वे उस सबके जिम्मेवार हैं, जो हमारे शिविरों में हो रहा है. फलस्तीनी शरणार्थी शिविर यहूदियों के लिए बने नाजी यातना शिविरों से थोडे बेहतर हैं. हालांकि बाद में पीएफएलपी ने पश्चिमी सरकारों पर हमलों की रणनीति को त्याग दिया लेकिन उसने इस्राइली आक्रमणकारियों पर ऐसे हमले जारी रखे.फलस्तीननियों1980 में हब्बाश को दिल का एक दौरा पडा और उन्हें मजबूरी में कामकाज से अलग होना पडा. 1990 में वे सीरिया और जॉर्डन में रहे. 1993 में जब यासर अराफात ने ओस्लो समझौता किया तो पीएफएलपी ने अराफात पर आरोप लगाया कि वे फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष को बेच आये हैं. इस समझौते के तहत पीएलओ ने उन इलाकों में जिन पर इस्राइल ने 1967 के बाद से अधिकार कर लिया था, फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के साथ सीमित शासन को स्वीकार कर लिया. यह फलस्तीनी मुक्E0��ि आंदोलन के पारंपरिक उेश्य-फलस्तीन से एक इस्राइली यहूदी राज्य की जगह एक लोकतांत्रिक, धर्मनरिपेक्ष राज्य के गठन जिसमें सभी धर्मों-मूलों को लोग समानता के साथ रह सकें-से पीछे हटना था. इस समझौते में उन फलस्तीनियों को लिए कोई चिंता नहीं दिखती थी, जो दूसरे देशों में निर्वासित जीवन जी रहे थे. उनके लौटने का कोई प्रावधान इसमें नहीं था और न ही यह इस्राइल पर किसी भी तरह बाध्यकारी था कि वह फलस्तीनियों को उनके अधिकार सौंपे. वे इस बात को समझते थे कि ओस्लो समझौते के बाद पीएलओ अरबों का समर्थन खो देगा, क्योंकि इस समझौते में अरब-इस्राइल विवाद के केंद्र में नहीं रखा गया है और मामले के केवल फलस्तीन तक सीमति रखा गया है. वे इससे चिंतित थे कि यह समझौता फलस्तीनी एकता को खत्म कर देगा. ओस्लो समझौते के विरोध के लिए पीएफएलपी ने ब्लॉक-10 नामक समूह बनाया, जिसमें इसके अलावा हमास और इस्लामिक जेहाद समेत नौ और संगठन थे. फलस्तीनी प्राधिकार के गठन के बाद भी हब्बाश ने कभी भी उसे मान्यता नहीं दी और न उसके अधिकार क्षेत्र में आनेवाली भूमि पर कदम रखे.
1998 में एक साक्षात्कार में हब्बाश ने कहा था- इस्राइलियों के साथ काम करने की कूटनीति के लिए कोई जगह नहीं है.हब्बाश यासर अराफात से कभी भी सहमत नहीं रहे. उन्होंने अराफात पर आरोप लगाया कि अराफात ने यहूदीवाद के असली चरित्र को भुला दिया है और ओस्लो समझौते के परिणाम फलस्तीनी लोगों के लिए त्रासद रहेंगे. हब्बाश उन संगठनों के नजदीक थे जो सशस्त्र संघर्ष में यकीन रखते थे. उनका कहना था- हम हमास से जुडे हुए हैं. हरेक फलस्तीनी को अपने घर, अपनी जमीन, अपने परिवार और अपने सम्मान के लिए लडने का अधिकार है-ये उसके अधिकार हैं. अंत-अंत तक उन्होंने इसके कोई संकेत नहीं दिये कि उनका फ्रंट सैन्य कार्रवाइयों को स्थगित करने का इरादा रखता है. वे कहते-सशस्त्र संघर्ष विवाद की प्रकृति पर निर्भर करता है-जो कि दुश्मन की प्रकृति द्वारा तय होता है.
अपने अंतिम दिनों में हब्बाश ने युद्धरत फलस्तीनी धडों की एकता और गाजा की दीवारबंदी के खिलाफ युद्ध के लिए आह्वान किया. हब्बाश कहते थे-अरब राष्ट्रवाद और स्थानीय सक्रियता के बीच जुडाव जरूरी है.
आज हब्बाश अम्मान के एक कब्रिस्तान में गहरी नींद सो रहे हैं. उनके सम्मान में फलस्तीनी राष्ट्रीय झंडा झुका रहा और फलस्तीनियों ने शोक मनाया. वे जीवनपर्यंत फलस्तीन की क्रांति के नायक रहे. यहां तक कि वे लोग भी, जो हब्बाश से असहमत थे, वे हब्बाश को फलस्तीनी क्रांति की चेतना कहते थे. वे एक ईसाई थे और उनका संघर्ष फलस्तीनी मुक्ति संघर्ष के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को रेखांकित करता है.
जॉर्ज हब्बाश अपने फलस्तीन को कभी मुक्त हुआ नहीं देख सके, लेकिन उन्होंने फलस्तीनी जनता में और उसकी संघर्षचेतना में कभी यकीन भी नहीं खोया. फलस्तीन कासपना, आजादी और बराबरी का सपना, प्रतिरोध और संघर्ष की परंपरा जब तक जिंदा रहेगी, जॉर्ज हब्बाश उर्फ हकीम जिंदा रहेंगे...और दुनिया उस तरह मुक्त होगी, जिस तरह उन्होंने चाहा था-मार्क्सवाद-लेनिनवाद के रास्ते पर, मजदूरों, किसानों और व्यापक जनता के निर्णायक संघर्षों के जरिये।
from hashiya blog
पूरी दुनिया की आधी दुनिया को उनके अधिकार की आवाज को ऊँचा करने वाली सीमोन द बोउवार ः-
यह वर्ष प्रसिद्ध नारीवादी विचारक, लेखक और एक्टिविस्ट सिमोन द बोउवार का जन्मशती वर्ष है।उनका जन्म 9 जनवरी 1908 को पेरिस फ्रांस में हुआ।सिमोन ने दार्शनिक, राजनैतिक और अन्य सामाजिक विषयों पर कई पुस्तकें लिखी जिनमें ‘द सेकेंड सेक्स’ सबसे अधिक चर्चित रही।इस किताब में उन्होने स्त्री शरीर और मन के बारे में पितृसत्ता द्वारा बनाए गए तमाम मिथकों और पारंपरिक विश्वाशों को खुली चुनौती दी। उन्होने सिद्ध किया कि स्त्री पैदा नहीं होती वरन बना दी जाती है।उन्होने बताया की पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के चरित्र व प्रकृति को जान बूझ कर एक रहस्य के आवरण में पेश किया जाता है। जिससे समाज में उसकी हैसियत एक ‘अन्या’ की बना दी जाती है। ‘द सेकेंड सेक्स’ का हिन्दी अनुवाद प्रभा खेतान ने ‘स्त्री उपेक्षिता’ शीर्षक से किया है। सिमोन जीवनपर्यंत स्त्रियों की मुक्ति व मानवजाति कि बेहतरी के लिए संघर्षरत रहीं। हम उनके जन्मशताब्दी वर्ष पर सभी छात्रों से उनकी रचनाओं का अध्ययन करने व उन पर विचार गोष्टियाँ आयोजित करने के अलावा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम लेने का आह्वान करते हैं। हम आने वाली पोस्टों में उनकी इंटरनेट पर उपलब्ध कुछ रचनाओं का लिंक प्रेषित करेंगे। साभार:- परिसरवर्डप्रेस
यह वर्ष प्रसिद्ध नारीवादी विचारक, लेखक और एक्टिविस्ट सिमोन द बोउवार का जन्मशती वर्ष है।उनका जन्म 9 जनवरी 1908 को पेरिस फ्रांस में हुआ।सिमोन ने दार्शनिक, राजनैतिक और अन्य सामाजिक विषयों पर कई पुस्तकें लिखी जिनमें ‘द सेकेंड सेक्स’ सबसे अधिक चर्चित रही।इस किताब में उन्होने स्त्री शरीर और मन के बारे में पितृसत्ता द्वारा बनाए गए तमाम मिथकों और पारंपरिक विश्वाशों को खुली चुनौती दी। उन्होने सिद्ध किया कि स्त्री पैदा नहीं होती वरन बना दी जाती है।उन्होने बताया की पुरुष प्रधान समाज में स्त्री के चरित्र व प्रकृति को जान बूझ कर एक रहस्य के आवरण में पेश किया जाता है। जिससे समाज में उसकी हैसियत एक ‘अन्या’ की बना दी जाती है। ‘द सेकेंड सेक्स’ का हिन्दी अनुवाद प्रभा खेतान ने ‘स्त्री उपेक्षिता’ शीर्षक से किया है। सिमोन जीवनपर्यंत स्त्रियों की मुक्ति व मानवजाति कि बेहतरी के लिए संघर्षरत रहीं। हम उनके जन्मशताब्दी वर्ष पर सभी छात्रों से उनकी रचनाओं का अध्ययन करने व उन पर विचार गोष्टियाँ आयोजित करने के अलावा विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम लेने का आह्वान करते हैं। हम आने वाली पोस्टों में उनकी इंटरनेट पर उपलब्ध कुछ रचनाओं का लिंक प्रेषित करेंगे। साभार:- परिसरवर्डप्रेस
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